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________________ २३६ . श्रावकाचार-संग्रह आरम्भाद् विनिवृत्तः परिग्रहादनुमतस्तथोद्दिष्टः । इत्येकादश निलया जिनोदिता: श्रावकाः क्रमशः ।।५।। व्रतादयो गुणा दर्शनादिभिः पूर्वगुणः सह क्रमप्रवृद्धा भवन्ति । तत्र दार्शनिक: संसारशरीरभोगनिविण्णः पञ्चगुरुचरणभक्तः सम्यग्दर्शनविशुद्धश्च भवति । जिनेन भगवतार्हता परमेष्ठिनोपविष्टे निर्ग्रन्थलक्षणे मोक्षमार्गे श्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् । तस्य सम्यग्दर्शनस्य मोक्षपुरपथिकपाथे. यस्य मुक्तिसुन्दरी-विलासमणिदर्पणस्य संसारसमुद्रगवितंभग्नजनदत्तहस्तावलम्बनस्यैकादशोपासकस्थानप्रासादाधिष्ठानस्योत्तमक्षमादिवशकुलधर्मकल्पपादपमूलस्य परमपावनस्य सकलमङ्गलनिलयस्य मोक्षमुख्यकारणस्याष्टाङ्गानि भवन्ति-निःशङ्कितत्त्वं नि:कांक्षता निविचिकित्सिता समूढदृष्टित्वं उपवंहणं स्थितिकरणं वात्सल्यं प्रभावना चेति। तत्रेहलोकः परलोकः व्याधिर्मरणं अगुप्ति: अत्राणं आकस्मिक इति सप्तविधाद्भयाद्विनिमुक्तता,अथवाऽहंदुपदिष्टद्वादशाङ्गप्रवचनगहने एकमक्षरं पदंवा किमिदं स्याद्वानति शङ्कानिरासो निःशङ्कितत्वम् । ऐहलौकिक-पारलौकिकेन्द्रियविषयोपभोगाकांक्षानिवृत्तिः, कुदृष्टयन्तराक्रांक्षानिरासो वा नि:कांक्षता । शरीराद्यशुचित्वभावमवगम्य शुचीति मिथ्यासङ्कल्पापनयोऽयवाsहत्प्रवचने इबमयुक्तं घोरं कष्टं न चेविदं सर्वमुपपन्नमित्यशभभावनानिरासो विचिकित्साविरहः । ब्रह्मचारी आरम्भ-निवृत्त परिग्रह-निवृत्त अनुमति-निवृत्त और उद्दिष्ट-निवृत्त ये ग्यारह स्थान वाले श्रावक जिन भगवान्ने क्रमसे कहे है ॥४-५॥ व्रतप्रतिमा आदिके गुण दर्शनप्रतिमा आदि पूर्वगुणोंके साथ क्रमसे बढते हुए होते हैं, अर्थात् उत्तरप्रतिमाधारी श्रावकके लिए पूर्व प्रतिमाओंके गुण अधिक विशुद्धिके साथ धारण करना आवश्यक हैं। इनसे प्रथम प्रतिमाधारी दर्शनिक श्रावक हैं, जो कि संसार और इन्द्रिय-भोगोंसे विरक्त होता हैं, पंच परम गुरुके चरणोंका भक्त होता है और सम्यग्दर्शनसे विशुद्ध होता हैं । जिनेन्द्र भगवान् अरहन्त परमेष्ठीसे उपदिष्ट वीतराग स्वरूप मोक्षमार्गमें श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है। यह सम्यग्दर्शन मोक्षपुरको जानेवाले पथिकके लिए मार्गका भोजन है, मुक्ति सुन्दरीके श्रृंगार-विलासके लिए मणिके दर्पण समान है, संसार-सागरके गड्ढेकी भवरमें निमग्न जनको हाथका अवलम्बन देनेवाला है,उपासकोंके ग्यारह खण्डवाले भवनका आधारभूत अधिष्ठान है, उत्तम क्षमा आदि दश प्रकारके कुल धर्मरूपी कल्पवृक्षका मूल है, परम पवित्र है, सर्वमंगलोंका आश्रय हैं और मोक्षका प्रधान कारण हैं । इस सम्यग्दर्शनके आठ अंग है-निःशंकित, निःकांक्षित, निविचिकित्सा अमूढदृष्टि, उपवृंहण, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावना । अब इन अंगोंका क्रमसे स्वरूप कहते है-इहलोकभय, परलोकभय, व्याधिभय, मरणभय, अगुप्तिभय अत्राणभय और आकस्मिकभय इन सातों प्रकारके भयोंसे रहित होना नि शंकित अंग है। अथवा अरहन्त भगवान्के द्वारा उपदिष्ट और अत्यन्त गहन ऐसे द्वादशांगरूप प्रवचनमें 'यह एक अक्षर अथवा पद क्या जिनोक्त हैं, या नहीं' ऐसी शंकाका न होना निःशंकित अंग है। इस लोक और परलोकमें इन्द्रियके विषय-सम्बन्धी उपभोगकी आकांक्षा न करना,अथवा मिथ्यादृष्टि होनेकी आकांक्षा नहीं करना निःकांक्षित अंग है । शरीर आदिके अपवित्रपनेको जानकर 'यह शरीर पवित्र हैं' ऐसे मिथ्या संकल्पको दूर करना, अथवा अर्हत्प्रवचनमें यदि यह घोर कष्टवाला अयुक्त कथन न होता, तो सर्व ठीक था, ऐसी अशुभ भावनाका दूर करना निर्विचिकित्सा अंग हैं । तत्त्वसे रहित होनेपर भी तत्त्वके समान प्रतिभासित होनेवाले अनेक प्रकारके दुर्नयरूप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org .
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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