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________________ यशस्तिलकचम्पूगत-उपासकाध्ययन स्वगुणः श्लाघ्यतां याति स्वदोषेर्दूष्वतां जनः । रोषतोषौ वृथा तत्र कलधौतायसोरिव ।। ५९ दृहिणा धोक्षजेशानशाक्यसूरपुरःसराः । यदि रागाद्यधिष्ठानं कथं तत्राप्तता भवेत् ।। ६० राग दिदोष संभतिज्ञयामीष तदागमात् । असत: परदोषस्य गृहीतौ पातकं महत् ।। ६१ अजस्तिलोत्तमाचित्तः श्रीरतः श्रीपतिः स्मृतः । अधनारीश्वरः शम्भुस्तथाप्येषां किलाप्तता॥ ६२ वसुदेव: पिता यस्य सवित्री देवको हरेः । स्वयं च राजधर्म स्थश्चित्रं देवस्तथापि सः ॥ ५३ त्रैलोक्यं जठरे यस्य यश्च सर्वत्र विद्यते । किमुत्पत्तिविपत्ती स्तः क्वचित्तस्येति चिन्त्यताम् ।। ६४ कपर्दी दोषवानेष नि:शरीर: शदाशिवः । अप्रामाण्यादशक्तश्च कथ तत्रागमागमः ।। ६५ परस्परविरुद्धार्थमीश्वरः पञ्चभिर्मखं । शास्त्र शास्ति भवेत्तत्र कतमार्थविनिश्चयः ॥ ६६ सदाशिवकला रुद्रे यद्यायाति यगे यगे। कथं स्वरूपभेदः स्यात्काञ्चनस्य कलास्विव ।। ६७ भैसनर्तननग्नत्वं पुरत्रयविलोपनम् ब्रह्महत्याकपालित्वमेता: क्रीडाः किलेश्वरे ॥ ६८ सिद्धान्तेऽन्यप्रमाणेऽन्यदन्यत्काव्येऽन्यदीहिते । तत्त्वमाप्तस्वरूपं च विचित्रं शैवदर्शनम् ।। ६९ एकान्तः शपथश्चैव वृथा तत्वपरिग्रहे । सन्तस्तत्त्वं न हीच्छन्ति परप्रत्ययमात्रतः ।। ७० जाती है। जैसे,बगीचे में रहने वाले पक्षियोंकी आवाजसे उनकी विशिष्टताका भान होता हैं । अर्थात् पक्षियोंको विना देखे भी जैसे उनकी आवाजसे उनकी पहचान हो जाती हैं,वैसे ही आप्त पुरुषोंको बिना देखे भी उनके शास्त्रोंसे उनकी आप्तताका पता चल जाता हैं ।।५८॥सुवर्ण और लोहकी तरह मनुष्य अपने ही गुणोंसे प्रशंसा पाता है और अपने ही दोषोंसे बदनामी उठाता हैं। इसमें रोष और तोष करना अर्थात अपने आप्तकी प्रशंसा सूनकर हर्षित होना और निन्दा सूनकर ऋद्ध होना व्यर्थ हैं ।।५९ । ब्रह्मा, विष्णु, महेश, बुद्ध और सूर्य आदिक देवता यदि रागादिक दोषोंसे यक्त हैं तो वे आप्त कैसे हो सकते हैं? और वे रागादि दोषोंसे युक्त हैं यह बात उनके शास्त्रोंसे ही जाननी चाहिए, क्योंकि जिसमें जो दोष नहीं है उसमें उस दोषको मानने में बड़ा पाप हैं ।। ६०-६१॥ देखो, ब्रह्मा तिलोत्तमामें आसक्त है, विष्णु लक्ष्मीमें लीन है और महेश तो अर्धनारीश्वर प्रसिद्ध ही हैं। आश्चर्य हैं, फिर भी इन्हें आप्त माना जाता है। विष्णके पिता वसुदेव थे, माता देवकी थी,और वे स्वयं राजधर्मका पालन करते थे। आश्चर्य है, फिर भी वे देव माने जाते हैं। सोचनेकी बात है कि जिस विष्णुके उदरमें तीनों लोक बसते है और जो सवव्यापी हैं, उसका जन्म और मृत्यु कैसे हो सकते हैं?।।६२-६४॥ महेशको अशरीरी और सदाशिव मानते हैं, और वह दोषोंसे भी युक्त है। ऐसी अवस्थाम न तो वह प्रमाण माना जा सकता है और न वह उपदेश ही दे सकता है। क्योंकि वह दोषयुक्त है और शरीरसे रहित है । तब उससे आगमकी उत्पत्ति कैसे हो सकतीहैं? ,जब शिव पांच मखोंसे परस्पर में विरुद्ध शास्त्रोंका उपदेश देता है तो उनमेंसे किसी एक अर्थका निश्चय करता कैसे संभव है ।।६५-६६।। कहा जाता है कि कित्येक युगमें रुद्र में सदाशिवकी कला अवतरित होती हैं । किन्तु जैसे सुवर्ण और उसके टुकडोंमें कोई भेद नहीं किया जा सकता,वैसे ही अशरीरी सदाशिव और सशरीर रुद्र में कैसे स्वरूपभेद हो सकता है । ६७।। भिक्षा माँगना,नाचना, नग्न होना, त्रिपुरको भस्म करना, ब्रह्महत्या करना और हाथमें खप्पर रखना ये सदाशिव ईश्वरकी क्रीडाएं है ॥६८॥ शैवदर्शनमें तत्त्व और आप्तका स्वरूप सिद्धान्त रूपमें कुछ अन्य है,प्रमाणित कुछ अन्य किया जाता है, काव्यमें कुछ अन्य है और व्यवहार में कुछ अन्य है । शैवदर्शन भी बडा विचित्र है ॥६९ । तत्त्वको स्वीकार करने में एकान्त और कसम खाना दोनों ही व्यर्थ है। विवेकशील पुरुष दूसरोंपर विश्वास करके तत्त्वको स्वीकार नहीं करते। तपाने,काटने और कसौटीपर घिसनेसे जो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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