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________________ ४४८ श्रावकाचार-संग्रह जंकीरइ परिरक्खा णिच्चं मरण-भयभीरुजीवाणं तं जाण अभयदाणं सिहाणि सव्ववाणाणं ॥२३८ दानफल-वर्णन अण्णाणिणो वि जम्हा कज्ज ण कुणंति णिप्फलारंभं । तम्हा दाणस्स फलं समासदो वण्णहस्सामि ।। २३९ जह उत्तमम्मि खित्ते' पइण्णमण्णं सुबहुफलं होई। तह दाणफलं णेयं दिण्णं तिविहस्स पत्तस्स । २४० जह मज्झिमम्मि खित्ते अप्पफलं होइ वावियं बीयं । मझिमफलं विजाणह कुपत्तदिण्णं तहा दाणं ।। २४१ जह ऊसरम्मि खित्ते पइण्णबीयं ण कि पि. रहेछ । फलवज्जियं वियाणह अपत्तदिण्णं तहा दाणं ।। २४२ कम्हि "अपत्तविसेसे दिण्णं दाणं दुहावहं होइ । जह विसहरस्स दिण्णं तिम्वविसं जायए खोरं ।। २४३ मेहावीणं एसा सामण्णपख्वणा मए उत्ता । इण्हि पभणामि फलं समासओ मंदबुद्धीणं । २४४ मिच्छादिट्ठी भद्दो दाणं जो देइ उत्तम पत्ते । तस्स फलेणुववज्जइ सो उत्तमभोयभमोसु ।। २४८ जो मज्झिमम्मि पत्तम्मि देइ दाणं खु वामदिट्ठी वि । सो मज्झिमासु जीवो उप्पज्जइ भोयभूमीसु ।। २४६ जो पुण जहाणपत्तम्मि देइ दाणं तहाविहो वि णरो। जायइ फलेण जहण्णसु भोयभूमीसु सो जीवो ।। २४७ जायइ कुपत्तदाणेण वामदिट्ठी कुभोयभूमीसु । अणुमोयणेण तिरिया वि उत्तट्टणं जहाजोग्गं ।। २४८ मरणसे भयभीत जीवोंका जो नित्य परिरक्षण किया जाता है, वह सर्व दानोंका शिखामणिरूप अभयदान जानना चाहिए ।। २३८ । चकि, अज्ञानीजन भी निष्फल आरम्भवाले कार्यको नहीं करते हैं, इसलिए मैं दानका फल संक्षेपसे वर्णन करूंगा ॥ २३९ ।। जिस प्रकार उत्तम खेतमें बोया गया अन्न बहुत अधिक फलको देता है, उसी प्रकार त्रिविध पात्रको दिये गये दानका फल जानना चाहिए।॥ २४० ।। जिस प्रकार मध्यम खेतमें बोया गया बीज अल्प फल देता है, उसी प्रकार कुपात्रमें दिया गया दान मध्यम फलवाला जानना चाहिए ।। २४१ ।। जिस प्रकार ऊसर खेतमें बोया गया बीज कुछ भी नहीं ऊगता है उसी प्रकार कुपात्र में दिया गया दान भी फल-रहित जानना चाहिए ।। २४२ ।। प्रत्युत किसी अपात्र विशेष में दिया गया दान अत्यन्त दुःखका देनेवाला होता है । जै विषधर सर्पको दिया गया दूध तीवविषरूप हो जाता है ।। २४३ ।। मेधावी अर्थात् बुद्धिमान पुरुषों के लिए मैंने यह उपर्युक्त दानके फलका सामान्य प्ररूपण किया है। अब मन्दबुद्धिजनोंके लिए सक्षेपसे (किन्तु पहलेकी अपेक्षा विस्तारसे) दानका फल कहता हूँ ।। २४४ ॥ - जो मिथ्यादृष्टि भद्र अर्थात् मन्दकषायी पुरुष उत्तम पात्रमें दान देता है, उसके फलसे वह उत्तम भोगभूमियोंमें उत्पन्न होता है ।। २४५ ।। जो मिथ्यादृष्टि भी पुरुष मध्यम पात्रमें दान देता है, वह जीव मध्यम भोगभूमियोंमें उत्पन्न होता है ।। २४५ ।। और जो तथाविध अर्थात् उक्त प्रकार का मिथ्यादृष्टि भी मनुष्य जघन्य पात्रमें दानको देता है, वह जीव उस दानके फलसे जघन्य भोगभूमियोंमें उत्पन्न होता है ।। २४७ ।। मिथ्यादृष्टि जीव कुपात्रको दान देने से कुभोगभूमियोंमें उत्पन्न १, २, ३, झ. ब. छित्ते । ४ झ. किंचि रु होइ, ब. किंति विरु होइ । ५ झ. ब. उ पत्त० । ६ प्रतिषु 'मेहाविऊण' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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