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________________ सावयधम्मदोहा ४८७ मज्जु मुक्क मुक्कह मयह अण्णु जि वेसा मुक्क।जह बाहिहि विणिवास्यिहि वैयण होइ न इबक ।। वेसहि लग्गिवि धणियधणु तुट्टइ बंधउ मित्त । मुच्चइ गरु सम्वहिं गुणहि वेसागिह' पइ संतु ॥४४ कामकहा परिचत्तियइ जिय दारिय परिचत्त । अह कंदे उप्पाडियाइ वेलिहिं पत्त समत्त ॥४५ पारद्धउ परणिग्घिउ हणइ णिरारिउ जेण । भयभग्गा मुहगहियतिण णरयहु गच्छई तेण ।।४६ मुक्क सुणहमंजरपमह जइ मुक्की पारद्धि । बीयई रुद्ध पाणियई रुद्धोअंकुरलद्धि ।।४७ चोरी चोर इणेइ पर बहुय किलेसह खाणि । देई अणत्थु कुडुंबहमि गोत्तहु जस-धणहाणि ।।४८ मुक्कहं कुडतुलाइयहं चोरी मुक्की होइ । अहव वणिज्जई छंडियई दाण ण मग्गइ कोइ॥४९ परतिय वह-वंधण ण पर अण्णु वि परणिणि। . विसकलि धारइ ण पर करइ वि पाणहं हाणि ॥५० जइ अहिलासु णिवारियउ ता वारिउ पर-यारु । अह जाइक्कें जितइण जितउ सयलु खंधाह।।५१ वसणइ तावच्छंतु जिय परिहर वसणासत । सुक्कहं संसर्ग हरिय पेक्खह तरु डझंत ॥५२ मूलगुणा इय एत्तडइ हियडइ थक्कइ जासु । धम्मु अहिंसा देउ जिणु रिति गुरु वेसण तास ।।५३ जसु दसणु तस् माणुसह दोस पणासइ जति । जहि पएसि णिवसइ गरुड तहि कि विसहर ठति ५४ अभिलाषा करता है, जिससे कि उसका नरकमें प्रवेश होता है ।।४२ । जिसने मद्य-पान छोड दिया उसने सभी मद-कारक वस्तुओंको छोड़ दिया। तथा उसने वेश्याका भी त्याग कर दिया समझना चाहिए । जैसे कि व्याधियोंके निवारण हो जानेपर एक भी वेदना नहीं होती है ।।४३ वेश्या-सेवनम लगे हुए धनिक पुरुषका सर्वधन समाप्त हो जाता है, उसके बंधु मित्र भी छूट जाते है और वेश्याके घरमें प्रवेश करनेवाला पुरुष सभी गुणोंसे विमुक्त हो जाता है ।।४४।। हे जव, कामकयाके परित्यागसे वेश्याका परित्याग भी हो जाता हैं। जैसे जड-कन्दके उखाड देनेपर वेलिके पत्ते समाप्त हो जाते है, अर्थात् स्वयं सुख जाते है ।।४५।। शिकारी अतिनिर्दयी होता है, जो निरपराध, भयभीत और मुख में तिनकोंको दाबे हुए हरिणोंको मारता है, इससे वह नरकको जाता है ।। ४६।। यदि शिकार खेलना छोड दिया है, तो कुत्ता, बिल्ली, शिकारी हिंसक प्राणियोंको पालना भी छोड । बीजकों कानी : देना रोक देनेपर अंकुरकी उत्पत्तिका अवरोध हो जाता है ॥४७। चोरी चोरका हनन करती ही है, पर अन्य भी बहुतसे क्लेशोंकी हानि है । वह कुटम्बका भी अनर्थ करती है और गोत्रके यश एवं धनको भी हानि करती है ।।४८कट-तुलादिके छोड देनेदर चोरो छूटतो है। जैसे कि वाणिज्यके छोड देनेपर कोई दान नहीं माँगता है ।।४९।। परस्त्री वध-बन्धन ही नहीं, अपितु वह नरककी नसेनी भी है। विषवृक्षकी जड मूच्छित ही नहीं करती किन्तु प्राणोंकी भी हानि करती है ।।५०।। यदि काम-अभिलाषाका निवारण कर दिया, तो परदाराका भी त्याग हो गया । जैसे नायकके जीत लेनेपर सकल स्कन्धावार (पैन्य) जीता समझा जाता है ।।५१।। हे जीव, व्यसनोंका सेवन तो दूर रहे, व्यसनोंमें आसक्त पुरुषोंके संसर्गका भी परिहार कर । देखो-सूखे वृक्षोंके संसर्गस हरे वृक्ष भी जल जाते है ।.५२।। इस प्रकार ये उपर्युक्त मूलगुण जिसके हृदय में निवास करते है, और जिसका धर्म अहिंसा, १ झ म-घरि | २ जिय । ३ म घारइ । ४ म तावई छंडि । ब टि. तावत्तिष्ठन्तु । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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