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शीलसप्तकवर्णनम्
२६१ सल्लेखना । ततो नित्यप्राथितसमाधिमरण यथाशक्ति प्रयत्नं कृत्वा शीतोष्णाधुपश्लेषे सति तप:स्थो यथाशक्ति प्रयत्नं कृत्वा शीतोष्णाद्युपश्लेषे सति तपःस्थो यथा शीतोष्णादो हर्षविषादं न करोति, तथा सल्लेखनां कुर्वाणः शीतोष्णादौ हर्षविषावमकृत्वा स्नेहं सङ्गवरादिकं परिग्रहं च परित्यज्य विशुद्धचित्तः स्वजनपरिजने क्षन्तव्यं निःशल्यं च प्रियवचनैविधाय विगतमानकषायः कृतकारितानुमतमेनः सर्वमालोच्च गुरौ महाव्रतमामरणमारोप्यारतिबन्यविषादभयकालण्यादिकमपहाय सत्त्वोत्साहमुदीर्य श्रुतामृतेन मनः प्रसाद्य क्रमेणाहारं परिहाय ततः स्निग्धपानं तदनन्तरं खरपानं तदनु चोपबासं कृत्वा गुरोः पादमूले पञ्चनमस्कारमुच्चारयन् पञ्चपरमेष्ठिनां गुणान् स्मरन् सर्वयत्नेन तनुं त्यजेत् । इयं सल्लेखना संयतस्यापि ।
अथ सल्लेखनाया मरणविशेषोत्पादनसमर्थाया असंक्लिष्टचित्तेनारभ्यायाः, पञ्चातीचारा भवन्ति-जीविताशंसा मरणाशंसा मित्रानुरागः सुखानुबन्ध: निदानं चेति । तत्र शरीरमिदमवश्यं जलबुबुदवदनित्यमस्यावस्थानं कथं स्यादित्यादरो जीविताशंसा । आशंसाऽऽकांक्षणमभिलाष इत्यनर्थान्तरम् रोगोपद्रवाकुलतया प्राप्तजीवनसंक्लेशस्य मरणं प्रति चित्तप्रणिधानं मरणाशंसा । व्यसने सहायत्वमुत्सवें संभ्रम इत्येवमादि सुकृतं बाल्ये सहपांशुक्रीडनमित्येवमादीनामनुस्मरणं
जैसे तपश्चर्या में स्थित साधु शीत-उष्णादि की बाधा होनेपर हर्ष-विषाद नहीं करता हैं, उसी प्रकार सल्लेखनाको करता हुआ श्रावक भी हर्ष-विषाद न करके, सर्वपरिजनोंसे स्नेह, शत्रुओंसे वैर,साथियोंकी संगति और परिग्रहका परित्याग कर विशुद्ध चित्त होकर स्वजन और परिजनोंको नि.शल्य होकर प्रिय वचनोंसे क्षमा करे और क्षमा माँगे । पुनः मानकषायसे रहित होकर कृत कारित और अनुमोदनासे अपने सर्व पापोंकी गुरुके समीप आलोचना करके मरणपर्यन्तके लिए महाव्रतोंको धारण करके अरति, दीनता, विषाद, भय और कालुष्य आदिको दूर कर बल और उत्साहको प्रकट कर श्रुतवचनामृतसे मनको प्रसन्न करके क्रमसे आहारको घटाकर स्निग्ध पान प्रारंभ करे । तदनन्तर स्निग्ध पानको घटाकर खरपान प्रारंभ करे और तत्पश्चात् खरपानको भी घटाकर और यथाशक्ति कुछ दिन तक उपवास करके गुरुके पादमूलमें रहते हुए पंच नमस्कार मंत्रका उच्चारण करते और पंच परमेष्ठियोंके गुणोंका स्मरण करते हुए पूर्ण सावधानीके साथ शरीरका त्याग करे। इस सल्लेखनाका धारण साधुके भी होता है।
मरण विशेषके उत्पादनमें समर्थ और संक्लेश-रहित चित्तसे आरंभ की गई इस सल्लेखनाके पाँच अतीचार इस प्रकार है-जीविताशंसा, मरणाशंसा, मित्रानुराग, सुखानुबन्ध और निदान । यह शरीर अवश्य ही हेय है, जलके बबूलेके समान अनित्य हैं, यह जानते हुए भी इसका अवस्थान कैसे हो, इस प्रकार जीनेके प्रति आदर रखना जीविताशंसा है। आशंसा, आकांक्षा और अभिलाष, ये सब एकार्थक नाम हैं। रोग या उपद्रवके आ जानेसे आकुलित होकर जीवन में संक्लेश प्राप्त होने पर मरणके प्रति चित्तको लगाना मरणाशंसा है। जोव्यसन (कष्ट) के समय सहायक और उत्सवके समय हर्ष मनानेवाले, तथा अन्य अनेक प्रकार सुकृतके करनेवाले, बचपन में धूलि पर साथ खेलनेवाले इत्यादि नाना प्रकारके मित्रोंका स्मरण करना मित्रानुराग हैं? पैने अपने जीवन में ऐसे भोजन किये, ऐसी शय्याओं पर शयन किया, ऐसे खेले, इत्यादि
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