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________________ २०६ श्रावकाचार-संग्रह ज्योतिरेकं परं वेषः करीषाश्चसमित्समः । तत्प्राप्त्युपायविमूढा भ्रमन्ति भवकानने ॥ ६६१ परापरपरं देवमेवं चिन्तयतो यतेः । भवन्त्यतीन्द्रियास्ते ते भावा लोकोत्तरश्रियः ।। ६६२ व्योमच्छायानरोत्सगि यथामूर्तमपि स्वयम् । योगयोगात्तथात्माऽयं भवेत्प्रत्यक्षवीक्षणः ।। ६६३ न ते गुणा न तज्ज्ञानं न सा दृष्टिन तत्सुखम् । यद्योगधोतने न स्यादात्मन्यस्ततमश्चये ।। ६६४ देवं जगत्त्रयीनेत्रं व्यन्तराद्याश्च देवताः । समं पूजाविधानेषु पश्यन् दूरं ब्रजेदधः ।। ६६५ ताः शासनाधिरक्षार्थ कल्पिताः परमागमे । अतो यज्ञांशपानेन माननीयाः सुदृष्टिभिः ।। ६६६ तच्छासनकमक्तीनां सुशां सुवतात्मनाम् स्वयमेव प्रसीदन्ति ताः पुंसां सपुरन्दराः ॥ ६६७ तखामबद्धकक्षाणां रत्नत्रयमहीयसाम् । उभे कामदुधे स्यातां द्यावाभूमी मनोरथैः ।। ६६८ कुर्यात्तपो जपेन्मन्त्रान्नमस्येद्वापि देवताः । सस्पहं यदि तच्चेतो रिक्तः सोऽमुत्र चेह च ।। ६६९ ध्यायेद्वा वाङ्मयं ज्योतिर्गुरुपञ्चकवाचकम् एतद्धि सर्वविद्यानामधिष्ठानमनश्वरम् ॥ ६७० fy फंसे रहनेके कारण मनुष्यका मन भी सदा चंचलबना रहता है। किन्तु जब मनुष्य मोक्ष के उपाय में लगकर अपने मनको स्थिर करनेका प्रयत्न करता है और अर्हन्तका ध्यान करता है तो उसका मन उसीमें लीन होकर उसे अईन्त बना देता है और तब मनरूपी पत्ता टूटकर गिरपडता हैं क्योंकि अर्हन्त अवस्थामें भाव मन नहीं रहता। जैसे आग एक है किन्तु कण्डा,पत्थर और लकडीके रूप में वह विभिन्न आकार धारण कर लेती है। वैसे ही आत्मा एक हैं किन्तु स्त्री, नपुंसक और पुरुषके वेषमें वह तीन रूप प्रतीत होती है । उस आग या आत्माकी प्राप्तिके उपायोंसे अनजान मनुष्य संसाररूपी जंगल में भटकते फिरते है।।६६१।। इस प्रकार जो मुनि पर और अपरसे भी श्रेष्ठ श्री अर्हन्तदेवका ध्यान करता है उसके बड़े उच्च अलौकिक हम इन्द्रियोंसे नहीं जान सकते ॥६६२।। जैसे आकाश स्वयं अमतिक हैं फि छायाके संसर्गसे शून्य आकाशमें भी पुरुषका दर्शन होता हैं वैसे ही यद्यपि आत्मा अमूर्तिक हैं फिर भी ध्यानके सम्बन्धसे उसका प्रत्यक्ष दर्शन हो जाता है ।। ६६३। न ऐसे कोई गुण हैं, न कोई ज्ञान है, न ऐसी कोई दृष्टि हैं और न ऐसा कोई सुख है जो अज्ञान आदि रूप अन्धकारके समूहका नाश हो जानेपर ध्यानसे प्रकाशित आत्मामें न होता हो । अर्थात् ध्यानके द्वारा आत्मामें अज्ञानरूप अन्धकारके नष्ट हो जानेपर ज्ञानादि सभी गुण प्रकाशित हो जाते है ।।६६४॥ (कुछ व्यन्तरादिक देवता जिनशासनके रक्षक माने जाते हैं । कुछ लोक उनकी भी पूजा करते है। उसके विषयमें ग्रन्थकार बतलाते है-) जो श्रावक तीनो लोकोंके द्रष्टा जिनेन्द्र देवको और व्यन्तरादिक देवताओंको पूजाविधानमें समान रूपसे मानता हे अर्थात् दोनोंकी समान रूपसे पूजा करता हैं वह नरकगामी होता हैं ।। ६६५।। परमागम में जिनशासनकी रक्षाके लिए उन शासन-देवताओंकी कल्पना की गयी है अतः पूजाका एक अंश देकर सम्यग्दृष्टियोंको उनका सम्मान करना चाहिए ।।६६६।। जो व्रती सम्यग्दृष्टि जिनशासनमें अचल भक्ति रखते हैं उनपर वे व्यन्तरादिक देवता और उनके इन्द्र स्वयं ही प्रसन्न होते है ।।६६७।। जो रन्नत्रयके धारक मोक्षाधामकी प्राप्तिके लिए कमर कस चुके हैं, भूमि और आकाश दोनों ही उनके मनोरथोंको पूर्ण करते हैं। ६६८।। तप करो, मन्त्रोंका जाप करो अथवा देवोंको नमस्कार करो, किन्तु यदि चित्तमें सांसारिक वस्तुओंकी चाह है कि हमें यह मिल जाये तो वह इस लोकमें भी खाली हाथ रहता है और परलोक में भी खाली हाथ रहता है ।। ६६९।। अथवा पञ्चपरमेष्ठीके वाचक मंत्रका ध्यान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org .
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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