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________________ यशस्तिलचकम्पूगत-उपासकाध्ययन २०७ ध्यायन् विन्यस्य देहेऽस्मिन्निदं मन्दिरमुद्रया। सर्वनामादिवहि वणधिन्तं सबीजकम् ॥ ६७१ तप.श्रुतविहीनोऽपि तद्धयानाविद्धमानसः । न जातु तमसा स्रष्टा तत्तत्त्वचिदीप्तधीः ।। ६७२ अधीत्य सर्वशास्त्राणि विधाय च तप: परम् । इमं मन्त्रं स्मरन्त्यन्ते मुनयोऽनन्यचेतसः ।। ६७३ मन्त्रोऽयं स्मतिधाराभिश्चित्तं यस्याभिवर्षति । तस्य सर्वे प्रशाम्यन्ति क्षुद्रोपद्रवपासवः ॥ ६७४ अपवित्रः पवित्रो वा सुस्थितो दुःस्थितोऽपि वा। भवत्येतस्मृतिजन्तुरास्पदं सर्वसंपदाम् ॥ ६७५ उक्तं लोकोत्तरं ध्यान किञ्चिल्लौकिकमुच्यते । प्रकीर्णकप्रपञ्चेन दृष्टाऽदृष्टाफलाश्रयम् ॥ ६७६ पञ्चमूर्तिमयं बीजं नासिकाने विचिन्तयन् । निधाय संगमे चेतो दिव्यज्ञानमवाप्नुयात् ।। ६७७ यत्र तत्र हृषीकेऽस्मिन्निदधीताचलं मनः । तत्र तत्र लभेतायं बााग्राह्याश्रयं सुखम् ।। ६७८ स्थूल सूक्ष्म द्विधा ध्यानं तत्त्वबोजसमाश्रयम् । आयेन लभते कामं द्वितीयेन परं पदम् ।। ६७९ पद्ममुत्थापयेत्पूर्व नाडी संचालयेत्ततः । मरुच्चतुष्टयं पश्चात्प्रचारयतु चेतसि ॥ ६८० करना चाहिए; क्योंकि यह मंत्र सब विद्याओंका अविनाशी स्थान है । ६७०॥ जिसमें पञ्च नमस्कार मंत्रके पांचों पदोंके प्रथम अक्षर सन्निविष्ट हैं ऐसे 'अह' इस मन्त्रको इस शरीरमें स्थापित करके मन्दिर मुद्राके द्वारा ध्यान करनेवाला मनुष्य तप और श्रुतसे रहित होनेपर भी कभी अज्ञानका जनक नहीं होता; क्योंकि उसकी बुद्धि उस तत्त्वमें रुचि होनेसे सदा प्रकाशित रहती है ।।६७१६७२।। सब शास्त्रोंका अध्ययन करके तथा उत्कृष्ट तपस्या करके मुनिजन अन्त समय मन लगाकर इसी मन्त्रका ध्यान करते हैं ।। ६७३॥ यह मन्त्र जिसके चित्तमें स्मृतिरूपी धाराओंके द्वारा बरसता हैं अर्थात् जो बारम्बार अपने चित्त में इस मन्त्रका स्मरण करता है, उसके छोटे-मोटे सब उपद्रवरूपी धूल शान्त हो जाती हैं ।। ६७४॥ अपवित्र या पवित्र, ठीक तरहसे स्थित या दुःस्थित जो प्राणी इस मन्त्रका स्मरण करता हैं उसे सब सम्पत्तियाँ प्राप्त होती है ।।६७५।। अलौकिक ध्यानका वर्णन हो चुका । अब उसकी चूलिकाके रूपमें दृष्ट और अदृष्ट फलके दाता लौकिक ध्यानका कुछ वर्णन करते है ।।६७६।। नाकके अग्र भागमें दृष्टिको स्थिर करके और मनको भौंहोंके बीच में स्थापित करके जो पंचपरमेष्ठीके वाचक ‘ओं' मन्त्रका ध्यान करता है वह दिध्य ज्ञानको प्राप्त करता हैं ॥६७७।। जिस-जिस इन्द्रियमें यह मनको स्थिर करता हैं,इसे उस-उस इन्द्रियमें बाह्य पदार्थों के आश्रयसे होनेवाला सुख प्राप्त होता है ।। ६७८।। ध्यानके दो भेद हैं-एक स्थूलध्यान, दूसरा सूक्ष्मध्यान । स्थूलध्यान किसी तत्त्वका साहाय्य लेकर होता हैं और सूक्ष्मध्यान बीजपदका साहाय्य लेकर होता है । स्थूलध्यानसे इच्छित वस्तुको प्राप्ति होती है और सूक्ष्मध्यानसे उत्तम पद मोक्ष प्राप्त होता हैं ॥६७९।। पहले नाभिमें स्थित कमलका उन्थापन करे । फिर नाडीका संचालन करे। फिर जो पृथ्वी, अग्नि, वायु और जल ये चार वायुमण्डल स्थित है उनको आत्मामें प्रचारित करे ॥६८०।। भावार्थ-योग अथवा ध्यानके आठ अंग है-यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि । ध्यानकी सिद्धि और अन्तरात्माकी स्थिरताके लिए प्राणायामको भी प्रशंसनीय बतलाया हैं । प्राणायामके तीन भेद है-पूरक, कुम्भक और रेचक। नासिकाके द्वारा वायुके अन्दरकी ओर ले जाकर शरीरमें पूरनेको पूरक कहते हैं। उस पूरक वायुको स्थिर करके नाभिकमल में घडेकी तरह भरकर रोके रखनेका नाम कुम्भक है । और फिर उस वायुको यत्नपूर्वक धीरे-धीरे बाहर निकालनेको रेचक कहते है। इसके अभ्यासके मन स्थिर होता है। मनमें संकल्पविकल्प नहीं उठते,और कषायोंको साथ विषयोंकोचाह भी घट जाती है। प्राणायामके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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