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________________ श्रावकाचार-संग्रह मन्त्रैरेभिस्तु संस्कृत्य यथावज्जगतीतलम् । ततोऽन्धक् पीठिकामन्त्रः पठनीयो द्विजोत्तमैः ॥ १० पीठिकामन्त्र :- सत्यजातपदं पूर्व चतुर्यन्तं नमः परम् । ततोऽहज्जातशब्दरच तदन्तस्तत्परो मतः ।। ११ तत: परमजाताय नम इत्यपरं पदम् । ततोऽनुपमजाताय नम इत्यपरं पदम् ॥ १२ ततश्च स्वप्रधानाय नम इत्युत्तरो ध्वनिः । अचलाय नमः शब्दादक्षयाय नमः परम् ॥१३ अव्याबाधपदं चान्यदनन्तज्ञानशब्दनम । अनन्तदर्शनानन्तवीर्यशब्दो ततः पथक॥१४ अनन्तसुखशब्दश्च नीरज: शब्द एव च। निर्मलाच्छोद्यशब्दौ च तथाऽभेद्याजरती ॥ १५ ततोऽमरा प्रमेयोक्ती सागर्भावासशब्दने । ततोऽक्षोभ्याविलीनोक्ती परमादिर्घनध्वनिः ॥ १६ पृथक्पृथगिमे शब्दास्तदन्तास्तत्परा मताः। उत्तराण्यनुसन्धाय पदान्येभिः पदैर्वदेत् ॥ १७ आदी परमकाष्ठेति योगरूपाय वाक्परम । नमः शब्दमदीर्यन्ते मन्त्रविन्मन्त्रमद्धरेत ॥१८ (सर्वोत्कृष्ट सिद्धपरमेष्ठीको नमस्कार हो) यह मंत्र बोले ॥९।। इन मंत्रोंके द्वारा भूमितलको विधि पूर्वक संस्कार-युक्त शुद्ध करके तत्पश्चात् उत्तम द्विजोंको वक्ष्यमाण पीठिकामंत्र पढना चाहिए ॥१०॥ वे पीठिकामंत्र इस प्रकार है-पहले सत्यजात पदके अन्तमें चतुर्थी विभक्ति लगाकर अन्तमें 'नम:' पद बोले-'सत्यजाताय नमः' (सत्यरूप जन्मके धारक जिनेन्द्र के लिए नमस्कार हो)। पुनः अर्हज्जात शब्दके अन्तमें चतुर्थी विभक्तिके साथ 'नमः'पद बोले- 'अर्हज्जाताय नमः' (पूज्य एवं प्रशंसनीय जन्मके धारक जिनेन्द्रके लिए नमस्कार हो)॥११॥ तत्पश्चात् 'परमजाताय नमः' (उत्कृष्ट जन्मवाले जिनेन्द्रको नमस्कार हो) और 'अनुपमजाताय नमः' (अनुपम जन्मवाले जिनेन्द्रको नमस्कार हो) इन पदोंको बोले ॥१२॥ पुनः 'स्वप्रधानाय नमः' (स्वयं ही प्रधानताको प्राप्त जिनेन्द्रको नमस्कार हो), 'अचलाय नमः' (स्वरूपमें अचल रहनेवाले देवको नमस्कार हो),और 'अक्षयाय नमः' (अविनश्वर परमेश्वरको नमस्कार हो) इन पदोंको वोले ॥१३ । तदनन्तर 'अव्याबाधाय नमः' (सर्व बाधाओंसे रहित देवको नमस्कार हो), 'अनन्त ज्ञानाय नमः' (अनन्त ज्ञानी देवको नमस्कार हो), ,अनन्त दर्शनाय नमः' (अनन्त दर्शनवाले देवको नमस्कार हो) और 'अनन्तवीर्याय नमः' (अनन्त वीर्य के धारक देवको नमस्कार हो), इन पदोंको बोले ॥१४॥ पुनः 'अनन्त सखाय नमः' (अनन्त सूखके धारक देवको नमस्कार हो). नीरजसे नमः' (कर्म-रजसे रहित देवको नमस्कार हो)' 'निर्मलाय नमः' (पाप-मलसे रहित देवको नमस्कार हो), 'अछेद्याय नमः' (जिनका किसी प्रकारसे छेदन नही किया जा सके ऐसे देवको नमस्कार हो), 'अभेद्याय नमः' (किसी भी प्रकारसे भेदको नहीं प्राप्त होनेवाले देवको नमस्कार हो), और 'अजराय नमः (वृद्धावस्थासे रहित देवको नमस्कार हो) इन पदोंको बोले ॥१५॥ तदनन्तर अमराय नमः' (मरणरहित देवको नमस्कार हो), 'अप्रमेयाय नमः' (अल्पज्ञानीके अगम्य देवको नमस्कार हो), 'अगर्भवासाय नमः' (गर्भ-वाससे रहित देवको नमस्कार हो), 'अक्षोभ्याय नमः' (कभी किसीके द्वारा क्षोभित नहीं होनेवाले देवको नमस्कार हो), 'अविलीनाय नमः' (कभी विलयको नहीं प्राप्त होनेवाले देवको नमस्कार हो) और 'परम घनाय नमः' (परम सघनताको प्राप्त देवके लिए नमस्कार हो) इन पदोंको वोले॥११६॥इस प्रकार श्लोक-पठित 'अव्याबाध आदि शब्दोंके साथ चतुर्थी विभक्ति लगाते हए अन्त में 'नमः' पदका प्रयोग करे । इसी प्रकार आगेके श्लोकोंमें कहे जानेवाले शब्दोंके साथ चतुर्थी विभक्ति लगाकर अन्तमें 'नमः'बोले ।।१७।। पुनः मंत्रको जाननेवाला द्विज आदिमें 'परम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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