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________________ श्रावकाचार-संग्रह एकमपि प्रजिघांसुनिहन्त्यनन्तान्यतस्तोऽवश्यम् । करणीयमशेषाणां परिहरणमनन्तकायानाम्।१६२ नवनीतं च त्याज्यं योनिस्थानं प्रतजीवानाम् । यद्वापि पिण्डशुद्धौ विरुद्धमभिधीयते किञ्चित् ।। १६३ अविरुद्धा अपि भोगा निजशक्तिमपेक्ष्य धीमता त्याज्याः । अत्याज्येष्वपि सीमा कार्यकदिवानिशोपभोग्यतया ॥ १६४ पुनरपि पूर्वकृतायां समीक्ष्य तात्कालिकी निजां शक्तिम् । सीमन्यन्तरसीमा प्रतिदिवसं भवति कर्तव्या ।। १६५ इति यः परिमितमोगैः सन्तुष्टस्त्यजति बहुतरान् भोगान् । बहुतरहिंसाविरहात्तस्याहिंसा विशिष्टा स्यात् ।। १६६ । विधिना दातगुणवता द्रव्यविशेषस्य जातरूपाया स्वपरानुग्रहहेतोः कर्तव्योऽवश्यमतिथये भागः।।१६७ संग्रहमुच्चस्थानं पादोदकमर्चनं प्रणामं च । वाक्कायमनःशुद्धिरेषणशुद्धिश्च विधिमाहुः ॥ १६८ ऐहिकफलानपेक्षा क्षान्तिनिष्कपटतानस्यत्वम । अविषादित्वमुदित्वे निरहङ्कारित्वमिति हि दातृगुणाः ॥ १६९ रागद्वेषासंयममददुःखभयादिकं न यत्कुरुते । द्रव्यं तदेव देयं सुतपःस्वाध्यायवृद्धिकरम् ।। १७० चारसे उन्हें महाव्रत कहा जा सकता हैं । किन्तु यतः उसके अभी संयमकी घातक प्रत्याख्यानावरण कषायका उदय हैं अतः निश्चयसे उसे महाव्रती या संयमस्थानका धारण नहीं कह सकते। देशव्रती श्रावकके भोग और उपभोग-मूलक ही हिंसा होती हैं, अन्य प्रकारसे नहीं। अतएव वस्तुतत्त्व को जानकर अपनी शक्तिके अबुसार भोग और उपभोगका त्याग करना चाहिए ॥१६१।।भोग और उपभोगके निमित्तसे एकभी कन्दमूलादि साधारणशरीर को घात करने की इच्छा वाला पुरुष उस शरीरमें रहने वाले अनन्त जीवों का घात करता है, इसलिए समस्त ही अनन्त कायिक वनस्पतियोंका सर्वथा परित्याग करना चाहिए ॥१६२।। बहुत जीवोंकी उत्पत्तिका स्थानभूत नवनीत (लोणी, मक्खन) भी त्याग करनेके योग्य हैं । तथा आहार की शुद्धिमें जो कोई भी वस्तु विरुद्ध (अग्राह्य या अभक्ष्य) कही गई है, उन सभी का त्याग करना चाहिए ।। १६३1, जो भोग शास्त्र-विरुद्ध नहीं हैं,उन्हें भी बुद्धिमान् लोग अपनी शक्ति को देखकर त्याग करे। तथा जो भोगोपभोग सर्वदा के लिए त्याग नहीं किये जा सकते है उनसे सेवनमें भी एक दिन रात्रि आदि की उपभोग्यतासे काल की सीमा करनी चाहिए ।। १४६॥ प्रथम की हुई सीमामें फिर भी तात्कालिक निज शक्ति को देखकरके सीमाके भीतर और भी अन्तर सीमा प्रतिदिन करने के योग्य है ।।१६५॥इस प्रकार जो गृहस्थ सीमित अल्प भोगोंसे सन्तुष्ट रहता हुआ अधिकांश भोगोंको त्यागता है,उसके अधिकतर हिंसाके अभावसे अहिंसा विशेषताको प्राप्त होती हैं ११६६।। यह भोगोपभोग नामक तीसरा शिक्षा व्रत है । दाताके गुणोंसे युक्त श्रावक को स्व-पर अनग्रहके हेतु विधि पूर्वक यथाजातरूपधारी अतिथि साधुके लिए द्रव्यविशेष का संविभाग अवश्य करना चाहिए।।१६७।।अतिथि का संग्रह (प्रतिग्रह) करना, उच्चस्थान देना, पाद-प्रक्षालन करना, पूजन करना,प्रणाम करना, तथा वचनशुद्धि, कायशुद्धि, मनःशुद्धि, और भोजनशुद्धि, इस नवधा भक्ति को आचार्योने दान देने की विधि कहा हैं।।२६८।। इस लोक सम्बन्धी किसी भी प्रकारके फल की अपेक्षा न रखना,क्षमा धारण करना,विषाद निष्कपटभाव रखना,ईया नकरना,विषादन करना, प्रमोद भाव रखना, और अहंकार न करना ये सातदाताके गुण कहे गये हैं ।।१६९।। जो वस्तू Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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