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________________ महापुराणान्तर्गत श्रावकधर्म-वर्णन ततोऽन्या पुण्ययज्ञाख्या क्रियापुण्यानुबन्धिनी । श्रृण्वतः पूर्वविद्यानामर्थं सब्रह्मचारिणः ।। ५० इति पुण्ययज्ञक्रिया । तथाऽस्य दृढचर्या स्यात् क्रिया स्वसमयश्रुतम् । निष्ठाय धृण्वतो ग्रन्थान बाह्यानन्यांश्च कांश्चन।।५१ इति दृढचर्याक्रिया। दृढव्रतस्य तस्यान्या क्रिया स्यादुपयोगिता । पर्वोपवासपर्यन्ते प्रतिमायोगधारणम् ।। ५२ इति उपयोगिताक्रिया । क्रियाकलापेनोक्तेन शुद्धिमस्योपविभ्रतः । उपनीतिरनूचानयोग्यलिङ्गग्रहो भवेत् ।। ५३ उपनीतिहि वेषस्य वृत्तस्य समयस्य च । देवतागुरुसाक्षि स्याद् विधिवत्प्रतिपालनम् ।। ५४ शक्लवस्त्रोपवीतादिधारणं वेष उच्यते । आर्यषट्कर्मजीवित्वं वृत्तमस्य प्रचक्षते ।। ५५ जैनोपासकदीक्षा स्यात् समयः समयोचितम् । दधतो गोत्रजात्यादि नामान्तरमतः परम् ।। ५६ इत्युपनीतिक्रिया। ततोऽयमुपनीतः सन् व्रतचर्या समाश्रयेत् । सूत्रमौपासकं सम्यगभ्यस्य ग्रन्थतोऽर्थतः ॥५७ __ इति व्रतचाँक्रिया। व्रतावतारणं तस्य भूयो भूषादिसङ्ग्रहः । भवेदधीतविद्यस्य यथावद् गुरुसन्निधौ ॥ ५८ ___ इति वतावरणक्रिया। विवाहस्तु भवेदस्य नियुञ्जानस्य दीक्षया । सुव्रतोचितया सम्यक् स्वां धर्मसहचारिणीम् ।। ५९ संभव उपवास करते हुए द्वादशाङगवाणी-प्रोक्त वत्त्वोंके अर्थके सुननेवाले उस भव्यके पूजाराध्य नामसे प्रसिद्ध क्रिया होती हैं ।।४९।। यह पाँचवीं पूजाराध्य क्रिया है। तत्पश्चात् अपने सहाध्यायी बन्धुओंके साथ चौदह पूर्व विद्याओंक। अर्थं सुननेवाले उस भव्यके पुण्यानुबन्धिनी पुण्ययज्ञ नामकी क्रिया होती हैं ।।५०।। यह छठी पुण्ययज्ञ क्रिया है । इसप्रकार स्वसमयके शास्त्रोंका भली भाँतिसे अध्ययन करके परसमयके अन्य किन्हीं ग्रन्थोंको सुननेवाले उस नवदीक्षित पुरुषके दृढचर्यां नामकी क्रिया होती है ।।५१।। यह सातवीं दृढचर्या क्रिया है। तदनन्तर व्रतोंमें दृढताको प्राप्त उस भव्यके आठवीं उपयोगिता क्रिया होती है । पर्वके दिन उपवासके अन्तमें रात्रिके समय प्रतिमायोगके धारण करनेको उपयोगिता कहते है ।। ५२।। यह आठवीं उपयोगिता क्रिया है। उपर्युक्त क्रिया-कलापके द्वारा शुद्धिको धारण करनेवाले उस भव्य जीवके उत्तम पुरुषोंके योग्य चिन्हको धारण करने रूप उपनीति क्रिया होती हैं । ५३।। देवता और गुरुकी साक्षीपूर्वक विधिके अनुसार अपने वेष,वृत्त (चारित्र) और समयका प्रतिपालन करना उपनीति क्रिया कहलाती हैं ॥५४॥ श्वेत वस्त्र और यज्ञोपवीत आदिको धारण करना वेष कहलाता हैं । देवपूजा आदि आर्योके करने योग्य छह कर्मोका पालन करना वृत्त कहा जाता हैं ॥५५ । तदनन्तर शास्त्रानुसार गोत्र,जाति आदि दूसरे नाम धारण करने. वाले पुरुषके जो जैन उपासकको दीक्षा होती है,उसे समय कहते हैं ॥५६।। यह नवमी उपनीति क्रिया हैं । तदनन्तर यज्ञोपवीतको धारणकर यह भव्यपुरुष शब्द और अर्थ दोनों प्रकारसे भलीभाँति उपासकाध्ययन सूत्रका अभ्यासकर श्रावकव्रतोंको पालते हुए व्रतचर्याको धारण करे।।५७।। यह दशवी व्रतचर्या क्रिया हैं। जब उक्त भव्य विद्या पढना समाप्त करता हैं और गुरुके समीप विधिपूर्वक पुनः वस्त्र-आभूषणादिको ग्रहण करता है, तब उसके व्रतावरण क्रिया होती हैं ।।५८।। यह ग्यारहवीं व्रतावतरण क्रिया हैं । जब वह भव्य अपनी धर्मसहचारिणी स्त्रीको उत्तम व्रतोंके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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