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________________ अमितगतिकृतः श्रावकाचारः यदत्र सिद्धान्तविरोधि भाषितं विशोध्य सद्ग्राह्यमिमं मनीषिभिः । पलालमत्यस्य न सारकांक्षिभिः किमत्र शालिः परिगृह्यते जनैः ॥ ८ ॥ यावत्तिष्ठति शासन जिनपतेः पापापहारोद्यतं यावद् ध्वंसयते हिमेतररुचिविश्वं तमः शार्वरम् । यावद् धारयते महीध्रखचितं पातत्रयी विष्टपं तावच्छास्त्रमिदं करोतु विदुषाभ्यस्यस्यमानं मुम् ||९ ग्रहण करना चाहिए। जैसे कि धान्यरूप सारके इच्छुक पुरुष इस लोक में भूसेको छोडकर क्या शालिको ग्रहण नहीं करते हैं ? करते ही हैं ॥ ८ ॥ ग्रन्थकार की अन्तिम मंगल कामना जब तक पापोंके दूर करनेमें उद्यत यह जिनेन्द्रदेवका जैन शासन संसारमें विद्यमान रहे, जब तक उष्ण किरणवाला यह सूर्य रात्रिकालीन अन्धकारका नाश करता रहे, और जबतक तीनों वातवलय पर्वतों से व्याप्त इस विश्वको धारण करते रहें, तब तक पठन-पाठन रूपसे अभ्यास किया जाता हुआ यह उपासकाचार - शास्त्र विद्वानोंके आनन्दको करता रहे ।। ९ ।। ५४ Jain Education International ४२१ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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