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________________ ४८८ श्रावकाचार-संग्रह वंसणरहिय जि. तउ करहिं ताहं वि णिग्फल णि? । विणु बीयई कणभरणमिय भणु कि खेत्ती दिट्ठ॥५५ सणसुद्धिए सुखयहं होइ सयल पणि? । अह कप्पडि अणतोरियइ किम लग्ग मंजिट्ट ॥५६ सणभूमिहि बाहिरा जिय वय-हक्ख ण हुंति । विणु वयरुक्खहं सुक्खफल आयासहुण पडंति।।५७ छुड़' सणु गड्ढायरहु हियडइ णिच्चल जाउ । वय-पासाउ समाढवउ चंचल धणु जिय आउ।।५८ अणुवयगुणसिक्खावयई ताई जि बारह हुंति। मुंजाइवि णर-सुर-सुहई जिउ णिव्याणहु गिति॥५९ मणवयकाहिं दयकरहि जेण ग ढुक्कइ पाउ । उरि सण्णाह बद्धइण अवसण लग्गइ घाउ । ६० अलिउ कसायहि मा चहिं अलिए गउ वसुराउ। हिं णिविठ्ठ साखंडु तहं डालहु होइ पपाउ' ॥६१ णासइ धणु तसु घरतणउ जो वरदव्य हरेइ । गहि कवेडउ पेसियउ काई ण काई करेइ ।६२ मणि" इच्छिया परमहिल रावणु सीय विणठु । दिट्टिइं मारइ जिट्ठिधिसुता को जीवइ छ। ६३ पसुधण-धण्णइं खेत्तियइं करि परिमाणपवित्ति । बलियई बहुयइं बंधणइंदुक्कर तोडहुं जंति ।।६४ देव जिन एवं ऋषि गुरु है, उसीके सम्यग्दर्शन है ।।५३।। जिस मनुष्यके सम्यग्दर्शन हैं, उसके दोष विनाशको प्राप्त हो जाते है। जिस प्रदेश में गरुड निवास करता हैं, वहाँ पर क्या विषधर सर्प ठहर सकते हैं ।।५४॥ __ जो जीव सम्यग्दर्शनसे रहित होकर तप करते हैं, उनकी क्रियानिष्ठा निष्फल हैं । बीजके बिना, कहो कहीं कण-भारसे झुकी हुई खेती देखी गई हैं ।।५५॥ सम्यग्दर्शनको शद्धिसे शुद्ध पूरुषोंके ही सर्व ब्रतोंको निष्ठा होती है। हरडा-फिटकरीके लगाये बिना कपडे पर मंजीठका रंग क्या चढ सकता है ॥५६।। हे जीव सम्यग्दर्शनकी भूमिसे बाहिर व्रतरूपी वृक्ष नहीं होते है और व्रत वक्षोंके बिना सुखरूपी फल आकाशसे नहीं टपकते हैं ।।५७।। जब सम्यग्दर्शन हृदयमें गाढ रूपसे निश्चल दढ हो जावे, तब उस सम्यग्दर्शन रूपी नींवकी भूमि पर व्रतरूपी प्रासादको बनाना शीघ्र आरम्भ करो। हे जीव यह धन और आयु चंचल है ।।५८॥ __ पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत ये श्रावकके बारह ब्रत होते है। ये व्रत मनष्य और देवोंके सुखोंका उपभोग कराकर जीवको निर्वाण पद तक ले जाते हैं।॥५९॥मन वचन कायसे दया कर, जिससे कि पाप न ढूंके । वक्षःस्थलपर कवच बाँधनेसे अवश्य ही शस्त्रके धाव नहीं लगते हैं ।।६०।। कषायसे असत्य मत बोल । असत्य से वसुराजा नरक गया। जिस शाखापर उसका खंडन करने वाला बैठा हैं, उस डालीका प्रपात (पतन ) होता ही है ।। ६१।।जो पर-द्रव्यका हरण करता हैं, उसके घरका धन भी नष्ट हो जाता हैं । जिसने अपने घरमें डाकूका प्रवेश कराया है, वह क्या क्या नहीं करेगा ॥६२।। रावणने परस्त्री सोताकी मनमें इच्छा का, तो वह रावण विनष्ट हो गया । दृष्टिविष सर्प देखने मात्रसे मार डालता हैं, फिर उसके द्वारा डसे जाने पर तो कौन जी सकता है ॥६३।। पशु-धन, धान्य, खेती आदिमें परिमाण करके प्रवृत्ति कर । बहुत बल (आँटे) वाले बन्धनोंका तोडना दुष्कर होता है ।। ६४।। १ यदा २ ब टि. समारोपयत ययम् । ३ म पमाउ । ४ ब धाडउ । ५ म माणइं। ६ ब टि. बलवत्तराणि बहुबन्ध नानि तोटने सति दुस्तराणि भवन्ति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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