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________________ पुरुषार्थ सिद्धयुपाय श्रित्वा विविक्तवसतिं समस्तसावद्ययोगमपनीय | सर्वेन्द्रियार्थ विरतः कायमनोवचनगुप्तिभिस्तिष्ठेत् ॥ १५३ धर्मध्यानासक्तो वासरमतिवाह्य विहितसान्ध्य विधिम् । शुचिसंस्तरे त्रियामां गमयेत्स्वाध्यायजितनिद्रः ।। १५४ प्रातः प्रोत्थाय ततः कृत्वा तात्कालिक क्रियाकल्पम् 1 निर्वर्तयेद्यथोक्तं जिनपूजां प्रासुकै द्रव्यैः ।। १५५ उक्तेन ततो विधिना नत्वा दिवमं द्वितीयरात्रि च । अतिवाहयेत्प्रयत्नादधं च तृतीयदिवसस्य ।। १५६ इति यः षोडशयामान् गमयति परिमुक्तसकलसावद्यः । तस्य तदानीं नियतं पूर्णमहाव्रतं भवति ॥ १५७ भोगोपभोगतो: स्थावरी हिंसा भवेत् किलामीषाम् । भौगोगोविरहाद्भवति न लेशोऽपि हिंसायाः ।। १५८ वाग्गुतेर्नात्यनृतं न समस्तादानविरहतः स्तेयम् । नाब्रह्म मैथुनमुचः सङ्गो नागेऽप्यमूच्छंस्य ॥ १५९ इत्थमशेषितहिंसः प्रयाति स महायतित्वमुपचारात् । उदयति चरित्रमोहे लभते तु न संयमस्थानम् ।। १६०. भोगोपभोगमूला विरताविरतस्य नान्यतो हिंसा । अधिगम्य वस्तुतत्त्वं स्वशक्तिमपि तावपि त्याज्यो ।। १६१ Jain Education International समस्त आरम्भसे विमुक्त होकर और शरीरादिमें ममत्वको छोडकर उपवासको ग्रहण करे । । १५२ ।। पश्चात् एकान्त वसतिकाको आश्रय करके और समस्त सावद्ययोगको त्याग करके सर्व इन्द्रियों के विषयोंसे विरत रहता हुआ मन-वचन-कायकी गुप्तियों के साथ स्थित होवे ।। १५३ ।। इस प्रकार धर्मध्यानमें संलग्न रहकर, आधे दिनको बिता कर और सन्ध्याकालीन विधिको करके पवित्र संस्तर पर स्वाध्याय से निद्राको जीतता हुआ रात्रिको व्यतीत करे ।। १५४ ।। पुनः प्रातःकाल उठकर और तात्कालिक क्रियाकलापको करके प्रासुक द्रव्योंके द्वारा आगमोक्त विधिसे जिनदेवकी पूजनको करे ।। १५५ ॥ तदनन्तर पूर्वोक्त विधिसे शेष समस्त दिनको तथा दूसरी रात्रिको भी बिता करके तीसरे दिनके अर्धभागको प्रयत्नसे धर्मध्यानपूर्वक धर्मसाधन करते हुए बितावे ॥ १५६ ॥ । इस प्रकार जो गृहस्थ सर्वसावद्य कार्योको छोडकर सोलह पहरोंको बिताता है, उसके उस प्रोषधोपवासकालमें निश्चय करके पूर्ण अहिंसावत होता हैं, यह दूसरा प्रोषधोपवास शिक्षाव्रत है ॥। १५७ ।। भोग और उपभोगके कारणसे इन गृहस्थोंके स्थावर जीवोंकी हिंसा नियमसे होती हैं । किन्तु प्रोषधोपवासके समय भोगउपभोगके सेवनके अभाव से हिंसाका लेश भी उनके नहीं होता हैं ।। १५८।। उस समय वचनगुप्ति के पालनसे असत्य वचन भी नहीं है, समस्त अदत्तादानके अभाव से चोरी भी नहीं है, मैथुन -त्यागसे अब्रह्मभी नहीं हैं और शरीर में मूर्च्छा-रहित होनेसे उस गृहस्थ के परिग्रह भाव भी नहीं है ।। १५९ ।। इस प्रकार सम्पूर्ण प्रकारकी हिंसाओंसे वह श्रावक उस समय उपचारसे महाव्रती - पनेको प्राप्त होता हैं । किन्तु चारित्रमोहके कर्म के उदय होने से वह संयम स्थानको नहीं पाता हैं । १६० ।। भावार्थ - उपवासकालमें गृहस्थ के उक्त विधिसे किसी भी प्रकारका पापकार्य नहीं होता है, अतः उसके अणुव्रत भी महाव्रत जैसे हो जाते है । अर्थात् उप ११५ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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