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________________ श्रावकाचार-संग्रह समाधिविध्वंसविधौ पटिष्टं न जातु लोकव्यवहारपाशम । करोति यो निस्पचित्तवृत्तिः प्रवर्तते ध्यानममुष्य शुद्धम् १०८ विधीयते ध्यानमवेक्षमाणर्यद्भूतबोधैरिह लोककार्यम् । रौद्रं तदात्तं च वदन्ति सन्तः कर्मदुमच्छेदनबद्धकांक्षाः ॥ १०९ सांसारिकं सौख्यमवाप्तुकामानं विधेयं न विमोक्षकारि । न कर्षणं सस्यविधायि लोके पलाललाभाय करोति कोऽपि ॥ ११० अभ्यस्यमानं बहुधा स्थिरत्वं यथैति दुर्बोधमपीह शास्त्रम् । ननं तथा ध्यानमपीति मत्वा ध्यानं सदाऽभ्यस्यतु मोक्तु कामः ॥ १११ अवाप्य मानुष्यमिदं सुदुर्लभं करोति यो ध्यानमनन्यमानसः । भनक्ति संसारदुरंतपंजरं स्फुटं स सद्यो गुरुदुःखमन्दिरम् ।। ११२ यो जिनदृष्टं शमयमसहितं ध्यानमपाकृतसकलविकारः । ध्यायति धन्यो मुनिजनमहितं चित्तनिवेशितपरमविचारः ॥ ११३ नाकिनिकायस्तुतपदकमलोदीर्णदुरुत्तरभवभयदुःखाम् ।। याति स भव्योऽमितगतिरनघां मुक्तिमनश्वरनिरुपमसौख्याम् ॥ ११४ यदर्थमात्रापदवाक्यहीनं मया प्रमादादिह किञ्चनोक्तम् । तन्मे क्षमित्वा विदधातु देवी सरस्वती केवलबोधलक्ष्मीम् ।। ११५ इत्यमितगति-विरचिते उपासकाचारे पञ्चदशः परिच्छेदः समाप्त। निर्मल ध्यान होता है ॥१०८।। जो बोध-रहित अज्ञानी पुरुष लौकिक कार्यकी इच्छा रखते हुए ध्यान करते हैं, उसे कर्मरूप वृक्षको छेदने में कमर बांधकर उद्यत सन्त जन रौद्र और आर्तध्यान कहते हैं ॥१०९।। मोक्षके सुखको करनेवाला ध्यान सांसारिक सुखके पानेकी इच्छासे ज्ञानियोंको नहीं करना जाहिए। क्योंकि लोकमें धान्यको उत्पन्न करनेवाला कृषिकार्य कोई भी भूसेके लाभको लिए नही करता हैं ।।११०।। जैसे अत्यन्त कठिन भी शास्त्र निरन्तर अनेक प्रकारसे अभ्यास किये जाने पर स्थिरताको प्राप्त हो जाता है, उसी प्रकारसे ध्यानको भी मानकर मुक्ति पानेके इच्छुक पुरुषको निश्चयसे ध्यानका सदा अभ्यास करना चाहिए ॥१११।। इस अति दुर्लभ मनुष्यभवको पा करके जो पुरुष एकाग्र चित्त होकर ध्यानको करता है, वह भारी दुखोंके गृहरूप इस दुःखदायी संसार पिंजरको शीघ्र भेदता है ।।११२।। जो पुरुष सकल विकारोंको दूर कर और चित्तमें परम शुद्ध विचारोंको अवस्थित कर जिनेन्द्रोपदिष्ट कषायोंके निरोधरूप शमभावसे और पंच पापोंके त्यागरूप संयमभावसे युक्त ममिजन-पूजित ध्यानको ध्याता है वह पुरुष धन्य है ।११३।। परम शुक्ल ध्यानकी करनेवाला ऐसा भव्य अमितज्ञानी होकर और देव-समूहसे पूजित चरण-कमलवाला बन कर दुरुत्तर भव-भयके दुःखोंसे रहिन, निर्दोष, अविनश्वर, अनुपम सुखवाली मुक्तिको प्राप्त करता है ।।११४।।। इस ग्रन्थ में मैंने प्रमादसे यदि अर्थ, मात्रा, पद और वाक्यसे हीन कुछ भी कहा हो तो सरस्वती देवी उसके लिए मुझे क्षमा करके केवलज्ञानरूप लक्ष्मी को देवें॥११५॥ इस प्रकार अमितगति आचार्य विरचित उपासकाध्ययनमें पन्द्रहवाँ परिच्छेद ___ समाप्त हुआ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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