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________________ चारित्रसार-गत श्रावकाचार २३७ बहुविधेषु दुर्णयवर्त्मसु तत्त्ववदामासमानेष युक्त्यभावमध्यवस्य परोक्षाचक्षुषा विरहितमोहममूढदष्टित्वम् । उत्तमक्षमादिभावनयाऽऽत्मन आत्मीयस्य च धर्मपरिवृद्धिकरणमुपवृहणम् । कषायोदया. दिषु धर्मपरिभ्रंशकारणेषुपस्थितेषु स्वपरयोधर्मप्रच्यवनपरिपालनं स्थितिकरणम् । जिनप्रणीते धर्मामृते नित्यानुरागताऽथवा सद्यःप्रसूता यथा गौर्वत्से स्निह्यति तथा चातुर्वण्य संघेऽकृत्रिमस्नेहकरणं वात्सल्यम् । सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रत्रयप्रभावादात्मनः प्रकाशनमषवा ज्ञानतपःपूजासु ज्ञानदिनकर-किरणः परसमयखतोद्योत वरणकरणं च, महोपवासादिलक्षणेन देवेन्द्र विष्टरप्रकम्पनसमर्थन सत्तपसा स्वसमयप्रकटन च,महापूजामहादानादिभिधर्मप्रकाशनं च प्रभावना एवंविधाष्टाङ्ग विशिष्टं सम्यक्त्वम् । तद्विकयोरणुव्रतमहाव्रतयो मापि न स्यात् । सम्यग्दर्शनमणुव्रतयक्तं स्वर्गाय, महाव्रतयुक्तं मोक्षाय च । सम्यक्त्वमङ्गहीनं राज्यमिव श्रेयसे भवेनैव । न्यूनाक्षरो हि मन्त्रो नालं विषवेदनोच्छित्त्यै ।।६। सम्यक्त्वस्य गणा: संवेगो निर्वेदो निन्दा गर्दा तपोपशमभक्ती। अनुकम्पा वात्सल्यं गुणास्तु सम्यक्त्वयुक्तस्य ॥७॥ उक्तं चाबद्धायुष्कविषये सम्यग्दर्शनशुद्धा नारकतिर्यनपुंसकस्त्रीत्वानि । दुष्कृलविकृताल्पायुर्वरिद्रतां च व्रजन्ति नाप्यवतिकाः ॥८॥ मिथ्यामार्गोमें परीक्षारूप नेत्रोंके द्वारा युक्तिके अभावको जानकर मोहरहित होना अमूढदृष्टि अंग हैं। उत्तम क्षमादि धर्मोकी भावनासे अपने और अपने परिजनोंके धर्मकी तृप्ति करना उपवृंहण अंग हैं । कषायोदय-आदिक धर्म-भ्रष्ट करनेवाले कारणोंके उपस्थित होनेपर अपनी और अन्यकी धर्मभ्रष् होनेसे रक्षा करना स्थितिकरण अंग हैं । जिन-प्रणीत धर्मामतमें नित्य अनुराग करना, अथवा जैसे-सद्यः प्रसूता गो अपने बछडेको अत्यन्त स्नेह करती है, उसी प्रकार चार प्रकारके संघ पर अकृत्रिम स्नेह करना वात्सल्य अंग हैं। सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीनोंके प्रभावसे आत्माका प्रभाव प्रकाशित करना, प्रभावना अंग है। अथवा खद्योतोंके प्रकाशका आवरण करना, देवेन्द्रों के सिंहासनोंको कम्पित करने में समर्थ महोपवास आदि स्वरूपवाले उत्तम तपश्चरणके द्वारा अपनेशासनकी प्रभावना करना, और महापूजा, महादान आदि कार्योंके द्वारा धर्मका प्रकाश करना प्रभावना अंग हैं। इस प्रकारके आठ अंगोंसे विशिष्ट सम्यग्दर्शन पहली प्रतिमाधारीके होता है । सम्यग्दर्शनसे रहित पुरुषके अणुव्रत और महाव्रतका नाम तक भी नहीं होता है। यह सम्यग्दर्शन यदि अणुव्रत-युक्त हों तो स्वर्ग के लिए कारण है और महाव्रत-युक्त हो तो मोक्षके लिए कारण हैं । जिस प्रकार सेना आदि अंगोंसे रहित राज्य कल्याणकारी नहीं होता हैं,उसी प्रकार निःशंकित आदि अंगोंसे हीन सम्यग्दर्शन भी कल्याणकारी नहीं होता हैं । क्योंकि एक अक्षरसे भी न्यून मंत्र विषकी वेदनाको दूर करने के लिए समर्थ नहीं होता है ।६। अब सम्यग्दर्शनके गुण कहते हैं-संवेग निर्वेद निन्दा गर्दा उपशम भक्ति अनुकम्पा और वात्सल्य ये सम्यक्त्वयुक्त पुरुषके आठ गुण हैं ॥७॥ जिसके आगामी भवकी आयु नहीं बंधी है,ऐसे अबद्धायुष्क सम्यग्दृष्टिके विषयमें कहा है-सम्यग्दर्शनसे शुद्ध अवती भी पुरुष मरकर नारक, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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