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________________ ३२२ श्रावकाचार-संग्रह मुदगोपनाद्यमशनं क्षौरजलाधं मतं जिनै: पेयम् । ताम्बूलवाडिमा स्वाधं खायं स्वपूपाद्यम् ॥९७ ज्ञात्वा मरणागमनं तत्त्वमति निवारमतिगहनम् । पृष्ट्वा बान्धववर्ग करोति सल्लेखनां धीरः ॥ ९८ आराधनां भगवती हृदये निधत्ते सज्ञानदर्शनचरित्रतपोमयीं यः। निर्धूतकर्ममलपङ्कमसो महात्मा शर्मोदकं शिबसरोवरमेति हंसः ।। ९९ जिनेश्वर निवेदितं मननदर्शनालंकृत, द्विषड्विधमिदं व्रतं विपुलबुद्धिभिर्धारितम् । विधाय नरखेचरत्रिदशसम्पदं पावनी, ददाति मनिपुंगवामितगतिस्तुति निर्वतिम् ॥ इत्यमितगत्याचार्यकृतश्रावकाचारे षष्ठः परिच्छेदः ।। सप्तमः परिच्छेदः व्रतानि पुण्याय भवन्ति जन्तोर्न सातिचाराणि निषेवितानि । सस्यानि कि क्वापि फलन्ति लोके मलोपलोढानि कदाचनापि ॥ १ मत्वेति सद्धिः परिवर्जनीया व्रते व्रते ते खलु पञ्च पञ्च । उपेयनिष्पत्तिमपेक्षमाणा भवन्त्युपाये सुधियः सयत्नाः ॥ २ भारातिमात्रव्यतिरोपघातच्छेदान्नपानप्रतिषेधबन्धाः । अणुव्रतस्य प्रथमस्य वक्षः पञ्चापराधाः प्रतिषेधनीयाः ॥ ३ प्रकार आहार के चार भेद कहे गये है। इनका अपनी शक्तिके अनुसार अतिथिके लिए श्रावकको विभाग करना चाहिए ।।९६।। मुंगकी दाल, भात आदिको अशन कहते हैं । पीने योग्य दूध जलादिको जिनदेवने पेय कहा हैं । ताम्बूल, अनार आदि फलोंको स्वाद्य कहा हैं और पूआ मिठाई आदिको खाद्य कहा है ॥९७।। अब सल्लेखनाका वर्णन करते हैं-अपने दुनिवार अति भयंकर मरणका आगमन जानकर तत्त्वज्ञानी धीर वीर श्रावक अपने बान्धव वर्गसे पूछ कर सल्लेखनाको धारण करते हैं ।।९८॥ जो श्रावक सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तपोमयी भगवती आराधनाको अपने हृदय में धारण करता है, वह भव्य हंस महात्मा सर्वकर्म मलरूप पंकसे रहित, सुखरूप सलिलसे भरपूर शिवरूप सरोवरको प्राप्त होता हैं ॥ ९९।। इस प्रकार जिनेश्वर देवसे कथित, सम्यग्दर्शन-ज्ञानसे अलंकृत और विशालवुद्धि श्रावकोंसे धारण किये ये बारह भेदरूप व्रत मनुष्य, विद्याधर और देवलोककी पावन सम्पदाको देकर अन्तमें अमितज्ञानधारी मुनिश्रेष्ठोंसे पूजित मुक्ति लक्ष्मीको देते हैं ।।१०।। इस प्रकार अमितगति-विरचित श्रावकाचारमें छठा परिच्छेद समाप्त हुआ। अतीचार-सहित सेवन किये गये व्रत मनुष्योंको पुण्यके लिए नहीं होते है । लोकमें क्या कहीं भी कदाचित् मलसे व्याप्त धान्य फलती है । नहीं फलती है ॥१॥ ऐसा जानकर सज्जनोंको एकएक व्रतके पाँच अतीचार नियमसे छोडना चाहिए । उपेय जो व्रत उनको भले प्रकारसे निष्पन्न करनेकी अपेक्षा रखनेवाले बुद्धिमान् लोग अतीचारोंके त्यागरूप उपायमें प्रयत्नशील होते हैं ॥२॥ अब सर्वप्रथम अहिंसाणुव्रतके अतीचार कहते हैं-भारका अधिक मात्रामें लादना, लाठी-बेंत आदिसे आघात पहुंचाना, नाक-कान आदि अंगों का छेदना, अन्न-पानका रोकना और रस्सी आदि से बांधना ये पाँच अपराधरूप अतीचार प्रथम अणुव्रतके हैं अतएव व्रत-धारण करने में दक्षपूरुषोंको इनका त्याग करना चाहिए ॥३।। अब दूसरे सत्याणुव्रतके अतीचार कहते है-दूसरेके न्यास (धरोहर) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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