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________________ महापुराणान्तर्गत श्रावकधर्म-वर्णन ८७ इत्यङ्गानि स्पृशेदस्य प्रायः सारूप्ययोगतः । तत्राधायात्मसङ्कल्पं ततः सूक्तमिदं पठेत् ॥ ११३ अङ्गादङ्गात्सम्मवसि हृदयादपि जायसे । आत्मा वै पुत्र नामासि सजीव शरदः शतम् ।।११४ क्षीराज्यममृतं पूतं नाभावावयं युक्तिभिः । घ. तिञ्जयो भवेत्यस्य हासयेन्नाभिनालकम् ॥११५ श्रीदेव्यो जात ते जातक्रियां कुर्वन्त्विति ब्रवन् । तत्तनुं चूर्णवासेन शनैरुद्वर्त्य यत्नतः ॥ ११६ त्वं मन्दराभिषेकाो भवेति स्नपयेत्ततः । गन्धाम्बुभिश्चिरं जीव्या इत्याशास्याक्षतं क्षिपेत्॥११८ नश्यात् कर्ममलं कृत्स्नमित्यास्येऽस्य सनासिके । घतमौषधसांसिद्धम वपेन्मात्रया द्विज ॥११८ ततो विश्वेश्वगन्यभागी भूया इतीरयन् । मातुस्तनमुपामन्त्र्य वदनेऽस्य समासजेत् ॥ ११९ प्रागणितमथानन्दं प्रीतिदानपुरःसरम् । विधाय विधिवत्तस्य जातकर्म समापयेत् ॥ १२० जरायुपटलं चास्य नाभिनालसमायुतम् । शुचौं भूमौ निखातायां विक्षिपेन्मन्त्रमापठन् ।। १२१ सम्यग्दृष् िपदं बोध्ये सर्वमातेति चापरम् । वसुन्ध गपद चैव स्वाहान्तं द्विरुदाहरेत् ।। १२२ चूणिः- सम्यग्दृष्टे, सम्यग्दृष्टे सर्वमातः सर्वमातः वसुन्धरे वसुन्धरे स्वाहा । मन्त्रेणानेन सम्मन्त्र्य भूमौ सोदकमक्षतम् । क्षिप्त्वा गर्भमलं न्यस्तपञ्चरत्नतले क्षिपेत् ।।१२३ स्वत्पुत्रा इव मत्पुत्रा भूयासुश्चिरज विनः । इत्युदाहृत्य सस्याहे तत्क्षेप्तव्यं महीतले ।। १२४ सत्प्रीति को प्राप्त हो ।।११०-११२।। इस प्रकार आशीर्वाद देकर पिता उसके सर्व अंगोंका स्पर्श करे और फिर प्रायः अपने सदृश होनेसे उसमें अपना संकल्प कर अर्थात् 'यह मै ही हूँ'ऐसा आरोपकर ये सुन्दर वाक्य कहे-हैं पुत्र, तू मेरे प्रत्येक अंगसे उत्पन्न हुआ हैं और हृदयसे भी उत्पन्न हुआ हैं, अतः पुत्र-नामको धारण करनेवाला तू मेरा आत्मा ही है.तू सैकडों वर्षोतक जीवित रह ।। ११३११४॥ तदनन्तर दूध और घी रूपी पवित्र अमृत उसकी नाभिपर 'घातिञ्जयो भव' (तू घातिया कर्मोको जीतनेवाला हो) यह मंत्र पढकर सावधानीसे उसकी नाभिका नाल काटे ।।११५॥ तत्पश्चात् 'हे जात,श्रीदेव्यः ते जातक्रियां कुर्वन्तु'(हे पुत्र श्री ही आदि देवियाँ तेरे जन्मक्रिया का उत्सव करें)यह कहते हुए धीरे-धीरे यत्नपूर्वक सुगन्धित चूर्णसे उस बालकके शरीरका उबटन करे और 'त्वं मन्दराभिषेका) भव' (तू सुमेरु पर अभिषेक किये जानेके योग्य हो) यह मंत्र पढकर सुगन्धित जलसे उसे स्नान करावे । तदनन्तर 'चिरं जीव्याः'(तु चिरकाल तक जीवित रह) इस प्रकार आशीर्वाद देकर उस पर अक्षत क्षेपण करे।। ११६-११७।।तत्पश्चात् 'नश्यात् कर्ममलं कृत्स्नम्' (तेरे सर्व कर्म-मल नष्ट हों) यह मंत्र पढकर उसके मुख और नाक औषधि मिलाकर तैयार किया हुआ घी मात्राके अनुसार थोडा-सा डाले ।।११८ । तत्पश्चात् 'विश्वेश्वरीस्तन्यभागी भूया:' (तू तीर्थकरको माताके स्तनका दुध-पान करनेवाला हो) यह कहता हुआ माताके स्तनको मंत्रित कर उसे बालकके मुख में लगा देवे ॥११९।। तदनन्तर पूर्व-वणित प्रकार से प्रीतिपूर्वक दान देते हुए उन्सव कर विधिवत् जातकर्म (जन्मकाल की क्रिया) समाप्त करे ॥१२०॥ उसके जरायु-पटलको नाभि-नालके साथ किसी पवित्र भूमिको खोदकर यह मंत्र पढते हुए गाड देवे । १२१॥ ( हे सम्यग्दृष्टे सम्यग्दृष्टे, सर्वमातः सर्वमातः, वसुन्धरे वसुन्धरे स्वाहा' ( हे सम्यग्दृष्टि सर्वकी माता पसुन्धरा,तुणे यह समर्पण करता हूँ) इस मंत्रसे मंत्रित कर उस भूमिमें जल और अक्षत डालकर पाँच प्रकार के रत्तों के नीचे वह गर्भ-मल (जरायपटल और नाभिनाल) रख देना चाहिए।१२२१२३।।अथवा,त्वत्पुत्राइव मत्पुत्रा इव मत्पुत्रा चिरजीविनो भूयासुः' (हेवसुन्धरे,तेरेपुत्रकुल-पर्वतोंके समान मेरे पुत्र भी चिरजीवी हों) यह कहकर धान्योत्पत्तिके योग्य खेतमें उस गर्भ-मलको डाल देना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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