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________________ श्रावकाचार-संग्रह इति यी व्रतरक्षार्थ सततं पालयति सकलशीलानि । वरयति पतिवरेव स्वयमेव तमुत्सुका शिवपदश्रीः ॥ १८० अतिचाराः सम्यक्त्वे व्रतेषु शोलेषु पञ्च पञ्चेति । सप्ततिरमी यथोदितशुद्धिप्रतिबन्धिनो हेयाः ॥ १८१ शङ्का तथैव काङ्क्षा विचिकित्सा संस्तवोऽन्यदृष्टीनाम् । मनसा च तत्प्रशंसा सम्यग्दृष्टेरतीचाराः ।। १८२ छेदनताडनबन्धाः भारस्यारोपणं समधिकस्य । पानान्नयोश्च रोधः पञ्चाहिंसाव्रतस्येति ।। १८३ मिथ्योपदेशदानं रहसोऽभ्याख्यान कूटलेखकृती । न्यासापहारवचनं साकार मन्त्रभेदश्च ।। १८४ प्रतिरूपव्यवहारः स्तेननियोगस्तदाहृतादानम् । राजविरोधातिक्रमहीनाधिकमानकरणे च ।। १८५ स्मरतीवाभिनिवेशानङ्गक्रीडान्य परिणयनकरणम्। अपरिगृहीतेत रयोर्गमने चेत्वरिकयोः पञ्च ।। १८६ वास्तुक्षेत्राष्टापद हिरण्यधनधान्यदासीनाम् । कुप्यस्य भेदयोरपि परिमाणातिक्रियाः पञ्च ॥ १८७ ऊर्ध्व मधस्तात्तिर्यक् व्यतिक्रमाः क्षेत्रवृद्धिराधानम् । स्मृत्यन्तरस्य गदिता: पञ्चेति प्रथमशीलस्य ।। १८८ ११८ प्रेषस्य संप्रयोजनमानयनं शब्दरूपविनिपात्तौ । क्षेपोऽपि पुद्गलानां द्वितीयशीलस्य पञ्चेति ॥ १८९ कन्दर्पः कौत्कुच्यं भोगानर्थक्यमपि च मौखर्यम् । असमीक्षिताधिकरणं तृतीयशीलस्य पञ्चेति ॥ १९० कारणभूत कषाय क्षीणता को प्राप्त कराये जाते है, अतः आचार्योंने सल्लेखना को अहिंसा की सिद्धि के लिए ही कहा है ।। १७९।। इस प्रकार जो गृहस्थ पुरुष अहिंसादि व्रतों की रक्षाके लिए निरन्तर सभी शीलव्रतों को पालता है, उसे शिवपदरूपलक्ष्मी उत्कण्ठित पतिवरा कन्या के समान स्वयं ही बरण करती हैं ॥ १८० ॥ सम्यग्दर्शनमें, पांचों व्रतों में तथा सल्लेखना सहित सातों शीलोंमें पांच-पांच अतिचार कहे गये हैं । वे सर्व मिलकर सत्तर होते है । ये अतीचार यथार्थ शुद्धिके प्रतिबन्धक है, अतः छोडने के योग्य है ।। ८१ ।। जिनोक्ततत्त्वमें शंका करना, सांसारिक भोगों की आकांक्षा रखना, ग्लानि करना, मिथ्यादृष्टियों की वचनसे स्तुति करना और मनसे उनकी प्रशंसा करना, ये पांच सम्यग्दर्शनके अतीचार हैं ।। १८२ ।। अपने अधीन मनुष्य- पशुओंके अंग छेदना, ताडन करना, बांधना, अधिक भार का लादना और अन्न-पान का निरोध करना ये पांच अहिंसा व्रत के अतीचार है ।। १८३॥ मिथ्या उपदेश देना, स्त्री-पुरुषों की गुप्त बातों को कहना, झूठे लेख लिखना, धरोहर के अपहारक वचन कहना और साकार मंत्रभेद ये पांच सत्याणुव्रत के अतीचार है ।। १८४ ।। प्रतिरूपक व्यवहार, स्तेन-प्रयोग, तदाहृतादान, विरुद्ध राज्यातिक्रम, और हीनाधिकमानोन्मान, ये पांच अचौ व्रत अतीचार है ।। १८५ ॥ कामतीव्राभिनिवेश, अनंगक्रीडा, अन्यविवाहकरण, अपरिगृहीतइत्वरिकागमन और परिगृहोत - इत्वरिकागमन, ये पाँच ब्रह्मचर्याणुवनके अतीचार है ॥ १८६॥ वास्तुक्षेत्र, हिरण्य- सुवर्ण, धन-धान्य, दासी दास और कुप्यके वस्त्र -भाजनरूप दोनों भेदों में भी स्वीकृत परिमाणका उल्लंघन करना, ये पांच परिग्रहपरिमाणुव्रत के अतीचार हैं ।। १८७। ऊर्ध्वातिक्रम, अधस्तात्व्यतिक्रम, तिर्यक् व्यतिक्रम, क्षेत्रवृद्धि और स्मृत्यन्तराधान, ये दिव्रतरूप प्रथम शीलके पांच अतीचार हैं ।। १८८ ।। प्रेष्य-प्रयोग, आनयन, शब्दानुपात, रूपानुपात, और पुद्गलक्षेप, ये पांच देशव्रतरूप द्वितीयशील अतीचार हैं ।। १८९॥ कन्दर्प, कौत्कुच्य, भोगानर्थक्य, मौखर्य और असमीक्षिताधिकरण,ये पांच अनर्थदंडव्रतरूप तृतीय शीलव्रतके अतीचार है ॥ १९०॥ वचनदुः प्रणिधान, मनोदा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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