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________________ ४५० श्रावकाचार-संग्रह देहस्सुच्चत्तं मज्झिमासु चत्तारि धणुसहस्साई। पल्लाणि दुणि आऊ पुण्णिदुसमप्पहा पुरिसा॥ दोधणुसहस्सुत्तुंगा' मणुया पल्लाउगा जहण्णासु। उत्तत्तकणयवण्णा' हवंति पुण्णाणुभावेण ।। २६० जे पुण कुभोयभूमीसु सक्कर-समसायमट्टियाहारा' फल-पुप्फहारा केई तत्थ पल्लाउगा सव्वे ।। जायंति जुयल-जुयला उणवण्णदिणेहिं जोव्वणं तेहिं । समचउरससंठाणा वरवज्जसरीरसंघयणा ॥ बाहत्तरि-कलसहिया चउसद्विगुणणिया तणुकसाया।बत्तीसलक्खणधरा उज्जमसीला विणीया य ।। णवमासाउगिसेसे गन्भंधरिऊण सूइ-समयम्हिासुहमिच्चणा मरित्ता णियमा देवत्तु पावंति ॥२६४ जे पुण सम्माइट्ठी विरयाविरया वि तिविहपत्तस्साजायंति दाणफलओ कप्पेसु महडिढया देवा।२६५ अच्छरसयमझगया तत्थाणुहविऊण विविहसुरसोक्खं । तत्तो चुया समाणा मंडलियाईसु जायते ॥ तत्थ वि बहुप्पयारं मणुयमुहं भुंजिऊण णिदिवघं । विगदभया वेरग्गकारणं किंचि दळूण । २६७ पडिबुद्धिऊण चइऊण णिवसिरि संजमं च धित्तूण । उप्पाइऊण णाणं केई गच्छति णिव्वाणं ॥२६८ अण्णे उ सुदेवत्तं समाणुसत्तं पुणो पुणो लहिऊण'°। सत्तट्ठभवेहि तओ करंति कम्मक्खयं णियमा । एवं पत्तविसेसं दाणविहाणं फलं च णाऊण । अतिहिस्स संविभागो कायन्वो देसविरदेहि १ ॥ २७० मध्यम भोगभूमियोंमें देहकी ऊंचाई चार हजार धनुष है, दो पल्यकी आयु है, और सभी पुरुष पूर्णचन्द्रके समान प्रभावाले होते हैं ।। २५१ ।। जघन्य भोगभूमियोंमें पुण्यके प्रभावसे मनुष्य दो हजार धनुष ऊंचे, एक पल्यकी आयुवाले और तपाये गये स्वर्ण के समान वर्णवाले होते हैं ।।२६०।। जो जीव कुभोगभूमियोंमें उत्पन्न होते हैं, उनमेंसे कितने ही वहाँपर स्वभावतः उत्पन्न होनेवाली शक्करके समान स्वादिष्ट मिट्टीका आहार करते हैं, और कितने ही वृक्षोंसे उत्पन्न होनेवाले फलपुष्पोंका आहार करते हैं और ये सभी जीव एक पल्यकी आयुवाले होते हैं ।। २६१ ।। भोगभूमिमें जीव युगल-युगलिया उत्पन्न होते हैं और वे उनचास दिनोंमें यौवन दशाको प्रप्त हो जाते हैं वे सब समचतुरस्र संस्थानवाले और श्रेष्ठ वज्रवृषभशरीरसंहननवाले होते हैं । २६२ ।। वे भोगभूमियां पुरुष जीव बहत्तर कला-सहित और स्त्रियां चौसठ गुणोंसे समन्वित, मन्दकषायी, बत्तीस लक्षणोंके धारक, उद्यमशील और विनीत होते हैं ॥ २६३ ।। नौ मास आयुके शेष रह जानेपर गर्भको धारण करके प्रसूति-समयमें सुख मृत्युसे मरकर नियमसे देवपने को पाते हैं ।। २६४ ।। जो अविरत सम्यग्दृष्टि और देशसंयत जीव हैं, वे तीनो प्रकारके पात्रोंको दान देने के फलसे स्वर्गोंमें महद्धिक देव होते हैं ।। २६५ ॥ वहांपर सैकडों अप्सराओंके मध्य में रहकर नाना प्रकारके देव-सुखोंको भोगकर आयुके अन्त में वहांसे च्युत होकर मांडलिक राजा आदिकोंमें उत्पन्न होते हैं ।। २६६ ।। वहांपर भी नाना प्रकारके मनुष्य-सुखोंको निर्विघ्न भोगकर भय-रहित होते हुए वे कोई भी वैराग्यका कारण देखकर प्रतिबद्धित हो, राज्यलक्ष्मीको छोडकर और संयमको ग्रहण कर कितने ही केवलज्ञानको उत्पन्न कर निर्वाणको प्राप्त होते हैं और कितने ही जीव सुदेवत्व और सुमानुषत्वको पुनः पुनः प्राप्तकर सात-आठ भवके पश्चात् नियमसे कर्मक्षयकों करते हैं ।।२६७-२६९।। इस प्रकार पात्र की विशेषताको, दानके विधानको और उसके फल को जानकर देशविरती श्रावकोंको अतिथिका संविभाग अर्थात् दान अवश्य करना चाहिए ।। २७० ।। १ इ. सहसा तुंगा। २ म. उत्तमकंचणवण्णा। ३ इ.-मट्टियायारा। ४ म.-संहणणा। ५ इ. वावत्तर, झ. ब. बावत्तरि । ६ इ. सूय० । ७इ समाण, झ, समासा। ८ प. जायंति । ९ ब. विगदब्भयाइ। १० ब. लहिओ। ११ प. विरएहिं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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