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________________ ४०८ श्रावकाचार-संग्रह ध्यानं विधित्सता ज्ञेयं ध्याता ध्येयं विधिः फलम्। विधेयानि प्रसिद्धयन्ति सामग्रीतो विना न हि ॥२३ निसर्गमार्दवोपेतो निष्कषायो जितेन्द्रियः । निर्ममो निरहङ्कारः पराजितपरीषहः ॥ २४ हेयोपादेयतत्त्वज्ञो लोकाचारपराङ्मुख । विरक्तः कामभोगेषु भवभ्रमणभीरुकः ।। २५ लाभेऽलाभे सुखे दुःखे शत्रो मित्रे प्रियेऽप्रिये । मानपमानयोस्तुल्यो मृत्युजीवितयोरपि ।। २६ निरालस्यो निरुद्वगो जितनिद्रो जितासनः । सर्वव्रतकृताभ्यासः सन्तुष्टो निष्परिग्रहः ।। २७ । सम्यक्त्वालङ्कतःशान्तो रम्यारम्यनिरुत्सुकः। निर्भयो भक्तिकः श्राद्धोवीरो'वैरागिकोऽशठः ।। २८ निनिदानो निरापेक्षा विभक्षुर्देहपञ्जरम् । भव्यः प्रशस्तते ध्याता यियासुः पदमव्ययम ।। २९ ध्येयं पदस्थपिण्डस्थरूपस्थारूपभदतः । ध्यानस्यालम्बनं प्राश्चतुविधमुदायतम् । ३० यानि पञ्चनमस्कारपदादीनि मनीषिणा । पदस्थं ध्यातुकामेन तानि घ्ययनि तत्त्वतः ।। ३१ मरुत्सखशिखो वर्णो भूतान्तः शशिशेखरः । आद्यलध्वादिको ज्ञात्वा ध्यातुः पापं निषूदते । ३२ विधि और ध्यानका फल ये चार बातें जानने योग्य हैं । क्योंकि योग्य सामग्रीके विना करने योग्य कार्य सिद्ध नहीं नहीं होते हैं ।। २३ ।। __ अब ध्यान करनेवाले ध्याताका स्वरूप कहते हैं-जो स्वभावसे ही कोमल परिणामोंसे युक्त हो, कषाय-रहित हो, इन्द्रिय-विजेता हो, ममत्व-रहित हो, अहंकार-रहित हो, परीषहोंको पराजित करनेवाला हो, हेय और उपादेयतत्त्वका ज्ञाता हो. लोकाचारसे पराङ्मुख हो, काम-भोंगोंसे विरक्त हो, भव-भ्रमणसे भयभीत हो, लाभ-अलाभमें, सुख-दुःख में, शत्रु-मित्रमें, प्रिय-अप्रियमें, मान-अपमानमें और जीवन-मरण में समभावका धारक हो, आलस्य-रहित हो, उद्वग-रहित हो, निद्रा.विजयी हो, आसन-विजेता अर्थात् दृढासन हो, अहिंसादि सर्व व्रतोंका अभ्यासी हो, सन्तोषयुक्त हो, परिग्रह-रहित हो, सम्यग्दर्शनसे अलंकृत हो, शात्त हो, सुन्दर और असुन्दर वस्तुमें निरुत्सुक हो, भय-रहित हो, देव गुरु शास्त्रकी भक्ति करनेवाला हो, श्रद्धागुणसे युक्त हो, कर्मशत्रुओंके जीतने में शूर-वीर हो, वैराग्य-युक्त हो, मूर्खता-रहित हो, अर्थात् ज्ञानवान हो. निदानरहित हो, परकी अपेक्षासे रहित हो, अर्थात् स्वावलम्बी हो, शरीररूप पिंजरेके भेदनेका इच्छुक हो और जो अविनाशी शिवपदको जानेका अभिलाषी हो, ऐसा ध्याता भव्य पुरुष प्रशंसनीय होता है ॥ २४-२९ ।। __ अब ध्येयका स्वरूप कहते हैं-ध्यानके आलम्बनको ध्येय कहते हैं । वह ज्ञानियोंने पदस्थ पिण्डस्थ, रूपस्थ और रूपातीतके भेदसे चार प्रकारका कहा है ।। ३० ।। अब पहले पदस्थध्यानका स्वरूप कहते हैं-पदस्थ ध्यानको ध्यानेकी इच्छा करनेवाले मनीषी पुरुषको पंच नमस्कार पद.आदि जितने भी परमेष्ठी-वाचक मन्त्र पद हैं, उन्हें निश्चयसे चिन्तवन करना चाहिए ।। ३१ ।। अब उन्हीं मन्त्रपदोंका स्पष्टीकरण करते हैं-अग्निकी शिखावाचक रेफ या रकार वर्ण जिसके ऊपर है, ऐसा जो सबका अन्तिमवर्ण ह कार है और चन्द्र जिसके शेखरस्वरूप है, तथा आदिका लघु अक्षर अकार जिसके आदिमें है, ऐसा 'अर्ह' पद जान १. मु० 'वरंगिको' पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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