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________________ ४१८ अमितगतिकृतः श्रावकाचारः निर्वाणहेतो' भवपातमीताने प्रयत्नः परमो विधेयः । यियासुभिर्मुक्तिपुरीमबाधामुपायहीना न हि साध्यसिद्धिः ॥ १०१ देहात्मनोरात्मवता वियोगो मनः स्थिरीकृत्य तथा विचिन्त्यः ।। हेतुर्भवानर्थपरम्परायाः स्वप्नेऽपि योगो न यथाऽस्ति भूयः ।। १०२ निरस्तसर्वेन्द्रियकार्यजातो यो देहकार्य न करोति किचित् । स्वात्मीयकायोद्यतचित्तवृत्तिः स ध्यानकायं विदधाति धन्यः ।। १०३ यद्धिडमानं जगवन्तराले धर्तुं न शक्यं मनुजामरेन्द्रः तन्मानसं यो विदधाति वश्यं ध्यानं स धीरो विदधात्यवश्यम् ।। १०४ बाणैः समं पंचभिरुनवेगविद्धस्त्रिलोकस्थितजीववर्गः। न मन्मथस्तिष्ठति यस्य चित्त विनिश्चलस्तिष्ठति तस्य योगः ॥ १०५ न रोषो न तोषो न मोषो न दोषो न कामोन कम्पो न दामो न लोभः । न मानो न माया न खेदो न मोहो यदीयेऽस्ति चित्ते तदोयेऽस्ति योगः ॥ १०६ प्रवर्द्धमानोद्धतसेवनायां जोवस्य गुप्ताविव मन्यते यः । शरीरकुटयां वसति महात्मा हानाय तस्या यतते स शीघ्रम् ॥ १०७ उपवासादि तपोंके द्वारा जितनी संचित कर्मराशि जलाई जाती है, उतनी कर्मराशि अति निर्मलता पूर्वक किये गये ध्यानरूप हुताशनके द्वारा क्षणभरमें जला दी जाती हैं ।।१००॥ इसलिए जो संसारमें पडनेसे भयभीत पुरुष हैं, और बाधारहित मुक्तिपूरीको जानेके इच्छुक हैं, उन्हें निर्वाणके कारणभूत ध्यानमें परम प्रयत्न करना चाहिये। क्योंकि उपायके विना अभीष्ट साध्यकी सिद्धी नहीं होती है ॥१०१॥ आत्मज्ञानी पुरुषको मन स्थिर करके देह और आत्माकी विभिन्नता का इस प्रकारसे चिन्तवन करना चाहिए, कि संसारके अनर्थोकी परम्पराका कारणभूत इस देहका संयोग आगे फिर स्वप्नमें भी कभी नहीं होवे ।।१०२।। जो पुरुष सर्व इन्द्रियोंके विषयभूत कार्यसमूहको दूर करके देहके कुछ भी कार्यको नहीं करता है और अपने आत्मीय कार्यके करने में उद्यत चित्तवृत्ति होकर ध्यानके कार्यको करता है, वह पुरुष धन्य है ।।१०३।। ____ जगत्के अन्तरालमें डोलता हुआ जो मन नरेन्द्र, देवेन्द्र और अहमिन्द्रोंके द्वारा भी वशमें करने के लिए शक्य नहीं है,उस मनको जो अपने वश में कर लेता है, वह धीर-वीर पुरुष अवश्य ध्यानको करने में समर्थ होता है ॥१०४। अपने उग्र पंच बाणोंसे जिस कामदेवने त्रिलोकमें स्थित समस्त प्राणिवर्गको विद्ध कर रक्खा है, वह कामदेव जिसके मन में नहीं रहता है, उसका ध्यानरूप योग निश्चल रह सकता है ।।१०५॥ जिसके चित्तमें न द्वेष है, न राग है, न चोरीका भाव है, न अन्याय आदि कोई दोष है, न कामभाव है, न कम्पन है, न दम्भ है, न लोभ है, न मान है, न माया है, न खेद है और न मोह है; उसी पुरुषके चिन्तमें ध्यान हो सकता है ।। १०६ । जो महान् आत्मा दुःख रूप उद्धत परिणतिसे प्रवर्धमान इस शरीररूपी कुटीमें अवस्थित जीवको कारागारमें निबद्ध पुरुषके समान मानता है, वही पुरुष उस शरीररूप कुटीके विनाशके लिए शीघ्र प्रयत्न करता है ।।१०७। जो पुरुष समाधिके विध्वंस करने में अतिकुशल ऐसे लोक-व्यवहाररूप जालको कभी भी नहीं करता है, और जिसकी चित्तवृत्ति सर्व सांसारिक कार्योसे निस्पृह है उसी पुरुषके १. मु०-हेतोर्भव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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