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________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार ४२७ संवरतत्त्व-वर्णन सम्महि वहिं य कोहाइकसायणिग्हगुणेहि । जोगणिरोहेण तहा कम्मासवसंवरो होइ ॥ ४२ * निर्जरातत्त्व-वर्णन सविवागा अविवागा दुविहा पुण निज्जरा मुणेयव्वा । सम्वेसि जीवाणं पढमा विदिया तवस्सीणं ॥ ४३ जह रुद्धम्मि पवेसे सुस्सइ सरपाणियं रविकरहिं । तह आसवे णिरुद्ध तवसा कम्मं मणेयव्वं ॥ ४४ मोक्षतत्त्व-वर्णन णिस्सेसकम्ममोक्खो मोक्खो जिणसासणे समुट्ठिो । तम्हि कए जोवोऽयं अणुहवइ अणंतयं सोक्खं । ४५* णिद्देसं सामित्तं साहणमहियरण-ठिदि-विहाणाणि' । एएहि सव्वभावा जीवादीया मणेयध्वा ।। ४६ सत्त वि तच्चाणि मए भणियाणि जिणागमाणसारेण । एयाणि सदहतो सम्माइट्ठी मुणेयवो ॥ ४७ अनुभव (अनुभाग) और प्रदेशके भेदसे चार प्रकारका होता है ।। ४१ ॥ सम्यग्दर्शन, व्रत और क्रोधादि कषायोंके निग्रहरूप गुणोंके द्वारा तथा योग-निरोधसे कर्मों का आस्रव रुकता है अर्थात् संवर • अविपाकके भेदसे निर्जरा दो प्रकार की जाननी चाहिए। इनम पहली सविपाक निर्जरा सब संसारी जीवोंके होती है, किन्तु दूसरी अविपाक निर्जरा तपस्वी साधुओंके होती है। जिस प्रकार नवीन जलका प्रवेश रुक जानेपर सरोवरका पुराना पानी सूर्यकी किरणोंसे सूख जाता है, उसी प्रकार आस्रवके रुक जानेपर संचित कर्म तपके द्वारा नष्ट हो जाता है, ऐसा जानना चाहिए ॥ ४३-४४ ।। समस्त कर्मों के क्षय हो जानेको जिनशासनमें मोक्ष कहा गया है । उस मोक्षके प्राप्त करनेपर यह जीव अनन्त सुखका अनुभव करता है ।। ४५ ।। निर्देश, स्वामित्व, साधन, अधिकरण, स्थिति और विधान, इन छह अनयोगद्वारोंसे जीव आदिक सर्व पदार्थ जानना चाहिए ।। ४६ ।। (इनका विशेष परिशिष्टम देखिये) ये सातों तत्त्व मैंने जिनागमके अनुसार कहे हैं । इन तत्त्वोंका श्रद्धान करनेवाला जीव सम्यग्दृष्टि जानना चाहिये ॥ ४७ ।। १ निर्देशः स्वरूपाभिधानम् । स्वामित्वमाधिपत्यम् । साधनमुत्पत्तिकारणम् । अधिकरणमधिष्ठानम् । स्थितिः कालपरिच्छेदः । विधानं प्रकारः। सम्यक्त्ववतः कोपादिनिग्रहाद्योगरोधतः । कर्मास्रवनिरोधो यः सत्संवरः स उच्चते ॥ १८ ॥ + सविपाकाविपाकाथ निर्जरा स्याद द्विधादिमा । ___संसारे सर्वजीवानां द्वितीया सूतपस्विनाम् ॥ १९॥ -गुण० श्राव. ** निर्जरा-संवराभ्या यो विश्वकर्मक्षयो भवेत् । .. स मोक्ष इह विज्ञेयो भव्युनिसुखात्मक ।। २०॥ .. --गुण० श्राव. नमेसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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