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प्रशस्ति आसी ससमय-परसमविदू सिरिकुंदकुंदसंताणे । भव्वयणकुमुयवसिसिरयरो सिरिणंदिणामेण ॥
कित्ती जस्सिदुसुमा सयलभुवणमज्झे जहिच्छं भमित्ता, णिच्चं सा सज्जणाणं हियय-वयण-सोए णिवासं करेई । जो सिद्धतंबुरासि सुणयतरणमासेज्ज लीलावतिण्णो,
वण्णेउं को समत्थो सयलगुणगणं से वियड्ढो' वि लोए ॥५४१ सिस्सो तस्स जिणिदसासणरओ सिद्धंतपारंगओ, खंती-मद्दव-लाहवाइदसहाधम्मम्मि णिच्चज्जओ। पुण्णेंदुज्जलकितिपूरियजओ चारित्तलच्छीहरो, संजाओं णयणं दिणाममणिणो भव्वासयाणंदओ ॥ सिस्सो तस्स जिणागम-जलणिहिवेलातरंगधोयमणो। संजाओ सयलजए विक्खाओ मिचन्दु त्ति। तस्स पसाएण मए आइरियपरंपरागयं सत्थं । वच्छल्लयाए रइयं भवियाणमुवासयज्झयणं ।।५४४ जं कि पि एस्थ मणियं अयाणमाणेण पवयणविरुद्धं । खमिऊण पवयणधार। सोहित्ता तं पयासंतु ५४५ छच्च सया पण्णसुत्तराणि एयस्स गंथपरिमाणं । वसुणंदिणा णिबद्धं वित्थयरियध्वं वियड्ढेहि ५४६
श्री कुन्दकुन्दाचार्यकी अम्नायमें स्व-समय और पर-समयका ज्ञायक, और भव्यजनरूप कूमदवनके विकसित करने के लिए चन्द्र-तुल्य श्रीनन्दि नामक आचार्य हुए ।।५४०।। जिसकी चन्द्रसे भी शुभ्र कीत्ति सकल भुवनके भीतर इच्छानुसार परिभ्रमण कर पुनः वह सज्जनोंके हृदय, मुख और श्रोतमें नित्य निवास करती है, जो सुनयरूप नावका आश्रय करके सिद्धान्तरूप समुद्रको लीलामात्रसे पार कर गये, उस श्रीनन्दि आचार्यके सकल गुणगणोंको कौन विचक्षण वर्णन करनेके लिए लोकमें समर्थ है? ॥५४१।। उस श्रीनन्दि आचार्यका शिष्य, जिनेन्द्र-शासनमें रत,सिद्धान्तका पारंगत, क्षमा, मार्दव, आर्जव आदि दश प्रकारके धर्ममें नित्य उद्यत, पूर्णचन्द्र के समान उज्ज्वल कीत्तिसे जगको पूरित करनेवाला, चारित्ररूपी लक्ष्मीका धारक और भव्य जीवोंके हृदयोंको आनंद देनेवाला ऐसा नयनन्दि नामका मुनि हुआ।५४२।। उस नयनन्दिका शिष्य, जिनागम रूप जलनिधिकी वेला-तरंगोंसे धुले हुए हृदयवाला नेमिचन्द्र इस नामसे सकल जगत्में विख्यात हुआ ॥५४३।। उन नेमिचन्द्र आचार्य के प्रसादसे मैने आचार्य-परम्परासे आया हुआ यह उपासकाध्ययन शास्त्र वात्सल्य भावनासे प्रेरित होकर भव्य जीवोंके लिए रचा है। ५४४।। अजानकार होनेसे जो कुछ भी इसमें प्रवचन-विरुद्ध कहा गया हो, सो प्रवचन के धारक (जानकार) आचार्य मुझे क्षमाकर
और उसे शोधकर प्रकाशित करें ।।५४५।। वसुनन्दिके द्वारा रचे गये इस ग्रन्थका परिमाण (अनु. ष्टप श्लोकोंकी अपेक्षा)पचास अधिक छह सौ अर्थात् छह सो पचास (६५०) हैं । विचक्षण पुरुषोंको इस ग्रन्थका विस्तार करना चाहिए, अथवा जो बात इस ग्रन्थ में संक्षेपसे कही गई हैं, उसे वे लोक विस्तारके साथ प्रतिपादन करें॥५४६।।
इत्युपासकाध्ययनं वसुनन्दिना कृतमिदं समाप्तम् ।
१३. सेवियट्टो, म. सेवियतो। ( विदग्ध इत्यर्थः )
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