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श्रावकाचार संग्रह
पंचणमोकारएहि अहवा जावं कुणिज्ज सत्तीए' । अहवा जिणिदयोत्तं वियाण भावच्चणं तं पि ॥ ४५७ पिंडत्थं च पयत्थं रूवत्थं रूववज्जियं अहवा जं झाइज्जइ झाणं भावमहं तं विणिद्दि ||४५८ (१) पिंडस्थ-स्थान
सिकिरण विप्फुरतं अट्ठमहापाडिहेर परियरियं । झाइज्जइ जं निययं पिंडत्थं जाण तं झाणं ।। ४५९ ( २ )
अहवा जाहिं च विप्पिऊण' मेरुं अहोविहायम्मि | झाइज्ज' अहोलोयं तिरियम्मं तिरियए वीए । उड्ढमि उड्ढलोयं कप्पविमाणाणि संधपरियंते । गेविज्जमय । गीवं अणुद्दिसं हणुपएसम्म ।।४६१ विजय च वइजयंतं जयंतमवराजियं च सव्वत्थं ।
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झा इज्ज मुहपए से णिलाडदेसम्मि सिद्धसिला ।। ४६२ (३)
तस्सुवरि सिद्धगिलयं जह सिहरं जाण उत्तमंगम्मि एवं जं णियदेहं झाइज्जइ तं पिडित्थं ४६३
त्रिकाल वंदना की जाती है, उसे निश्चयसे भावपूजा जानना चाहिए ।। ४५६ ।। अथवा पंच णमोकार पदोंके द्वारा अपनी शक्ति के अनुसार जाप करे । अथवा जिनेन्द्र के स्तोत्र अर्थात् गुणगान करने को भावपूजन जानना चाहिए ||४५७॥ अथवा पिंडस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत रूप जो चार प्रकारका ध्यान किया जाता है; उसे भी भावपूजा कहा गया हैं ।। ४५८ ।। श्वेत किरणोंसे विस्फुरायमान, और अष्ट महाप्रातिहार्योंसे परिवृत (संयुक्त) जो निजरूप अर्थात् केवली तुल्य आत्म स्वरूपका ध्यान किया जाता है, उसे पिंडस्थ ध्यान जानना चाहिए ।। ४५९ ।। अथवा, अपने नाभिस्थानमें मेरुपर्वतकी कल्पना करके उसके अधोविभाग में अधोलोकका ध्यान करे । नाभिसे ऊर्ध्वभाग में ऊर्ध्वलोकका चिन्तवन करे ? स्कन्धपर्यन्त भाग में कल्पविमानोंका, ग्रीवास्थानपर नवग्रैवेयकोंका, हनुप्रदेश अर्थात् ठोडीके स्थानपर नव अनुदिशोंका, मुखप्रदेशपर विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित और सर्वार्थसिद्धिका ध्यान करे । ललाट देशमे सिद्धशिला, उसके ऊपर उत्तमांग में लोकशिखरके तुल्य सिद्धक्षेत्रको जानना चाहिए। इस प्रकार जो निज देहका ध्यान किया जाता हैं, उसे भी पिंडस्थ ध्यान जानना चाहिए ||४६० - ४६३ ।। एक अक्षरको आदि लेकर अनेक प्रकारके
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१ म. सुभत्तीए । २ म. नियरूव । ३ इ. वियप्पेऊण । ४ इ झाइज्जइं । ५ ध. परेयंत प परियंतं । (१) स्मृत्वानन्तगुणोपेतं जिनं सन्ध्यात्रयेऽर्चयेत् । वन्दना क्रियते भक्त्या तद्भावार्चनमुच्यते ॥ २२५ ॥ जाप्यः पंचपदानां वा स्तवनं वा जिनेशिनः । क्रियते यद्यथाशक्तिस्तद्वा भावार्चनं मतम् २२६ पिण्डस्थं च पदस्थं च रूपस्थं रूपवर्जितम् । तद्ध्यानं ध्यायते यद्वा भावपूजेति सम्मतम् २२७॥ (२) शुद्धस्फटिकसंकाशं प्रातिहार्याष्टकान्वितम् । यद् ध्यायतेऽर्हतो रूपं तद्ध्यान पिण्डज्ञकम् २२८ अधोभाग मधोलोकं मध्याशं मध्यमं जगत् । नाभौ प्रकल्ययेन्मेरुं स्वर्गाणां स्कन्धमूर्ध्वत २२९ (३) ग्रैवेयका स्वग्रीवायां हन्वामनुदिशान्यपि । विजयाद्यान्मुखं पंच सिद्धस्थानं ललाटके ||२३०|| मूर्ति लोकाग्रमित्येवं लोकत्रितयसन्निभम् चिन्तनं यत्स्वदेहस्य पिण्डस्य तदपि स्मृत । २३१ |
- गुण. श्राव.
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