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________________ ४९० श्रावकाचार-संग्रह संगचाउ जे करहिं जिय ताहं ण वय मज्छंति । अह कि लग्गहि चोरडा जे दूरे णासंति ॥७५ एह धम्म जो आयराइ बंमणु सुदु वि कोइ। सो सावउ कि सावयहं अण्णु कि सिरि मणि होइ।। मज्जु मंसु मह परिहरइ संपइ सावउ सोइ । पीरुक्खइ एरंडवणि किं ण भवाई होइ ।।७७ सावयधम्महि सयलहमि दाणु पहाणु सुवृत्तु । तं विजई विणएण सहु बुझिवि पत्तु अपत्तु॥७८ उत्तमु पत्तु मुणिदु जगि मज्झिमु सावउ सिट्ठ । अविग्यसम्माइट्ठि जणु पणिउ पत्तु कणिठ्ठ।।७९ पत्तहं जिणउरएसियहं तीहिमि देइ ज दाणु । कल्लाण पंचई लहिधि मुंजइ सोक्खणिहाणु ८० दसणरहिय कुपत्त जइ दिण्णइ ताह कुभोउ । खारघडइ अह णिवडियउ णीरु वि खार उ होइ ॥८१ हयगय-सुणहहं दारियहं मिच्छाविठिहि भोय । ते कुपत्तदाणंघिवह फल जाणहु बहुभेय' ।।८२ तं अपत्तु आगमि भणिउ ण उ वय दंसण जासु । णिप्फलु दिण्णउ होइ तसु जह ऊसरि वउ सासु ॥८३ हारिउ ते धणु अप्पणउं दिण्णु अपत्तहं जैण । 'उप्पाहं चोरहं अप्पियउ खोज ण पत्तउ केण । ८४ एक्कु वि तारइ भवजहिं वहु दायार सुपत्तु । सुपरोहण एक्क वि बहुय दीसइ पारहु णितु ॥८५ दाण "कुपत्तहं दोसडइ वोलिज्जइ ण हु भंति । पत्चरु पत्थरणाव कहिं दीसइ उत्तारंति ।।८६ जीव उत्कृप्ट रुपसे तो-तीन भवोंमें देब-मनुष्योंके सुख भोग कर और जघन्य रूपसे सात-आठ भवोंमें कर्म-रजको दूर कर मोक्षकों जाते हैं ।।७४।। जो जीव परिग्रहका त्याग करते हैं,उनके व्रत भंग नहीं होते है । क्या उन सुभटोंके पीछे चोर लग सकते है, जो उनकों देखकर दूरसे ही भागते है ।।७५।। जो कोई भी ब्राह्मण या शुद्र इन उपर्युक्त धर्मका आचरण करता हैं, वह श्रावक है। और क्या श्रावकके शिर पर कोई मणि रहता हे ॥७६। सम्प्रति इस पंचकाल में जो मद्य मांस और मधुका त्याग करता हैं, वही श्रायक है । क्या अन्य वृक्षोंके रहित एरण्ड-वन में छाया नहीं होती है ।।७।। श्रावकके सर्व धर्मोमे दान देना प्रधान धर्म कहा गया है । इसे पात्र-अपात्रका विवेक कर विनयके साथ देना चाहिए।।७८||जगत्मे उत्तम पात्र मनीन्द्र और मध्यमपात्र श्रावक कहा गया हैं । अविरत सम्यग्दृष्टि मनुष्य कनिष्ठ (जघन्य) पात्र कहा गया है।।७९॥जिनदेवके, द्वारा उपदिष्ट उक्त तीनों ही प्रकारके पात्रोंको जो दान देता है, वह पंच कल्याणकोंको प्राप्त करके सुखके निधान शिव-पदका उपभोग करता हैं ।। ८०॥ सम्यग्दर्शनसे रहित कुपात्रको यदि दान दिया जाता है, तो उससे कुभोग प्राप्त होते है। जैसे खारे घडे में डाला हुआ पानी भी खारा हो जाताहैं।। ८१।। मिथ्याद्दष्टिको घोडे हाथी कुत्ते और वेश्याओंका जो भाग प्राप्त हैं, वे सब कुपात्रदानरुपी वक्षके नाना प्रका१के फल जानो ॥८२॥ जिसके व्रत और सम्यग्दर्शन नहीं है, आगममें उसे अपात्र कहा गया है । उसे दिया गया दान निष्फल होता है, जैसे कि ऊसर भूमिमें बोया गया धान्य निष्फल जाता है ।।८।। जिसने अपात्रको दान दिया, उसने अपना धन खोया । उत्पथमें चोरोंको अर्पण किया गया धन किसने वापिस खोज पाया है ||८|| एक ही सुपात्र अनेक दातारोंको भवसागरसे पार उतार देता है। एक ही उत्तम जहाज अनेक पुरुषोंको पार लगाता हुआ देखा जाता है ॥८५।।कुपात्रको दान देना दोषयुक्त कहा गया १ ब मिथ्यादृष्टीनां हयादीना ये भोगा भवन्ति तत्सर्व कुपात्रदानवृक्षस्य फलं जयम् । २ म कउ । ३ टि उत्तथे । ४ झ अपत्तहं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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