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________________ १३८ श्रावकाचार-संग्रह वाग्विशुद्धापि दुष्टा स्याद् वृष्टिवत्पात्रदोषतः । वन्द्यं वचस्तदेवोच्चैस्तोयवत्तीर्थसंश्रयम् ।। ९७ दृष्टऽथं वचसोऽध्यक्षादनुमेयेऽनुमानतः । पूर्वापराविरोधेन परोक्षे च प्रमाणता ।। ९८ पूर्वापरविरोधेन यस्तु युक्तया च बाध्यते । मत्तोन्मत्त वचःप्रख्यः स प्रमाणं किमागमः ॥ ९९ हेयोपादेयरूपेण चतुर्वगंसमाश्रयात् । कालत्रयगतानर्थान्गमयन्नागमः स्मृतः ।। १०० आत्मानात्मस्थितिर्लोको बन्धमोक्षौ सहेतुको । आगमस्य निगद्यन्ते पदार्थास्तत्त्ववेदिभिः ।। १०१ उत्पत्तिस्थितिसंहारसारा: सर्वे स्वभावतः । नयद्वयाश्रयादेते तरङ्गा इव तोयधेः ।। १०२ क्षयाक्षयैकपक्षत्वे बन्धमोक्षक्षयागमः । तात्त्विकैकत्वसद्भावे स्वभावान्तरहानितः ।। १०३ उसके बाद उसके वचनोंको प्रमाण मानना चाहिए ।।९४-९६।। जैसे वर्षाका पानी समुद्र में जाकर खारा हो जाता हैं या सांपके मुख में जाकर विषरूप हो जाता है वैसे ही पात्रके दोषसे विशुद्ध वचन भी दुष्ट हो जाता है । तथा जैसे तीर्थका आश्रय लेनेवाला जल पूज्य होता हैं वैसे हीजो वचन तीर्थङ्करोंका आश्रय ले लेता है अर्थात् उनके द्वारा कहा जाता हैं वही पूज्य होता है ॥९७।। जो वचन ऐसे अर्थको कहता हैं जिसे प्रत्यक्षसे देखा जा सकता हैं, उस वचनकी प्रमाणता प्रत्यक्षसे सिद्ध हो जाती है। जो वचन ऐसे अर्थको कहता हैं जिसे अनुमानसे ही जाना जा सकता हैं उस वचनकी प्रमाणता अनुमानसे सिद्ध होती है । और जो वचन बिल्कुल परोक्ष वस्तुको कहता हैं, जिसे न प्रत्यक्षसे ही जाना जा सकता है और न अनुमानसे, पूर्वापरमें कोई विरोध न होनेसे उस वचनकी प्रमाणता सिद्ध होती है । अर्थात् यदि उस वचनके द्वारा कही गई बातें आपस में कटती नहीं हैं, तो उस वचनको प्रमाण माना जाता हैं ॥९८।। भावार्थ- शास्त्रोंमें बहुत सी ऐसी बातोंका भी कथन पाया जाता है जिनके विषय में न युक्तिसे काम लिया जा सकता हैं और न प्रत्यक्षसे, ऐसे कथनको सहसा अप्रमाण भी नहीं कहा जा सकता। अत। उन शास्त्रोंकी अन्य बातें, जो प्रत्यक्ष और अनमानसे जानी जा सकती है वे यदि ठीक ठहरती हैं और यदि उनमें परस्परम विरोधी बातें नहीं कही गई है तो उन शास्त्रोंके ऐसे कथनको भी प्रमाण ही मानना चाहिए। जिस आगममें परस्परमें विरोधी बातोंका कथन हैं और युक्तिसे भी बाधा आती हैं, पागलके प्रलापके समान उस आगमको कैसे प्रमाण माना जा सकता है ॥१९॥ आगमका स्वरूप और विषय-जो धर्म,अर्थ,काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थोका अवलम्बन लेकर,हेय और उपादेय रूपसे त्रिकालवर्ती पदार्थोका ज्ञान कराता है उसे आगम कहते है ॥१००॥ तत्त्वके ज्ञाताओंका कहना है कि आगममें जीव,अजीव,अवस्थान,लोक तथा अपने-अपने कारणोंके साथ बन्ध और मोक्षका कथन होता है ।।१०१॥ भावार्थ-जिसमें चारों पुरुषार्थीका वर्णन करते हुए यह बतलाया गया हो कि क्या छोडने योग्य है और क्या ग्रहण करने योग्य है वही सच्चा आगम है । उस आगममें जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष इन सात तत्त्वोंका वर्णन रहता है । प्रत्येक वस्तु उत्पाद-व्यय घोव्यात्मक है-जैसे समुद्रमें लहरें उठती है,नष्ट भी होती है, फिर भी जलरूप सदा बना रहता है वैसे ही सभी पदार्थ द्रव्याथिक और पर्यायाथिक नयकी अपेक्षासे स्वभावसे ही उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यसे युक्त होते है।।१०२।। भावार्थ-जैनधर्म में प्रत्येक वस्तको प्रति समय उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यसे युक्त माना हैं अर्थात् प्रत्येक वस्तु प्रति समय उत्पन्न होती हैं,नष्ट होती है और स्थिर भी रहती है। इसपर यह प्रश्न होता है कि ये तीनों वातें तो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org .
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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