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________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार ४४३ छम्मासाउयसेसे वत्थाहरणाई हुंति मलिणाई । णाऊण चवणकालं अहिययरं रुयइ सोगेण ।। १९५ हा हा कह णिल्लोए' किमिकुलभरियम्मि अइदुगंधम्मि । णवमासं पुइ-रुहिराउलम्मि गब्भम्मि वसियव्वं ।। १९६ किं करमि कत्थ वच्चम्मि कस्स साहामि जामि के सरणं । ण वि अत्थि एत्थ बंधू जो मे धारेइ णिवडतं ॥ १९७ वज्जाउहो महप्पा एरावण-वाहणो सुरिदो वि। जावज्जीवं सो सेविओ विण धरेइ मंतहवि ॥ १९८ जई मे होहिहि मरणं ता होज्जउ किंतु मे समुप्पत्ती। एगिदिए जाइज्जा णो मणुस्सेसु कइया वि ।। १९९ अहवा कि कुणइ पुराज्जियम्मि उदयागयम्मि कम्मम्मि । सक्को वि जदो ण तरइ अप्पाणं रक्खिउं काले ॥ २०० एवं बहुप्पयारं सरणविरहिओ खरं विलबमाणो । एइंदिएसु जायइ मरिऊण तओ णियाणेण ॥२०१ तत्थ वि अणंतकालं किलिस्समाणो सहेइ बहुदुक्खं । मिच्छत्तसंसियमई जीवो किं कि दुक्खं ण पाविज्जइ ॥ २०२ पिच्छह दिव्वे भोये जीवो भोत्तण देवलोयम्मि । एइंदिएसु जायइ धिगत्थ संसारवासस्स ॥२०३ एवं बहुप्पयारं दुक्खं संसार-सायरे घोरे । जीवो सरण-विहीणो विसणस्स फलेण पाउणइ ।। २०४ दर्शनप्रतिमा *पंचुंबरसहियाई परिहरेइ इय जो सत्त विसणाई । सम्मत्तविसुद्धमई सो सणसावयो भणिओ। अर्थात् कान्ति-रहित हो जाते हैं, तब वह अपना च्यवन-काल जानकर शोकसे और भी अधिक रोता है ।। १९५ और कहता है कि हाय हाय, किस प्रकार अब मैं मनुष्य-लोकमें कृमि-कुल-भरित, अति दुर्गन्धित, पीप और खूनसे गर्भ में नौ मास रहूँगा ? ॥ १९६ ।। मैं क्या करूँ, कहाँ जाऊँ, किससे कहूँ, किसको प्रसन्न करूँ, किसके शरण जाऊँ यहा पर मेरा कोई भी ऐसा बन्धु नहीं है, जो यहाँसे गिरते हुए मझे बचा सके ।। १९७ ।। वज्रायुध, महात्मा, ऐरावत हाथीकी सवारीवाला और यावज्जीवन जिसकी सेवा की है, ऐसा देवोंका स्वामी इन्द्र भी मुझे यहाँ नहीं रख सकता है ।। १९८ ।। यदि मेरा मरण हो, तो भले ही हो, किन्तु मेरी उत्पत्ति एकेन्द्रियोंमें होवे, पर मनुष्योंमें तो कदाचित् भी नहीं होवे ।। १९९ ॥ अथवा अब क्या किया जा सकता है, जब कि पूर्वोपाजित कर्मके उदय आनेपर इन्द्र भी मरण-कालमें अपनी रक्षा करने के लिए शक्त नहीं हैं।। २००।। इस प्रकार शरण-रहित होकर वह देव अनेक प्रकारके करुण विलाप करता हुआ निदानके फलसे वहाँसे मरकर एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न होता है ।। २०१ ।। वहाँ पर भी अनन्त काल तक क्लेश पाता हुआ बहुत दुःखको सहन करता है । सच बात तो यह है कि मिथ्यात्वसे संसिक्त बुद्धिवाला जीव किस-किस दुःखको नहीं पाता है ।। २०२ ॥ देखो, देवलोकमें दिव्य भोगोंको भोगकर यह जीव एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न होता है ऐसे संसार-वासको धिक्कार है ।। २०३ ।। इस तरह अनेक प्रकारके दुःखोंको घोर संसार-सागरमें यह जीव शरण-रहित होकर अकेला ही व्यसनके फलसे प्राप्त होता है ।। २०४ ।। जो सम्यग्दर्शनसे विशुद्ध-बुद्धि जीव इनपंच उदुम्बर सहित सातों व्यसनोंका परित्याग । नृलोके । २ इ. करम्मि । ३ वज्रायुध : । ४ ब. प्रतौ 'दुक्खं' इति पाठो नास्ति । ५ झ पाविज्जा। प. पापिज्ज । ६ प. पेच्छह । ७ ब. धिगत्थ ८ प. ध. प्रत्योः इय पदं गाथारम्भेऽस्ति । * उदुंबराणि पंचव सप्त च व्यसनान्यापे । वर्जयेद्यः सः सागारो भवेद्दार्शनिकाव्हयः ११२। गुणश्रा० Jain Education International For Private & Personal use only www.jainelibrary.org |
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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