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श्रावकाचार संग्रह
हसतकारस्तोमः सोऽहं मध्यस्थितो विगतमूर्द्धा । पार्श्वप्रणवचतुष्को ध्येयो द्विप्रान्तकृतमायः । ३८ सहस्रा द्वादश प्रोक्ता जपहोमविचक्षणैः । ॐ जोग्गेत्यादिमन्त्रस्य तद्भागो दशमः पुनः ॥ ३९
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मन्त्रः- ॐ जोगे मग्गे तच्चे भूदे भव्वे भविस्से अक्खे पक्खे जिणपारस्से स्वाहा अयं मन्त्रः, जाप्यं द्वादशसहस्रं १२००० । होम: द्वादशशतम् १२०० । चक्रस्योपरिजाप्यन जातिपुष्पैर्मनोरमैः । विद्या सूचयते सम्यक् स्वप्ने सर्वं शुभाशुभम् ।। ४०
पार्श्वभाग में चार प्रणव (ॐ) और प्रान्त भाग में दो माया (-हीं) वर्णों को रखकर मध्य में सः हः स्थापित कर प्रमाद रहित हो कर उक्त मंत्र का ध्यान करना चाहिए ।। ३८ ।। विशेषार्थभाषावचनिकाकार स्व० पं० भागचन्द्रजीने श्लोक ३२ से ४८ तक का अर्थ नहीं लिखा है । उन्होंने स्पष्ट लिखा है कि इनका अर्थ हमकों यथार्थ सर्व प्रतिभास्या नाहीं, तातें नहीं लिख्या है । श्री दिगम्बराचार्य शुभचन्द्रकृत ज्ञानार्णवमें तथा श्वेताम्बराचार्य हेमचन्द्रकृत योगशास्त्रमें इस श्लोक के अर्थपरक बहुत कुछ समतावाले श्लोक मिलते हैं, जो कि नीचे टिप्पणी' में दिये गये हैं, इन दोनों में परस्पर बहुत कुछ समानता होने पर भी मध्यवर्ती हलीं पद योगशास्त्र में अधिक मिलता है | मराठी अनुवाद वाले प्रस्तुत ग्रन्थ में भी इस श्लोक का अर्थ नहीं लिखा है । केवल इतना लिखा है कि इस प्रकारसे इस मन्त्र का ध्यान करे ।
नहीं सःक्ष्मी हः ह्रीं
योगशास्त्रके गुजराती अनुवादमें लिखा है कि नहीँ ओं औँ सः ह्यली हं ओं औं -हीं' इस प्रमाण चिन्तवन करे । मुद्रित एवं वि० स० १८७८ के हस्तलिखित ऐ० प० दि जैन सरस्वती भवन के ज्ञानार्णवमें नहीं ॐ ॐ सः नहीं हं सः' ऐसे मंत्र को लिखा है । परन्तु 'प्रणव युगलस्य युग्म ' पद का अर्थ चार ओंकार होता है, अतः तदनुसार नहीं ॐ ॐ सः हं ॐ ॐ ही' ऐसा मन्त्र होना चाहिए । प्रस्तुत श्लोकके प्रथम चरण 'हसतीकारस्तोमः' का स्पष्ट भाव मुझे भी समझने में नहीं आया है । फिर भी यह पद मराठी अनुवाद सहित मुद्रित चित्र गत 'क्ष्मी' या योगशास्त्र के श्लोक के चतुर्थ चरणगत 'ह्मली' पद विशेष का द्योतक प्रतीत होता है | मन्त्र शासनके वेत्ताजनोंसे इसका ठीक भाव समझ कर ही इसमें कहे गये मंत्र का जाप करना चाहिए ।
जप और होम करने में विचक्षण पुरुषोंने 'ॐ जोंग्गे' इत्यादि मंत्र का जाप १२ हजार करने को कहा है, तथा उसका दशम भाग होम करना कहा है। पूर्ण मंत्र इसप्रकार है- 'ॐजोग्गे मग्गे
१. प्रणवयुगलस्य युग्मं पार्श्वे मायायुगं विचिन्तयति । मूर्द्धस्थं हंसपदं कृत्वा व्यस्तं वितन्तद्रात्मा ।।
ॐ
द्विपार प्रणवद्वन्द्वं प्रान्तयोर्मायया वृतम् । सोsहं मध्येऽधिमूद्धानं ह्यलीकारं विचिन्तयेत् ॥
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( ज्ञानार्णव, प्रक० २८, श्लो० ८९ )
( योगशास्त्र, प्रकाश ८, श्लो० ६३ )
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