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________________ यश स्तिलकचम्पूगत-उपासकाध्ययन १३७ यच्चैतत्'श्रांत वेदमिह प्राहुधर्मशास्त्रं स्मृतिर्मता । ते सर्वार्थेष्वमीमांस्य ताभ्यां धर्मो हि निर्बभौ । ८८॥ ते तु यस्त्ववमन्येत हेतुशास्त्राश्रयाद् द्विजः । स साधुभिर्बहिः कार्यो नास्तिको वेदनिन्दक:'।८९।। तदपि न साधु । यतः । समस्तयुक्तिनिर्मुक्त: केवलागमलोचनः । तत्त्वमिच्छन्न कस्येह भवेद्वादी जयावहः ।। ९० सन्तो गणेषु तुष्यन्ति नाविचारेषु वस्तुषु । पादेन क्षिप्यते ग्रावा रत्नं मौलौ निधीयते ।। ९१ श्रेष्ठो गुणहस्थः स्यात्ततः श्रेष्ठतरों यतिः । यतेः श्रेष्ठतरो देवो न देवावधिकं परम् ।। ९२ गहिना समवृत्तस्य यतेरप्यधरस्थितेः । यदि देवस्य देवत्वं न देवो दुर्लभो भवेत् ॥ ९३ देवमादौ परीक्षेत पश्चात्तद्वचनक्रमम् । ततश्च तदनुष्ठानं कुर्यात्तत्र मति ततः ।। ९४ येऽविचार्य पुनर्देवं रुचि तद्वाचि कुर्वते । तेऽन्धास्तत्स्कन्धविन्यस्तहस्ता वाञ्छन्ति सद्गतिम् ॥९५ पित्रोः शुद्धौं यथाऽपत्ये विशुद्धिरिह दृश्यते । तथाप्तस्य विशुद्धत्वे भवेदागमशुद्धता ॥९६ (अब ग्रन्थकार मनुस्मृतिके दो पद्योंको देकर उसकी आलोचना करते हैं-) तथा (मनुस्मृति अ०२ श्लोक १०-११ में) जो यह कहा हैं-"श्रुतिको वेद कहते हैं और धर्मशास्त्रको स्मृति कहते है। उन श्रुति और स्मृतिका विचार प्रतिकूल तर्कोसे नहीं करना चाहिये क्योंकि उन्हींसे धर्म प्रकट हुआ हैं। जो द्विज युक्ति शास्त्रका आश्रय लेकर श्रुति और स्मृतिका निरादर करता हैं, साधु पुरुषोंको उसका बहिष्कार करना चाहिये ; क्योंकि वेदका निन्दक होनेसे वह नास्तिक हैं।।८८-८९।। यह भी ठीक नहीं हैं क्योंकि जो मतावलम्बी समस्त युक्तियोंको छोडकर केवल आगमके बलपर तत्त्वकी सिद्धि करना चाहता हैं वह किसको नहीं जीत सकता? अर्थात् सभीको जीत लेगा ॥९०॥ भावार्थ मनुस्मृतिकारने श्रुति और स्मृतिमें युक्ति लगाने का निषेध किया है किन्तु जैनाचार्य कहते है कि युक्तिके विना केवल आगमसे तत्त्वकी सिद्धि नहीं हो सकती। यदि केवल आगमसे ही तत्त्वको सिद्धि मानी जायेगी तब तो ऐसा व्यक्ति सबको जीत लेगा। अथवा सभी धर्मवाले अपने-अपने आगमोंसे अपने-अपने तत्त्व सिद्ध कर लेंगे। अतः युक्तिसे नहीं घबराना चाहिए, जो बात विचार पूर्ण होती है उसे सब ही माननेको तैयार रहते हैं । सज्जन पुरुष गुणोंसे प्रसन्न होते हैं,अविचारित वस्तुओंसे नहीं । देखो,पत्थरको पैरसे ठुकराया जाता है और रत्नकों मुकुटमें स्थापित किया जाता हैं । अतः जो गुणोंसे श्रेष्ठ है वह गृहस्थ है, गृहस्थसे भी श्रेष्ठ यति है और यतिसे श्रेष्ठ देव है। किन्तु देवसे श्रेष्ठ कोई नहीं है। जिसका आचरण गृहस्थके समान है जो यतिसे भी नीचे स्थित है, ऐसे देवको भी यदि देव माना जाता है तो फिर देवत्व दुर्लक्ष नहीं रहता ॥९१-९३॥ (अब ग्रन्थकार आगम और तत्त्वकी मीमांसा करते है-) सबसे प्रथम देवकी परीक्षा करनी चाहिए, पीछे उसके वचनोंकी परीक्षा करनी चाहिए। तदनन्तर उसके अनुष्ठान (आचरण) की परीक्षा करनी चाहिए। तत्पश्चात् उसके मानने में बुद्धि करे । जो लोग देवकी परीक्षा किये बिना उसके वचनोंका आदर करते है वे अन्धे हैं और उस देवके कन्धेपर हाथ रखकर सद्गति प्राप्त करना चाहते हैं । जैसे माता-पिताके शुद्ध होनेपर सन्तान में शुद्धि देखी जाती है वैसे ही आप्तके विशुद्ध होनेपर ही आगममें शुद्धता हो सकती है। अर्थात यदि आप्त निर्दोष होता है तो उसके द्वारा कहे गये आगम में भी कोई दोष नहीं पाया जाता । अतः पहले आप्त या देवकी परीक्षा करनी चाहिए, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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