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________________ ४८४ श्रावकाचार-संग्रह चउरतुहं दोसहं रहिउ पुवायरियकमेण । जिण वंदइ संझइं तिहिं सो तिज्जउ णियमेण ।। १२ उभयचउद्दसि अट्ठमिहिं जो पालइ उवबासु । सो चउत्थु सावउ भणिउ दुक्कियकम्भविणासु ॥१३ पंचमु सावउ'जाणि जसु हरियह णाहि पवित्ति । मणक्यकाहि छट्टयहि दिवसहि णारिणिवित्ति॥ बंभयारि सत्तमु भणिउ अट्ठम् चत्तारंभु । मुक्कपरिग्गहु जाणि जिय णवमउ वज्जियडंभु॥१५ अणमइ देइ ण पुच्छियउ दसमउ जिग-उवइछ । एयारहमउ तं दुविहु णउ भुंजइ उद्दिठ्ठ' ।।१६ एयवत्थु पहिलउ विदिउ कयकोवीणपविति। कत्तरि-लोयणि हिचिहुर सइं पुणु भोज्ज णिवित्त ॥१७ ए ठाणइं एयारसई सम्मत्त मुक्काई । हुति ण पउमई सरवर हं विणु पाणिय सुक्काहं ।। १८ अत्तागमतच्चाइयह जं णिम्मलु सद्धाणु । संकाइयदोसहं हिउ तं सम्मत्तु बियाणु ।।१९ संकाइय अट्ठ मय परिहरि मूढय' तिणि । जे छह कहिय अणायदण दसण-मल अवगणि १२० मुणि दंसणु जिय जेण विणु सावय-गुण ण हु होइ । जह सामग्गि विवज्जियहं सिज्झइ कज्जु ण कोइ ।।२१ हैं, एवं जिसके चार शिक्षाक्त है, उसे अपने मन में दूसरी व्रत प्रतिमाका धारक श्रावक मानो ॥११॥ जो पूर्वाचार्योंके क्रमानुसार बत्तोस दोषोंसे रहित होकर तीनों संध्याओंमें जिनदेवकी वन्दना करता है, वह नियमसे तीसरी सामायिक प्रतिमाका धारक श्रावक है ।।१२।। जो प्रत्येक मासकी दोनों चतुर्दशी और अष्टमीको दुष्कृत कर्मोका विनाश करनेबाला उपवास धारण करता हैं, वह चौथी प्रोषध प्रतिमाका धारक श्रावक है ।।१३।। जिसकी हरित सचित्त वस्तुओंके भक्षण में प्रवृत्ति नहीं है. वह पाँचवीं सचित्त त्याग प्रतिमाका धारक श्रावक हैं। जिसके मन-वचन-कायसे दिन में स्त्रीसेवनकी निवृत्ति है, वह छठी दिवामैथुनत्याग प्रतिमाका धारक श्रावक हैं ।।१४।। स्त्री-सेवनका सर्वथा त्यागी ब्रह्मचारी सातवाँ श्रावक हैं । आरम्भका त्यागी आठवाँ श्रावक है। परिग्रहका त्यागी और दंभसे रहित मनुष्यको हे भव्यजीव, नवमी प्रतिमाका धारक जानो ॥१५॥ जो पूछनेपर भी गृह-कार्योंके करने में अनुमति नहीं देता है, उसे जिनदेवने दसवाँ अनुमतित्यागी श्रावक कहा हैं। जो उद्दिष्ट भोजन नहीं करता है, वह उद्दिष्टत्यागी ग्यारहवाँ श्रावक हैं। वह दो प्रकारका है ।।१६।। उनमें पहिला एक वस्त्र धारण करता है और दूसरा केवल लंगोटी रखता हैं । पहिला कैंची (या उस्तरे) से केश दूर करता हैं और दूसरा केशोंका लोंच करता है। ये दोनों ही स्वयं भोजन बनानेकी निवृत्ति रखते हैं ।।१७॥ श्रावकके ये ग्यारह प्रतिमारूप स्थान है। ये स्थान सम्यक्त्वसे रहित जीवोंके नहीं होते हैं। जैसे कि पानीके विना सूखे सरोवर में कमल नहीं होते है ।। १८॥ __ आप्त, आगम और तत्त्वादिकोंका जो शंकादि दोषोंसे रहित निर्मल श्रद्धान है, उसे ही सम्यक्त्व जानना चाहिए ।।१५। शकादिक आठ दोष, आठ मद, तीन मूढता और छह अनायतन ये सम्यग्दर्शनके पच्चीस दोष कहे गये है, इनका परिहार करना चाहिए ।।२०।। हे जीव, उसे सम्यग्दर्शन जानो, जिसके बिना श्रावकका कोई भी गुण नहीं होता हैं । जैसे कि सामग्रीसे रहित पुरुषका कोई कार्य सिद्ध नहीं होता हैं ।।२१॥ १ म ज कच्चासणहं। २ म दंभु । ३ व उबइठ्ठ । ४ व भोय- । झ 'किय सहसंग णिवित्ति। इति पाठान्तरम् । ५ म मूढा । ६ ब सुय । म सुणि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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