________________
अमितगतिकृतः श्रावकाचारः
२६७
तं शब्दमात्रेण वदन्ति धर्म विश्वेऽपि लोका न विचारयन्ति । न शब्दसाम्येऽपि विचित्रभेदविभेद्यते क्षीरमिवार्चनीयम् ॥ ३१ हिंसानृतस्तेयपरांगसंगग्रन्थग्रहादत्तदुरन्तदुःखाः। धर्मेषु येष्वत्र भवन्ति निन्द्यास्ते दूरतो बुद्धिमतां विवाः ।। ३२ निहन्यते यत्र शरीरिवर्गो निपीयते मद्यमुपास्यते स्त्री। बोभुज्यते मांसमनर्थमूलं धर्मस्य वार्ताऽपि न तत्र नूनम् ।। वधादयः कल्मषहेतवो ये न सेवितास्ते वितरन्ति धर्मम् । न कोद्रवाः क्वापि वसुन्धरायां निवीयमाना जनयन्ति शालिम् ।। ३४ हिंसापरस्त्रीमधुमांससेवां कुर्वन्ति धर्माय विबुद्धयो ये । पीयूषलाभाय विवर्द्धयन्ते विषद्रुमास्ते विविधरुपायैः ।। ३५ यमद्यमांसाङ्गिवधादयोऽमी निर्मानयुक्ताः कुशलाय शास्त्रैः। आकर्णनीयानि न तानि दक्षैः शत्रूदितानीव वचांसि जातु ॥ ३६ पठन्ति श्रृण्वन्ति वदन्ति भक्त्या स्तुवन्ति रक्षन्ति नयन्ति बुद्धिम् । ये तानि शास्त्राण्यनुमन्यमानास्ते यान्ति सद्योऽपि कुयोनिमग्नाः ।। ३७ धर्म वदन्तेऽङ्गिवधादयोमी विधीयमाना यदि नाम तथ्यम् । सांसारिकाचारविधौ प्रवृत्ता न पापिनः केऽपि तदा भवन्ति ।। ३८ रागादिदोषाकुलमानसैर्ये प्रन्थाः क्रियन्ते विषयेषु लोलः । कार्याः प्रमाणं न विचक्षणेस्ते जिघृक्षभिर्धर्ममगहणीयम् ।। ३९
प्राप्त होती हैं । भावार्थ-वीतराग-प्ररूपित धर्म और सरागियों द्वारा 'नरूपित धर्म में महान् अन्तर हैं ॥३१॥ जिन-जिन धर्मो में अत्यन्त दुःखोंके देनेवाले हिंसा, असत्य, स्तेय, स्त्री-संगम और परिग्रहरूप ग्रह विद्यमान है, वे सभी धर्म निन्द्य हैं, अतएव बुद्धिमान् लोगोंको उनका दूरसे ही परित्याग करना चाहिए ॥३२।। जिस धर्म में प्राणिवर्ग मारा जाता हैं, मद्य-पान किया जाता है, स्त्री-सेवन होता है और सर्व अनर्थों का मूल मांस खाया जाता है, वहाँ पर निश्चयसे धर्मकी मात्रा भी नहीं हैं, ऐसा जानना चाहिए ।।३३।। जो हिंसादि कार्य पापके हेतु हैं, वे सेवन करने पर भी धर्मको उत्पन्न नहीं करते है । कभी कहीं पर पृथिवीमें बोये गये कोदों शालिधान्यको उत्पन्न नहीं करते हैं ॥३४॥ जो निर्बुद्धि जन धर्म प्राप्त करने के लिए जीवहिंसा करते हैं, परस्त्री, मधु और मांसका सेवन करते है, वे लोग अमृत पानेके लिए विविध उपायोंसे विषवृक्षोंको ही बढाते हैं ॥३५।। जिन शास्त्रोंके द्वारा मद्य-मांसका सेवन और हिंसादि कार्य कुशल-मंगलके लिए प्रतिपादन किये गये हैं, वे शास्त्र शत्रुओंके द्वारा कहे गये वचनोंके समान कदाचित् भी चतुर जनोंको नहीं सुनना चाहिए ॥३६।। जो अज्ञजन उक्त प्रकारके पाप-वर्धक शास्त्रोंको पढते है, सुनते है,भक्तिसे प्रवचन करते हैं, स्तवन करते है, उनकी रक्ष एवं वृद्धि करते हैं और अनुमोदना करते है, वे सभी मूर्ख लोग कुयोनिको प्राप्त होते है ।।३७ । यदि वे अनुष्ठान किये गये जीवहिंसादि कार्य यथार्थमें धर्मको देते है, तब तो फिर सांसारिक आचारके विधानमें प्रवृत्त कोई भी पुरुष पापी नहीं ठहरते है ।।३८॥ रागादि दोषोंसे जिनका मन आकुलित हैं और इन्द्रिय-विषयोंके जो लोलुपी है, ऐसे
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org