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________________ ४२४ श्रावकाचार-संग्रह चउविहमहविदव्वं धम्माधम्मबराणि कालोय । गइ-ठाणग्गहणलक्खणाणि तह वट्टण गणोय ॥१९ परमत्थो ववहारो दुविहो कालो जिणेहि पण्णत्तो । लोयायासपएसट्ठियाणवो मुक्खकालस्स ।। २० गोणसमयस्सरे एए कारणभूया जिणेहि णिहिट्ठा । तीदागणादभूओ ववहारो शंतसमओ य ।। २१ परिणामि-जीव-मुत्ताइएहि णाऊण दवसब्भाव । जिणवयणमणुसरतेहि थिरमइ होइ कायव्वा ।। २२ परिणामि जीव मुत्तं सपएसं एयखित्त किरिया य । णिच्चं कारणकत्ता सव्वगदमियरम्हि अपवेसो ॥ २३ दुण्णि य एयं एवं पंच य तिय एय दुण्णि चउरो य । पंच य एवं एयं मूलस्स य उत्तरे णेयं ॥ २४ . सुहुमा अवायविसया खणखइणो अत्थपज्जया दिट्ठा । वंजणपज्जाया पुण थूला गिरगोयरा चिरविवत्था । २५ विषय अर्थात् स्पर्श, रस, गंध और शब्द सूक्ष्म-स्थूल हैं । कर्म सूक्ष्म हैं और परमाणु सूक्ष्म-सूक्ष्म है। ।। १८ ॥ धर्मास्तिकाय. अधर्मास्तिकाय, आकाश और काल ये चार प्रकारके अरूपी अजीवद्रव्य हैं। इनमें आदिके तीन क्रमशः गतिलक्षण, स्थितिलक्षण और अवगाहनलक्षणवाले हैं तथा काल वर्तनालक्षण है ॥ १९ ॥ जिनेन्द्र भगवान्ने कालद्रव्य दो प्रकारका कहा है-परमार्थकाल और व्यवहारकाल । मुख्यकालके अणु लोकाकाशके प्रदेशोंपर स्थित हैं। इन कालाणुओंको व्यवहारकालका कारणभत जिनेन्द्र भगवानने कहा है व्यवहारकाल अतीत और अनागत-स्वरूप अनन्त समयवाला कहा गया है ।। २०-२१॥ परिणामित्व, जीवत्व और मूर्तत्वके द्वारा द्रव्यके सद्भावको जानकर जिन भगवान्के वचनोंका अनुसरण करते हुए भव्य जीवोंको अपनी बुद्धि स्थिर करना चाहिए ।। २२ ॥ उपर्युक्त छह द्रव्योंमेंसे जीव और पुद्गल ये दो द्रव्य परिणामी हैं । एक जीवद्रव्य चेतन है और सब द्रव्य अचेतन हैं । एक पुद्गल द्रव्य मूर्तिक है और सब द्रव्य अमूत्तिक हैं। जीव, पुद्गल, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाश ये पाँच द्रव्य प्रदेशयुक्त हैं, इसीलिए बहुप्रदेशी या अस्तिकाय कहलाते हैं। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, और आकाश, ये तीन द्रव्य एक-एक (और एक क्षेत्रावगाही ) हैं । एक आकाशद्रव्य क्षेत्रवान् है, अर्थात् अन्य द्रव्योंको क्षेत्र (अवकाश) देता है । जीव और पुद्गल, ये दो द्रव्य क्रियावान् हैं धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाश और काल, ये चार द्रव्य नित्य हैं,(क्योंकि, इनमें व्यंजनपर्याय नहीं है ।) पुद्गल, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्ति काय, आकाश और काल, ये पांच द्रव्य कारणरूप हैं । एक जीवद्रव्य कर्ता है। एक आकाश, द्रव्य सर्वव्यापी है । ये छहों द्रव्य एक क्षेत्र में रहनेवाले हैं, तथापि एक द्रव्यका दूसरेमें प्रवेश नहीं है । इस प्रकार छहों मूलद्रव्योंके उपर्युक्त उत्तर गुण जानना चाहिए ।। २३-२४ ।। पर्यायके दो भेद हैं-अर्थपर्याय और व्यंजनपर्याय । इनमें अर्थपर्याय सूक्ष्म हैं, अवाय (ज्ञान) विषयक है अतः अइथूलथूलथूलं थूलं सुहुमं च सुहुमथूलं च । सुहुमं च सुहुमसुहुमं धराइयं होई छब्भेयं ।। १८ पुढवी जलं च छाया चउरिदियविसय कम्मपरमाणू । छविहभेयं भणियं पुग्गलदव्वं जिणिदेहिं ।। १९ ये दोनों गाथाएं गो. जीवकांडमें क्रमशः ६०२ और ६०१ नं० पर कुछ शब्दभेदके साथ पाई जाती है। १ झ ध. वत्तण । २ व्यवहारकालस्य । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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