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________________ अमितगतिकृत: श्रावकाचारः ३९५ अन्तकेन यदि विग्रहभाजः स्वीकृतस्य समपत्स्यत पाता। रक्षित: सुरवरैरमरिष्यन्नो तदा सुर-वधूनिकुरम्बः ।।८ यं निहन्तुममरा न समर्था हन्यते न स परैः समवर्ती । यो द्विपर्न समदैरपि भग्नो भज्यते हि शशकै स वृक्षः ॥९ स्यन्दनद्विपपदातितुरङगमंन्त्रतन्त्रजपपूजनहोमैः ।। शक्यते न स खल रक्षितुमङ्गी जीवितव्यपगमे म्रियमाणः ॥१० ये धरन्ति धरणीं सह शैलये क्षिपन्ति सकलं ग्रहचक्रम् । ते भवन्ति भवने न स कश्चिद्यो निहन्ति तरसा यमराजम् ।।११ यो हिनस्ति रभसेन बलिष्ठानिन्द्रचन्द्र रविकेशवरामान । रक्षको भवति कश्चन मृत्योनिघ्नतो भवभूतो न ततोऽत्र ।।१२ चित्र जीवाकुलायां तनभागिना कुर्वता चेष्टितं सर्वदा मोहिना। गण्हता मुञ्चता विग्रहं संसतो नर्तकेनेव रङगक्षितौ भ्रम्यते ।।१३ श्वसिति रोदिति सीदति खिद्यदे स्वपिति रुष्यति तुष्यति ताम्यति । लिखति दीव्यति सीव्यति नत्यति भ्रमति जन्मवने कलिलाकुलः ॥१४ जनकस्तनयस्तनयो जनको जननी गहिणी गहिणी जननी। भगिनी दुहिता दुहिता भगिनी भवतीति बताङ्गिगणो बहुशः ।।१५ है। जैसे कि वनम सिंह जब हरिणको भक्षण करनेको उद्यत हो, तब उसे बचानेके लिए कोई भी संसारमें शरण नहीं है ।।७।। यदि यमराजसे ग्रसित प्राणीको बचाने वाला कोई होता, तो उत्तम देवों और इन्द्रोंसे सुरक्षित देवाङगनाओंका समुदाय कभी नहीं मरता ॥८॥ जिस यमराजको मारने के लिए देवगण भी समर्थ नहीं है, वह यमराज दूसरे प्राणियोंके द्वारा नहीं मारा जा सकता है। जो वृक्ष मदोन्मत हाथियोंके द्वारा भी भग्न नहीं किया जा सकता, वह शशको (खरगोशों) के द्वारा कैसे भग्न किया जा सकता है ॥९॥ जीवनके समाप्त होनेपर मरते हुए प्राणीकी रक्षा करने लिए रथ हाथी प्यादे घोडे, तथा मंत्र तंत्र जप पूजन और हवन भी निश्चयसे समर्थ नहीं है ।। १० । संसारमें ऐसे पुरुष हैं जो पर्वतोंके साथ पृथिवीका धारण कर सकते है और ऐसे भी पुरुषोंका होना संभव है जोकि समस्त ग्रहचक्रको उठाकर फेंक सकते है। कितु जो यमराजको शीघ्र मार सके, ऐसा कोई पुरुष इस भुवनमें नहीं है ।।११॥ जो मृत्यु रूप यमराज बडे बलशालो इन्द्र चन्द्र सूर्य नारायण और बलभद्रकों अतिशीघ्र मार देता है,उस मृत्युसे संसारके प्राणियोंको मारनेसे बचाने वाला इस संसारमें कोई भी रक्षक नहीं है ।।१२। इस प्रकार अशरण भावना कही। अब संसारानुप्रेक्षाको कहते है-नाना प्रकारके जीवोंसे भरी हुई इस संसाररूपी रंगभूमि पर नाना प्रकार की चेष्टाएं करते हुए यह मोही शरीरधारी शरीरको ग्रहण करते और छोडते हए सर्वदा परिभ्रमण करता रहता है।। १३॥ पाप कर्मसे व्याकल हआ यह जीव सर्वदा संसा कभी श्वास लेता है, कभी रोता है, कभी पीडित होता है,कभी खेद खिन्न होता है, कभी सोता है, कभी रुष्ट होता है कभो सन्तुष्ट होता है, कभी तमतमाता है, कभी लिखता है, कभी खेलता है, कभी कपडे सीता है और कभी नाचता है। इस प्रकार नाना प्रकारकी चेष्टाएँ करता हुआ घूमता रहता है ।।१४।। इस संसारम आज जो पिता है, मरकर कल वह पुत्र बन जाता है. आज जो पुत्र है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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