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________________ संपादकीय वक्तव्य आज से लगभग १० वर्ष पूर्वकी बात है कि इस संस्थाके मानद मंत्री श्रीमान् सेठ वालचंद्र देवचंद्रजी शहाका विचार हुआ कि इस संस्थासे दि जैन सम्प्रदाय में उपलब्ध सभी श्रावकाचारों का संकलन करके प्रकाशित हो तो अभ्यासियोंके लिए बहुत उपयोगी रहे। उन्होंने अपना अभिप्राय अपने अनन्य सहयोगी स्व. डॉ. ए. एन. उपाध्यं से कहा । डॉक्टर सा. ने एक रूप-रेखा बनाकर आपके पास भेजी। और आपने उसे मेरे पास भेजकर प्रेरणा की कि इस कार्यभारको आप स्वीकार करें । मैं उस समय ऐ पन्नालाल दि. जैन सरस्वती भवनका यवस्थापक होकर ब्यावर आया ही था, इसलिए मैने यह सोचकर इस कार्यको सहर्ष स्वीकार कर लिया कि सरस्वती भवनका विशाल ग्रथ - संग्रह इस कार्य में सहायक होगा । 1 स्व. डॉ. उपाध्ये सा. ने १५ श्रावकाचारोंके नाम अपने पत्र में सुझाये थे । सरस्वती भवनकी ग्रन्थ-सूचीसे कुछ और भी श्रावकाचारोंके नाम ज्ञात हुए और मैने उनकी प्रेसकापी करना प्रारम्भ कर दिया । स्व. डॉ. उपाध्येने जिस काल - क्रमसे श्रावकाचारोंके संकलनका सुझाव दिया था, उन्हेंऔर नये उपलब्ध श्रावकाचारों नाम अपने विचार से काल-क्रम से लिखकर २१९ श्रावकाचारों की सूत्री दि. २११४।७१ को श्रीमान् पं. कैलाशचन्द्रजीके पास बनारस भेजी और कालक्रमका निर्णय चाहा । उन्होंने उसी पत्र पर अपना निर्णय देकर यह भी सुझाव दिया कि पद्मनन्दिपंचविंशतिका, वरांगचरित, हरिवंशपुराण आदिमें भी जो श्रावक धर्मका प्रतिपादन किया गया है उसे भी संकलित करके प्रस्तुत संग्रह में दे दिया जाना अच्छा रहेगा । तदनुसार चारित्रप्राभृत, तत्त्वार्थ सूत्रका सप्तम अध्याय, पद्मनन्दिपंचविंशतिका, पद्मचरित, हरिवंश पुराण, वराङ्ग चरित से भी श्रावका चारका संकलन किया गया । स्व डॉ. उपाध्येके सुझाव से यह भी निर्णय किया गया कि जो श्रावकाचार स्वतंत्ररूपसे निर्मित हैं, और जो कार्तिकेयानुप्रेक्षा तथा महापुराणके श्रावक धर्मके वर्णन करनेवाले पर्व हैं उन्हें तो क्रमशः काल-क्रमके अनुसार स्थान दिया जावे । शेष जो अन्य ग्रन्थोंसे उद्धृत हों, अन्त में परिशिष्टके रूपसे दिया जावे । प्रस्तुत संकलनके मुद्रणका निर्णय वर्द्धमान मुद्रणालय में किया गया और चार वर्ष पूर्व इसकी प्रारम्भिक प्रेसकापी बनारस भेज दी गई। परन्तु वहांसे प्रूफ मेरे पास आने-जाने में समय बहुत लगता था अतः तीन वर्ष में लगभग ३० ही फॉर्म छप सके । संस्थाके मानद मंत्रीजी चाहते थे कि इस वीर निर्वाणशताब्दी पर तो श्रावकाचार-संग्रहका प्रथम भाग: प्रकाशित हो ही जाना चाहिए | पर वहां प्रूफ-संशोधन कौन करे, यह समस्या सामने थी । अन्तमें संस्थाके मंत्रीजीके परामर्शसे मैं बनारस गया और श्री. पं. महादेवजी व्याकरणाचार्यसे - जो कि प्रूफ - संशाधनके कार्य में अतिकुशल हैं - इसे स्वीकार करनेका आग्रह किया । हर्ष हैं कि उन्होंने उसे स्वीकार किया और लगभग आधे भागका उन्होंने इस वर्ष में प्रूफ-संशोधन किया, जिससे कि यह प्रथम भाग पाठकों के सम्मुख पहुँच सका हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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