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________________ ४४९ वसुनन्दि-श्रावकाचार बताउगा सुविट्ठी' अणुमोयणेण तिरिया। णियमेणुववज्जति य ते उत्तमभोगभूमीसु ॥ २४९ तत्थ वि दहप्पयारा कप्पदुमा दिति उत्तमे भोए। खेत्त सहावेण सया पुग्वज्जियपुण्णसहियाणं ॥२५० मज्जंग-तूर-भसण-जोइस-गिह-मायणंग-दीवंगा । वत्थंग-भोयणंगा मालंगा सुरतरू दसहा ॥ २५१ अइसरसमइसुगंधं दिलैचि यजंजणेइ अहिलासाइंदिय-बलपुट्टियरं मज्जंगा पाणयं दिति ॥२५२ तय-वितय घणं सुसिरं वज्जं पूरंगपायवादिति। वरमउड-कुंडलाइय-आभरणं भूसणदुमा वि ॥ २५३ ससि-सूरपयासाओ अहियपयासं कुणंति जोइदुमा । __णाणाविहपासाए दिति सया गिहदुमा दिव्वे ।। २५४ कच्चोल-कलस-थालाइयाइं भायणदुमा पयच्छति । उज्जोयं दीवदुमा कुणंति गेहस्स मज्झम्मि ।। वर-पट्ट-चीण-खोमाइयाई वत्थाई दिति वत्थदुमा ।वर-चउविहमाहारंभोयणरुक्खा पयच्छति।।२५६ वर बहुल परिमलामोयमोइयासामुहाउ मालाओ। मालादुमा पयच्छंति विविहकुसुमेहि रइयाओ॥ उक्किट्ठभोयभूमीसु जे गरा उदय-सुज्ज-समतेया। छधणुसहस्सुत्तुं मा हुति तिपल्लाउगा सम्वे ।। होता है । दानकी अनुमोदना करनेसे तिर्यञ्च भी यथायोग्य उपर्युक्त स्थानोंको प्राप्त करते हैं. अर्थात् मिथ्यादृष्टि तिर्यञ्च उत्तम पात्र दानकी अनुमोदनासे उत्तम भोगभूमिमें, मध्यम पात्रदानकी अनुमोदनासे मध्यम भोगभूमिमें, जघन्य पात्रदानको अनुमोदनासे जघन्य भोगभूमिमें जाता है इसी प्रकार कुपात्र और अपात्र दानकी अनुमोदनासे भी तदनुकूल फलको प्राप्त होता है ।। २४८ ॥ बद्घायुष्क सम्यग्दृष्टि अर्थात् जिसने मिथ्यात्व अवस्थामें पहिले मनुष्यायको बाँध लिया है, और पीछे सम्यग्दर्शनको उत्पन्न किया है, ऐसे मनुष्य पात्रदान देनेसे और उक्त प्रकारके ही तर्यञ्च पात्र-दानकी अनमोदना करनेसे नियमसे वे उत्तम भोगभमियोंमें उत्पन्न होते है।। २४९ ।। उन भोगभमियोंमें दश प्रकारके कल्पवक्ष होते हैं, जो पर्वोपाजित पण्य-संयक्त जीवों को क्षेत्रस्वभावसे सदा ही उत्तम भोगोंको देते हैं ।।२५०।। मद्यांग, तूर्यांग, भूषणांग, ज्योतिरंग, गृहांग, भाजनांग दीपांग, वस्त्राग, भोजनाग, और मालांग ये दश प्रकारके कल्पवृक्ष होते हैं ।। २५१ ।। अति सरस, अति सुगन्धित, और जो देखने मात्रसे ही अभिलाषाको पैदा करता है, ऐसा इन्द्रिय-बलका पुष्टि कारक पानक (पेय पदार्थ) मद्यांगवृक्ष देते हैं ।। २५२ ।। तूर्यांग जातिके कल्पवृक्ष तत, वितत, धन और सूषिर स्वरवाले बाजोंको देते हैं। भूषणांग जातिके कल्पवृक्ष उत्तम मुकुट, कुण्डल आदि आभूषणोंको देते हैं ।। २५३ ।। ज्योतिरंग जातिके कल्पवृक्ष चन्द्र और सूर्यके प्रकाशसे भी अधिक प्रकाश को करते हैं। गहांग जातिके कल्पवृक्ष सदा नाना प्रकारके दिव्य प्रासादों (भवनों) को देते हैं ।।२५४॥ भाजनांग जातिके कल्पवृक्ष वाटली, कलश, थाली आदि भाजनोंको देते हैं । दीपांग जातिके कल्पवृक्ष घरके भीतर प्रकाशको किया करते हैं ।।२५५।। वस्त्रांग जातिके कल्पवृक्ष उत्तम रेशमो, चीनी और कोशे आदिके वस्त्रोंको देते हैं। भोजनांग जातिके कल्पवृक्ष उत्तम चार प्रकारके आहारको देते हैं ।। २५६ ।। मालांग जातिके कल्पवृक्ष नाना प्रकारके पुष्पोंसे रची हुई और प्रवर, बहुल परिमल सुगंधसे दिशाओंके मुखोंको सुगंधित करनेवाली मालाओंको देते हैं ।।२५७।। उत्तम भोगभूमियों में जा मनुष्य उत्पन्न होते हैं, वे सब उदय होते हुए सूर्यके समान तेजवाले, छह हजार धनुष ऊँचे और तीन पल्यकी आयुवाले होते हैं । २५८ ।। १ इ. सद्दिट्ठी, ब. सदिट्ठी । २ झ. ब. छित्त० । इ छेत्त । ३ झ. प. दिट्टविय । ४ झ. 'ज' इति पाठो नास्ति । ५ ब. कंचोल । ६ ब बहल । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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