________________
सावयधम्म दोहा
नवकारेष्पिणु पंचगुरु दूरिदलिय दुहकम्मु । संखेवे पयडक्खहि अक्खमि सावयधम्म् ॥ १ दुज्जणु सुहियउ होउ जगि सुयण पयासिउ जेण ।
अमिउ वि वासक तह जिम मरगउ' कच्चेण ॥२
जह समिलहिं सायर गर्याहं दुल्लहु जूवहं रंधु । तह" जीवहं भवजलगयहं मणुयत्तण संबंधु || ३ सुह सारउ मणुयत्तणहं तं सुहु धम्मायतु | धम्मु अरे जिय तं करहि जं अरहंतें" वृत्तु ॥४ अरहंतु वि दोसह रहिउ जासु'वि केवलणाणु । णाणमुणिय कालत्तयहो वयणु वि तासु पमाणु ॥ ५ तं पायडु जिणवरवयणु गुरु उवए' सें होइ । अंधारई विणु दीवयें अहव कि पिछह कोइ ||६ संजम सील सउच्च नउ जसु सूरिहिं गुरु सोइ । दाहछेयकसघायखम् उत्तम कंचणु होइ ॥ ७ माई गुरुउवएसियई र सिवपट्टणि जंति । तं विणु वग्धहं वणय रहं चोरहं पिडि वि पडंति ॥ ८ पारविहन्तं कहिउ रे जिय सावयधम्मु । सत्तिए परिपालंतयहं सहलउ माणुस जम्मु ||९ पंचुंबरह णिवित्ति जसु विसणु'ण एक्कु बि होइ । सम्मत्ते सुविसुद्धमइ पढमउ सावज होइ || १० पंचाणुव्वय जो धरइ निम्मल गुणवय तिण्णि । सिवखावयई चयारि जसु सो बीयउ मणि गण्णि ||
1
अति दुःखदायी कर्मोंके दलन करनेवाले पञ्च परमगुरुओंको नमस्कार करके मैं संक्षेपसे प्राकृत भाषा के शब्दों द्वारा श्रावकके धर्मको कहता हूँ || १|| दुर्जन सुखी होवे, जिसने जगत् में सुजनको प्रकाशित किया हैं, जैसे कि विषसे अमृत, अन्धकारसे दिन और काचसे मरकतमणि प्रकाशित होता हैं ||२|| जैसे समुद्र में गिरी हुई समिलाके लिए जुवाका छेद पाना दुर्लभ है, उसी प्रकार भव-जल में पडे जीवको मनुष्यपनेका सम्बन्ध होना दुर्लभ हैं || ३ || मनुष्यपनेका सार सुख है, वह सुख धर्मके अधीन हैं । धर्म भी वह है जिसे अरहन्त देवने कहा है । अतएव रे जीव, तू उस धर्मका पालन कर ||४|| अरहन्तदेव भी वे हैं जो कि राग-द्वेषादि अठारह दोषोंसे रहित है और जिनके केवलज्ञान है उस केवलज्ञानके द्वारा त्रिकालवर्ती सर्व पदार्थों के जाननेवाले उन अरहन्तदेवके वचन भी प्रमाण है ||५|| वह जिनवरका वचन गुरुके उपदेशसे प्रकट होता हैं । अथवा अन्धकार में दीपकसे बिना क्या कोई कुछ देख सकता है | ६ || जिस सूरिमें संयम, शील, शौच और तप है, वही गुरु है | दाह, छेदन, कसौटी-कष और घन-घातको सहन करनेवाला सुवर्ण ही उत्तम होता हैं ||७|| गुरुके द्वारा उपदिष्ट मार्गसे मनुष्य शिवपुरको जाते है । उसके बिना मनुष्य कालरूप व्याघ्र, कषायरूप भील और इन्द्रियरूप चोरोंके पिण्ड में पड जाते हैं ||८||
3
हे जीब, वह श्रावकधर्म ग्यारह प्रकारका कहा गया है । शक्तिके अनुसार उसका परिपालन करनेवाले जीवों का मनुष्यजन्म सफल है || ९ || जिसके पाँच उदुम्बर फलोंका त्याग हैं, व्यसन एक भी नहीं हैं, और सम्यक्त्वके द्वारा जिसकी बुद्धि सुविशुद्ध है, वह प्रथम दर्शन प्रतिमाका धारक श्रावक है ।। १० ।। जो अतिचार-रहित निर्मल पाँच अणुव्रतोंको और तीन गुणव्रतोंको धारण करता
१ द. अक्खिय । २ म. तमिण । ३ द मरगय । ४ म जिह। म तिह । ६ अ. द. अरि । ७ म अरहंत । ८ म जसु पुणु । ९ म उपरसई । १० म वसणु ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org