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________________ अथामितगतिकृतः श्रावकाचारः नापाकृतानि प्रभवन्ति भूयस्तमांसि यदृष्टिहराणि सद्यः । ते शाश्वतीमस्तमया मज्ञा जिनेन्दवो वो वितरन्तु लक्ष्मीम् ।। १ विभिद्य मर्माष्टकङ्खलां ये गुणाष्टकेश्वर्यमुपेत्य पूतम् । प्राप्तास्त्रिलोकानशिखामणित्वं भवन्तु सिद्धा मम सिद्धये ते ।। २ य चारयन्ते चरितं विचित्रं स्वयं चरन्तो जनमचंनीयाः। आचार्यवर्या विचरन्तु ते मे प्रमोदमाने हृदयारविन्दे ॥ ३ येषां तप: श्रीरनघा शरीरे विवेचिका चेतसि तत्त्वबुद्धिः । सरस्वती तिष्ठति वक्त्रपझे पुनन्तु तेऽध्यापकपुङ्गवा वः ।।४ कषाय सेनां प्रतिबन्धिनी ये निहत्य धीराः शमशोलशस्त्रैः । सिद्धि विबाधां लघु साधयन्ते ते साधवो मे वितरन्तु सिद्धिम् ।। ५ विभूषितोऽन्हाय यया शरीरी विमुक्तिकान्तां विदधाति बश्याम् । सा दर्शनज्ञानचरित्रभूषा चित्ते मदीये स्थिरतामपैतु ।। ६ मातेव या शास्ति हितानि पुंसो रजः क्षिपन्ती ददती सुखानि । समस्तशास्त्रार्थविचारदक्षा सरस्वती सा तनुतां मति ते ।। ७ शास्त्राम्बुधः पारमियति येषां निषेवमाणाः पदपद्मयुग्मम् । गुणः पवित्रैर्गुरवो गरिष्ठां कुर्वन्तु निष्ठां मम ते वरिष्ठाः ।। ८ जिन श्रीजिनचन्द्र के द्वारा यथार्थ दृष्टिके हरण करनेवाले मोहरूप महान्धकारशीघ्र ही दूर किये जाते है अतः वे पुनः अपना प्रभाव जगत् पर जमाने में समर्थ नहीं होते है और जिन्होंने अज्ञानी पर-वादियोंको सदाके लिए अस्त कर दिया है, ऐसे श्री जिनेन्द्रचन्द्र हम और आप सबको शाश्वती मोक्षलक्ष्मी प्रदान करें ।।१।। जो ज्ञानावरणादि अष्टकर्मरूप सांकलका विभेदन कर और सम्यक्त्वादि अष्टगुणरूप पवित्र ऐश्वर्यको पाकर तीन लोकके चूडामणिपनेको प्राप्त हुए हैं ऐसे वे सिद्धभगवान् मेरे लिए सिद्धि के निमित्त हों ॥२॥ जो नाना प्रकारके चारित्रका स्वयं आचरण करते हुए जगत्को आचरण कराते हैं, ऐसे पूजनीय आचार्यवर्य मेरे प्रमुदित हृदय-कमलमें सदा विचरण करें ।।३।। जिनके शरीरमें पाप-रहित निर्मल तपोलक्ष्मी सुशोभित हैं,जिनके चित्तमें भेदविज्ञान करानेवाली विवेचक तत्त्वबुद्धि विद्यमान है और जितके मुख-कमलमें सरस्वती विराजमान है, ऐसे श्रेष्ठ उपाध्याय परमेष्ठी हम और आपको पवित्र करें ॥४॥ जो धीर वीर सिद्धिकी रोकनेवाली क्रोधादि कषायरूपी सेनाको शम और शीलरूप शस्त्रोंके द्वारा विनष्ट करबाधा-रहित सिद्धिको अल्प कालमें शीघ्र ही सिद्ध कर लेते है, वे साधुजन मुझे सिद्धि देवें ॥५।। जिस रत्नत्रय रूप विभूषासे विभूषित जीव मुक्तिरूपी कान्ताको शीघ्र अपने वशमें कर लेता हैं,वह सम्यग्दर्शनज्ञान-चारित्ररूप विभूषा मेरे चित्तमें स्थिरताको प्राप्त हो ।।६।। जो माताके समान पुरुषोंको हितकी शिक्षा देती है, उनकी कर्मरूप रजको दूर करती हैं और सुखोंको प्रदान करती है, वह सर्वशास्त्रोंके अर्थ-विचार करने में प्रवीण सरस्वती मेरी बुद्धिको विस्तृत करे ।।७॥ जिनके चरण-कमल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.|
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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