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________________ २७. श्रावकाचार-संग्रह यं सूरयो धर्मधिया वधन्ते यं बान्धवाः स्वार्थधिया जनानाम् । अर्थ तयोरन्तरमत्र वेद्यं सताऽणुमेोरिव जायमानम् ।। ५६ लक्ष्मी करीन्द्रश्रवणास्थिरां च तृणाग्रतोयस्थितिजीवितव्यम् । विनश्वरं यौवनकं च दृष्ट्वा धर्म न कुर्वन्ति कथं महान्तः ।। ५७ अनश्वरी यो विदधाति लक्ष्मी विधूय सर्वां विपक्षणेन । कथं स धर्मः क्रियते न सद्भिस्त्याज्येन देहेन मलायनेन ।। ८५ पिण्ड ददाना न नियोजयन्ति कलेवरं भत्यमिवात्मनीने । कार्ये सदा ये चरितोपकारे ते वञ्चयन्ति स्वयमेव मूढाः ।। ५९ गहाङ्गजापुत्रकलत्रमित्रस्वस्वामिभूत्यादिपदार्थवर्गे। विहाय धर्म न शरीरमाजामिहास्ति किञ्चित् सहगामि पथ्यम् ॥ ६० घातिक्षयोदभूतविशुद्धबोधप्रकाशविद्योतितसर्वतत्त्वाः । भवन्ति धर्मेण जिनेन्द्र चन्द्रास्त्रिलोकनाथाचितपादपाः ।। ६१ आराध्यमानस्त्रिदशैरनेकविराजते स्वः प्रतिबिम्बकर्वा । धर्मप्रसादेन निलिम्पराजः सुराङ्गनावक्त्रसरोजमङगः ।। ६२ द्वात्रिंशदु:शसहस्रमूर्धप्रसूनमालापिहिताघ्रियुग्मः । धर्मेण राज्यं विदधाति चक्री विडम्बमानस्त्रिदशेन लीलाम् ।। ६३ संसारमें मनुष्योंको जो अर्थ आचार्य धर्मबुद्धिसे देते है और बन्धुजन स्वार्थबुद्धिसे देते हैं, उन दोनोंका अन्तर सज्जनोंको अणु और सुमेरुके समान जानना चाहिये ॥५६।। लक्ष्मीको गजराजके कानके समान चंचल देखकर, तथा जीवनको तृणके अग्र भाग पर स्थित जल-बिन्दुके समान क्षण-भंगुर देखकर और जवानीको अतिशीघ्र ढलती हुई देखकर महान् पुरुष धर्मको कैसे नहीं आचरण करते हैं, अर्थात् संसारकी क्षण-भंगुर दशाको देखकर वे धर्मको धारण करते ही है ।।५७॥ जो धर्म सभी विपदाओंको क्षणभरमें दूर कर अविनश्वर लक्ष्मीको देता है, वह धर्म सज्जनोंके द्वारा इस त्याज्य और मलके घर शरीरसे कैसे नही धारण किया जायगा? अर्थात् सज्जन ऐसे क्षण-भंगुर शरीरसे अवश्य ही धर्मका पालन करेंगे ।।५८।। जो पुरुष सेवकके समान इस शरीरको भोजन देते हुए भी अपने कल्याणरूप उपकारी कार्यमें नहीं लगाते है, वे मूढ जन स्वयमेव ही ठगाये जाते है ।।५९।। इस लोकमें एकमात्र हितकारी धर्मके सिवाय गृह, पुत्री, पुत्र, कलत्र, मित्र, धन, स्वामी, सेवक आदि समस्त पदार्थों से कोई भी प्राणियोंके साथ परभवमें जानेवाला नहीं हैं ।।६०॥ वातिया कर्मोंके क्षयसे प्रकट हुए निर्मल केवलज्ञानरूप परम प्रकाशसे सर्व तत्त्वोंको प्रकाशित करनेवाले, और तीनों लोकोंके स्वामियों द्वारा जिनके चरणकमल चर्चित हैं, ऐसे जिनेन्द्रचन्द्र तीर्थंकर देव इस धर्मके प्रभावसे होते है।॥६१।। अपने प्रतिबिम्बके समान अनेकों देवोंके द्वारा आराधना किया जानेवाला,और देवाङगनाओंके मुख-सरोजका भ्रमर ऐसा देवाधिपति इन्द्र भी धर्मके प्रसादसे ही स्वर्गमें शोना पाता हैं ॥६२।। बत्तीस हजार राजाओंके मस्तकोंकी पुष्पमालाओसे जिसके चरण-कमल आच्छादित हो रहे है और जो अपनी लीलासे देवोंके इन्द्रकी लीलाको विडम्बित करता हैं, ऐसा चक्रवर्ती भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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