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________________ वसुनन्दि-श्रावकाचारः ४७१ तेसि च सरीराणं दध्वसुदस्स वि अचित्तपूजा सा। जा' पुण दोण्हं की रइ णायव्वा मिस्सपूजा सा॥४५० (१) अहवा आगम-णोआगमाइभेएण बहुविहं दव्वं । णाऊण दब्धपूजा कायदा सुत्तमग्गेण ।।४५१ क्षेत्र-पूजा जिणजम्मण-णिवखमणे णाणप्पत्तीए तित्थचिण्हेसु । णिसिहीसु खेत्तपूजा पुरविहाणेण कायव्वा ।। ४५२ (२) ___ काल-पूजा गब्भावयार-जम्माहिसेय-णिक्खमण-णाण-णिव्वाणं । जम्हि दिणे संजाद जिगण्हवणं तद्दिणे कुज्जा ॥४५३ इच्छरस साप्प-दहि-खीर- गंध-जलपुण्णविविहकलसेहि। णिसिजागरणं च संगीय-णाडयाई हि कायव्वं ।। ४५४ गंदीसर दिवसेसु तहा अण्णेसु उचियपव्वे सु। जं कोरइ जिनमहिम विण्णेया कालपूजा सा ।।४५५ (३) भाव-पूजा काऊणाणंतचउद्याइगुण कित्तणं जिणाईणं । जं वंदणं तियालं कीरइ भावच्चणं तं ख ।। ४५६ तीर्थंकर आदिके शरीरकी, और द्रव्यश्रुत अर्थात् कागज आदिपर लिपिबद्ध शास्त्रकी जो पूजा की जाती है, वह अचित्त पूजा हैं । और जो दोनों का पूजन किया जाता है वह मिश्रपूजा जानना चाहिए ॥४४९-४५०।। अथवा आगमद्रव्य नो आगमद्रव्य आदिके भेदसे अनेक प्रकारके द्रव्य निक्षेप. को जानकर शास्त्र-प्रतिपादित मार्गसे द्रव्यपूजा करना चाहिए ।।४५१।। जिन भगवानकी जन्मकल्याणभूमि, निष्क्रमणकल्याणभूमि, केवलज्ञानोत्पत्तिस्थान, तर्थचिन्हस्थान और निषीधिका अर्थात निर्वाण भूमियोंमें पूर्वोक्त विधानसे क्षेत्रपूजा करना चाहिए, अर्थात् यह क्षेत्रपूजा कहलाती हैं ।।४५२।। जिस दिन तीर्थङ्करोंके गर्भावतार, जन्माभिषेक, निष्क्रमणकल्याणक, ज्ञानकल्याणक और निर्वाणकल्याणक हुए है, उस दिन इक्षुरस, घृत, दधि, क्षोर, गंध और जलसे परिपूर्ण विविध अर्थात अनेक प्रकारके कलशोसे, जिन भगवान्का अभिषेक करे तथा संगीत, नाटक आदिके द्वारा जिनगुणगान करते हुए रात्रि-जागरण करना चाहिए। इसी प्रकार नन्दीश्वर पर्वतके आठ दिनोंमें तथा अन्य भी उचित पर्वोमें जो जिन-महिमा की जाती है, वह कालपूजा जानना चाहिए ॥४५।।४५५।। परम भक्तिके साथ जिनेन्द्र भगवान्के अनन्तचतुष्टय आदि गुणोंका कीर्तन करके जो १ध. जो। २ प ध. सजायं । ११) चेतनं वाऽचेतनं वा मित्रद्रव्य मिति त्रिधा। साक्षाजिनादयो द्रव्यं चेतनाख्यं तदुच्यते ।२२०।। तद्वपुद्रव्य शास्त्रं वाऽचित्तं मित्रं तु तद्वयम् । तस्य पूजनतो द्रव्यपूजनं च त्रिधा मतम् ।२२१॥ (२) जन्म-नि.क्रमणज्ञानोत्पत्तिक्षेत्रे जिनेशिनाम् । निषिध्यास्वपि कर्तव्या क्षेत्रे पूजा यथाविधिा२२२॥ (३) कल्याणपंचकोत्पत्तिर्यस्मिन्नन्हि जिनेशिनाम् । तदन्हि स्थापना पूजाऽवश्यं कार्या सुभकिातः२२३ पर्वण्यष्टान्हिके ऽन्य स्मन्नपि भक्त्या स्वशक्तित: । महामहविधान यत्तत्कालार्चनमुच्यते ॥२२४ । -गुण. श्रा. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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