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________________ १३४ श्रावकाचार-संग्रह दाहच्छेदकषाशुद्धे हेम्नि का शपथक्रिया । दाहच्छेदकषाशुद्धे हेम्नि का शपथक्रिया ।। ७१ यद्दष्टमनुमानं च प्रतीति लौकिकी भजेत् । तदाहुः सुविदस्तत्त्वं रहः कुहकजितम् ॥ ७२ निर्बोजतेव तन्त्रेण यदि स्यान्मुक्तताङ्गिनि । बोजवत्पावकस्पर्शः प्रणेयो मोक्षकांक्षिणि ।। ७३ विषसामथ्यवन्मन्त्रात्क्षयश्चेदिह कर्मणः । तहि तन्मन्त्रमान्यस्य न स्युर्दोषा भवोद्भवाः ।। ७४ ग्रहगोत्रगतोऽप्येष पूषा पूज्यो न चन्द्रमा: । अविचारिततत्त्वस्य जन्तोवृत्तिनिरङ्कशा ।। ७५ द्वैताद्वैताश्रयः शाक्यः शङ्करानुकृतागमः । कथं मनीषिभिर्मान्यस्तरसासवसक्तधी ।। ७६ ____ अर्थवं प्रत्यवतिष्ठासवो-भवतां समये किल मनुज सन्नाप्तो भवति तस्य चाप्ततातीव दुर्घटा संप्रति संजातजनवद्, भवतु वा, तथापि मनुष्यस्याभिलषिततत्त्वावबोधो न स्वतस्तथावर्शनाभावात् । परतश्चेत्कोऽसों पर:? तीर्थकरोऽन्यो वा? तीर्थकरश्चेत्तत्राप्येवं पर्यनुयोगे प्रकृतमनबन्धे । तस्मादनवस्था । तदभावमाप्तसद्भावं च वाञ्छद्धिः सदाशिवः शिवापतिर्वा तस्य तत्त्वोपदेशक: प्रतिश्रोतव्यः । तदाह पतञ्जलि:- ''स पूर्वेषामपि गुरुः कालेनानवच्छेदात्।" तया हि। अदृष्टविग्रहाच्छान्ताच्छिवात्परमकारणात् । नादरूपं समुत्पन्नं शास्त्रं परमदुर्लभम्" ।। ७७ सोना अशुद्ध ठहरता है, उसके लिए कसम खाना बेकार हैं । तथा तपाने,काटने और कसौटीपर घिसनेसे जो सोना खरा निकलता हैं उसके लिए कसम खानेसे क्या लाभ? जो प्रत्यक्ष, अनुमान और लौकिक अनुभवसे ठीक प्रमाणित होता हैं, और गोप्यता तथा माया छलसे रहित होता है विद्वान लोग उसीको यथार्थ तत्त्व मानते हैं ।।७०-७२।। जैसे अग्निके स्पर्शसे बीज निर्बीज हो जाता है उसमें उत्पादन शक्ति नहीं रहती,वैसे ही यदि तंत्रके प्रयोगसे ही प्राणीकी मुक्ति हो जाती है तो मक्ति चाहनेवाले मनुष्यको भी आगका स्पर्श करा देना चाहिए जिससे बीजकी तरह वह भी जन्ममरणके चक्रसे छूट जाये॥७३॥ जैसे,मंत्रके द्वारा विषकी मारणशक्तिको नष्ट कर दिया जाता हैं, वैसे ही मंत्रके द्वारा यदि कर्मोका भी क्षय हो जाता है तो उन मंत्रोंके जो मान्य हैं उनमें सांसारिक दोष नहीं पाये जाने चाहिये ।।७४।। (इस प्रकार शाक्त मतकी आलोचना करके ग्रन्थकार सूर्य पूजाकी आलोचना करते हैं) ग्रहोंके कुलका होनेपर भी यह सूर्य तो पूज्य हैं और चन्द्रमा पूज्य नहीं है? ठीक ही हैं जिस जीवने तत्त्वका विचार नहीं किया,उसकी वृत्ति निरंकुश होती हैं ।।७५।। (अब बौद्ध मतकी आलोचना करते हैं ) बौद्धमत एक ओर द्वैतवादी हैं अर्थात् संयम और भक्ष्याभक्ष्य आदिका विचार करता हैं और दूसरी ओर अद्वैतवादी हैं,अर्थात सर्व कुछ सेवन करनेकी छट देता हैं। उसीके आगमका अनुकरण शंकराचार्यने किया है। ऐसा मद्य और मांसका प्रेमी मत बुद्धिमानोंके द्वारा मान्य कैसे हो सकता हैं? ।।७६।। (इस प्रकार अन्य मतोंकी समीक्षा करनेपर उन मतोंके अनुयायी कहते है-) आप जैनोंके आगममें मनुष्यको आप्त माना हैं । किन्तु उसका आप्तपना किसी भी तरह नहीं बनता । आज भी लाखों-करोडों मनुष्य वर्तमान हैं,किन्तु उनमें कोई भी आप्त नहीं देखा जाता । यदि किसी तरह मनुष्यको आप्त मान भी लिया जावे तो उसे इण्ट तत्त्वका जान स्वयं तो नहीं हो सकता, क्योंकि ऐसा नहीं देखा जाता । यदि दूसरेसे ऐसा ज्ञान होता हैं तो वह दसरा कौन हैं? तीर्थङ्कर है या अन्य कोई हैं? यदि तीर्थङ्कर हैं तो उसमें भी यही प्रश्न पैदा होता हैं। यदि तीर्थङ्करको इष्ट तत्त्वका ज्ञान किसी तीसरेके द्वारा होता है तो उस तीसरेको इष्ट तत्त्वका ज्ञान चौथेके द्वारा होगा और चौथेको इष्ट तत्त्वका ज्ञान पाँचवेके द्वारा होगा। इस तरह अनवस्था दोष आ जाता हैं। अतः यदि अनवस्था दोषसे बचना चाहते हैं और साथ ही साथ आप्तका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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