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________________ २३८ श्रावकाचार-संग्रह भवाब्धौ भव्यसार्थस्य निर्वाणद्वीपयायिनः । चारित्रयानपात्रस्य कर्णधारो हि दर्शनम् ।।९।। दार्शनिकस्य कस्यचित्कदाचिद्दर्शनमोहोक्यावतीचाराः पञ्च भवन्ति-शङ्काकांक्षा विचिकिसाऽन्यदृष्टिप्रशंसासंस्तवा इति । तत्र मनसा मिथ्यादृष्टेशनिचारित्रगुणोद्धावनं प्रशंसा, वचसा भूताभूतगुणोद्भावनं संस्तवः, एवं प्रशंसा-संस्तवयोनिसकृतो वाक्कृतश्च मेवः । शेषाः सुगमाः । सम्यग्दर्शनसामान्यादणुवतिकमहावतिनोरिमेऽतीचाराः।। वतिको निःशल्य: पञ्चाणवत-रात्रिभोजनविरमण शीलकसप्तकं निरतिचारेण यः पालयति स भवति । तत्र यथा शरीरानप्रवेशिकाण्डकुन्तादिप्रहरणं शरीरिणां बाधाकरम्, तथा कर्मोदयविकारे शरीरमानसबाधाहेतुत्वाच्छल्यमिव शल्यम् । तत्त्रिविधम्-मायानिदान मिथ्यावर्शनभेदात् । माया वंचनम् । निवानं विषयभोगाकांक्षा। मिथ्यादर्शनमतत्त्वश्रद्धानम् । उत्तरत्र वक्ष्यमाणेन महावतिनापि शल्यत्रयं परिहर्तव्यम्। ___ अभिसन्धिकृतो नियमो व्रतमित्युच्यते, सर्वसावधनिवृत्त्यसंभवादणुव्रतं द्वीन्द्रियादीनां जंगमप्राणिनां प्रमत्तयोगेन प्राणव्यपरोपणान्मनोवाक्कायैश्य निवृत्तः आगारीत्याधणुवतम् । तस्य प्रमत्त. योगात्प्राणाव्यपरोपणलक्षणस्य पञ्चातिचारा भवन्ति-बन्धो वधः छेनः अतिमारारोपणं अन्नपाननिरोधश्चेति । तत्राभिमतदेशगमनं प्रत्युत्सुकस्य त प्रतिबन्धहेतोः कोलादिषु रज्ज्वादिभिव्य॑तिषड़गो तिर्यंच, नपुंसक और स्त्री नहीं होते । तथा वे दुष्कुल,विकल-अंग, अल्प आयु और दरिद्रताको भी संसाररूप समदमें चारित्ररूप जहाज पर सवार होकर निर्वाणरूप दीपको जानेवाले भव्य जीवरूप सार्थवाहका सम्यग्दर्शन कर्णधार (खेवटिया) है ।।९।। सम्यग्दर्शनके धारक किसी जीवके कदाचित् दर्शनमोहके उदयसे ये पाँच अतीचार होते हैं-शंका कांक्षा विचिकित्सा अन्यदष्टि प्रशंसा और अन्यदृष्टिसंस्तव । मनसे मिथ्यादृष्टि पुरुषके ज्ञान और चारित्रगुणका प्रकट करना प्रशंसा है और वचनसे उसमें विद्यमान और अविद्यमान गुणोंका कहना संस्तव हैं। इस प्रकार प्रशंसा और संस्तवमें मनःकृत और वचनकृत भेद है। शेष तीन अतीचार सुगम हैं। सम्यग्दर्शनकी समानतासे ये पाँचो ही अतीचार अणुव्रती और महाव्रती दोनोंके होते हैं। जो शल्यरहित होकर पाँच अणुव्रत, रात्रि-भोजन त्याग और तीन गुणव्रत चार शिक्षाव्रतरूप सात शीलोंको अतीचार-रहित पालन करता हैं, वह दूसरी प्रतिमाधारी वतिक श्रावक हैं। शल्य नाम वाणका है। जैसे शरीरमें प्रविष्ट वाण भाला आदि शस्त्र जीवोंको बाधा करता हैं, उसी प्रकार कर्मोदयके विकार में जो शल्यके समान शरीर और मनमें बाधाका कारण हो, उसे शल्य कहते है । वह शस्य माया निदान और मिथ्यादर्शनके भेदसे तीन प्रकारकी हैं। दूसरेको ठगना माया है । विषयभोगोंकी आकांक्षा करना निदान हैं। अतत्त्वोंका श्रद्धान करना और तत्वोंका श्रद्धान नहीं करना मिथ्यादर्शन है। श्रावकको और आगे कहे जानेवाले महाव्रतीको भी तीनों शल्योंका त्याग करना चाहिए । अभिप्रायपूर्वक नियम करना व्रत कहलाता है । गृहस्थके सर्व सावद्ययोगकी निवृत्ति असंभव हैं, अतः जो प्रमत्तयोगसे द्वीन्द्रियादिक त्रस प्राणियोंके प्राण-घातसे मन वचन काय द्वारा निवृत्त होता हैं. वह गृहस्थ प्रथम अहिंसाणवतका धारक हैं । प्रमत्तयोगसे प्राणोंका अविघात लक्षणवाले इस अहिसाणवतके पाँच अतीचार इस प्रकार हैं-बन्ध वध छेद अतिभारारोपण और अन्न-पान निरोध। अपने अभीष्ट स्थानको जानेके लिए उत्सुक पुरुष पशु आदिको उसे रोकने के निमित्तसे कील, खंटी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org:
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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