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________________ पुरापार्थसिद्धयुपाय ११७ पात्रं त्रिभेदमुक्तं संयोगो मोक्षकारणगणानाम् ।। अविरतसम्यग्दृष्टि. विरताविरतश्च सकलविरतश्च ।। १७१ हिंसाया पर्यायो लोभोऽत्र निरस्यते यतो दाने । तस्मादतिथिवितरणं हिंसाव्यपरणमेवेष्टम् ।। १७२ गृहमागताय गणिने मधकरवृत्त्या परानपीडयते । वितरति यों नातिथये स कथं न हि लोभवान् भवति ।। १७३ कृतमात्मार्थ मनये ददाति भक्तमिति भावितस्त्यागः । अतिविषाद विमुक्तः शिथिलितलोभो भवत्यहिसव ।। १७४ इयमेव समर्था धमस्वं मे मया समं नेतुम् । सततमिति भावनीया पश्चिमसल्लेखना भक्त्या ।। १७५ मरणान्तेऽवश्यमह विधिना सल्लेखनां करिष्यामि । इति भावनापरिणतोऽनागतमपि पालयदिदं शीलम ।। १७६ मरणेऽवश्यम्भाविनि कषायसल्लेख तातनुकरणमात्रे। रागादिमन्तरेण व्याप्रियमाणस्य नात्मघातोऽस्ति ।। १७७ यो हि कषायाविष्टः कुम्भकजलधूमकेतुविषशस्त्रैः । व्यपरोपयति प्राणान् तस्य स्यात्सत्यमात्मवधः ।। १७८ नीयन्तेऽत्र कषाया हिसाया हेतवो यतस्तनुताम् । सल्लेखनामपि ततः प्राहुरहिंसाप्रसिद्धयर्थम् । १७९ राग, द्वेष, असंयम, मद, दुःख और भय आदि को न करे और तप एवं स्वाध्याय की वृद्धि करे, वह द्रव्य अतिथि को देनेके योग्य हैं ॥१७०।। जिसमें मोक्षके कारण भूत सम्यग्दर्शनादि गुणों का संयोग हो. वह पात्र कहलाता हैं। उसके तीन भेद कहे गये है-उनमें अविरत सम्यग्दृष्टि जघन्य पात्र हैं,देशविरत मध्यम पात्र हैं और सकलविरत साधु उत्तम पात्र हैं । १७१॥ यतः पात्र को दान देने पर हिंसा का पर्यायभूत लोभ दूर होता हैं, अत: अतिथि को दान देना हिंसा का परित्याग ही कहा गया है।। १७२।। जो गृहस्थ अपने घर पर आये हुए, गुणशाली, मधुकरी वृत्तिसे दूसरों को पीडा नहीं पहुँचाने वाले ऐसे अतिथिके लिए दान नहीं देता है,वह लोभवाला कैसे नहीं हैं? अर्थात् अवश्य ही लोभी हैं ।।१७३।। जो अपने लिए बनाये गये भोजन को मनिके लिए देता हैं, अरति और विषादसे विमुक्त हैं, और लोभ जिसका शिथिल हो रहा है, ऐसे गृहस्थ का भावयुक्त त्याग (दान) अहिंसा स्वरूप ही हैं।।१७४।।भावार्थ-अतिथिके लिए उपयुक्त नवधाभक्तिसे दिया गया दान अहिंसा धर्म रूप ही हैं। यह अतिथि संविभाग नामक चौथा शिक्षाव्रत हैं। अबआचार्य सल्लेखना का निरूपण करते है-यह एक ही सल्लेखना मेरे धर्मरूपी धन को मेरे साथ ले जाने के लिए समर्थ है, इसलिए निरन्तर ही भक्तिसे अन्तिम (मारणान्ति की) सल्लेखना की भावना करना चाहिए ॥१७५।। ‘मरणके अन्त में (मरते समय ) मै अवश्य ही विधिपूर्वक सल्लेखना को करूँगा', इस प्रकार की भावनासे परिणत श्रावक को अनागत भी यह सल्लेखनारूप शीलब्रत पालन करना चाहिए ॥१.६।।अवश्यम्भाबी मरणके समय कषायों को कृश करने के साथशरीरके कृश करने में व्यापार करने वाले पुरुष को समाधिमरण रागादि भावोंके नहीं होनेसे आत्मघातरूप नहीं है।।१७७।। हाँ, जो पुरुष कषायाविष्ट होकर कुम्भक (श्वास-निरोध) जल, अग्नि, विष और शस्त्रादिकोंसे प्राणों का मात करता है, उसका वह मरण सचमुच आत्मघात हैं ॥१७८।। इस समाधिमरणमें यतः हिंसाके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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