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________________ महापुराणान्तर्गत-श्रावकधर्म-वर्णन ४3 ततोऽधीताखिलाचारः शास्त्रादिश्रुतविस्तर: । विशुद्धाचरणोऽभ्यस्येत् तीर्थकृत्त्वस्य भावनाम् ॥१६४ सा तु षोइशधाऽऽम्नाता महाभ्युदयसाधिनी । सम्यग्दर्शनशुद्धयादिलक्षणाप्राक्प्रपञ्चिता ।। १६५ ॥ (इति तीर्थकृद्भावना । ) ततोऽस्य विदिताशेषवेद्यस्य विजितात्मनः । गुरुस्थानाभ्युपगमः सम्मतो गुर्वनुग्रहात् ॥ १६६ ।।। ज्ञानविज्ञानसम्पन्नः स्वगुरोरभिसम्मतः । विनीतो धर्मशीलश्च य: सोऽर्हति गुरोः पदम् ।।१६७ ॥ ( गुरुस्थानाभ्युपगमः । ) तत: सुविहित यास्य युक्तस्य गणपोषणे । गणोपग्रहणं नाम क्रियाम्नाता महर्षिभिः ।। १६८ ॥ श्रावकानायिकासचं भाविकाः संयतानपि । सन्मार्गे वर्तयन्नेष गणपोषणमाचरेत् । १६९ ।। श्रुताथिभ्यः श्रुतं दद्यात् दीक्षाथिभ्यश्च दीक्षणम् । धाथिभ्योऽपि सद्धर्म स शश्वत् प्रतिपादयेत्।। १७० सद्वृत्तान् धारयन् सूरिरसद्वृत्तानिवारयन् । शोधयंश्च कृतादागोमलान् स बिभृयाद् गणम् ।। १७१ (इति गणोपग्रहणम्। ) गणपोषणमित्याविष्कुर्वन्नाचार्यसत्तमः । ततोऽयं स्वगुरुस्थानसंक्रान्तो यत्नवान् भवेत् ॥ १७२ ।। अधीतविद्यं तद्विद्यरादृतं मुनिसत्तमः । योग्यं शिष्यमथाहूय तस्मै स्वं भारयेत् ।। १७३ पुष्ट करता हैं और परभवमें प्रसन्न रखता हैं ।। १६३ ।। यह पचीसवीं मौनाध्ययनवृत्ति किया हैं। तदनन्तर जिसने समस्त आचार-शास्त्रोंका अध्ययन किया है, तथा शेष शास्त्रोंके अध्ययनसे जिसने समस्त श्रुतज्ञानका विस्तार प्राप्त कर लिया हैं और जिसका आचरण विशुद्ध है,ऐसा वह साधु तीर्थकर पदको प्राप्त करनेवाली भाबनाओंका अभ्यास करे ।। १६४ ।। महान् अभ्युदयकी साधक वे भावनाएँ सोलह कही गई हैं । सम्यग्दर्शनकी विशुद्धि आदि उन सोलह भावनाओंका पहले विस्तारसे वर्णन किया गया हैं' ।। १६५ ।। यह छब्बीसवीं तीर्थकृद्-भावना नामकी क्रिया हैं। तदनन्तर जिसने समस्त विद्याएँ जान ली हैं और जिसने अपने आत्मापर विजय प्राप्तकर ली हैं, ऐसे उस साधुका गुरुके अनुग्रहसे गुरुका स्थान स्वीकार करना शास्त्र-सम्मत हैं ।। १६६ ।। क्योंकिजो ज्ञान और विज्ञानसे सम्पन्न हो,अपने गुरुको अभीष्ट हो,विनीत हो और धार्मिक स्वभाववाला हो, ऐसा साधु ही गुरुके पदको धारण करने के योग्य होता हैं ।। १६७ ।। यह सत्ताईसवीं गुरुस्थानाभ्युपगम क्रिया हैं । तदनन्तर विधिपूर्वक साधुका आचार पालनेवाले और साधुगणोंके पालन-पोषण में समुद्यत साधुके गणोपग्रहण नामकी क्रिया महर्षियोंने कही हैं ।।१६८॥ इस क्रियाके धारक आचार्यको चाहिये कि वह मुनि, आर्यिका,श्रावक और श्राविकारूप चतुर्विध संघको सन्मार्गमें लगाते हुए समस्त गणका पोषण करे ।। १६९ ।। ऐसे आचार्यका कर्त्तव्य हैं कि वह शास्त्राध्ययनके इच्छुक जनोंको शास्त्राध्ययन करावे, दीक्षाके इच्छुक जनोंको दीक्षा देवे और धर्स-श्रवणके इच्छुक लोगोंको निरन्तर सद्-धर्मका उपदेश करे। वह आचार्य सदाचार धारण करनेवालोंको गणमें रखे, असद् आचरण करनेवालोंको गणसे दूर करे और अपराध या दोष करनेवालोंके दोषोंका शोधन करते हुए समस्त गणकी रक्षा करे। १७०-१७१ ॥ यह अट्ठाईसवीं गणोपग्रहण क्रिया हैं । इस प्रकारसे गणका पोषण करता हुआ वह श्रेष्ठ आचार्य अपने गुरुका स्थान प्राप्त करनेके लिए प्रयत्नशील हो ॥ १७२ ॥ पुनः वह समस्त विद्याओंके अध्येता और विद्वान् श्रेष्ठ मुनियोंसे आदरको प्राप्त ऐसे किसी योग्य शिष्यको बुलाकर उसे अपने आचार्य पदके भारको सौंप देवे ।। १७३ ।। गुरुको अनुमतिसे वह शिष्य भी गुरुके स्थानपर अधिष्ठित होकर गुरुके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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