SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 286
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अमितगतिकृतः श्रावकाचारः २६९ निवर्तमानं व्रततो गुरुभ्यो न शक्यते वारयितुं परेण । व्यलोकवादी व्यवहारकार्ये साक्षीकृतैरेव नियम्यते हि ॥ ४८ दुग्धेन धेनुः कुसुमेन वल्ली शोलेन भार्या सरसी जलेन । न सूरिणा भाति विना व्रतस्थः शमेन विद्या नगरी जनेन ।। ४९ विधीयते सुरिवरेण सारो धर्मो मनुष्ये वचनरुवारः। मेघेन देशे सलिलः फलाढ्यो निरस्ततापैरिव सस्यवर्गः ।। ५० लब्धे पदे सम्महनीयवृत्तीगुरोरनुष्ठाय बिनीतचेताः । पापस्य मव्यो विदधाति नाशं व्याधेरिव व्याधिनिषदनस्य ।। ५१ सर्वोपकारं निरपेक्षचित्त: करोति यो धर्मधिया यतीशः । स्वकार्यनिष्ठरुपमीयतेऽसौ कथं महात्मा खलु बन्धुलोकैः ।। ५२ निषेव्यमाणानि वचांसि येषां जीवस्य कुर्वन्त्यजरामरत्वम् । नागधनीया गुरवः कथं न ते विभीषणा संसृतिराक्षसीतः ।। ५३ मातापितृज्ञातिनराधिपाया जीवस्य कुर्वन्त्यपकारजातम् । यत्सूरिदत्तामलधर्मनन्नास्तेनैष तेभ्योऽतिशयेन पूज्यः ।। ५४ निषेवमाणो गुरुपादपनं त्यक्तान्यकर्मा न करोति धर्मम् । प्ररूढसंसारवनक्षयाग्नि निरर्थकं जन्म नरस्य तस्य ।। ५५ हैं जैसे कि चतुर सुनारके द्वारा सोना सुवर्णताको प्राप्त हो जाता है ।।४७॥ व्रतसे पराङमुख होनेवाला मनुष्य गुरुके सिवाय अन्य पुरुषसे निवारण नहीं किया जा सकता। व्यावहारिक कार्यो में झूठ बोलनेवाला मनुष्य साक्षात्कारी मनुष्योंके द्वारा ही नियंत्रित किया जाता हैं। ॥४८॥ जैसे दुग्धसे गाय, कुसुमसे वेलि, शीलसे नारी, जलसे सरोवर, प्रशमभावसे विद्या और मनुष्योंसे नगरी शोभाको प्राप्त होती हैं. उसी प्रकार व्रती पुरुष गुरुसे शोभा पाता हैं । विना गुरुके व्रती जन भी शोभा नहीं पाते ॥४९. उत्तम आचार्य उदार वचनोंसे मनुष्यमें सारभूत धर्मका विधान करता है । जैसे कि मेघ फलयुक्त देशमें सन्तापको दूर करनेवाले जल से धान्य-समूहको उपजाता हैं ॥५०॥ जैसे रोगी वैद्यका उपदेश ग्रहण कर उसके द्वारा बतलाई गई औषधिको ग्रहण कर अपनी व्याधिका नाश करता है, उसी प्रकार विनम्रचित्त भव्य पूज्य आचारवाले गुरुसे उपदेशको प्राप्त कर पापका नाश करता है ॥५१।। जो आचार्य निरपेक्ष चित्त होकर धर्मबुद्धिसे सर्व प्राणियोंका उपकार करता हैं, वह महात्मा अपने कार्य-साधनमें तत्पर बन्धुजनोंसे कैसे उपमाको प्राप्त हो सकता है। कहनेका भाव यह हैं कि स्वार्थी बन्धुओंसे परमार्थी गुरुकी कोई तुलना नहीं की जा सकती है ।।५२॥ जिनके सेवन किये गये वचन जीवको अजर अमर बना देते हैं, ऐसे गुरुजन संसृतिरूपी राक्षसीसे भयभीत पुरुषके द्वारा कैसे आराधनाके योग्य नहीं है ॥५३॥ लोकमें जो माता-पिता, जातीय बन्धु और राजादिक जीव नाना उपकारोंको करते है, वे आचार्य-प्रदत्त निर्मल धर्मसे प्रेरित हो करके ही करते है, इसलिए गुरुजन माता-पितादिसे भी अधिक अतिशयके साथ पूज्य हैं। ५४॥ जो पुरुष अन्य सर्व कार्य छोडकर गुरुके चरणकमलकी सेवा करता हुआ पति प्रौढ संसाररूप वनका नाश करने के लिए अग्निके समान धर्मका सेवन नहीं करता हैं,उसका मनुष्य जन्म निरर्थक है ।।५५।। इस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy