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________________ २६८ श्रावकाचार-संग्रह ये द्वेषरागश्रमलोभमोहप्रमादनिद्रामवखेव्हीनाः । विज्ञातनिःशेषपदार्थतत्त्वास्तेषां प्रमाणं वचन विधेयम् ॥ ४० रागादिदोषा न भवन्ति येषां न सन्त्यसत्यानि वचांसि तेषाम् । हेतुव्यपाये नहि जायमानं विलोक्यते किञ्चन कार्यमार्यः ॥ ४१ विना गुरुभ्यों गुणनीरवेभ्यो जानाति धर्म न विचक्षणोऽपि।। निरीक्षते कुत्र पदार्थजातं विना प्रकाशं शुभलोचनोऽपि । ४२ ये ज्ञानिनश्चारुचरित्रमाजो ग्राह्यो गुरूणां वचनेन तेषाम् । सन्देहमत्यस्य बुधेन धर्मो विकल्पनीयं वचनं परेषाम् ।। ४३ भीतैर्यथा वञ्चनतः सुवर्ण प्रताडनच्छेदनतापघर्षेः । तथा तपःसंयमशीलशौचैः परीक्षणीयो गुरुरुद्धबोधेः ।। ४४ संसारमुद्भूतकषायदोषं विलङ्घिषन्ते गुरुणा विना ये । विभीमनक्रादिगणं ध्रुवं ते वादि तितीर्षन्ति विना तरण्डम् ॥ ४५ येषां प्रसादेन मनः करीन्द्रः क्षणेन वश्यो मवतीह दुष्टः । मजन्ति तान्ये गणिनो न मक्त्या तेभ्यः कृतघ्ना न परे भवन्ति ।। ४६ कृतोपकारो गुरुणा मनुष्यः प्रपद्यते धर्मपरायणत्वम् । चामीकराश्मैव सुवर्णभावं सुवर्णकारेण विशारदेन ।। ४७ लोगोंके द्वारा जो शास्त्र बनाये जाते हैं, उन्हें निर्दोष धर्म धारण करनेके इच्छुक विचक्षग जन धर्मके विषयमें प्रमाण न माने ॥३९॥ किन्तु जो द्वेष, रागके आश्रयभूत लोभ, मोह,प्रमाद निद्रा, मद, खेदसे रहित हैं और जिन्होंने सर्व पदार्थोके रहस्यभूत तत्त्वोंको जान लिया हैं,ऐसे वीतरागी सर्वज्ञदेवके वचन प्रमाण मानना चाहिये ।।४०॥ जिनके रागादिक दोष नहीं होते है, उनके वचन असत्य नहीं होते है, क्योंकि कारणके अभावमें कोई भी कार्य आर्य पुरुषोंके द्वारा नहीं देखा जाता हैं। कहनेका भाव यह है कि असत्य बोलने का कारण राग-द्वेषादिक हैं। जिन पुरुषोंके उनका अभाव है, उनके वचन सदा सत्य ही होते है ।।४१॥ गुणोंके समुद्र ऐसे गुरुओंके विना विचक्षण पुरुष धर्मको नहीं जान पाता हैं। क्या सुन्दर नेत्रवाला भी पुरुष विना प्रकाशके कहीं किसी भी पदार्थ-समूहको देख सकता हैं ॥४२॥ जो ज्ञानवान् और सुन्दर पवित्र चरित्रके धारक हैं, ऐसे गुरुओंके वचनसे समझदार पुरुषको सन्देह छोडकर धर्म ग्रहण करना चाहिये । जिनका ज्ञान और चारित्र समुज्ज्वल नहीं है, ऐसे सामान्य लोगोंके वचन सन्देहके योग्य होते हैं । ४३।। जिस प्रकार ठगाये जानेके भयसे लोग ताडन, तापन, छेदन और घर्षणके द्वारा सुवर्णकी परीक्षा करते है, उसी प्रकार 'गुरु' इस शब्दसे कहे जानेवाले व्यक्तियोंकी तप, संयम, शील और ज्ञान इन चार बातोंसे परीक्षा करनी चाहिये ।।४४।। जो गुरुके विना ही कषायरूप दोषके उत्पन्न करनेवाले संसारको लांधना चाहते है, वे निश्चयसे मगर-मच्छादिसे भरे हुए अति भयंकर समुद्रको नावके विना ही तिरना चाहते है ॥४५॥ जिनके प्रसादसे इस लोकमें अति दुष्ट मनरूपी मदोन्मत्त गजेन्द्र क्षणमात्रमें वश हो जाता है, ऐसे गुणी गुरुजनोंकी जो लोग भक्तिसे सेवा-उपासना नहीं करते हैं, उनसे अतिरिक्त अन्य कोई कृतघ्नी नहीं हैं ॥४६॥ गुरुके द्वारा जिसका उपकार किया गया है, ऐसा मनुष्य धर्ममें निपुणताको प्राप्त हो जाता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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