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________________ वसुन न्दि-श्रावकाचार जेण सूदेउ सुणरु हसि पो पई कियउ ण घम्म । विण्णिवि छतें वारियहि इकु पाणिउ अरु धम्म ।।१५५ अभयदाणु भयभीत्यहं जोवह दिण्णु ण आसि । वार वार मरहिं डरसि केम चिराउसु होसि।। विज्जावच्च ण पइं कियउ दिण्णु ण ओसहदाणु । एवहिं वाहिहिं पीडियउ कंदिम होहि अयाणु ।। संबह दिण्ण ण चउविहहं भत्तिए भोयणदाणु । रे जिय काइं चड फहि दूरीकयणिव्वाण ।।१५८ पोत्यय दिण्ण ण मणिवरहं विहिय ण सत्थह पुन्ज । मइ पंडियउ कइत्तु गुणु चाहहि केम णिलज्ज ।। १५९ पाउ करहि सुह अहिलसहि परसिविणे वि ण होइ । माडिइं णिबइ वाइयइ अब कि चक्खइ कोइ ।।१६० गरुआरंभ हं णरयगइ तिवसाय हवति । इक छिद्दिय पाहणरिय बडुइ णाव ण भंति ।।१६१ कूडतुलामाणाइयहि हरि-करि-खर-विसभेसु । जो गच्चइ णडु पेक्खणउ सो गिण्हइ बहुवेसु।।१६२ हलुवारंभहि मणुयगइ मंदक साहिं होइ । छुडु सावउ धणु वाहुडइ लाहउ पुणरवि होइ ॥१६३ सम्मत्तें सावयवर्याह उप्पज्जइ सुरराउ । जोग वणि उ छंटियइं सो वारइ वि ण जाउ ॥१६४ किया,ऐसा सन्ताप कर । यदि नाविकके विना नाव खड्ढे में जा गिरे, तो इसमें कौनसी भ्रांति हैं ॥१५४।। जिससे तू उत्तम देव और उत्तम मनुष्य होता, उस धर्मको तूने नही किया । देख-एक छत्रसे धारण करनेसे एक पानी और दूसरा घाम ये दोनों ही निवारण किये जाते है ।।१५५।। भय-भीत जीवोंको तून कभी अभयदान नहीं दिया। अब बार-बार मरनेसे डरता है। चिरायुष्क कैसे हो सकता है ।। १५६।। तूने पहिले कभी साधुजनोंकी वैयावृत्त्य भी नहीं की और ओषधिदान भोनहीं दिया। अब इन व्याधियोंसे पीडित हो कर अजान बनकर आक्रन्दन करते हो ॥१५७॥ चतुर्विध संघको तूने भक्तिसे भोजनदान नहीं दिया । अब रे जीव, निर्वाण को दूर करके क्या तडफडाता हैं । १५८|| मुनिवरोंको न पुस्तकों का दान दिया और न शास्त्रोंको पूजा ही की। अब हे निर्लज्ज, बुद्धि, पांडित्य और कवित्व गुण किस प्रकार चाहता हैं ।। १५९।। पाप करता हैं और सुख चाहता है, पर यह स्वप्नमें भी नहीं होगा ! मांडी (घर ) में नीम बोनेपर क्या कोई आम चख सकता है । १६०।। भारी आरम्भ और तीव्र कषायसे नरक गति होती हैं। पाषाणोंसे भरी नाव ए ही छेदसे डूब जाती हैं, इसमें भ्रान्ति नही ।।१६१।। कूट तुला, कूट मान आदिसे सिंह,हाथी गधा, विषधारक प्राणी और मेंढा आदि पशुओंमे उत्पन्न होता हैं ।। जो नट नाटकयें नाचता हैं, वह बहुत वेष धारण करता है ।। १६२।। लघु आरम्भ और मन्दकषायसे मनुष्यगति प्र.प्त होती है। व्यापार में लगा श्रावकका धन शीघ्र वापिस लौटता हैं और फिर भी लाभ होता है ।।१६३।। सम्यक्त्वसे और श्रावकके व्रतोंसे मनुष्य देवगतिमें देवराज उत्पन्न होता है । जो बीज योग्य अबनी में बोया गया और समय पर सींचा गया,यह उत्पन्न होनेसे रोका नहीं जा सकता हैं।। १६४।। १झ मायइ । म माइण्णिवें । । टि. वाटिकायाम् । २ झ गवणिठ्ठिउ । म गविणिBिउ । ब० टि. गगने सहस्थित. पुरुष: पश्चात्त्यक्त.स द्वारे वि म जाउ मा गच्छतु । अपि तु यात्येव त्यक्तः । परं उद्धारपर्यन्तं याति । यथा गहश्राबवायोर्मध्ये मुनिर्मोक्षं गतस्तहि श्रावक: स्वर्ग किं न याति, अपि तु यात्येव इति इति भावः ( ? ) परन्तु यह अर्थ मूल दोहे के उत्तरार्ध पे नही निकलता है । जो अर्थ ऊपर किया गया है, वह 'झप्रतिके टब्बेके आधारसे किया है। -सम्पादक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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