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________________ ४२६ श्रावकाचार-संग्रह जीवस्सुवयारकरा कारणभूया ह पंच कायाई। जीवो सत्ता भओ सो ताणं ण कारणं होई ॥ ३४ कत्ता सुहासुहाणं कम्माणं फल भोयओ जम्हा । जीवो तप्फलभोया भोया सेसा ण कत्तारा ॥ ३५ सध्वगदत्ता सव्वगमायासं व सेसगं दव्वं । अप्परिणामादीहि य बोहव्वा ते पयत्तेण ।। ३६ "ताण पवेसो वि तहा ओ अण्णेण्णमणववेसेण । णिय-णियभावं पि सया एगौहंता वि ण मुयंति ॥ ३७ अण्णोण्णं पविसंता दिता उग्गासमण्णमणेसि । मेल्लंता वि य णिच्चं स-सगभावं ण वि चयसि ।। ३८ आस्त्रवतत्त्व-वर्णन मिच्छत्ताविरह-कसाय-जोयहेहि आसवइ कम्म । जीवम्हि उवहिमज्झे जह सलिलं छिद्दणावाए । ३९ * अरहतंभत्तियाइसु सुहोवओगेण आसवइ पुण्णं । विवरीएण दुपावं जिणवारदेहि ॥ ४० बधतत्त्व-वर्णन १°अण्णोण्णाणुपवेसो जो जीवपएसकम्मखंधाणं । सो पर्याड-दिदि-अणुभव-पएसदो चउविहो बंधो ॥ ४१ परिणामी और अनित्य हैं ।।३३।। पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल, ये पाँचों द्रव्य जीवका उपकार करते हैं, इसलिए वे कारणभूत है। किन्तु जीव सत्तास्वरूप है, इसलिए वह किसी भी द्रव्यका कारण नहीं होता है ।।३४।। जीव शुभ और अशुभ कर्मोका कर्ता है, क्योंकि वह कर्मोके फलको प्राप्त होता है और इसलिए वह कर्मफलका भोक्ता हैं। किन्तु शेष द्रव्य न कर्मोंके कर्ता हैं और न भोक्ता ही हैं ।।३५।। सर्वत्र व्यापक होनेसे आकाशको सर्वगत कहते है। शेष कोई भी द्रव्य सर्वगत नहीं है। इस प्रकार अपरिणामित्व आदि के द्वारा इन द्रव्योंको प्रयत्नके साथ जानना चाहिए ।।३६।। यद्यपि ये छहों द्रव्य एक दूसरे में प्रवेश करके एक ही क्षेत्रमें रहते हैं, तथापि एक द्रव्यका दूसरे द्रव्यमें प्रवेश नही जानना चाहिए। क्योंके. ये सब द्रव्य एक क्षेत्रावगाही हो करके भी अपने-अपने स्वभावको नहीं छोडते हैं ॥३७॥ कहा भी है-छहों द्रव्य परस्परमें प्रवेश करते हुए, एक दूसरेको अवकाश देते हुए और परस्पर मिलते हुए भी अपने-अपने स्वभाव को नहीं छोडते हैं ॥३८।। जिस प्रकार समद्रके भीतर छेदवाली नाव में पानी आता है, उसी प्रकार जीवयें मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग इन चार कारणों के द्वारा कर्म आस्रवित होता है ।३९।। अरहंतभक्ति आदि पुण्यक्रियाओंमें शभोपयोगके होनेसे पुण्यका आस्रव होता है। और विपरीत अशुभोपयोग से पापका आस्रव होता है, ऐसा श्रीजिनेन्द्रदेवने कहा है ।।४० । जीवके प्रदेश और कर्मके स्कन्धोंका परस्परमें मिलकर एकमेक होजाना बंध कहलाता है। वह बन्ध प्रकृति, स्थिति, १ झ.ब. संतय० । २ ब ताण । ३ ब. फलयभोयओ। ४ द. कत्तारो, प. कत्तार । ५ ध. 'ताणि', प. 'णाण' । ६ झ. उक्तं । ७पंचास्ति० गा०७। ८ झ. -हेहि । ९ ब. उ। १.ध. अण्णण्णा । मिथ्यात्वादिचतुष्केन जिनपूजादिना च यत् । कर्माशभं शुभं जीवमास्पन्दे स्यात्स आस्रवः ॥१६ --गुण० श्राव. स्यादन्योऽन्यप्रदेशानां प्रवेशो जीवकर्मणोः । स बन्धः प्रकृतिस्थित्यनुभावादिस्वभावकः ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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