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________________ ३९४ श्रावकाचार-संग्रह चतुर्दशः परिच्छेदः यौवनं नगनदीस्यदोपमं शारदाम्बुदविलासि जीवितम् । स्वप्नलब्धधनविभ्रमं धनं स्थावरं किमपि नास्ति तत्त्वतः ॥ १ विग्रहा गदभुजङ्गमालया सङ्गमा विगमदोषदूषिताः । सम्पदोऽपि विपदा टाक्षिता नास्ति किञ्चिदनुपद्रवं स्फुटम् ॥२ प्रीतिकीर्तिमतिकान्तिभूतयः पाकशासनशरासनस्थिराः । अध्वनीनपथसङ्गसङ्गमाः सन्ति मित्र पितृपुत्रबान्धवाः । ३ मोक्षमेकमपहाय कृत्रिमं नास्ति वस्तु किमपीह शाश्वतम् । किञ्चनाषि सहगापि नात्मनो ज्ञानदर्शनमास्य पावनम् । ४ सन्ति ते त्रिभुवनेन देहिनो येन यान्ति समवति मन्दिरम् । चचापखचिता हि कुत्र ते ये व्र 'जन्ति न विनाशमम्बुदाः ॥ ५ देहपंजरमपास्य जर्जरं यत्र तीर्थपतयोऽपि पूजिताः । यान्ति पूर्णसमये शिवास्पदं तत्र के जगति नात्र गत्वराः ॥ ६ यं करोति पुरतो यमराजो भक्षणाय भुवने क्षुधितात्मा । कानने मृगमिव द्विपरी तस्य नास्ति शरणं भुवि कोऽपि । ७ अब आचार्य बारह अनुप्रेक्षाओं का वर्णन करते हुए पहली अनित्यानुप्रेक्षाका स्वरूप करते हैं मनुष्यका यौवन तो पर्वतकी नदीके वेगके समान हैं, जीवन शरद् ऋतुके मेघके विलास समान हैं अर्थात् क्षणमात्रमें विलयको प्राप्त हो जाता है। तथा यह धन स्वप्न में पाये हुए धनके समान झूठा है । वास्तव में यहाँ कोई भी वस्तु स्थिर नहीं है || १ || ये शरीर रोगरूप सर्पोंके घर है, इष्ट वस्तुओंके संयोगके दोषसे दूषित हैं, तथा सम्पदाएँ भी विपदाओं के कटाक्षसे युक्त हैं । अतः यह स्पष्ट हैं कि इस संसारमें कोई भी वस्तु उपद्रव रहित नहीं हैं ||२|| प्रीति, कीर्ति, बुद्धि, कान्ति और विभूति ये सब इन्द्र-धनुष के समान अस्थिर हैं, और ये मित्र पुत्र पिता बन्धुजन मार्ग में मिले हुए पथिकोंके संयोगके समान शीघ्र ही बिछुड जानेवाले हैं || ३ || एकमात्र मोक्षको छोडकर शेष सब कृत्रिम वस्तुओंमें से कोई भी वस्तु इस लोकमें शाश्वत नहीं है । तथा पवित्र आत्मीय गुण ज्ञान दर्शनको छोड़कर आत्माके साथ और कुछ भी जाने वाला नहीं हैं ||४|| तीन लोक में ऐसे कोई भी प्राणी नहीं हैं जो कि यमराजके मन्दिरको न जाते हों ? अर्थात् सभी प्राणी मरणको प्राप्त होते है । इन्द्र-धनुष से संयुक्त ऐसे कौनसे मेघ है, जो कि विनाशको प्राप्त न होते हों ।। ५ ।। जब आयु पूर्ण हो जानेपर जगत्पूज्य तीर्थंकर देव भी इस जर्जर देह-पंजरको छोडकर मोक्ष-धामको चले जाते है, तब फिर ऐसे वे कौन जन है जो कि यम-मन्दिरको जानेवाले न हों ? अर्थात् सभी प्राणी जाने वाले हैं || ६|] इस प्रकार अनित्य भावना वही । अब अशरणानुप्रेक्षाको कहते हैं- भूखी हैं आत्मा जिसकी ऐसा यमराज संसार में जिस Start खानेके लिए आगे करता हैं, उस जीवकी रक्षा करनेके लिए लोकमें कोई भी शरण नहीं १. मु. भजन्ति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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