Book Title: Jainagama Thoak Sangraha
Author(s): Chhaganlal Shastri
Publisher: Jainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ FIRSSDesaril-sasesGRSEasase जैनागम थोक संग्रह ఆఆఅఆఅఆఅఆఅతతతతతతతతతతతతతత अनुवादकप्रसिद्ध वका पण्डित मुनि श्री चौथमलजी महाराज के सुशिष्य युवाचार्य पण्डित श्री छगनलालजी महाराज SHEHesses Sizesseszesedeerde zuzen SSCERA प्रकाशकश्री जैनोदय पुस्तक प्रकाशक समिति,रतलाम ofloof श्री जैनोदय प्रिं. प्रेस, रतलाम, ofcolcod ook SSSSSSSSSSSESE TOUCatone altronarno FORO For Pinare & Personal use only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MARRON HAR leio Syms asian- SESSIPesise-sastSHARE ACHMAYA 5RSES-555 । जैनागम थोक संग्रह 525-05- 5 + 925BESces50SFSPा अनुवादकप्रसिद्ध वक्ता पण्डित मुनि श्री चौथमलजी महाराज के सुशिष्य युवाचार्य पण्डित श्री छगनलालजी महाराज ఆఅఆఅఆఅఆఅఆఅఆఅఆఅఆఅఆఅఆఅ N AAP PM प्रकाशक THE श्री जैनोदय पुस्तक प्रकाशक समिति,रतलाम. प्रथमावृत्ति । मूल्य वीराब्द २४६० PAY १००० सवा रुपया । विक्रम सं.१६६ Ss525 అతా అఆఅఆఅఆఅఆఅఆఅ श्री जैनोदय प्रिं प्रेस, रतलाम, diarioxactoriodioudiosmosiOK Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक: मास्टर मीश्रीमल मंत्री:-श्री जैनोदय पुस्तक प्रकाशक समिति, रतलाम. ASIASMA ram CM मुद्रक मैनेजर-श्री जैनोदय प्रिंटिंग प्रेस, रतलाम, ___ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निवेदन जैन साहित्य विशाल है। महान् हित साधक है । संसार की दावाग्नि से संतप्त जीवों को शान्ति पहुँचाने वाला है। परन्तु वह अधिकांश प्राकृत (अर्धमागधी) और संस्कृत में है। जैन साहित्य में प्रवेश करने के वास्ते थोकड़ों का ज्ञान अनिवार्य आवश्यक है। गुजराती साहित्य के सुपरिचित लेखक धीरज भाई ने परिश्रम पूर्वक थोकड़ों का संग्रह किया है। उनका और प्रकाशक महोदय का प्रयत्न स्तुत्य है। युवाचार्य पं० मुनिश्री छगनलालजी म. ने उसका हिन्दी अनुवाद करना उपयोगी समझा । एतदर्थ हमने प्रकाशक महोदय से अनुमति माँगी। उन्होंने सहर्ष अनुमति दी । उनका आभार प्रदर्शन करते हुए अाज हम हिन्दी पाठकों के लाभार्थ यह स्तोक-संग्रह प्रकाशित कर रहे हैं। यदि इस से मुमुक्षों भव्य महानुभावों को कुछ लाभ पहुँचा तो हम अपने परिश्रम को सार्थक समझेंगे। खलचीपुरा निवासी श्रीमान् मगनमलजी सा० कुदाल ने इस के संशोधन का परिश्रम उठाया इसलिये उनका आभार मानता हूँ। मंत्री Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैनोदय पुस्तक प्रकाशक समिति. रतलाम. जन्म दाता श्रीमान् प्रसिद्धवक्ता पंडित मुनि श्री चौथमलजी महाराज सदस्य गण स्तम्भ श्रीमान् दानवीर रा. बा. सेठ कुंदनमलजी लालचन्दजी ब्यावर 5 , सरूपचंदजी भागचंदजी कलमसरा पुनमचंदजी चुनीलालजी न्यायडोंगरी ,, बहादरमलजी सूरजमलजी यादगिरी ,, नेमीचंदजी सरदारमल जी नागपुर ,, तखतमलजी सौमागमलजी जावरा संरक्षक सेठ श्रेमलजी लालचंदजी गुलेदगढ़ " लाला रतनलालजा श्रागरा छोटमलजी उज्जैन श्रीमती पिस्ताबाई, लोहामन्डी प्रागरा राजीबाई. बरोरा सी० पी० , अनारबाई, लोहामन्डी. आगरा चन्द्रपतिबाई सब्जीमंडी. देहली श्रीमान् सेठ बोटेलालजी जेठमलजी कनेरा (मेवाड़) , ,, वकील रतनलालजी उदयपुर ... कालूरामजी सा० कोठारी ,,कुंदनमलजी सरूपचंदजी ब्यावर देवराजजी सुराना , PM श्री महावीर जैन नवयुवक भंडल, चितौड़गढ़ (मेवाड़) ) ब्यावर ब्यावर Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहायक श्रीमान् चम्पालालजी अलीजार, 39 99 जुहारमलजी हेमाजी सादड़ी वाले मोहनलालजी सा० वकील मेम्बर "" नाथूलालजी छगनलालजी रूपचदजी श्रीमाल हजारीमलजी नागूलालजी मन्नालालजी चांदमलजी चम्पालालजी छगनलालजी खेमचंदजी जड़ावचंदजी हुक्मीचंदजी शिवलालजी पूरखचंदजी हस्तीमलजी बन्डूलालजी हरकचंदजी सजनराजजी साहब चंदनमलजी मिश्रीमलजी मिश्रीमलजी बाबेल खींवेसरा रिखबदासजी दौलतरामजी सा० श्री संघ, नाई " छगनलालजी सा० हरदेवमलजी सुवालालजी छगनमलजी वस्तीमलजी रिखबदासजी बालचंदजी चुन्नीलालजी भाईचंदजी रसिकलालजी हीरालालजी सेंसमलजी जीवराजजी पनजी दौलतरामजी ब्यावर पूना उदयपुर मल्हारगढ़ इन्दौर बालोदा ₹ ताल मन्दसौर मन्दसौर मन्दसौर छुईखदान नसीराबाद व्यावर व्यावर व्यावर व्यावर व्यावर भोपाल (मेवाड़) उदयपुर व्यावर बम्बई बम्बई बम्बई औरंगाबाद अहमदनगर Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमणिका नं० m . ७ U४ M १४१ विषय १ नव तत्व संग्रह २ पच्चीस क्रिया ३ छः काय के बोल ४ पच्चीस बोल ५ सिद्ध द्वार ६ चौबीस दण्डक ७ ओठ कर्म की प्रकृति ८ गतागति द्वार ६ छः पारों का वर्णन १० दश द्वार के जीव स्थानक" १६ श्री गुण स्थान द्वार १२ तेतीस बोल १३ नंदी सूत्र में ५ ज्ञान का विवेचन १४ तेतीस पदवी १५ पांच शरीर १६ पांच इन्द्रिय १७ रूपी अरूपी का बोल १८ बड़ा बांसठिया १६ बावन बोल २० श्रोता अधिकार २१ ६८ बोल का अल्प बहुत्व २२ पुद्गल परावर्त २३ जीवों की मार्गणा का ५६३ प्रश्न २४चार कषाय ૨૨૨ २५० २८१ २६३ ३०१ ३१० ३३५ ३५१ ३७० ३८१ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२] ४१७ ४१६ ४२१ ४२२ ४२८ ४४८ ४५५ ४६० २५ श्वासोश्वास २६ अस्वाध्याय २७ बत्तीस सूत्रों के नाम २८ अपर्याप्ता तथा पर्याप्ता द्वार २६ गर्भ विचार ३० नक्षत्र और विदेश गमन ३१ पांच देव ३२ श्राराधिक विराधिक ३३ तीन जाग्रिका (जागरण) ३४ छः काय के भव ३५ अवधि पद ३६ धर्म ध्यान ३७ छः लेश्या ३८ योनि पद ३६ आठ प्रात्मा का विचार ४० व्यवहार समकित के ६७ बोल ४१ काय-स्थिती ४२ योगों का अल्प बहुत्व ४३ पुद्गलों का अल्प बहुत्व ৪৪ স্মান্ধাহা স্বী ४५ बल का अल्प बहुत्व ४६ समकित के ११ द्वार ४७ खण्डाजोयणा ४८ धर्म के सम्मुख होने के १५ कारण ४६ मार्गानुसारी के ३५ गुण ५० श्रावक के २१ गुण ५१ जल्दी मोक्ष जाने के २३ बोल ४६७ ४६८ ४७१ ४८२ ४८६ ४६१. ४६५ ५०१ ५१० ५१२ ५१८ ५२१ ५३६ ५४१ ५४३ ५४४ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३] ५४६ ५४८ ५५७ ५२८ ५६८ ५७१ ५७३ ५७५ ५७८ ५८१ ५८६ ५६० ५२ तीर्थकर गोत्र नाम बांधने के २० कारण ५३ परम कल्याण के ४० बोल ५४ तीर्थकर के ३४ अतिशय ५५ ब्रह्मचर्य की ३२ उपमा ५६ देवोत्पत्ति के १४ बोल ५७ षट् द्रव्य पर ३१ द्वार ५८ चार ध्यान ५६ आराधना पद ६० बिरह पद ६१ संज्ञा पद ६२ वेदना पद ६३ समुद्घात पद ६४ उपयोग पद ६५ उपयोग अधिकार ६६ नियंठा ६७ संजया ( संयति) ६८ अष्ट प्रवचन (५ समिति ३ गुप्ति) ६६५२ अनाचार ७० आहार के १०६ दोष ७१ साधु समाचारी ७२ अहोरात्रि की घड़ियों का यन्त्र ७३ दिन पहर माप का यन्त्र ७४ रात्रि पहर देखने (जानने ) की विधि ७५ १४ पूर्व का यन्त्र ७६ सम्यक् पराक्रम के ७३ बोल ७७१४ राज लोक ७८ नारकी का नरक वर्णन ७६ भवनपति विस्तार ५६२ ६०५ ६१६ ६२० ६२४ ६३७ ६३८ ६४० ६४२ ६४३ ६४६ ६४६ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४] ६६० ६७१ ६७८ ६६६ ७०३ ७०५ ७०७ ८० वाण व्यन्तर विस्तार ८१ ज्योतिषी देव विस्तार ८२ वैमानिक देव ८३ संख्यादि २१ बोल अर्थात् डालापाला ८४ प्रमाण नय ८५ भाषा पद ८६ आयुष्य के १८०० भांगा ८७ सोपक्रम-निरुपक्रम पहियमण-बदमाण ८६ सावचया सोवचया ६० क्रत संचय ६१ द्रव्य ( जीवाजीव) ६२ संस्थान द्वार ६३ संस्थान के भांगे १४ खेताणु-वाई ६५ अवगाहन का अल्प बहुत्व ६६ चरम पद ६७ चरमा-चरम १८ जीव परिणाम पद ६६ अजीव परिणाम १०० बारह प्रकार का तप ७११ ७१३ ७१५ ७१६ ७२१ ७२३ ७२७ ७२६ ७३२ ७३४ CD Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थोकड़ा संग्रह (१) श्री नव तत्त्व विवेकी 'समदृष्टि जीवों को नव तच जानना आवश्यक है। नव तत्वों के नाम । १ जीव तत्व, २ अजीब तत्त्व, ३ पुन्य तत्व, ४पाप १ जीवादि नव तत्त्वों की शंसय रहित एवं शुद्ध मान्यता वाल तथा अनध्यसाय निर्णय बुद्धि वाले को समष्टि कहते हैं। २ तत्त्व-सार पदार्थ को तत्त्व कहते हैं जैसे दूध में सार पदार्थ मलाई है । श्रारमा का स्वभाव जानपना है परन्तु मोक्ष जाने में जीवादि नव पदार्थ का यथार्थ जान पना होना सो तस्व है। ३ जिस वस्तु में जानने देखने की शक्ति होवे वह जीव है । यह श्ररूपी (श्राकार रहित ) है और सदा काल जीवता है। ४ जो वस्तु ज्ञान रहित है वह अजीव है, अजीव रूपी ( प्राकार वाला) तथा अरूपी दोनों प्रकार का है। ५ जो अात्मा को (जीव को ) पवित्र बनाता है, ऊंची स्थिति पर लाता है सुख की सामग्री मिलाता है वह पुण्य है। ६ जो जीव को अपवित्र बनाता है, नीची स्थिति में डालता है। दुःख की (प्रतिकूल ) सामग्री मिलाता है वह पाप है। Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) थोकडा संग्रह। तत्व, ५ आश्रय तत्व, ६ संवर तत्त्व, ७ निर्जरा तख, ८ बंध तत्व, ६ मोक्ष" तत्व । प्रथम जीव तत्त्व के लक्षण तथा भेद । जीव तत्त्व-जो चैतन्य लक्षण, सदा, स-उपयोगी असंख्यात प्रदेशी, सुख दुःख का बोधक, सुख दुःख का वेदक एवं अरूपी हो उसे जीव तत्व कहते है । जीव का एक भेद है कारण, सब जीवों का चैतन्य लक्षण एक ही प्रकार का है इस लिये संग्रह नय से जीव एक प्रकार का होता है। जीव के दो भेद-१ त्रस, २ स्थावर, अथवा १ सिद्ध, २ संसारी। जीव के तीन भेद-१ स्त्री वेद, २ पुरुष वेद, ३नसक वेद, अथवा १ भव्य सिद्धिया, २ अभव्य सिद्धिया ३ नोभव्य सिद्धिया नोअभव्य सिद्धिया । ७ जवि के साथ कर्मों का संयोग होना-जड़ (अजीव ) वस्तु का मेल होना पाश्रव है। म जीव के साथ कमों का संयोग रूक जाना, जड़ से मेल नहीं होना संवर है। जीव के साथ अनादि काल से जड़ पदार्थ (कर्म) मिला हवा है उस जड़ पदार्थ कर्म-का थोड़ा २ दूर होना निर्जरा है। १० जवि के साथ जड़ वस्तु-कर्म-का संयोग होने के बाद दोनों का (लोह अग्नि वत् ) एक मेक हो जाना बन्ध है। ११ जीव का कर्मों से अलग होजाना-पूगर छुटकारा होना मोक्ष है। Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नव तत्त्व । (३) जीव के चार भेद-१ नारकी, २ तिर्यञ्च, ३मनुष्य, ४ देव, अथवा १ चक्षु दर्शनी, २ अचच दर्शनी, ३ अवधि दर्शनी, ४ केवल दर्शनी।। जीव के पांच भेद-१ एकेन्द्रिय,२बेन्द्रिय,३तेन्द्रिय, ४ चौरिन्द्रिय, ५पंचेन्द्रिय, अथवा १ संयोगी, २ मन योगी, ३ वचन योगी, ४ काय योगी, ५ अयोगी। जीव के छः भेद-१ पृथ्वी काय, २ अपकाय, ३तेजस्काय, ४ वायु काय, ५ वनस्पति काय, ६ त्रस काय, अथवा १ सकषायी, २ क्रोध कषायी, ३ मान कपायी, ४ माया कषायी, ५ लोभ कपायी, ६ अकषायी। ___ जीव के सात भेद-१ नारकी, २ तिर्यच, ३ तिर्यवाणी, ४ मनुष्य, ५ मनुष्याणी ६ देव, ७ देवांगना। .. जीव के आठ भेद-१ मलेश्यी, २ कृष्ण लेश्यी, ३ नील लेश्यी, ४ कापोत लेश्यी, ५ तेजो लेश्यी, ६ पद्म लेश्यी, ७ शुक्ल लेश्यी, ८ अलेश्यी । , जीव के नव भेद-१ पृथ्वी काय, २ अप काय, ३ तेजस्काय, ४ वायु काय, ५ वनस्पति काय, ६ बेन्द्रिय, ७ तेन्द्रिय, ८ चौरिन्द्रिय, ६ पञ्चेन्द्रिय ।। जीव के दश भेद-१ एकेन्द्रिय, २ बेइन्द्रिय, ३ त्री-इन्द्रिय, ४ चौइन्द्रिय, ५ पञ्चेन्द्रिय, इन पाँचों के अपर्याप्ता व पर्याप्ता ये दश । • जीव के इग्यारे भेद-१ एकेन्द्रिय, २ बेन्द्रिय, Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४) थोकडा संग्रह। ३ त्री-इन्द्रिय, ४ चौरिन्द्रिय, ५ नारकी, ६ तियञ्च, ७ मनुष्य, ८ भवनपति, ६ वाणव्यन्तर १० ज्योतिषी, ११ वैमानिक । जीव के बारह भेद-१ पृथ्वी काय, २ अप काय, ३ तेजस्काय, ४ वायु काय, ५ वनस्पति काय, ६ त्रस काय, इन छः का अपर्याप्ता व पयोप्ता ये १२ । जीव के तेरह भेद-१ कृष्ण लेश्यी, २ नील लेश्यी, ३ कापोत लेश्यी, ४ तेजो लेश्यी, ५ पद्म लेश्यी, ६ शुक्ल लेश्यी, इन छ: का अपर्याप्ता व पर्याप्ता ये बारह और १ अलेश्यी एवं १३।। ___जीव के चौदह भेद-१ सूक्ष्म एकेन्द्रिय का अपर्याप्त, २ सूक्ष्म एकेन्द्रिय का पर्याप्ता, ३ बादर एकेन्द्रिय का अपर्याप्ता, ४ बादर एकेन्द्रिय का पर्याप्ता, ५ बेइन्द्रिय का अपर्याप्ता, ६ बेइन्द्रिय का पर्याप्ता, ७ त्रीइन्द्रिय का अपर्याप्ता, ८ त्री-इन्द्रिय का पर्याप्ता, ह चौरिन्द्रिय का अपर्याप्ता, १० चौरिन्द्रिय का पर्याप्ता, ११ असंज्ञी पश्चेन्द्रिय का अपर्याप्ता, १२ असंही पञ्चेन्द्रिय का पर्याप्ता, १३ संज्ञी पञ्चेन्द्रिय का अपर्याप्ता, १४ संज्ञी पञ्चेन्द्रिय का पर्याप्ता। विस्तार नय से जीव के ५६३ भेदः१ नारकी के चौदह भेद, २ तिर्यश्च के अड़तालीस, Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नव तरव। (५) ३ मनुष्य के तीन सो तीन, और ४ देवता के एकसो अठाणु । नारकी के भेदः-१ धम्मा, २ वंसा ३ सीला, ४ अंजना ५ रिष्टा, ६ मघा, और ७ माघवती, इन सातों नरकों में रहने वाले (नेरियों ) जीवों के अपर्याप्ता व पर्याप्ता एवं १४ भेद । तिर्यञ्च के ४८ भेदः- १ पृथ्वी काय, २ अपकाय, ३ तेजस्काय, ४ वायु काय,ये चार सूक्ष्म और चार बादर ( स्थूल ) एवं ८ इन आठ के अपर्याप्ता और पर्याप्ता एवं १६। वनस्पति के छः भदः-१ सूक्ष्म, २ प्रत्येक, और ३ साधारण इन तीन के अपर्याप्ता व पर्याप्ताये ६ मिल कर २२ भेद, १ बेइन्द्रिय, २ त्री-इन्द्रिय ३ चौरिन्द्रिय इन ३ का अपर्याप्ता और पर्याप्तः ये छः मिलकर २८ । तिर्यश्च पञ्चन्द्रिय के २० भेदः-१ जलचर, २ स्थलचर, ३ उरपर, ४ भुजपर, ५ खेचर । ये पाँच गर्भज और पाँच संमृछिम एवं १० इन १० के अपर्याप्ता और पयोप्ता । ये २० मिल कर तिर्यञ्च के कुल (१६+६+६+२०) ४८ भेद हुवे। ___मनुष्य के ३०३ भेदः-१५ कर्मभूमि के मनुष्य, ३० अकर्म भूमि के और ५६ अंतर द्वीप के एवं १०१ क्षेत्र के गर्भज मनुष्य का अपर्याप्ता व पर्याप्ता एवं २०२ और Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६) थोकडा संग्रह। १०१ क्षेत्र के संमूर्छिम मनुष्य ( चौदह स्थानोत्पन्न ) का अपर्यप्ता । इस प्रकार मनुष्य के ३०३ भेद हुवे । देवता के भेदः-१० असुर कुमारादिक और१५पर. माधर्मी एवं २५ भेद भवनपति के, १६ प्रकार के पिशाचादि देव व १० प्रकार के जंभिका एवं २६ भेद वाणव्यन्तर के, ज्योतिषी देव के १० भेद-५ चर ज्योतिषी और ५ अचर (स्थिर)ज्योतिषी । तीन किल्विषी १२ देव लोक, हलोकान्तिक, 8 ग्रैवेयक (ग्रीवेक) ५ अनुत्तर विमान । इन १६ (१०+१+१६+१०+१०+३+१+8+8+५ ) जाति के देवों का अपर्याप्ता व पर्याप्ता एवं देवता के १६८ भेद जानना। __एवं सब मिलाकर ५६३ भेद जीव तत्व के जानना इन जीव को जानकर इनकी दया पालनी चाहिये जिससे इस भव में व पर भव में परम सुख की प्राप्ति हो ॥ ॥इति श्री जीव तत्त्व ।। .. (२) अजीव तत्व के लक्षण तथा भेद ।। अजीव तत्त्वः-जो जड़ लक्षण,चैतन्य रहित, वणादिक रुप सहित तथा रहित, सुख दुःख को नहीं वेदने वाला हो उसे अजीव तत्त्व कहते हैं। अजीव के १४ भेद-१ धर्मास्तिकाय का स्कंध, Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नव तत्त्व । (७) २ उसका देश, ३ तथा उसका प्रदेश, ४ अधर्मास्तिकाय का स्कंध, ५ देश तथा ६ प्रदेश, ७ आकास्ति काय का स्कंध, ८ देश तथा ६ प्रदेश, १० काल ये १० भेद अरुपी अजीव के, १ पुद्गलास्ति काय का स्कंध, २ देश तथा ३ प्रदेश-तीन तो ये और चौथा परमाणु पुद्गल एवं चार भेद रुपी अजीब के मिला कर अजीव के १४ भेद विस्तार नय से अजीव के ५६० भेद ३० भेद अरूपी अजीव के-१ धर्मास्ति काय, द्रव्य से एक, २ क्षेत्र से लोक प्रमाण, ३ काल से आदि अंत रहित, ४ भाव से अरुपी, ५ गुण से चलन सहाय । ६ अधर्मास्ति काय द्रव्य से एक, क्षेत्र से लोक प्रमाण, ८ काल से आदि अंत रहित ह भाव से अरुपी, १० गुण से स्थिर सहाय, ११ श्राकास्ति क य द्रव्य से एक, १२ क्षेत्र से लोकालोक प्रमाण, १३ काल से आदि अंत रहित, १४ भाव से अरुपी, १५ गुण से अवगाहनादान तथा विकाश लक्षण, १६ काल द्रव्य से अनंत, १७ क्षेत्र से अढ़ी द्वीप प्रमाण, १८ काल से आदि अंत रहित, १६ भाव से अपी, २० गुण से वर्तना लक्षण, ये २० और १० भेद ऊपर कहे हुवे इस प्रकार कुल ३० भेद अरुपी अजीव के हुवे । Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८) थोकडा संग्रह । रुपी अजीव के ५३० भेद-५ वर्ण, २ गन्ध, ५ रस, ५ संस्थान, ८ स्पर्श, इन २५ में से जिसमें जितने बोल पाये जाते हैं वे सब मिला कर कुल ५३० भेद होते हैं। विस्तार ५ वर्ण-१ काला, २ नीला, ३ लाल, ४ पीला, ५ सफेद, इन पांचों वर्गों में २ गन्ध, ५ रस, ५ संस्थान, और ८ स्पर्श, थे २० बोल पाये जाते हैं इस प्रकार ५४२०=१०० बोल वर्णाश्रित हुवे । २गन्ध-१ सुरभि गंध २ दुरभि गंध इन दोनों में ५ वर्ण, ५ रस, ५ संस्थान और ८ स्पर्श ये २३ बोल पाये जाते हैं इस प्रकार २४२३४६ बोल गंध आश्रित हुवे। ५ रस-१ मिष्ट, २ कटुक, ३ तीक्ष्ण, ४ खट्टा, ५ कपायित इन ५ रसों में ५ वर्ण, २ गंध, ८ स्पर्श, और ५ संस्थान ये २० बोल पाये जाते हैं इस तरह ५४२०=१०० बोल रसाश्रित हुवे।। ५ संस्थान-१ परिमंडल संस्थान-चुड़ी के आकारचत्, २ वर्तुल संस्थान-लड्डू समान, ३ त्रंश संस्थान-सिंघाड़े समान, ४ चतुरंस्त्र संस्थान-चौकी समान, ५ आयत संस्थान-लम्बी लड़की समान, इन संस्थानों में ५ वर्ण, २ गंध, ५ रस, ८ स्पर्श ये २० बोल पाये जाते हैं इस तरह ५४२०=१०० बोल संस्थान आश्रित हुवे । ८ स्पर्श-१ कर्कश, (कठोर) २ कोमल, ३ गुरु, ४ लघु, ५ शीत, ६ उष्ण, ७ स्निग्ध, ८ रुक्ष, एक-एक Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नव तत्त्व। (६) स्पर्श में ५ वर्ण, २ गन्ध, ५ रस, ६ स्पर्श और ५ संस्थान इस प्रकार २३-२३ बोल पाये जाते हैं । अर्थात् आठ स्पर्श में से दो स्पर्श कम कहना कर्कश का पूछा होवे तो कर्कश और कोमल, ये दो छोड़ना । इसी प्रकार लघु का पूछा होवे तो लघु व गुरु छोड़ना, शीत का पूछा होवे तो शीत व उष्ण छोड़ना, स्निग्ध का पूछा होवे तो स्निग्ध व रुक्ष छोड़ना, ऐसे हरेक सर्श का समझ लेना । एक-एक स्पर्श के २३-२३ के हिसाब से २३४८-१८४ बोल स्पर्श आश्रित हुवे । १०० वर्ण के, ४६ गन्ध के १०० रसके, १०० संस्थान के और १८४ स्पर्श के इस प्रकार सब मिलाकर ५३० भेद रुपी अजीव के हुवे । इनमें अरुपी अजीव के ३० भेद मिलान से कुल ५६० भेद अजीव के जानना । इस प्रकार अजीव के स्वरूप को समझ कर इन पर से जो मोह उतारेगा वो इस भव में व पर भव में निरा बाध परम सुख पावेगा। ॥ इति अजीव तत्त्व ॥ (३) पुन्य तत्व के लक्षण तथा भेद. पुन्य तत्त्व-जो शुभ करणी के व शुभ कर्म के उदय से शुभ उज्वल पुद्गल का बन्ध पड़े व जिसके फल भोगते समय प्रात्मा को मीठे लगे उसे पुन्य तत्व कहते हैं । Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थोकडा संग्रह। इसके नव भेद-१ अन्न पुन्य २ पानी पुन्य ३ लयन पुन्य(मकानादि)४शयन पुन्य(पाटलादि) वस्त्र पुन्य ६मनः पुन्य ७ वचन पुन्य ८ काय पुन्य ६ नमस्कार पुन्य । इन नव प्रकार से जो पुन्य उपार्जन करता है वह ४२ प्रकार से शुभ फल भोगता है। ४२ प्रकार के शुभ फलः-१ शाता वेदनी २ तिर्यच आयुष्य युगल में ३ मनुष्यायुष्य ४ देव आयुष्य ५ मनुष्य गति ६ देव गति ७ पंचेन्द्रिय की जाति ८ औदारिक शरीर : वैक्रिय शरीर १० आहारिक शरीर ११ तेजस शरीर १२ कार्मण शरीर १३ औदारिक अङ्गीपाङ्ग १४ वैक्रिय अङ्गोपाङ्ग १५ श्राहारिक अङ्गोपाङ्ग १६ वज्र ऋषभ नाराच संघयन १७ समचतुरस्त्र संस्थान १८ शुभ वर्ण १६ शुभ गन्ध २० शुभ रस २१ शुभ स्पर्श २२ मनुष्यानुपूर्वि २३ देवानुपूर्वि २४ अगुरु लघु नाम २५ पराघात नाम २६ उश्वास नाम २७ अाताप नाम २८ उद्योत नाम २६ शुभ चलने की गति ३० निर्माण नाम ३१ तीर्थकर नाम ३२ त्रस नाम ३३ बादर नाम ३४ पर्याप्त नाम ३५ प्रत्येक नाम ३६ स्थिर नाम ३७ शुभ नाम ३८ सौभाग्य नाम ३६ सुस्वर नाम ४० प्रादेय नाम ४१ यशो कीर्ति नाम ४२ ऊंच गोत्र । पुन्य के इन भेदों को जान कर जो पुन्य आदरेंगे उन्हें Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११ ) इस भव में व पर भव में निराबाध सुखों की प्राप्ति होवेगी । ॥ इति पुन्य तत्व ॥ नव तत्त्व | (४) पाप तत्व के लक्षण तथा भेद. पाप तवः - जो अशुभ करणी से, अशुभ कर्म के उदय से, अशुभ, मेला पुद्गल का बंध पड़े व जिसके फल भोगते समय आत्मा को कड़वे लगे उसे पाप तच्च कहते हैं । पाप के १८ भेद:- १ प्राणातिपात २ मृषावाद ३ अदत्तादान ४ मैथुन ५ परिग्रह ६ क्रोध ७ मान माया है लोभ १० राग ११ द्वेष १२ क्लेश १३ अभ्याख्यान १४ पैशुन्य १५ परपरिवाद १६ रति अरति १७ माया मृषा १८ मिथ्या दर्शन शल्य इन १८ भेद प्रकार से जीव पाप उपार्जन करता है वह ८२ प्रकार से भोगता है । ८२ प्रकार से भोगे जाते हैं-१ मति ज्ञानावरणीय २ श्रुत ज्ञानावरणीय ३ अवधि ज्ञानावरणीय ४ मनः पर्यव ज्ञानावरणीय ५ केवल ज्ञानावरणीय ६ निद्रा ७ निद्रानिद्रा ८ प्रचला ६ प्रचला प्रचला १० थिद्धि निद्रा ११ चक्षु दर्शनावरणीय १२ अचक्षु दर्शनावरणीय १३ अवधि दर्शनावरणीय १४ केवल दर्शनावरणीय १५ अशाता वेदनीय १६ मिथ्यात्व मोहनीय १७ अनंतानु - Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२) थोकडा संग्रह। AARMAAVA बंधी क्रोध १८ मान १६ माया २० लोभ २१ अप्रत्याख्यानी क्रोध २२ अप्रत्याख्यानी मान २३ अप्रत्या० माया २४ अप्रत्या० लोभ २५ प्रत्याख्यानी क्रोध २६ प्रत्या० मान २७ प्रत्या० माया २८ प्रत्या० लोभ २६ संज्वल का क्रोध ३० संज्वल का मान ३१ संज्वल का माया ३२ संज्वल का लोभ ३३ हास्य ३४ रति ३५ अरति ३६ भय ३७ शोक ३८ दुर्गच्छा ३६ स्त्रो वेद ४० पुरुष वेद ४१ नपुंसक वेद ४२ नरक आयुष्य ४३ नरक गति ४४ तिर्य व गति ४५ एकेन्द्रिय पना ४६ वइन्द्रिय पना ४७ त्रीइन्द्रिय पना ४८ चौरिन्द्रिय पना ४६ ऋषम नाराच संघयन ५० नाराच संघयान ५१ अर्ध नाराच संघ. यन ५२ कीलिका संवयन ५३ सेवात संघान ५४ न्यग्रोध परिमंडल संस्थान ५५ सादिक संस्थान ५६वामन संस्थान ५७ कुब्ज संस्थान ५८ हुण्ड क संस्थान ५६ अशुभ वर्ण ६० अशुभ गन्ध ६१ अशुभ रस ६२ अशुभ स्पर्श ६३ नरकानुपरू ६४ तिर्थ चानुपूर्वी ६५ अशुभ गति ६६ उपघातु नाम ६७ स्थावर नाम ६८ सूक्ष्म नाम ६६ अपर्याप्त पना ७० साधारण पना ७१ अस्थिर नाम ७२ अशुभ नाम ७३ दुर्भाग्य नाम ७४ दुःखर नाम ७५ अनोदय नाम ७६ अयशो कीर्ति नाम ७७ नीच गोत्र ७८ दानान्त. राय ७६ लाभान्तराय ८० भोगान्तराय ८१ उपभोगान्तराय ८२ वीर्यान्तराय एवं ८२ प्रकार से पाप के फल भोगे Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नव तत्त्व। (१३) जाते हैं । ये पाप जान कर जो पाप के कारण को छोड़ेंगें वे इस भव में तथा पर भव में निराबाध परम सुख पावेंगे। ॥ इति पाप तत्त्व ॥ (५) अाश्रव तत्व के लक्षण तथा भेद. अाश्रव तत्त्व-जीव रूपी तालाब के अन्दर अव्रत तथा अप्रत्याख्यान द्वारा, विषय कषाय का सेवन करने से इन्द्रियादिक नालों के अन्दर से जो कर्म रूपी जल का प्रवाह आता है उसे आश्रय कहते हैं। ___ यह आश्रयं जघन्य २० प्रकार से और उत्कृष्ट ४२ प्रकार से होता है। जघन्य २० प्रकार-१ श्रोतेन्द्रिय असंवर २ चक्षु इन्द्रिय असंवर ६ घ्राणेन्द्रिय असंबर ४ रसेन्द्रिय असंवर ५ स्पर्शेन्द्रिय असंवर ६ मन असंवर ७ वचन असंवर ८ काय असंवर ६ वस्त्र वतनादि भएडोपकरण प्रयत्ना से लेवे तथा रक्खे १० सुची कुशाग्र मात्र भी प्रयत्ना से काम में लेवे ११ प्राणातिपात १२ मृषावाद १३ अदत्तादान १४ मैथुन १५ परिग्रह १६ मिथ्यात्व १७ अत्रत १८ प्रमाद १६ कषाय २० अशुभ योग । विशेष रीति से माश्रय के ४२ भेद. ५ आश्रय,५ इन्द्रिय विषय,४ कषाय ३ अशुभ योग Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४ ) थोकडा संग्रह | २५क्रिया, ये४२ भेद आश्रव के जान कर जो इन्हें छोड़ेगा वह इस भव में तथा पर भव में निरा बोध परम सुख पावेगा । ॥ इति श्रव तत्व ॥ (६) संवर तत्व के लक्षण तथा भेद. संवर तन्त्र-जीव रूपी तालाब के अन्दर इन्द्रियादिक नालों व छिद्रों के द्वारा आने वाले कर्म रूपी जल के प्रवाह को व्रत प्रत्याख्यानादि द्वारा जो रोकता है उसे संवर तच्च कहते हैं संवर के सामान्य से २० भेद व विशेष ५७ भेद है । सामान्य २० भेद:- १ श्रुतेन्द्रिय निग्रह ( संवरे ) २ चक्षु इन्द्रिय निग्रह ३ घ्राणेन्द्रिय निग्रह ४ रमेन्द्रिय निग्रह ५ स्पर्शेन्द्रिय निग्रह ६ मन निग्रह ७ वचन निग्रह ८ काया निग्रह ६ भण्डोपकरण यना से लेवे तथा रक्वे १० सुची कुशाग्र भी यत्ता से काम में लेवे ११ दया १२ सत्य १३ अचौर्य १४ ब्रह्मचर्ष १५ अपरिग्रह ( निर्ममत्व ) १६ सम्यक्त्व १७ व्रत १८ अप्रमाद १६ श्रकषाय २० शुभ योग । संवर के ५७ भेद: पांच समिति :- १ इर्या समिति २ भाषा समिति ३ एषणा समिति ४ आदान भण्डमात्र निक्षेपना समिति Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Avvvouravrrivvvvvvv नव तस्व। (१५) ५ उच्चार पासवण खेल जल संघायण परिठावणिया समिति । तीन गुप्तिः -६ भन गुप्ति ७ व बन गुप्ति ८ काय गुप्ति । २२ परिषहः-६ तुधा परिषह १० तृषा परिषह ११ शीत १२ ताप १३ डंस-मत्सर १४ अचल १५ अरति १६ स्त्री १७ चरिया १८ निसि हिया १९ शय्या २० आक्रोरी २१ वध २२ याचना २३ अलाभ २४ रोग २५ तृण स्पर्श २६ मैल २७ सत्कार पुरस्कार २८ प्रज्ञा २६ अज्ञान ३० दर्शन ( इन २२ परिषह का जप ) १० यनि धर्षः-३१ शांति ३२ निर्लोभता ३३ सरलता ३४ कोमलता २५ अल्पोपधि ३६ सत्य ३७ संयम ३८ तप ३६ ज्ञान दान ४० ब्रह्मवर्य ( इन १० यति धर्म का पालन करना) १२ भावनाः-४१ अनित्व भावनाः -संसार के सब पदार्थ धन, यौवन, शरीर, कुटुम्बादिक अनित्य, अस्थिर हैं व नाशवान हैं इस प्रकार विचार करना । ४२ अशरण भावना:-जीव को जब रोग पीड़ादिक उत्पन्न होवे तब कोई शरण देने वाला नहीं, लक्ष्मी, कुटुंब परिवार आदि कोई साथ में नहीं आता ऐसा विचार करना। ४३संसार भावना:-जीव कर्म करके संसार में चोरासी लाख जीव योनि के अन्दर नव नवी समान भटके । पिता मर Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६ ) थोकडा संग्रह | कर पुत्र हो जाता है, पुत्र पिता हो जाता है, मित्र शत्रु होजाता है, शत्रु मित्र हो जाता है इत्यादिक अनेक प्रकार से जीव नई नई अवस्था को धारण करता है ऐसा विचार करे । ४४ एकत्व भावना :- जीव परलोक से अकेला श्राया व अकेला ही जायगा । अच्छे बुरे कर्म को अकेला ही भोगेगा जिनके लिये पाप कर्म किये वे भोंगते समय कोई साथ नहीं देगें इस प्रकार सोचे । ४५ अन्यत्व भावना:-- इस जीव से शरीर पुत्र कलत्रादि धन धान्य, द्विपद चतुष्पद आदि सर्व परिग्रह अन्य है ये मेरे नहीं, व मैं इनका नहीं ऐसा सोचे । ४६ अशुचि भावनाः- यह शरीर सात धातुमय है व जिसमें से मल मूत्र श्लेष्मदिक सदैव निकलता है स्नान आदि से शुद्ध बनता नहीं, ऐसा विचार करे। ४७ श्रव भावना:- ये संसारी जीव मिथ्यात्व व्रत कषाय प्रमादादि आश्रव द्वारा निरन्तर नये नये कर्म बांव रहे हैं, ऐसा सोचे । ४८ संवर भावन :--व्रत, संवर, साधु के पंच महाव्रत, श्रावक के बारह व्रत, सामायिक पौषधोपवास यादि करने से जीव नये कर्म बांधता नहीं, किंवा पूर्व कर्मों को पतले करता है । ऐसा करने के लिये विचार करे । ४६ निर्जरा भावना:- चार प्रकार की तपस्या करने से निविड़ कर्म टूट कर दीर्घ संसार पार होता है व Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नव तत्त्व । (१७) अनेक लब्धिये भी प्राप्त होती है। ऐसा समझ कर तपस्या करने का विचार करे। ५० लोक भावनाः-चौदह राज प्रमाणे जो लोक है उसका विचार करे। ५१ बोध भावनाः-राज्य देव, पदवी, ऋद्धि कल्प दृमादि ये सचे सुलभ हैं, अनंती वार मिले पर बोध वीज समकित का मिलना दुर्लभ है ऐसा सोचे। ५२ धर्म भावना:- सर्वज्ञ ने जो धर्म प्ररुपा है वह संसार समुद्र से पार उतारने वाला है। पृथ्वी निरावलम्ब निराधार है । चन्द्रमा और सूर्य समय पर उदय होते हैं। मेघ समय पर वृष्टि करते हैं। इस प्रकार जगत में जो अच्छा होता है, वह सब सत्य धर्म के प्रभाव से, ऐसा विचार करे। पंच चारित्र ५३ सामायिक चरित्र ५४ छेदोपस्थानिक चारित्र ५५ परिहार विशुद्ध चारित्र ५६ सूक्ष्म संपराय चारित्र ५७ यथाख्यात चारित्र इस प्रकार ५७ भेद संवर के जान कर आचरण करने से निराबाध (पीड़ा रहित ) परम सुख की प्राप्ति होगी। . ॥ इति संवर तत्व ॥ (७) निर्जरा तत्त्व के लक्षण तथा भेदः बारह प्रकार की तपस्या द्वारा कर्मों का जो क्षय होता है उसे निर्जरा तत्व कहते हैं। Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८ ) इसके १२ भेद - १ अनशन २ उनोदरि ३ वृत्ति संक्षेप ( भिक्षाचारि ) ४ रस परित्याग ५ कायक्लेश ६ प्रति संलीनता । ( यह छ बाह्य तप ) ७ प्रायश्चित ८ विनय वैयावृत्य १० स्वाध्याय ११ ध्यान 8 १२ कायोत्सर्ग । (यह छः अभ्यन्तर तप ) इन बारह प्रकार के तप को जान कर जो इन्हें श्रादरेगा वह इस भव में व परभव में निराबाध परम सुख पायेगा । ॥ इतेि निर्जरा तत्त्व ॥ थोकडा संग्रह | ८बन्ध तत्र के लक्षण तथा मेद || क्षीर नीर, धातु मृत्तिका, पुष्प-अतर, तिल- तेल इत्यादि की तरह श्रात्मा के प्रदेश तथा कर्मों के पुद्गल का परस्पर सम्बन्ध होने को बन्ध तत्व कहते हैं । बन्ध के चार भेद - १ प्रकृति बन्ध - आठ कर्मों का स्वभाव २ स्थिति बन्ध-आठों कर्मों के रहने के समय का मान ३ कर्मों के तीव्र मंदादिक रस सो अनुभाग बन्ध ४ कर्म पुद्गल के दल जो आत्मा के प्रदेश के साथ बन्धे हुवे हैं, वे प्रदेश बन्ध । यह चार प्रकार का बन्ध का स्वरुप मोदक के दृष्टान्त के समान है । जैसे कई प्रकार के द्रव्यों के संयोग से बना हुवा मोदक (लड्डू ) की Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नव तत्व। (१६) प्रकृति वात पितादि की घातक होती है। तैसे ही आठों कर्म जिस जिस गुण के घातक हो वो १ प्रकृति बन्ध । जैसे वह मोदक पक्ष, मास, दो मास तक रह सकता है सो २ स्थिति बन्ध । जैसे वह मोदक कटुक तीक्ष्ण रस वाला होता है तैसे कर्म रस देते हैं सो ३ अनु भाग बन्ध । जैसे वह मोदक न्युनाधिक परिमाण वाला होता है तैसे कर्म पुद्गल के दल भी छोटे बड़े होते हैं सो ४ प्रदेश बन्ध । इस प्रकार बन्ध का ज्ञान होने पर जो यह बन्ध तोड़ेगा वह निराबाध परम सुख पावेगा। ॥इति बन्ध तत्व ॥ मोक्ष तत्त्व के लक्षण तथा भेद बन्ध तत्व का उलटा मोक्ष तत्व है अर्थात् सकल आत्मा के प्रदेश से सर्व कर्मों का छूटना, सर्व बन्धों से मुक्त होना, सकल कार्य की सिद्धि होना तथा मोक्ष गति को प्राप्त होना सो मोक्ष तत्व । ___ मोक्ष प्राप्ति के चार साधनः-१ ज्ञान २ दर्शन ३ चारित ४ तप । सिद्ध पन्द्रह तरह के होते हैं:-१ तीर्थ सिद्धा २ अतीर्थ सिद्धा ३ तीर्थकर सिद्धा ४ अतीर्थकर सिद्धा ५ स्वयं बोध सिद्धा ६ प्रत्येक बोध सिद्धा ७ बुद्ध बोहि Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०) थोकडा संग्रह। सिद्धा ८ स्त्रो लिङ्ग सिद्धा ६ पुरुष लिङ्ग सिद्धा १० नपुसंक लिङ्ग सिद्धा ११ स्वयं लिङ्ग सिद्धा १२ अन्य लिङ्ग सिद्धा १३ गृहस्थ लिङ्ग सिद्धा १४ एक सिद्धा १५ अनेक सिद्धा। मोक्ष के नव द्वार १ सद् २ द्रव्य ३ क्षेत्र ४ स्पर्शना ५ काल ६ भाग ७ भाव ८ अंतर ६ अल्प बहुत्व । १ सद् पद प्ररूपणाद्वार:-मोक्ष गति पूर्व समय में थी, वर्तमान समय में है व आगामी काल में रहेगी उसका अस्तित्व है, आकाश कुसुमवत् उसकी नास्ति नहीं। २ द्रव्य द्वारः-सिद्ध अनन्त है, अभव्य जीव से अनन्त गुणे अधिक हैं एक वनस्पति काय के जीवों को छोड़ कर दूसरे २३ दंडक के जीवों से सिद्ध अनन्त हैं। ३ क्षेत्र द्वार:-सिद्ध शिला प्रमाण (विस्तार में ) है यह सिद्ध शिला ४५ लाख योजन लम्बी व पोली है मध्य में पाठ योजन की जाड़ी है। किनारों के पास से मक्षिका के पास से भी पतली है । शुद्ध सोना के समान शंख, चन्द्र, बगुला, रत्न, चादी का पट, मोती का हार व क्षीर सागर के जल से अधिक उज्वल है। उसकी परिधि १,४२,३०, २४६ योजन, १ गाउ १७६६ धनुष्य व पोने छ अंगल झाझरी है । सिद्ध के रहने का स्थान सिद्ध शिला के ऊपर योजन के छेले गाऊ के छठे भाग में है Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नव तत्त्व । (२१) ( अर्थात् ३३३ धनुष्य ३२ अंगुल प्रमाणे क्षेत्र में सिद्ध भगवान रहते हैं) ४ स्पर्शना द्वार:-सिद्ध क्षेत्र से कुछ अधिक सिद्ध की स्पर्शना है। ५ काल द्वार:-एक सिद्ध आश्री इनकी आदि है परन्तु अन्त नहीं, सर्व सिद्ध पाश्री आदि भी नहीं व अन्त भी नहीं। ६ भाग द्वार:-सर्व जीवों से सिद्ध के जीव अनन्त वें भाग हैं व सर्व लोक के असंख्यातवें भाग हैं। ७ भाव द्वार:-सिद्धों में क्षायिक भाव तो केवल ज्ञान, केवल दर्शन और क्षायिक समकित्व है और पारिणामिक भाव-यह सिद्ध पना है। ८ अन्तरभाव:-सिद्धों को फिर लौटकर संसार में नहीं थाना पड़ता है, जहां एक सिद्ध तहां अनन्त और जहां अनन्त वहां एक सिद्ध इसलिये सिद्धों में अन्तर नहीं। ६ अल्प बहुत्व द्वार:-सब से कम नपुसंक सिद्ध, उससे स्त्री संख्यात गुणी सिद्ध और उससे पुरुष संख्यात गुणे । एक समय में नपुसंक १० सिद्ध होते हैं, स्त्री २० और पुरुष १०८ सिद्ध होते हैं। मोक्ष में कौन जाते हैं:-१ भव्य सिद्धक २ बादर ३ त्रस ४ संज्ञो ५ पर्याप्ती ६ वज्र ऋषभ नाराच संघ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२) थोवडा संग्रह। यनी ७ मनुष्य गति वाले ८ अप्रमादी ६ क्षायिक सम्य. क्वी १० अवेदी ११ अकषायी १२ यथाख्यात चारित्री १३ स्नातक निग्रंथी १४ परम शुक्ल लेश्यी १५ पंडित वीर्यवान १६ शुक्ल ध्यानी १७ केवल ज्ञानी १८ केवल दर्शनी १६ चरम शरीरी । इस तरह १६ बोल वाले जीव मोक्ष में जाते हैं । जघन्य दो हाथ की उत्कृष्ट ५०० धनुष्य की अवगाहन वाले जीव मोक्ष में जाते हैं, जघन्य नव वर्ष के उत्कृष्ट कोड़ पूर्व के आयुष्य वाले कर्म भूमि के जीव मोक्ष में जाते हैं। जब सब कमों से आत्मा मुक्त होवे तब वह अरूपी भाव को प्राप्त होती है, कम से अलग होते ही एक समय में लोक के अग्र भाग पर प्रात्मा पहुंच कर अलोक को स्पर्श कर रह जाती है। अलोक में नहीं जाती कारण कि वहां धर्मास्ति काय नहीं होती इसलिये वहीं स्थिर हो जाती । दूसरे समय में अचल गति प्राप्त कर लेती है। वहां से न तो चव कर कोई आती और न हलन चलन की क्रिया होती, अजर अमर, अविनाशी पद को प्राप्त हो जाती व सदा काल आत्मा अनंत सुख की ल्हेर में निमग्न रहती है।। ॥ इति मोक्ष तत्त्व ॥ *546 ॥ इति श्री नवतत्त्व सम्पूर्ण ॥ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीस क्रिया। (२३) पच्चीस क्रिया। १ काईया क्रियाः के दो भेद १ अणुवरय काईया २ दुपउत्त काईया। १ अणुवरय काईया-जब तक यह शरीर पाप से निवर्ते नहीं, वहां तक उसकी क्रिया लगे। ___ २ दुपउत्त काईया-दुष्ट प्रयोग में शरीर प्रवर्ते तो उसकी क्रिया लगे। २ पाहिगरणिया:-क्रिया के दो भेद १ संजोजना हिगरणिया २ निव्वत्तणाहिगरणिया। १ खड्ग मुशल शस्त्रादिक प्रवावे तो संजोजना हिंगरणिया क्रिया लगे। . २ नये अद्धिकरण शस्त्रादिक संग्रह करे तो निबत्तणाहिगरणिया क्रिया लगे। ३ पाउसिया क्रिया:-के दो भेद १ जीव पाउसिया २ अजीव पाउसिया।। १ जीव पर द्वेष करे तो जीव पाउसिया क्रिया लगे। २ अजीव पर द्वेष करे तो अजीव पाउसिया क्रिया लगे। ४ पारितावणिया:-क्रिया के दो भेद १ सहथ्थ पारिताव णिया २ परहथ्थ पारितावणिया । Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४) थोकडा सं ह। १ स्वयं (खुद) अपने आपको तथा दूसरों को परितापना उपजावे तो सहथ्य पारितावणिया क्रिया लगे। २ दूसरों के द्वारा अपने आपको तथा अन्य किसी को परितापना उपजावे तो परहथ्थ पारिताव.. णिया क्रिया लगे। ५ पाणईवाईया क्रिया:-के दो भेद १ सहथ्थ पाणाई वाईया २ परहथ्थ पाणाईवाईया। १ अपने हाथों से अपने तथा अन्य दूसरों के प्राण हरन करे तो सहथ्य पाणाईवाईया क्रिया लगे। २ किसी अन्य द्वारा अपने तथा दूसरों के प्राण हरे तो परहथ्थ पाणाईवाईया क्रिया लगे। ६ अपच खाण क्रिया के दो भेद १ जीव अपच वाण क्रिया २ अजीव अपञ्च वाण क्रिया । १ जीव का प्रत्य ख्यान नहीं करे तो जीव अपच्च खाण क्रिया लगे। २ अजीव ( मदिरादिक) का प्रत्याख्यान नहीं करे तो अजीव अपच्चखाण क्रिया लगे। ७ प्रारमिया क्रिया के दो भेद १ जीव प्रारंभिया २ अजीव आरंभिया । १ जीवों का प्रारम्भ करे तो जीव आरंभिया क्रिया लगे। Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीस क्रिया । ( २५ ) २ अजीव का आरम्भ करे तो अजीव आरंभिया क्रिया लगे । ८ पारिग्गहिया क्रिया के दो भद- १ जीव पारिग्गहिया २ अजीव पारिग्गहिया । १ जीव का परिग्रह रक्खे तो जीव पारिग्गहिया क्रिया लगे । २ अजीव का परिग्रह रक्खे तो अजीव पारिग्गहिया क्रिया लगे । ६ मायावतिया क्रिया के दो भेद १ आयभाव बँकगया २ परभाव करणया | १ स्वयं अभ्यन्तर वांकां ( कुटिल ) आचरण श्राचरे तो आयभाव कणया क्रिया लगे । २ दूसरों को ठगने के लिये वांकां ( कुटिल ) श्राचरण आचरे तो पर भाव वकण्या क्रिया लगे । १० मिच्छादंसण बत्तिया क्रिया के दो भेद १ उणाइरित मिच्छादंसण बत्तिया २ तवाईरित मिच्छा दंसण वत्तिया । १ कम जादा श्रद्धान करे तथा प्ररूपे तो उपाइरित मिच्छा दंसण वत्तिया क्रिया लगे । २ विपरीत श्रद्धान करे तथा प्ररूपे तो तवाइरित मिच्छादंसण बत्तिया क्रिया लगे । Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६) थोकडा संग्रह । ११ दिडिया क्रिया के दो भेद १ जीव दिहिया २ अजीव दिहिया। १ अश्व गजादिक-को देखने के लिये जाने से जीव दिठिया क्रिया लगे। २ चित्रामणादि-को देखने के लिये जाने से अजीब दिठिया क्रिया लगे १२ पुष्ठिया क्रिया-के दो भेद १ जीव पुठिया २ अजीव पुठिया। १ जीव का स्पर्श करे तो जीव पुठिया क्रिया लगे । २ अजीव ने स्पर्श तो अजीव पुठिया क्रिया लगे। १३ पाडुच्चिया क्रिया के दो भेद १ जीव पाडुच्चिया २ अजीव पाडुचिया ।। .१ जीव का बुरा चिंतवे तथा उस पर ईष्या करे तो जीव पाडुच्चिया क्रिया लगे। २ अजीव का बुरा चिंतवे तथा उस पर ईष्या करे ___ तो अजीव पाडचिया क्रिया लगे। १४ सामंतो वणिवाईया क्रिया के दो भेद १ जीव ___ सामंतो वणिवाईया २ अजीव सामंतो वणिवाईया। १ जीव का समुदाय रक्खे तो जीव सामंतो वाणवाईया क्रिया लगे। २ अजीव का समुदाय रक्खे तो अजीव सामंतो वणिवाईया क्रिया लगे। Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीस क्रिया। ( २७) १५ साहथिया-के दो भेद १ जीव साहथिया २ अजीव साहथ्थिया। १ जीव का अपने हाथों के द्वारा हनन करे तो जीव साहथिया क्रिया लगे। २ खगादि के द्वारा जीव को मारे तो अजीव साहथिया क्रिया लगे। १६ नेसाथिया क्रिया के दो भेद १ जीव नेसथ्थिया २ अजीव नेसध्धिया । १ जीव को डाल देवे तो जीव नेसथ्थिया क्रिया लगे। २ अजीव को डाल देवे तो अजीव नेसथ्थिाया क्रिया लगे। १७ प्राणवणिया क्रिया-के दो भेद १ जीव प्राणव णिया २ अजीव प्राणवणिया । १ जीव को मंगावे तो जीव प्राणवणिया क्रिया लगे। २ अजीव को मंगावे तो अजीव प्राणवणिया क्रिया लगे। १८ वेदारणिया क्रिया के दो भेद १ जीव वेदारणिया २ अजीव वेदारणिया। १ जीव को वेदारे तो जीव वेदारणिया क्रिया लगे । २ अजीव को वेदारे तो अजीव वेदारणिया क्रिया लगे। १६ प्रणाभोग वत्तिया क्रिया के दो भेद १ अणाउत प्रायणता २ प्रणाउत्त पम्मजगता। Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२८) थोकडा संग्रह। १ असावधानता से वस्त्रादिक का ग्रहण करने से अणाउत्त अायणता क्रिया लगे । २ उपयोग बिना पात्रादि को पूंजने से अणा उत पम्मजणता क्रिया लगे। २० प्रणवकख वत्तिया क्रिया-के दो भेद १ अायशरीर अणवकख वत्तिया २ परशरीर अणवख वत्तिया। १ अपने शरीर के द्वारा पाए करने से प्रायशरीर अण्णवकंख वत्तिया क्रिया लगे। २ अन्य के शरीर द्वारा पाप कर्म करने से परशरीर अणवकंख वत्तिया क्रिया लगे। २१ पेज वत्तिया क्रिया के दो भेद १ माया वत्तिया २ लोभ वत्तिया । १ माया से ( कपट पूर्वक ) राग धारण करे तो __ माया वत्तिया क्रिया लगे । २ लोभ से राग धारण करे तो लोभ वत्तिया क्रिया लगे। २२ दोस वत्तिया क्रिया के दो भेद १ कोहे २ माणे । १ क्रोध से कोहे क्रिया लगे। २ मान से 'माणे' क्रिया लगे । २३ प्पउग क्रिया-के तीन भेद १ मणप्पउग २ वयप्पउग ३ कायप्पउग Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीस क्रिया । (२६) १ मन क योग अशुभ प्रवताने से मणप्पउग क्रिया लगे। २ वचन के योग अशुभ प्रवर्ताने से वयप्पउग क्रिया लगे। ३ काया के योग अशुभ प्रवर्ताने से कायप्पउग क्रिया लगे। २४ सामुदाणिया क्रिया-के तीन भेद अणंतर सामु दाणिया, परंपर सामुदाणिया तदुभय, सामु० । १ अणंतर सामुदाणिया जो अन्तर सहित क्रिया लगे। २ परंपर सामुदाणिया जो अन्तर रहित क्रिया लगे। ३ तदुभय सामुदाणिया जो अन्तर सहित और रहित क्रिया लगे। २५ इरिया वहिया क्रिया-मार्ग में चलने से यह क्रिया लगती है। ॥ इति पचीस क्रिया सम्पूर्ण ॥ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०) थोकडा संग्रह। छः काय के बोल छ काय के नाम-१ इन्द्र (इन्दी) स्थावर, २ ब्रह्म ( बंभी) स्थावर, ३ शिल्प ( सप्पी)स्थावर, ४ सुमति ( समिति ) स्थावर, ५ प्रजापति ( पयावच्च ) स्थावर, ६ ६ जंगम स्थावर । छकाय के गोत्र-१'पृथ्वी काय, २ 'अपकाय, ३ तेजस काय,४ वायु काय, ५ 'वनस्पति काय, ६'त्रस काय । पृथ्वी काय पृथ्वी काय के दो भेद-१ सूक्ष्म २ बादर(स्थूल)। सूक्ष्म पृथ्वी काय:-सब लोक में भरे हुवे हैं जो हनने से हनाय नहीं, मारने से मरे नहीं, अग्नि में जले नहीं, जल में डूबे नहीं, आंखों से दीखे नहीं व जिसके दो टुकड़े होवे नहीं उसे सूक्ष्म पृथ्वी काय कहते हैं। बादर (स्थूल ) पृथ्वी काय:-लोक के देश भाग में भरे हुवे हैं जो हनने से हनाय, मारने से मरे, अग्निमें जले, जल में डूबे, आंखों से दीखे व जिसके दो टुकड़े हो जावे १ मिट्टी २ जल ३ अग्नि ४ पवन ५ कन्द मूल फलादि ६ हलन चलन करने वाले प्राणि (जीव) Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छ काय के बोल (३१) उसे बादर पृथ्वी काय कहते हैं। इसके दो भेद-१ सुंवाली ( कोमल ) २ खरखरी ( कठिन) व ( कठोर)। १ कोमल के सात भेद-१ काली मिट्टी २ नीली मिट्टी ३ लाल मिट्टी ४ पीली मिट्टी ५ खत मिट्टी ६ गोपी चन्दन की मिट्टी ७ पर पड़ी ( पण्डु ) मिट्टी। १ कठोर पृथ्वी बादर काय के २२ भेदः १ खदान की मिट्टी २ मुरड़ कंकर ( मरडिया) की मिट्टी ३ रेत-वेलु की मिट्टी ४ पाषाण-पत्थर की मिट्टी ५ बड़ी शिलाओं की मिट्टी ६ समुद्र की क्षारी (खार) ७ निमक की मिट्टी - तरुया की मिट्टी ह लोहे की मिट्टी १० सीसे की मिट्टी ११ ताम्बे की मिट्टी १२ रुपे (चांदी) की मिट्टी १३ सोने की मिट्टी १४ वज्र हीरे की मिट्टी १५ हरिताल की मिट्टी १६ हिंगलु की मिट्टी १७ मनसील की मिट्टी १८ पारे की मिट्टी १९ सुरमे की मिट्टी २० प्रवाल की मिट्टी २१ अवरख ( भोडर ) की मिट्टी २२ अबरख के रज की मिट्टी । १८ प्रकार के रत्न-१ गोमी रत्न २ रुचक रत्न ३ अंक रत्न ४ स्फटिक रत्न ५ लोहीताक्ष रत्न ६ मरकत रत्न ७ मसलग (मसारगल) रत्न ८ भुज मोचक रत्न Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२) थोकडा मंग्रह । 8 इन्द्र नील रत्न १० चन्द्र नील रत्न ११ गेरुड़ी (गरुक) रत्न १२ हंस-गर्भ रत्न १३ पोलोक रत्न १४ सौगन्धिक रत्न १५ चन्द्र प्रभा रत्न १६ वेरुली रत्न १७ जल कान्त रत्न १८ सूर्य कान्त रत्न एवं सर्व ४७ प्रकार की पृथ्वी काय । इसके सिवाय पृथ्वी काय के और भी बहुत से भेद हैं। पृथ्वी काय के एक कंकर में असंख्यात जीव भगवंत ने सिद्धान्त में फरमाया है । एक पर्याप्ता की नेश्रा से असंख्यात अपर्याप्त है ! जो इन जीवों की दया पालेगा वह इस भव में व पर भव में निराबाध परम सुख पावेगा। ___पृथ्वी काय का आयुष्य जघन्य अन्तर्मुहूर्त का उत्कृष्ट नीचे लिखे अनुसार:-- कोमल मिट्टी का श्रायुष्य एक हजार वर्ष का । शुद्ध मिट्टी का आयुष्य बारह हजार वर्ष का । बालु रेत का आयुष्य चौदह हजार वर्ष का । मंन सिल का आयुष्य सोलह हजार वर्ष का । कंकरों का प्रायुष्य अट्ठारह हजार वर्ष का । वज्र हीरा तथा धातु का श्रायुष्यं बावीश हजार वर्षका । पृथ्वी काय का संस्थान मसुर की दाल के समान है। पृथ्वी काय का “कुल " बारह लाख केराड़ जानना । Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छ काय के बोल । ( ३३) अप काय। अप काय के दो भेद-१ सूक्ष्म २ बादर । सूक्ष्म:--सारे लोक में भरे हुवे हैं, हनने से हनाय नहीं, मारने से मरे नहीं, अग्नि में जले नहीं, जल में डूबे नहीं, आंखो से दीखे नहीं व जिसके दो भाग हो सकते नहीं उसे सूक्ष्म अपकाय कहते हैं। बादर:-लोक के देश भाग में भरे हुवे हैं, हनने से हनाय, मारने से मरे, अग्नि में जले, जल में डूबे, आंखो से नजर आये उसे बादर अपकाय कहते हैं। इसके १७ भेदः-१ ढार का जल २ हिम का जल ३ धूवर का जल ४ मेघरचा का जल ५ अोस का जल ६ ओले का जल ७ बरसात का जल ८ ठण्डा जल ६ गरम जल १० खारा जल ११ खट्टा जल १२ लवण समुद्र का जल १३ मधुर रस के समान जल १४ दृध के समान जल १५ घी के समान जल १६ ईख (शेलड़ी) के रस जैसा जल १७ सर्व रसद समान जल । इसके सिवाय अपकाय के और भी बहुत से भेद हैं। जल के एक बिन्दु में भगवान ने असंख्यात जीव फरमाये हैं। एक पर्याप्त की नेश्रा से असंख्य अपर्याप्त है। इनकी अगर कोई जीव दया पालेगा तो वह इस भव में व पर भव में निरास भालेगा! Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३४) थोकडा संग्रह। wwwrana अप काय का आयुष्य जघन्य अन्तर मुहूर्त का,उत्कृष्ट सात हजार वर्ष का । जल का संस्थान जल के परपोटे समान । " कुल " सात लाख करोड़ जानना । तेजस काय। तेजस काय के २ भेद-१ सूक्ष्म २ बादर । • सूक्ष्मः -सर्व लोक में भरे हुवे हैं। हनने से हनाय नहीं, मारने से मरे नहीं, अग्नि में जले नहीं, जल में डूबे नहीं, आँखो से दीखे नहीं व जिसके दो भाग होवे नहीं, उसे सूक्ष्म तेजस्काय कहते हैं। बादर-तेजम् काय अढाई द्वीप में भरे हुवे हैं । हनने से हनाय, मारने से मरे, अग्नि में जले, जल में डूबे, आँखो से दीखे व जिस के दो भाग होवे उसे बादर तजस् काय कहते हैं। बादर अग्नि काय के १४ भेद-१ अङ्गारे की अग्नि २ भोभर ( उष्ण राख ) की अग्नि ३ टुटती ज्वाला की अग्नि ४ अखण्ड ज्वाला की अग्नि ५ निम्बाड़े (कुम्भकार का अलाव-मट्टी) की अग्नि ६ चकमक की अग्नि ७ बिजली की अग्नि ८ तारा की अग्नि ६ अरणी (काष्ट ) की अग्नि १० बांस की अग्नि ११ अन्य काष्टादि के घर्षण स उत्पन्न होने वाली अग्नि १२ सूर्यकान्त (आई गलास) Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छ काय के बल । (३५) से उत्पन्न होने वाली अग्नि १३ दावानल की अग्नि १४ बड़वानल की अग्नि । इसक सिवाय अग्नि के और भी अनेक भेद हैं । एक अग्नि की चिनगारी में भगवान् ने असंख्यात जीव फरमाये हैं। एक पर्याप्त की नेश्रा से असंख्यात अपर्याप्त है। जो जीव इनकी दया पालेगा वह इस भव में व पर भव में निराबाध सुख पावेगा ! तेजस् काय का आयुष्य जघन्य अन्तर्मुहूर्त का,उत्कृष्ट तीन अहोरात्रि (दिन रात) का। इसका संस्थान सुइयों की भारी के आकारवत् है । तेजस् काय का 'कुल' तीन लाख करोड़ जनना। वायु काय । वायु काय के दो भेद-१ सूक्ष्म २ बादर । सूक्ष्म-सर्व लोक में भरे हुवे हैं । हनने से हनाय नहीं, मारने से मरे नहीं, अग्नि में जले नहीं, जल में डूबे नहीं, आँखों से दीखे नहीं व जिसके दो भाग होवे नहीं, उसे सूक्ष्म वायु काय कहते हैं। बादर-लोक के देश भाग में भरे हुवे हैं । हनने से हनाय, मारने से मरे, अग्नि में जले, आंखों से दीखे व जिसके दो भाग होवे उसे बादर वायु काय कहते हैं । Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६ ) थोकडा संग्रह । बादर वायु काय के १७ भेदः-१ पूर्व दिशा की वायु २ पश्चिम दिशा की वायु ३ उत्तर दिशा की वायु ४ दक्षिण दिशा की वायु ५ ऊर्ध्व दिशा की वायु ६ अधो दिशा की वायु ७ तिर्यक दिशा की वायु ८ विदिशा की वायुह चक्र पड़े सो भंवर वायु १० चारों कोनों में फिरे सो मंडल वायु ११ उद्धे चढ़े सो गुंडल वायु १२ बाजिन्त्र जैसे आवाज करे सो गुंज वायु १३ वृक्षों को उखाड़ डाले सो झंज (प्रभंजन ) वायु १४ संवतेक वायु १५ घन वायु १६ तनु वायु १७ शुद्ध वायु । ____ इसके सिवाय वायु काय के अनेक भेद हैं। बायु के एक फड़के में भगवान ने असंख्यात जीव फरमाये हैं । एक पर्याप्त की नेश्रा से असंख्यात अपर्याप्त है । खुले मुंह बोलने से, चिमटी बजाने से, अङ्गुलि आदि का कड़िका करने से, पंखा चलाने से, रेटिया कातने से, नली में फूकने से, सूप ( सुपड़ा ) झाटकने से, मूसल के खांड ने से, घंटी बजाने से, ढोल बजाने से, पीपी आदि बजाने से इत्यादि अनेक प्रकार से वायु के असंख्यात जीवों की घात होती है। ऐसा जान कर वायु काय के जीवों की दया पालने से जीव इस भव में व पर भव में निरावाध परम सुख पावेगा । वायु काय का आयुष्य जघन्य अन्तमुहूर्त का, उत्कृष्ट तीन हजार वर्ष का। वायु काय का Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काय के बोल | ( ३७ ) संस्थान ध्वजा पताका के श्राकार है। वायु काय का " कुल " सात लाख करोड़ जानना । वनस्पति काय वनस्पति काय के दो भेदः - १ सूक्ष्म २ बादर । सूक्ष्म - सर्व लोक में भरे हुवे हैं । इनने से इनाय नहीं, मारने से मरे नहीं, अग्नि से जले नहीं, जल में ड्रे नहीं, आँखों से दीखे नहीं व जिसके दो भाग होवे नहीं उसे सूक्ष्म वनस्पति काय कहते हैं । बादर - लोक के देश में भरे हुवे हैं, हनने से हनाय, मारने से मरे, अग्नि में जले, जल में डूबे, आँखों से दिखे व जिसके दो भाग होवे, उसे बादर वनस्पति काय कहते हैं । वनस्पति काय के दो भेदः - १ प्रत्येक २ साधारण प्रत्येक के बारह भेद - १ वृक्ष २ गुच्छ ३ गुल्म ४ लता ५ वेल ६ पावग ७ तृण ८ वल्ली ६ हरित काय १० औषधि ११ जल वृक्ष १२ कोसण्ड एवं बारह | १ वृक्ष के दो भेद १ श्री २ बहु श्री एक अड्डी - एक बीज वाले और बहु अट्ठी - याने बहु बीज वाले एक ही - १ हरड़े, २ बेड़ा ३ आँवला ४ अरीठा Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३८) थोकडा संग्रह। marnaras ५ भीलामा ६ आसापालव ७ आम ८ महुए ६ सयन १० जामन ११ बेर १२ निम्बोली (री) इत्यादि । बहु अट्ठी-१ जामफल २ सीताफल ३ अनार ४ बील फल ५ कोठा ( कबीठ) ६ कैर ७ निम्बू ८ टीमरू है बढ़ के फल १० पीपल के फल इत्यादि बहु अट्ठी के बहुत से भेद हैं। २ गुच्छ-नीचा व गोल वृक्ष हो उसे गुच्छ कहते हैं जैसे १ रिंगनी २ भोरिंगनी ३ जवासा ४ तुलसी ५ श्रावची बावची इत्यादि गुच्छ के अनेक भेद हैं। ३ गुल्म-फूलों के वृक्ष को गुल्म कहते हैं । १ जाई २ जुई ३ डमरा ४ मरवा ५ केतकी ६ केवड़ा इत्यादि गुल्म के अनेक भेद हैं। ४ लता-१ नाग लता २ अशोक लता ३ चंपक लता ४ भोंइ लता ५ पद्म लता इत्यादि लता के अनेक भेद हैं। ५ वेला-जिस वनस्पति के वेला चाले सो वेला । १ ककड़ी २ तरोई ३ करेला ४ किंकोड़ा ५ कोला ६ कोठिंबड़ा ७ तुम्बा ८ खरबुजे ६ तरबुजे १० वल्लर आदि। ६ पावग-(पव्यय) जिसके मध्य में गांठे हो उसे पावग कहते हैं। १ ईख २ एरंड ३ सरकड़ ४ बेंत ५ नेतर ६ वांस इत्यादि पावग के अनेक भेद हैं। ७ तृण-१ डाभ का तृण २ आरातारा का तृण Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छ काय के बोल । Pahhhh/-... ३ कड़वाली का तृण ४ झेझवा का तृण ५ धरो का तृण ६ कालिया का तृण इत्यादि तृण के अनेक भेद हैं। ____८ वलीया-( वल्लय ) जो वृक्ष ऊपर जाकर गोलाकार बने हों, वे वलीयाः-१ सुपारी २ खारक ३ खजूर ४ केला ५ तज ६ इलायची ७ लोग ८ ताड़ ह तमाल १० नारियल आदि वलीया के अनेक भेद हैं। हरित काय-शाक भाजी के वृक्ष सो हरित कायः-१ मूला की भाजी २ मेथी की भाजी ३ तांदल जाकी (चंदलोई की) भाजी ४ सुवा की भाजी ५ लुणी की भाजी ६ वाथरे की भाजी आदि हरित काय के अनेक भेद हैं। १० औषधि-चोवीश प्रकार के धान्य को औषधि कहते हैं। धान्य के नाम-१ गोधूम (गेहूं) २ जव ३ जुवार ४ बाजरी ५ डांगेर (शाल) ६ वरी ७ बंटी ( वरटी) ८ बावटों है कांगनी १० चिण्यो झिएयो ११ कोदरा १२ मकी । इन बारह की दाल न होने से ये 'लहा (लासा)धान्य कहलाते हैं । १ मूग २ मोठ ३ उड़द ४ तुवर ५ झालर (काबली चने ) ६ वटले ७ चवले ८ चने ६ कुलत्थी १० कांग ( राजगरे के समान एक जाति का अनाज) ११ मसुर १२ अलसी इन बारह की दाल होने से इन्हे 'कठोल कहत हैं। लहा और कठोल इन दोनों प्रकार के धान्य को औषधि कहते हैं। Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४०) थोकडा संग्रह। ११ जल वृक्ष-१ पोयणा (छोटे कमल की एक जाति) २ कमल पोयणा ३ घीतेलां (जलोत्पन्न एक फल) ४ सिंघाड़े ५ कमल कांकडी(कमलगट्टा) ६ सेवाल आदि जल वृक्ष के अनेक भेद हैं। -१२ कोसंड ( कुहाण)-१ वेल्ली के वेले २ वेल्ली के टोप आदि जमीन फोड़ कर जो निकाले सो कोसंड । इस प्रत्येक वनस्पति में उत्पन्न होते वक्त व जिनमें चक्र पड़े उनमें अनन्त जीव,हरी रहे,उस समय तक असंख्यात जीव व पकने वाद जितने बीज हों उतने या संख्यात जीव होते हैं। प्रत्येक वनस्पति का वृक्ष दश बोल से शोभा देता है-- १ मूल २ कंद ३ स्कंध ४ त्वचा ५ शाखा ६ प्रवाला ७ पत्र ८ फूल ६ फल १० बीज । साधारण वनस्पति के भेद ___ कंद मूल आदि की जाति को साधारण वनस्पति कहते हैं । १ लसण २ डुंगली ३ अदरक ४ सूरण (कन्द ) ५ रतालु ६ पंडालु(तरकारी विशेष) ७बटाटा च्थेक (जुवार जैसे दाने की एक जाति) ६ सकर कन्द १० मूला का कन्द ११नीली हलद १२ नीली गली(घास की जड़)१३ गाजर १४ अंकुरा१५खुरसाणी १६थुअर १७ मोथी १८अमृत वेल१६ कुंचार(गंवार पाटा)२० बीड़ (घास विशेष) २१ बड़वी (अरवी) का गाठिया २२ गरमर भादि कन्द मूल के अनेक भेद हैं । Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छ काय के बोल । (४१) इन्हें साधारण वनस्पति कहते हैं। सुई की अग्र ( अनी ) ऊपर आवे इतने छोटे से कन्द मूल के टुकड़े में उन निगोदिये जीवों के रहने की असंख्यात श्रेणी हैं। एक एक श्रेणी में असंख्यात प्रतर हैं। एक एक प्रतर में असंख्यात गोले हैं। एक एक गोले में असंख्यात शरीर हैं। एक एक शरीर में अनन्त अन्नत जीव हैं। इस प्रकार ये साधारण वनस्पति के भेद जानना । यदि जीव इस वनस्पति काय की दया पालेगा तो वह इस भव में व पर भव में निराबाध परम सुख पायेगा। वनस्पति का आयुष्य जघन्य अन्तर मुहूर्ते का, उत्कृष्ट दश हजार वर्ष का । इनमें से निगोद का आयुष्य जघन्य अन्त हूते, उत्कृष्ट अन्तर्महूर्त । चवे और उत्पन्न होवे । वनस्पति काय का संस्थान अनेक प्रकार का । इनका " कुल " २८ लक्ष करोड़ जानना। त्रस काय के भेद बस काय-त्रस जीव जो हलन, चलन क्रिया कर सके। धूप में से छाया में जावे व छाया में से धूप में जावे उसे त्रस काय कहते हैं। उसके चार भेद-१ चे इन्द्रिय २त्रीइन्द्रिय ३ चौरिन्द्रिय ४ पंचेन्द्रिय ।। बेइन्द्रिय के भेद-जिसके काय और मुख ये दो इन्द्रिय होवे उसे बेइन्द्रिय कहते हैं। जैसे-१ शंख २ कोड़ी Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थोकडा संग्रह | ३ शीप ४ जलोक ५ कीड़े ६ पोरे ७ लट ८ अलसिये ६ कृमी १० चरमी ११ कातर ( जलजन्तु ) १२ चुड़ेल १३ मेर १४ एल १५ वांतर (वारा) १६ लालि आदि बेइन्द्रिय के अनेक भेद हैं । बेइन्द्रिय का आयुष्य जघन्य अन्तमुहूर्त का, उत्कृष्ट बारह वर्ष का । इनका " कुल " सात लक्ष करोड़ जानना । त्री- इन्द्रिय- जिसके १ काय २ मुख ३ नासिका ये तीन इन्द्रिय होवे उसे त्री- इन्द्रिय कहते हैं । जैसे- १ जूँ २ लीख ३ खटमल ( मांकड़ ) ४ चांचड़ ५ कंथवे ६ घनेरे ७ उदई ( दीमक ) ८ इल्ली (झिमेल ) ६ भुंड १० कीड़ी ११ मकोड़े १२ घोड़े १३ श्रा १४ गधैये १५ कान खजुरे १६ सवा १७ ममोले आदि त्री इन्द्रिय के अनेक भेद हैं । इनका आयुष्य जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट ४६ नि का | इनका कुल आठ लक्ष करोड़ जानना । - 66 ܐܐ चौरिंद्रिय - जिसके १ काय २ मुख ३ नासिका ४ चक्षु ( ख ) ये चार इन्द्रिय होवे उसे चौरिन्द्रिय कहते हैं । जैसे - १ भँवरे २ भँवरी ३ बिच्छु ४ मक्खी ५ तीड़ ( टीढ़ ) ६ पतङ्ग ७ मच्छर ८ मसेल ६ डांस १० मंस ११ तमरा १२ करोलिया १३ कंसारी १४ तीड़ गोडा १५ कुंदी १६ केकड़े १७ बग १८ रुपेली आदि चौरिन्द्रिय के अनेक भेद हैं । इनका आयुष्य जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट छः माह का । " कुल " नत्र लक्ष करोड़ जानना । Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छ काय के बोल । (४३) पंचेन्द्रिय के भेदः-जिसके १ काय २ मुख ३ . नासिका ४ नेत्र ५ कान ये पांच इन्द्रिय हो उसे पंचेन्द्रिय कहते हैं । इनके चार भेद १ नरक २ तिर्यच ३ मनुष्य ४ देव । Nyasam १ नरक का विस्तार। नरक के सात भेद- १घमा २ वंशा ३ शिला ४ अंजना ५ रीष्टा ६ मघा ७ माघवती । सात नरक के गोत्र-१ रत्न प्रभा २ शर्कर प्रभा ३ वालु प्रभा ४ पंक प्रभा ५ धूम्र प्रभा ६ तमस् प्रभा ७ तमः तमस् प्रभा । सात नरक के ये सात गोत्र गुण निष्पन्न हैं, जैसे: १ रत्न प्रभा में रत्न के कुण्ड हैं। २ शर्कर प्रभा में मरडिया आदि कंकर हैं। ३ वालु प्रभा में वेलु (रेत) हैं। ४ पंक प्रभा में रक्त मांस का कीचड़ (कादव) है । ५ धूम्र प्रभा में धूम्र (धुवा ) है । ६ तमस् प्रभा में अंधकार है। ७ तमः तमस् प्रभा में घोरानघोर (घोरातिघोर) अंधकार है। Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थोकडा संग्रह । (४४) wwwww नरक का विवेचन । १पहलीरत्न प्रभा नरकः-का पिंड एक लाख अस्सी हजार योजन का है । जिसमें से एक हजार का दल नीचे व एक हजार का दल ऊपर छोड़ बीच में एक लाख ७८ हजार योजन की पोलार है । जिसमें १३ पाथड़ा व १२ अांतरा है इन में ३० लाख नरकावास है जिनमें असंख्यात नरिये और उनके रहने के लिये असंख्यात कुम्भिये हैं । इस के नीचे चार बोल है । १ बीस हजार योजन का घनोदधि है। २ असंख्यात योजन का धनवाय है ३ असंख्यात योजन का तनुवाय है ४ असंख्यात योजन का आकाशास्तिकाय है। २शर्कर प्रभा नरक:-कापिंड एक लाख बतीश हजार योजन का है। जिनमें से एक हजार योजन का दल नीचे व एक हजार योजन का दल ऊपर छोड़ कर बीच में एक लाख और तीश हजार का पोलार है इन में ११ पाथड़ा व १० प्रांतरा है जिनमें असंख्यात नेरियों के रहने के लिये २५ लाख नरकावास और असंख्यात कुम्भियें हैं। इस के नीचे चार बोल १ बीस हजार योजन का घनोदधि है २ असंख्यात योजन का धनवाय है ३ असंख्यात योजन का तनुवाय है ४ असंख्यात योजन का आकाशासित काय है। ३ बालु प्रभा नरका-इसका पिंड एक लाख और २८ हजार योजन का है। जिसमें से एक हजार योजन का Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काय के बोल | ( ४५ ) दल नीचे व एक हजार योजन का दल ऊपर छोड़ कर बीच में एक लाख और २६ हजार योजन का पोलार है । इनमें 8 पाथड़ा = आंतरा है जिनमें असंख्यात नेरियों के रहने के लिये १५ लाख नरकावास व असंख्यात कुम्भियें हैं। इस के नीचे चार बोल - १ बीश हजार योजन का घनोदधि है २ असंख्यात योजन का धनवाय है ३ असंख्यात योजन का तनुवाय है ४ असंख्यात योजन का आकाशास्ति काय है । ४ पंक प्रभा नरकः - का पिंड एक लाख और बीस हजार योजन का है। जिसमें से एक हजार योजन का दल नीचे व एक हजार योजन का दल ऊपर छोड़ कर बीच में एक लाख और अट्ठारह हजार योजन का पोलार है । जिनमें ७ पाथड़ा व ६ अंतरा है । इनमें असंख्यात नेरियों के रहने के लिये दश लाख नरकावास व असंख्यात कुम्भियें हैं । इस के नीचे चार बोल १ बीश हजार योजन का घनोदधि है, २ असंख्यात योजन का घनवाय हैं, ३ श्रसंख्यात योजन का तनुवाय है, ४ असंख्यात योजन का आका शास्तिकाय है । ५ धूम्र प्रभा नरकः का पिंड एक लाख अट्ठारह हजार योजन का है । जिसमें से एक हजार योजन का दल नीचे व एक हजार योजन का ऊपर छोड़ कर बीचमें एक लाख सोलह हजार का पोलार है जिनमें ५ पाथड़ा व ४ अंतरा Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४६) थोकडा संग्रह। है। इनमें असंख्यात नेरियों के रहने के लिये तीन लाख नरकावास व असंख्यात कुम्भिये हैं। इसके नीचे चार बोल-१ बीश हजार योजन का घनोदधि है, २ असंख्यात योजन का घनवाय है, ३ असंख्यात योजन का तनुवाय है, ४ असंख्यात योजन का आकाशास्तिकाय है। ६ तमस् प्रभा नरकः--का पिंड एक लाख सोलह हजार योजन का है। जिसमें से एक हजार योजन का दल नीचे व एक हजार योजन का दल ऊपर छोड़ कर बीच में एक लाख चौदह हजार का पोलार है जिनमें ३ पाथड़ा व २ अांतरा है। इन में असंख्यात नेरियों के रहने के लिये ६६६६५ नरकावासा व असंख्यात कुम्भिये हैं इस के नीचे चार बोल १ बीस हजार योजन का घनोदधि २ असंख्यात योजन का घनवाय ३ असंख्यात योजन का तनुवाय ४ असंख्यात योजन का आकाशास्ति काय है। ७तमःतमस् प्रभानरका का पिंड एक लाख पाठ हजार योजन का है। ५२॥ हजार योजन का दल नीचे व ५२॥ हजार योजन का दल ऊपर छोड़ कर बीच में तीन हजार योजन का पोलार है । जिसमें एक पाथड़ा है अांतरा नहीं । यहां असंख्यात नेरियों के रहने के लिये असंख्यात कुम्भिय व पांच नरकावासा है। पांच नरकावासा-१ काल २ महा काल ३ रुद्र ४ महा रुद्र ५ अप्रतिष्टान । इस के नीचे चार बोल १ बीस हजार योजन का घनोदधि है २ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छ काय के बल । (४७) असंख्यात योजन का घनवाय है ३ असंख्यात योजन का तनुवाय है ४ असंख्यात योजन का आकाशास्ति काय है इस के बारह योजन नीचे जाने पर अलोक आता है। नरक की स्थिति जघन्य दश हजार वर्ष की, उत्कृष्ट ३३ सागरोपम की । इनका " कुल" पच्चीस लाख करोड़ जानना । २ तिर्यंच का विस्तार तिथंच के पांच भेद १ जलचर २ स्थलचर ३ उरपर ४ भुजपुर ५ खेचर इन में से प्रत्येक के दो भेद १ संम्रहिम २ गर्भज । १ जलचर-जल में चले सो जलचर तिथंच जैसे१ मच्छ २ कच्छ ३ मगरमच्छ ४ कछुपा ५ ग्राह ६ मेंढक ७ सुसुमाल इत्यादिक जलचर के अनेक भेद हैं। इनका कुल १२॥ लाख करोड़ जानना । __२ स्थलचर-जमीन पर चले सो स्थलचर विर्यच इन के विशेष नाम: १ एक खुरवाले-घोड़े, गधे, खच्चर इत्यादि २ दो खुरवाले ( कटे हुए खुरवाले ) गाय मैस बैल, बकरे, हिरन रोज ससलिये आदि । Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थोकडा संग्रह | ३ गंडीपद - ( सोनार के एरण जैसे गोल पांव वाले ) ऊंट, गेंडे, आदि । ४ श्वानपद - ( पंजे वाले जानवर ) बाघ, सिंह, चीता, दीपड़े ( धब्बे व ले चीते ) कुत्ते, बिल्ली, लाली, गीदड़, जरख, रींछ, बन्दर इत्यादि । स्थलचर का " कुल दस लाख करोड़ जानना | 17 ( ४८ ) ३ उरपर - ( सर्प) के भेद:- हृदय बल से ज़मीन पर चलने वाले सो उरपर । इनके चार भेद १ अहि २ अजगर ३ असालिया ४ महुरंग । १ अहि-पांचों ही रंग के होते हैं - १ काला २ नीला ३ लाल, ४ पीता ५ सफेद । २ मनुष्यादि को निगल जावे सो अजगर । ३ साल यह दो घड़ी में १२ योजन ( ४८ कोस ) लम्बा हो जाता है चक्रवर्ती ( बलदेवादि ) की राजधानी के नीचे उत्पन्न होता है । इसे भस्म नामक दाह होता है जिससे आस पास की ४८ कोस की पृथ्वी गल जाती है जिससे आस पास के ग्राम, नगर, सेना, सब दब कर मर जाते हैं । इसे असालिया कहते हैं । 1 ४ उत्कृष्ट एक हजार योजन का लम्बा शरीर वाला महुरग (महोर्ग ) कहलाता है यह पढ़ाई द्वीप के बाहर रहता है । उरपर (सर्प) का "कुल" दश लाख करोड़ जानना । Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छ काय के बोल । ( ४६ ) ४ भुजपर-( सर्प)-जो भुजाओं ( हाथों ) के बल चले सो भुजपर कहलाते हैं । इनके विशेष नाम-१ कोल २ नकुल ( नोलिया) ३ चूहा ४ विस्मरा ५ ब्राह्मणी ६ गिलहरी ७ काकीड़ा ८ चंदन गोह (ग्राह)ह पाटला गोह (ग्राह विशेष) इत्यादि अनेक नाम हैं। इनका "कुल" नव लाख करोड़ जानना। ५ खेचर-प्राकाश में उड़ने वाले जीत्र खेचर (पक्षी) कहलाते हैं। इनके चार भेदः-१ चर्म पंखी २ रोम पंखी ३ समुद्ग पंखी ४ वीनत (विस्तृत) पंखी। १ चर्म पंखी-बगुला, चामचिड़ी कानकटिया, चमगीदड़ इत्यादि चमड़े की पांख वाले सो चर्म पंखी। २ मयुर ( मोर ), कबूतर, चक ने (चिड़ी), कौवे, कमेड़ी, मैना, पोपट, चील, बुगले, कोयल, ढेल, शकरे, हौल, तोते, तीतर, बाज इत्यादि रोम ( बाल ) की पांख वाले सो रोम पंखी ये दो प्रकार के पक्षी अढ़ाई द्वीप के बाहर भी मिलते हैं और अन्दर भी। ३ समुद्ग पंखी-डब्बे जैसे भीड़ी हुई गोल पांख वाले सो समुद्ग पंखी। ४ विचित्र प्रकार की लम्बी व पोली पांख वाले सो वीतत पंखी ये दोनों प्रकार के पती अढाई द्वीप Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५० ) थोकडा संग्रह । के बाहर ही मिलते हैं । खेचर (पक्षी ) का " कुल " बारह लाख करोड़ जानना। गर्भज तिर्यंच की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त की उत्कृष्ट तीन पल्योपम की, संमूर्छिन तिर्य वं की स्थिति जघन्य अन्तम्हूर्त की उत्कृष्ट पूर्व करोड़ की ( विस्तार दण्डक से जानना) ३ मनुष्य के भेद मनुष्य के दो भेद १ गर्भज २ संमूर्छिम । गर्भज के तीन भेद १ पन्द्रह कमेभूमि के मनुष्य २ तीस अकर्म भूमि के मनुष्य ३ छप्पन्न अन्तर द्वीप के मनुष्य ।. १ एन्द्रह कर्म भूमि मनुष्य के १५ क्षेत्र १ भरत २ ऐरावत ३ महाविदेह ये तीन क्षेत्र एक लाख योजन वाले जम्बू द्वीप के अन्दर हैं । इसके (चारों ओर ) बाहर (चुड़ी के आकार ) दो लाख योजन का लवण समुद्र है । इसके बाहर चार लाख योजन का धा. तरी खण्ड जिसमें २ भरत २ ऐरावत २ महाविदेह एवं ६ क्षेत्र हैं। इसके बाद आठ लाख योजन का कालोदधि समुद्र है जिसके बाहर आठ लाख योजन का अर्ध पुष्कर द्वीप है जिसमें २ भरत २ एरावत २ महाविदेह ये ६ क्षेत्र Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छकाय के बोल | ( ५१ ) हैं एवं पन्द्रह क्षेत्र हुवे जिनमें असी ( हथियार से ) मसी ( लेखनादि व्यापार से ) और कृषि (खेती से ) उपजीविका करने वाले हैं । इन क्षेत्रों में विवाह आदि कर्म होते हैं व मोक्ष मार्ग का साधन भी है । २ तीस अकर्म भूमि मनुष्य के क्षेत्र १ हेम वय १ हिरण्य वय १ हरि वास १ रम्यक वास १ देव कुरु १ उत्तर कुरु ये ६ क्षेत्र एक लाख योजन वाले जम्बु द्वीप में है इसके बाहर दो लाख योजन का लवण समुद्र है जिसके बाहर चार लाख योजन का धातकी खण्ड है जिसमें २ हेमवय २ हिरण्य वय २ हरिवास २ रम्यक वास २ देव कुरु २ उत्तर कुरु ये १२ क्षेत्र हैं इसके बारह आठ लाख योजन का कालोदधि समुद्र है इसके बाहर आठ लाख योजन का अर्थ पुष्कर द्वीप है जिसमें २ हेमवय २ हिरण्य वय २ हरिवास २ रम्यक वास २ देव कुरु २ उत्तर कुरु ये १२ क्षेत्र हैं एवं तीस क्षेत्र अकर्म भूमि के हैं जिनमें न खेती आदि होती है, न विवाह आदि कर्म होते हैं और न वहां कोई मोक्ष मार्ग का ही साधन है । ३ छप्पन अन्तर द्वीप के क्षेत्र मेरु पर्वत के उत्तर में भरत क्षेत्र की सीमा पर १०० Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५२) थोकडा संग्रह । योजन ऊंचा २५ योजन पृथ्वी में उंडा ( गहरा ) १०५२ १२ [१२ कला] योजन चौड़ा, २४६३२ योजन और ३ १६ कला लम्बा पीले सोने का 'चुल्ल हेमवन्त' पर्वत है। इसकी बांह ५३५० योजन और १५ कला की है, धनुष्य पीठीका २५२३० योजन और ४ कला की है, इस पर्वत के पूर्व पश्चिम सिरे से चौरासीसो, चौरासीसो योजन जाजरी लम्बी दो डाढे [शाखा] निकाली हुई हैं। एक २ शाखा पर सात सात अन्तर द्वीप हैं जगती[तलेटी]से ऊपर डाढा की ओर ३०० योजन जाने पर ३०० योजन लम्बा व चौडा पहला अन्तर द्वीप आता है वहां से चार सो योजन जाने पर, चार सो योजन लम्बा व चौड़ा दुसरा अन्तर द्वीप श्राता है । वहां से ५०० योजन आगे जाने पर ५०० योजन लम्बा व चौड़ा तीसरा अन्तर द्वीप आता है। वहां से ६०० योजन आगे जाने पर ६०० योजन लम्बा व चौड़ा चौथा अन्तर द्वीप आता है । वहां से ७०० योजन आगे जाने पर ७०० योजन का लम्बा व चौड़ा पांचवा अन्तर द्वीप आता है। वहां से ८०० योजन आगे जाने पर ८०० योजन लम्बा व चौड़ा छठा अन्तर द्वीप आता है । वहां से ६०० योजन आगे जाने पर ६०० योजन लम्बा व चौड़ा सातवां अन्तर द्वीप पाता है। इस प्रकार एक २ शाखा पर,सात सात अन्तर द्वीप Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ कार्य के बाल । । इन्हें चार से गुणा करने पर [ चार शाखा पर ] २= अन्तर द्वीप हुवे | ये अन्तर द्वीप 'चुल्ल हेमवन्त' पर्वत पर हैं। ऐसे ही ऐरावत क्षेत्र की सीमा पर 'शिखरी' नामक पर्वत है, जो 'चुल्ल हेमवन्त' पर्वत के समान है । इस शिखरी नामक पर्वत के पूर्व पश्चिम के सिरों पर भी २८ अन्तर द्वीप हैं । एवं दो पर्वत के सिरों पर कुल छप्पन अन्तर द्वीप हैं । संमूर्छिम मनुष्य के भेद | संमूमि मनुष्य-गर्भज मनुष्य के एक सो एक क्षेत्र में १४ स्थानक ( जगह ) पर उत्पन्न होते हैं । १४ स्थानक के नाम ( ५३ ) १ उच्चारे सुवा -बड़ी नीति-विष्टा में | २ पासवण सुवा - लघु नीति - पेशाब (मूत्र) में | ३ खेले सुवा - खखार में | ४ संघाणे सुवा - श्लेषम- नाक के सेड़े में | ५ ते सुवा - मन- उष्टी- में | ६ पित्ते सुवा- पित्त में । ७ पुइये सुवा- रस्सी - पपि में । ८ सोणियेसुवा - रुधिर - रक्त में । सुक्के सुवा - वीर्य रज में । * Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थोकडा संग्रह | १० सुक्क पोग्गल पडिसाडियाए सुवा - वीर्य के सूखे पुद्गल पुनः गीले होवे उसमें । ११ विगय जीव कलेवरे सुवा - मनुष्य के मृतक शरीर में । ( ५४ ) १२ इत्थि पुरिस संजोगे सुवा - स्त्री पुरुष के संयोग में । १३ नगर निधमनियाए सुवा-नगर की गटर आदि में । १४ सव्व असुई ठाणे सुवा - सर्व मनुष्य सम्बन्धी अशुची स्थानक में । गर्भज मनुष्य की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त की, उत्कृष्ट तीन पल्योपम की । संमूर्छिम मनुष्य की स्थिति जघन्य अन्तर मुहूर्त की उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त की । मनुष्य का कुल बारह लाख करोड़ जानना । (4 ܐܐ ४ देव के भेद | देव के चार भेद - १ भवनपति २ वाणव्यन्तर ३ ज्योतिषी ४ वैमानिक | १ भवनपति के २५ भेदः - १ दश असुर कुमार २ पन्द्रह परमाधामी एवं २५ । दश असुर कुमार - ९ असुर कुमार २ नाग कुमार ३ सुवर्ण कुमार ४ विद्यतं कुमार ५ अनि कुमार ६ द्वीप कुमार ७ उदधि कुमार ८ दिशा कुमार ६ पवनें कुमार १० स्थनित कुमार । Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छ काय के बोल । ( ५५ ) पन्द्रह परमाधामी-१ आम्र ( अम्ब ) २ आम्र रस ३ शाम ४ सबल ५ रुद्र ६ महा रुद्र ७ काल ८ महा. काल ६ असि पत्र १० धनुष्य ११ कुम्भ १२ वालु १३ वैतरणी १४ खरस्वर १५ महा घेष । एवं कुल २५ प्रकार के भवनपति कहे । पहेली नरक में एक लाख अटयो तर हजार योजन का पोलार है। जिसमें बारह अांतरा है। जिसमें से नीचे के दश अांतरे में भानपति देव रहते हैं। वाण व्यन्तर देवः-धाण व्यन्तर देव के २६ भेद १ सोलह जाति के देव २ दश जाति के भिका देव, एवं २६ भेद । सोलह जाति के देवः-१ पिशाच २ भूत ३ यक्ष ४ राक्षस ५ किन्नर ६ किंपुरुष ७ महोरग ८ गंधर्व ६ प्राण पन्नी १० पाण पन्नी ११ इसीवाई १२ भूइवाई १३ कंदीय १४ महा कंदीय १५ कोहंड १६ पतंङ्गा दश जाति के जुभिकाः-१ आण भिका २ प्राण जुभिका ३ लयन जूंभिका ४ शयन नॅमिका ५ वस्त्र जृमिका ६ फूल चूंभिका ७ फल जूंभिका ८ कोफल मिका ६ विद्युत भिका १० अविद्युत चूँभिका एवं ( १६+१०) २६ जाति के वाण व्यन्तर देव हुवे । पृथ्वी का दल एक हजार योजन का है। जिसमें से सो योजन का दल नीचे व Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५६ ) थोकडा संग्रह | सो योजन का दल ऊपर छोड़ कर, बीच में आठ सो योजन का पोलार है । जिसमें सोलह जाति के व्यन्तर के नगर हैं । ये नगर कुछ तो भरत क्षेत्र के समान हैं । कुछ इन से बड़े महाविदेह क्षेत्र समान हैं । और कुछ जंबु द्वीप समान बड़े हैं । पृथ्वी का सो योजन का दल जो ऊपर है, उसमें से दश योजन का दल नीचे व दश योजन का दल ऊपर छोड़ कर, बीच में अस्सी योजन का पोलार है । इन में दश जाति के जृंभिका देव रहते हैं जो संध्या समय, मध्य रात्रि को सुबह व दोपहर को 'अस्तु' 'अस्तु' करते हुवे फिरते रहते हैं (जो हंसता हो वो हंसते रहना, रोता हो वो रोते रहना, इस प्रकार कहते फिरते हैं ) अतएव इस समय ऐसा वैसा नहीं बोलना चाहिये। पहाड़, पर्वत व वृक्ष ऊपर तथा वृक्ष नीचे व मन को जो जगह अच्छी लगे वहां ये देव आकर बैठते हैं तथा रहते हैं । ज्योतिषी देवः - इनके दश भेद १ चन्द्रमा २ सूर्य ३ ग्रह ४ नक्षत्र ५ तारे । ये पांच ज्योतिषी देव अढाई द्वीप में चर हैं व अढाई द्वीप के बाहर ये पांच अचर ( स्थिर ) हैं। इन देवों की गाथाः - तारा, रवि, चंद, रिख्खा, बुह, सुका, जून, मंगल, सणी, सग सय ने उच्चा, दस, असिय, चउ, चउ, कसमो तीया चउसो । १ । अर्थ :- पृथ्वी से ७६० योजन ऊंचा जाने पर ताराओं का विमान आता है, पृथ्वी से ८०० योजन Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छ काय के बोल । ( ५७ ) ऊंचा जाने पर सूर्य का विमान आता है, पृथ्वी से ८८० योजन ऊंचा जाने पर चन्द्रमा का विमान पाता है । पृथ्वी से ८८४ योजन ऊंचा जाने पर नक्षत्र का विमान पाता है, ८८८ योजन जाने पर बुध का तारा आता है, ८६१ योजन जाने पर शुक्र का तारा प्राता है, ८६४ योजन ऊंचा जाने पर बृहस्पति का ताग आता है, ८६७ योजन ऊंचा जाने पर मंगल का तारा आता है, पृथ्वी से ६०० योजन ऊंचा जाने पर शनिश्चर का तारा अाता है। इस प्रकार ११० योजन ज्योतिष चक्र जाड़ा है । पांच चर है पांच स्थिर है । अढाई द्वीप में जो चलते हैं वो चर और अढाई द्वीप के बाहर जो चलते नहीं वे स्थिर हैं। जहां सूर्य है वहां सूर्य और जहां चन्द्र है वहां चन्द्र । वैमानिक के भेद-वैमानिक के ३८ भेद । ३ किल्विषी, १२ देवलोक, ६ लोकांतिक, ६ ग्रीयवेक, ५ अनुत्तर विमान एवं ३८ । . किल्विषी देवः-तीन पल्योपम की स्थिति वाले प्रथम किल्बिपी पहले दूसरे देवलोक के नीचे के भाग में रहते हैं २ तीन सागर की स्थिति वाले दूसरे किल्विषी तीसरे चोथे देवलोक के नीचे के भागमें रहते हैं ३ तरह सागर की स्थिति वाले तीसरे किल्विषी छठे देवलोक के नीचे के भागमें रहते हैं ये देव ढेढ़ ( भङ्गी ) देव पणे Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५८) थोकड! संग्रह। उत्पन्न हुवे हैं । वो कैसे ? तीर्थ कर, केवली, साधु, साध्वी के अपवाद बोलने से ये किल्बिषी देव हुवे हैं। बारह देवलोक-१ सुधर्मा देवलोक २ इशान देवलोक ३ सनंत कुमार देवलोक ४ महेन्द्र देवलोक ५ ब्रह्म देवलोक ६ लांतक देवलोक ७ महाशुक्र देवलोक ८ सहसार देवलोक ६ आणत देवलोक १० प्राणा देवलोक ११ आरण्य देवलोक १२ अच्यूत देवलोक। . बारह देवलोक कितने ऊंचे, किस आकार के, व इन के कितने कितने विमान हैं, इसका विवेचन ज्योतिषी चक्र के ऊपर असंख्यात योजन की करोड़ा करोड़ प्रमाण ऊंचा जाने पर पहेला सुधर्मा व दुसरा इशान ये दो देवलोक आते हैं जो लगड़ाकार हैं। व एक एक अर्ध चन्द्रमा के आकार ( समान ) है और दोनों मिल कर पूर्ण चन्द्रमा के आकार ( समान ) हैं। पहले में ३२ लाख और दूसरे में २८ लाख विमान हैं। यहां से असंखात योजन की करोड़ा करोड़ प्रमाणे ऊंचे जाने पर तीसरा सनंत कुमार व चौथा महेन्द्र ये दो देवलोक आते हैं । जो लगड़ा ( ढांचा ) के आकार हैं। एक एक अर्ध चन्द्रमा के आकार का है। दोनों मिल कर पूर्ण चन्द्रमा के आकार (समान ) हैं। तीसरे में बारह लाख व चौथे में आठ लाख विमान हैं। यहां से असंख्यात योजन का करोड़ा करोड़ प्रमाणे ऊंचा जाने पर पांचवां ब्रह्म देवलोक आता है । जो पूर्ण चन्द्रमा के Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छ काय के बोल । (६) प्राकार का है। इस में चार लाख विमान हैं। यहां से असंख्यात योजन का करोड़ा करोड़ प्रमाणे ऊंचा जाने पर छठा लांतक देवलोक आता है । जो पूर्ण चन्द्रमा के आकार का है । इस में ५० हजार विमान हैं । यहां से असंख्यात योजन का करोड़ा करोड़ प्रमाणे ऊंचा जाने पर सातवां महा शुक्र देवलोक आता है। जो पूर्ण चन्द्रमा के आकार का है । इस में ४० हजार विमान हैं । यहां से असंख्यात योजन के करोड़ा करोड़ प्रमाणे ऊंचा जाने पर आठवां सहसार देवलोक आता है । जो पूर्ण चन्द्रमा के श्राकार का है। इस में ६ हजार विमान हैं। यहां से असंख्यात योजन के करोड़ा करोड़ प्रमाणे ऊंचा जाने पर नौवां आनत और दशां प्राणत ये दो देवलोक आते हैं। जो लगड़ाकार हैं । व एक एक अर्ध चन्द्रमा के श्राकार का है । दोनों मिल कर पूर्ण चन्द्रमा के समान हैं । दोनों देवलोक में मिल कर ४०० विमान हैं। यहां से असंख्यात योजन के करोड़ा करोड़ प्रमाणे ऊंचा जाने पर इग्यारवां पारण्य और बारहवां अच्यूत देवलोक आते हैं। जो लगडाकार हैं। व एक एक अर्ध चन्द्रमा के आकार का है, दोनों मिल कर पूर्ण चन्द्रमा के समान हैं । दोनों देव लोक में मिलकर ३०० विमान हैं। एवं बारह देव लोक के सर्व मिला कर ८४, ६६, ७०० विमान हैं। Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६०) थोकडा संग्रह । mmmmmmmm नव लोकांतिक देव । पांचवे देवलोक में आठ कृष्ण राजी नामक पर्वत है जिसके अन्तर में ( बीच में) ये नव लोकांतिक देव रहते हैं। इनके नाम-गाथा: सारस्सय, माइच, वनि, वरूण, गज तोया। तुसीया अव्ववाहा, अगीया, चेव, रीठा, य॥ अर्थः-१ सारस्वत लोकांतिक २ आदित्य लोकां. तिक ३ वहनि लोकांतिक ४ वरूण ५ गई तोया ६ तुपिया ७ अव्याबाध ८ अंगीत्य हरिष्ट । ये नव लोकांतिक देवजब तीर्थकर महाराज दीक्षा धारन करने वाले होते हैं, उस समय कानों में कुण्डल, मस्तक पर मुकुट, बांह पर बाजुबंध, कराठ में नवसर हार पहन कर घुपरियों के घमकार सहित आकर इस प्रकार बोलते हैं-"अहो त्रिलोक नाथ! तीर्थ मार्ग प्रवर्तावो, मोक्ष मार्ग चालु करो।" इस प्रकार बोलने का-इन देवों का जीत व्यवहार (परंपरा से रिवाज चला आता ) है। नव ग्रीय वेक गथा: भद्दे, सुभद्दे, सुजाए, सुमाणसे, पीयदसणे । सुदंसणे, अमोहे, सुपडीबद्धे, जसोधरे ॥ अर्थः-चारहवें देवलोक ऊपर असंख्यात योजन के करोड़ा करोड़ प्रमाणे ऊंचा जाने पर नव ग्रीयवेक की पहली ___ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छ काय के बोल । (६१) त्रीक आती है। ये देवलोक गागर बेवड़े के समान हैं । इनके नामः-१ भद्र २ सुभद्र ३ सुजात, इस पहली त्रीक में १११ विमान हैं। यहां से असंख्यात योजन के करोड़ा करोड प्रमाणे ऊंचा जाने पर दूसरी त्रोक आती है । यह भी गागर बेवड़े के ( आकार ) समान है । इनके नाम ४ सुमानस ५ प्रिय दर्शन ६ सुदर्शन इस त्रीक में १०७ विमान हैं। यहां से असंख्यात योजन के करोड़ा करोड़ प्रमाणे ऊंचा जाने पर तीसरी त्रीक आती है, जो गागर बेवड़े के समान है। इनके नाम ७ अमाघ ८ सुप्रतिबुद्ध ह यशोधर इस त्रीक में १०० विमान हैं। पांच अनुत्तर विमान नवी ग्रीयवेक के ऊपर असंख्यात योजन की करोडा करोड प्रमाणे ऊंचा जाने पर पांच अनुत्तर विमान आते हैं। इनके नामः-१विजय २ विजयंत ३ जयंत ४ अपराजित ५ सवार्थ सिद्ध । ये सर्व मिल कर ८४, ६७,०२३ विमान हुवे । देव की स्थिति जघन्य दश हजार वर्ष की, उत्कृष्ट ३३ सागरोपम की। देव का "कुल"२६ लाख करोड़ जानना। सिद्ध शिला का वर्णन । सर्वार्थ सिद्ध विमान की ध्वजा पताका से १२ योजन ऊंचा जाने पर सिद्ध शिला पाती है। यह ४५ लाख योजन की लम्बी चौडी व गोल और मध्य में ८ योजन की जाडी, और चारों तरफ से कम से घटती २ किनारे पर Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६२ ) थोकडा संग्रह | मक्खी के पंख से भी अधिक पतली है । शुद्ध सुवर्णे से भी अधिक उज्वल, गोक्षीर समान, शंख, चंन्द्र, बंक ( बगुला ) रत्न, चांदी, मोती का हार, व क्षीर सागर के जल से मी अत्यन्त उज्वल है । इस सिद्ध शिला के के बारह नाम- १ इषत् २ इषत् प्रभार ३ तनु ४ तनु तनु ५ सिद्धि ६ सिद्धालय ७ मुक्ति ८ मुक्तालय ६ लोकाग्र १० लोकस्तुभिका ११ लोक प्रति बोधिका १२ सर्व प्राणी भूत जीव सत्व सौख्या वाहिका । इसकी परिधि ( घेराव ) १, ४२, ३०, २४६ योजन, एक कोस १७६६ धनुष पोने के कुल जारी है। इस शिला के एक योजन ऊपर जाने पर - एक योजन के चार हजार कोस में से ३६६६ कोस नीचे छोड़ कर शेष एक कोस के छे भाग में से पांच भाग नीचे छोड़ कर शेष एक भाग में सिद्ध भगवान विराज मान हैं । यदि ५०० धनुष की अवगाहना वाले सिद्ध हुवे हो तो ३३३ धनुष और ३२ अङ्गुल की ( क्षेत्र ) अवगाहना होती है । सात हाथ के सिद्ध हुवे हो तो चार हाथ और सोलह आहुल की ( क्षेत्र ) अवगाहना होती है । व दो हाथ के सिद्ध हुवे हो तो एक हाथ और आठ अङ्गुल की ( क्षेत्र ) अवगाहना होती है । ये सिद्ध भगवान कैसे हैं ? अवर्णी, अगन्धी अरसी, अस्पर्शी, जन्म जरा मरण रहित और आत्मिक गुण सहित हैं । ऐसे सिद्ध भगवान को मेरा समय समय पर वंदना नमस्कार होवे । Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छः काय का स्वरूप। छ काय के बोल। नाम कुल करोडा करोड १ पृथ्वी काय १२ लाख २ अप काय ७ लाख ३ तेजस् काय ३ लाख ४ वायु काय ७ लाख ५ वनस्पति काय २८ लाख 'आयुष्य वर्ण संस्थान २२००० वर्ष पीला मसुर की दाल ७००० " सफेद जल का परपीटा ३ अहोरात्रि लाल सुइयों की भारी ३००० वर्ष नीला ध्वजा पताका १०००० वर्ष विविध विविध मुर्हत में उ. जन्म मरण १२८२४ १२८२४ १२८२४ १२८२४ (३२०००प्र.व. १६५५३६ सा.व ५ ६ त्रस काय बेइन्द्रिय ७ लाख १२ वर्ष तेइन्द्रिय ८ लाख ४६ दिन १ जघन्य अन्तर मुहूर्त का २ जघन्य १ भव । ६० Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाम चौइन्द्रिय नरक तिर्यच मनुष्य देवता कुल करोडा कराड ६ लाख २५ लाख ५३ || लाख १२ लाख २६ लाख 'आयुष्य ६ मास ज. १०००० व. ( उ. ३३ सागर ३ पल्योपम ३ पल्योपम ज.१०००० व. उ. ३३ सागरो पम १ जघन्य अन्तर मुहूर्त का २ जघन्य १ भव । व‍ 17 " ܐܐ " " संस्थान " 11 * * * ११ " ॥ इति छः काय का बोल सम्पूर्ण ॥ क 'मुहूर्त में उ. जन्म मरण ४० १ १ ? १ ( ६४ ) थोडा संग्रह | Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीस बोल। (६५) २५ बोल। १ पहले बोले गति चार-१ नरक गति २ तिर्यच गति ३ मनुष्य गति ४ देव गति । २ दूसरे बोले जाति पांच-१ एकेन्द्रिय २ बैइ. न्द्रिय ३ त्रीइन्द्रिय ४ चौरिन्द्रिय ५ पंचेन्द्रिय ।। ३ तीसरे बोले काय छः-१ पृथ्वी काय २ अप काय ३ तेजस काय ४ वायु काय ५ वनस्पति काय ६ बस काय । ४ चौथे बोले 'इन्द्रिय गांच-१ श्रोतेन्द्रिय २ चनु इन्द्रिय ३ घ्राणेन्द्रिय ४ रसेन्द्रिय ५ स्पर्शन्द्रिय । ५ पांचषे बोले 'पयोप्ति छः-१ आहार पर्याप्ति २ शरीर पप्ति ३ इन्द्रिय पर्याप्ति ४ श्वासोश्वास पर्याप्ति ५ भाषा पर्याप्त ६ मनः पर्याप्ति। ६ छठे बोले 'प्राण दश-१ श्रोतेन्द्रि बल प्राण २ १ जहां पर जीवों का अावागमन (पाना जाना) होवे वह गति है। २ एक सा होना एकाकार होना जाति है। ३ समूह तथा बहु प्रदेशी वस्तु को काय कहते हैं। ४ शब्द, रूप, रस, गन्ध, स्पर्श आदि वस्तुओं का जिसके द्वारा ग्रहण होता है उसे इन्द्रिय कहते हैं। ये पांच हैं-१ कान २ आंख नाक ४ जीभ ५शरीर (गले से पैर तक-धड़) - ५ अाहारादि रूप पुद्गल को परिणमन करने की शक्ति ( यन्त्र) को पर्याप्ति कहते हैं। . ६ पर्याप्ति रूप यन्त्र को मदद करने वाले वायु (Strem ) फो प्राण Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थोकडा संग्रह। चक्षु इन्द्रिय बल प्राण ३ घ्राणेन्द्रिय बल प्राण ४ रसन्द्रिय बल प्राण ५ स्पर्शेन्द्रिय बल प्राण ६ मनः बल प्राण ७ वचन बल प्राण ८ काय बल प्राण ६ श्वासोश्वास बल प्राण १० आयुष्य बल प्राण । ७ सातवें बोले शरीर पांच-१ औदारिक २ वैक्रिय ३ आहारिक ४ तैजस ५ कामण । ८ पाठवें बोले 'योग पन्द्रह-१ सत्य मन योग २ असत्य मन योग ३ मिश्र मन योग ४ व्यवहार मन योग ५ सत्य वचन योग ६ असत्य वचन योग ७ मिश्र वचन योग ८ व्यवहार वचन योग ६ औदारिक शरीर काय योग १० औदारिक मिश्र शरीर काय योग ११ वैक्रिय शरीर काय योग १२ वैक्रिय मिश्र शरीर काय योग १३ पाहारिक शरीर काय योग १४ पाहारिक मिश्र शरीर काय योग १५ कार्मण काय योग । चार मनका, चार वचन का व सात काय का एवं पन्द्रह योग । नववें बोले उपयोग बारह । पांच ज्ञान का-१ मति ज्ञान २ श्रुत ज्ञान ३ अवधि ज्ञान ४ मनः पर्यव ज्ञान ५ केवल ज्ञान । ७ जो नाश को प्राप्त होता हो या जिसके नष्ट होने से-अदृश्य होने से जीव का नाश माना जाता है उसे शरीर कहते हैं। समन, वचन काया की प्रवृत्ति को-चपलता को (प्रयोग को)जोग (योग) कहते हैं। जानने पहिचानने की शक्ति को उपयोग कहते हैं, यही जीव का लक्षण है। Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीस बोल । (६७) तीन अज्ञान का-१ मति अज्ञान २ श्रुत अज्ञान ३ विभंग अज्ञान । चार दर्शन के--१ चक्षु दर्शन २ अचक्षु दर्शन ३ अवधि दर्शन ४ केवल दर्शन एवं बारह उपयोग। १० दशवें बोले 'कर्म आठ-१ ज्ञानावरणीय २ दर्शनावरणीय ३ वेदनीय ४ मोहनीय ५ आयुष्य ६ नाम ७ गोत्र और ८ अन्तराय । ११ इग्यारहवें बोले गुण "स्थानक चौदह । १ मिथ्यात्व गुणस्थानक २ सास्वादान गुणस्थानक ३मिश्र गुणस्थानक ४ अव्रती समदृष्टि गुणस्थानक ५ देश व्रती गुणस्थानक ६ प्रमत्त संयति गुणस्थानक ७ अप्रमत्त संयति गुण स्थानक ८ (नियठी) निवर्तीवादर गुण स्थानक ६ ( अनिय छ ) अनिवर्ती बादर गुण स्थानक १० सूक्ष्म संपराय गुण स्थानक ११ उपशान्त मोहनीय गुण स्थानक १२ क्षीण मोहनीय गुणस्थानक १३ सयोगी केवली गुण स्थानक १४ अयोगी केवली गुण स्थानक । १२ बारहवें बोले पांच इन्द्रिय के २३ "विषय १० जीव को पर भव में घुमावे, विभाव दशा में बनावे व अन्य रूप से दिखावे सो कर्म है। ११ सकर्मी जीवों की उन्नति की भिन्न २ अवस्था को गुणस्थान कहते हैं । अवस्था अनन्त है परन्तु गुणस्थान १४ ही है कक्षा ( Class) वत् । १२ जिस इन्द्रिय से जो २ वस्तु ग्रहण होती है वही उस इन्द्रिय का विषय है । कान का विषय शब्द । Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६८) थोकडा संग्रह। १ श्रोतेन्द्रिय के तीन विषय-१ जीव शब्द २ अजीव शब्द ३ मिश्र शब्द । २ चक्षु इन्द्रिय के पांच विषय -१ कृष्ण वर्ण २ नील वर्ण ३ रक्त वर्ण ४ पीत ( पीला ) वण ५ श्वेत (सफेद ) वर्ण। ३ घ्राणेन्द्रिय के दो विषय-१ सुरभि गन्ध २ दुरभि गन्ध । ४ रसन्द्रिय के पांच विषय- तीक्ष्ण ( तीखा) २ वटुक ( कड़वा) ३ कपायित ( कषायला) ४ क्षार (खट्टा) ५ मधुर ( मिष्ट मीठा )। ५ स्पर्शेन्द्रिय के पाठ विषय-१ कर्कश २ मृदु ३ गुरू ४ लघु ५ शीत ६ उष्ण ७ स्निग्ध (चिकना) ८ रूक्ष ( लुखा ) एवं २३ विषय । १३ तेरहवें बोले मिथ्यात्व दश-१ जीव को अजीव समझे तो मिथ्यात्व २ अजीव को जीव समझे तो मिथ्यात्व ३ धर्म को अधर्म समझे तो मिथ्यात्व ४ अधर्म को धर्म समझे तो मिथ्य त्व ५ साधु को असाधु समझे तो मिथ्यात्व ६ असाधु को साधु समझे तो मिथ्यात्व ७ सुमार्ग (शुद्ध मार्ग) को कुमार्ग समझे तो मिथ्यात्व ८कुमार्ग को सुमार्ग समझे तो मिथ्यात्व ह सर्व दुःख से १३ जीवादि नव तत्वों की संशय युक्त वा विपरीत मान्यता होना तथा अनध्यसाय निर्णय बुद्धि का न होना मिथ्यात्व है। Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीस बोल । (६६) मुक्त को अमुक्त समझे तो मिथ्यात्व और १० सर्व दुख स अमुक्त को मुक्त समझे तो मिथ्यात्व । १४ चौदहवें बोले नव Xतत्व के ११५ बोल । प्रथम नव तत्त्व के नाम-१ जीव तत्व २ अजीव तत्व ३ पुन्य तत्व ४ पाप तत्त्व ५ आश्रव तत्त्व ६ संवर तत्व ७निजग तत्व ८ बन्ध तत्त्व ह मोक्ष तत्त्व इन नव तत्त्व के लक्षण तथा भेद-प्रथम नव तत्व के अन्दर विस्तार पूर्वक लिखा गया है अतः यहां केवल संक्षेप में ही लिखा जाता है। १जीव तत्व के १४ बोल, २ अजीव तत्व के १४ बोल,३ पुन्य के ह बोल,४ पाप के १८ बोल, ५ अाश्रव के २० बोल, ६ संवर के २० बोल, ७ निर्जरा के १२ बोल, ८ बन्ध के ४ बोल और ह मोक्ष के ४. बोल । एवं नव तत्व के सर्व ११५ बोल हुवे । १५ पन्द्रहवें बोले = आत्मा आठ-१ द्रव्य आत्मा २ वषाय आत्मा ३ योग श्रात्मा ४ उपयोग आत्मा ५ ज्ञान आत्मा ६ दर्शन प्रात्मा ७ चारित्र आत्मा ८ वीय आत्मा । १६ सोलहवें बोले *दण्डक २४-सात नरक के x सार पदार्थ को तत्व कहते हैं। __= अपनास-अपनापन ही आत्मा है । जीव की शक्ति किसी भी रूप में होना ही आत्मा है । ___ * जिस स्थान पर तथा जिस रूप में रह कर प्रात्मा कर्मों से दण्डाती है, वह दण्डक है । भेद अनन्त हैं परन्तु समावेश चोवीश में है। Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७०) थोकडा संग्रह। नेरियों का एक दण्डक १, दश भवनपति देव क दश दण्डक, ११, पृथ्वी काय का एक, १२, अप काय का एक, १३, तेजस् काय का एक, १४, वायु काय का एक, १५, वनस्पति काय का एक, १६ बेइन्द्रिय का एक, १७, त्रीइन्द्रिय का एक, १८, चौरिन्द्रिय का एक, १६, तिर्यच पंचेन्द्रिय का एक२०,मनुष्य का एक,२१, वाणव्यन्तर का एक, २२,ज्योतिषी का एक, २३, वैमानिक का एक, २४ । १७ सत्तरवें बोले = श्या छः-१ कृष्ण लेश्या २ नील लेश्या ३ कापोत लेश्या ४ तेजो लेश्या ५ पद्म लेश्या ६ शुक्ल लेश्या । १८ प्रहारवें बोले दृष्टि तीन-१ सम्यक्त्व (सम्यग) दृष्टि २ मिथ्यात्व दृष्टि ३ मिश्र दृष्टि । १६ उन्नीसवें बोले xध्यान चार-१ बात ध्यान २ रौद्र ध्यान ३ धर्म ध्यान ४ शुक्ल ध्यान । २० वीसवें बोले षड् (छ)*द्रव्य के ३० भेद । १ धर्मास्ति काय के पांच भेद-१ द्रव्य से एक = कषाय तथा योग क साथ जीव के शुभाशुभ भाव को लेश्या कहते हैं । योग तथा कषाय रूप जल में लहरों का होना ही लेश्या है। आत्मा अनात्मा को किसी भी तरह देखना मानना और श्रद्धा करना ही दृष्टि है। x चित-मन-की एकाग्रता को ध्यान कहत हैं। ध्येय वस्तु प्रति ध्याता की स्थिरता को ध्यान कहते हैं। * श्राकारादि के बदलने पर भी पदार्थ वस्तु का कायम रहना ही द्रव्य है। Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीस बोल। (७१) LANvinor २ क्षेत्र से लोक प्रमाण ३ काल से आदि अन्त रहित ४ भाव से अवर्णी, अगंधी, अरसी, अस्पर्शी ( अरूपी ) अमूर्ति मान ५ गुण से चलन गुण । इसे पानी में मछली का दृष्टान्त । २ अधर्मास्ति काय के पांच भेद-१ द्रव्य से एक द्रव्य २ क्षेत्र से लोक प्रमाण ३ काल से श्रादि अंत रहित ४ भाव से अमूर्ति मान ५ गुण से स्थिर गुण अधर्मास्ति काय को-थके हुवे पक्षी को वृक्ष का आश्रय (विश्राम -का दृष्टान्त । ३ अाकाशास्ति काय के पांच भेद- द्रव्य से एक द्रव्य २ क्षेत्र से लोकालोक प्रमाण ३ काल से आदि अन्त रहित ४ भाव से अमूर्तिमान ५ गुण से आकाश विकाश गुण । आकाशास्ति काय को दुग्ध में शर्करा का दृष्टान्त । ४ काल द्रव्य के पांच भेद-१ द्रव्य से अनन्त द्रव्य २क्षेत्र से समय क्षेत्र प्रमाण ३ काल से आदि अन्त रहित ४ भाव से अमूर्तिमान ५ गुण से नूतन(नया) जीर्ण (पुराणा) वर्तना लक्षण काल को नया पुराणा वस्त्र का दृष्टान्त । ५ पुद्गलास्ति काय के पांच भेद-१ द्रव्य से अनंत द्रव्य २ क्षेत्र से लोक प्रमाण ३ काल से आदि अंत रहित ४ भाव से वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श सहित ५ गुण से मिलना Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७२) थोकडा संग्रह। AMAA गलना, विनाश होना, जीर्ण होना, व विखरना पुद्गलास्ति काय को बादलों का दृष्टान्त । ६ जीवास्ति काय द्रव्य के पांच भेद-१ द्रव्य से अनंत २ क्षेत्र से लोक प्रमाण ३ काल से आदि अंत रहित ४ भाव से अमूर्तिमान (अरुपी) ५ गुण से चैतन्य उपयोग लक्षण जीवास्ति काय द्रव्य को चन्द्रमा का दृष्टान्त । २१ इकोसवें बोले "राशि दो-१ जीव राशि २ अजीव राशि । २२ बावीसवें बोले श्रावक के बारह बत-१ स्थूल ( मोटी, बड़ी) जीवों की हत्या का त्याग करे २ स्थूल झूठ का त्याग करे ३ स्थूल चोरी करने का त्याग करे ४ पुरुष पर स्त्री-सेवन का व स्त्री पर पुरुष-सेवन का त्याग करे ५ परिग्रह की मर्यादा को ६ दिशाओं ( में गमन करने ) की मर्यादा करे ७ चौदह नियम व २६ बोल की मर्यादा करे ८ अनर्थ दंड का त्याग करे ६ प्रति दिन सामायिक आदि करे * १० दिशावकाशिक २१ समूह को राशि कहते हैं । जगत् में जीव तथा पुद्गल द्रव्य अनन्त हैं। इनके समूहों को राशि हते हैं। x पर वस्तु में प्रात्मा लुभा रही है। अतः प्रात्मा को पर वस्तु से अलग कर स्वस्व में कायम रहना व्रत है। ___ * पूर्वोक्न छठे व्रत में दिशा की व सातवें में उपभोग परिभोग का जो परिणाम किया है वह यावज्जीव पर्यन्त है परन्तु यह दिशावकाशिक प्रति दिन का किया जाता है। Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीस बोल । (७३) (दिशाओं व भोगोपभोगों का परिमाण ) करे ११ पौषध व्रत करे १२ निग्रंथ साधु व मुनि को प्रासुक एषणीक आहागदिक चौह बोल प्रतिलाभे ( अतिथि संविभाग व्रत करे )। २३ तेवीसवें बोले मुनि के 'पंचमहाव्रत-१ सर्व हिंसा का त्याग करे २ सर्व मृषावाद का त्याग करे ३ सर्व अदत्तादान । चोरी) का त्याग करे ४ सव मैथुन का त्याग करे ५ सब परिग्रह का त्याग करे ( मुनि के ये त्याग तीन करण व तीन योग से होते हैं ) २४ चोवीसवें बोले श्रावक के बारह व्रत के ४६ भांगे प्रांक एक ग्यारह का-एक करण एक योग से प्रत्याख्यान ( त्याग) करे। इसके भांग 8 अमुक युक्त दोष कर्म कि जिसका मैंने त्याग लिया है उसे १ करूं नहीं मन से २ करूं नहीं वचन से ३ करूं नहीं काय से ४ कराऊं नहीं मन से ५ कराऊं नहीं वचन से ६ कराऊं नहीं काय से ७ करते हुवे को अनुमोदूं ( सराहूं ) नहीं मन से ८ करते १ बड़े व्रतों को पूर्ण व्रतों को महाव्रत कहते हैं । त्यागी मुनि ही इनका पालन कर सके हैं, गृहस्थ नहीं। ____ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७४) थोकडा संग्रह) हुवे को अनुमोदूं नहीं वचन से ६ करते हुवे को अनुमोदूं नहीं काय से एवं नव भांगे। प्रांक एक बारह (१२)का-एक करण और दो योग से त्याग करे । इसके नव भांगे १ करूं नहीं मन से वचन से २ करूं नहीं मन से काया से ३ करूं नहीं वचन से काया से ४ कराऊं नहीं मन से वचन से ५ कराऊं नहीं मन से काया से ६ कराऊं नहीं वचन से काया से । ७ करते हुवे को अनुमोदूं नहीं मन से वचन से ८ करते हुवे को अनुमोदं नहीं मन से काया से करते हुवे को अनुमोदूं नहीं वचन से काया से। प्रांक एक तेरह का-एक करण और तीन योग से त्याग करे । भांगा तीन १ करूं नहीं मनसे, वचन से, काया से, २ कराऊं नहीं मन से, वचन से, काया से, ३ करते हुवे को अनुमोदूं नहीं मन से,वचन से,काया से, एवं कुल (8+8+३) २१ भांगा। प्रांक एक इक्कीस का-दो करण और एक योग से त्याग करे । भांगा नव १ करूं नहीं कराऊं नहीं मन से २ करूं नहीं कराऊं नहीं वचन से ३ कर नहीं कराऊं नहीं काया से ४ करूं नहीं अनुमोदूं नहीं मन से ५ करूं नहीं Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीस वोल। (७५) अनुमोदूं नहीं वचन से ६ करूं नहीं अनुमोदूं नहीं काया से ७ कराऊं नहीं अनुमोदूं नहीं मनसे ८ कराऊं नहीं अनुमोदूं नहीं वचन से 8 कराऊं नहीं अनुमोदूं नहीं काया से । अांक एक बावीस का-दो करण और दो योग त्याग करे । मांगा नव १ करुं नहीं, कराऊं नहीं, मन से, वचन से । २ करूं नहीं,कराऊं नहीं,मन से, काया से ।३ करुं नहीं,कराऊं नहीं, वचन से, काया से । ४ करुं नहीं,अनुमोदूं नहीं,मन से वचन से । ५ करूं नहीं,अनुमोदूं नहीं,मन से काया से । ६करूं नहीं, अनुमोदं नहीं, वचन से काया से । ७ कराऊं नहीं, अनुमोदं नहीं,मन से वचन से ८ कराऊं नहीं, अनुमोदूं नहीं, मन से काया से कराऊं नहीं, अनुमोदं नहीं,वचन से,काया से । प्रांक एक तेवीश का-दो करण और तीन योग से त्याग लेवे । भांगा तीन १ करूं नहीं, कराऊं नहीं, मन से,वचन से,काया से। २ करुं नहीं, अनुमोदूं नहीं, मन से, वचन से, काया से । ३ कराऊं नहीं, अनुमाएं नहीं, मन से, वचन से,काया से एवं ४२ मांगा। प्रांक एक एकतोस का-तीन करण व एक योग से त्याग गृहण कर । मांगा तीन___ १ करुं नहीं, कराऊं नहीं, अनुमोदूं नहीं, मन से । २ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७६) थोकड! संग्रह। कलं नहीं, कराऊं नहीं, अनुमोदूं नहीं, वचन से । ३ करूं नहीं, कगऊं नहीं, अनुमोदूं नहीं, काया से । अांक एक बत्तीस का-तीन करण व दो योग से, त्याग करे । भांगा तीन १ करुं नहीं, कराऊ नहीं, अनुमोदूं नहीं, मन से, वचन से । २ करं नहीं, कराऊ नहीं, अनुमोदूं नहीं, मन से काया से । ३ करूं नहीं, कराऊं नहीं, अनुमोदूं नहीं, वचन से, काया से। अांक एक तेंतीस का-तीन करण व तीन योग स त्याग लेवे । भांगा एक १ करुं नहीं, कगऊ नहीं, अनुोई नहीं, मन से वचन से, काया से। एवं ४६ भांगा सम्पूर्ण । २५ पच्चीशवें बोले 'चारित्र पांच-१ सामायिक चारित्र २ छेदोपस्थानिक चारित्र ३ परिहार विशुद्ध चारित्र ४ सूक्ष्म संपराय चारित्र ५ यथाख्यात चारित्र । ॥ इति पच्चीस बोल सम्पूर्ण ॥ MOHANA ALV NE १ श्रात्मा का पर भाव से दूर होना और स्वभाव में रमण करना ही चारित्र है। ___ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्ध द्वार। (७७) सिद्ध द्वार १ पहिली नरक के निकले हवे एक समय में जघन्य एक सिद्ध होवे, उत्कृष्ट दश सिद्ध होते हैं। २ दूसरी नरक के निकले हुवे एक समय में जघन्य एक सिद्ध, उत्कृष्ट दश सिद्ध होते हैं। ३ तीसरी नरक के निकले हुवे एक समय में जघन्य एक सिद्ध, उत्कृष्ट दश सिद्ध होते हैं। ४ चौथी नरक के निकले हुवे एक समय में जघन्य एक, उत्कृष्ट चार सिद्ध होते हैं । ... ५ भवन पति के निकले हुवे एक समय में जघन्य एक, उत्कृष्ट दश सिद्ध होते हैं। ६ भवन पति की देवियों में से निकले हुवे एक समय में जघन्य एक, उत्कृष्ट पांच सिद्ध होते हैं। ७ पृथ्वी काय के निकले हुवे एक समय में जघन्य एक, उत्कृष्ट चार सिद्ध होते हैं। ८ अपकाय के निकले हुवे एक समय में जघन्य एक, उत्कृष्ट चार सिद्ध होते हैं। - वनस्पति काय के निकले हुवे एक समय में जघन्य एक, उस्कृष्ट छः सिद्ध होते हैं। १० तिर्यंच गर्भज के निकले हुवे एक समय में जघन्य एक, उत्कृष्ट दश सिद्ध होते हैं । Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७८ ) थोकडा संग्रह। ११ तिर्यंचणी में से निकले हुवे एक समय में जघन्य एक, उत्कृष्ट दश सिद्ध होते हैं। १२ मनुष्य गर्मज में से निकले हुवे एक समय में जघन्य एक, उत्कृष्ट दश सिद्ध होते हैं। १३ मनुष्यनी में से निकले हुवे एक समय में जघन्य एक, उत्कृष्ट वीश सिद्ध होते हैं। १४ वाण व्यन्तर में से निकले हुवे एक समय में जघन्य एक, उत्कृष्ट दश सिद्ध होते हैं। १५ वाण व्यतर की देवियों में से निकले हुवे एक समय में जघन्य एक, उत्कृष्ट पांच सिद्ध होते हैं। १६ ज्योतिषी के निकले हुवे एक समय में जघन्य एक सिद्ध, उत्कृष्ट दश सिद्ध होते हैं। . १७ ज्योतिषी की देवियों में से निकले हुवे एक समय में जघन्य एक, उत्कृष्ट वीश सिद्ध होते हैं। १८ चैमानिक के निकले हुवे एक समय में जघन्य एक सिद्ध, उत्कृष्ट १०८ सिद्ध होते हैं। १६ वैमानिक की देवियों में से निकले हुवे एक समय में जघन्य एक, उत्कृष्ट बीस सिद्ध होते हैं । २० स्वलिङ्गी एक समय में जघन्य एक, उत्कृष्ट १०८ सिद्ध होते हैं। २१ अन्य लिङ्गी एक समय में जघन्य एक, उत्कृष्ट दश सिद्ध होते हैं। Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्ध द्वार । ( ७६ ) PRANKRAMKHALAAKANKRA २२ गृहस्थ लिङ्गी एक समय में जघन्य एक, उत्कृष्ट चार सिद्ध होते हैं। २३ स्त्री लिङ्गी एक समय में जघन्य एक, उत्कृष्ट बीस सिद्ध होते हैं। २४ पुरुष लिङ्गी एक समा में जघन्य एक, उत्कृष्ट १०८ सिद्ध होते हैं। २५ नपुसंक लिङ्गी एक समय में जघन्य एक, उत्कृष्ट दश सिद्ध होते हैं। २६ ऊध्र्व लोक में एक समय में जघन्य एक,उत्कृष्ट चार सिद्ध होते हैं। २७ अधो लोक में एक समय में जघन्य एक, उत्कृष्ट बीस सिद्ध होते हैं। २८ तिर्यक् ( तीछी ) लोक में एक समय में जघन्य एक, उत्कृष्ट १०८ सिद्ध होते हैं । २६ जघन्य अवगाहन वाले एक समय में जघन्य एक, उत्कृष्ट चार सिद्ध होते हैं। ३० मध्यम अवगाहन वाले एक समय में जघन्य एक सिद्ध, उत्कृष्ट १०८ सिद्ध होते हैं। ३१ उत्कृष्ट अवगाहन वाले एक समय में जघन्य एक, उत्कृष्ट दो सिद्ध होते हैं। ३२ समुद्र के अन्दर एक समय में जघन्य एक, उत्कृष्ट दो सिद्ध होते हैं। Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८०) थावडा संग्रह। NAVARAN/IN/Anniv .. .... . ३३ नदी प्रमुख जल के अन्दर एक समय में जघन्य एक, उत्कृष्ट तीन सिद्ध होते हैं। ३४ तीर्थ सिद्ध होवे तो एक समय में जघन्य एक, उत्कृष्ट १०८ सिद्ध होते हैं। ३५ अतीर्थ सिद्ध होवे तो एक समय में जघन्य एक, उत्कृष्ट दम सिद्ध होते हैं। ३६ तीर्थ कर सिद्ध होवे तो,एक समय में जघन्य एक, उत्कृष्ट वीस सिद्ध होते हैं! ३७ अतीर्थकर सिद्ध होवे तो एक समय में जघन्य एक, उत्कृष्ट १०८ सिद्ध होते हैं। ३८ स्वयं बोध (बुद्ध) सिद्ध होवे तो एक समय में जघन्य एक, उत्कृष्ट चार सिद्ध होते हैं। - ३६ प्रति बोध सिद्ध होवे तो, एक समय में जघन्य एक, उत्कृष्ट दश सिद्ध होते हैं। ४० बुध बोही सिद्ध होवे तो, एक समय में जघन्य एक, उत्कृष्ट १०८ सिद्ध होते हैं। ४१ एक सिद्ध होवे तो, एक समय में जघन्य एक, उत्कृष्ट एक सिद्ध होते हैं। ४२ अनेक सिद्ध होवे तो,एक समय में जघन्य एक, उत्कृष्ट १०८ सिद्ध होते हैं। ४३ विजय विजय प्रति एक समय में जघन्य एक, उत्कृष्ट वीस सिद्ध होते हैं। ___ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्ध द्वार । ४४ भद्र शाल वन में एक समय में जघन्य एक, उत्कृष्ट चार सिद्ध होते हैं ।। ४५ नंदन बन में एक समय में जघन्य एक, उत्कृष्ट चार सिद्ध होते हैं। ४६ सोम नस वन में एक समय में जघन्य एक, उत्कृष्ट चार सिद्ध होते हैं। ४७ पंडग वन में एक समय में जघन्य एक, उत्कृष्ट दो सिद्ध होते हैं। ४८ अकर्म भूमि में एक समय में जघन्य एक,उत्कृष्ट दश सिद्ध होते हैं। .४६ कर्म भूमि में एक समय में जघन्य एक, उत्कृष्ट १०८ सिद्ध होते हैं। ५० पहले आरे में एक समय में जघन्य एक,उत्कृष्ट दस सिद्ध होते हैं। ५१ दूसरे आरे में एक समय में जघन्य एक, उत्कृष्ट दस सिद्ध होते हैं। ५२ तीसरे आरे में एक समय में जघन्य एक,उत्कृष्ट १०८ सिद्ध होते हैं। ५३ चौथे आरे में एक समय में जघन्य एक, उत्कृष्ट १०८ सिद्ध होते हैं। ५४ पांचवें आरे में एक समय में जघन्य एक,उत्कृष्ट दस सिद्ध होते हैं। Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६२) थोकडा संग्रह। ५५ छठे बारे में एक समय में जघन्य एक, उत्कृष्ट दस सिद्ध होते हैं। . ५६ अवसर्पिणी में एक समय में जघन्य एक,उत्कृष्ट १०८ सिद्ध होते हैं। ५७ उत्सर्पिणी में एक समय में जघन्य एक, उत्कृष्ट १०८ सिद्ध होते हैं। ५८ नोतमर्पिणी नो अवसर्पिणी में एक समय में जपन्य एक, उत्कृष्ट १०८ सिद्ध होते हैं। .... ये ५८ बोल अन्तर सहित एक समय में जघन्य, उत्कृष्ट जो सिद्ध होते हैं सो कहे हैं। अब अन्तर रहित पाठ समय तक यदि सिद्ध होवे तो कितने होते हैं ? सो कहते हैं। १पहले समय में जघन्य एक उत्कृष्ट १०८ सिद्ध होते हैं। २ दूसरे " " " " " १०२ " ३ तीसरे , , , , , ६६ " " ४ चौथे , " " ५ पांचवे , , , , , ७२ " " ६ छठे " " " " ७ सातव, , , , ४८ " " ८पाठवें, , , , , ३२ " " भाठ समय के बाद अन्तर पड़े बिना सिद्ध नहीं होते। ॥ इति सिद्ध द्वार सम्पूर्ण ॥ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चावास दण्डक । (८३) चोवीस दण्डक। चोवीस दण्डक का वर्णन सूत्र श्री जीवाभिगम जी में किया हुवा है। गाथा:सरीरो गाहण संघयण, सठाण कसाय तहहुंति सनाय । लेसिदिअ समुघाए, सन्नी वैदेश पज्जत्ति ॥१॥ विठि दंसण नाणा नाण, जोगो वउग तह आहारे । उववाय ठिइ समुहाये चवण गइ आगई चेव॥ २॥ चोवीस द्वारों के नाम (१) शरीर द्वार (२)xअवगाहण द्वार (३) *संघयन झार (४) संस्थान = द्वार (५) कषाय द्वार (६) संज्ञा द्वार (७) लेश्या द्वार (८) इन्द्रिय द्वार (६) समुद्घात द्वार (१०) संज्ञी असंज्ञी द्वार (११) वेद द्वार (१२) पर्याप्ति द्वार (१३) दृष्टि द्वार (१४) दर्शन द्वार (१५) ज्ञान द्वार (१६) योग द्वार (१७) उपयोग द्वार (१८) आहार द्वार(१६) उत्पत्ति द्वार (२०) स्थिति द्वार (२१) ( समोहिया) मरण द्वार (२२) चवण द्वार २३ गति द्वार २४ अागाति द्वार। (१)शरीर द्वारः-शरीर पांच-१ औदारिक शरीर - लम्बाई * शरीर की बनावट = शरीर की प्राकृति। - -- - Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८४) थोकडा संग्रह । २ वैक्रिय शरीर ३ आहारिक शरीर ४ तेजसू शरीर ५ कार्माण शरीर। - इनके लक्षणः-औदारिक शरीर-जो सड़ जाय, पड़ जाय, गल जाय, नष्ट होजाय, बिगड़ जाय व मरने बाद कलेवर पड़ा रहे। उसे औदारिक शरीर कहते हैं। २ (औदारिक वा उलटा ) जो सड़े नहीं, पड़े नहीं गले नहीं, नष्ट होवे नहीं व मरने बाद बिखर जाये उसे वैक्रिय शरीर कहते हैं। ३ चौदह पूर्व धारी मुनियों को जब शङ्का उत्पन्न होती है,तब एक हाथ की काया का पुतला बना कर महाविदेह क्षेत्र में श्री श्रीमंदर स्वामी से प्रश्न पूछने को भेजें । प्रश्न पूछ कर पीछे आने बाद यदि आलोचना करे तो पाराधक वालोचना नहीं करे तो विराधक कहलाते हैं। इसे आहारिक शरीर कहते हैं। ४ तेजसू शरीर:-जो आहार करके उसे पचावे वो तेजस शरीर । ५ कार्माण शरीर:-जीव के प्रदेश व कर्म के पुद्गल जो मिले हुवे हैं, उन्हें कार्माण शरीर कहते है। (२) अवगाहन द्वार-जीवों में अवगाहना जघन्य अङ्गुल के असंख्यातवें भाग उत्कृष्ट हजार योजन जाजेरी ( अधिक) औदारिक शरीर की अवगाहना जघन्य अङ्गल Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चावास दराडका के असंख्यातवें भाग उत्कृष्ट हजार योजन बाजेरी-(वनस्पतिआश्री)। वैक्रिय शरीर की-भव धारणिक वैक्रिय की जघन्य अङ्गुल के असंख्यातवें भाग उत्कृष्ट ५०० धनुष्य की। उत्तर वैक्रिय की जघन्य अल के असंख्यातवें भाग उत्कृष्ट लक्ष योजन की। आहारिक शरीर की जघन्य मूढा हाथ की उत्कृष्ट एक हाथ का। तेजस् शरीर व कार्माण शरीर की अवगाहन जघन्य अङ्गुल के असंख्यातवें भाग उत्कृष्ट चौदह राज लोक प्रमाणे तथा अपने अपने शरीर अनुमार । (३)संघयन द्वार:-संघयन छः-१वज्र ऋषभ नाराच संघयन २ ऋषभ नागच संघयन ३ नाराच संघयन ४ अर्ध नाराच संघयन ५ कीलिका संघपन ६ सेवा संघयन । १ वज्र ऋषभ नाराच संघयन-वज्र अर्थात् किल्ली, ऋषभ याने लपेटने का पाटा अर्थात् ऊपर का वेष्टन, नाराच याने दोनों ओर का मर्कट बंध अर्थात् सन्धि-और संघयन याने हाड़कों का संचय-अर्थाद जिस शरीर में हाड़के दो पुड़ से, मर्कट बंध से बंधे हुवे हों, पाटे के समान हाड़के वीटे हुवे हो व तीन हाड़कों के अन्दर बज्र की किल्ली लगी हुई हो वो वज्र ऋषभ नागच संघयन (अर्थात् जिस शरीर Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की हड्डियां, हड्डी की संधियां व ऊपर का वेष्टन वज्र का होवे व किल्ली भी वज्र की होवे)। २ ऋषभ नाराच संघयन-ऊपर लिखे अनुसार । अंतर केवल इतना कि इसमें वज्र अर्थात् किल्ली नहीं होती है। ३ नाराच संघयन-जिसमें केवल दोनों तरफ मकेट बंध होते हैं। ४ अर्ध नाराच संघयन-जिसके एक तरफ मर्कट बंध व दूसरी ( पड़दे ) तरफ किल्ली होती है। ५ कीलिका संघयन-जिसके दो हड्डियों की संधि पर किल्ली लगी हुई होवे। ६ सेवा” संघयन-जिसकी एक हड्डी दूसरी हड्डी पर चढ़ी हुई हो (अथवा जिसके हाड़ अलग अलग हो, परंतु चमड़े से बंधे हुवे हो)। (४) संस्थान द्वार-संस्थान छः-१समचतुरस्त्र संस्थान २ निग्रोध परिमण्डल संस्थान ३ सादिक संस्थान ४ वामन संस्थान ५ कुब्ज संस्थान ६ हुएडक संस्थान । १ पांव से लगा कर मस्तक तक सारा शरीर सुन्दराकार अथवा शोभायमान होवे सो समचतुरस्त्र संस्थान। २ जिस शरीर का नाभि से ऊपर तक का हिस्सा सुन्दराकार हो परंतु नीचे का भाग खराब हो (वट वृक्ष स दृश) सो न्यग्रोध परिमण्डल संस्थान । Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चोवीस दण्डक । (८७) ३ जो केवल पांव से लगा कर नाभि ( या कटि ) तक सुन्दर होवे सो सादिक संस्थान । ४ जो ठेंगना ( ५२ अङ्गुल का ) हो सो वामन संस्थान | ५ जिस शरीर के पांव, हाथ, मस्तक, ग्रीवा न्यूनाधिक हो व कुबड़ निकली होवे और शेष अवयव सुंदर होवे सो कुब्ज संस्थान | ६ हुएडक संस्थान - रुंद, मूंद, मृगा पुत्र, रोहवा के शरीर के समान अर्थात् सारा शरीर बेडौल होवे सो हुडक संस्थान | (५) कषाय द्वार - कपाय चार -१ क्रोध २ मान ३ माया ४ लोभ | (६) संज्ञा द्वार:- संज्ञा चार -१ श्राहार संज्ञा २ भय संज्ञा ३ मैथुन संज्ञा ४ परिग्रह संज्ञा । (७) लेश्या द्वार : - लेश्या छ:- १ कृष्ण लेश्या २ नील लेश्या ३ कापोत लेश्या ४ तेजो लेश्या ५ पद्म लेश्या ६ शुक्र लेश्या । (c) इन्द्रिय द्वार : - इन्द्रिय पांच - १ श्रुतेन्द्रिय २ चतु इन्द्रिय ३ घ्राणेन्द्रिय ४ रसेन्द्रिय ५ स्पर्शेन्द्रिय | (ह) समुद्घात द्वार : - समुद्घात सात - १ वेदनीय समुद्घात २ कषाय समुद्घात ३ मारणांतिक समुद्घात Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८८) योकडा संग्रह। ४ वैक्रिय समुद्घात ५ तेजस् समुद्घात ६ पाहारिक समुद्घात ७ केवल समुद्घात ।। (१०)संज्ञी असंज्ञी द्वारः-जिनमें विचार करने की ( मन ) शक्ति होवे सो संज्ञी और जिनमें ( मन ) विचार करने की शक्ति नहीं होवे सो असंज्ञी। (११) वेद द्वार-वेद तीन-१ स्त्री वेद २ पुरुष वेद ३ नपुसंक वेद। (१२) पार्याप्ति द्वार-पर्याप्ति छः- १ आहार पर्याप्ति २ शरीर पर्याप्ति ३ इन्द्रिय पर्याप्ति ४ श्वासोश्वास पर्याप्ति ५ मनः पर्याप्ति ६ भाषा पर्याप्ति । . (१३) दृष्टि द्वार-दृष्टि तीन--१ समयग दृष्टि २ मिथ्यात्व दृष्टि ३ सम मिथ्यात्व ( मिश्र) दृष्टि । (१४)दर्शन द्वार-दर्शन चार-१ चक्षु दर्शन २ अचतु दर्शन ३ अवधि दर्शन ४ केवल दर्शन । (१५)ज्ञान अज्ञान द्वार-ज्ञान पांच-१मति ज्ञानरश्रुत ज्ञान ३ अवधि ज्ञान ४ मनः पर्यव ज्ञान ५ केवल ज्ञान । अज्ञान तीन-१ मति अज्ञान २ श्रुत अज्ञान ३ विभंग ज्ञान । (१६) योग द्वार-योग पन्द्रह-१ सत्य मन योग २ असत्य मन योग ३ मिश्र मन योग ४ व्यवहार मन योग ५ सत्य वचन योग ६ असत्य वचन योग ७ मिश्र वचन योग ८ व्यवहार वचन योग 8 औदारिक शरीर काय योग १० औदारिक मिश्र शरीर काय योग ११ वैक्रिय Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौवीस दण्डक । (८६) mmmmmmmmmmaaraaman शरीर काय योग १२ वैक्रिय मिश्र शरीर काय योग १३ आहारिक शरीर काय योग १४ आहारिक मिश्र शरीर काय योग १५ कार्मण शरीर काय योग । १७ उपयोग द्वार-उपयोग बारह-१ मति ज्ञान उपयोग २ श्रुत ज्ञान उपयोग ३ अवधि ज्ञान उपयोग ३ मनः पर्यव ज्ञान उपयोग ५ केवल ज्ञान उपयोग ६ मति अज्ञान उपयोग ७ श्रुत अज्ञान उपयोग ८ विभंग अज्ञान उपयोग ६ चक्षु दर्शन उपयोग १० अचच दर्शन उपयोग ११ अवधि दर्शन उपयोग १२ केवल दर्शन उपयोग । १८ आहार द्वार-आहार तीन-१ ओजस आहार २ रोम आहार ३ कवल आहार यह सचित आहार,अचित श्राहार, मिश्र आहार ( तीन प्रकार का होता है । ) १६ उत्पति द्वार-चोवीस दण्डक का आवे । सात नरक का एक दण्डक १, दश भवन पति के दश दण्डक, ११, पृथ्वीकाय का एक दण्डक, १२, अपकाय का एक दण्डक, १३, तेजस काय का एक, १४, वायु काय का एक, १५, वनस्पति काय का एक, १६, बेइन्द्रिय का एक, १७, त्रैन्द्रिय का एक, १८ चोरिन्द्रिय का एक, १६, तियश्च पंचेन्द्रिय का एक, २०, मनुष्य का एक, २१, वाण व्यन्तर का एक, २२, ज्योतिषी का एक, २३, वैमानिक का एक, २४, । Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६०) थोकडा संग्रह। २० स्थिति द्वार:स्थिति जघन्य अन्तर रहते की उत्कृष्ट तेंतीस सागरोपम की। २१ मरण द्वार:-समोहिया मरण, असमोहिया मरण । समोहिया मरण जो चींटी की चाल के समान चाले व असमाहिया मरण जो दड़ी के समान चाले ( अथवा बन्दूक की गोला समान) , २२ चवण द्वारः- चोवीस ही दण्ड क में जावे-पहले कहे अनुसार। प्रागति द्वार:-चार गति में से आवे १ नरक गति में से २ तियेच गति में से ३ मनुष्य गति में से ४ देव की गति में से । गति द्वार:-पांच गति में जावे १ नरक गति में २तियञ्च गति में ३ मनुष्य गति में ४ देव गति में ५ सिद्ध गति में। ॥ इति समुच्चय चोवीस द्वार ।। नारकी का एक तथा देवता के तेरह दण्डक एवं १४ दण्डक लिख्यते शरीर द्वार:नारकी में शरीर पावे तान १ वैक्रिय २ तेजस् ३ कार्माण । देवता में शरीर तीन १ वैक्रिय २ तेजस् ३ कार्माण । Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चोवीस दण्डक । (६१) अवगाहन द्वार:१ पहेली नारकी की अवगाहना जघन्य अङ्गुल के असंख्य तवें भाग,उत्कृष्ट पोना पाठ धनुष्य और छः अङ्गुल। २ मरी नारकी की अवगाहना जघन्य अङ्गुल के असंख्यातवें भाग, उत्कृष्ट साड़ा पन्द्रह धनुष्य व चार अङ्गुल । ३ तीसरी नारकी की अवगाहना जघन्य अङ्गुल के असंख्यातवें भाग, उत्कृष्ट सवाएकतीस धनुष्य की । ४ चौथी नरक की अवगाहना जघन्य अङ्गुल के असंख्यातवें भाग, उत्कृष्ट साड़ा बासठ धनुष्य की । ५ पांचवें नरक की जघन्य अङ्गुल के असंख्यातवें उत्कृष्ट १२५ धनुष्य की। ६ छठे नरक की जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग, उत्कृष्ट २५० धनुष्य की। ___ ७ सातवें नरक की जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग, उत्कृष्ट ५०० धनुष्य की । उत्तर वैक्रिय करे तो जघन्ध अंगुल के असंख्यातवें भाग,उत्कृष्ट-जिस नरक की जितनी उत्कृष्ट अवगाहना है उससे दुगनी वैक्रिय करे (यावत् सातवें नरक की एक हजार अवगाहना जानना ।) १ भवन पति के देव व देवियों की अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग उत्कृष्ट सात हाथ की। Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२) थोकडा संग्रह A vi २ बाण व्यन्तर के देव व देवियों की अवगाहन जघन्य अंगुल के अंसख्यातवें भाग उत्कृष्ट सात हाथ की। ज्योतिषी देव व देवियों की अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग उत्कृष्ट सात हाथ की। वैमानिक की अवगाहना नीचे लिखे अनुसार:___ पहले तथा दूसरे देवलोक के देव व देवियों की जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग, उत्कृष्ट सात हाथ की। तीसरे, चौथे देवलोक के देव की जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग, उत्कृष्ट छः हाथ की । पांचवें, छोटे देवलोक के देवों की जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग, उत्कृष्ट पांच हाथ की। सातवें, आठवें देवलोक के देवों की जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग, उत्कृष्ट चार हाथ की। नववे, दशवें, इग्यारहवें व बारहवें देवलोक के देवों की जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग, उत्कृष्ट तीन हाथ की। नव गैवेक (ग्रीयवेक) के देवों की जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग, उत्कृष्ट दो हाथ की । चार अनुत्तर विमान के देवों की जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग,उत्कृष्ट एक हाथ की। __ : पांचवें अनुत्तर विमान के देवों की जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग, उत्कृष्ट मूढा (एक मूंठ कम ) हाथ की। भवनपति से लगाकर बारह देवलोक पर्यन्त उत्तर Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चोवीस दण्डक । (६३) वैक्रिय करे तो जघन्य अंगुल के संख्यातवें भाग, उत्कृष्ट लक्ष योजन की। ___ नव ग्रेवेक तथा पांच अनुत्तर विमान के देव उत्तर वैक्रिय नहीं करते। ३ संघयन द्वार। नरक के नेरिये असंघयनी । देव असंघयनी। ४ संस्थान द्वार। नरक में हुएडक संस्थान वं देवलोक के देवों का समचतुरस्त्र संस्थान । ५ कषाय द्वार। नरक में चार कषाय व देवलोक में भी चार । ६संज्ञा द्वार:नारकी में संज्ञा चार, देवलोक में संज्ञा चार । ७ लेश्या द्वार:नारकी में लेश्या तीन: पहली दूसरी नरक में कापोत लेश्या। तीसरी नरक में कापोत व नील लेश्या । चौथी नरक में नील लेश्या। पांचवीं नरक में कृष्ण व नील लेश्या । • छठी नरक में कृष्ण लेश्या । • सातवीं नरकं में महाकृष्ण लेश्या । Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६४ ) थोकडा संग्रह | भवन पति व वाणत्र्यन्तर में चार लेश्या १ कृष्ण २ नील ३ कापोत ४ तेजो । ज्योतिषी, पहेला व दूसरा देवलोक में - १ तेजोलेश्या । तीसरे, चौथे व पांचवें देवलोक में - १ पद्म लेश्या । छठे देवलोक से नववेक (ग्रीयवेक) तक १ शुक्ल लेश्या । पांच अनुत्तर विधान में - १ परम शुक्ल लेश्या । ८ इन्द्रिय द्वार: नरक में पांव व देवलोक में पांच इन्द्रिय । ६ समुद्र घात द्वारः नरक में चार ३ मारणान्तिक ४ वैक्रिय । मुद्धात १ वेदनीय २ कषाय देवताओं में पांच-१ वेदनीय २ कषाय ३ मारणांतिक ४ वैपि ५ तेजस् । भवन पति से बारहवें देवलोक तक पांच समुद्घात नवग्रीयवेक से पांच अनुत्तर विमान तक तीन समुद्घात १ वेदनीय २ का ३ मारणांतिक । १० संज्ञी द्वार:-- पहली नरक में संज्ञी व * श्रसंज्ञी और शेष नरकों में संज्ञी | * ज्ञ तिर्यञ्च मर कर इस गति में उत्पन्न होते हैं, अपर्याप्ता दशा में संज्ञी है। पर्याप्ता होने बाद अवधि तथा विभंग ज्ञान उत्पन्न होता है । इस अपेक्षा से समझना चाहिये । Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चोवीस दण्डक । भवन पति, वाण व्यन्तर में - संज्ञा, श्रसंज्ञी | ज्योतिषी से अनुत्तर विमान तक संज्ञी | ११ वेद द्वारः- नरक में नपुंपक वेद, भवन पति, वाण व्यन्तर, ज्योतिषी, तथा पहले दूसरे देवलोक में १ स्त्री वेद २ पुरुष वेद शेष देवलोक में १ पुरुष वेद । १२ पति द्वार: ( १५ ) ( भाषा, व मन दोनों एक साथ बांधते हैं ) नरक में पर्याप्त पांच और अपर्याप्त पांच, देवलोक में पर्याप्त पांच और पर्याप्त पांच | १३ दृष्टि द्वार : - नरक में दृष्टि तीन, भवन पति से बारहवें देवलोक तक दृष्टि तीन, नव ग्रीयवेक में दृष्टि दो ( मिश्र दृष्टि छोड़ कर ) पांच अनुत्तर विमान में दृष्टि १ सम्बगू दृष्टि । १४ दर्शन द्वार: नरक में दर्शन दीन- १ चक्षु दर्शन २ श्रचतु दर्शन ३ अवधि दर्शन | देवलोक में दर्शन तीन - १ चक्षु दर्शन २ श्रचतु दर्शन. ३ अवधि दर्शन | १५ ज्ञान द्वारः नरक में तीन ज्ञान व तीन अज्ञान । भवन पति से नव - Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६६) थोकडा संग्रह। ग्रीयवेक तक तीन ज्ञान व तीन अज्ञान । पांच अनुत्तर विमान में केवल तीन ज्ञान, अज्ञान नहीं । १६ योग द्वार:नरक में तथा देवलोक में इग्यारह इग्यारह योग१ सत्य मनयोग २ असत्य मनयोग ३ मिश्र मन योग ४व्यवहार मन्योग ५सत्य वचन योग ६असत्य वचन योग ७मिश्र वचन योग ८ व्यवहार वचन योग 8 वैक्रिय शरीर काय योग१०वैक्रिय मित्र शरीर काय योग११कार्मण शरीर काय योग । .. १७ उपयोग द्वार:नरक, व भवन पति से नव ग्रीयवेक तक उपयोग नव-१ मति ज्ञान उपयोग २ श्रुत ज्ञान उपयोग ३ अवधि ज्ञान उपयोग ४ मति अज्ञान उपयोग ५ श्रुत अज्ञान उपयोग ६ विभंग ज्ञान उपयोग ७ चक्षु दर्शन उपयोग ८ अचक्षु दर्शन उपयोग ६ अवधि दर्शन उपयोग।। पांच अनुत्तर विमान में ६ उपयोग तीन ज्ञान और तीन दर्शन । १८ पाहार द्वार:. नरक व देवलोक में दो प्रकार का आहार १ ओजस २ रोम छः ही दिशाओं का आहार लेते हैं । परन्तु लेते है एक प्रकार का नेरिये अचित्त आहार करते हैं किन्तु अशुभ और देवता भी अचित्त आहार करते है किन्तु शुभ । Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चोवीस दण्डक । (१७) १६ उत्पत्ति द्वार और २२ चवन द्वार: पहली नरक से छठो नरक तक मनुष्य व तिथंच पंचन्द्रिय- इन दो दण्डक के प्रांत हैंदो ही ( मनुष्य, तिर्यच ) दण्डक में जाते हैं। - सातवीं नरक में दो दण्ड क के अात है-मनुष्य व तिच, व एक दण्डक में-तिर्यंच पंचेन्द्रिय-में जाते हैं। भवन पति, वाण व्यन्तर, ज्योतिषी तथा पहले दूसरे देवलोक में दो दण्डक-मनुष्य व तिर्यंच के प्रति हैं व पांच दण्डक में जाते हैं १ पृथ्वी २ अप ३ वनस्पति, ४ मनुष्य ५ तिर्यच पंचेद्रिय। . तीसरे देवलोक से आठवें देवलोक तक दो दण्डक मनुष्य और तिर्यव-का अब और दो ही दण्डक में जाये। । नवमें देवलोक से अनुत्तर विमान तक एक दण्डक मनुष्य का आवे और एक मनुष्य-ही में जावे । २० स्थिति द्वारःपहले नरक के नरियों की स्थिति जघन्य दश हजार वर्ष की, उत्कृष्ट एक सागर की। दूसरे नरक की ज० १ सागर की,उ०३ सागर की। तीसरे नरक की ज० ३ सागर की,उ०७ सागर की। चौथे नरक की ज०७ सागर की उ०१० सागर की। पांचवें नरक की ज०१०सागर की, उ०१७सागर की। छठे नरक की ज०१७ सागर की,उ० २२ सागर की। ____ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६८) थोकड! संग्रह। सातवें नरक की ज०२२ सागर की,उ०३३ सागर की। दक्षिण दिशा के असुर कुमारके देव की स्थिति जघन्य दश हजार वर्ष की उत्कृष्ट एक सागरोपम की । इनकी देवियों की स्थिति जघन्य दश हजार वर्ष की उत्कृष्ट ३॥ पल्योपम की । इनके नवनिकाय के देवों की स्थिति जघन्य दश हजार वर्ष की उत्कृष्ट १॥ पल्योपम की । इनकी देवियों की स्थिति जघन्य दश हजार वर्ष की उत्कृष्ट पौन पल्यकी। उत्तर दिशा के असुर कुमार के देवों की स्थिति जघन्य दश हजार वर्ष की, उत्कृष्ट एक सागर जारी । इनकी देवियों की स्थिति ज, दश हजार वर्ष की, उ. ४॥ पल्य की । नवनिकाय के देव की ज, दश हजार वर्ष उ. देश उणा (कम) दो पल्योपम की, इनकी देवियों की ज. दश हजार वर्ष की उ. देश उणा (कम)एक पल्योपन की। वाण व्यन्तर के देव की स्थिति ज. दश हजार वर्ष की, उ. एक पल्प की । इनकी देवियों की ज. दरा हजार वर्ष की, उ. अध पल्य की। चन्द्र देव की स्थिति ज, पाव पल्य की उ.एक पल्य और एक लक्ष वर्ष की। देवियों की स्थिति ज. पाव पल्य की उ. अध पल्य और पचास हजार वर्ष की । सूर्य देव की स्थिति ज. पाव पल्य की उ. एक पल्य और एक हजार वर्ष की । देवियों की ज. पाव पल्य की उ, अर्ध पल्य और पांचसो वर्ष की। Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चोवीस दण्डक । (ER) ग्रह (देव) की स्थिति ज, पाव पल्य की उ, एक पल्य की। देवी की ज.पाव पल्य की उत्कृष्ट अर्ध पन्य की। नक्षत्र की स्थिति ज. पाव पल्प की उ. अर्ध पल्य की। देवी की ज. पाव पल्य की उ. पाव पल्य जाजरी । तारा की स्थिति ज. पल्य के आठवें भाग उ. पाव पल्य की। देवी की ज. पल्य के आठवें भाग उ. पल्य के आठवें भाग जाजरी। पहले देवलोक के देव की ज. एक पल्य की उ. दो सागर की। देवी की ज. एक पल्प की उ. सात पल्य की। अपरिगृहिता देवी की ज. एक पल्य की उ. ५० पल्य की। दूसरे देवलोक के देव की ज. एक पल्य जाजेरी उ. दो सागर जाजेरी, देवी की ज. एक पल्य जाजेरी उ. नव पल्य की । अपरिगृहिता देवी की ज, एक पल्य जाजरी उ. पंचावन पल्य की। तीसरे देवलोक के देव की ज.२ सागर की उ.७ सागर चौथे " " " " "२ "जाजेरी" ७" जा. पांचवें " "" ""७" की "१०" की छ " "" " १० "" ॥१४॥" सातवें "."" १४ ॥ " "१७" " आठवें " " " ॥ १७ ॥ " ॥१८॥" " " " १८"" "१६"" दश " "" "१8 " ॥२० ॥ नवें " Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१००) थोकडा संग्रह। इग्यारवें " "" "२० " " "२१" " बारवें " " " " २१ पहेली ग्रीयवेक" " " २२ " " "२३" " दसरी " " " " २३ तीसरी " "" " चौथी " " " " " २५ " " "२६" " पांचवी " " " " छठा "" " २७ " सातवीं , ,, , २८, आठवीं " " " २६ , नवीं " , , , ३० ,, , , चार अनुत्तरावमान,, , , ३१ , , ,३३,,, पांचवें अनुत्तर विमान की ज. उ. ३३ सागरोपम की । २१ मरण द्वार:१ समोहिया और २ असमोहिया। २३ अागति और २४ गति द्वार: पहली नरक से छठी नरक तक दो गति-मनुष्य और तिथंच--का आवे और दो गति--मनुष्य, तिथंच में जावे । सातवीं नरक में दो गति -मनुष्प,तिर्यंच का आवे और एक गति-तिर्यंच में जावे। ___ भवन पति,वाण व्यन्तर,ज्योतिषी यावत् आठवें देवलोक तक दो गति-मनुष्य और तिर्यच का आवे और दो गतिमनुष्य और तिथंच में जावे । Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चे. वीस दण्डक। ( १०१) नवें देवलोक से स्वार्थ सिद्ध तक एक गति-मनुष्य का आवे और एक गति-मनुष्य-में जावे । ॥ इति नारकी तथा देव लोक का २४ दण्डक ॥ पांच एकन्द्रिय का पांच दण्डक ॥ वायु काय को छोड़ शेष चार एकेन्द्रिय में शरीर तीन १ औदारिक २ तेजस् ३ कार्मण । वायुकाय में चार शरीर १ औदारिक २ वैक्रिय ३ तेजस् ४ कार्मण। अवगाहन द्वार:पृथ्व्यादि चार एकेन्द्रिय को अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग उत्कृष्ट अंगुल के असंख्यातवें भाग। वनस्पति की अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग उत्कृष्ट हजार योजन जाजेरी कमल नाल पाश्री । ३ संघयन द्वार:पांच एकेन्द्रिय में सेवात संघयन । ४ संस्थान द्वार:पांच एकेन्द्रिय में हुण्डक संस्थान । ५ कषाय द्वार:पांच एकेन्द्रिय में कषाय चार । ६ संज्ञा द्वार:पांच एकेन्द्रिय में संज्ञा चार । Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०२) थोकडा संग्रह। ७ लेश्या द्वार:__ पृथ्वी, अप व वनस्पति काय के-अपर्याप्ता में लेश्या चार १ कृष्ण २ नील ३ कापोत ४ तेजो । पर्याप्ता में तीन-१ कृष्ण २ नील ३ कापोत । तेजस् ( अग्नि ) और वायुकाय में तीन-१ कृष्ण २ नील ३ कापोत । ८ इन्द्रिय द्वार:पांच एकेन्द्रिय में एक इन्द्रिय-स्पर्शेन्द्रिय । समुद्घात द्वार:वायु काय को छोड़ कर शेष चार एकेन्द्रिय में तीन समुद्घात १ वेदनीय २ कषाय ३ मारणान्तिक । वायु काय में चार १ वेदनीय २ कषाय ३ मारणान्तिक ४ वैक्रिय। १० सज्ञी द्वार:पाचों एकोन्द्रिय असंज्ञी। ११ वेद द्वार:पांच एकेन्दिय में नपुंसक वेद । १२ पर्याप्ति द्वार:पांच एकेन्द्रिय में पर्याप्ति चार (पहेली) अपर्याप्ति चार। १३ दृष्टि द्वार:पांच एकेन्द्रिय में एक मिथ्यात्व दृष्टि । १४ दर्शन द्वारःपांच एकेन्द्रिय में एक अचक्षु दर्शन । Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चोवीस दण्डक । (१०३) १५ ज्ञान द्वार:पांच एकेन्द्रिय में दो अज्ञान १ मति अज्ञान २ श्रुत अज्ञान । १६ योग द्वार:वायु काय को छोड़ कर शेष चार एकेन्द्रिय में योग तीन१ औदारिक शरीर काय योग २ औदारिक मिश्र शरीर काय योग ३ कार्मण शरीर काय योग। वायु काय में योग पांच १ औदारिक शरीर काय योग २ औदारिक मिश्र शरीर काय योग ३ वैक्रिय शरीर काय योग ४ वैक्रिय मिश्र शरीर काय योग ५ कामेण शरीर काय योग। १७ उपयोग द्वार:पांच एकेन्द्रिय में उपयोग तीन १ मति अज्ञान २ श्रुत अज्ञान ३ अचक्षु दर्शन । १८ श्राहार द्वार:___पांच एकेन्द्रिय तीन दिशाओं का, चार दिशाओं का, पांच दिशाओं का आहार लेवे व्याघात न पड़े तो छः दिशाओं का आहार लेवे आहार दो प्रकार का १ ओजस २ गेम ये १ सचित २ अचित ३ मिश्र तीनों तरह का लेते हैं। १६ उत्पति द्वार २२ चवन द्वार:पृथ्वी, अपू, वनस्पति काय में नरक छोड़ कर शेष २३ दण्डक का आवे और दश दण्डक में जाते-पांच Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०४) . थोकडा संग्रह । एकेन्द्रिय तीन विकलेन्द्रिय, मनुष्य व तिर्यच एव दश दण्डक। तेजस् काय, वायु काय में दश दण्डक का आवेपांच एकेन्द्रिय, तीन विकलेन्द्रिय, मनुष्य, तिथंच-एवं दश और नव दण्ड क में जावे,मनुष्य छोड़ कर शेष ऊपर समान। २० स्थिति द्वार:पृथ्वी काय की स्थिति जघन्य अन्तर मुहूर्त की उत्कृष्ट बावीस हजार वर्ष की । अप् काय की जवन्य अन्तर : हूत की उत्कृष्ट सात हजार वर्ष की । तेजम् काय की ज. अन्तर मुहूर्त की उ. तीन अहोरात्रि की । वायु काय की ज. अन्तर मुहूर्त की उ. तीन हजार वर्ष की । वनस्पति काय की ज. अन्तर सुहूर्त की उ. दश हजार वर्ष की । २१ मरण द्वार:इनमें समाहिया मरण और असमोहिया मरण दोनों होते हैं। - २३ प्रागति द्वार २४ गति द्वार:- पृथ्वी काय,अप काय,वनस्पति काय,इन तीन एकेन्द्रिय में तीन-१ मनुष्य २ तिर्थच ३ देव-गति का आवे और १ मनुष्य २ तीर्थच-दो गति में जावे। तेजस और वायु काय में १ मनुष्य २ तिर्थच दो गति का आवे और तिथंच एक गति में जावे। ॥ इति पांच एकेन्द्रिय का पांच दण्डक सम्पूर्ण ॥ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चोवीस दराडक। , ८.१०५) बे इन्द्रिय, त्रेन्द्रिय, चौरिन्द्रिय और तिर्यच संमूर्छिम पंचेन्द्रि के दण्डक शरीर द्वार:बेइन्द्रिय, त्रेन्द्रिय, चौरिन्द्रिय व तिर्यच संमूर्छिम पंचेन्द्रिय में शरीर तीन १ औदारिक २ तैजम् ३ कामण । २ अवगाहन द्वार:बेइन्द्रिय की अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग उत्कृष्ट बारह योजन की । इन्द्रिय की अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग उत्कृष्ट तीन गाउ (६ मील) की । चौरिन्द्रिय की जघन्य अगुंल के असंख्यातवें भाग उत्कृष्ट चार गाउ की । तिथंच संमूर्छिम पंचेन्द्रिय की ज. अंगुल के असंख्यातवें भाग. उ. नीचे अनुसार:गाथा-जोयण सहस्स, गाउअ पुहृत्तं तत्तो जोयण पुत्तं; दोण्हं तु धणुह पुहुत्तं समूछीमें होइ उच्चत्तं. १ जल चर की एक हजार योजन की। २ स्थलचर की प्रत्येक गाउ की (दो से नव गाउ तक की) ३ उरपर (सर्प) की प्रत्येक योजन की (दो से नव योजन तक) Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०६ ) ४ भुजपर (सर्प) की प्रत्येक धनुष्य की ( दो से नव धनुष्य तक की ) ५ खेचर की प्रत्येक धनुष्य की (दा से नव धनुष्य की) ३ संघयन द्वार: तीन विकलेन्द्रिय ( बेइन्द्रिय वैन्द्रिय चौरिन्द्रिय ) और तीर्थंच समूमि पंचेन्द्रिय में संघयन एक-सेवार्त्त । ४ संस्थान द्वार: तीन विकलेन्द्रिय और मूर्छिम पंचेन्द्रिय में संस्थान एक - हुण्डक । ५ कषाय द्वार: कषाय चार ही पावे । ६ संज्ञा द्वार: संज्ञा चार ही पावे । थोकडा संग्रह | ७ लेश्या द्वार: लेश्या तीन पावे १ कृष्ण २ नील ३ कापोत / ८ इन्द्रिय द्वार: amb बेइन्द्रिय में दो इन्द्रिय-१ स्पर्शेन्द्रिय २ रसेन्द्रिय (मुख) त्रेन्द्रिय में तीन इन्द्रिय १ स्पर्शेन्द्रिय २ रसेन्द्रिय ३ घ्राणेन्द्रिय । चौरिन्द्रिय में चार इन्द्रिय-१ स्पर्शेन्द्रिय २ रसेन्द्रिय ३ घ्राणेन्द्रिय ४ चतु इन्द्रिय | तिर्यंच संमूर्छिम में पांच इन्द्रिय- १ स्पर्शेन्द्रिय २ सेन्द्रिय ३ घ्राणेन्द्रिय ४ चक्षुः न्द्रिय ५ श्रुतन्द्रिय । Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चोवीस दण्डकः । ( १०७) समुद्घात द्वार:इन में समुद् घात तीन पावे-१ वेदनीय २ कषाय ३ मारणांतिक । १० संज्ञी असंज्ञी द्वारःतीन विकलेन्द्रिय तथा संमूर्छिम तिर्यच पंचेन्द्रिय, असंज्ञी। ११ वेद द्वार:इन में वेद एक- नपुसंक। १२ पर्याप्ति द्वार:पर्याप्ति पावे पांच १ आहार पर्याप्ति २ शरीर पर्याप्ति इन्द्रिय पर्याप्ति ४ श्वासोश्वास पर्याप्ति ५ भाषा पर्याप्ति । १३ दृष्टि द्वार:चे इन्द्रिय, त्रेन्द्रिय, चौरिन्द्रिय तथा तिर्यंच संमूर्छिम पंचेन्द्रिय के अपर्याप्ति में दृष्टि दो १ समकित दृष्टि २ मिथ्यात्व दृष्टि । पयाप्ति में एक मिथ्यात्व दृष्टि । १४ दर्शन द्वार बेइन्द्रिय, बीइन्द्रिय में दर्शन एक १ अचक्षु दर्शन चारिन्द्रय और तिथंच संमूर्छिम पंचेन्द्रिय में दो-१ चक्षु दर्शन २ अचक्षु दर्शन। १५ ज्ञान द्वार अपर्याप्ति में ज्ञान दो:-१ मति ज्ञान २ श्रुत ज्ञान, अज्ञान दो १ मति अज्ञान २ श्रुत अज्ञान, पर्याप्ति में अज्ञान दो। ___ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०८) थोकडा संग्रह। १६ योग द्वार इनमें योग पावे चारः-१औदारिक शरीर काय योग २ औंदारिक मिश्र शरीर काय योग ३ कामेण शरीर काय योग ४ व्यवहार वचन योग । १७ उपयोग द्वार बे इन्द्रिय, त्री इन्दिय के अपर्याप्ति में पांच उपयोग १ मति ज्ञान २ श्रत ज्ञान ३ मति अज्ञान ४ श्रुत अज्ञान ५ अचच दर्शन पर्याप्ति में तीन उपयोग-दो अज्ञान और एक-अचक्षु-दर्शन । चौरिन्द्रिय और तिथंच संमूर्णिम पंचेन्द्रिय के अपर्याप्ति में छः उपयोग १ मति ज्ञान उपयोग २ श्रुत ज्ञान उपयोग ३ मति अज्ञान उपयोग ४ श्रुत अज्ञान उपयोग ५ चतु दर्शन ६ अचक्षु । पर्याप्ति में चार उपयोग-दो अज्ञान और दो दर्शन । १८ आहार द्वार आहार छः दिशाओं का लेवे, आहार तीन प्रकार का ओजस् २ रोम ३ कवल और १ सचित २ चित्त ३ मिश्र। १६ उत्पति द्वार २२ चवन द्वार वे इन्द्रिय, त्री इन्द्रिय, चौरिन्द्रिय में, दश दण्डकपांच एकेन्द्रिय, तीन विकलेन्द्रिय, मनुष्य और तिर्यंच-का श्रावे और दश ही दण्डक में जावे । तियेच संमूर्छिम पंचेन्द्रिय में दश दण्डक का आवे- (ऊपर कहे हुवे) और Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'चोवीस दण्डक। (१०६) ज्योतिषी वैमानिक इन दो दण्डक को छोड़ कर शेष २२ दएडक में जावे। २० स्थिति द्वार बे इन्द्रिय की स्थिति जघन्य अन्तर मुहूर्त की उत्कृष्ट बारह वर्ष की । त्रीइन्द्रिय की स्थिति जघन्य अन्तर मुहूर्त की उत्कृष्ट ४६ दिन की । चौरिन्द्रिय की ज० अन्तर मुहूर्त की उत्कृष्ट छः मास की। तिर्यंच संमूर्छिम पंचेन्द्रिय की नीचे अनुसारगाथा-पुव्व क्कोड़ चउराशी, तेरन, बायालीस, बहुत्तेर । __ सहसाई वासाई समुछिमे आउयं होइ ॥ ___ जलचर की स्थिति जघन्य अन्तर मुहूर्त की उत्कृष्ट क्रोड़ पूर्व वर्ष की । स्थलचर की जघन्य अन्तर मुहूर्त की उ० चोराशी हजार वर्ष की । उरपर (सर्प) की जघन्य अन्तर मुहूर्त की उत्कृष्ट ५३ हजार वर्ष की, भुज पर (सपे) की जघन्य अन्तर मुहुत की उत्कृष्ट ४२ हजार वर्ष की, खेचर की जघन्य अन्तर मुहूर्त की उत्कृष्ट ७२ हजार वर्ष की। २१ मरण द्वार समोहिया परण:-चीटी की चाल के समान जिस की गति हो। असमोहिया मरण:-बन्दुक की गोली के समान जिसकी गति हो। Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११० ) २३ गति द्वार २४ गति द्वार बे इन्द्रिय, त्री इन्द्रिय, चौरिन्द्रिय में दो गति- मनुष्य और तिर्येच का आवे और दो गति मनुष्य तिर्थच में जावे । तिर्यच संमूर्छिम पंचेन्द्रिय में दो-मनुष्य और तिर्यच-गति का जावे और चार गति में जावे १ नरक २ तिच ३ मनुष्य ४ देव । ॥ इति तीन विकलेन्द्रिय और तिर्यंच संमूर्व्विम ॥ तिर्यंच गर्भज पंचेंद्रिय का एक डंडक ( १ ) शरीर :- तिर्यच गर्भेज पंचद्रिय में शरीर ४:१ दोरिक २ वैक्रियक ३ तेजस ४ कार्मण ( २ ) अवगाहना । थोकडा संग्रह | गाथाः - जोयण सहस्सं च गाउ आईं ततो जोयण सहस्सं गाउ पुहृत्तं भुजये घरगुह पुहुत्तं च पक्खीसु । जलचरकी - जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग, उत्कृष्ट एक हजार योजन की । स्थलचरकी :- जघन्य अंगुल के श्रसंख्यातवें भाग, उत्कृष्ट छ गाउकी । उरपरी सर्प की: - जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग, उत्कृष्ट एक हजार योजन की । Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चोवीस दण्डक । (१११ ) mammammmmmmmmmmmmm. amarorammnamammmmmmmmmmmmnarmnanawwwwwwwww भुजपरीसर्पकीः जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग, उत्कृट प्रत्येक गाउकी। खेचरकी:-जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग, उत्कृष्ट प्रत्येक धनुष्यकी। उत्तर वैक्रिय करे तो जघन्य अंगुल के अंसख्यातवें साग उत्कृष्ट ६०० योजनकी। (३) संघयन द्वार:-तिर्थच गर्भज पंचीद्रयमें संघयन छ। (४) संस्थान द्वार:-संस्थान छ । (५) कषाय द्वार:-कषाय चार । (६) संज्ञा द्वार:-संज्ञा चार । (७) लेश्या द्वार:-लेश्या छ। (८) इंद्रिय द्वारः- इंद्रिय पांच । (8) समुद्घात द्वार:--समुद्घात पांच:-१ बेदनीय २ वषाय ३ मारणांतिक ४ क्रिय ५ तेजस्। (१०) संज्ञी द्वार:-संज्ञी। (११) वेद द्वार:-वेद तीन । (१२) पर्याप्ति द्वार:-पर्याप्ति छ और अपर्याप्ति छ । (१३) दृष्टि द्वार:- दृष्टि तीन । (१४) दर्शन द्वार:-दर्शन तीन: -१ चनु दर्शन र अचच दर्शन ३ अवधि दर्शन। Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११२) थोकडा संग्रह । (१५) ज्ञान द्वार:-ज्ञान तीन:- १ मति ज्ञान २ श्रुतज्ञान ३ अवधि ज्ञान । अज्ञान भी तीन १ मति अज्ञान २ श्रुत अज्ञान ३ विभंग ज्ञान । (१६) योग द्वार:-योग तेरा:-.१ सत्य मनयोग २ अस त्य मनयोग ३ मिश्र मनयोग ४व्यवहार मनयोग ५ सत्य बचनयोग ६ असत्य वचनयोग ७ मिश्र वचन योग ८ व्यवहार वचन योग ६ औदारिक शरीर काय योग १० औदारिक मिश्र शरीर काययोग ११ वैक्रिय शरीर काययोग १२ वैक्रिय मिश्र शरीर काययोग १३ कार्मण शरीर काययोग। (१७) उपयोग द्वार:-तिथच गर्नेज में उपयोग : (नो) १ मति ज्ञान उपयोग २ श्रुतज्ञान ३ अवधि ज्ञान उपयोग ४ मति अज्ञान उपयोग ५श्रुत अज्ञान उपयोग विभंग ज्ञान उपयोग ७चनु दर्शन उपयोग ८ अचच दर्शन उपयोग अवधि दर्शन उपयोग। (१८) माहार: माहार तीन प्रकार का । ___ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चोवीस दण्डक । ( १९३) (१६) उत्पत्तिद्वार:- ( २२ ) चवन द्वार:-चोवीस दंडक में उपजे, चोवीस दंडक में जावे। (२०) स्थिति द्वार:-जलचर की: जघन्य अन उत्कृष्ट करोड़ पूर्व वर्ष की। स्थलचर की:-जघन्य अन्तर्मुहूर्त उत्कृष्ट तीन पन्य की। उरपरि सर्प की:-जघन्य अन्तर्मुहूर्त उत्कृष्ट करोड़ पूर्व वर्ष की। भुजपरि सर्प की: जघन्य अन्तर्मुहूर्त उत्कृष्ट करोड़ पूर्व वर्ष की। खेचर की:- जघन्य अन्त मुहूर्त उत्कृष्ट पल्य के असंख्यातवें भाग की। (२१) मरण द्वार:-समोहिया मरण असमोहिया मरण । (२३) भागति द्वार (२४) गति द्वार:-तिर्यच गर्भेज .. पंचेद्रिय में चार गति के जीव आवे और चार गति में जावे । ॥ तिर्यंच पंचेन्द्रिय का दंडक सम्पूर्ण ॥ mai recent Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११४) थोकड। संग्रह। मनुष्य गर्भेज पंचेन्द्रिय का एक दंडक १ शरीर:-मनुष्य गर्भेज में शरीर पांच ।। २ अवगाहना द्वार:-अवसर्पिणी काल में मनुष्य गर्नेज की अवगाहना पहिला पारा लगते तीन गाउ की, उतरते और दो गाउ की, दूसरा पारा लगते दो गाउ की, उतरते एक गाउ की। तीसरे आरे लगते १ गाउकी उतरते आरे ५०० धनुष्य की चौथे आरे , ५०० धनुष्यकी,, ,, सात हाथ की पांचवें , , ७ हाथ की, , एक हाथ की छटे " " १ , , , , मूढा हाथ की उत्सर्पिणी काल में पहिले आरे लगते मुढा हाथ की उतरते आरे १ हाथ की दूसरे , , १ " " " " ७ हाथ की तीसरे ,, , ७ , , , , ५०० हाथ की चोथे ,, , ५०० धनुष्य की ,, , १ गाउ की पांचवे ,, , १ गाउ की, , २ " " छठे ,, , २ , , , , ३ " " मनुष्य वैकिय करे तो जघन्य अंगुल के संख्यातवें भाग उत्कृष्ट लक्ष जोजन जाजेरी ( अधिक ) ३ संघयन द्वार--संघयन छः ही पावे ४ संस्थान द्वार--संस्थान , , , ५ कषाय द्वार:-कषाय चार " Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चोचीस दण्डक । (१९५) ६ संज्ञा द्वार-पंज्ञा चार "" ७ लेश्या द्वार- लेश्या छः " " ८ इन्द्रिय द्वार-इन्द्रिय पांच " " ९ समुद्घात द्वार-समुद् घात सात" " १० सी द्वार-ये संज्ञी है। ११ वद द्वार-वेद तीन ही पावे १२ पर्याप्तिद्वार-इनमें पर्याप्ति छः अपर्याप्ति छ: २३ दृष्टि द्वार-" दृष्टि तीन १४ दर्शन "-" दर्शन चार १५ ज्ञान "-" ज्ञान पांच, अज्ञान तीन १६ योग "-" योग पन्द्रह १७ उपयोग"-" उपयोग बारह १८ श्राहार "--" आहार तीन प्रकार का १६ उत्पति द्वार-मनुष्य गर्भज में-तैजम् , वायु काय को छोड़ कर शेष बावीश दंडक का आवे । २२ चवन द्वार:-चोवीश ही दण्डक में जावे-ऊपर कहे अनुसार। __२० स्थिति द्वार अवसर्पिणी काल में पहिले आरेलगते तीन पल्यकी स्थिति उतरते आरे दो पल्यकी दूसरे " " दो " " " "एक" " तीसरे " " एक "" " " "करोड पूर्व" चौथे " " करोड़ पूर्व " " " "२००वर्ष उणी ___ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११६ ) थोकडा संग्रह। पांचवें" "२०० वर्ष उणी"" " "वीश वर्ष" छठे " " २० वर्ष की " " "सोलह"" - उत्सर्पिणी काल में पहिले आरे लगते १६ वर्ष की स्थिति उतरते आरे २० वर्षकी दुमरे " " २० वर्ष" " " " २०० वर्ष" तीसरे " " २००" " " " "करोड पर्व" चौथ ॥ " करोड पूर्व की " " "एक पल्य" पांचवें" " एक पल्य" " " "दो " " छठे , " दो" " " " "तीन" " ___ २१ मरण द्वारः-मरण दो-१ समोहिया और २ असमोहिया। २३ अागति द्वार:-मनुष्य गर्भज में चार गति का आवे १ नरक गति २ तिर्थच गति ३ मनुष्य गति ४ देव गति। २४ गति द्वार:-मनुष्य गर्भज पांच ही गति में जावे। ॥ इति मनुष्य गर्भेज का दण्डक सम्पूणे । मनुष्य संमूर्णिम का दण्डक १ शरीरः-इनमें शरीर पावे तीन--औदारिक, लैजस, कामर्ण। Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चोवीस दण्डक । २ अवगाहना द्वार इनकी श्रवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग व उत्कृष्ट अंगुल के असंख्यातवें भाग | ३ संघयन द्वार- इनमें संघयन एक-सेवार्त्त ४ संस्थान ". संस्थान एक हुएडक 97 अज्ञान । ५ कषाय ६ संज्ञा ७ लेश्या = इन्द्रिय है समुद्घात द्वार:- इन में समु० तीन वेदनीय, कषाय, मारणांतिक | " 19 97. 11 ABUNDANT'S " संज्ञा चार " -- " लेश्या तीन कृष्ण. नील, कापोत कपाय चार 99 ( ११७ ) - इन्द्रियं पांच १० संजी ११ वेद द्वार:-इन में वेद एक-नपुंसक १२ पर्याप्त द्वार : -,, पर्याप्ति चार, अपर्याप्त पांच १३ दृष्टि,,,, दृष्टि एक १ मिथ्यात्व दृष्टि १४ दर्शन,,,, दर्शन दो चक्षु और प्रचक्षु दर्शन १५ ज्ञान, -, ज्ञान नहीं, अज्ञान दो मति और श्रुत ,,, ये असंज्ञो हैं ! " १६ योग,,,, योग तीन १ औदारिक शरीर काय योग २ श्रदारिक मिश्र शरीर काय योग ३ कार्मण शरीर काय योग । Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११८) थोकडा संग्रह। monavr NNNNNAUJURN. १७ उपयोग द्वार उपयोग चार १ मति अज्ञान उपयोग २ श्रुत अज्ञान उपयोग ३ चक्षु दर्शन उपयोग ४ अचक्षु दर्शन उपयोग १८ पाहार द्वार आहार दो प्रकार का-ओजस्, रोम० वे सचित, अचित, मिश्र तीनों ही तरह का लेते हैं। १६ उत्पति द्वार मनुष्य संमूर्छिम में पाठ दण्डक का आवे ? पृथ्वी काय २ अप काय ३ वनस्पति काय ४ बे इन्द्रिय ५ त्री इन्द्रिय ६ चौरिन्द्रिय ७ मनुष्य ८ तिर्यच पंचेन्द्रिय । २२ चबन द्वार ये दश दण्डक में जावे-पांच एकेन्द्रिय तीन विकलेन्द्रिय मनुष्य और तिर्थच । २० स्थिति द्वार इनकी स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर मुहूर्त की। २१ मरण द्वार-मरण दो प्रकार का-समोहिया, असमोहिया । २३ अागति द्वार-इन में दो गति का प्राव-मनुष्य तिर्यच । २४ गति द्वार- दो गति में जावे-मनुष्य और तिर्यच Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चोवीस दण्डक । ( ११६) युगलिया का दण्डक १ शरीर द्वार-युगलियों में शरीर तीन १औदारिक २ तैजस् ३ कामण । २ अवगाहना द्वार हेम वय हिरण्य क्य में जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग उत्कृष्ट एक गाउ की, हरिवास रम्यक वास में जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग उत्कृष्ट दो गाउ की, देव कुरू, उत्तर कुरू में जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग उत्कृष्ट तीन गाउ की, छप्पन्न अन्तर द्वीप में आठ सो धनुष्य की। ३ संघयन द्वार युगलियों में संघयन एक १ वज्र ऋषभ नाराच संघयन ४ संस्थान द्वार युगलियों में संस्थान एक-१ समचतुरंस्त्र संस्थान । ५ कषाय द्वार:- युगलियों में कषाय चार । ६ संज्ञा द्वार- , , संज्ञा चार ७ लेश्या द्वार-, , लेश्या चार कृष्ण, नील, कपोत, तेजो ८ इन्द्रिय द्वार-" , इन्द्रिय पांच ६ समुद्घात , , , समुद्घात तीन १ वेदनीय २ कषाय ३ मारणांतिक १० संज्ञी द्वार-युगलिया संज्ञी । ___ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२०) थोकडा संग्रह। ११ वेद ,, -इनमें वेद दो १ स्त्री वेद, २ पुरुष वेद । १२ पर्याप्तिद्वार:--इनमें पर्याप्ति ६, अपर्याप्ति ६ । १३ दृष्टि द्वार:- पांच देव कुरू, पांच उत्तर कुरू में दृष्टि दो-१ सम्यग् दृष्टि २ मिथ्यात्व दृष्टि। पांच हरिवास पांच रम्यक वास, पांच हेमवय, पांच हिरण्य वय-इन वीश अकर्मभूमि में व छप्पन्न अन्तरद्वीप में दृष्टि १ मिथ्यात्व दृष्टि । १४ दर्शन द्वारः-इनमें दर्शन दो १ चक्षु दर्शन २ अचक्षु दर्शन। १५ ज्ञान द्वारः-* पांच देव कुरू, पांच उत्तर कुरू में दो ज्ञान--मति और श्रुत ज्ञान और २ अज्ञान-मति अज्ञान और श्रुत अज्ञान, शेष वीश अकर्म भूमि व छप्पन्न अन्तर द्वीप में दो अज्ञान १ मति अज्ञान और २ श्रुत अज्ञान ! १६ योग द्वार इन में योग ११:-१ सत्य मन योग २ असत्य मन योग ३ मिश्र मन योग४ व्यवहार मन योग ५ सत्य * ३० अकर्म भूमि में २ दृष्टि २ ज्ञान तथा २ अज्ञान होते हैं और ५६ अन्तर द्वीप में ही १ मिथ्यात्व दृष्टि व २ अज्ञान होते हैं ऐसा कई ग्रंथोमें वर्णन आता है। ___ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२१ ) चोवीस दण्डक । वचन योग ६ असत्य वचन योग ७ मिश्र वचन योग ८ व्यवहार वचन योग है औदारिक शरीर काय योग १० औदारिक मिश्र शरीर काय योग ११ कार्मण शरीर काय योग । १७ उपयोग द्वार * पांच देव कुरु, पांच उत्तर कुरु में उपयोग ६१ मति ज्ञान २ श्रुत ज्ञान ३ मति अज्ञान ४ श्रुत अज्ञान ५ चक्षु दर्शन ६ अचक्षु दर्शन । शेष वीश अकर्म भूमि व छप्पन्न अन्तर द्वीप में उपयोग ४: - १ मति अज्ञान २ श्रुत अज्ञान ३ चतु दर्शन ४ अचक्षु दर्शन । १८ आहार द्वार युगलियों में आहार तीन प्रकार का । १६ उत्पत्ति द्वार व २२ चवन द्वार तीश अकर्म भूमि में दो दण्डक का आवे १ मनुष्य २ तिर्यच और १३ दण्डक में जावेदश भवन पति के दश दण्डक, एक वाण व्यन्तर का एक ज्योतिषी का, एक वैमानिक का - एवं तेरह दण्डक । " छप्पन्न अन्तर द्वीप में दो दण्डक का वे मनुष्य और तिर्यच और इग्यारह दण्डक में जावे १० भवन पति और एक वाण व्यन्तर एवं इग्यारह में जावे । * ३० कर्म भूमि में ६ उपयोग (२ ज्ञान, २ अज्ञान, २ दर्शन ) और ५६ अन्तर द्वीप में ४ उपयोग ( २ अज्ञान, २ दर्शन ) ही होते हैं ऐसा अन्य ग्रंथो में वर्णन है । Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थोकडा संग्रह। २० स्थिति द्वार हेमवय, हिरण्य वय में जघन्य एक पल्य में देश उणी, उत्कृष्ट एक पल्य की। हरिवास रम्यक वास में जघन्य दो पल्य में देश उणी उत्कृष्ट दो पल्य की, देव कुरू उत्तर कुरू में जघन्य तीन पल्य में देश उणी उत्कृष्ट तीन पल्य की। छप्पन्न अन्तर द्वीप में जघन्य पल्य के असंख्यातवें भाग में देश उणी उत्कृष्ट पल्य के असंख्यातवें भाग । २१ मरण द्वार मरण २: - १ समोहिया और २ असमाहिया । २३ श्रागनि द्वार इनमें दो गति का आवे.. १ मनुष्य और २ तिर्थच । २४ गति द्वार ये एक गति-मनुष्य में जावे । ॥ इति युगलियों का दंडक संपूर्ण ।। hiss४९ सिद्धों का विस्तार १ शरीर द्वार:-सिद्धोंके शरीर नहीं। २ अवगाहना द्वार:-५०० धनुष्य देएमान वाले जो सिद्ध हुवे हैं उनकी अवगाहना ३३३ धनुष्य और ३२ अंगुल । uona! Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चिोवीस दण्डक। .. सात हाथ के जो सिद्ध हुवे हैं उनकी अवगाहना चार हाथ और सोलर अंगुल की। दो हाथ के जो सिद्ध हुवे है उनकी एक हाथ और आठ अंगुल की। ३ संघयन द्वार:-सिद्ध असंघयनी (संघयन नहीं)। ४ संस्थान द्वार- ,, असंस्थानी ( संस्थान नहीं)। ५ कषाय द्वार- ,, अकसायी ( कषाय नहीं)। ६ संज्ञा ,, - ,, में संज्ञा नहीं । ७ लेश्या ,, -,,, लेश्या , ८ इन्द्रिय ,, - ,, ,, इन्द्रिय नहीं। ६ समुद्रात,,-,,, समुद्घात , १० संज्ञी ,, - सिद्ध नहीं तो संज्ञी और न असंज्ञी। ११ वेद , - सिद्ध में वेद नहीं । १२ पर्याप्ति द्वार-सिद्ध न पर्याप्ति है और न अपर्याप्ति है। १३ दृष्टि द्वार-सिद्ध-सम्यग् दृष्टि । १४ दर्शन द्वार-सिद्ध में केवल एक दशन- केवल दर्शन । १५ ज्ञान द्वार:-सिद्ध में केवल ज्ञान ! १६ योग द्वार:-सिद्ध में योग नहीं । १७ उपयोग द्वार:-सिद्ध में उपयोग दो १ केवल ज्ञान २ केवल दर्शन । १८ आहार द्वार:-सिद्ध में आहार नहीं। . . १६ उत्पत्ति द्वार:-." " उत्पति नहीं। Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२४) थोकडा संग्रह। २० स्थिति द्वार: सिद्ध की प्रादि है परन्तु अन्त नहीं। २१ मरण द्वार:--सिद्ध में मरण नहीं। २२ चवन" :- सिद्ध चवते नहीं। २३ प्रागति":-सिद्ध में एक गति-मनुष्य का आवे। २४ गति ":--" " गति नहीं। ऐसे श्री सिद्ध भगवन्त को मेरा तीनों काल पर्यन्त नमस्कार होवे। ॥ इति श्री सिद्ध भगवन्त का विस्तार सम्पूर्ण ॥ -:॥ इति चोवीश दण्डक सम्पूर्णः Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ कर्म की प्रकृति । ( १२५ ) * आठ कर्म की प्रकृति * आठ कमों के नाम-१ ज्ञानावरणीय २ दर्शना वरणीय ३ वेदनीय ४ मोहनीय ५ श्रायुष्य ६ नाम ७ गौत्र ८ अन्तराय। इनके लक्षण १ ज्ञानावरणीय कर्म-सूर्य को ढांकने वाले बादल के समान २ दर्शनावरणीय कर्म-- राजा के समीप पहुँचाने में जैसे द्वारपाल है उस ( द्वारपाल ) समान । ३ वेदनीय कर्म साता वेदनीय मधु लगी हुई तलवार की धार समान-जिसे चाटने से तो मीठी मालूम होवे परन्तु जीभ कटजावे । असाता वेदनीय अफीम लगी हुई खड़ग समान। ४ मोहनी कर्म-- दारू (शराब) समान। ५ श्रायुष्य कर्म-राजा की बेड़ी समान जो समय हुवे बिना छूट नहीं सके। ६ नाम कम-चीतारा (पेन्टर ) समान--जो विविध प्रकार के रुप बनाता है। ७ गोत्र कर्म-कुम्भकार के चक्र समान जो मिट्टी के पिंड को घूमाता है। ८ अन्तराय कर्म-सर्व शक्ति रूप लक्ष्मी को रखता Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२६ ) भोकडा संग्रह। है जैसे राजा का भंडारी भंडार ( खजाना) को रखता है। आठ कर्म की प्रकृति तथा पाठ कर्मों का बन्ध कितने प्रकार से होता है व कितने प्रकार से वे भोगे जाते हैं, तथा आठ कर्मों की स्थिति आदि: १ ज्ञानावरणीय कर्म ज्ञानावरणीय कर्म की पांच प्रकृति १ मति ज्ञाना-- वरणीय २ श्रुत ज्ञानावरणीय ३ अवधि ज्ञानावरणीय ४ मनापर्यव ज्ञानावराय ५ केवल ज्ञानावणीय ।। ज्ञाना वरणीय कर्म छ प्रकारे बांधे-१ नाण-- प्पडिणियाए-ज्ञान तथा ज्ञानी का अवर्णवाद ले तो ज्ञानावरणीय कर्म बांध २ नाण निन्हणियाए ज्ञान देने वाले के नाम को छिपावे तो ज्ञाना वरणीय कर्म बांधे ३ नाण अन्तरायेणं-ज्ञान में (प्राप्त करने में ) अन्तराय ( बाधा ) डाले तो ज्ञानावरणीय कर्म बांधे ४ नाण पउसेणं-ज्ञान तथा ज्ञानी ९२ द्वेष करे तो ज्ञानावरणीय कर्म बांधे ५ नाण आसायणाए--ज्ञान तथा ज्ञानी की असानता (तिरस्कार, निरादर ) करे तो ज्ञानावरणीय कर्म बांधे ६ विसंपायण! जोगणं- ज्ञानी के साथ खोटा ( झूठा) विवाद करे ज्ञानावरणीय में बांधे। ॥ ज्ञानावरणीय कर्म १० प्रकारे भोगवे॥ - १ श्रोत आवरण २ श्रोत विज्ञान आवरण ३ नेत्र Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ कर्म की प्रकृति । (१२७ ) आदरण ४ नेत्र विज्ञान आवरण ५ घ्राण आवरण ६ घ्राण विज्ञान प्रावरण ७ रस अावरण ८ रस विज्ञान आवरण 8 स्पर्श आवरण १० स्पर्श विज्ञान प्रावरण । ज्ञानावरणीय कर्म की स्थिति जघन्य अन्तर मुहूर्त की उत्कृष्ट तीश करोड़ा करोड़ी सागरोपम की, अबाधा काल तीन हजार वर्षे का। ॐ दर्शनावरणीय कर्म का विस्तार ॥ दर्शनावरणीय कर्म की प्रकृति नव ॥ १ निद्रा--सुख से उंघे और सुख से जागे । २ निद्रा निद्रा -दुःख से उघ और दुःख से जागे । ३ प्रचला-बैठे २ उंधे।। ४ प्रचला प्रचला-बोलता बोलताव खातां खातां उधे। ५ थीणाद्धि (स्त्यानद्धि ) निद्रा--उंघ के अन्दर अर्ध वासुदेव का बल आवे । जब उघ के अन्दर ही उठ बैठे, उठ कर द्वार (किवाड़) खोले, खोल कर अन्दर से आभूषणों का डिब्बा और वस्त्रों की गठड़ी लेकर नदी पर जावे । वो डिब्बा हजार मन की शिला उठा कर उसके नीचे रखे व कपड़ों को धो कर घर पर आवे, सुबह सोकर उठे परन्तु मालूम होवे नहीं कि रात को मैंने क्या २ किया। डिब्बे को ढूंढे परन्तु घर में मिले नहीं। ऐसी निद्रा Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२८ ) थोकडा सग्रह। छ महिने बाद फिर आवे उस समय डिब्बा जहां रक्खा होवे वहां से लाकर घर में रखे पश्चात् काल करे । ऐसी निद्रा लेने वाला जीव मर कर नरक में जावे । इसे स्त्यानर्द्धि निद्रा कहते है। ६ चक्षु दर्शनावरणीय ७ अचक्षु दर्शना वरणीय ८ अवधि दर्शनावरणीय ह केवल दर्शनावरणीय । * दर्शणा वरणीय कर्म छ प्रकारे बांधे * १ देसण पडिणियाए-सम्यक्त्व तथा सम्यक्त्वी का अवर्णवाद बोले तो दर्शनावरणीय कर्म बांधे । २ दमण निणहणियाए-बोध बीज सम्यक्त्व दाता के नाम को छिपाव ता दर्शनावणीय कर्म बांधे । ३ सण अंतरायणं-यदि कोई समकित ग्रहण कर ता हो उसे अन्ताय देवे तो दर्शनावरणीय कर्म बांधे । ४ सण पाउसियाए-समक्ति तथा सम्यक्त्वी पर द्वेष करे तो दर्शना वरणीय कर्म बांधे। ५ दंसण आसायणाए--समकित तथा सम्यक्त्वी की असातना करे तो दर्शना वरणीय को बांधे । ६ दंमण विसंवायणा जोगणं- सम्यक्त्वी के साथ खोटा व झूठा विवाद करे तो दर्शना वरणीय कर्म बांधे। दर्शना वरणीय कर्म नव प्रकारे भोगवे १ निद्रा २ निद्रा निद्रा ३ प्रचला ४ प्रचला प्रचल। Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठ कर्म की प्रकृति। ( १२६) ५ थीणद्धि ( स्त्यानार्द्ध ) ६ चक्षु दर्शना वरणीय ७ अचक्षु दर्शना वरणीय ८ अवधि दर्शना वरणीय ह केवल दर्शना वरणीय। दर्शना वरणीय कर्म की स्थिति जघन्य अन्तर मुहूते की उत्कृष्ट तीश करोडा करोडी सागरोपम की,अबाधा काल तीन हजार वर्षका । ३ वेदनीय कर्म का विस्तार वेदनीय कर के दो भेद-१ शाता वेदनीय २ अशाता वेदनीय । वेदनीय कर्म की सोलह प्रकृतिः-आठ शाता वेदनीय की और पाठ अशाता वेदनीय की। । शाता वेदनीय कर्म की पाठ प्रकृति । १ मनोज्ञ शब्द २ मनोज्ञ रूप ३ मनोज्ञ गंध ४ मनोज्ञ रस ५ मनोज्ञ स्पर्श ६ मन सौख्य ( सुहिया ) ७ वचन सौख्य ८ काया सौख्य । । अशाता वेदनीय कर्म की आठ प्रकृति। १ अमनोज्ञ शब्द २ अमनोज्ञ रूप ३ अमनोज्ञ गंध ४ अमनोज्ञ रस ५ अमनोज्ञ स्पर्श ६ मन दुख ७ वचन दुख ८ काया दुख । वेदनीय कर्म २२ प्रकारे बांधे इसमें शाता वेदनीय १० प्रकारे बांधे * १ पाणाणु कंपियाए २ भूयाणु कंपियाए * १ प्राणी अनुकम्पा २ भूत अनुकम्पा । Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३० ) थोकडा संग्रह | ३ जीवाणु कंपियाए ४ सत्ताणु कंपियाए ५ बहूणं पाणा भूयाणं जीवाणं सत्ताणं दुखणीयाए ६ असोयखियाए ७ प्रभुरणियाए ८ टीप्पणियाए ६ अपीदृणियाए १० परितावणियाए । | अशाता वेदनीय बारह प्रकारे बांधे । ११ पर दुखखियाए १२ पर सोयशियाए १३ पर झुरखियाए१४परटीपखियाए १५ परपीदृणियाए १६परपरिता वणिया १७बहु पायाणं भूषाणं जीवाणं सत्ताणं दुखणि याए १८ सोणिया १६ कुरणियाए २० टीप्पणियाए २१ पीणियाए २२ परितावणियाए । वेदनीय कर्म सोलह प्रकारे भोगवे उक्त सोलह प्रकृति अनुसार । वेदनीय कर्म की स्थिति - शाता वेदनीय की स्थिति जघन्य दो समय की उत्कृष्ट पन्द्रह करोडा करोड़ी सागरोपम की, अबाधा काल करे तो जघन्य अन्तर मुहूर्त का उत्कृष्ट १|| हजार वर्ष का । ३ जीव अनुकम्पा ४ सत्त्व अनुकम्पा ५ बहु प्राणी भूत जीव सत्व को दुख देना नहीं ६ शोक करना नहीं ७ भुरणा नहीं टपक २ सु ( अश्रुपात) गिराना नहीं ६ पीटना नहीं और परितापना (पश्चाताप ) करना नहीं । ११ पर (दुसरा) को दुख देना १२ पर को शोक कराना १३ पर को कुराना १४ पर से प्रांसु गिरवाना १५ पर को पीटना १६ पर को परिताप देना १७ बहु प्राणी भूत जीव सत्वों को दुख देना १८शोक करना १६ कुरना २० टपक २ श्रांसु गिराना २१ पीटना २२ परितापना करना । Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठ कर्म की प्रकृति । ( १३१) अशाता वेदनीय की स्थिति जघन्य एक सागरके सातहिस्सोमें से तीन हिस्से और एक पल्य के असंख्यातवें भाग उणी (कम ) उत्कृष्ट तीश करोडा करोडी सागरोपम की, अबाधा काल तीन हजार वर्ष का। *४ मोहनीय कर्म का विस्तार मोहनीय कर्म के दो भेदः-१ दर्शन मोहनीय २चारित्र मोहनीय। १ दर्शन मोहनीय की तीन प्रकृतिः-१ सम्यक्त्व मोहनीय २ मिथ्यात्व मोहनीय ३ मिश्र (सममिथ्यात्व) मोहनीय । २ चारित्र मोहनीय के दो भेदः-१ कषाय चारित्र मोहनीय २ नोकषाय चारित्र मोहनीय । कषाय चारित्र मोहनीय की सोलह प्रकृति, नौकषाय चारित्र मोहनीय की नव प्रकृति एवं २८ प्रकृति ।। कषाय चारित्र मोहनीय की १६ प्रकृति । १ अनन्तानु बंधी क्रोध-पर्वत की चीर समान २ ,,, मान-- पत्थर के स्तम्भ समान ३ , माया-वांस की जड (मूल), ४ , ,, लोभ-कीरमजी रंग समान इन चार प्रकृति की गति नरक की, स्थिति जाव जीव की और घात करे समाकित की। ५ अप्रत्याख्यानी क्रोध-तालाब की तीराड़ के समान Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३२ ) ६ समान । ܕܝ " ܕ इन चार की गति तिर्येच की, स्थिति एक वर्ष की, घात करे देश व्रत की । ६ प्रत्याख्याना वरणीय क्रोध- वेलु (रेत) की भींत ( दीवार ) समान 19 घात करे साधुत्व 95 मान - हड्डिका स्थम्भ समान माया- मेंढे के सींग समान " लोभ - नगर की गटर के कर्दम (कादा) 11 १० ११ १२ , लोभ-गाडा का अंजन (कञ्जल) ,, 99 11 इन चार की गति -मनुष्य की, स्थिति चार माह की, की । " " ܕ १३ संज्वलन को क्रोध - जल के अन्दर लकीर समान " मान - तृण के स्थम्भ समान १४ १५ माया वांस की छोई (छिलका) समान .. 11 १६ " लोभ-- पतंग तथा हलदी के रंग समान इन चार की गति देव की स्थिति पन्द्रह दिनों की, -- थोकडा संग्रह | के मान - लकड़ स्थम्भ समान " ,, माया - गौमुत्रिका (बेल पुतणी ) समान घात करे केवल ज्ञान की । | नोकषाय चारित्र मोहनीय की नव प्रकृति | १ हास्य २ रति ३ अरति ४ भय ५ शोक ६ दु:गंछा ७ स्त्री वेद ८ पुरुष वेद ६ नपुंसक वेद । Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठ कर्म की प्रकृति | ( १३३ ) * मोहनीय कर्म छ प्रकारे बांधे १ तीव्र क्रोध २ तीव्र मान ३ तीव्र माया ४ तीव्र लोभ ५ तीव्र दर्शन मोहनीय ६ तीव्र चारित्र मोहनीय | * मोहनीय कर्म पांच प्रकारे भोगवे १ सम्यक्त्व मोहनीय २ मिथ्यात्व मोहनीय ३ सम्यक्त्व मिथ्यात्व (मिश्र) मोहनीय ४ कषाय चारित्र मोह - नीय ५ नोकषाय चारित्र मोहनीय | || मोहनीय कर्म की स्थिति ॥ जघन्य अन्तर मुहूर्त की उत्कृष्ट ७० करोडा करोड सागरोपम की, अबाधा काल जघन्य अन्तर मुहूर्त का उत्कृष्ट सात हजार वर्ष का । * आयुष्य कर्म का विस्तार आयुष्य कर्म की चार प्रकृतिः- १ नरक का आयुष्य२ तिर्यच का आयुष्य ३ मनुष्य का श्रायुष्य ४देव का आयुष्य । आयुष्य कर्म सोलह प्रकारे बांधे १नरक आयुष्य चार प्रकारे बांधे रतिर्येच का आयुष्य चार प्रकारे बांधे ३ मनुष्य का आयुष्य चार प्रकारे बांधे ४ देव आयुष्य चार प्रकारे बांधे । Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३४) थोकडा संग्रह। नरक आयुष्य चार प्रकारे बांधे-१ महा प्रारम्भ २ महा परिग्रह ३ मद मांस का आहार ४ पंचेन्द्रिय वध । तिर्यच आयुष्य चार प्रकारे बांध-१ कपट २ महा कपट ३ मृषावाद ४ खोटा तोल खोटा माप । मनुष्य प्रायुष्य चार प्रकारे बांध-१ भद्र प्रकृति २ विनय प्रकृति ३ सानुक्रोष । दया ) ४ अमत्सर (इर्षा रहित )। देव आयुष्य चार प्रकारे बांधे-१ सराग संयम २संयमा संयम ३ बालतपोप कर्म ४ अकाम निर्जरा । । आयुष्य कर्म चार प्रकारे भोगवे । १ नेरिये नरक का भोगवे २ तिर्यच, तिर्यंच का भोगवे ३ मनुष्य, नुष्य का भोगवे ४ देव, देव का भोगवे । आयुष्य कमे की स्थिति नरक व देव की स्थिति जघन्य दश हजार वर्ष और अन्तर मुहूर्त की उत्कृष्ट तेतीश सागर और करोड पूर्व का तीसरा भाग अधिक। मनुष्य व तिर्यच की स्थिति जघन्य अन्तर मुहूर्त की उत्कृष्ट तीन पल्य और करोड पूर्व का तीसरा भाग अधिक । ___ नाम कर्म का विस्तार नाम कर्म के दो भेदः-१ शुभ नाम २ अशुभ नाम । Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्राठ कर्म की प्रकृति (१३५ ) नाम कर्म के ६३ प्रकृति जिसके ४२ थोक १ गति नाम २ जाति नाम ३ शरीर नाम ४ शरीर अंगोपांग नाम ५ शरीर बंधन नाम ६ शरीर संघ त करणं नाम ७ संघयन नाम ८ संस्थान नाम 8 वर्ण नाम १० गंध नाम ११ रस नाम १२ स्पर्श नाम १३ अगुरू लघु नाम १४ उपघात नाम १५ पराघात नाम १६ अणुपूर्वी नाम १७ उच्छास नाम १८ उद्योत नाम १६ आताप नाम २० विहाय-गति नाम २१ त्रस नाम २२ स्थावर नाम २३ सूक्ष्म नाम २४ बादर नाम २५ पर्याप्त नाम २६ अपर्याप्त नाम २७ प्रत्येक नाम २८ साधारण नाम २६ स्थिर नाम ३० अस्थिर नाम ३१ शुभ नाम ३२ अशुभ नाम ३३ सौभाग्य नाम ३४ दुःभाग्य नाम ३५ सुस्वर नाम ३६ दुःवर नाम ३७ अोदय नाम ३८ अनोदय नाम ३६ यशो कीर्ति नाम ४० अयशोकीर्ति नाम ४१ तीर्थ कर नाम ४२ निर्माण नाम । ___४२ थोक की ६३ प्रकृति (१) गति नाम के चार भेदः-१ नरक गति २ तिर्यच गति ३ मनुष्य गति ४ देव गति । (२) जाति नाम के पांच भेदः-१ एकेन्द्रिय जाति २ बेन्द्रिय जाति ३ त्रीइन्द्रिय जाति ४ चौरिन्द्रिय जाति ५ पंचेन्द्रिय जाति । Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३६) थोकडा संग्रह। (३ शरीर नाम के पांच भेद:-१ औदारिक शरीर २ वैक्रिय शरीर ३ पाहारिक शरीर ४ तैजस् शरीर ५ कार्मण शरीर। (४) शरीर अंगोपांग के तीन भेदः-१ औदारिक शरीर अंगोपांग २ वैक्रिय शरीर अंगोपांग ३ आहारिक शरीर अंगोपांगा। (५) शरीर बंधन नाम के पांच भेदः-१ औदारिक शरीर बंधन २ वैक्रिय शरीर बंधन ३ आहारिक शरीर बंधन ४ तेजस् शरीर बंधन ५ कार्मण शरीर बंधन । (६)शरीर संघात करणं नाम के पांच भेदः-१ौदारिक शरीर संघात करणं २ वैक्रिय शरीर संघात करणं ३ आहारिक शरीर संघात करणं ४ तैजस शरीर संघात करणं ५ कामेण शरीर संघात करणं । (७) संघयन नाम के छः भेदः-१ वज्र ऋषभ नाराच संघयन २ ऋषभ नाराच संघयन ३ नाराच संघयन ४ अर्ध नाराच संघयन ५ कीलिका संघयन ६ सेवात संघधन। (८) संस्थान नाम के ६ भेदः-१ समचतुरंस्त्र संस्थान न्यग्रोध परिमंडल संस्थान ४ कुब्ज संस्थान ५ वामन सं--- स्थान ६ हुंडक संस्थान; ३६ __(8) वर्ण नाम के पांच भेदः-१ कृष्ण नील३ रक्त ४ पीत ५ श्वेत; ४४ (१०)गंध के दो भेदः-१सुरभि गंध २दुरक्षिगंध,४६ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठ कर्म की प्रकृति | ( १३७ ) (११) रम के पांच भेद :- १तीक्षण २कटुक ३कषायित ४ चार ( खड्डा ) ५ मिष्ट; ५१ (१२) स्पर्श के आठ भेदः --१ लघु २गुरु ३ कर्कश ४ कोमल ५ शीत ६ उष्ण ७ रुक्ष ८ स्निग्ध, ५६ (१३) अगुरु लघु नाम का एक भेद; ६० (१४) उपघात नाम का एक भेद; ६१ (१५) पराघात नाम का एक भेदः ६२ (१६) अणुपूर्वी के चार भेद:- १नरक की अणुपूर्वी २ चिकीपूर्वी ३ मनुष्य की अणुपूर्वी ४ देव की अणु पूर्वी; ६६ (१७) उच्छ्वास नाम का एक भेद; ६७ (१८) उद्यत नाम का एक भदः ६८ (१६) आताप नाम का एक भेद; ६६ (२०) विहाय गति नाम के दो भेदः -- १ प्रशस्त विहाय गति - गन्ध हस्ती के समान शुभ चलने की गति २ अप्र शस्त विहाय गति, ऊँट के समान अशुभ चलने की गति७१ शेष २२ बोल जो रहे उन में से प्रत्येक का एक एक भेद एवं (७१+२२) ६३ प्रकृति । नाम कर्म आठ प्रकार से बांधे जिस में शुभ नाम कर्म चार प्रकारे बांधे १ काया की सरलता - काया के योग अच्छे प्रकार Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३८ ) थोकडा सग्रह। से प्रवर्ताचे २ भाषा की सरलता-वचन के योग अच्छे प्रकार से प्रवर्ताव ३ भाव की सरलता-मन के योग अच्छे प्रकार से प्रवावे ४ अक्लेश कारी प्रवर्तन खोटा व झूठा विवाद नहीं करे। अशुभ नाम कर्म चार प्रकारे बांधे-१ काया की वक्रता २ भाषा की वक्रता ३ भाव की वक्रता ४ क्लेशकारी प्रवतेन । ॥नाम कर्म २८ प्रकारे भोगवे ॥ शुभ नाम कर्म १४ प्रकारे भोगवे-१ इष्ट शब्द २ इष्ट रूप ३ इष्ट गंध ४ इष्ट रस ५ इष्ट स्पर्श ६ इष्ट गति ७ इष्ट स्थिति ८ इष्ट लावण्य है इष्ट यशो कीर्ति १० इष्ट उत्थान, कर्म बल वीर्य पुरुषाकार पराक्रम ११ इष्ट स्वर १२ कांत स्वर १३ प्रिय स्वर १४ मनोज्ञ स्वर । अशुभ नाम कर्म १४ प्रकारे भोगवे-१ अनिष्ट शब्द २ अनिष्ट रूप ३ अनिष्ट गंध ४ अनिष्ट रस ५ अनिष्ट स्पर्श ६ अनिष्ट गति ७ अनिष्ट स्थिति ८ अनिष्ट लावण्य ६ अनिष्ट यशो कीर्ति १० अनिष्ट उत्थान, कर्म बल वीय पुरुषाकार पराक्रम ११ हीन स्वर १२ दीन स्वर १३ अनिष्ट स्वर १४ अकान्त स्वर। नाम कर्म की स्थिति जघन्य आठ मुहूर्त की उत्कृष्ट वीश करोडा करोड़ी सागरोपम की,अबाधा काल दो हजार वर्ष का। Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अाठ कर्म की प्रकृति । (१३६ ) JNANIvanTV * ७ गोत्र कर्म का विस्तार गौत्र कर्म के दो भेद-१ऊंच गौत्र २ नीच गौत्र। गौत्र कर्म की सोलह प्रकृति जिसमें से ऊंच गौत्र की आठ प्रकृति१ जाति विशिष्ट २ कुल विशिष्ट ३ बल विशिष्ट ४ रूप विशिष्ट ५ तप विशिष्ट ६ सूत्र विशिष्ट ७ लाभ विशिष्ट ८ ऐश्वर्य विशिष्ट । - नीच गौत्र की पाठ प्रकृति-१ जाति विहीन २ कुल विहीन ३ बल विहीन ४ रूप विहीन ५ तप विहीन ६ सूत्र विहीन ७ लाभ विहीन ८ ऐश्वर्य विहीन । गौत्र कर्म सोलह प्रकारे बांधेःऊंच गौत्र आठ प्रकारे बांधे १ जाति अमद (अभिमान नहीं करे ) २ कुल अमद ३ बल अमद ४ रूप अमद ५ तप अमद ६ सूत्र अमद ७ लाम अमद ८ ऐश्वर्य अमद । नीच गौत्र अाठ प्रकारे बांधे-१ जाति मद २ कुल मद ३ बल मद ४ रूप मद ५ तप मद ६ सूत्र मद ७ लाभ मद ८ ऐश्वर्य मद । गौत्र कर्म सौलह प्रकारे भोगवे-ऊंच गौत्र आठ प्रकारे भोगवे और नीच गौत्र आठ प्रकारे भोगवे । Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४० ) थोकडा संग्रह । उक्त नाम कर्म की सोलह प्रकृति के समान ही सोलह प्रकारे भोगवे । गौत्र कर्म की स्थितिः - जघन्य आठ मुहूर्त की उत्कृष्ट वीश करोडा करोड़ सागरोपम की, अबाधा काल दो हजार वर्ष का । ८ अन्तराय कर्म का विस्तार अन्तराय कर्म की पांच प्रकृतिः - १ दानांतराय २ लाभांतराय ३ भोगांतराय ४ उपभोगांतराय ५ वीर्यांतराय । अंतराय कर्म पांच प्रकारे बांधे-ऊपर समान । अंतराय कर्म पांच प्रकारे भोगवे - ऊपर समान । अंतराय कर्म की स्थिति - जघन्य अन्तर मुहूर्त की, उत्कृष्ट तीश करोड़ा करोड़ सागरोपम की, अबाधा काल तीन हजार वर्ष का । ॥ इति आठ कर्म का विस्तार सम्पूर्ण ॥ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गता गति द्वार। (१४१) * गता गति द्वार * गाथा 'बारस 'चउवीसाइ संतर "एगसमय 'कत्तीय । उवट्टण परभव 'आऊयं च अठेव आगरिसा ।। ® पहिला वारस द्वार के नरक, तिर्यच, मनुष्य, देव इन चार गतियों में उत्पन्न होने का। चवने का अंतर पड़े तो जघन्य एक समय उत्कृष्ट चारह मुहूत का अंतर पड़े। सिद्ध गति में अंतर पड़े तो जघन्य एक समय, उत्कृष्ट छः मास का । चवने का अन्तर नहीं पड़े। * दूसरा चउविश द्वार (१) पहेली नरक में अंतर पड़े तो जघन्य एक समय, उत्कृष्ट चोवीश मुहूर्त का। (२) दूसरी नरक में अंतर पड़े तो जघन्य एक समय उत्कृष्ट सात दिन का। ___ (३) तीसरी नरक में जघन्य एक समय उत्कृष्ट पन्द्रह दिन का (४) चौथी नरक में , , , , एक माह का (३) पांचवी ,, , , , , , दो , , (६) छटो , "" " , " चार " " (७) सातवी " " " छ " " Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४२) थोकडा संग्रह। भवनं पति, वाण व्यन्तर, ज्योतिषी, पहिला दुसरा देव लोक में अंतर पड़े तो जघन्य एक समय उत्कृष्ट चोवीश मुहूर्त का, तीसरे देव लोक में अंतर पडे तो जघन्य एक समय उत्कृष्ट नव दिन और वीश मुहूते का। चोथे देव लोक में अंतर पड़े तो जघन्य एक समय उत्कृष्ट बारह दिन और दश मुहूर्त का । पांचवे देव लोक में अंतर पड़े तो जघन्य एक समय उत्कृष्ट साड़ा बावीश दिन का । छठे देव लोक में अंतर पड़े तो जघन्य एक समय उत्कृष्ट तालीश दिन का। सातवें देवलोक में अंतर पड़े तो जघन्य एक समय उत्कृष्ट अस्सी दिन का। आठवें देवलोक में अंतर पड़े तो जघन्य एक समय उत्कृष्ट सो दिन का। नववें, दशवें देवलोक में जघन्य एक समय उत्कृष्ट संख्याता माह का, इग्यारहवें बारहवें देवलोक में जघन्य एक समय उत्कृष्ट संख्याता वषे का, ग्रीयेवक की पहेलीत्रीक में अंतर पड़े तो जघन्य एक समय वा उत्कृष्ट संख्याता सो वष का, ग्रीयवेक की दूसरी त्रीक में ज० एक समय उ० संख्याता हजार वर्ष का ग्रीयवेक की तीसरी त्रीक में ज० एक समय उ० संख्याता लक्ष वर्षे का चार अनुत्तर" " " " "पल्य के असंख्यातवें भाग Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गता गति द्वार । (१४३) पांचवे स्वार्थ सिद्ध विमान में ज० एक समय उ० संख्यातवें भाग । पांच एकेन्द्रिय में अंन्तर नहीं पड़े। तीन विकलेन्द्रिय और तिर्यच समूर्छिम में अन्तर पड़े तो जघन्य एक समय उत्कृष्ट अंतर मुहूत का । तिथंच गर्भज व मनुष्य गर्भज में जघन्य एक समय उत्कृष्ट बारह मुहूर्त का । मनुष्य संमूर्छिम में जघन्य एक समय उत्कृष्ट चोवीश मुहूते का। सिद्ध में अंतर पड़े तो जघन्य एक समय उत्कृष्ट छ माह का । इसी प्रकार सिद्ध को छोड़कर शेष में चवने का अंतर उक्त उत्पन्न होने के अंतर समान जानना । * तीसरा सअंतर निरंतर द्वार स अंतर अर्थात अंतर सहित, निरंतर अर्थात अंतर रहित उत्पन्न होवे। पांच एकेन्द्रिय के पांच दण्डक छोड़कर शेष उन्नीस दण्डक में तथा सिद्ध में सअंतर तथा निरंतर उत्पन्न होवे पांच एकेन्द्रिय के पांच दण्डक में निरंतर उत्पन्न होवे ऐसे ही उद्वर्तन (चवने का ) जानना (सिद्ध को छोड़कर) ४ एक समय में किस बोल में कितने उत्पन्न __ होवे व चवे उसका द्वार । सात नरक, ७. दश भवनपति, १७, वाण व्यतर, १८. ज्योतिषी, १६, पहेले देवलोक से आठो देवलोक Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४४) थोकडा संग्रह। तक, २७. तीन विकलेन्द्रिय, ३०. तिर्यच संमूर्छिम, ३१. तियच गर्भज, ३२. मनुष्य संमृर्छिम, ३३ इन तेंतीश बोल में एक समय में जघन्य एक, दो, तीन उत्कृष्ट उपजे तो असंख्याता उपजे । नवां, दशवां,इग्यारवां, व चारहवां देवलोक ये चार देवलोक ४, नव ग्रीयवेक, १३, पांच अनुत्तर विमान १८ मनुष्य गर्भज १६ इन उन्नीश बोल में जघन्य एक समय में एक, दो, तीन उत्कृष्ट संख्याता उपजे, पृथ्वी, अप, अग्नि, वायु, इन चार एकेन्द्रिय में समय समय असंख्याता उपजे वनस्पति में समय समय असंख्याता ( यथास्थाने ) अनंता उपजे।। सिद्ध में एक समय में जघन्य एक, दो तीन उत्कृष्ट एक सो पाठ उपजे ऐस ही उद्वर्तन ( चवन ) सिद्ध को छोड़ कर शेष सर्व का जानना ( उत्पन्न होने के समान )। पांचा कत्तो ( कहां से आवे ), छट्टा उद्वर्तन (चव कर जावे) ये दोनों द्वार । ५६. में से जिस जिस बोल के आकर उत्पन्न होने वो आगति और चव कर ५६३ में से जिस जिस बोल में जावे वो गति ( उद्वर्तन) (१) पहेली नरक में २५ बोल की आगति १५ कर्म भूमि, ५ संज्ञी तिर्यच, ५ असंज्ञी तिर्यंच पंचेन्द्रिय ये २५/ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गता गति द्वार । । १४५) Muuinnr का पर्याप्त। । गति ४० बोल की-१५ कर्म भूमि ५ संज्ञी तिथंच इन वीश का पर्याप्ता तथा अपर्याप्ता एवं ४०। (२) दूसरी नरक में वीश बोल की आगति १५ कर्म भूमि, ५ संज्ञी तिर्यच एवं २० का पर्याप्ता । गति ४० बोल की पहली नरक समान ।। (३) तीसरी नरक में उन्नीश बोल की आगति उक्त दूसरी नरक के २० बोल में से भुजपर ( सर्प) को छोड़ शेष उन्नीश । गति ४० की ऊपर समान । (४)चौथी नरक में अठारह बोल की आगति उक्त २० बोल में से १ भुजपर ( सर्प ) तथा २ खेचर छोड शेष १८ बोल गति ४० की ऊपर समान । (५) पांचवी नरक में १७ बोल की आगति उक्त २० बोल में से १ भुज पर (सर्प) २ खेचर ३ स्थल चर ये तीन छोड़ शेष १७ बोल । गति ४० की पहेली नरक समान । (६) छट्ठी नरक में १६ बोल की आगति उक्त २. बोल में से १ भुजपर ( सपे ) २ खेचर ३ स्थल चर ४ उर पर सपे चार छोड़ शेष १६ बोल । गति ४० बोल की पहेली नरक समान। (७) सातवीं नरक में १६ बोल की आगति पन्द्रह कर्म * नेरिये और देवता काल कर के मनुष्य तथा तिर्यच में उत्पन्न होते है। ये अपर्याप्त अवस्था में नहीं भरते अतः इस अपेक्षा से कोई केवल पर्याप्ता ही मानते है। Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४६ ) थोकडा संग्रह। भूमि और १ जलचर एवं १६ बोल इसमें स्त्री मर कर नहीं पाती है केवल पुरुष तथा नपुसंक मरकर आते हैं। गति दश बोल की--पांच संज्ञी तियेच का पर्याप्ता और अपर्याप्त २५ भवन पति और २६ वाण व्यन्तर इन ५१ जाति के देवताओं में आगति १११, बोल की-१०१, संज्ञी मनुष्य का पर्याप्ता, पांच संज्ञी तिर्यंच पंचन्द्रिय और पांच असंही तिथंच एवं १११ का पर्याप्ता । गति ४६ बोल की-१५ कर्म भूमि, पांच मंज्ञी तिथंच, बादर पृथ्वी काय, बादर अपकाय, बादर वनस्पति काय एवं तेवीश का पर्याप्ता और अपर्याप्ता। ज्योतिषी और पहेला देवलोक में५० बोल की प्रागति१५ कर्म भूमि, ३० अकर्म भूमि, ५ संज्ञी तिथंच एवं ५० का पर्याप्ता । गति ४६ बोल की भवनपति समान ।। दूसरा देवलोक में ४० बोल की आगति-१३ कर्म भूमि, पांच संज्ञी तिथच ये २० और ३० अकर्म भूमि में से पांच हेम वय और पांच हिरण वय छोड़ शेष २० अकर्म भूमि एवं ४० बोल का पर्याप्ता । गति ४६ बोल की भवन पति समान । पहेला किल्विषी में ३० बोल की प्रागति-१५कर्म भूमि, ५ संझी तियेच, ५ देव कुरू, ५ उत्तर कुरू एवं ३० का पयोप्ता । गति ४६ बोल की भवन पति समान। Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गता गति द्वार । (१४७ ) तीसरे देवलोक से आठवें देवलोक तक, नव लोकां. तिक और दूसरा तीसरा किल्विषी-इन १७ प्रकार के देवताओं में २० बोल की आगति १५ कर्म भूमि, ५ संज्ञी तिर्यंच एवं २० बोल का पर्याप्ता । गति ४० बोल की-१५ कर्म भूमि, ५ संज्ञी तिर्यंच एवं २० का पर्याप्ता और अपर्याप्ता। नवें, दशवें इग्यारहवें और बारहवें देवलोक में, नव ग्रीवेक व पांच अनुत्तर विमान में आगति १५ बोल की-१५ कर्म भूमि का पर्याप्ता । गति ३० बोल की-१५ कर्म भूमि का पर्याप्ता और अपर्याप्ता एवं ३० बोल । पृथ्वी, अप, वनस्पति-इन तीन में २४३ की आगति १०१ संमूर्छिम मनुष्य का अपर्याप्ता, १५ कर्म भूमि का अपर्याप्ता और पर्याप्ता, ३०, ४८ जाति का तिर्यच, और ६४ जाति का देव ( २५ भवनपति, २६ वाण व्यन्तर १० ज्योतिषी, पहेला किल्विषी, पहेला और दूसरा देवलोक एवं ६४ जाति का देव ) का पर्याप्ता एवं ( १०१४३०४ ४८४६४) २४३ बोल । गति १७६ बोल की-१०१ संमूर्छिम मनुष्य का अपर्याप्ता , १५ को भूमि का अपर्याप्ता और पर्याप्ता, और ४८ जाति का तिर्थच एवं १७६ बोल। तेजसू वायु की आगति १७६ बोल की-ऊपर समान । गति ४८ बोल की-४८ जाति का तिर्थच । Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थोकडा संग्रह। (१४८) ....... तीन विकलेन्द्रिय (बेन्द्रिय, त्रीइन्द्रिय, चौरिन्द्रिय,) की आगति १७६ बोल की ऊपर समान । गति १७६ बोल की ऊपर समान । असंज्ञी तिर्यच की आगति १७६ बोल की--१०१ संमूर्छिम मनुष्य का अपर्याप्ता, १५ कर्म भूमि का अपर्याप्ता और पर्याप्ता और ४८ जाति का तिर्यच एवं १७६ बोल । गति ३६५ बोल की-५६ अन्तर द्वीप, ५१ जाति का देव, पहेली नरक इन १०८ का अपर्याप्ता और पर्याप्ता ये २१६ और ऊपर कहे हुवे १७६ एवं ३६५ बोल। संज्ञी तिथंच की प्रागति २६७ बोल की-८१ जाति का देव ( ६६ जाति के देवताओं में से ऊपर के चार देव लोक नव ग्रीयवेक, ५ अनुत्तर विमान एवं १८ छोड़ शेष ८१ जाति का देव ) सात नरक का पर्याप्ता ये ८८ और ऊपर कहे हुवे १७६ एवं २६७ बोल । गति पांचों की अलग अलग (१) जलचर की ५२७ बोल की-५६३ में से नववे देव लोक से सर्वार्थ सिद्ध तक १८ जाति का देव का अपर्याप्ता और पर्याप्ता एवं ३६ बोल छोड़ शेष ५२७ बोल । २ उरपर (सर्प) की ५२३ बोल की-उक्त ५२७ में से छही और सातवीं नरक का अपर्याप्ता और पर्याप्ता ये चार बोल छोड़ शेष ५२३ बोल । (३) स्थलचर की ५२१ बोल की-५२३ में से पांचवीं नरक का अपर्याप्ता और पर्याप्ता-ये दो बोल घटाना । Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गता गति द्वार । ( १४६ ) (४) खेचर की ५१६ बोल की-५२१ में से चौथी नरक का अपर्याप्ता और पर्याप्ता ये२ बोल घटाना। (५) भुजपुर ( सर्प ) की ५१७ बोल की-५१६ में से तीसरी नरक का अपर्याप्ता और पर्याप्ता ये२ बोल घटाना। असंज्ञी मनुष्य की आगति १७१ बोल की-ऊपर कहे हुवे १७६ बोल में से तेजस् वायु का पाठ बोल घटाना। गति १७६ बोल की, ऊपर समान । १५ कर्म भूमि संज्ञी मनुष्य की प्रागति २७६ बोल की:-उन १७६ बोल में से तेजस् वायु का पाठ बोल घटाने से शेष १७१ बोल, 88 जाति के देव, और पहेली नरक से छठी नरक तक एवं (१७१+88+६) २७६ बोल। गति ५६३ बोल की। ३० अकर्म भूमि संज्ञो मनुष्य की आगति २० बोल की १५ कर्म भूमि, ५ संज्ञी तिथंच एवं २० बोल गति नीचे अनुसार । ५ देव कुरु, ५ उत्तर कुरु इन दश क्षेत्र के युगलियों की १२८ बोल की ६४ जाति के देव का अपर्याप्ता और पर्याप्ता एवं १२८ बोल की। ५ हरि वास, ५ रम्यक वास इन दश क्षेत्र के युगलियों की १२६ बोल की-उक्त १२८ बोल में से पहेला किल्विषी का अपर्याप्ता और पर्याप्ता घटाना। ५ हेमवय, ५ हिरण्यवय-इन दश क्षेत्र के युगलियों Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५० ) थोकडा संग्रह। की १२४ बोल की-उक्त १२६ बोल में से दूसरे देव लोक का अपर्याप्ता और पर्याप्ता घटाना। ५६ अंतर द्वीप के युगलियों की २५ बोल की श्रागति-१५ कर्म भूमि, ५ संज्ञी तिर्यंच, ५ असंज्ञी तिर्यच एवं २५ गति १०२ बोलकी-२५ भवन पति, २६ वाण व्यन्तर,-इन ५१ का अपर्याप्ता और पर्याप्ता एवं १०२ ये २२ बोल सम्पूर्ण इन २२ बोल में चोवीश दण्डक की गता गति कही गई है। नव उत्तम पदवी में से मांडलिक राजा छोड़ शेष पाठ पदवीधर मिथ्यात्वी तथा तीन वेद-एवं १२ बोल की गतागति (१) तीर्थकर की प्रागति३८ बोल की-वैमानिक का ३५ भेद व पहेली दुसरी, तीसरी नरक एवं ३८, गति मोक्ष की। (२) चक्रवर्ति की आगति ८२ बोल की-६६ जाति के देव में से-१५ परमाधर्मी, तीन किल्विषी-ये १८ छोड़ शेष ८१ व पहेली नरक एवं ८२, गति १४ बोल की-सात नरक का अपर्याप्ता और पर्याप्ता एवं १४ ( यदि ये दीक्षा लेवे तो गति देव की या मोक्ष की ) (३) वासुदेव की आगति ३२ बोल की-१२ देवलोक Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गता गति द्वार। (१५१ ) ह लोकांतिक, नव ग्रीयवेक, व पहेली दूसरी नरक एवं ३२। गति १४ बोल की-सात नरक का अपर्याप्ता और पर्याप्ता । (४) बलदेव की प्रागति ८३ बोल की-चक्रवर्ति के ८२ बोल कहे वो और एक दूसरी नरक एवं ८३॥ गति ७० बोल की वैमानिक के ३५ भद का अपर्याप्ता और पर्याप्ता एवं ७०। (५) केवली की प्रागति १०८ बोल की जाति के देव में से--१५ परमाधर्मी और तीन किल्विषी एवं १८ घटाना--शेष ८१ बोल, और १५ कर्म भूमि, ५ संज्ञी तिर्थच, पृथ्वी, अप, वनस्पति, पहेली, दूसरी, तीसरी व चोथी नरक एवं ( ८१+१५+५+१+११X3 ) १०८ बोल का पर्याप्ता, गति मोक्ष की । (६) साधु की प्रागति २७५ बोल की-ऊरर के १७६ बोल में से तेजम वायु का पाठ बोल छ ड शेष १७१ बोल, ६६ जाति के देव, व पहेली नरक से पांचवी करक तक ( १७१+86+५) एवं २७५ बोल । गति ७० बोल की बलदेव समान । (७) श्रावक की प्रागति २७६ बोल की-साधु के २७५ बोल व छट्टी नरक का पर्याप्ता एवं २७६ बोल । गति ४२ बोल की-१२ देवलोक, ह लोकांतिक इन २१ का अपर्याप्ता और पर्याप्ता एवं ४२ । (८) सम्यक्त्व दृष्टि की आगति ३६३ बोल की 88 Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५२) थोकडा संग्रह। जाति के देव का पर्याप्ता, १०१ संज्ञी मनुष्य का पर्याप्ता, १०१ संमर्छिम मनुष्य का अपर्याप्ता १५ कम भूमि का अपर्याप्ता, सात नरक का पर्याप्ता, और तिर्यंच के ४८ भेद में से तेजम् वायु का आठ बोल छोड़ शेष४०एवं(88+१०१+१०१+१५+७+४०)३६३बोल । + गति २५८ की-६हजाति का देव, १५ कर्म भूमि, ५ संज्ञी तिर्यच,६ नरक-इन १२५ का अपर्याप्ता और पर्याप्ता एवं २५० तीन विकलेन्द्रिय का अपर्याप्ता और ५ असंज्ञी तिर्यच का अपर्याप्ता एवं २५८ । (६)मिथ्यात्व दृष्टि की आगति ३७१ बोल की:-88 जाति का देव, और ऊपर कहे हुवे १७६ बोल एवं २७८, सात नरक का पर्याप्ता और ८६ जाति का युगलियां का पर्याप्ता एवं ३७१ बोल । गति ५५३ की:-५६३ बोल में से पांच अनुत्तर विमान का अपर्याप्ता और पर्याप्ता ये १० छोड़ शेष ५५३ । (१०) स्त्री वेद की आगति ३७१ बोल की मिथ्या दृष्टि समान । गति ५६१ बोल की-सातवी नरक का अपयाँप्ता और पर्याप्ता ये दो बोल छोड़ (५६३.२)शेष ५६१ (११) पुरुष वेद की आगति ३७१ बोल की मिथ्या द्रष्टि की आगति समान । गति ५६३ की। (१२) नपुंसक वेद की आगति २८५ बोल की:x कोई २ २२२ की भी मानते हैं-१५ परमा धामी और ३ किल्यिपी के पर्याप्ता और अपर्याप्ता एवं ३६ छोड़ कर । Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गता गति द्वार । ( १५३ ) AAAAAALAAMVVVN ६६ जाति का देव का पर्याप्ता,व उपरोक्त १७६ बोल और सात नरक का पर्याप्ता एवं (88+१७६४७) २८५ बोल। गति ५६३ बोल की। सातवां आयुष्य द्वार :* इस भव के आयुष्य के कौ से भाग में परभव के आयुष्य का बंध पड़ता है उसका खुलासा: दश औदारिक का दण्डक सोपकर्मा व नोपकर्मी जानना-नारकी का एक दण्डक और देव का १३ दण्डक ये १४ दण्डक नोपकर्मी जानना। दश औदारिक के दण्डक में से जिसका असंख्यात वर्ष का आयुष्य है वो नोपकर्मी तथा जिसका संख्यात वर्ष का आयुष्य है वो सोपकर्मा और नोपकर्मी दोनों हैं। नोपकर्मी निश्चय में आयुष्य के तीसरे भाग में पर भव का आयुष्य बांधते हैं। सोपकर्मी है वो आयुष्य के तीसरे भाग में, उसके भी तीसरे भाग में तथा अन्त में अन्तर मुहते शेष रहे तब भी परभव का आयुष्य बांधते हैं। ___ असंख्यात वर्ष के मनुष्य, तिथंच तथा नेरिये व देव नोपकी है ये निश्चय में आयुष्य के ६ माह शेष रहे उस समय परभव का आयुष्य बांधते हैं। परभव जाते समय जीव ६ बोल के साथ आयुष्य Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५४ ) थोकडा संग्रह। छोड़ते हैं-१जाति २ गति ३ स्थिति ४ अवगाहना ५ प्रदेश और ६ अनुभाव । ® आठवां आकर्ष द्वार* ___ तथाविध प्रयत्न करके कर्म पुद्गल का ग्रहण करने व खेचने को आकर्ष कहते हैं जैसे गाय पानी पीते समय भय से पीछे देखे व फिर पीवे वैसे ही जीव जाति निद्धतादि श्रायुष्य को जघन्य एव, दो, तीन उत्कृष्ट पाठ श्राकर्ष करके बांधता है। आकर्ष का अल्प तथा बहुत्व सब से थोड़ा जीव पाठ आकर्ष से जाति निद्धत्तायुष्य को बांधने वाले, उससे सात से बांधने वाले संख्यात गुणा, उससे छ से बांधने वाले संख्यात गुणा, उससे पांच से बांधने वाले संख्यात गुणा उससे चार से बांधने वाले संख्यात गुणा उससे तीन से बांधने वाले संख्यात गुणा, उससे दो से बांधने वाले संख्यात गुणा उससे एक से बांधने वाले संख्यात गुणा । ॥ इति गतागति सम्पूर्ण ॥ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छः आरों का वर्णन । (१५५ ) छः आरों का वर्णन दश करोड़ा करोड़ी सागरोपम के छः बारे जानना ॥ (१) चार करोड़ा करोड़ी सागरोपम का 'सुखमा सुखमी' (एकान्त सुख वाला)नाम का पहिला पारा होता है इस बारे में मनुष्य का देहमान (शरीर) तीन गाउ ( कोस) का व आयुष्य तीन पन्योपम का होता है उतरते मारे में देहमान दो कोस का व आयुष्य दो पन्योपम का जानना । इस बारे में मनुष्य के शरीर में २५६ पृष्ट करंड (पांसली, हड्डी ) व उतरते ारे में १२८ पांसलियां होती है । संघयन वज्र ऋषभ नाराच व संस्थान समचतुरंस्त्र होता है । महास्वरूपवान सरल स्वभावी स्त्री पुरुष का जोड़ा होता है जिनको श्राहार की इच्छा तीन दिन के अन्तर से होती है तब शरीर प्रमाणे x आहार करते है। इस समय मिट्टी का स्वाद भी मिश्री के समान मिष्ट होता है व उतरते आरे मिट्टी का स्वाद शर्करा जैसा होता है। इस समय मनुष्यों को दश प्रकार के कल्प वृक्षों द्वारा मन वांछित सुख की प्राप्ति होती है यथाः__x पहिले पारे में तूर जितना, दूसरे बारे में बोर जितना भौर तीसरे भारे में नांवले जितना आहार युगल मनुष्य करते हैं ऐसा ग्रन्थकार * जिस कल्प वृक्ष के पास जो फल है वो वही फल देता है इस तरह दश ही कल्प वृक्ष मिल कर दश वस्तु देते हैं परन्तु जिस वस्तु की मन में चिन्ता करते हैं उसे देने में समर्थ नहीं होते हैं। ___ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थोकडा संग्रह। wwwwwww PAAAAA PARAMANAVARANA.PRANAM AN मतंगाय 'भिंगा, 'तुड़ीयंगा 'दीव 'जोई 'चितगा, "चितरसा ‘मणवेगा, 'गिहगारा 'अनियगणाउ । अर्थ-१ मतङ्ग वृक्ष 'जिससे मधुर फल प्राप्त होते हैं २ 'भिङ्गा वृक्ष ' से रत्न जड़ित सुवर्ण भाजन (पात्र) मिलते हैं ३ ' तुड़ियङ्गा वृक्ष ' से ४६ जाति के वादिंत्र ( वाजिंत्र ) के मनोहर नाद सुनाई देते हैं ४ 'दीव वृत्त' से रत्न जडित दीपक समान प्रकाश होता है ५ जोति (जोई) वृक्ष रात्रि में सूर्य समान प्रकाश करते हैं ६, चितङ्गा, वृक्ष से सुगंधी फूलों के भूषण प्राप्त होते हैं७ 'चितरसा' वृक्ष से ( १८ प्रकार के ) मनोज्ञ भोजन मिलते हैं ८ 'मनोवेगा' से सुवर्ण रत्न के आभूषण मिलते हैं । 'गिहंगारा ' वृक्ष से ४२ मंजल के महल मिल जाते हैं १० 'अनिय गणाउ' वृक्ष से नाक के श्वास से उड़ जावे ऐसे महीन ( पतले व उत्तम वस्त्र प्राप्त होते हैं । प्रथम आरे के स्त्री पुरुष का आयुष्य जब छ महिन का शेष रहता है उस समय युगलिये परभव का आयुष्य बांधते हैं और तब युगलनी एक पुत्र पुत्री के जोड़े को प्रमूतती ( जन्मदेती) है। उन बच्चे बच्ची का ४६ दिन तक पालन करने बाद वे होशियार हो दम्पती बन सुखोपभोगानुभव करते हुवे विचरते हैं और युगल युगलनी का क्षण मात्र भी वियोग नहीं होता है उनके माता पिता एक को छींक और दूसरे को उबासी आते ही मर कर देव गति में जाते Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छः आरों का वर्णन । ( १५७ ) हैं। (क्षेत्राधिष्टित ) देव उन युगल के मृतक शरीर को क्षीर सागर में प्रक्षेप कर मृत्युसंस्वार ( मरण क्रिया) करते हैं। गति एक देव की। इस बारे में वैर नहीं; ईया नहीं, जरा ( बुढापा) नहीं, रोग नहीं, कुरूप नहीं, परिपूर्ण अंग उपांग पाकर सुख भोगते हैं ये सब पूर्व भव के दान न्यादि सत्कर्म का फल जानना। ॥ इति प्रथम प्रारा संपूर्ण ।। * दूसरा पारा * (२) उवत प्रकार प्रथम आरे की समाप्ति होते ही तीन करोड़ करोडी सागरोपम का ' सुखमा' ( केवल सुख ) नामक दूसरा पारा प्रारम्भ होता है उस वक्त पहिले से वर्ण, गंध, रस, स्पर्श के पुद्गलों की उत्तमता में अनन्त गुणी हीनता हो जाती है इस बारे में मनुष्य का देहमान दो कोस का व आयुष्य दो पल्योपम का होता है । उतरते आरे एक कोस का शरीर व एक पल्योपम का आयुष्य रह जाता है घट कर पांसलिये केवल १२८ रह जाती है व उतरते बारे ६४। मनुष्यों में वज्र ऋषभ नाराच संघयन व समचतुरंस संस्थान होता है इस आरे के मनुष्यों को आहार की इच्छा दो दिन के अन्तर से होती है तब शरीर प्रमाणे आहार करते हैं। पृथ्वी का स्वाद शफेरा जैसा रह जाता है व उतरते आरे गुड़ जैसा । Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५८ ) थोकड। संग्रह। इस बारे में दश प्रकार के कल्पवृक्ष दश प्रकार का मनोवांछित सुख देते हैं (पहेला आरा समान) मृत्यु के छै महिने जब शेष रहते हैं तब युगलनी एक पुत्र पुत्री का प्रसव करती है बच्चे बच्ची का ६४ दिन पालन किये बाद वे (पुत्र पुत्री) दम्पती बन सुखोपभोग करते हुवे विचरते हैं और उनके माता पिता एक को छींक और दूसरे को उबासी आते ही रकर देव गति में जाते हैं क्षेत्राधिष्टित देव इन के मृतक शरीर को क्षीर सागर में डाल कर मृतक क्रिया करते हैं । गति एक देव की। इस आरे में ईर्ष्या नहीं, वैर नहीं, जरा नहीं, रोग नहीं, कुरुप नहीं, परिपूर्ण अङ्ग उपाङ्ग पाकर सुख भोगते हैं । ये सब पूर्ण भव के दान पुन्यादि सत्कर्म का फल जानना। ॥इति दूसरा पारा सम्पूर्ण ॥ ॐ तीसरा पारा (३)यों दूसरा पारा समाप्त होते ही दो करोड़ा करोड़ सागरोपम का 'सुखमा दुखमा' (सुख बहुत दुःख थोड़ा) नामक तीसरा पारा शुरु होता है तब पहिले से वर्ण गंध रस स्पर्श की उत्तमता में हीनता हो जाती है । कम से घटते घटते मनुष्यों का देहमान एक गाउ (कोश) का व आयुष्य एक पल्यापम का रह जाता है उतरते आरे ५०० धनुष्य का देहमान व करोड़ पूर्व का आयुष्य रह जाता है। Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छः पारों का वर्णन। ( १५६) ............... इस बारे में वनऋषभ नाराच संघयन व समचतुरंस्त्र संस्थान होता है। श्री में ६४ पांसलिये होती हैं व उतरते ओरे केवल ३२ पांसलिये रह जाती है । इस ारे में मनुष्यों को आहार की इच्छा एक दिन के अन्तर से होती है तब शरीर प्रशने आहार करते हैं । पथ्वी का स्वाद गुड़ जैसा रहजाता है तथा उतरते ओरे कुछ ठीक । इस बारे में दश प्रकार के कल्पवृक्ष दश प्रकार का मनो वांछित सुख देते हैं मृत्यु के जब छ महिने शेष रहनाते है तब युगलिये परभव का आयुष्य बांधते हैं व उस समय युगलनी एक पुत्र व पुत्री का प्रसव करती है। बच्चे बच्ची का ७६ दिन पालन किये बाद वे ( पुत्र पुत्री ) दम्पती बन सुखोपभोग करते हुवे विचरते हैं और उनके माता पिता एक को छींक और दूसरे को उबासी आते ही मरकर देव गति में जाते हैं क्षेत्राधिष्टित देव इनके मृतक शरीर को क्षीर सागर में डाल कर मृतक क्रिया करते हैं । गति एक देव की। इन तीन आरों में युगलियों का केवल युगल धर्म रहता है । जिसमें वैर नहीं, ईर्ष्या नहीं, जरा नहीं, रोग नहीं, कुरुप नहीं, परिपूर्ण अङ्ग उपाङ्ग पाकर सुख भोगते हैं ये सब पूर्व भव के दान पुन्यादि सत्कर्म का फल जानना। ॥ इति युगलिया धर्म सम्पूर्ण । Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६० ) थोकडा संग्रह। wwmarrrrahmanane VAAAAAA तीसरे आरे की समाप्ति में चौरासी लाख पूर्व तीन वप व साड़े आठ माह जब शेष रह जाते हैं उस समय सर्वार्थसिद्ध विमान में ३३ सागरोपम का आयुष्य भोग कर तथा वहां से चव कर वनिता नगरी के अन्दर 'नाभिराजा के यहां मरुदेवी रानी की कुक्षि (कोख ) में श्री ऋषभ देव स्वामी उत्पन्न हुवे । (माताने) प्रथम ऋषभ का स्वप्न देखा इससे ऋषभ देव नाम रखा गया जिन्होंने युगलिया धर्म मिटा कर १ असि २ मसि ३ कृषि इत्या. दिक ७२ कला पुरुष को सिखाई व ६४ कला स्त्री को। वीश लाख पूर्व तक आप कौमार्य अवस्था में रहे, ६३ लाख पूर्व तक राज्य शासन किया । पश्चात् अपने पुत्र भरत को राज्य भार सौंप कर आपने ४ हजार पुरुषों के साथ दीक्षा ग्रहण की। संयम लेने के एक हजार वर्ष बाद आपको केवल ज्ञान उत्पन्न हुवा इस प्रकार छद्मस्थ व केवल अवस्था में आप कुल मिला कर एक लाख पूर्व तक संयम पाल कर अष्टापद पर्वत पर पद्म श्रासन से स्थित हो दश हजार साधु के परिवार से निर्वाण पद को प्राप्त हुवे । भगवंत के पांच कल्याणीक उत्तराषाढा नक्षत्र में हुवे । १ पहला कल्याणीक, उत्तराषाढा नक्षत्र में सर्वार्थसिद्ध विमान से चब कर मरू देवी रानी की कुक्षि में उत्पन्न हुई। २ दसरा कल्याणीक, उत्तराषाढा नक्षत्र में आपका जन्म हुवा । ३ कल्याणीक, उत्तराषाढा नक्षत्र ज्यासन पर Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छः अारों का वर्णन । ( १६१ ) विराजमान हुवे । ४ चोथा कल्याणीक, उत्तराषाढा नक्षत्र में दीक्षा ग्रहण की। ५ पांचवा कल्याणीक उत्तराषाढा नक्षत्र में केवल ज्ञान प्राप्त हुवा व अभिजित नक्षत्र में आप मोक्ष में पधारे । युगलिया धर्म लोप होने बाद गति पांच जानना। ॥ इति तीसरा अारा सम्पूर्ण ॥ चौथा पारा इस प्रकार तीसरा पारा समाप्त होते ही एक करोड़ा करोड़ सागरोपम में ४२००० वर्ष कम का दुःखमा सुखम नामक ( दुख बहुत सुख थोड़ा) चौथा आरा लगता है। तब पहिले से वर्ण गंध रस स्पर्श पुद्गलों की उत्तमता में हीनता हो जाती है कम से घटते घटते मनुष्यों का देह मान ५०० धनुष्य का व आयुष्य करोड़ा करोड़ पूर्व का रह जाता है उतरते आरे सात हाथ का देह मान व २०० वर्ष में कुछ कम का आयुष्य रह जाता है । इस बारे में संघयन छे, संस्थान छ व मनुष्यों के शरीर में ३२ पांसलिये, उतरते आरे केवल १६ पांसलिये रह जाती है । इस बारे की समाप्ति में ७५ वर्ष ८॥ माह जब शेष रह जाते हैं तब दशा प्राणत देवलोक से वीश सागरोपम का आयुष्य भोग कर तथा चव कर माहणकुंड नगरी में ऋषभ दत्त ब्राह्मण के यहां देवानंदा ब्राह्मणी की कुक्षि में श्री महावीर स्वामी उत्पन्न हुवे जहां आप ८२ रात्रि पर्यन्त रहे । ८३ वीं रात्रि को शकेन्द्र का आसन Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६२) थोकडा संग्रह चलायमान हुवा तब शकेन्द्र ने उपयोग द्वारा मालूम किया कि श्री महावीर स्वामी भिक्षुक कुल के अंदर उत्पन्न हुवे हैं । ऐसा जान कर शकेन्द्र ने हरिण गमेषी देव को बुला कर कहा कि तुम जाकर क्षत्रीय कुंड के अन्दर, सिद्धार्थ राजा के यहां, त्रिशला देवी रानी की कुक्षि (कोख ) में श्री महावीर स्वामी का गर्भ प्रवेश करो और जो गर्भ त्रिशला देवी रानी की कोख में है उसे लेजाकर देवानन्दा ब्राह्मणी की कोख में रक्खो । इस पर हरिण गमेषी आज्ञानुसार उसी समय माहण कुंड नगरी में आया व आकर भगवंत को नमस्कार कर के बोला " हे स्वामी आपको भली भांति विदित है कि मैं श्रापका गर्भ हरण करने आया हूं" इस समय देवानन्दा को अवस्वापिनि निद्रा में डाल कर गर्भ हरण किया व गर्भ को लेजाकर क्षत्रीय कुंड नगर के अन्दर सिद्धार्थ राजा के यहां, त्रिशला देवी रानी की कोख में रक्खा व त्रिशला देवी रानी की कोख में जो पुत्री थी उसे लेजाकर देवानन्दा ब्राह्मणी की कोख में रख्खी । पश्चात् सवा नक मास पूर्ण होने पर भगवंत का जन्म हुवा । दिन प्रति दिन बढ़ने लगे व अनुक्रम से यौवनावस्था को प्राप्त हुवे तब यशोदा नामक राजकुमारी के साथ आपका पाणी ग्रहण हुवा । सांसारिक सुख भोगते हुवे आप के एक पुत्री उत्पन्न हुई जिसका नाम प्रियदर्शना रख्खा गया । आप Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छः आरों का वर्णन । ( १६३ ) VVVVVNRNVI तीश वर्ष तक संसार में रहे। माता पिता के स्वर्गवासी होने पर आपने अकेले ही दीक्षा ग्रहण की, संयम लेकर १२ वर्ष ६ माह १५ दिन तक कठिन तप, जप, ध्यान धर कर भगवंत को वैशाख माह में सुदी दशमी को सुवर्त नामक दिन को विजय मुहूर्त में, उत्तरा फान्गुनी नक्षत्र में, शुभ चन्द्रमा के मुहूर्त में, वियंता नामक पिछली पहर में @भिया नगर के बाहर, ऋजुबालिका नदी के उत्तर दिशा के तट पर सामाधिक गाथापति कृष्णी के क्षेत्र में, वैयावृत्यी यक्षालय के ईशान दिशा की ओर, शाल वृक्ष के समीप, उंकड़ा तथा गोधुम आसन पर बैठे हुवे, सूर्य की आतापना लेते हुवे, चउविहार छ? भक्त करके इस प्रकार धर्म ध्यान में प्रवर्तते हुवे तथा चार प्रकार का शुक्ल ध्यान ध्याते हुवे, आठ कमरों में से १ ज्ञानावरणीय २ दर्शना वरणीय ३ मोहनीय ४ अन्तराय इन चार घन घाती कम-जो अरि अर्थात् शत्रु समान, वैरी समान, पिशाच ( झोटिंग ) समान है-का नाश करके ज्ञान रूपी प्रकाश का करने वाला ऐसा केवल ज्ञान केवल दर्शन आपको उत्पन्न हुवा २६ वर्ष ॥ माह तक आप केवल ज्ञान पने विचरे । एवं सर्व ७२ वर्ष का आयुष्य भोग कर चोथे आरे के जब तीन वर्ष ८॥ माह शेष रहे तब कार्तिक विदि अमावस को पावापुरी के अन्दर अकेले ( बिना साधनों के परिवार से) मोक्ष पधारे । भगवंत के पांच Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६४) थोकडा सग्रह। कल्याणीक उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र में हुवे १ पहेला कल्याणीक-दश प्राणत देवलोक से चव कर देवानन्दी की कोख में जब उत्पन्न हुवं तब २ दूसरे कल्याणीक में गर्भ का हरण हुवा ३ तीसरे कल्याणीक में जन्म हुवा ४ चौथे कल्याणीक में दीक्षा ग्रहण की और पांचवें कल्याणीक में केवल ज्ञान प्राप्त हुवा । स्वाति नक्षत्र में भगवन्त मोक्ष पधारे । इस बारे में गति पांच जानना। श्री महावीर स्वामी मोक्ष पधारे उसी समय गौतम स्वामी को केवल ज्ञान उत्पन्न हुवा व बारह वर्ष पर्यन्त केवल प्रवज्यो पाल कर गौतम स्वामी मोक्ष पधारे । उसी समय श्री सुधर्मा स्वामी को केवल ज्ञान उत्पन्न हुवा जो आठ वर्ष तक केवल प्रवर्ध्या पालकर मोक्ष पधारे । उसी समय श्री जम्बू स्वामी को केवल ज्ञान प्राप्त हुवा। इन्होंने ४४ वर्ष तक केवल प्रवा पाली व पश्चात् मोक्ष पधारे एवं सर्व मिलाकर श्री महावीर स्वामी के मोक्ष पधारने बाद ६४ वर्ष तक केवल ज्ञान रहा पश्चात् विच्छेद ( नष्ट ) गया । इस बारे में जन्मे हुवे को पांचवे बारे में मोक्ष मिल सकता है परन्तु पांचवें भारे में जन्मे हुवे को पांचवें आरे में मोक्ष नहीं मिल सकता। श्री जम्बू स्वामी के मोक्ष पधारने के बाद दश बोल विच्छेद हुवे-१परम अवधि ज्ञान २ मनः पयव ज्ञान ३ केवल ज्ञान ४ परिहार विशुद्ध चारित्र ५ सूक्ष्म संपराय चारित्र ६ यथारख्यात Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छः श्रारों का वर्णन । ( १६५) चारित्र ७ पुलाक लब्धि ८६५क-उपशम श्रेणी आहारिक शरीर १० जिन कल्पी साधु ये दश बोल विच्छेद हुवे । ॥इति चौथा पारा सम्पूर्ण' ।। * पांचवां पारा चौथे भारे के समाप्त होते ही २१००० वर्ष का 'दुखम' नामक पांचवां पारा प्रविष्ट होता है तब पूर्वीपेक्षा वर्ण, गंध, रस, स्पर्श की उत्तम पर्यायों में अनन्त गुण हीनता हो जाती है। क्रमसे घटते घटते सात हाथ का ( उत्कृष्ट ) शरीर व २०० वर्ष का प्रायुष्य रह जाता है । उतरते बारे एक हाथ का शरीर व वीश वर्ष का आयुष्य रह जाता है-इस आरे के संघयन छः, संस्थान छः, उतरते आरे सेवा संघयन, हूंडक संस्थान व शरीर में केवल १६ पांसलिये व उतरते श्रारे केवल आठ पांसलिये जानना । मनुष्यों को इस बारे में दिन में दो समय आहार की इच्छा होती है तब शरीर प्रमाणे आहार करते हैं । पृथ्वी का स्वाद कुछ ठीक जानना व उतरते श्रारे कम्भकार ( कुम्हार ) की भट्टी की राख समान । इस बारे में गति चार ( मोक्ष गति छोड़ कर ) पांचवें आरे के लक्षण के ३२ बोल । १ नगर ( शहर ) गांव जैसे होवे । २ ग्राम स्मशान जैसे होवे। Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६६ ) थोकडा संग्रह। ३ सुकुलोत्पन्न दास दासी होवे । ४ प्रधान ( मंत्री) लालची होवें। ५ यम जैसे क्रूर दंड, दाता राजा होवे।। ६ कुलीन स्त्री जा रहित (दुराचारिणी) होवे । ७ कुलीन स्त्री वेश्या समान कर्म करने वाली होवे । ८पिता की आज्ञा भंग करने वाला पुत्र होवे। ६ गुरु की निन्दा करने वाला शिष्य होवे । १० दुर्जन लोग सुखी होवे । ११ सज्जन लोग दुखी होवे । १२ दुर्भिक्ष अकाल बहुत होवे । १३ सर्प बिच्छु, दंश माकुणादि क्षुद्र जीवों की उत्प ति बहुत होवे। १४ ब्राह्मण लोभी होवे। १५ हिंसा धर्म प्रवर्तक बहुत होवे । १६ एक मत के अनेक मतान्तर होवे । १७ मिथ्यात्वी देव बहुत हो । १८ मिथ्यात्वी लोग की वृद्धि होवे । १६ लोगों को देव दर्शन दुर्लभ होवे । २० वैताढ्य गिरि के विद्या धरों की विद्या का प्रभाव मन्द होवे। २१ गो रस (दुग्ध, दही, घी) में स्निग्धता (चिक नाई ) कम होवे। ___ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६७ ) २२ बलद (ऋषभ ) प्रमुख पशु अल्पायुषी होवे । २३ साधु साध्वियों के मास, कल्प, चतुर्मास आदि में रहने योग्य क्षेत्र कम होवे | छः आरों का वर्णन | २४ साधु की १२ प्रतिमा व श्रावक की ११ प्रतिमा के पालक नहीं होवे ( श्रावक की ११ प्रतिमा का विच्छेद कोई कोई नहीं मानते ) | २५ गुरु शिष्य को पड़ावे नहीं । २६ शिष्य विनीत (क्लेसी ) होवे | २७ अधर्मी, क्लेशी, कदाग्रही, धूर्त, दगाबाज व दुष्ट मनुष्य अधिक होवे | २८ श्राचार्य अपने गच्छ व सम्प्रदाय की परंपरा समाचारी अलग अलग प्रवतावेगें तथा मूर्ख मनुष्यों को मोह मिथ्यात्व के जाल में डालेंगे, उत्सूत्र प्ररुपक लोगों को भ्रम में फसाने वाले, निन्दनीक कुबुद्धिक व नाम मात्र के धर्मी जन होयेंगे व प्रत्येक आचार्य लोगों को अपनी २ परंपरा में रखने वाले होवेंगे । २६ सरल, भद्रिक, न्यायी, प्रमाणिक पुरुष कम होवे । ३० म्लेछ राजा अधिक होवे | ३१ हिन्दू राजा अल्प ऋद्धि वाले व कम होवे । ३२ सुकुलोत्पन्न राजा नीच कर्म करने वाले होवे । इस आरे में धन सर्व विच्छेद हो जावेगा, लोहे की Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६८ ) थोकडा संग्रह | धातु रहेगी, व चर्म की मोहरे चलेगी जिसके पास ये रहेंगे वे श्रीमन्त ( धनवान ) कहलायेंगे | इस आरे में मनुष्यों को उपवास मास खमण समान लगेगा | [ इस आरे में ज्ञान सर्व विच्छेद हो जावेगा केवल दशवैकालिक सूत्र के चार अध्ययन रहेंगे । कोई कोई मानते हैं कि १ दशवैकालिक २ उत्तराध्ययन ३ आचारांग ४ आवश्यक ये चार सूत्र रहेंगे । इस में चार जीव एकावतारी होंगे - १ दुपसह नामक आचार्य २ फाल्गुनी नामक साध्वी ३ जीनदास श्रावक ४ नाग श्री श्राविका ये सर्व २००४ पांचवे आरे के अन्त तक श्री महावीर स्वामी के युगंधर जानना । ] आषाढ सुदि १५ को शकेन्द्र का श्रासन चलायमान होवेगा तब शकेन्द्र उपयोग द्वारा मालूम करेंगे कि आज पांचवा श्रारा समाप्त होकर छट्टा चारा लगेगा ऐसा जान कर शकेन्द्र वेंगे व श्राकर चार जीवों को कहेंगे कि कल छहा आर लगेगा अतः आलोचना व प्रतिक्रमण द्वारा शुद्ध बनो अनन्तर ऐसा सुन कर वो चारों जीव सबों को क्षमा कर, निशल्य हो कर संथारा करेंगे। उस समय संवर्तक महासंवर्तक नामक हवा चलेगी जिससे पर्वत, गढ़, कोट, कुर्वे, बावडीयें आदि सर्व स्थानक नष्ट होजावेंगे केवल १ वैताढ्य पर्वत २ गंगा नदी ३ सिंधु नदी ४ ऋषभ कुट ५ लवण की खाडी ये पांच स्थानक बच रहेंगे Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छः अारों का वर्णन । ( १६६) शेष सब नष्ट होजावेंगे। वे चार जीव समाधि परिणाम से काल करके प्रथम देवलोक में जावेंगे पश्चात् चार बोल और विच्छेद होवेंगे १ प्रथम प्रहर में जैन धर्म २ दूसरे प्रहर में मिथ्यात्रियों के धर्म ३ तीसरे प्रहर में राजनीति और चौथे प्रहर में बादर अग्नि विच्छेद हो जावेगा। पांचवे आरे के अन्त तक जीव चार गति में जाते हैं कवल एक पांचवी मोक्ष गति में नहीं जात हैं। ॥ इति पांचवा पारा॥ हा पारा उक्त प्रकार से पञ्चम आरे की समाप्ति होते ही २१००० वर्ष के 'दुःखमा दुखमी' नामक छठे आरे का आरंभ होगा। तब भरतक्षेत्राधिष्टित देव पञ्चम आरे के विनाश पाते हुवे पशु मनुष्यों में से बीज रूप कछ मनुष्यों को उठाकर वैताढ्य गिरि के दक्षिण और उत्तर में जो गङ्गा और सिन्धु नदी है उनके आठों किनारों में से एक एक तट में नव२ बिल हैं एवं सर्व १२ बिल हैं और एक एक बिल में तीन तीन मंजिल है उनमें से उन पशु व मनुष्यों को रक्खेंगे । छठे बारे में पूर्वापेक्षा वर्ण गंध, रस, स्पर्श आदि पुद्गलों की पर्यायों की उत्तमता में अनन्त गुणी हानि हो जावेगी। क्रम से घटते घटते इस बारे में Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७०) भो कडा संग्रह। देह मान एक हाथ का, आयुष्य २० वर्ष का उतरते आरे मूठ कम एक हाथ का व आयुष्य १६ वर्ष का रह जावेगा। इस बारे में संघयन एक सेवात,संस्थान एक हूंडक उतरते आरे भी ऐसा ही जानना । मनुष्य के शरीर में आठ पंस. लिये व उतरते आरे केवल चार पंसलिये रह जावेगी । इस बारे में छः वर्ष की स्त्री गर्भ धारण करने लग जावेगी व कुती के समान परिवार के साथ विचरेगी । गङ्गा सिन्धु नदी का ६२॥ योजन का पट है जिनमें से रथ के चक्र समान थोड़ा पाट व गाड़े की धूरी डूबे इतना गहरा जल रह जायगा जिनमें मत्स कच्छ आदि जीव जन्तु विशेष रहेंगे । ७२ बिल के अन्दर रहने वाले मनुष्य संध्या तथा प्रभात के समय उन मत्स कच्छ आदि जीवों को जल से बाहार निकाल कर नदी के किनारे रेत में गाढ कर रख देंगे वे जीव सूर्य की तेजी व उग्र शरदी से भुना जावेंगे जिनका मनुष्य आहार करलेवेंगे इनके चमड़े व हड्डियों को चाट कर तिथंच अपना निर्वाह करेंगे । मनुष्यों के मस्तक की खोपड़ी में जल लाकर मनुष्य पीवेंगे। इस प्रकार २१००० वर्ष पूर्ण होवेंगे जो मनुष्य दान पुन्य रहित, नमोकार रहित व्रत प्रत्याख्यान रहित होवेंगे केवल वे ही इस बारे में आकर उत्पन्न होवेंगे। ऐसा जान कर जो जीव जैन धर्म पालेगा तथा जैन Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छः पारों का वर्णन । ( १७१ ) धर्म पर प्रास्ता ( श्रद्धा) रखेगा वह जीव इस भवसागर से पार उतर कर परम सुख को प्राप्त करे।।। ॥ इति छैः पारा का भाव सम्पूर्ण ॥ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थोकडा संग्रह। ( १७२) * दश द्वार के जीव स्थानक गाथा: 'जीवठाण, 'लहरु णं, 'टिई, "किरिया, 'कम्मसत्ताअ, 'बंध उदीरण उदअ 'निज्जरा "छभाव दश दारात्र ।। अर्थः-दश द्वार के नाम:-१ चौदह जीव स्थानक के नाम २ लक्षण द्वार ३ स्थिति द्वार ४ क्रिया द्वार ५ कर्म सत्ता द्वार ६ कर्म बंध द्वार ७ कर्म उद्दीर्ण द्वार ८ कर्म उदय द्वार ६ कर्म निर्जरा द्वार १० छे भाव द्वार । दश द्वार का विस्तार। (१) नाम द्वार:-चौदह जीव स्थानक के नाम१ मिथ्यात्व जीव स्थानक २ सास्वादान जीव स्थानक ३ सम मिथ्यात्व ( मिश्र) दृष्टि जीव स्थनाक ४ अवति सम दृष्टि जीव स्थानक ५ देश व्रति जीव स्थानक ६ प्रमत्त संयति जीव स्थानक ७ अप्रमत्त संयति जीव स्थानक ८ निवर्ती बादर जीव स्थानक ६ अनिवर्ती बादर जीव स्थानक १० सूक्ष्म संपराय जीव स्थानक ११ उपसम मोहनीय जीव स्थानक १२ क्षीण मोहनीय जीव स्थानक १३ सयोगी केवली जीव स्थानक १४ अयोगी केवली जीव स्थानक। Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश द्वार के जीव स्थानक । ( १७३) *२ लक्षण द्वार । १ मिथ्यात्व दृष्टि जीव स्थानक का लक्षणइसके दो भेद १ उपाइरित २ तवाइरित । १ उपाइरितः-जो कम ज्यादा श्रद्धान करे व परुपे। २ तवा इरित:-जो विपरीत श्रद्धान करे व परुपे। मिथ्यात्व के चार भेद । (१) एक मूल से ही वीतराग के वचनों पर श्रद्धान नहीं करे ३६३ पांखएडी समान शाख(साक्षी) सूयगडा (सूत्रकृतांग)। (२) एक कुछ श्रद्धान करे कुछ नहीं करे-जमाली-सूत्र की प्रमुख सात नीन्हवों के समान साक्षी सूत्र उववाई तथा ठाणांग के सातवें ठाणे की । (३) एक भागा पीछा कम ज्यादा श्रद्धान करे उदकपेढाल वत् (समान) शाख सूत्र सूय गडांग स्कन्धरअध्ययन ७ ___ (४) एक ज्ञान अन्तरादिक तेरह बोल के अन्दर शङ्का कंखा वेदे १ ज्ञानान्तर २ दर्शनान्तर ३ चारित्रान्तर ४ लिङ्गान्तर ५ प्रवचनान्तर ६ प्रावचनान्तर ७ कल्पान्तर ८ मागोन्तर ६ मतान्तर १० भङ्गान्तर ११ नयान्तर १२ नियमान्तर १३ प्रमाणान्तर एवं तेरह अन्तर । शाख सूत्र भगवतो शतक पहेला उदेशा तीसरा । २ मास्वादान समदृष्टि जीवस्थानक का लक्षण:जो समाकित छोड़ता २ अन्तमें परास मात्र रह जावे, Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थोकडा संग्रह | बेइन्द्रियादिक ने अपर्याप्त होत समय होंवे व पर्याप्त होने बाद मिट जावे संज्ञी पंचन्द्रिय को पर्याप्त होने बाद भी होवे उसे साखादान राष्टिहते हैं शाख सूत्र जीवाभिगम दण्डक के अधिकार से । ( १०३ ) ३ मिश्रदृष्टि जीव स्थानक का लक्षणः --जो मिथ्यात्व में से निकला परन्तु जिसने समकिन प्राप्त की नहीं इस बीच में अध्वमाय के रस से प्रवर्तता हुआ श्रायुष्य कर्म बांधे नहीं, काल भी करें नहीं, वहां से थोड़े समय के अन्दर, अनिश्चयता से तीसरे जीव स्थानक से गिर कर पहेले जीव स्थानक अवे अथवा वहां से चौथे यदि जीव स्थानक पर जावे तब आयुष्य बांधे, काल भी करे । शाख सूत्र भगवती शतक तशिवें अथवा २६ वें | ४ व्रती सम दृष्टि जीव स्थानक का लक्षण:जो शंका वा रहित हो कर वीतराग के वचनों पर शुद्ध भाव से श्रद्धान करे तथा प्रतीति लाकर रोचे, चोरी प्रमुख विरुद्ध आचरण श्राचरे नहीं, इसलिये कि उसकी लोक में हिलना होवे नहीं - व व्यवहार में समकित रहे । शाख सूत्र उत्तराध्ययन के २८ वें मोक्ष मार्ग के अध्ययन से | ५ देशवती जीव स्थानक का लक्षणः- जो यथातथ्य समकित सहित, विज्ञान विवेक सहित देश पूर्वक व्रत अङ्गिकार करे, जो जघन्य एक नमोकारशी प्रत्याख्यान तथा एक जीव की घात करने का प्रत्याख्यान Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश द्वार के जीव स्थानक । (१७५) उत्कृष्ट श्रावक की ११ प्रतिमा आदरे उसे देश व्रती जीव स्थानक कहते हैं। शाख सूत्र भगवती शतक सतरवां उद्देशा ६ प्रमत्त संयति जीव स्थानक का लक्षण:-जो समकित सहित सर्व व्रत आदरे, जो (अप्रमत्त जीवस्थानक के संज्वलन के चार कषाय है उन से ) प्र, अर्थात् विशेष मत्त कहेता माता ( मस्त ) होवे संज्वलन का क्रोध मान माया लोभ उसे प्रमत्त संयति जीवस्थानक वाहते हैं परंतु प्रमादी नहीं कहते हैं। ७ अप्रमत्त संयति जीव स्थानक का लक्षण:जो अ, कहेता नहीं, प्र, कहेता विशेष, मत्त, कहेता मातासंज्वलन का क्रोध मान माया लोभ एवं हटे जीवस्थ नक से जो कुछ पतला हो उसे अप्रमत संयति जीवस्थानक कहते हैं। ८निवर्ती बादर जीव स्थानक का लक्षणः-जो निवर्ती- कहेता निवर्ता ( दूर, अलग ) है संज्वलन का क्रोध तथा मान से उसे निवर्ती बादर जीवस्थानक कहते हैं। ६ अनिवर्ती बादर जीवस्थानक का लक्षण:अनिवर्ती कहेता नहीं निवर्ता संज्वलन के लोभ से उसे अनिवर्ती बादर जीवस्थानक कहते हैं । . १० सूक्ष्म संपराय जीवस्थानक का लक्षण:जहां थोड़ा सा संज्वलन का लोभ का उदय है वो सूक्ष्म संपराय जीवस्थानक कहलाता है। Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७६ ) ११ उपशान्त मोहनीय जीवस्थानक का लक्षणः जिसने मोहनीय कर्म की २८ प्रकृति उपशमाई है उसेउपशान्त मोहनीय जीव स्थानक कहते हैं । १२ क्षीण मोहनीय जीवस्थानक का लक्षण:जिसने मोहनीय कर्म की २८ प्रवृत्ति का ६व किया है उसे क्षीण मोहनीय स्थानक कहते हैं । १३ सयोगी केवली जीवस्थानक का लक्षण:-- जो मन वचन व काया के शुभ योग सहित केवल ज्ञान केवल दर्शन में प्रवत रहा है उसे सयोगी केवली जी स्थानक कहते हैं । थोकडा संग्रह | ~~~ १४ अयोगी केवली जीवस्थानक का लक्षण:जो शरीर सहित मन वचन काया के योग रोक कर केवल ज्ञान केवल दर्शन में प्रवत रहा है उन्हें अयोगी केवली जीव स्थानक कहते हैं । * ३ स्थिति द्वार - १ मिथ्यात्व जीवस्थानक की स्थिति तीन तरह की (१) अनादि पर्यवसितः - जिस मिथ्यात्व की आदि नहीं और अन्त भी नहीं ऐसा अभव्य जीवों का मिथ्यात्व जानना । (२) अनादि सपर्यवसितः - जिस मिध्यात्व की यदि नहीं परन्तु अन्त है ऐसा भव्य जीवों का मिथ्यात्व जानना । · Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश द्वार के जीव स्थानक । ( १७७ ) (३) सादि सपर्यवसित:-जिस मिथ्यात्व की आदि है और अन्त भी है । अनादि काल से जीव को यह नि: थ्यात्व लगा है। परन्तु किसी समय भव्य जीव समकित की प्राप्ति करता है व संसार परिभ्रमण योग कर्म के प्राबाल्य से फिर समकित से गिर कर मिथ्यात्व को अंगीकार करता है । ऐसे भव्य जीवों को समदृष्टि पडिवाइ कहते हैं इस मिथ्यात्व जीव स्थानक की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहुर्त उत्कृष्ट अर्ध पुद्गल परावर्तन में देश न्यून । ऐसे जीव निश्चय से समकित पाकर मोक्ष जाते हैं । शाख सूत्र जीवाभिगम दण्डक के अधिकार से । २-३ दूसरे व तीसरे जीव स्थानक की स्थिति जघन्य एक समय की उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त की। .. चोथे जीव स्थानक की स्थिति:-जघन्य अन्तर्मुहूर्त की उत्कृष्ट ६६ सागरोपम जाजरी । पांचवे जीव स्थानक की स्थितिः-जघन्य की उत्कृष्ट करोड़ पूर्व में देश न्यून । .. छठ जीव स्थानक की स्थिति-परिणाम आश्री जघन्य एक समय उत्कृष्ट करोड़ पूर्व में देश यून । ____ प्रवर्तन आश्री जघन्य अन्तर्मुहूर्त की उत्कृष्ट करोड़ पूर्व में देश न्यून । धर्म देव आश्री, शाख सूत्र भगवती शतक १२ उद्देश है। सातवें, आठवें, नववें, दशवें, इग्यारवें, जीव स्थानक हत Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७८ ) थोकडा संग्रह | की स्थिति जघन्य एक समय की उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त की । शाख सूत्र भगवती शतक पच्चीशवां । बारहवें जीव स्थानक की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त की उत्कृष्ट अन्तर मुहूर्त की । तेरहवें जीव स्थानक की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त की उत्कृष्ट करोड़ पूर्व में देश न्यून | चौदहवें जीव स्थानक की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त की । वह अन्तर[हूर्त कैसा : लघु स्वर (ह्रस्व स्वर-अ, इ, उ, ऋ, ऌ, ) का उच्चारण करने में जितना समय लगे उसे अन्तर्मुहूर्त कहते हैं । * ४ क्रिया द्वार काइया क्रिया इत्यादिक २५ क्रिया में से जो २ क्रिया जिस२ जीव स्थानक पर जिन कारणों से लगती है उसका विस्तार पूर्वक वर्णन, कर्म आठ हैं जिनने चोथा मोहनीय कर्म सरदार है । इसकी २८ प्रकृतिः - कर्म प्रकृति के थोकड़े म लिखे हुवे मोहनीय कर्म की प्रकृति की सत्ता, उदय क्षयोपशम, क्षय आदि से जो२ क्रिया लगे और जोर नहीं लगे उसका वर्णनः (१) पहेला मिथ्यात्व जीव स्थानक पर - मोहनीय कर्म की २८ प्रकृति में से अभव्य को २६ प्रकृति की सत्ता है - १ समकित मोहनीय २ मिश्र मोहनीय ये दो छोड़कर Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश द्वार के जीव स्थानक । ( १७६ ) शेष. २६. कुछ भव्य जीव को २८ प्रकृति का उदय होता है। जिसमें मिथ्यात्व का बल विशेष । दो की नीमा. व तीन की ( वाद ) भजना १ समकित मोहनीय २ मिश्र मोहनीय इन दो की नीमा. १ प्रक्रिया वादी २ अज्ञान वादी ३.विनय वादी इन तीन की भजना. इस तरह चोवीश संपराय क्रिया लगे। (२) दूसरे जीव स्थानक में मोहनीय कर्म की २८ प्रकृतियों में से बीस का उदय होता है,उसमें सास्वादन का बल विशेष होता है उसमें दो की नीमा १ मिथ्यात्व मोहनीय ,२.मिश्र मोहनीय। दो का वाद होता है १ अक्रियावादी, २ अज्ञान वादी जिससे चोवीश संपराय क्रिया लगती है। (३) मिश्र दृष्टि जीव स्थानक में मोहनीय कर्म की २८ प्रकृति में से २८ का उदय इनमें मिश्र का बल विशेष है उसमें दो की नीमा और दो का वाद.१ समकित मोहनीय २ मिथ्यात्व मोहनीय इन दो की नीमा, १ अज्ञान वादी २ विनय वादी इन दो का वाद इस तरह २४.संप. राय क्रिया लगती है। (४) अवर्ती समदृष्टि जीव स्थानक में-मोहनीय कर्म की २८ प्रकृति में से सात का क्षयोपशम २१ का उदय । अनन्तानु बंधी क्रोध मान माया लोभ ५.समकित मोहनीय ६ मिथ्यात्व मोहनीय इन सात का सोपशम २१ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८०) थोकड! संग्रह। का उदय-ऊपर कहे हुवे सात क्षयोपशम में एक मिथ्या दर्शन वत्तिया क्रिया नहीं लगे २१ के उदय में २३ संपराय क्रिया लगे। . (५) देश व्रती जीव स्थानक में मोहनीय कर्म की२८ प्रकृति में से ११ का क्षयोपशम व १७ का उदय १ अनन्तानु बंधी क्रोध २ मान ३ माया ४ लोभ ५ समकित मोहनीय ६ मिथ्यात्व मोहनीय ७ मिश्र मोहनीय ८ अप्रत्याख्यानी क्रोध ह मान १० माया ११ लोभ इन ११ का क्षयोपशम व उक्त ११ बोल छोड़ कर शेष ( २८-११) १७ का उदय, ११ क्षयोपशम में मिथ्यात्व दर्शन वत्तिया क्रिया व अप्रत्याख्यान क्रिया ये दो क्रिया नहीं लगे १७ के उदय में २२ संपराय क्रिया लगे। - (६) प्रमत्त संयति जीव स्थानक में मोहनीय कर्म की २८ प्रकृति में से १५ का क्षयोपशम १३ का उदय १ अनन्तानुबंधी क्रोध २ मान ३ माया ४ लोभ ५ समकित मोहनीय ६ मिथ्यात्व मोहनीय ७ मिश्र मोहनीय ८ अप्रत्याख्यानी क्रोध ६ मान १० माया ११ लोभ १२ प्रत्याख्यानी क्रोध १३ मान १४ माया १५ लोभ इन १५ का क्षयोपशम उक्त १५ बोल छोड़ कर शेष १३ बोल का उदय १५ के क्षयोपशम में २२ संपराय क्रिया नहीं लगे १३ के उदय में १ आरंभिया २ माया वत्तिया ये दो क्रिया लगे छठे जीव स्थानक आरंभ नहीं करे परन्तु घृत के कुंभवत् । Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश द्वार के जीव स्थानक | (( १८१ ) (७) जीव स्थानक में मोहनीय कर्म की २८ प्रकृति में से सोलह का क्षयोपशम, १२ का उदय १५ बोल तो ऊपर कहे वो और १ संज्वलन का क्रोध एवं १६ का क्षयोपशम २८ प्रकृति में से ये १६ छोड़ शेष १२ का उदय । १६ के क्षयोपशम में २३ संपराय क्रिया नहीं लगे | १२ के उदय में एक माया बत्तिया क्रिया लगे । आठवें जीव स्थानक में मोहनीय कर्म की २८ प्रकति में से सात का उपशम तथा क्षायिक ( क्षय ) १० का क्षयोपशम और ११ का उदय । सात उपशम तथा क्षायिक१ अनन्तानुबंधी क्रोध २ मान ३ माया ४ लोभ ५ समकित मोहनीय ६ मिथ्यात्व मोहनीय ७ मिश्र मोहनीय श्रप्रत्याख्यानी चार, प्रत्याख्यानी चार एवं ८, ६ संज्वलन का क्रोध १० संज्वलन की माया ११ लोभ एवं ११ का उदय । १० के क्षयोपशम में २३ संपराय क्रिया नहीं लगे । ११ के उदय में एक माया वत्तिया क्रिया लगे । नववें जीव स्थानक में मोहनीय कर्म की २८ प्रकृति में से १० का उपशम तथा क्षायिक, ११ का क्षयोपशम ७ का उदय । अनन्तानुबंधी के चार ५ समकित मोहनीय ६ मिथ्यात्व मोहनीय ७ मिश्र मोहनीय और तीन वेद एवं १० का उपशम तथा क्षायिक, अप्रत्याख्यानी चार प्रत्यख्यानी चार, ८, ६ संज्वलन का क्रोध १० मान ११ माया एवं ११ का क्षयोपशम, नो कषाय के नव में से तीन Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८२ ) थोकडा-संग्रह। वेद के छोड़ शेष छः और संज्वलन का लोभ एवं सात का उदय, ११ के क्षयोपशम में २३ संपराय क्रिया नहीं लगे। सात के उदय में एक मायावत्तिया क्रिया लगे। - दशवे जीव स्थानक में मोहनीय कर्म की २७ प्रकृति में से २७ का उपशम अथवा क्षायिक, १ कुछ संज्वलन का लोभ का उदय २७ के उपशम तथा क्षायिक में २३ संपराय क्रिया नहीं लगे और एक संज्वलनं का लोभ के उदय में एक माया वत्तिया क्रिया लगे । ११ वें जीवस्थानक में मोहनीय कर्म की २८ प्रकृति में से सर्व प्रकृति उपशमाई है इस से २४ संपराय क्रिया नहीं लगे परन्तु सात कर्म का उदय है इस से एक इयोपथिका (इरिया वहिया ) क्रिया लगे। १२ वें जीवस्थानक में मोहनीय कर्म की २८ प्रकृति उपशमाई है इस से २४ संपराय क्रिया नहीं लगे परन्तु सात कर्म का उदय है इससे एक इपिथिका क्रिया लगे। १३ वें जीवस्थानक में चार घातिया कर्म का क्षय होता है इससे २४ संपराय क्रियां नहीं लगे चार अपातिया कर्म का उदय है इससे एक इयोपथिका क्रिया लगे। १४ वें जीवस्थानक में चार घातिया कर्म का क्षय होता है व चार अघातिया कर्म का उदय है जिसमें भी वेदनीय कर्म का बल था वह नहीं रहा इससे एक भी क्रिया नहीं लगे। Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश द्वार के जीव स्थानक | ( १८३ ) * ५ कर्म की सत्ता द्वार पहिले जीवस्थानक से ग्यारवें जीवस्थानक तक आठ ही कर्मों की सत्ता, बारहवें जीवस्थानक में सात कर्म की सत्ता - मोहनीय कर्म की नहीं, तेरहवें और चौदहवें में चार कर्म की सत्ता - १ वेदनीय कर्म २ आयुष्य कमे ३ नाम कर्म ४ गौत्र कर्म । * ६ कर्म का बंध द्वार पहिला तथा दूसरा जीवस्थानक पर सात तथा आठ कर्म बांधे ( सात बांधे तो आयुष्य कर्म छेड़ कर सात बांधे) चौधे से सातवें जीवस्थानक तक सात तथा आठ कर्म बांधे ऊपर समान तीसरे, आठवें, नवत्रे जीवस्थानक पर सात कर्म बांधे ( आयुष्य कर्म छोड़ कर ) दशवें जीवस्थानक पर ६ कर्म बांधे ( आयुष्य और मोहनीय कर्म छोड़कर) ११ वें १२ वें, १३ वें जीवस्थानक पर एक शांता वेदनीय कर्म बांधे और चौदहवें जीवस्थानक पर एक भी कर्म नहीं बांधे । * ७ कर्म की उदीरणा द्वार पहिला जीव स्थानक पर सात, आठ अथवा छः कर्म की उदीरणा करे ( सात की करे तो वेदनीय कर्म छोड़ कर व छः कर्म की करे तो वेदनीय व आयुष्य कर्म छोड़ कर ) । दूसरे, तीसरे, चौथे व पांचवें जीव स्थानक पर सात Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८४) थोकडा संग्रह। अथवा आठ कर्म की उदीरणा करे ( सात की करे तो आयुष्य कर्म छोड़ कर )। __ छठ, सातवें, आठवें, नववे जीव स्थानक पर सात, आठ, छः की उदीरणा करे (सात की करे तो आयुष्य छोड़ कर और छः की करे तो प्रायुष्य और वेदनीय कर्म छोड़ कर )। दशवें जीव स्थानक पर छः व पांच की उदीरणा करे (छ: की करे तो आयुष्य और वेदनीय छोड़ कर और पांच की करे तो आयुष्य, वेदनीय व मोहनीय ये तीन छोड़ कर )। ____ इग्यारहवें जीव स्थानक पर पांच कर्भ की उदीरणा को ( आयुष्य, वेदनीय और मोहनीय कर्म छोड़ कर ) । बारहवें, तेरहवें जीव स्थानक पर दो कर्म की उदीरणा करे नाम और गोत्र कर्म की। _ चौदहवें जीव स्थानक पर एक भी कर्म की उदीरणा नहीं करे। ८ कर्म का उदय व ६ कर्म की निर्जरा द्वार । पहेले से दशवे जीव स्थानक तक पाठ कर्म का उदय और आठ कर्म की निर्जरा इग्यारहवें व बारहवें जीव स्थानक पर मोहनीय कर्म छोड़ कर शेष सात कर्म का उदय और सात कर्म की निर्जरा तेरहवें चौदहवें जीव स्थानक पर चार कर्म का उदय और चार कर्म की निर्जरा १ वेदनीय २ आयुष्य ३ नाम ४ गौत्र । Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश द्वार के जीव स्थानक । ( १८५ ) * १० छः भाव का द्वार छः भाव का नाम १ औदयिक २ औपशमिक ३ चायिक ४ क्षायोपशमिक ५ पारिणामिक ६ सान्निपातिक छः भाव के भेदः - १ श्रदयिक भाव के दो भेद:- १ जीव औदयिक २ जीव श्रदयिक | १ जीव श्रदयिक के दो भेद:- १ भौदधिक २ औदयिक निष्पन्न १ जिसमें आठ कर्म का उदय हो वो कर्म के उदय से जो २ पदार्थ उत्पन्न और होवे ( निपजे) वो श्रदयिक निष्पन्न | आठ कर्म के उदय से जो २ पदार्थ उत्पन्न होवे उसपर ३२ बोल | गाथा: गई, काय, कसाय, वेद, लेस्स मिच्छदिठि, प्रविरिए सन्नी नाणी आहारे, बउमथ्य सजोगी संसारथ्य असिद्धेय । अर्थः- गति चार ४ काय छः, १०, कषाय ४, १४, वेद तीन, १७, लेश्या ६, २३, २४ मिथ्यात्व दृष्टि २५ व्रतीत्व (अत्रतीपना ) २६, असंज्ञीत्य २७, अज्ञान २८ आहारिक पना २६ छद्मस्थपना ३० सजोगी (सयोगीपना ) ३१ सांसारिकपना ( संसार में रहना ) ३२ - सिद्धपना एवं ३२ बोल जीव श्रदयिक से पावे । Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ र८६) थाकडा सप्रहा २ अजीव औदयिक के १४ भेद १ औदारिक शरीर २ औदारिक शरीर से परिणम ने वाले पुद्गल ३ वैक्रिय शरीर ४ वैक्रिय शरीर से परिणम ने वाले पुद्गल ५ श्राहारिक शरीर ६आहारिक शरीर से परिणम ने वाले पुद्गल ७ तेजस् शरीर ८ तैजम् शरीर से परिणम ने वाले पुद्गल ह कार्मण शरीर १० कार्मण शरीर से परिणम ने वाले पुद्गल ११ वर्ण १२ गन्ध १३ रस १४ स्पर्श। २ औप शामिक भाव के दो भेदः-औपश. मिक और २ औपशमिक निष्पन्न । मोहनीय कर्म की जो २८ प्रकृति उपशमाई वो औपशमिक और मोहनीय कर्म उपशम करने से जोर पदार्थ निपजे वो औपशमिक निष्पन्न। उपशमाने ( उपशान्त करने ) से जो २ पदार्थ निपजे उसपर गाथा (अर्थ सहित ):कसाय पेजदोसे, दंसण मोह णीजे चरित्त मोहणीजे,। सम्मत्त चरीत्त लद्धी, छउ मथ्थे वीयरागे य ॥ अर्थः कषाय चार, ४, ५ राग ६ दोष ७ दर्शन मोहनीय ८ चारित्र मोहनीय इन आठ की उपशमता ६समकित तथा उपशम चारित्र की लब्धी की प्राप्ति होवे १० छमस्थपना ११ यथाख्यात चारित्र पना ये ११ बोल उपशम से पावे इसी प्रकार ये ११ बोल उपशम निष्पन्न से भी पावे। ३ क्षायिक भावना के दो भेदः-१ क्षायिक २ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश द्वार के जीव स्थानक । ( १८७) क्षायिक निष्पन्न । जिनमें से क्षायिक से आठ कर्म का क्षय होवे । आठ कर्म खपाने (क्षय करने ) के बाद जोर पदार्थ निपजे उसे क्षायिक निष्पन्न कहते हैं। क्षायिक निष्पन्न के आठ भेद १ ज्ञाना वरणीय कर्म का क्षय होवे तब केवल ज्ञान उत्पन्न होव २ दर्शना वरणीय कर्म का क्षय होवे तब केवल दर्शन उत्पन्न होवे ३ वेदनीय कर्म का क्षय होवे तब निराबाधत्वपन उत्पन्न होवे ४ मोहनीय कमे का क्षय. होवे तब क्षायिक सम्यक्त्व उत्पन्न होवे ५ आयुष का क्षय होवे तर अक्षयत्वपन उत्पन्न होवे ६ नाम कर्म का क्षय होवे तव अरूपीपन उत्पन्न होवे ७ गोत्र कर्म का क्षय होवे तो अगुरूलघु पन उत्पन्न होवे ८ अंतराय कर्म का क्षय होवे तो वीयपना उत्पन्न होवे । ४क्षायोपशमिक भाव के दो भेदः-१ बायोपशमिक २क्षायोपशमिक निष्पन्न । उदय में आये हुवे कमाँ को खपावे और जो कर्म उदय में नहीं आये उन्हें उपशमावे उसे क्षायोपशमिक भाव कहते हैं। क्षायोपशम करने से जो २ पदार्थ निपजे उन्हें क्षायोपशमिक निष्पन्न कहते हैं। क्षायोपशम से जो २ पदार्थ निपजे उस पर गाथा:दस उव उग तिदिठि चउ चरित्त, चरित्ता चरितें य । दाणाइ पंच लद्धि, वीरियत्ति पंच इंदिए ॥ १॥ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८८) थोकडा संग्रह। दुवालस अंग धरे, नव पुव्वी जाव चउदस पुविए । उवसम, गणी पडि मात्र, इइ चउसम नीककन्ने ॥२॥ अर्थः-छद्मस्थ के १० उपयोग, १०, ३ दृष्टि, १३ ४ चारित्र पहेला, १७, १८ श्रावकत्व, दानादि पंचलब्धि २३, ३ वीर्य, २६, ५ इन्द्रिय, ३१, १२, अंग की धारना ४३, नव पूर्व यावत् १४ पूर्व का ज्ञान होना, ४४ उपशम ४५ प्राचार्य की प्रतिमा ४६ एवं ४६ बोल क्षायोपशमिक भाव से निपजे । क्षायोपशमिक निष्पन्न भाव से भी ये ४६ बोल। ५ पारिणामिक भाव से दो भेद सादि पारिणामिक २ अनादि पारिणामिक इन में मे प्रथम पारिणामिक भाव के दश भेद १ धर्मास्तिकाय २ अधर्मास्ति काय ३ आकाशास्तिकाय ४ जीवास्तिकाय ५ पुद्गलास्तिकाय ६ अद्धाकाल ७ भव्य ८ अभव्य ६ लोक १० अलोक ये दश सर्वदा विद्यमान हैं सादि पारिणामिक के भेद नीचे अनुसार। गाथा जुना सुरा, जुना गुला, जुना घियं, जुना तंदुल चेव । अभयं, अभयरुखा, संद्ध गंधव्व नगरा ॥ १ ॥ उकावाए दिसिदाहे, गजीए मिज़्जुए, णिग्याए । जुवए जरूखालिलए, धुमिता महीता रजोघाए ॥ २ ॥ ___ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश द्वार के जीव स्थानक । (१८६) चंदो वरागा, सुरोवरागा, चंदो पडिवेसा सुरोपडिवैसा । पडिचंदा पडिसुरा,इन्द धणु उदग,मका,कविहंसा अमोहे॥३॥ बासा, वासहरा चेव, गाम, घर णगरा । . पयल पायाल भवणा अ, निरम पासाए ॥४॥ पुढ विसत्त कप्पो बार, गेविज्य अणुत्तर सिद्धि । पम्माणु पोग्गल दोपएसी, जाव अपंत प्पएसी खघे ॥५॥ अथः पुरानी शराब, पुराना गुड़, पुराना घी पुराने चांवल, बादल, बादल की रेखा, संध्या का वर्षे गंधर्व के चिह्न, नगर के चिह्न (१) १ उन्का पात २ दिशि दाल ३ गर्जना ४ विद्युत ५ निर्घात (काटक ) ६ शुक्ल पक्ष का बालचन्द्र ७ आकाश में यच का चिह्न ८ कृष्ण धूयर ६ उजल धूयर १० रजोधात (२) चन्द्र ग्रहण, सूर्य ग्रहण, चन्द्र का जलकुण्ड, सूर्य जल कुएड एक ही समय दो चान्द दो सूर्य दीखाई देवे, इन्द्र धनुष्य जल पूर्ण बादल, मच्छ के चिह्न, बन्दर के चिह्न, हंस का चिह्न, और बाण का चिह्न ( ३ ) क्षेत्र, वर्ष धर, पर्वत, ग्राम, घर नगर प्रासाद ( महेल ), पाताल, कलश, भवन पति के भवन नरक वासे, (४) सात पृथ्वी, कल्प (देवलोकं ) बारह, नव ग्रीयवेक, पांच अनुत्तर विमान, सिद्ध शिला,परमाणु पुद्गल दो प्रदेशी स्कन्ध यावत् अनंत प्रदेशी कंध । ( ५ ) इन बोलों में पुद्गल जावे तथा आवे, गले Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६०) थोकडा संग्रह। तथा (आकर ) मिले अतः इन्हे सादि पारिणामिक कहते हैं। ६सान्निपातिक भाव-इस पर २६ भांङ्ग. दो संयोगी के दश, तीन संयोगी के दश, चार. संयोगा के पांच, पांच संयोगी का एक एवं २६ भांगे नीचे लिके यन्त्र समान जानना। दो संयोगी के दश भांगे मांगा औदयिक औपशमिक क्षायिक क्षायोपशमिक पारि. ० onr m ० or or or or ० ० ० ० - ० ० ० ० ० x ur ० ० ० ० p ० ० x x no ० ० ० ० ० u ० x - ar ० नवा भांगा सिद्ध को पाये Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश द्वार के जीव स्थानक १ तीन संयोगी के दश भांगे । भांगा औदयिक औपशमिक क्षायिक क्षायोपशमिक पारि, ११ १ १ १ १२ १ १ १३ १ १४ १५ १६ १७ १ १ १ O ० O १ १ १ १ १८ १६ १ १ २० ० १ १ १ पन्द्रहवां भांगा तेरहवें, चौदहवें जीव स्थानक पर पावे सोलहवां भांगा पहले से सातवें जीव स्थनाक तक पावे | चार संयोगी के पांच भांगे । भांगा श्रदयिक औपशमिक क्षायिक क्षायोपशमिक पारि २१ १ १ १ १ २२ १ १ २३ १ २४ १ २५ १ १ ( १६१ ) १ १ १ १ १ तेवीशवां भांगा उपसम श्रेणी के आठवें से इग्यारहवें Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११२ ) थोकडा संग्रह | जीव स्थानक तक पावे २४ वां भांगा क्षपक श्रेणी के आठवें से बारहवें जीव स्थानक (११ वां छोड़ कर ) तक पावे पांच संयोगी का एक भांगा । मांगा श्रदयिक पशमिक क्षायिक चायोपशमिक पारि २६ १ १ १ १ १ इस यंत्र के २६ भांगें में पांच भांगा पारिणामिक है शेष २१ भांगा अपरिणामिक है । * इति श्री जीव स्थानक सम्पूर्ण Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमुणस्थान द्वार। ( १९३) * श्रीगुणस्थान द्वार . गाथा नाम, लखण, गुण ठिइ, किरिया, सत्ता, बंध, वेदेय, । उदय, उदिरणा, चव, निज्जरा, भाव, कारणा ॥१॥ परिसह, मग, आयाय, जीवाय भेदे, जोग, उविउग, । लेस्सा, चरण, सम्मतं, आया बहुच्च, गुणठाणेहि, ॥२॥ (१) नाम द्वार १ मिथ्यात्व गुणस्थान २ सास्वादान गु० ३ मिश्र गु० ४ अवती सम्यक्त्व दृष्टि गु० ५ देशवती गु०६ प्रमत्त संजति (संयति) गु० ७ अप्रमत्त संजति गु० ८ नियहि (निवर्ती ) बादर गु० ६ अनियट्टि (अनिवर्ती ) बादर गु० १० सूक्ष्म संपराय गु० ११ उपशान्त मोहनीय गु० १२ क्षीण मोहनीय गु० १३ सजोगी केवली गु०१४ अजोगी केवली गु०। (२) लक्षण द्वार १मिथ्यात्व गुणस्थान का लक्षण-श्री वीतराग के वचनों को कम, ज्यादा, विपरीत श्रद्धे ( सर्दहे) परुपे फरसे उसे मिथ्यात्व गु० कहते हैं। जैसे कोई कहे कि जीव अंगुठे समान है, तंडुल समान है, शामा (तिल) समान है दीपक समान है, आदि ऐसी परुपना कम (ओ. Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६४) थोकडा संग्रह। छी) परुपना है । अधिक परुपना-एक जीव सर्व लोक ब्रह्माण्ड मात्र में व्याप रहा है ऐसी एरुपना अधिक परुपना है । यह आत्मा पांच भूतों से उत्पन्न हुई है व इसके नष्ट होने पर जीव भी नष्ट होता है पांच भूत जड़ है इनसे चैतन्य उपजे व नष्ट होवे ऐसी परुपना विपरीत सर्दहे, परुपे फरस उसे मिथ्यात्व कहते हैं। जैन मार्ग से आत्मा अकृत्रिम [स्वभाविक ] अखण्ड अविनाशी व नित्य है सारे शरीर में व्यापक है तिवारे । तर गौतम स्वामी वंदना करके श्री भगवंत को पूछने लगे " स्वामीनाथ ? मिथ्यात्वी जीव को किन गुणों की प्राप्ति होवे ? तब श्री महावीर स्वामी ने जवाब दिया कि यह जीव रूपी दड़ी (गेंद) कम रूपी डंडे (गुटाटी) से ४ गति २४ दण्डक ८४ लाख जीवयोनि में वारं वार परिभ्रमण करता रहता है परन्तु संसार का पार अभी तक पाया नहीं। दूसरे गुण स्थानक का लक्षणः-जिस प्रकार (जैसे ) कोई पुरुष खिर खाएड का भोजन करके फिर वमन करे उस समय कोई पुरुष उससे पूछे “कि भाई खीर खाएड का कैसा स्वाद है ?" उस समय उसने उत्तर दिया " थोड़ा सा स्वाद है" इस प्रकार भोजन के (स्वाद ) समान समकित व वमन के (स्वाद के ) समान मिथ्यात्व। दूसरा दृष्टान्तः-जैसे घंटे का नाद प्रथम गेहर Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीगुणस्थान द्वार। ( १९५) गंभीर होता है और फिर थोडी सी झनकार शेष रह जाती है उसी प्रकार गहेर गंभीर शब्द के समान समकित और झनकार समान मिथ्यात्व । तीसरा दृष्टान्तः-जीव रूपी आम्र वृक्ष, प्रमाण रूप शाखा, समकित रूप फल, मोहरूप हवा चलने से प्रमाण रूप डाल से समकित रूप फल टूट कर पृथ्वी पर गिरा परन्तु मिथ्यात्व रूप पृथ्वी पर फल गिरा नहीं अभी बीचमें ही है इस समय तक (जब तक वो बीच में है ) सास्वादान गुणस्थान रहता है और जब पृथ्वी पर गिर पड़ा तब मिथ्यात्व गुणस्थान । गौतम खामी हाथ जोडी मान मोडी श्री भगवंत को पूछने लगे " स्वामी नाथ ! इस जीव को कौन से गुणों की प्राप्ति होवे" तब श्री भगवंत ने फर माया कि यह जीव कृष्ण पक्षी का शुक्ल पक्षी हुवा व इसे अर्द्ध पुद्गल परावर्तन काल ही केवल संसार में परिभ्रमण करना शेष रहा। जैसे किसी जीव को एक लाख करोड रूपे देना हो और उसने उसमें से सब ऋण चुका दिया हो केवल अधेली (आधा रूपया) देनी शेष रही हो इसी प्रकार इस जीव को आधे रूपे कर्ज के समान संसार में परिभ्रमण करना शेष रहा । सास्वादान समकित पांच वार आवें। तीसरे गुणस्थान का लक्षण:-सम्यक्त्व और मिथ्यात्व इन दो के मिश्र से मिश्र गुणस्थान बनता है इस Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ VAVVANAwareviouravurvey (१६६) थोकडा संग्रह। पर श्रीखंड का दृष्टान्त जैसे श्रीखंड कुछ खट्टा और कुछ मिठा होता है वैसे ही मिट्ठ समान समकित और खट्टे समान मिथ्यात्व जो जिन मार्ग को अच्छा समझे तथा अन्य मार्ग को भी अच्छे समझे जैसे किसी नगर के बाहर साधु महा पुरुष पधारे हुवे हैं। व श्रावक लोग जिन्हे वंदना नमस्कार करने के लिये जा रहे हो उस समय मिश्र दृष्टि मित्र मार्ग में मिला उसने पूछा " मित्र ! तुम कहां जा रहे हो । इस पर श्रावक ने जवाब दिया कि मैं साधु महापुरुष को वंदना करने को जा रहा हूँ मिश्र दृष्टि वाले ने पूछा कि वंदना करने से क्या लाभ होता है। श्रावक ने कहा कि महा लाभ होता है इस पर मित्र ने कहा कि मैं भी बंदना करने को आता हूँ ऐसा कह कर उस ने चलने के लिये पैर उठाये इतने में दूसरा मिथ्यात्वी मित्र मिला । इस ने इन्हें देख कर पूछा कि तुम कहां जा रहे हो । तब मिश्र गुण स्थान वाला बोला कि हम साधु महा पुरुष का वदना करने के लिये जा रहे हैं यह सुन कर मिथ्यात्वी बोला कि इन की वंदना करने से क्या होता है येतो बड़े मेले कुचेले रहते हैं इत्यादि कह कर उसे (मिश्र दृष्टि वाले को ) पुनः जाते हुवे को लोटाया। श्रावक साधु मुनिराज को वंदना कर के पूछने लगा कि महाराज मेरे मित्र ने वंदना करने के लिये पैर उठाया इससे उसे किस गुण की प्राप्ति हुई । तब मुनि ने उत्तर दिया, कि जो काले Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीगुणस्थान द्वार । ( १९७) उड़द के समान था वो दाल के समान हुवा, कृष्ण पक्षी का शुक्ल पक्षी हुवा अनादि काल से उलटा था जिसका सुलटा हुवा,समकित के सन्मुख हुवा परन्तु पैर भरने समर्थ नहीं। इस पर गौतम स्वामी हाथ जोड़ मान मोड़ वंदना नमस्कार कर श्री भगवंत को पूछने लगे ' हे स्वानीनाथ' इस जीव को किस गुण की प्राप्ति हुई ! तब भगवान ने फरमाया कि जीव ४ गति २४ दंडक में भटक कर उत्कृष्ट देश न्यून अद्ध पुद्गल परावर्तन काल में संसार का पार पायेगा। प्रवर्ती सम्यक्त्व दृष्टिः-अनन्तानु बंधी क्रोध मान, माया, लोभ, सम्यक्त्व मोहनीय, मिथ्यात्व मोहनीय मिश्र मोहनीय इन सात प्रकृति का क्षयोपशम करे अर्थात् ये सात प्रकृति नच उदय में आवे तब क्षय करे और सत्ता में जो दल है उनको उपशम करे उसे क्षयोपशम सम्यक्त्व कहते हैं यह सम्यक्त्व असंख्यात बार आता है, ७ प्रकृति के दलों को सर्वथा उपशमावे तथा ढांके उसे उपशम सम्यक्त्व कहते हैं यह सम्यक्त्व पांच वार आवे । सात प्रकृति के दलों को क्षयोपशम करे उसे क्षायक समकित कहते हैं यह समकित केवल एक वार आवे । इस गुणस्थान पर पाया हुवा जीव जीवादिक नव पदार्थ द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से, भाव से नोकारसी आदि छमासी तप जाने, सदहे, परुपे परन्तु फरस सके नहीं । तिवारे गौतम स्वामी Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९८) थोकडा संग्रह। हाथ जोड़ मान मोड़ श्री भगवंत को पूछने लगे कि स्वामी नाथ इस गुणस्थान के जीव को किस गुण की प्राप्ति होती है। उत्तर में श्रीभगवंत ने फरमाया कि हे गौतम ! समकित व्यवहार से शुद्ध प्रवर्तता हुवा यह जीव जघन्य तीसरे भव में व उत्कृष्ट पन्द्रहवें भव में मोक्ष जावे । वेदक समकित एक वार आवे इस समकित की स्थिति एक समय की, पूर्व में अगर आयुष्य का बंध न पड़ा हो तो फिर सात बोल का बंध नहीं पड़े-नरक का आयुष्य, भवनपति का आयु. प्य तियच का आयुष्य, बाण व्यन्तर का आयुष्य, ज्योतिषी का आयुष्य, स्त्री वेद, नपुंसक वेद-एवं सात का आयुष्य बन्ध नहीं पड़। यह जीव समकित के आठ आचार आराधता हुवा, व चतुर्विध संघ की वात्सल्यता पूर्वक, परम हर्ष सहित भक्ति (सेवा) करता हुवा जघन्य पहेले देवलोक में उत्पन्न होवे, उत्कृष्ट बारहवें दवलोक में । शाख पन्नवणाजी सूत्र की । पूर्व कर्म के उदय से व्रत पञ्चखाण (प्रत्याख्यान ) कर नहीं सके परन्तु अनेक वर्ष की श्रमणोपासक की प्रवा का पालक होवे दशाश्रुतस्कंध में जो श्रावक कहे हैं। उनमें का दर्शन श्रावक को अविरय (अवर्ती) समदृष्टि कहना चाहिये । . ५देश वर्ती गुण स्थान-उक्त ( उपर कही हुई) सात प्रकृति व अप्रत्याख्यानी क्रोध, मान, माया, लोम एवं ११ प्रकृति का क्षयोपशम करे। ११ प्रकृति का क्षय Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री गुणस्थान द्वार | (888) करे वो चायक समकित और ११ प्रकृति को ढांके व उपशमावे वो उपशम समकित और ११ प्रकृतेि को कुछ उपशमाचे व कुछ क्षय करे वो क्षयोपशम समकित | पांचवें गुणस्थान पर आया हुवा जीवादिक पदार्थ द्रव्य से, क्षेत्र से. काल से, भाव से नोकारसी यदि छमासी तप जाने, सरूपे व शक्ति प्रमाणे फरमे । एक पच्चखाग से लगा कर ११ व्रत, श्रावक की ११ पंडिमा आदरे यावत् संलेखणा ( संलेषणा ) तक अनशन कर अराधे । तिजारे (उससमय ) गौतम स्वामी हाथ जोड़ मान मोड़ श्री भगवन्त को पूछने लगे हे स्वामी नाथ ! इस जीव को किस गुण की प्राप्ति होवे तत्र भगवन्त ने उत्तर दिया कि जघन्य तीसरे भव में व उ०१५ भव में मोज्ञ जावे । ज० पहेले देव लोक में उ० १२ वें देव लोक में उपजे । साधु के व्रत की अपेक्षा से इसे देशवर्ती कहते है परन्तु परिणाम से व्रत की क्रिया उतर गई है अल्प इच्छा, अल्प आरम्भ, अल्प परिग्रह, सुशील, सुव्रती, धर्मिष्ट, धर्म वृत्ति, वल्प उग्र बिहारी, महा संवेग बिहारी, उदासीन, वैराग्यवन्त, एकान्त आर्य, सम्यग मार्गी, सुसाधु सुपात्र, उत्तम क्रियावादी, आस्तिक, आराधक, जैन मार्ग प्रभावक, रिहन्त का शिष्य आदि स इसे वर्णन किया है । यह गीतार्थ का जानकर होता है । शाख सिद्धांन्त की । श्रम्बकत्व एक भव में प्रत्येक हजार वार आवे । Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०० ) थोकडा संग्रह । ६ प्रमत्त संयति गुण स्थान:- उक्त ११ प्रकृति प प्रत्याख्यानी के ध, मान, माया, लोभ एवं पन्द्रह प्रकृति का क्षयोपशम करे । इन १५ प्रकृतियों का क्षय करे वो क्षायिक समकित और १५ प्रकृति का उपशम करे वो उपशम समक्ति , और कुछ उपशमावे कुछ क्षय करे वो क्षयोपशम समरित । उस समय गौतम स्वामी हाथ जोड़ मान मोड़ श्री भगवान को पूछने लगे कि इस गुणस्थान वाले को किस गुण की प्राप्ति होवे भगवंत ने उत्तर दिया यह जीव द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से, भावसे जीवादिक नव पदार्थ तथा नोकारसी आदि छमासी तप जाने श्रद्धे परुपे, फरसे । साधुत्व एक भव में नवसोवार आवे यह जीव जघन्य तीसरे भवमें उत्कृष्ट १५ भवमें मौच जावे । आराधिक जीव ज. पहेले देवलोक में उ. अनुत्तर विमान में उपजे । १७ भेद से संयम निर्मल पाले, १२ भेदे तपस्या करे, परन्तु योग चपलता, कषाय चपलता, वचन चालता,व दृष्टि चपलता कुछ शेष रह जाने से यद्यपि उत्तम अप्रमाद से रहे तो भी प्रमाद रह जाता है इस लिये प्रमाद करके, कृष्णादिक द्रव्य लेश्या व अशुभ योग से किसी समय प्रणति बदल जाती है जिससे पाय प्रकृष्टमत्त बन जाता है इसे प्रमत्त संयति गुणस्थान कहते हैं। - अप्रमत्त संयति गुणस्थान:-पांव प्रमाद का त्याग करे तब सातवें गुणस्थान प्राव पांच प्रमाद का नाम । Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रागुणस्थान द्वार । (२०१) गाथा: मद, विषय, कषाया, निंदा, विगहा पंचश, भणिया । ए ए पंच पमाया, जीवा पाडंति संसारे ।। इन पांच प्रमाद का त्याग व उक्त १५ प्रकृति और १ संज्वलन का क्रोध एवं १६ प्रकृति का क्षयोपशम करे इससे किस गुण की प्राप्ति होवे । जीवादि नव पदार्थ द्रव्य से, काल से, भाव से तथा नोकारसी आदि छ मासी तप ध्यान युक्ति पूर्वक जाने, श्रद्धे, परूपे, फरसे वह जीव जघन्य उसी भव में उत्कृष्ट तीसरे भव में मोक्ष जावे । गति प्रायः कल्पातीत की पावे, ध्यान में, अनुष्टान में अप्रमत्त पूर्वक प्रवर्ते, व शुम लेश्या के योग सहित अधसाय प्रव. तता हुवा जिसके प्रमत्त कषाय नहीं वो अप्रम संयति गुणस्थान कहलाता है। ८ निवर्ती (नियट्टि) बादर गुणस्थान:-उक्त १६ प्रकृति व संज्वलन का मान एवं १७ प्रकृति का क्षयोपशम करे तब आठ गुणस्थान आवे (ता गतम स्वामी हाथ जोड़ पूछने लगे आदि उपरोक्त समान ) इस गुण स्थान वाले को किस गुण की प्राप्ति होवे । जो परिणाम धारा व अपूर्व करण जीव को किसी समय व किसी दिन उत्स. न नहीं हुवा हो ऐसी परिणाम धारा व करण की श्रेणी जीव को उपजे। जीवादिक नव पदार्थ द्रव्य से,क्षेत्र से,काल Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से भाव से नोकारसी आदि छमासी तप जाने सदेहे परूपे फरसे । यह जीव जघन्य उसी भव में उत्कृष्ट तीसरे भव में मोक्ष जावे। यहां से दो श्रेणी होती है । १उपशम श्रेणी २ क्षपक श्रेणी । उपशम श्रेणी वाला जीव मोहनीय कर्म की प्रकृति के दलों को उपशम करता हुवा इग्यारहवं गुणस्थान तक चला आता है । पडिवाइ भी हो जाता है व हायमान परिणाम भी परिण मता है । क्षपक श्रेणी वाला जीव मोहनीय कर्म की प्रकृति के दलों को क्षय करता हुवा शुद्ध परिणाम से निर्जरा करता हुवा नववें दशवें गुणस्थान पर होता हुवा ग्यारहवें को छोड़ बारहवें गुणस्थान पर चला जाता है यह अपडिवाइ होता है व वर्द्धमान परि. णाम में परिणमता है । जो निवतो है बादर कषाय से, बादर संपराय क्रिया से, श्रेणी करे अभ्यन्तर परिणाम पूर्वक अवसाय स्थिर करे व बादर चपलता से निवतो है उसे नियट्टि बादर गुणस्थान कहते हैं ( दूसरा नाम अपूर्व करण गुणस्थान भी है) किसी समय पूर्व में पहिले जीव ने यह श्रेणी कभी की नहीं और इस गुणस्थान पर पहेला ही करण पंडित वीर्य का प्रावरण । क्षय करण रूप करण परिणाम धारा, वर्द्धन रूप श्रेणी करे उसे अपूर्व करण गुण. स्थान कहते हैं। ६ अनियहि बादर गुणस्थान उपरोक्त १७ प्रकृति और संज्वलन की माया, स्त्री Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीगुणस्थान द्वार । (२०३) वेद नपुंसक वेद एवं २१ प्रकृति का क्षयोपशम करे । तब जीव नववे गुणस्थान आवे । इस जीव को किस गुण की प्राप्ति होवे ? उत्तर- यह जीव जीवादिक नव पदार्थ तथा नोकारसी आदि छमासी तप द्रव्य से, क्षेत्र से,काल से,भाव से निर्विकार अमायी विषय निरखंछा पूर्वक जाने सर्दहे परूपे, फरसे। यह जीव जघन्य उसी भव में उत्कृष्ट तीसरे भव में मोक्ष जावे। सर्वथा प्रकार से निवर्ता नहीं केवल अंश मात्र अभी संपराय फ्रिया शेष रही उसे अनियट्टि बादर गुणठाणा कहते हैं । आठवां नवमां गुण ठाणा [ गुणस्थान ] के शब्दार्थ बहुत ही गम्भीर है अतः इन्हे पंचसग्रहादिक ग्रंथ तथा सिद्धान्त में से जानना। १० सूक्ष्म संपराय गुणस्थान:-उपरोक्त २१ प्रकृति और १ हास्य २ रति ३ अरति ४. भय ५ शोक ६ दुगंछा एवं २७ प्रकृति का क्षयोपशम करे इस जीव को किस गुण की प्राप्ति होवे । उत्तर-यह जीव द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से, भाव से जीवादिक नव पदार्थ तथा नोकारसी आदि छमासी तप, निरभिलाष, निर्वछूक, निर्वदकतापूर्वक, निराशी, अव्यामोह अविभ्रमतापूर्वक जाने सदहे परूपे फरसे। यह जीव ज.उसी भव में उ.तीसरे भव में मोक्ष जावे । सूक्ष्म अर्थात थोडीसी-पतलीसी-संपराय क्रिया शेष रही अतः इसे सूक्ष्म संपराय गुणस्थान कहते हैं। ११ उपशान्त मोहनीय गुणस्थान:-उपरोक्त २७ प्रकृति और संज्वलन का लोभ एवं २८ प्रकृति उपशमावे Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०४) थोकडा संग्रह । VAALAVANA सर्वथा ढांके [छिगवे] , भस्म [ राख] से दबी हुई अग्निवत इस जीव को किस गुण की उत्पति होवे [ उत्तर] यह जीव जीवादिक नव पदार्थ द्रव्य से क्षेत्र से, काल से, भाव से, नोकारसी आदि छमासी तप वीतराग भाव से, यथाख्यात चारित्र पूर्वक जाने, सर्दहे, परुपे, फरसे, इतने में यदि काल करे तो अनुत्तर विमान में जावे फिर मनुव्य होकर मोक्ष जावे और यदि [ काल नहीं करे और ] सूक्ष्म लोम का उदय होवे तो कपाय रुप अग्नि प्रकट हो कर दशवें गुणस्थान परसे गिरता हुवा यावत् पहेले गुणस्थान तक चला आवे [ इग्यारहवें गुणस्थान से आगे चढ़े नहीं ] सर्वथा प्रकारे मोह का उपशम करना [जल से बुझाई हुई अग्नि वत् नहीं परन्तु ] भस्म से दबी हुई अग्नि वत् । उसे उपशान्त मोहनीय गुणस्थान कहते हैं। १२ क्षीण मोहनीन गणस्थान:-उपरोक्त २८ प्रकृतियों को सर्वथा प्रकारे खपाचे क्षपक श्रेणी, चायक भाव, क्षायक समाति, क्षायक यथाख्यात चारित्र, करण सत्य, योग सत्य, भाव सत्य, अमायी, अकषायी, वीतरागी, भाव निग्रंथ, संपूर्ण संबुड. (नर्विते ) संपूर्ण भावि. तात्मा, महा तपस्वी महासुशाल, अमोही अधिकारी, महाज्ञानी महा ध्यानी, वर्द्धमान परिणामी, अपडिवाइ होकर अन्तर्मुहूर्त रहे । इस गुणस्थान पर काल करते नहीं व पुनर्भव होता नहीं । अन्त समय में पांच ज्ञानावरणीय, नव दर्शनावर Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीगुणस्थान द्वार। (२०५ ) णिय, पांच प्रकारे अन्तराय कर्म क्षय करणोद्यम करके तेरहवें गुणस्थान पर पहेले समय में क्षय करे तब केवल ज्योति प्रकट होवे । क्षीण अर्थात् क्षय किया है सर्वथा प्रकारे मोहनीय कर्म जिस गुणस्थान पर सडे क्षीण मोहनीय गुणस्थान कहते है। १३ सयोगी केवली गणस्थान:-दश बोल सहित तेरहवें गुणस्थान पर विचरे । संयोगी, सशरीरी सलेशी, शुक्ल लेशी, यथा ख्यात चारित्र, क्षायक समाकित पंडित वीर्य, शुक्ल ध्यान, केवल ज्ञान, केवल दर्शन एवं दश बोल जघन्य अन्त मुहूर्त उत्कृष्ट देश न्यून करोड़ पूर्व तक विचरे। अनेक जीवों को तार कर, प्रतिबोध देकर, निहाल करके, दूसरे तीसरे शुक्ल ध्यान के पाये को ध्याय कर चौदहवें गुणस्थान पर जावे। सयोगी याने शुभ मन, वचन, काया के योग सहित बाहाज्य चलोपकरण है गमनागमना दिक चेष्टा शुभ योग सहित है केवल ज्ञान केवल दर्शन उपयोग समयांतर अविछिन्न रूप से शुद्ध प्रणमें इसलिये इसे सयोगी केवली गुणस्थान कहते हैं। १४ अयोगी केवली गुण स्थान:-शुक्ल ध्यान का चौथा पाया समुछिन्नक्रिय, अनन्तर अप्रतिपाती, अनिवृति ध्याता मन योग रूंध कर, वचन योग रूंध कर, काय योग रूंध कर, पानप्राण निरोध कर रूपातित परम शुक्ल ध्यान ध्याता हुवा ७ बोल सहित विचरे । उक्त १० Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०६ ) थोकडा संग्रह। बोल में से सयोगी, सलेशी, शुक्ल लेशी, एवं तीन बोल छोड़ शेष ७ बोल सहित सर्व पर्वतों का राजा मेरु के समान अडोल, अचल, स्थिर अवस्था को प्राप्त होवे । शैलेशी पूर्वक रह कर पंच लघु अक्षर के उच्चार प्रमाण काल तक रह कर शेष वेदनीय, आयुष्य, नाम गोत्र एवं ४ कर्म क्षीण करके मोक्ष पावे । शरीर औदारिक तेजस्, कर्मण सर्वथा प्रकारे छोड़ कर समश्रेणी रजु गति अन्य आकाश प्रदेश को नहीं अवगाहता हुवा अणफरसता हुवा एक समय मात्र में उर्द्धगति अविग्रह गति से वहां जाकर एरंड बीज बंधन मुक्त वत् निलेप तुम्बीवत, कोदंड मुक्त बाण वत्, इन्धन वह्नि मुक्त धूम्र वत् । उस सिद्ध क्षेत्र में जाकर साकारोपयोग से सिद्ध होवे, बुद्ध होवे, परांगत होवे परंपरांगत होवे सफल कार्य अर्थ साध कर कृत कृतार्थ निष्ठितार्थ अतुल सुख सागर निमग्न सादि अनन्त भागे सिद्ध होवे। इस सिद्ध पद का भाव स्मरण चिंतन मनन सदा सर्वदा काले मुझको होवे ? वो घडी पल धन्य सफल होवे । अयोगी अर्थात् योग रहित केवल सहित विचरे उसे अयोगी केवली गुणस्थान कहते है । ३ स्थिति द्वार पहेले गुण स्थान की स्थिति ३ प्रकार की-अणादिया अपञ्जव सिया याने जिस मिथ्यात्व की आदि नहीं और अन्त भी नहीं । अभव्य जीव के मिथ्यात्व आश्री। Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री गुणस्थान द्वार | (2013) २ गादिया सपञ्जवसिया अर्थात् जिन मिध्यात्व की आदि नहीं परन्तु अन्त है । भव्य जीव के मिथ्यात्व ० श्री । ३ सादिया सपञ्जसिया अर्थात् जिस मिथ्याल की आदि भी है और अन्त भी है । पडिवाई समदृष्टि के मिथ्यात्व श्री । इसकी स्थिति जघन्य अन्त मुहूर्त उत्कृष्ट अर्द्ध पुद्गल परावर्तन में देश न्यूत | बाद में अवश्य समकित पाकर मोक्ष जावे । दूसरे गुण ० की स्थिति जघन्य एक समय की उ० ६ अवलिका व ७ समय की । तीसरे गुण की स्थिति ज. उ. अन्तर्मुहूर्त की चौथे गुण की स्थिति ज अन्तर्मुहूर्त की उ०६६ सागरोपम जाजेरी । २२ सागरोपम की स्थिति से तीन बार बारहवें देवलोक में उपजे तथा दोवार अनुत्तर विज्ञान में ३३ सागरोपम की स्थिति से उपजे ( एवं ६६ सागरोपम ) और तीन करोड़ पूर्व अधिक मनुष्य के भव आश्री जानना । पांचवें, छडे, तेरहवें गुण की स्थिति ज अन्तर्मुहूते उ० देश न्यून ( उणी ) ८ || वर्ष न्यून एक करोड़ पूर्व की, सातवें से इग्यारहवें तक ज० १ समय उ० अन्तर्मुहूर्त बारहवें गुण की स्थिति ज० उ० अन्तर्मुहूर्त चौदहवें गु० की स्थिति पांच लघु ( हृस्व ) स्वर ( अ, इ, उ, ऋ, लु, ) के उच्चारण के काल प्रमाणे जानना । ० ४ क्रिया द्वार पहेले तीसरे गुणस्थाने २४ किया पावे इरियावाहिया Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०८) थोकडा संग्रह। क्रिया छोड़ कर। दूसरे चौथे गुण०२३ क्रिया पाव इरिया वहिया, और मिथ्यात्व की ये दो छोड़ कर पांचवे गुण २२ क्रिया पावे मिथ्यात्व, अविरति इरिया वहिया क्रिया छोड़ कर। छठे गुण २क्रिया पावे १ आरंभिया २ मायावत्तिया। सातवें गुण से दश गुण 11 १ माया वतिया क्रिया पावे । इग्यारहो, बारहवें, तेरहवें गुण० १ इरिया बहिया क्रिया पावे। चौदहवें गुण • क्रिया नहीं पाये । ५ सत्ता द्वार पहले गुणस्थान से इग्यारहवें गुण. तक आठ कर्म की सत्ता । बारहवें गुण० ७ कर्म की सत्ता मोहनीय कर्म छोड़ कर । तेरहवें चौदहवें गुण० ४ कर्म की सत्ता वेदनीय, आयुष्य, नाम, गोत्र एवं चार कर्म । ६ बंध द्वार पहिले गुणस्थान से सातवें गुणतक (तीसरा गुण छोड़ कर ) ८ कर्म बंधे या सात कर्म बरे ( आयुष्य कर्म छोड़ कर ) तीसरे, आठवें,नववें गुण० ७ कर्म बंध (आयु. ध्य छोड़ कर ) दशर्के गुण०६ कर्म बंधे (अयुध मोहनीय कर्म छोड़ कर ) इग्यारहवें, बारहवें तेरहवें गुण० १ शता वेदनीय कर्म बंधे । चौदहवें गुण कर्म नहीं बंध । ___७ वेद द्वार और ८ उदय द्वार पहिले गुणसे दश गुण तक ८ कर्म वैदे और ८ कर्म का उदय । इग्यारहवें बारहवें ७ कर्म ( मोहनीय छोड Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीगुणस्थान द्वार । (२०६) ranwwwwwram PUNAVINAANANnni. कर ) वेदे और ७ कर्म का उदय । तेरहवें चौदहवें गुण० ४ कर्म वेदे और ४ कर्म का उदय-वेदनीय,आयुष्य, नाम और गोत्र। ६उदीरणा द्वार __पहेले गुणसे सातवें गुणतक ८ कर्म की उदीरणा तथा सात की ( आयुष्य कर्म छोड़ कर ) पाठवें, नववें गुण० ७ कर्म की उदीरण (आयुष्य छोड कर ) तथा ६ कम की ( आयुष्य मोहनीय छोड कर ) दशवे गुण०६ की करे ऊपर समान तथा ५ की करे ( आयुष्य मोहनीय वेदनीय छोड कर ) इग्यारहवें बारहवें गुण० ५ कम की ( ऊपर समान ) तथा २ कर्म की करे- नाम और गोत्र कर्मी । तेरहवें गुण० २ कर्म की उदीरणा-नाम, गोत्र । चौदहवे गुण ० उदीरणा नहीं करे । १० निर्जरा द्वार पहेले से इग्यारहवें गुण ० तक ८ कर्म की निर्जरा बारहवे ७ कर्म की निर्जरा ( मोहनीय कर्म छोड़ कर ) तेरहवें चौदहवें गुण० ४ कर्म की निर्जरा-वेदनीय, आयुष्य, नाम और गोत्र । ११ भाव द्वार, १ उदय भाव २ उपशम भाव ३ क्षायक भाव ४ क्षयोपशम भाव ५ परिणामिक भाव ६ संनिवाइ भाव । पहले तीसरे गुण०३ भाव-उदय, क्षयोपशम, परिणा Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) थोकडा संग्रह। मिक दूसरे,चोथे, पांचवे,छठे,सातवें व आठवें गुण०से इग्यारहवें गुण० तक उपशम श्रेणि वाले को ४ भाव-उदय, उपशम क्षयोपशम, परिणामिक ( कोई २ उपशम की जगह क्षायक मी कहते हैं) और पाठवें से लगा कर बारहवें गुणतक क्षपक श्रेणि वाले को ४ भाव-उदय, क्षयो पशम, शायक, परिणामिक, तेरहवें चौदहवें गुण०३ भाव उदय, क्षायक, परिणामिक, सिद्ध में २ भाव-क्षायक; परि. णामिक। १२ कारण द्वार कर्म बन्ध के कारण पांच-१ मिथ्यात्व २ अविरति (अवर्ती) ३प्रमाद ४कषाय ५ योग । पहेले तीसरे गुण०५ कारण पावे। दूसरे,चोथे गुण चार कारण (मिथ्यात्व छोड़ कर ) पांचवे छठे गुण. ३ कारण पावे ( मिथ्यात्व, अविरति छोड़ कर ) सातवें से दश गुणतक २ कारण पावे कषाय, योग । इग्यारहवें, बारहवें, तेरहवें गुण १ कारण पावे १ योग चौदहवें गुण० कारण नहीं पाये । १३ परिषह द्वार - पहेले से चोथे गुण० तक यद्यपि परिषह २२ पावे परन्तु दुःख रूप है निर्जरा रूप प्रणमें नहीं। पांचवें से नववें गुण० तक २२ परिषह पाचे एक समय में २० वेदे, शीत का होवे वहां ताप का नहीं और ताप का होवे वहां शीत का नहीं, चलने का होवे वहां बैठने का नहीं और बैठने Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीगुणस्थान द्वार। (२११ ) का होवे वहां चलने का नहीं । दशवें, इग्यारहवें बारहवें गुण० १४. परिषह पावे ( मोहनीय कर्म के उदय से होने वाले ८ छोड़ा कर )-अचल, अरति, स्त्री का, बैठने का, आक्रोश का, मेल.. का, सत्कार. पुरस्कार का एवं सातः चारित्रः मोहनीय. कर्म.. के उदयः होने से और. १ देसण परिषह ( दर्शन मोहनीय के उदय होने से) एवं पाठः परिषहः छोड़ कर. शेष. १४: इन में से.. एक समय में. १२. वेदे शीत.. का वेदे वहां ताप का नहीं, और. ताप का वहां शीत का नहीं, चलने का होवे. वहां बैठने का नहीं और बैठने का होवे वहां चलने का नहीं । तेरहवें चौदहवें गुण०.११परिषह पावे। उक्त परिषह में से तीन छोड़ कर शेष ११. (१) प्रज्ञा का (२) अज्ञान का ये दो परिषह ज्ञानावरणीय कर्म के उदय से और (३)अलाभ का परिषह अन्तराय कर्म के उदय से एवं ३. परिषह छोड़कर। इन परिषह में से एक समय में वेदे. शीत का होवे वहां ताप का नहीं और ताप का वेदे वहां शीत का नहीं. चलने का होवे वहां बैठने का नहीं और. बैठने का होवे. वहां चलने का नहीं। १४.मार्गणा द्वार। पहेले. गुण मार्गणा ४, तीसरे, चौथे, पांचवें सातवें जावे। दूसरे गुण०. मार्गणा १,गिरे. तो पहेले गु०आवे (चढे. नहीं) तीसरे. गु० ४. गिरे तो पहेले पावे. और चढे. तो Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AatanA . AN ( २१२) थोकडा संग्रह । चोथे पांचवें सातवें जावे। चौथे गुण• मार्गणा ५ गिरे तो पहेले गुण० दूसरे, तीसरे गुण अवे और चढे तो पांचवें सातवें जावे । पांचवें गुणमार्गणा ५ गिरे तो पहेले, दूसरे, तीसरे,चोथे गुणावे और चढे तो सातवें जावे। छठे गुण ६ मार्गणा गिरे तो पहले, दूसरे,तीसरे,चोथे, पांचवें गुण. श्रावे और चढे तो सातवे जावे। सातवें गुण० मागेणा ३ गिरे तो छठे चोथे श्रावे और चढे तो आठवें गुण० जावे । पाठवें गुण० मार्गणा ३ गिरे तो सातवें चोथे आवे और चढे तो नववें गुण० जावे । नववें गुण० मार्गणा ३ गिरे तो आठवें चोथे आवे और चढे तो दशवे जावे । दश गुण० मागणा ४ गिरे तो नववें चोथे आवे चढे तो इग्यारहवें बारहवें जाने। इग्यारहवें गण मार्गणार काल करे तो अनुत्तर विमान में जावे और गिरे तो दशवें से पहेले तक आवे,चढे नहीं । बारहवें गुण मार्गणा? तेरहवें जावे, गिरे, नहीं । तेरहवें गुण० मार्गणा १ चौदहवें जावे,गिरे नहीं । चौदहवें मार्गणा नहीं, मोक्ष जावे । १५ आत्मा हार आत्मा अाठ १ द्रव्यात्मा २ कषायात्मा ३ योगात्मा ४ उपयोगात्मा ५ ज्ञानात्मा ६ दर्शनात्मा ७ चारित्रात्मा ८ वीयर्यात्मा एवं ८। पहेले तीसरे गुण०६त्रात्मा, ज्ञान और चारित्र' ये २ छोड़ कर, दूसरे चोथे गुण. ७ आत्मा चारित्र छोड़ कर, पांचवें गुण भी ७ आत्मा Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीगुणस्थान द्वार । ( २१३ ) (देश चारित्र है) छठे स दशवें गुण० तक ८ आत्मा, इग्यारहवें बारहवें तेरहवें गुण ७ आत्मा कषाय छोड़ कर, चौदहवें गुण०६आत्मा कषाय और योग छोड़ कर,सिद्ध में ४ आत्मा-ज्ञानात्मा,दर्शनात्मा,द्रव्यात्मा,उपयोगात्मा । १६ जीव भेद द्वार पहेले गुण० १४ भेद पावे,दुसरे गुण ० ६ मे पावे वे इन्द्रिय, त्रीइन्द्रिय, चौरिन्द्रिय, असंज्ञी तिर्थव पंचेन्द्रिय इन चार का अपर्याप्ता और संज्ञी पंचेन्द्रिय का अपर्याप्ता और पोप्ता एवं ६, तीसरे गुण संज्ञी पंचेन्द्रिय का पर्याप्ता पावे, चोथे गुण० २ भेद पावे संज्ञी पंचेन्द्रिय का अपर्याप्ता और पर्याप्ता पाचवें से चौदहवें गुण० तक १ संज्ञी पंचेन्द्रिय का पर्याप्ता पावे। १७ योग द्वार पहेले दूसरे चौथे गुण० योग १३ पावे, आहारिक के दो छोड़ कर । तीसरे गुण. १० योग पावे -४ मनका ४ वचन का ८,६ औदारिक का और १० वैक्रिय का एवं १०, पांचवें गुण० १२ योग पावे आहारिक के दो और एक कार्मण का एवं तीन छोड शेष १२ योग । छठे गुण १४ योग पावे (कार्मण का छोड कर ) सातवें गुण० ११ योग-४ मन के, ४ वचन के, १औदारिक का १ वैक्रिय का,एक आहारिक का एवं ११,आठवें गुण० से १२ गुण तक योग पावे-४ मन के ४ वचन के और Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थोकडा-संग्रह | " १ दारिक का, एवं ६, तेरहवें गुण० योग ७ - दो मन के, दो वचन, दारिक, श्रदारिक का मिश्र, कार्मण काय योग एवं ७ योग, चौदहवें गुण० योग नहीं । १८: उपयोग द्वार . पहले तीसरे गुण ० ६ - उपयोग - ३ अज्ञान और ३३ दर्शन एवं ६, दूसरे, चौथे, पांचवें गुण०६ उपयोग - ३ ज्ञान ३. दर्शन एवं ६, छठे से बारहवें तक उपयोग ७--४ ज्ञान ३. दर्शन ( एवं ७ ) तेरहवें चौदहवें गुण० तथा सिद्ध में २: उपयोग १ केवल ज्ञान और २ केवल दर्शन | ! ( २१४) १६- लेश्या द्वार पहले से छठे गुण ० तक ६ लेश्या पावे, सातवें गुण ०तीन लेश्या पावे-तेजो, पद्म और शुक्ल । आठवें से बारहवें गुण० तक १ शुक्ल लेश्या तेरहवें गुण ० १ परम शुकुल लेश्या, चौदहवें गुण ० लेश्या नहीं | 4 २० चारित्र द्वार + पहले से चौथे गुण ० तक कोई चारित्र नहीं, पांचवे गुण ० देश थकी सामायिक चारित्र, छटे सातवें गुण० ३२ तीन चारित्र - सामायिक चारित्र, वेदोपस्थानीय चारित्र, परिहार · विशुद्ध, चारित्र, एवं तनि । आठवें नववें गुण ०- २दो चारित्र पावे, सामार्थिक चारित्र और वेदोपस्थापनीय चारित्र, दशवें गुण ० १ सूक्ष्म संपराय चारित्र, इग्यारहवें से चौदहवें गुण० तक १ यथाख्यात चारित्र । 1 3 1 C Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री गुणस्थान द्वार | (- २१५ ) २१ समकित द्वार पहेले तीसरे गुण ० समकित नहीं, दूसरे गुण० १माखादान समकित चोथे, पांचवें, छह गुण ० उपशन तथा क्षयोपशम और सातवें गुण ० - ३ उपशम, क्षयोपशपम, क्षायक | दशवें इग्यारहवें गुण ० - २दो समकित, उपशम और चायक, बारहवें, तेरहवें, चौदहवें गुण ० तथा सिद्ध में १क्षायक समकित पावे । २२ अल्प बहुत्व द्वार सर्व से थोड़ा इग्यारहवें गुणस्थान बाले । एक समय में उपशम श्रेणि वाला ५४ जीव मिले। इससे बारहवें गुणस्थानवाला संख्यात गुणा । एक समय में क्षपक श्रेणि वाला १०८ जीव पावे। इससे आठवें नववें दशवें गुण० संख्यात गुणा, जघन्य २०० उत्कृष्ट ६०० पावे । इससे तेरहवें गुण० संख्यात गुणा, जघ दो क्रोडी (करोड़) उ० नव करोड पावे | इससे सातवें गुण ० संख्यात गुण, जघन्य २०० करोड़ उ० नवसे करोड पाव | इससे छठ्ठे गुण ० संख्यात गुणा ज० दो हजार करोड उ० नव हजार करोड़ पावे। इससे पांचवे गण० असंख्यात गुणे, तिर्यच, चक, श्री । इससे दूसरे गुण ०अ० संख्यात गुण ४ गति श्री । इससे तीसरे गुण असंख्यात गुणा (४गति में विशेष है) इससे चोथे गुण ० असंख्यात गुणा ( अत्यन्त स्थिति होने से ) इससे चौदहवें गुण और सिद्ध भगवन्त अनन्तगुणा । इससे पहेला गुण० अनन्त गुणा (एकेन्द्रिय प्रमुख सर्व मिथ्या दृष्टि है इस श्री ) ॥ इति गुणस्थान २२ द्वार Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१६) थोकडा संग्रह। भाव ६१ उदय भाव २ उप शम भाव ३ क्षायक भाव ४ क्षयोपशम भाव ५ परिणामिक भाव ६ सन्निवाइ भाव । १ उदय भाव के दो भेदः-१ जीव उदय निष्पन्न २ अजीव उदय निष्पन्न जीव उदय निष्पन्न में ३३ बोल पावेः-४ गति, ६ काय, ६ लेश्या, ४ कपाय, ३ वेद एवं २३ और १ मिथ्यात्व २ अज्ञान ३ अविरति ४ असंज्ञीत्व ५ श्राहारिक पना ६ छमस्थ पना ७ सयोगी पना ८ संसार परियट्टणा : असिद्ध १० अ. केवली एवं सर्व ३३ बोल । अजीव उदय निष्पन्न में ३० बोल पावः-५वर्ण २ गन्ध ५ रस ८ स्पर्श ५ शरीर और ५ शरीरके व्यापार एवं ३० दोनों मिलाकर (३३+३०) ६३ बोल उदय भाव के हुवे। उपशम भाव में ११ बोल पावे। चार कषाय का उपशम ४,५ रागका उपशम ६ द्वेष का उपशम ७ दर्शन मोहनीय का उपशम ८ चारित्र मोहनीय का उपशम एवं ८ मोहनीय की प्रकृति, और ६ उपसमिया दंशण लाद्धि (समकित ) १० उवसमिया चरित्त लद्धि ११ उवसमिया अकषाय छ उमथ वीतराग लद्धि एवं ११।। क्ष यक भाव में ३७ बोल-५ज्ञानावरणिय दर्शना वरणिय, २ वेदनीय, १ राग, १ द्वेष, ४ कषाय, Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीगुणस्थान द्वार। ( २१७) १ दशन मोहनीय, १ चारित्र मोहनीय, ४ आयुष्य, २ नाम, २ गोत्र, ५ अन्तराय एवं ३७ प्रकृति का क्षय करे उसे क्षायक भाव कहते हैं ये 8 बोल पावे । १क्षायक समकित २ क्षायक यथाख्यात चारित्र ३ केवल ज्ञान ४ केवल दर्शन और क्षायक दानादि पांच लब्धि एवंह बोल । क्षयोपशम भाव में ३० बोलः-(प्रथम ) ४ ज्ञान, ३अज्ञान, ३ दर्शन, ३दृष्टि, ४ चारित्र १ (प्रथम) चरित्ता चरित्त (श्रावक पना पावे) १ आचार्यगणि की पदवी. १ चौदह पूर्व ज्ञान की प्राप्ति, ५ इन्द्रिय लब्धि, ५ दानादि लब्धि एवं सई ३० बोल । __ परिणामिक भाव के दो भेदः-१ सादि परिणामिक २ अनादि परिणामिक । सादि नष्ट होवे अनादि नहीं। सादि परिणामिक के अनेक भेद हैं-पुगनी सुरा, (मदिरा) पुराना गुड़, तंदुल आदि ७३ बोल होते हैं शाख भगवती सूत्र की अनादि परिणामिक के १० मेदः-धर्मा. स्ति काय २ अधमास्ति काय ३ आकाशास्ति काय ४ पुद्गलास्ति काय ५ जीवास्ति काय ६ काल ७ लोक ८ अलोक ६ भव्य १० अभव्य एवं १० । सन्नि वाइ भाव के २६ भांगे। १० द्विक संयोगी के १० त्रिक संयोगी के, ५ चौक संयोगी के, १ पंच संयो. Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ थोकडा संग्रह। गी का एवं २६ भांगे विस्तार श्री अनुयोग द्वार सिद्धान्त से जानना । देखो पृष्ठ १६०, १६१. १६२ । १४ गुणस्थान पर १० क्षेपक द्वार . १ हेतु द्वार:-२५ कषाय, १५ योग एवं ४० और ६ काय, ५ इन्द्रिय, १ मन एवं १२ अव्रत (४०+१२= ५२), मिथ्यात्व एवं सर्व ५७ हेतु। पहेले गुणस्थाने ५५ हेतु (आहारिक के २ छोड़कर ) दुसरे गुणस्थाने ५० हेतु ( ५५ में से ५ मिथ्यात्व के छोड़ना ) तीसरे गुण० ४३ हेतु ( ५७ में से-अनन्तानुबंधी के चार, औदारिक का मिश्र १ वैक्रिय का मिश्र १, आहारिक के २, कार्मण का १, मिथ्यात्व ५, एवं १४ छोड़ना) चोथे गुण० ४६ हेतु (४३ तो ऊपर के और औदारिक का मिश्र १, वैक्रिय का मिश्र १, कार्मण काययोग एवं (४३+३=४६) पांचवें गुण० ४० हेतु (४६ के ऊपर के उसमें से अप्रत्याख्यानी की चोकड़ी. बस काय का अव्रत और कार्मण काय योग ये ६ घटाना शेष (४६-६-४० हेतु ) छठे गुण० २७ हेतु (४० में से प्रत्याख्यानी की चोकड़ी पांच स्थावर का अवत, पांच इन्द्रिय का अव्रत और १ मन का अव्रत एवं १५ घटाना शेष २५ रहे और २ आहारिक के एवं २७ हेतु) सातवें गुण०२४ हेतु (२७ में से-औदा. रिक मिश्र, वैक्रिय मिश्र, आहारिक मिश्र ये तीन घटाना शेष २४ हेतु ) आठवें गुण० २२ हतु ( २४ में से वैक्रिय Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीगुणस्थान द्वार। ( २१६) और आहारिक के २ घटाना ) नववें गुण० १६ हेतु (२२ में से-हास्य, गति, अरति, भय शोक,दुर्गछा ये ६ घटाना) दश गुण० १० हेतु 8 योग और १ संज्वलन का लोभ एवं १० हेतु। इग्यारहवें,बारहवें गुण०६ हेतु (ह योग के) तेरहवें गुण०७ हेतु (सात योग के)चौदहवें गुण० हेतु नहीं। __२ दण्डक द्वार:-पहेले गुण० २४ दण्डक, दूसरे गुण० १६ दण्डक, ( ५ स्थावर के छोड़कर ) तीसरे, चोथे, गुण० १६ दण्डक (१६ में से ३ विकलेन्द्रिय के घटाना) पांचवे गुण० २ दण्डक-संज्ञी मनुष्य और संज्ञो तिर्यच, छठे से चौदहवें गुण० तक १ मनुष्य का दण्डक । ३जीवा योनिद्वार:-पहेले गुण०८४ लाख जीवा योनि, दूसरे गुण० ३२ लाख, ( एकेन्द्रिय की ५२ लाख छोड़कर ) तीसरे चौथे गुण० २६ लाख जीवा योनि द्वार पांचवें गुण०१८ लाख जीवा योनि, छठे से चौदहवें गुण १४ लाख जीवा योनि । ____४ अन्तर द्वार:-पहेले गुण जघन्य अन्तर्मुहूर्त उ० ६६ सागरोपम जाजेरी अथवा १३२ सागर जाजेरी, ये ६६ सागर चौथे गुण रहे, अन्तर्मुहूर्त तीसरे गुण रह कर पुनः चौथे गुण० ६६ सागर रह कर मिथ्यात्व गुण आवे दूसरे गुण से इग्यारहवें गुणतक जघन्य अन्तर्मुहूर्त अथवा पन्य के असंख्यातवें भाग ( इतने काल के बिना उपशम Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२०) थोकडा संग्रह। श्रेणी करके गिरे नहीं) उत्कृष्ट अर्द्धपुद्गल में देश न्यून, बारहवे, तेरहवें और चौदहवें गुण० अन्तर नहीं पड़े। ५ ध्यान द्वार:-पहेले, दूसरे, तीसरे, गुण०२ ध्यान (पहेला) चोथे, पांचवे गुण०३ ध्यान,छठे गुण० २ ध्यान १ आत्ते ध्यान २ धर्म ध्यान । सातवें गुण० १ धर्म ध्यान आठवें से चौदहवें गुण० तक १ शुक्ल ध्यान । ६ फरसना द्वार:-पहेले गुण०१४ राज लोक फरसे, ( स्पर्श) दूसरे गुण नीचले पंडग वन से छठी नरक तक फरशे तथा ऊँचा अधोगाम की विजय से नवग्रीयवेक तक फरसो, तीसरे गुण लोक के असंख्यातवें भाग फरसे । चौथा गुण अधोगाम की विजय से बारहवें देव लोक तक फरसे अथवा पंडग वन से छठे नरक तक फरसे, पांचवाँ गुण इसी प्रकार अधोगाम की विजय से बारहवें देवलोक तक फरसे। छठे से इग्यारहवें गुणतक अधोगाम की विजय से ५ अनुत्तर विमान तक फरसे । बारहवां गुण लोक का असंख्यातवा भाग फरसे । तेरहवां गुण. सर्व लोक फरसे। चौदहवां गुण. लोक का असंख्यातवां भाग फरसे। तिर्थकर गोत्र ४ गुण० बान्धेः-चोथे, पांचवें, छठे और सातवें एवं ४ गुण० बांधे शेष गुण नहीं बांधे, तिर्थकर देव ६ गुण० फरसे-४, ६, ७, ८, ९, १०, १२, १३, १४, एवं नव फरसे। ८वां शाश्वता शावत द्वारः-१४ गुण में १, ___ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीगुणस्थान द्वार। (२२१ ) ४, ५, ६, १३, एवं ५ शाश्वता शेष ६ गुण० अशाश्वता । नववा संघयण द्वार:-१४ गुण० में १, २, ३, ४, ५, ६, ७, एवं सात गुण० ६ संघयण ( संहनन ) आठवें से चौदहवें गण० तक एक वज्र, ऋषभ, नाराच संघयण ( संहनन )। दशवां साहारण द्वार:-प्रार्याजी,अवेदी, परिहारविशुद्र चारित्र वंत, पुलाक लब्धिवन्त, अप्रमादी साधु, चौदह पूर्व धारी साधु और आहारिक शरीर एवं सात का देवता साहारण नहीं कर सके । ॥क्षेपक द्वार समाप्त ॥ ॐ इति गुणस्थानक द्वार सम्पूर्ण Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२२ ) थोकडा संग्रह | तेतीश बोल ०७ एक प्रकार कायम :- सर्व श्रव से निवर्तन होना। दो प्रकार का बंध:- १ राग बंध २ द्वेष बंध | तीन प्रकार का दण्डः - १ मन दण्ड २ वचन दण्ड ३ काय दण्ड । तीन प्रकार की गुप्तिः-१ मन गुप्ति वचन गुप्ति ३ काय गुप्ति। तीन प्रकार का शल्य:- १माया शल्य२ निदान शल्य ३ मिथ्या दर्शन शल्य । तीन प्रकार का गर्व:- १ ऋद्धि गर्व २ रस गर्व ३ शाता गर्व । तीन प्रकार की विराधना:- १ ज्ञान विराधना २ दर्शन विराधना ३ चारित्र विराधना | 1 www ४ चार प्रकार की कषायः-१ क्रोध कषाय २ मान कषाय माया कषाय ४ लोभ कषाय । चार प्रकार की संज्ञा :- १ आहार संज्ञा २ भय संज्ञा ३ मैथुन संज्ञा ४ परिग्रह संज्ञा । चार प्रकार की कथा: -१ स्त्री कथा २ भत्त कथा ३ देश कथा ४ राज कथा । चार प्रकार का ध्यान:- १ आर्त ध्यान २ रौद्र ध्यान ३ धर्म ध्यान ४ शुक्ल ध्यान । पांच प्रकार की क्रिया:- १ कायिका क्रिया २ प्राधिकरणका क्रिया ३ प्रद्वेषिका क्रिया ४ पारितापनिका क्रिया ५ प्राणातिपातिका क्रिया । पांच प्रकार का कामगुण १ शब्द २रूप ३ गन्ध ४ रस ५ स्पर्श | पांच प्रकार 1 Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तैतास बोल । ( २२३) का महाव्रत:-१ सर्व प्राणातिपात वेग्मण २ सर्व मृषावाद वग्मण ३ सर्व अदत्तादान वरमण ४ सर्व मैथुन चश्मण ५ सर्व परिग्रह वेरमण । पांच प्रकार का समिति १ इरिया समिति २ भाषा समिति ३ एषणा समिति ४ श्रादान भंड मात्र निर्दपन समिति ५ चार प्रश्रवण ( पासवण ) खल, जल, श्लेष्म श्रादि परिठावणिया समिति । पांच प्रकार का प्रमादः-१ मद २ विषय ३ कषाय ४ नि ५ विकथा । छः प्रकार का जीवनिकायः-१ पृथ्वी काय २ अपकाय ३ तेजस काय ४ वायुकाय ५ वनस्पति काय ६ त्रस काय । छः प्रकार की लेश्या १ कृष्ण लेश्या २ नील लेश्या ३ कापोत लेश्या ४ तेजोलेश्या ५ पद्म लेश्या ६ शुक्ल लेश्या । सात प्रकार का भयः-१ श्रालोक भयं ( मनुष्य से मनुष्य को भय होवे ) २ देश, तिथं च से जो भय हावे वो पलो भय ३ धन से उत्तन्न होने वाला आदान भय ४ छ यादि देख कर जो भय उत्पन्न होवे वो अकस्मात भय, ५ आजीविका भय ६ मृत्यु ( मरने का ) भय ७ अपयश-अपकीर्ति भय । आठ प्रकार का मद:-१ जाति मद २ कुल मद ३ बल मद ४ रूम मद ५ तप मद ६ श्रुत मद ७ लाम मद ८ ऐश्वर्य मद । Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२४) थोकडा संग्रह। नव प्रकार की ब्रह्मचर्य गुप्तिः (१)स्त्री पशुपंडक रहित श्रालय (स्थानक ) में रहना ( इस पर ) चूहे बिल्ली का दृष्टान्त(२)मन को आनन्द देने वाली तथा काम-राग की वृद्धि करने वाली स्त्री के साथ कथा-वार्ता नहीं करना, नींबू के रस का दृष्टान्त (३) स्त्री के आसन पर बैठना नहीं तथा स्त्री के साथ सहवास करना नहीं । घृत के घट को अग्नि का दृष्टांत (४) स्त्री का अङ्ग अवयव, उस की प्राकृति, उसकी बोल चाल व उसका निरक्षण आदि का राग दृष्टि से देखना नहीं-(सूर्य को दुखती आंखो से देखने का दृष्टान्त (५) स्त्री सम्बन्धी कूजित, सदन, गीत, हास्य, श्राक्रन्द आदि सुनाई देवे एसी दीवार के समीप निवास नहीं करना, मयूर को गजारव का दृष्टांत (६) पूर्वगत स्त्री सम्बन्धी क्रीड़ा,हास्य, रति, दर्प, स्नान, साथ में भोजन करना आदि स्मरण नहीं करना । सर्प के जहर (विष) का दृष्टान्त (७) स्वादिष्ट तथा पौष्टिक आहार नित्यप्रति करना नहीं त्रिदोषी को घृत का दृष्टान्त (८) मर्यादित काल में धर्म यात्रा के निमित्त चाहिये उससे अधिक आहार करना नहीं । कागज की कोथली में रुपों का दृष्टान्त(६)शरीर सुन्दर व विभूषित करने के लिये श्रङ्गार व शोभा करना नहीं। रंक के हाथ रत्न का दृष्टान्त । दश प्रकार का श्रमण-( यति ) धर्म-१ क्षमा (सहन करना) २ मुक्ति (निर्लोभिता रखना) ३ प्राजेक' (निर्मल स्वच्छ हृदय रखना ) ४ मादेव (कोमल-विनय Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२५ ) बुद्धि रखना व श्रहङ्कार - मद नहीं करना ) ५ लाघव - ( अन्य उपकरण - साधन रखना ) ६ सत्य ( सत्यताप्रमाणिकता से वर्तना) ७ संयम ( शरीर - इन्द्रिय आदि को नियमित रखना) = तप ( शरीर दुर्बल होवे इससे उपवासादि तप करना ) ६ चैत्य - ( दूसरों को उपकार बुद्धि से ज्ञानादि देना ) १० ब्रह्मचर्य ( शुद्ध आचारनिर्मल पवित्र वृत्ति में रहना ) दश प्रकारकी सामाचारी - १ आवश्यं स्थानक से बाहर जाना हो तो गुरु आदि को कहना कि अवश्य करके मुझे जाना है २ निषेधिक-स्थानक में आना हो तो कहना कि निश्चय कार्य कर के मैं आया हूँ ३ आपूच्छनाअपने को कार्य होवे तब गुरु को पूछना, ४ प्रति पूछना दुसरे साधुओं का कार्य होवे तत्र वारंवार गुरु को जतलाने के लिये पूछना ५ छंदना - गुरु अथवा बड़ों को अपने पास की वस्तु आमंत्रण करना ६ इच्छाकार - गुरु तथा बड़ों को कहना " हे पूज्य ! सूत्रार्थ ज्ञान देने के लिये आपकी इच्छा है ? " ७ निध्याकार - पाप लगा हो तो गुरु के समीप मिथ्या कहकर क्षमा याचना करना ( अर्थात् प्रायश्चित लेना ) ८ तथ्यकार - गुरु कथन प्रति कहे कि आप कहो वैसा ही करूंगा। अभ्युत्थान- गुरु तथा बड़ों के आने पर सात आठ पांव सामने जाना वैसे ही जाने पर सात आठ पांव पहुँचाने को जाना १० उपसंपद पतास बाल । Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ANANAVARAN २२६ ) थोकडा संग्रह। गुरु आदि के समीप सूत्रार्थ रूप लक्ष्मी प्राप्त करने को हमेशा रहना। ग्यारह प्रकार की श्रावक प्रतिमा-१ एक मासकी--इप्स में शुद्ध सत्य धर्म की रुचि होवे परन्तु नाना व्रत उपवासादि अवश्य करने के लिये श्रावक को नियम न होवे । उसे दर्शन श्रावक प्रतिमा कहते हैं २ दूसरी प्रतिमा दो माह की--इसमें सत्य धर्म की रुचि के साथ २ नाना शील व्रत-गुणवत प्रत्याख्यान पौषधोपवासादि करे परन्तु सामायिक दिशा वकाशिक व्रत करने का नियम न होवे वो उपासक प्रतिमा ३ तीसरी प्रतिमा तीन माह की-इसमें ऊपर कहा उसके उपरान्त सामायिकादि करे, परन्तु अष्टमी, चतुर्दशी, अमावस्या,पूर्णमासी श्रादि पर्व में प्रौषधोपवास करने का नियम न होवे ४ चोथी प्रतिमा चार माह की-इसमें ऊपर कहा उसके उपरान्त प्रति पूर्ण पोषधोपवास अष्टम्यादि सर्व पर्व में करे । ५ पांचवी प्रतिमा पांच माह की--इसमें पूर्वोक्त सर्व आचरे, विशेष एक रात्रि में कायोत्सर्ग करे और पांच बोल आचरे; १ स्नान न करे २ रात्रि भोजन न करें ३ लांग न लगावे ४ दिन में ब्रह्मचर्य पाले ५ रात्रि में परिमाण करे । ६ छठी प्रतिमा छ: माह की-इसमें पूर्वोक्त उपरान्त सर्व समय ब्रह्मचर्य पाले ७ सातवी प्रतिमा जघन्य एक दिन उत्कृष्ट सात माह की इसमें सचित्त आहार नहीं Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेतीस बोल। ( २२७) करे परन्तु खुद के लिये प्रारम्भ त्याग करने का नियम न होवे । ८ आठवी प्रतिमा जघन्य एक दिन की उत्कृष्ट आठ माह की इसमें प्रारम्भ नहीं करे 8 नववी प्रतिमाउसी प्रकार उत्कृष्ट नव माह की इसमें प्रारम्भ करने का भी नियम करे १० दशवी प्रतिमा-उत्कृष्ट दश माह की। इसमें पूर्वोक्त सवे नियम करे व उपरान्त चुर मुंडन करावे अथवा शिखा राखे कोई यह एक वार पूछने पर तथा वारवार पूछने पर दो भाषा बोलना कल्पे । जाने तो हां कहना कल्पे और न जाने तो नहीं कहना कल्पे ११ इग्यारहवीं प्रतिमा--उत्कृष्ट ११ माहकी--इसमें क्षुर मुंडन करावे अथवा केश लोच करावे, साधु श्रमण समान उपकरण पात्र रजोहरण आदि धारण करे, स्वज्ञाति में गौचरी अर्थ भ्रमण करे और कहे कि मैं प्रतिमा धारी हूं, श्रावक हूं, मिक्षा देवो ? साधु समान उपदेश देवे । एवं सर्व मिला कर ११ प्रतिमा में ५ वर्ष ६ माह काल लागे। बारह भित्तु की प्रतिमा:-(अभिग्रह रूप)-१ पहेली प्रतिमा एक माह की, इसमें शरीर ऊपर ममतास्नेह भाव नहीं रखे, शरीर की शुश्रुषा नहीं करे कोई मनुष्य देव तिथंच आदि का परिषह उत्पन्न होवे उसे सम परिणाम से सहन करे। २ एक दाति आहार की, एक दाति जल की लेना कल्पे । यह आहार शुद्ध निदोष; कोई श्रमण, ब्राह्मण, Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२८) थोकडा संग्रह। अतिथि, कृपण, रंक प्रमुख द्विपद तथा चतुष्पद को अन्तराय नहीं लगे, इस तरह से लेवे । तथा एक मनुष्य जिमता ( भोजन करता) होवे व एक के निमित्त भोजन तैयार किया होवे वो आहार लेवे । दो के भोजन करने में से देव तो नहीं लेवे तीन,चार, पांच आदि भोजन करने को बैठे हुवे उसमें से देवे तो न लेवे; गर्भवन्ती निमित्त उत्पन्न किया होवे वो न लेवे तथा नव प्रसूती का आहार नहीं लेवे,बालक को दूध पिलाते होवे उसके हाथ से नहीं लेवे, तथा एक पांव डेवड़ी के बाहर और एक पांच डेवड़ी के अन्दर रख कर वहेरावे तो लेवे, नहीं तो नहीं लेवे। ३ प्रतिमा धारी साधु को तीन काल गौचरी के कहे हैं-आदिम, मध्यम, चरम ( अन्त का ) चरम अर्थात् एक दिन के तीन भाग करे पहले भाग में गौचरी जावे तो दूसरे दो भाग में नहीं जावे इसी प्रकार तीनों में जानना। ४ प्रतिमा धारी साधु को छः प्रकार की गौचरी करना कही है १ सन्दूक के आकार समान ( चौखुनी) २ अर्ध सन्दुक के आकार ( दो पंक्ति ) ३ बलद के मूत्र आकार ४ पतङ्ग टीड़ उड़े उस समान अन्तर २ से करे ५ शंख के आवत्तेन के समान गौचरी करे ६ जावता तथा श्रावता गौचरी करे। ५ प्रतिमा धारी साधु जिस गांव में जावे वहां यदि यह जानते होवे कि यह प्रतिमा धारी साधु है तो एक रात्रि Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेतीस बोल। ( २२६) रहे और न जानते होवे तो दो रात्रि रहे इस के उपरान्त रहे तो छेद तथा परिहार तप जितनी रात्रि तक रहे उतने दिन का प्रायश्चित करे। ६ प्रतिमा धारी चार प्रकार से बोले १ याचना करने के समय २ पंथ प्रमुख पूछने के समय ३ आज्ञा मांगने के समय ४ प्रश्नादिक का उत्तर देते माय । ७ प्रतिमा धरी साधु को तीन प्रकार के स्थानक पर ठहरना अथवा प्रति लेखन करना कल्पे-१ बीचे का बंगला २ श्मशान की छतरी ३ वृक्ष के नीचे। ८ प्रतिमा धारी साधु तीन स्थान पर याचना करे । 8 इन तीन प्रकार के स्थानक के अन्दर वास करे । १० प्रतिमा धारी साधु को तीन प्रकार की शय्या कल्पे १ पृथ्वी (शिला) रूप २ काष्ट रूप ३ तण रूप । ११ इन तीन प्रकार की शय्या की याचना करना कल्प। १२ इन तीन प्रकार की शय्या का भोग करना कल्प। १३ प्रतिमा धारी साधु जिस स्थानक में रहते होवे उस में यदि कोई स्त्री प्रमुख आवे तो स्त्री के भय से बाहर निकले नहीं, यदि कोई दूसरा बाहर निकाले तो स्वयं इयाँ समिति शोध कर निकले । १४ प्रतिमा धारी साधु जिस घर में रहते होवे वहां यदि कोई अनि लगाव तो भय से बाहर निकले नहीं, यदि ___ Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३०) थोकडा संग्रह। कोई दूसरा निकालने का प्रयास करे तो स्वयं इा समिति शोध कर निकले। १५ प्रतिमा धारी साधु के पांव में यदि कंटक प्रमुख लगा होवे तो उन्हें निकालना नहीं कल्पे । १६ प्रतिमा धारी साधु के आंख में छोटे जीव तथा नाना बीज व रज प्रमुख गिरे तो उन्हें निकालना नहीं कल्पे, इर्या समिति से चलना कल्पे। १७ प्रतिमा धारी साधु को सूर्यास्त होने के बाद एक पांव भी आगे चलना नहीं कल्पे । प्रति लेखन करने के समय तक विहार करे । १८ प्रतिमा धारी साधु को सचित्त पृथ्वी पर सोना बैठना व थोड़ी निद्रा भी निकालना नहीं कल्पे, और पहिले देखे हुवे स्थानक पर उचार प्रमुख परिठवना कल्पे । १६ साचत्त रज से यदि पांव प्रमुख भरे हुवे हों तो ऐसे शरीर से गृहस्थ के घर पर गौचरी जाना नहीं कन्ये । २० प्रतिमा धारी साधु को प्राशुक शीतल तथा उष्ण जल से हाथ, पांव, कान, नाक,आंख प्रमुख एक वार धोना वारंवार धोना नहीं कल्पे, केवल अशुचि से भरे हुवे तथा भोजन से भरे हुवे शरीर के अङ्ग धोना कल्पे अधिक नहीं। २१ प्रतिमा धारी साधु घोड़ा, वृषभ, हाथी, पाड़ा, वराह (सूअर), श्वान, वाघ इत्यादिक दुष्ट जीव सामने ___ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेतीस बोल । (२३१) raawarananeruruarner श्राते हो तो डर कर एक पांव भी पीछे धरे नहीं परन्तु सुवांला (सीधा) भद्र जीव सामने आता हो तो दया के कारण यत्नां के निमित्त पांव पीछे फिरे। २२ प्रतिमा धारी साधु धूप से छांया में नहीं जावे और छांया से धूप में नहीं जावे, शीत और ताप सम परि. णाम पूर्वक सहन करे। दुसरी प्रतिमा एक मास की । इस में दो दाति आहार की और दो दाति जलकी लेवे। तीसरी प्रतिमा एक माह की। इस में तीन दाति प्रा. हार की और तीन दाति जलकी लेना कल्पे।। चौथी प्रतिमा एक माह की। इस में चार दाति प्रा. हार की और चार दाति जल की लेना कलरे। पांचवी प्रतिमा एक माह की । इस में पांच दाति आहार की और पांच दाति जल की लेना कल्ये। छट्ठी प्रतिमा एक माह की । इस में ६ दाति आहार की और ६ दाति जल की लेना कल्ले । सातवीं प्रतिमा एक माह की। इस में सात दाति प्रा. हार की और सात दांति जल की लना कल्प। - आठवीं प्रतिमा सात अहोरात्रि की । इस में जल विना एकान्तर उपवास करे । ग्राम, नगर, राजधानी आदि के बाहर स्थानक करे, तीन आसन से बैठे, चित्ता सोदे,करवट से सोवे, पलांठी मार कर सोवे। परन्तु किसी भी परिषह से डरे नहीं। Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थोकडा सपहा (२३२ | नववी प्रतिमा - सात अहो रात्रि की । ऊपर सम्मान, बिशेष तीन में से एक आसन करे, दण्ड आसन, लगड़ आसन और उत्कट आसन । दसवीं प्रतिमा सात अहोरात्र की। ऊपर समान, वि. शेष तीन में से एक आसन करे; गोहद आसन, वीरासन और अम्बुज आसन इग्यारहवीं प्रेतिना एक अहोरात्र की । जल विना छठ्ठ भक्त करे, ग्राम बाहर दो पांव संकोच कर हाथ लम्बे कर कायोत्सर्ग करे | बारहवीं प्रतिमा एक रात्रि की। जल विना अठम भक्त करे | ग्राम नगर बाहर शरीर तज कर व आंखों की पलक नहीं मारते हुवे एक पुल ऊपर स्थिर दृष्टि करके, तमाम इन्द्रियें गोप करके, दोनो पांव एकत्र करके और दोनों हाथ लम्बे करके ढासन से रहे । इस समय देव, मनुष्य મ व तिथेच द्वारा कोई उपसर्ग दोवे तो सहन करें । सम्यकू प्रकार से आराधन होवे तो अवधि ज्ञान मनः पर्यव ज्ञान तथा केवल ज्ञान प्राप्त होवे यदि चलित होवे तो उन्माद पावे, दीर्घकालिक रोग होवे और केवली प्रणित धर्म से भ्रष्ट होवे | एवं इन सब प्रतिमा में आठ माह लगते हैं । तेरह प्रकार का क्रिया स्थानक (१) अर्थदण्ड - अपने लिये हिंसा करे । (२) अनर्थ दण्ड- दूसरों के लिये हिंसा करे । Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेतीस बोल । ( २३३ ) (३) हिंसा दण्ड-यह मुझे मारता है, मारा था व मारेगा ऐसा संकल्प करके मारे । (४) अकस्मात् दण्ड एक को मारने जाते समय अचानक दूसरे की घात होवे ।। (५) दृष्टि विपर्यास दण्ड-शत्रु समझ कर मित्र को मारे । (६) मृषावाद दण्ड-असत्य बोल कर दण्ड पावे । (७) अदत्ता दान दण्ड-चोरी करके दण्ड पावे । (८) अभ्यस्थ दण्ड-मन में दुष्ट, अनिष्ट कल्पना करे। (६) मान दण्ड-अभिमान करे। (१०) मित्र दोष दण्ड-माता, पिता तथा भित्र वर्ग को अल्प अपराध के लिये भारी दण्ड करे । (११) माया दण्ड कपट करे । (१२) लोभ दण्ड -लालच तृष्णा करे (१३) इर्यापथिक दण्ड- मार्ग में चलने से होने वाली हिंसा । चोदह प्रकार के जीवः-(१) सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त (२)सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त (३) बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त (४) बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त (५) वे इन्द्रिय अपर्याप्त ( ६ ) बे इन्द्रिय पर्याप्त (७) त्रि इन्द्रिय अपर्याप्त (८) त्रि इन्द्रिय पर्याप्त (६) चौरिन्द्रिय अप Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३४ ) थोकडा संग्रह। यप्ति (१०) चौरिन्द्रिय पर्याप्त (११) असंज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्त (१२) असंज्ञी पंचन्द्रिय पयोप्त (१३) संज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्त (१४) संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त । पन्द्रह प्रकार के परमाधामी देव-(१) आम्र २ श्राम रस ३ शाम ४ सबल ५ रुद्र ६ वैरुद्र ७ काल ८ महा काल । ६ असिपत्र १० धनुष्य ११ कुंभ १२ वालु (क) १३ वैतरणी १४ खरस्वर १५ महा घोष। ... सोलवें सूत्र कृत का प्रथम श्रुतस्कन्ध के सोलह अध्ययन:-१ स्वसमय परसमय २ पैदारिक ३ उपसग प्रज्ञा ४ स्त्री प्रज्ञा ५ नरक विभक्ति ६ वीर स्तुति ७ कुशील परिभाषा ८ वीर्या ध्ययनह धर्म ध्यान १० समाधि ११ मोक्ष मार्ग १२ समव सरण १३ अथातथ्य १४ ग्रंथी १५ यमतिथि १६ गाथा । सत्तरह प्रकार का संयमः-१ पृथ्वी काय संयम २ अपकाय संयम ३ तेजम काय संयम ४ वायु काय संयम ५ वनस्पति काय संयम ६३ इन्द्रिय काय संयम ७ त्रि इन्द्रिय काय संयम ८ चौरिन्द्रिय काय संयम ६ पंचेन्द्रिय काय संयम १० अजीव काय संयम ११ प्रेक्षा संयम १२ उत्प्रेक्षा संयम १३ अपहत्य संयम १४ प्रमार्जना संयम १५ मन संयम १६ वचन संयम १७ काय संयम । अट्ठारह प्रकार का ब्रह्मचर्य-औदारिक शरीर संबन्धी भोग १ मन से, २ वचन से, ३ काया से सेवे Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेतीस बोल । (२३५) नहीं, ३, सेवावे नहीं, ६. सेवता प्रति अनुमोदन करे नहीं, ६ इसी प्रकार वैक्रिय शरीर संबन्धी 8 प्रकार का छोड़ना। उन्नीश प्रकार का ज्ञाता सूत्र के अध्ययनः१ उत्क्षिप्त--मेघ कुमार का २ धन्य सार्थवाह और विजय चोर का ३ मयूर ईडा का ४ कर्म ( काचवा ) का ५शैलक राजर्षि का ६ तुम्ब का ७ धन्य सार्थ वाह और चार बहुओं का ८ मल्ली भगवती का ६ जिनपाल जिन रक्षित का १० चंद्र की कला का ११ दावानल का १२ जित शत्रू राजा और सुबुद्धि प्रधान का १३ नंद मणिकारका १४ तेतलि पुत्र प्रधान और पोटीला-सोनार पुत्री का १५ नंदिफल का १६ अवरकंका का १७ समुद्र अश्व का १८ सुसीमा दारिका का १६ पुंडरीक कंडरीक का । ... बीश प्रकार के असमाधिक स्थान:-१ उतावला उतावला चाले २ पूंज्या विना चाले ३ दुष्ट रीति से ने ४ पाट, पाटला, शय्या आदि अधिक रक्खे ५ रत्नाधिक के ( बड़ों के ) सामने बोले ६ स्थविर, वृद्ध गुरु श्राचार्यजी का उपघात [ नाश ] करे ७ एकेन्द्रियादि जीव को शाता, रस, विमूषा निमित्त मारे ८ क्षण क्षण प्रति क्रोध करे ६ क्रोध में हमेशां प्रदीप्त रहे १० पृष्ट मांस खावे अर्थात् दूसरों की पीछे से निन्दा बोले ११ निश्चय वाली भाषा बोले १२ नया क्लेश [ झगड़ा] उत्पन्न करे १३ जो झगड़ा बन्द हो गया हो उसे पुनः जागृत Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३६) थोकडा संग्रह । करे १४ अकाले स्वाध्याय करे १५ सचित्त पृथ्वी से हाथ पाँव भरे हुवे होने पर भी आहारादि लेने जावे १६ शान्ति के समय तथा प्रहर रात्रि बीत जाने पर जोर २ से अावाज करे १७ गच्छ में भेद उत्पन्न करे १८ गच्छ में क्लेश उत्पन्न करके परस्पर दुख उत्पन्न करे १६ सूर्योदय से लगाकर सूर्यास्त तक अशनादि भोजन लेता ही रहे २० अनेषणिक अप्राशुक श्राहार लेवे। ___ इकवीश प्रकार के शवल कर्मः-१ हस्त कर्म २ मैथुन सेबे ३ रात्रि भोजन करे ४ आधा कर्मी भोगवे ५ राज पिंड जिले ६ पांच बोल सेवे-१ खरीद कर देवे तथा लेवे २ उधार देवे तथा लेवे ३ बलात्कार से देवे तथा लेवे ४ स्वामी की आज्ञा बिना देवे तथा ले। ५ स्थानक में समां जाकर वे तथा लेवे ७ वारंवार प्रत्याख्यान करक भाग ८ महिने के अन्दर तीन उदक लेप करे ( नदी उतरे ६ छः माह से पहले एक गण से दूसरे गण में जावे १० एक माह के अन्दर तीन माया का स्थान भोगवे ११ शय्यातर का अहार करे १२ इरादा पूर्वक हिंसा करे १३ इरादा पूर्वक असत्य बोले १४ इरादा पूर्वक चोरी करे १५ इरादा पूर्वक सचित्त पृथ्वी पर स्थानक, शय्या व बैठक करे १६ इरादा पूर्वक सचित्त मिश्र पृथ्वी पर शय्यादिक करे १७ सचित्त शिला, पत्थर, सूक्ष्म जीव जन्तु रहे ऐसा काष्ट तथा अंड प्राणी बीज, हरित आदि जीव वाले Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेतीस बोल । ( २३७ ) स्थानक पर आश्रय, बैठक, शय्या करे १८ इरादा पूर्वक मूल, कन्द, स्कंध, त्वचा, शाखा, प्रवाल, पत्र, पुष्प, फल, बीज इन १० सचित्त का आहार करे १६ एक वर्ष के अन्दर दश उदक लेप करे ( नदी उतरे)२० एक वर्ष के अन्दर दश माया का स्थानक सेवे २१ जल से गीले हाथ पात्र, भाजन आदि करके अशनादि देवे तथा लेकर इरादा पूर्वक भोगवे। बावीश प्रकार का परिषहः-१ क्षुधा २ तृषा ३ शीत ४ ताप ५ डांस-मत्सर ६ अचेल ( वस्त्र रहित ) ७ अरति ८ स्त्री 8 चलन १० एक आसन पर बैठना ११ उपाश्रय १२ आक्रोश १३ वध १४ याचना १५ अलाभ १६ रोग १७ तृण स्पर्श १८ जल ( मेल) १६ सत्कार, पुरस्कार २० प्रज्ञा २१ अज्ञान २२ दर्शन ।। तेवीश प्रकार के सूत्र कृत सूत्र के अध्ययन:सोलहवें बोल में कहे हुवे मोलह अध्ययन और सात नीचे लिखे हुवे-१ पुंडरीक कमल २ क्रिया स्थानक ३ आहार प्रतिज्ञा ४ प्रत्याख्यान क्रिया ५ अणगार सुत । आर्द्र कुमार ७ उदक (पेढाल सुत)। चोवीश प्रकार के देवः-१ दश भवन पति २ आठ वाण व्यन्तर ३ पांच ज्योतिषी ४ एक वैमानिक । पीश प्रकारे पांच महाव्रत की भावना:पहेले महाव्रत की पांच भावना-१ इर्या समिति Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३८ ) थोकडा संग्रह। भावना २ मन समिति भावना ३ वचन समिति भावना ४ एषणा समिति भावना ५ आदान-भंड-मात्र निक्षेपन समिति भावना। दूसरे महाव्रत की पांच भावनाः-विचारे विना घोलना नहीं २ के'ध से बोलना नहीं ३ लेभ से बोलना नहीं ४ भय से बोलना नहीं ५ हास्य से बोलना नहीं । तीसरे महाव्रत को पांच भावना:-१ निर्दोष स्थानक याच कर लेना तृण प्रमुख याच कर लेना ३ स्थानक आदि सुधारना नहीं ४ स्वधर्मी का अदत्त लेनी नहीं ५ स्वधर्मी की वैवावच करना। चोथे महावत की पांच भावना:-१स्त्री, पशु पंडक वाला स्थानक सेवना नहीं :२ स्त्री के साथ विषय संबन्धी कथा वार्ता करनी नहीं ३ राग दृष्टि से विषय उत्पन्न करने वाले स्त्री के अंग अवयव देखना नहीं ४ पूर्व गत सुख क्रीड़ा का स्मरण करना नहीं ५ स्वादिष्ट व पौष्टिक आहार नित्य करना नहीं। पांचवें महाव्रत की पांचभावना:-१मधुर शब्दों पर राग और कठोर शब्दों पर द्वेष करना नहीं २ सुन्दर रूप पर राग और खराब रूप पर द्वेष करना नहीं ३ सुगन्ध पर राग और दुर्गन्ध पर द्वेष करना नहीं ४ वादीष्ट रस पर राग और खराब ( कड़वा आदि) रस पर Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तैतीस बोल। (२३६) द्वेष करना नहीं ५ कोमल ( सुंवाला ) सर्श पर राग और कठोर सर्श पर द्वेष करना नहीं। छवीरा प्रकार के दश.श्रुत स्कंध, वृहत् कल्प और व्यवहार के अध्ययन:-( १ ) दश दशाश्रुत स्कंध के (२) ६ बृहत् कल्प के और ( ३ ) द॥ व्यवहार के स्कंध । सत्तावीश प्रकार के अणगार ( साधु ) के गुण: १ सर्व प्राणति पात वेरमणं २ सर्व मृषाबाद वेरमणं ३ सर्व अदत्तादान वरमणं ४ सर्व मैथुन वेरमणं ५ सर्व परिग्रह वेरमणं ६ श्रात्रेन्द्रिय निग्रह ७ चनु इन्द्रिय निग्रह ८घ्राणेन्द्रिय निग्रह 8 रसेन्द्रिय निग्रह १० स्पर्शन्द्रिय निग्रह ११ काध विजय १२ मान विजय १३ माया विजय १४ लोभ विजय १५ भाव सत्य १६ कर्ण सत्य १७ योग सत्य १८ क्षमा १६ वैराग्य २८ मन समा धारणा २१वचन समा धारणता २२ काय समा धारणता २३ज्ञान २४दर्शन २५ चारित्र २६ वेदना सहिष्णुता २७ मरण सहिष्णुता । - अठावीस प्रकार का प्राचार कल्पः-१ माह (मासीक) प्रायश्चित २ माह और पांच दिन ३ माह और दश दिन ४ माह और पन्द्रह दिन ५ माह और वीश दिन ६ माह और पञ्चिश दिन ७ दो माह ८ दो माह और पांच दिनं ६ दो माह और दश दिन १० दो माह और पन्द्रह दिन ११ दो माह और वीस दिन १२ दा माह और पच्चि Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६४०) थोकडा संग्रह। श दिन १३ तीन माह १४ तीन माह और पांच दिन १५ तीन माह दश और दिन १६ तीन माह और पन्द्रह दिन १७ तीन माह और वीश दिन १८ तीन माह और पञ्चिश दिन १६ चार माह २० चार माह और पांच दिन २१ चार माह और दश दिन २२ चार माह और पन्द्रह दि! २३ चार माह और वीश दिन २४ चार माह और पचिश दिन २५ पवि माह ये पच्चिश उपघातिक है २६ अनुघाति का रत्व २७ कृत्स्न ( सम्पूणे).२८ अकृत्स्न (असम्पूर्ण)। उन्न्तीश प्रकार का पाप सत्रः-१ भूमि कंप शास्त्र २ उत्पात शास्त्र ३ वा शास्त्र ४ अंतरीक्ष शास्त्र ५ अंग स्फुरन शास्त्र ६ स्वर शास्त्र ७ व्यंजन शास्त्र (मसा तिल सम्बन्धी) ८ लक्षण शास्त्र ये आठ सूत्र से, पाठ वृत्ति से और आठ वार्तिक से एवं २४, २५ विकथा अनुयोग २६ विद्या अनुयोग २७ मंत्र अनुयोग २८ योग अनुयोग २६ अन्य तीथिक प्रवृत अनुयोग । तीश प्रकार के मोहनीय का स्थानकः-१ स्त्री पुरुष नपुंसक को अथवा किसी त्रस प्राणी को जल में बैठा कर जल रूप शस्त्र से मारे तो महा मोहनीय कर्म बांधे। २ हाथ से प्राणी का मुख प्रमुख बांध कर व श्वास रंधकर जीव को मारे तो महा मोहनीय । Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेत्तीस बोल । ( २४१ ) ३ अति प्रज्वलित कर, वाड़ादिक में प्राणी रोक कर वे से आकुल व्याकुल कर मारे तो महा मोहनीय | ४ उत्तमांग- मस्तक को खङ्ग आदि से भेदे-छेदे काड़े - काटे तो महा मोहनीय | ५ चमड़े प्रमुख में मस्तकादि शरीर को तान कर बांधे और वारंवार अशुभ परिणाम से कदर्थना करे तो महा मोहनीय | ६ विश्वासकारी वेष बनाकर मार्ग प्रमुख के अन्दर जीव को मारे, व लोक में आनन्द माने तो महा मोहनीय । ७ कपट पूर्वक अपने आचार को गोयवे तथा अपनी माया द्वारा अन्य को पाश (जाल) में फंसाने तथा शुद्ध सूत्रार्थ गोयवे तो महा मोहनीय | ८ खुद ने अनेक चौर कर्म बाल घात (अन्याय) प्रमुख कर्म किये हुये हों तो उनके दोष अन्य निर्दोषी पुरुष पर डाले तथा यशस्वी का यश घटावे व श्रद्धता ( झूठा ) अल ( कलङ्क ) लगावे तो महा मोहनीय | ६ दूसरों को खुश करने के लिये, द्रव्य भाव से झगड़ा ( क्लेश ) बड़ाने के लिये, जानता हुवा भी सभा में सत्य मृषा (मिश्र) भाषा बोले तो महा मोहनीय | १० राजा का भन्डारी प्रमुख, राजा, प्रधान, तथा समर्थ किसी पुरुष की लक्ष्मी प्रमुख लेना चाहे तथा उस पुरुष की स्त्री का सतीत्व नष्ट करना चाहे तथा उसके रागी Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४२) थोकडा संग्रह। पुरुषों का [हितैषी-मित्र आदि ] दिल फेरे तथा राजा को राज्य कर्तव्य से च्युत करे तो महा मोहनीय । ११ स्त्री आदि गृद्ध होकर, विवाहित होने पर भी [मैं कुंवारा हूं] कुमारपने का विरुद धरावे तो महा मोहनीय। १२ गायों [ गौवें ] के अन्दर गर्दभ समान स्त्री के विषय में गृद्ध हो कर आत्मा का अहित करने बाला माया मृषा बोले अब्रह्मचारी होने पर भी ब्रह्मचारी का विरुद [रूप ] धरावे तो महा मोहनीय [ कारण लोक में धर्म पर अविश्वास होवे, धर्मी पर प्रतीत न रहे ] १३ जिसके आश्रय से आजीविका करें उसी आश्रय दाता की लक्ष्मी में लुब्ध होकर उसकी लक्ष्मी लूटे तथा अन्य से लुटावे तो महा मोहनीय । १४ जिसकी दरिद्रता दर करके ऊंच पद पर जिस को किया वो पुरुष ऊंच पद पाकर पश्चात ईष्यों द्वेष से व कलुषित चित्त से उपकारी पुरुष पर विपति डाले तथा धन प्रमुख की प्रामद में अन्तराय डाले तो महा मोहनीय। १५ अपना पालन पोषण करने वाले राजा, प्रधान प्रमुख तथा ज्ञानादि देने वाले गुरु आदि को मारे तो महा मोहनीय । १६ देश का राजा, व्यापारी वृन्द का प्रवर्तक Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेतीस बोल । ( २४३ ) [ व्यवहारिया ] तथा नगर शेठ ये तीनो अत्यन्त यशस्वी अतः इनकी घात करे तो महा मोहनीय | १७ अनेक पुरुषों के आश्रय दाता - आधार भूत [ समुद्र में द्वीप समान ] को मारे तो महा मोहनीय | १८ संयम लेने वाले को तथा जिसने संयम ले लिया हो उसे धर्म से भ्रष्ट करे तो महा मोहनीय | १६ अनन्त ज्ञानी व अनन्त दर्शी ऐसे तीर्थंकर देव का वर्णवाद [ निन्दा ] बोले तो महा मोहनीय | २० तीर्थकर देव के प्ररूपित न्याय मार्ग का द्वेषी वन कर वर्णवाद बोले, निन्दा करे और शुद्ध मार्ग से लोगों का मन फेरे तो महा मोहनीय | २१ श्राचार्य उपाध्याय जो सूत्र प्रमुख विनय सीखते हैं--व सिखाते हैं उनकी हिलना निन्दा करे तो महामोहनीय | २२ आचार्य उपाध्याय को सच्चे मन से नहीं श्राराधे तथा अहंकार से भक्ति सेवा नहीं करे तो महा मोहनीय | २३ अल्पसूत्री हो कर भी शास्त्रार्थ करके अपनी श्लाघा करे स्वाध्याय का वाद करे तो महा मोहनीय | २४ तपस्वी होकर भी तपस्वी होने का ढोंग रचे ( लोगों को ठगने के लिये ) तो महा मोहनीय | २५ उपकारार्थ गुरु आदि का तथा स्थविर, ग्लान प्रमुख का शक्ति होने पर भी विनय वैयावच्च नहीं करे ( कहे के इन्होंने मेरी सेवा पहेली नहीं की इस प्रकार वह Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४४) थोकडा संग्रह। धृतं मायावी मलिन चित्त वाला अपना बोध बीज का नाश करने वाला अनुकम्पा रहित होता है ) तो महा मोहनीय। २६ चार तीर्थ के अन्दर फूट पड़े ऐसी कथा वाता प्रमुख ( क्लेश रूप शस्त्रादिक ) का प्रयोग करे तो महा मोहनीय । २७ अपनी श्लाघा करवाने तथा मित्रता करने के लिये अधर्म योग वशीकरण निमित्त मंत्र प्रमुख का प्रयोग करे तो महा मोहनीय। २८ मनुष्य सम्बन्धी भोग तथा देव सम्बन्धी भोग का अतृप्त पने गाढ परिणाम से आसक्त होकर आस्वादन करे तो महा मोहनीय ।। २६ महर्द्धिक महाज्योतिवान महायशस्वी देवों के बल वीर्य प्रमुख का अवर्ण वाद बोले तो महा मोहनीय । ३.. अज्ञानी होकर लोक में पूजा-श्लाघा निमित्त व्यन्तर प्रमुख देव को नहीं देखता हुवा भी कहे कि 'मैं देखता हूं' ऐसा कहे तो महा मोहनीय । इकत्तांश प्रकार के सिद्ध के आदि गुणः-आठ कर्म की ३१ प्रकृति का विजय से ३१ गुण । ३१ प्रकृति नीचे लिखे अनुसार१ ज्ञानावरणीय कर्म की पांच प्रकृति-१ मति ज्ञाना Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेतीस बोल । वरणीय २ श्रृत ज्ञाना वरणाय ३ अवधि ज्ञाना वरणीय ४ मन पयव ज्ञाना वणीय ५ केवल ज्ञाना चरणीय । २ दशना वरणीय कम की नव प्रकृति-१ निद्रा २ निद्रा निद्रा ३ प्रचला ४ प्रचला प्रचला ५ थीणद्धि (स्त्यनर्द्धि ) (६) चक्षु दर्शना वरणीय (७) अचक्षु दर्शना वरणीय (८) अवधि दर्शना वरणीय (8) केवल दर्शना वरणीय। ___ (३, वेदनीय कर्म की दो प्रकृति-१ शाता वेदनीय २ अशाता वेदनीय । (४) मोहनीय कर्म की दो प्रकृति-१ दर्शन मोहनीय २ चरित्र मोहनीय। (५)आयुष्य कर्म की चार प्रकृति-१ नग्क आयुष्य २ तिर्यच आयुष्य ३ मनुष्य आयुष्य ४ देव अायुष्य । (६) नाम कर्म की दो प्रकृति-१ शुभ नाम २ अशुभ नाम। (७) गोत्र कर्म की दो प्रकृति-१ ऊंच गोत्र २ नीच गोत्र। (८) अन्तराय कर्म की पांच प्रकृति-१ दानान्तराय २ लाभान्तराय ३भोगान्तराय ४ उप भोगान्तराय ५वीर्यान्तराय __ बत्तीश प्रकार का योग संग्रहः-१ जो कोई पाप लगा होवे उसका प्रायश्चित लेने का संग्रह करना २ जो कोई प्रायश्चित ले उसको दूसरे प्रति नहीं कहने का संग्रह Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४६) थोकडा संग्रह। करना ३ विपत्ति आने पर धर्म के अन्दर दृढ रहने का संग्रह करना ४ निश्रा रहित तप करने का संग्रह करना ५ सूत्रार्थ ग्रहण करने का संग्रह करना ६ शुश्रूषा टालने का संग्रह करना ७ अज्ञात कुल की गौचरी करने का संग्रह करना ८ निर्लोभी होने का संग्रह करना ६ बावीस परिषह सहन करने का संग्रह करना १० सरल निमेल (पवित्र ) स्वभाव रखने का संग्रह करना ११ सत्य संयम रखने का संग्रह करना १२ समकित निर्मल रखने का संग्रह करना १३ समाधि से रहने का संग्रह करना १४ पांच प्राचार पालने का संग्रह करना १५ विनय करने का संग्रह करना १८ शरीर को स्थिर रखने का संग्रह करना १६ सुविधि-अच्छे अनुष्ठान का संग्रह करना २० आश्व रोकने का संग्रह करना २१ अात्मा के दोष टालने का संग्रह करना २२ सर्व विषयों से विमुख रहने का संग्रह करना २३ प्रत्याख्यान करने का संग्रह करना २४ द्रव्य से उपाधि त्याग, भाव से गर्वादिक का त्याग करने का संग्रह करना २५ अप्रमादी होने का संग्रह करना २६ समय समय पर क्रिया करने का संग्रह करना २७ धर्म ध्यान का संग्रह करना २८ संवर योग का संग्रह करना २६ मरण पातङ्क ( रोग ) उत्पन होने पर मन में क्षोभ न करने का संग्रह करना ३० स्व. जनादि का त्याग करने का संग्रह करना ३१ प्रायश्चित जो लिया हो उसे करने का संग्रह करना ३२ आराधिक Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तैतीस बोल । (२४७) MARAA. पंडित की मृत्यु होवे इसकी आराधना करने का संग्रह करना । तेंतीश प्रकार की अशातना:-१ शिष्य गुरु आदि के आगे अचिनय से चले तो अशातना २ शिष्य गुरु आदि के बराबर चले तो अशातना ३ शिष्य गुरु आदि के पीछे अविनय से चले तो अशातना (४) (५) (६) इस प्रकार गुरु आदि के आगे, बराबर पीछे अवि नय से खडा रहे तो अशातना (७) (८) (8) इस तरह गुरु आदि के आगे, बराबर, पीछे अविनय से बैठे तो अशातना (१०) शिष्य गुरु आदि के साथ बाहिर भूमि जावे और उनके पहले ही शुचि निवृत होकर आगे आवे तो अशा । (११)गुरु आदि के साथ विहार भूमि जाकर व वहां से आकर इरिया पथिका पहले ही प्रतिक्रमे तो अशा० । १२ किसी पुरुष के साथ कि जिसके साथ गुरु आदि को बोलना योग्य, स्वयं बोले व गुरु आदि बादमें बोले तो-अशा० ११३ रात्रि को गुरु आदि पूछे कि 'अहो आर्य ! कोन निद्रा में है और कोन जागृत है' एसा सुनकर भी इसका उत्तर नहीं देवे तो अशा० । १४ अशनादि वहेर कर लावे तब प्रथम अन्य शिष्यादि के आगे कहे और गुरु आदि को बादमें कहे तो अशा० । १५ अशनादि लाकर प्रथम अन्य शिष्यादि को बतावे और बादमें गुरु को बतावे तो अशा० । १६ अशनादि लाकर प्रथम अन्य शिष्यादि को निमन्त्रण करे और बाद में गुरु के Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४८ ) थोकडा संग्रह। करे तो अशातना ( १७ ) गुरु आदि के साथ अथवा अन्य साधु के साथ अन्नादि वेहर कर लावे और गुरु व वृद्ध आदि को पूछे बिना जिस पर अपना प्रेम है उसे थोड़ा २ देवे तो अशातना (१८) गुरु आदि के साथ आहार करते समय अच्छे २ पत्र, शाक, रस रहित मनोज्ञ भोजन जल्दी से करे तो अशातना (१६) बड़ों के बोलाने पर सुनते हुवे भी चुप रहे तो अशातना (२०) बड़ों के बोलाने पर अपने आसन पर बैठा हुवा 'हां' कहे परन्तु काम का कहेगें इस भय से बड़ों के पास जावे नहीं तो अशातना ( २१ ) बड़ों के बुलाने पर श्रावे और आकर कहे कि क्या कहते हो ' इस प्रकार बड़ों के साथ अविनय से बोले तो अशातना (२२) बड़े कहें कि यह काम करो तुम्हें लाभ होगा तब शिष्य कहे कि आप ही करो, आपको लाभ होगा तो अशातना (२३) शिष्य बड़ों के कठोर, कर्कश भाषा बोले तो अशातना ( २४ ) शिष्य गुरु आदि बड़ों से, जिस प्रकार बड़े बोले वैसे ही शब्दों से, वार्तालाप करे तो अशातना (२५) गुरु आदि धार्मिक व्याख्यान वांचते होवे उस समय सभा में जाकर कहे कि ' आप जो कहते हों वो कहां लिखा है। इस प्रकार कहे तो अशातना (२६) गुरु आदि व्याख्यान देते हों उस समय उन्हें कहे कि आप बिलकुल भूल गये हो तो अशातना (२७) Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेतीस बोल। (२४६) गुरु आदि व्याख्यान देते हों उस समय शिष्य ठीक २ नहीं समझने पर खुश न रहे तो अशातना (२८) बडे व्याख्यान देते हों उस समय सभा में गड़बड़ पड़े ऐसी उच्च आवाज से कहे कि समय हो गया है, आहारादि लेने को जाना है आदि तो अशातना (२६) गुरु आदि के व्याख्यान देते समय श्रोताओं के मन को अप्रसन्नता उत्पन्न करे तो अशातना (३०) गुरु आदि का व्याख्यान बन्ध न हुवा तो भी खयं व्याख्यान शुरू करे तो अशातना (३१ ) गुरु आदि की शय्या पांव से सरकावे तथा हाथ से ऊंची नीची करे तो अशातना (३२) गुरु आदि की शय्या, पथारी पर खडा रहे, बैठे, सोवे तो अशातना (३३) बडों से ऊंच आसन पर तथा बराबर बैठे, खडा रहे, सोवे आदि तो अशातना । ॐ इति तेंतीश बोल सम्पूर्ण Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ र २५०) थोकडा संग्रह। नंदी सूत्र में पांच ज्ञान का विवेचन १ ज्ञेय २ ज्ञान ३ ज्ञानी का अर्थ । १ ज्ञेय-जानने योग्य पदार्थ २ ज्ञान-जीव का उपयोग, जीव का लक्षण, जीव के गुण का जान पना वो ज्ञान ३ ज्ञानी-जो जाने-जानने वाला जीव--असंख्यात प्रदेशी आत्मा वो ज्ञानी। १ ज्ञान का विशेष अर्थ १ जिससे वस्तु का जानपना होवे । २ जिसके द्वारा वस्तु की जान कारी होवे । ३ जिसकी सहायता से वस्तु की जानकारी होवे । ४ जानना सो ज्ञान । ज्ञान के भेद ज्ञान के पांच भेद १ मति ज्ञान २ श्रुत ज्ञान ३ अवधि ज्ञान ४ मनः पर्वव ज्ञान ५ केवल ज्ञान । मति ज्ञान के दो भेद १ सामान्य २ विशेष--१ सामान्य प्रकार का ज्ञान सो मति २ विशेष प्रकार का ज्ञान सो मति ज्ञान और विशेष प्रकार का अज्ञान सो मति अज्ञान । सम्यक् दृष्टि की मति वो मति ज्ञान और मिथ्या दृष्टि की मति सो मति अज्ञान । Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांच ज्ञान का विवेचन । (२५१ ) २ श्रुत ज्ञान के दो भेद १सामान्य २ विशषः-१ सामान्य प्रकार का श्रुत सो श्रुत कहलाता है और २ विशेष प्रकार का श्रुत सो श्रुत ज्ञान या श्रुत अज्ञान:--सम्यक् दृष्टि का श्रुत--सो श्रुत ज्ञान और मिथ्या दृष्टि का श्रुत सो श्रत अज्ञान १ मति ज्ञान २ श्रुत ज्ञान ये दोनों ज्ञान अन्योअन्य परस्पर एक दूसरे में क्षीर नीर समान मिले रहते हैं । जीव और अभ्यन्तर शरीर के समान दोनों ज्ञान जब साथ होते हैं तबभी पहेले मति ज्ञान और फिर श्रुत ज्ञान होता है । जीव मति के द्वारा जाने सो मति ज्ञान और श्रुत के द्वारे जाने सो श्रुत ज्ञान:-- मति ज्ञान का वर्णन:-- मति ज्ञान के दो भेदः-- श्रुत निश्रीत-सुने हुवे वचनों के अनुसारे मति फैलावे। २ अश्रुत निश्रीत जो नहीं सुना व नहीं देखा हो तो भी उसमें अपनी मति (बुद्धि) फैलावे । अश्रुत निश्रीत के चार भेद १ औत्पातिका २ वैनायिका ३ कार्मिका ४ पारिणामिका। औत्पातिका वुद्धिजो पहिले नहीं देखा हो व न सुना हो उसमें एक दम विशुद्ध अर्थग्राही बुद्धि उत्पन्न हो Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५२ ) थोकडा संग्रह। वे व जो बुद्धि फल को उत्पन्न करे उसे औत्पातिका बुद्धि कहते हैं। २ वैनयिका बुद्धिः -गुरु आदि की विनय भक्ति से जो बुद्धि उत्पन्न होवे व शास्त्र का अर्थ रहस्य समझे वो वैनयिका बुद्धि । . ३ कार्मिका (कामीया) बुद्धिः-देखते, लिखते, चितरते, पढते सुनते, सीखते आदि अनेक शिल्प कला श्रादि का अभ्यास करते २ इन में कुशलता प्राप्त करे वो कार्मिका बुद्धि । . पारिणामिका बुद्धिःजैसे जैसे वय ( उम्र ) की वृद्धि होती जाती है वैसे वैसे बुद्धि बढती जाती है, तथा बहु सूत्री स्थविर प्रत्येक वृद्धादि प्रमुख का पालोचन करता बुद्धि की वृद्धि होवे, जाति स्मरणादि ज्ञान उत्पन्न होने वो पारिणामिका बुद्धि। श्रत निश्रीत मति ज्ञान के चार भेद १ अवग्रह २ इहा ३ अवाप्त ४ धारणा । १ अवग्रह के दो भेद १ अर्थावग्रह २ व्यंजनावग्रह । व्यंजनावग्रह के चार भेदः-१ श्रोत्रन्द्रिय व्यंजनावग्रह २ घ्राणेन्द्रिय व्यंजनावग्रह ३ रसेन्द्रिय व्यंजनावग्रह ४ स्पर्शेन्द्रिय व्यंजनावग्रह व्यंजनावग्रह-जो पुद्गल इन्द्रियों के सामने होवे उन्हें Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांच ज्ञान का विवेचन । ( २५३ ) वे इन्द्रिये ग्रहण करें-सरावले के दृष्टान्त समान-वो व्यंजनावग्रह कहलाता है। चक्षु इन्द्रिय और मन ये दो रूपादि पुद्गल के सामने जाकर उन्हें ग्रहण करें इसलिये चतुइन्द्रिय और मन इन दो के व्यंजनावग्रह नहीं होते हैं, शेष चार इन्द्रियों का व्यंजनावग्रह होता है। श्रोत्रेन्द्रिय व्यंजनावग्रह-जो कान के द्वारा शब्द के पुद्गल ग्रहण करे । घ्राणेन्द्रिय व्यंजनावग्रह-जो नासिका से गन्ध के पुद्गल ग्रहण करे । रसेन्द्रिय व्यंजनावग्रह-जो जिह्वा के द्वारा रस __ के पुद्गल ग्रहण करे । स्पर्शेन्द्रिय व्यंजनाग्रह-जो शरीर के द्वारा स्पर्श के पुद्गल ग्रहण करे। व्यंजनावग्रह को समझाने के लिये दो दृष्टान्त १ पडिबोहग दिठतेणं २ मल्लग दिठंतेणं १ पडिबोहग दिठतेणं:-प्रति बोधक ( जगाने का ) दृष्टान्त जैसे किसी सौते हुवे पुरुष को कोई अन्य पुरुष बुलाकर आवाज देवे 'हे देवदत्त' यह सुनकर वो जाग उठता है और जाग कर 'हूं' जवाब देता है । तब शिष्य शंका उत्पन्न होने पर पूछता है 'हे स्वामिन् ! उस पुरुष नहुकारा दिया तो क्या उसन एक समय क, Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५४ ) थोकडा संग्रह। AANAAN दो समय के, तीन समय के, चार समय के यावत् संख्यात समय के या असंख्यात समय के प्रवेश किये हुवे शब्द पुद्गल ग्रहण किये हैं ? गुरु ने जवाब दिया-एक समय के नहीं, दो समय के नहीं तीन-चार यावत संख्यात समय के नहीं परन्तु असंख्यात समय के प्रवेश किये हुवे शब्द पुद्गल ग्रहण किये हैं इस प्रकार गुरु के कहने पर भी शिष्य की समझ में नहीं आया इस पर मल्लक (सरालवा ) का दूसरा दृष्टान्त कहते हैं-कुम्हार के नींभाड़े में से अभी का निकला हुवा कोरा सरावला हो और उसमें एक जल बिन्दु डाले परन्तु वो जल बिन्दु दिखाई नहीं देवे इस प्रकार दो तीन चार यावत् अनेक जल बिन्दु डालने पर जब तक वो भीजें नहीं वहां तक वो जल बिन्दु दिखाई नहीं देवे परन्तु भीजने के बाद वो जल बिन्दु सरावले में ठहर जाता है ऐसा करते २ वो सरावला प्रथम पाव, आधा करते २ पूर्ण भरजाता है व पश्चात् जल बिन्दु के गिरने से सगवले में से पानी निकलने लग जाता है वैसे ही कान में एक समय का प्रवेश किया हुवा पुद्गल ग्रहण नहीं हो सके, जैसे एक जल बिन्दु सरावले में दिखाई नहीं देवे वैसे ही दो, तीन, चार संख्यात समय के पुद्गल ग्रहण नहीं हो सके, अर्थ को पकड़ सके, समझ सके इसमें असंख्यात समय चाहिये और वो असंख्यात समय के प्रवेश किये हुवे पुद्गल जव Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांच ज्ञान का विवेचन । ( २५५) कान में जावे और ( सरावले में जल के समान ) उभराने ( बाहर निकलने ) लगे तब "हूँ" इस प्रकार बोल सके परन्तु समझ नहीं सके, इसे व्यंजनावग्रह कहते हैं । अर्थावग्रह के ६ भेद १ श्रोत्रेन्द्रिय अर्थावग्रह २ चक्षुइन्द्रिय अर्थावग्रह ३ घ्राणेन्द्रिय अर्थावग्रह ४ रसेन्द्रिय विग्रह ५ स्पर्शन्द्रिय अर्थावग्रह ६ नोइन्द्रिय ( मन ) अर्थावग्रह । __श्रोत्रेन्द्रिय अर्थावग्रहः-जो कान के द्वारा शब्द का अर्थ ग्रहण करे। चक्षुन्द्रिय अर्थावग्रहः-जो चक्षु के द्वारा रूप का अर्थ ग्रहण करे। प्राणेन्द्रिय अर्थावग्रहः-जो नासिका के द्वारा गंध का अर्थ ग्रहण करे। - रसेन्द्रिय अर्थावग्रहः-जो जिह्वा के द्वारा रस का अर्थ ग्रहण करे । स्पर्शेन्द्रिय अर्थावग्रहः-जो शरीर के द्वारा स्पर्श का अर्थ ग्रहण करे। नोइन्द्रिय अर्थावग्रहः-जो मन द्वारा हरेक पदा. र्थ का अर्थ ग्रहण करे । व्यंजनावग्रह के चार भेद और अर्थावग्रह के ६ भेद एवं दोनों मिल कर अवग्रह के दश भेद हुवे । अवग्रह के द्वारा सामान्य रीति से अर्थ का ग्रहण होवे परन्तु जाने Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५६) भोकडा संग्रह। नहीं कि यह किस का शब्द व गन्ध प्राख है बादमें वहाँ से इहा मतिज्ञान में प्रवेश करे । इहा जो विचारे कि यह अमुक का शब्द व गन्ध प्रमुख है परन्तु निश्चय नहीं होवे पश्चात् अवाप्त मति ज्ञान में प्रवेश करे। अवाप्त जिससे यह निश्चय हो कि यह अमुक का ही शद्ध व गन्ध है पश्चात् धारणा मति ज्ञान में प्रवेश करे । धारणा जो धार राखे कि अमुक शद्ध व गन्ध इस प्रकार का था। एवं इहा के ६ भेद:-श्रोत्रेन्द्रिय इहा, यावत् नो इन्द्रिय इहा । एवं अवाप्त के ६ भेद श्रोत्रेन्द्रिय, यावत् नोइन्द्रिय अवाप्त । एवं धारणा के ६ भेद श्रोतेन्द्रिय धारणा यावत् नो इन्द्रिय धारणा । इनका काल कहते हैं:-अवग्रह का काल एक समय से असंख्यात समय तक प्रवेश किये हुवे पुद्गलों को अन्त समय जाने कि मुझे कोई बुला रहा है। - इहा का काल, अन्तर्मुहूर्त, विचार हुवा करे कि जो मुझ बुला रहा है वो यह है अथवा वह ।। .. अवाप्त का काला-अन्तर्मुहूत-निश्चय करने का कि मुझे अमुक पुरुष ही बुला रहा है । शद्ध के ऊपर से निश्चय करे । .. धारणे का काल संख्यात वर्ष अथवा असंख्यात वर्ष तक धार राखे कि अमुक समय मैंने जो शद्ध सुना वो इस प्रकार है । अवग्रह के दश भेद, इहा के ६ भेद, अवाप्त . .. :. - - - Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांच ज्ञान का विवेचन । ( २५७) के ६ भेद, धारणा के ६ भेद एवं सर्व मिलकर श्रुत निश्रीत मति ज्ञान के २८ भेद हुवे । मात ज्ञान समुचय चार प्रकार का-१ द्रव्य से २ क्षेत्र से ३ काल से ४ भाव से १ द्रव्य से मति ज्ञानी सामान्य से उपदेश द्वारा सर्व द्रव्य जाने परन्तु देखे नहीं। २ क्षेत्र से मति ज्ञानी सामान्य से उपदेश के द्वारा सर्व क्षेत्र की बात जाने परन्तु देखे नहीं। ३ काल से मति ज्ञानी सामान्य से उपदेश के द्वारा सर्व काल की बात जाने परन्तु देखे नहीं । ४ भाव से-सामान्य से उपदेश के द्वारा सर्व भाव की बात जाने परन्तु देखे नहीं-नहीं देखने का कारण यह है कि मति ज्ञान को दर्शन नहीं है । भगवती सूत्र में पासइ पाठ है वो भी श्रद्धा के विषय में है परन्तु देखे ऐसा नहीं। श्रुत ( सूत्र ) ज्ञान का वर्णन। श्रत ज्ञान के १४ भेदः-१अक्षर श्रृत २ अनक्षर श्रुत ३ संज्ञी श्रुत ४ असंज्ञी श्रुत ५ सम्यक् श्रुत ६ मिथ्या श्रुन ७ सादिक श्रुत ८ अनादिक श्रुत ६ सपर्यवसित श्रुत १० अपर्यवसित श्रुा ११ गमिक श्रुा १२ अगमिक श्रुत १३ अंगप्रविष्ट श्रु। १४ अनंग प्रविष्ट श्रुत । १ अक्षर श्रुतः-इसके तीन भेद-१ संज्ञा अक्षर २ व्यंजन अक्षर ३ लब्धि अक्षर। १ संज्ञा अक्षर श्रुतः-अक्षर के आकार के ज्ञान Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५८ ) थोकडा संग्रह । anna को कहते हैं। जैसे क, ख, ग प्रमुख सर्वे अक्षर की संज्ञा का ज्ञान, क अक्षर के आकार को देख कर कहे कि यह ख नहीं, ग नहीं इस तरह से सब अक्षरों का ना कह कर कहे कि यह तो क ही है । एवं संस्कृत, प्राकृत, गोड़ी, फारसी, द्राविड़ी, हिन्दी आदि अनेक प्रकार की लिपियों में अनेक प्रकार के अक्षरों का आकार है इनका जो ज्ञान होवे उसे संज्ञा अक्षर श्रुत ज्ञान कहते हैं २ व्यंजन अक्षर श्रुतः-हस्व, दीर्घ, काना, मात्रा, अनुस्वार प्रमुख की संयोजना करके बोलना व्यंजना. क्षर श्रुत। ३ लब्धि अक्षर श्रतः-इन्द्रियाथे के जानपने की लब्धि से अक्षर का जो ज्ञान होता है वो लब्धि अक्षर श्रुत इसके ६ भेद १ श्रोत्रेन्द्रिय लब्धि अक्षर श्रुतः-कान से भेरी प्रमुख का शब्द सुनकर कहे कि यह मेरी प्रमुख का शब्द है अतः भेरी प्रमुख अक्षर का ज्ञान श्रोत्रन्द्रिय लब्धि से हुवा इस लिये इसे श्रोत्रेन्द्रिय लब्धि श्रुत कहते हैं । २ चतुइन्द्रिय अक्षर श्रुतः-आँख से आम प्रमुख का रूप देख कर कहे कि यह प्रांबा प्रमुख का रूप है अतः आम प्रमुख अक्षर का ज्ञान चक्षु इन्द्रिय लब्धि से हुवा इस लिये इसे चक्षु इन्द्रियं लब्धि श्रुत कहते हैं। ३ घाणेन्द्रिय लब्धि अक्षर श्रतः-नासिका से Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांच ज्ञान का विवे वन । ( २५६ ) केतकी प्रमुख की सुगन्ध सूंघ कर कहे कि यह केतकी प्रमुख की सुगन्ध है अतः केतकी प्रमुख अक्षर का ज्ञान घ्राणेन्द्रिय लब्धि से हुवा इस लिये इसे घ्राणेन्द्रिय लब्धि श्रुत कहते हैं। ४ रसेन्द्रिय लब्धि अक्षर श्रुत:-जिह्वा से शकर प्रमुख का स्वाद जान कर कहे कि यह शकर प्रमुख का स्वाद है अतः इस अक्षर का ज्ञान रसेन्द्रिय से हुवा इसलिये इसे रसेन्द्रिय लब्धि अक्षर श्रुत कहते हैं। ५ स्पर्शेन्द्रिय लब्धि अक्षर श्रुतः-शीत, उष्ण आदि का स्पर्श होने से जाने कि यह शीत व उष्ण है अतः इस अक्षर का ज्ञान स्पर्शेन्द्रिय से हुवा इस लिये इसे स्पर्शेन्द्रिय लब्धि अक्षर श्रुत कहते हैं। ६ नोइन्द्रिय लब्धि अक्षर श्रुतः-मन में चिन्ता व विचार करते हुवे स्मरण हुवा कि मैने अनुक सोचा व विचारा अतः इस स्मरण के अक्षर का ज्ञान मन से-नो इन्द्रिय से हुवा इस लिये इसे नोइन्द्रिय लब्धि अक्षर श्रुत कहते हैं। २ अनक्षर श्रुतः-इसके अनेक भेद हैं, अक्षर का उच्चारण किये बिना शब्द, छींक, उधरस, उच्छास, निःश्वास, बगासी, नाक निषीक तथा नगारे प्रमुख का शब्द अनक्षरीवाणी द्वारा जान लेना इसे अनक्षर श्रत कहते हैं। . ३ संज्ञी श्रुतः-इसके तीन भेद-१ संज्ञी कालिकोपदेश २ संज्ञी हेतूपदेश ३ संज्ञी दृष्टिवादोपदेश । Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ र २६०) थोकडा संग्रह। १ संज्ञी कालिकोपदेशः-श्रुत सुनकर १ विचारना २ निश्चय करना ३ समुच्चय अर्थ की गवेषणा करना ४ विशेष अर्थ की गवेषणा करना ५ सोचना ( चिन्ता करना)६ निश्चय करके पुनः विचार करना ये ६ बोल संज्ञी जीव के होते हैं । इस लिये इसे संज्ञी कालिकोपदेश श्रुत कहते हैं। २ संज्ञी हेतूपदेश:-जो संज्ञी धारकर रक्खे ।। ३ संज्ञी दृष्टि वादोपदेश-जो क्षयोपशम भाव से सुने । अर्थात् शास्त्र को हेतु सहित, द्रव्य अर्थ सहित, कारण युक्ति सहित, उपयोग सहित पूर्वापर विचार सहित जो पढे, पढावे, सुने उसे संज्ञी श्रा कहते है। असंज्ञी श्रुत के तीन भेदः-१ असंही कालिकोपदेश २ असंज्ञी हेतूपदेश ३ असंज्ञी दृष्टिवादोपदेश । (१) असंही कालिकोपदेश श्रुत-जो सुने परन्तु विचार नहीं । संज्ञी के जो ६ बोल होते है वो असंज्ञी के नहीं। । अंसज्ञी हेतूपदेश श्रुत-जो सुन कर धारण नहीं करे। (३) असंज्ञी दृष्टिवादोपदेश-क्षयोपशम भाव से जो नहीं सुने । एवं ये तीन बोल असंशी आश्री कहे, अ. र्थात् असंज्ञी श्रुत-जो भावार्थ रहित, विचार तथा उपयोग शून्य, पूर्वक आलोच रहित, निर्णय रहित ओघ संज्ञा से पढे तथा पढावे वा सुने उसे असंज्ञी श्रुत कहते हैं। Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांच ज्ञान का विवेचन । (२६१) (५) सत्यक, श्रुत-अरिहन्त, तीर्थकर, केवल ज्ञानी केवल दर्शनी, द्वादश गुण सहित, अट्ठारह दोष गहेत, चौतीश अतिशय प्रमुख अनन्त गुण के धारक, इन से प्ररूपित बाहर अंग अर्थ रूप अगम तथा गणधर पुरुषों से गुंथित श्रुत रूप (मूल रूप) बारह आगम तथा चौदह पूर्व धारी, तेरः पूर्व धारी बारह पूर्व धारी व दश पूर्व थारी जो श्रृत तथा अर्थ रूप वाणी का प्रकाश किया है वो सम्यक श्रुत, दश पूर्व से न्यून ज्ञान धारी द्वारा प्रकाशित किये हुवे आगन मश्रुत व मिथ्यः श्रुत होते हैं। (६) मिथ्या श्रुतः- पूर्वोक्त गुण रहित, रागद्वेष सहित पुरुषों के द्वारा स्वमति अनुसार कल्पना करके मिथ्यात्व दृष्टि से रचे हुवे ग्रंथ-जैसे भारत, रामायण, वैद्यक, ज्योतिष तथा २६ जाति के पाप शास्त्र प्रमुख-मिथ्याश्रुत कहलाते हैं । ये मिथ्याश्रत मिथ्या दृष्टि को मिथ्या श्रुत पने परिणमे ( सत्य मान कर पढ इस लिये ) परन्तु जो सम्यक् श्रुत का संपर्क होने से झंठे जान कर छोड़ देवे तो सम्यक् श्रुत पने परिण मे इस मिथ्याश्रुन सम्यक्त्ववान पुरुष को सम्यक बुद्धि से वांचते हुवे सम्यवत्व रस से पारणमें तो बुद्धि का प्रभाव जान कर आचारांगादिक सम्यक् शास्त्र भी सम्यक् वान पुरुष को सम्यक हो कर परिण मते हैं और मिथ्या दृष्टि पुरुष को वे ही शास्त्र मिथ्यात्व पने परिणमते हैं। Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थोकडा संग्रह। ७ सादिक श्रुत ८अनादिक श्रत ६ सपर्यवसित श्रुत १० अपर्यवसित श्रुतः-इन चार प्रकार के श्रुत का भावार्थ साथ २ दिया जाता है। बारह अंग व्यवच्छेद होने आश्री अन्त सहित और व्यवच्छेद न होने आश्री श्रादिक अन्त रहित । समुच्चय से चार प्रकार के होते हैं। द्रव्य से एक पुरुष ने पढना शुरू किया उसे सादिक सप. यवसित कहते हैं और अनेक पुरुष परंपरा पाश्री अनादिक अपर्यवसित कहते हैं क्षेत्र से ५ भरत ५ एरावत, दश क्षेत्र श्राश्री सादिक सपर्यवसित ५ महा विदेह पाश्री अनादिक अपर्यवसित, काल से उत्सर्पिणी अवसर्पिणी आश्री सादिक सपर्यवसित नोउत्सर्पिणी नोअवसर्पिणी पाश्री अनादिक अपर्यवसित, भाव से तीर्थंकरों ने भाव प्रकाशित किया इस आश्री सादिक सपर्यवसित । क्षयोपशम भाव आश्री अनादिक अपयवसित अथवा भव्य का श्रुत आदिक अन्त सहित अभव्य का श्रृत आदि अन्त रहित, इस पर दृष्टान्तसर्व आकाश के अनन्त प्रदेश हैं व एक एक. आकाश प्रदेश में अनन्त पर्याय हैं । उन सर्व पर्याय से अनन्त गुणे अधिक एक अगुरुलघु पर्याय अक्षर होता है जो क्षरे नहीं, व अप्रतिहत, प्रधान, ज्ञान, दर्शन जानना सो अक्षर, अक्षर केवल सम्पूर्ण ज्ञान जानना-इस में से सर्व जीव को सर्व प्रदेश के अनन्तवें भाग जान पना सदाकाल रहता है शिष्य पूछने लगा हे स्वामिन् ! यदि इतना जानपना ___ Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांच ज्ञान का विवेचन। (२६३) जीव को न रहे तो क्या होवे ? तप गुरु ने उत्तर दिया कि यदि इतना जान पना न रहे तो जीवपना मिट कर अजीव हो जाता है व चैतन्य मिट कर जड़पना ( जडत्व ) हो जाता है । अतः हे शिष्य ! जीव को सर्व प्रदेशे अक्षर का अनन्तवें भाग ज्ञान सदा रहता है । जैसे वर्षा ऋतु में चन्द्र तथा सूर्य ढंके हुवे रहने पर भी सर्वथा चन्द्र तथा सूर्य की प्रभा छिप नहीं सकती है वैसे ही ज्ञानावरणीय कर्म के प्रावरण के उदय से भी चैतन्यत्व सर्वथा छिप नहीं सकता । निगोद के जीवों को भी अक्षर के अनन्तवें भाग सदा ज्ञान रहता है। ११ गमिक श्रुत-बारहवां अंग दृष्टिवाद अनेक वार समान पाठ आने से। १२ अगमिक श्रुत-कालिक श्रत ११ अंग अ.चारांग १३ अंग प्रविष्ट बारह अंग ( आचारांगादि से दृष्टिवाद पर्यन्त ) सूत्र में इसका विस्तार बहुत है अतः वहां से जानो। १४ अनंगप्रविष्ट-समुच्चय दो प्रकार का १ आवश्यक २ आवश्यक व्यतिरिक्त । १ आवश्यक के ६ अध्ययन . * अथवा समुच्चय दो प्रकार के श्रुत कहे हैं । अंग पविठंच (अंग प्रविष्ट ) तथा अंग बाहिरं (अनंग प्रविष्ट ) गमिक तथा अगमिक के भेद में समावेश सूत्र कार ने किये हैं । मूल में अलगर भी नाम आये Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ T २६४ ) www. सामायिक प्रमुख २ आवश्यक व्यतिरिक्त के दो भेद १ कालिक शुद्ध २उत्कालिक श्रुत | थोडा संग्रह | १ कालिक श्रुत + इसके अनेक भेद हैं- उत्तराध्ययन, दशाश्रुत स्कन्ध, वृहत् कल्प, व्यवहार प्रमुख एकत्रीश सूत्र कालिक के नाम नंदि सूत्र में आये हैं । तथा जिन२ तीर्थंकर के जितने शिष्य ( जिनके चार बुद्धि होवे ) होवे उतने पन्ना सिद्धान्त जानना जैसे ऋषभ देव के ८४००० लाख पन्ना तथा २२ तीर्थंकर के संख्याता हजार पहन्ना तथा महावीर स्वामी के १४ हजार पन्ना तथा सर्व गणधर के पइन्ना व प्रत्येक बुद्ध के बनाए हुए पन्ना ये सर्व कालिक जानना एवं कालिक श्रुत | २ उत्कालिक श्रुत-यह अनेक प्रकार का है । दवैकालिक प्रमुख २६ प्रकार के शास्त्रों के नाम नंदिसूत्र में आये हैं । ये और इनके सिवाय और भी अनेक प्रकार के शास्त्र हैं परन्तु वर्तमान में अनेक शास्त्र विच्छेद हो गये हैं । } द्वादशांग सिद्धान्त आचार्य की सन्दूक समान, गत काल में अनन्त जीव आज्ञा का आराधन करके संसार दुख से मुक्त हुवे हैं वर्तमान काल में संख्यात जीव दुख से मुक्त हो रहे हैं व भविष्य में आज्ञा का आराधन करके x पहेले प्रहर तथा चोथे प्रहर जिसकी स्वाध्याय होती है वो कालिक श्रत कहलाता है । Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाँच ज्ञान का विवेचन | ( २६५ ) अनन्त जीव दुख से मुक्त होवेंगे। इसी प्रकार सूत्र की विराधना करने से तीनों काल में संसार के अन्दर भ्रमण करने का ( ऊपर समान ) जानना । श्रुत ज्ञान ( द्वादशांगरूप ) सदा काल लाक श्री है । श्रुत ज्ञान - समुच्चय चार प्रकार का है- द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से, भाव से । द्रव्य से श्रुत ज्ञानी उपयोग द्वारा सर्व द्रव्य जाने व देखे | ( श्रद्धा द्वारा व स्वरूप चितवन करने से ) क्षेत्र से - श्रुत ज्ञानी उपयोग द्वारा सर्व क्षेत्र की बात जाने व देखे ( पूर्व चत् ) काल से - श्रत ज्ञानी उपयोग द्वारा सर्व काल की बात जाने व देखे ( पूर्ववत् ) de भाव से श्रुत ज्ञानी उपयोग द्वारा सर्व भाव जाने व देखे । अवधि ज्ञान का वर्णन | १ अवधि ज्ञान के मुख्य दो भेद - १भव प्रत्ययिक २ क्षायोपशमिक १ सव प्रत्ययिक के दो भेदः -- १ नेरिये व २ देव ( चार प्रकार के) को जो होता है वो भव सम्बन्धी । यह ज्ञान उत्पन्न होने के समय से लगा कर भव के अन्त समय तक रहता है २ क्षायोपशमिक के दो भेद - १ संज्ञी मनुष्य को व २ संज्ञी तिर्येच पंचेन्द्रिय को होता है । क्षयोपशम भाव से जो उत्पन्न होता है व क्षमा Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६६) थोकडा संग्रह। दिक गुणों के साथ अणगार को जो उत्पन्न होता है वो क्षायोपशभिक । अवधिज्ञान के ( संक्षप में) छः भेद-१ अनुगामिक २ अनानुगामिक ३ वर्ध मानक ४ हाय मानक ५ प्रति पाति ६ अप्रतिपाति १ १ अनुगामिक-जहां जावे वहां साथ आवे (रहे) यह दो प्रकार का--१ अन्तःगत २ मध्यगत । (१) अन्तः गत अवधिज्ञान के ३ भेद:--(१) - पुरतः अन्तः गत--(पुरो अन्तगत) शरीर के आगे के भाग के क्षेत्र में जाने व देख। (२) मार्गत: अन्त: गत ( मग्गो अन्तगत) शरीर के पृष्ट भाग के क्षेत्र में जाने व देखे। (३) पाश्वज्ञः अन्तःगत-शरीर के दो पाव भाग के क्षेत्र में जाने व देखे। अन्तःगत अवधिज्ञान पर दृष्टान्तः जैसे कोई पुरुष दीप प्रमुख अग्नि का भाजन व मणि प्रमुख हाथमे लेकर आगे करता हुवा चले तो आगे देखे, पीछे रख कर चले तो पीछे देखे व दोनों तरफ रख कर चले तो दोनों तरफ देखे व जिस तरफ रक्खे उधर देखे दूसरी तरफ नहीं । ऐसा अवधिज्ञान का जानना । जिस तरफ देखे जाने उस तरफ संख्याता, असंख्याता योजन तक जाने देखे। (२) मध्य गत-यह सर्व दिशा व विदिशाओं में Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांच ज्ञान का विवेचन । ( २६७ ) ( चारों तरफ ) संख्याता योजन तक जाने देखे । पूर्वोक्त दीप प्रमुख भाजन मस्तक पर रख कर चलने से जैसे चारों ओर दिखाई दे उसी प्रकार इस ज्ञान से भी चारों ओर देखे जाने । २ अनानुगामिक अवधि ज्ञान:-जिस स्थान पर अवधि ज्ञान उत्पन्न हुवा हो उसी स्थान पर रह कर जाने देखे अन्यत्र यदि वो पुरुष चला जावे तो नहीं देखे जाने । यह चारों दिशाओं में संख्यात असंख्यात योजन संलग्न तथा असंलग्न रह कर जाने देखे, जैसे किसी पुरुष ने दीप प्रमुख अग्नि का भाजन व मणि प्रमुख किसी स्थान पर रक्खा होवे तो केवल उसी स्थान प्रति चारों तरफ देखे परन्तु अन्यत्र न देखे उसी प्रकार अनानुगामिक अवधि ज्ञान जानना । ३ बर्द्धमानक अवधि ज्ञान:- प्रशस्त लेश्या के अवसाय के कारण व विशुद्ध चारित्र के परिणाम द्वारा सर्व प्रकारे अवधि ज्ञान की वृद्धि होवे उसे बर्द्धमानक अवधि ज्ञान कहते हैं, जघन्य से सूक्ष्म निगोदिया जीव तीन समय उत्पन्न होने में शरीर की जो अवगाहना बांधी होवे उतना ही क्षेत्र जाने उत्कृष्ट सर्व अशि का जीव, सूक्ष्म, बादर, पर्याप्त, अपर्याप्त एवं चार जाति के जीव, इनमें वे भी जिस समय में उत्कृष्ट होवे उन अनि के जीवों को एकेक श्राकाश प्रदेश में अन्तर रहित रखने से जितने अलोक में Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६८) थोकडा संग्रह। लोक के बराबर असंख्यात खण्ड ( भाग विकल्प । भराय उतना क्षेत्र सर्व दिशा व विदिशाओं ( चारों और ) से देखे । अवधि ज्ञान रूपी पदार्थ देखे । मध्यम अनेक भेद हैं. वृद्धि चार प्रकार से होवे१ द्रव्य से २ क्षेत्र से ३ काल से ४ भाव से । १ काल से ज्ञान की वृद्धि होवे तब तीन बोल का ज्ञान बढ़े। २ क्षेत्र से ज्ञान बढ़े तब काल की भजना व द्रव्य भाव का ज्ञान बढ़े। . ३ द्रव्य से ज्ञान बढ़े तब काल की तथा क्षेत्र की भजना व भाव की वृद्धि । ४ भाव से ज्ञान बढ़े तो शेष तीन बोल की भजना इसका विस्तार पूर्वक वर्णनः सर्व वस्तुओं में काल का ज्ञान सूक्ष्म है जैसे चोथे आरे में जन्मा हुवा निरोगी बलिष्ट शरीर व वज्रऋषभ नाराच संहनन वाला पुरुष तीक्ष्ण सुई लेकर ४६ पान की बीडी धे, विधते समय एक पान से दूसरे पान में सुई को जाने में असंख्याता समय लग जाता है । काल ऐसा सूक्ष्म होता है। इससे क्षेत्र असंख्यात गुण सूक्ष्म है । जैसे एक प्राङ्गुल जितने क्षेत्र में असंख्यात श्रेणिये है । एक एक श्रेणी में असंख्यात आकाश प्रदेश हैं, एक एक समय में एक एक आकाश प्रदेश का यदि अपहरण होवे तो इतने में असंख्यात कालचक्र बीत ___ Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांच ज्ञान का विवेचन । (२६६ ) -ANAR.RArr जाते हैं तो भी एक श्रेणी पूरी (पूर्ण) न होवे । इस प्रकार क्षत्र सूक्ष्म है । इससे द्रव्य अनन्त गुणा सूक्ष्म है। एक अंगुल प्रमाण क्षेत्र में असंख्यात श्रेणिये हैं अंगुल प्रमाण लम्बी व एक प्रदेश प्रमाण जाडी में असंख्यात आकाश प्रदेश हैं । एक एक आकाश प्रदेश ऊपर अनन्त परमाणु तथा द्विप्रदेशी, त्रिप्रदेशी, अनन्त प्रदशी यावत् स्कन्ध प्रमुख द्रव्य हैं । इन द्रव्यों में से समय समय एक एक द्रव्य का अपहरण करने में अनन्त काल चक्र लग जाते हैं तो भी द्रव्य खतम नहीं होते द्रव्य से भाव अनन्त गुणा सूक्ष्म है । पूर्वोक्त श्रेणी में जो द्रव्य कहे हैं उनमें से एक एक द्रव्य में अनन्त पर्यव (भाव) है एक परमाणु में एक वर्ण, एक गन्ध, एक रस, दो स्पर्श हैं। जिनमें एक वर्ष में अनन्त पर्यव हैं । यह एक गुण काला, द्विगुण काला, त्रिगुण काला यावत् अनन्त गुण काला है इस प्रकार पांचों बोल में अनन्त पर्यव हैं एवं पांच वर्ण में, दो गन्ध, पांच रस, व आठ स्पर्श में अनन्त पर्याय हैं । द्विप्रदेशी स्कन्ध में २ वर्ण, २ गन्ध, २ रस, ४ स्पर्श हैं इन दश भेदों में भी पूर्वोक्त रीति से अनन्त पर्यव हैं, इस प्रकार सर्व द्रव्य में पर्यव की भावना करना, एवं सर्व द्रव्य के पर्यव इकहे करके समय समय एकेक पर्यव का अपहरण करने में अनन्त काल चक्र ( उत्सर्पिणी अवसर्पिणी) बीत जाने पर परमाणु द्रव्य के पर्यव पूरे होते हैं एवं द्वि ___ Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७० ) थोकडा संग्रह | प्रदेशी स्कन्धों के पर्यव त्रिप्रदेशी स्कन्धों के पर्यत्र, यावत् अनन्त प्रदेशी स्कन्धों के पर्यव का अपहरण करने में अनन्त काल चक्र लग जाते हैं तो भी छूटे नहीं इस प्रकार द्रव्य से भाव सूक्ष्म होते हैं, काल को चने की प्रोपमा क्षेत्र को ज्वार की ओपमा द्रव्य को तिल की प्रोपमा और भाव को खसखस की ओपमा दी गई है । पूर्व चार प्रकार की वृद्धि की जो रीति कही गई हैं उस में से क्षेत्र से व काल से किस प्रकार वर्धमान ज्ञान होता है उसका वर्णन: - १ क्षेत्र से श्रगुल का असंख्यातवें भाग जाने देखे व काल से वलिका के असंख्यातवें भाग की बात गत व भविष्य काल की जाने देखे । २ क्षेत्र से गुल के संख्यातवें भाग जाने देखे व काल से श्रावलिका के संख्यातवें भाग की बात गत व भविष्य काल की जाने देखे । ३ क्षेत्र से एक आंगुल मात्र क्षेत्र जाने देखे व काल से वलिका से कुछ न्यून जाने देखे । ४ क्षेत्र से पृथकू ( दो से नव तक ) आंगुल की बात जाने देखे व काल से श्रावलिका संपूर्ण काल की बात गत व भविष्य काल की जाने देखे । ५ क्षेत्र से एक हाथ प्रमाण क्षेत्र जाने देखे व काल से अन्तर्मुहूर्त (मुहूर्त में न्यून ) काल की बात गत व भवि Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांच ज्ञान का विवेचन | ष्य काल की जाने देखे । ६ क्षेत्र से धनुष्य प्रमाण क्षेत्र जाने देखे व काल से प्रत्येक मुहूर्त की बात जाने देखे । ७ क्षेत्र से गाउ (कोस ) प्रमाण क्षेत्र जाने देखे व काल से एक दिवस में कुछ न्यून की बात जाने देखे । ८ क्षेत्र से एक योजन प्रमाण क्षेत्र जाने देखे व काल से प्रत्येक दिवस की बात जाने देखे । ६ क्षेत्र से पच्चीश योजन क्षेत्र के भाव जाने देखे व काल से पक्ष में न्यून की बात जाने देखे । १० क्षेत्र से भरत क्षेत्र प्रमाण क्षेत्र के भाव जाने देखे व काल से पक्ष पूर्ण की बात जाने देखे । ११ क्षेत्र से जम्बू द्वीप प्रमाण क्षेत्र की बात जाने देखे व काल से एक माह जाजेरी की बात जाने देखे । ( २७१ ) १२ क्षेत्र से अढ़ाई द्वीप की बात जाने देखे व काल से एक वर्ष की बात जाने देखे । १३ क्षेत्र से पन्द्रहवाँ रुवक द्वीप तक जाने देखे व काल से पृथक वर्ष की बात जाने देखे । १४ क्षेत्र से संख्याता द्वीप समुद्र की बात जाने देखे व काल से संख्याता काल की बात जाने देखे । १५ क्षेत्र से संख्याता तथा असंख्याता द्वीप समुद्र की बात जाने देखे व काल से असंख्याता काल की बात जाने देखे | इस प्रकार उर्ध्व लोक, अधो लोक, तिर्यक् Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ थोकडा संग्रह। ahe लोक इन तीन लोकों में बढ़त वर्षमान परिणाम से अलोक में असंख्याता लोक प्रमाण खएड जानने की शक्ति प्रकट होवे। ४ हाय मानक अवधि ज्ञान-अप्रशस्त लेश्या के परिणाम के कारण, अशुभ ध्यान से व अविशुद्ध चारित्र परिणाम से ( चारित्र की मलिनता से ) वर्ध मानक अवधि ज्ञान की हानि होती है । व कुछ२ घटता जाता है । इसे हाय मानक अवधि ज्ञान कहते हैं। ५प्रति पाति अवधि ज्ञान-जो अवधि ज्ञान प्राप्त हो गया है वो एक समय ही नष्ट हो जाता है । वो जघन्य १ श्राङ्गुल के असख्यातवें भाग २ अङ्गुल के संरख्यातमें भाग ३ वालाग्रं ४ पृथक् वालाग्र : ५. लिम्ब ६ पृथक् लिम्ब ७ यूका (जू) ८ पृथक् जू ६ जब १०. पृथक् जव . ११ प्राङ्गुल १२ पृथक् आङ्गुल १३ पाँव. १४. पृथक् पाँव १५ वेहेत १६ पृथक वेहेत १७ हाथ १८ पृथक् हाथ १६ कुक्षि ( दो हाथ ) २० पृथक् कुदि २.१ धनुष्य २२ पृथक् धनुष्य २३ गाउ २४ पृथक् गाउ. २५ योजन २६ पृथक् योजन २७ मो योजन २८ पृथक् सो योजन २६ सहस्त्र योजन ३० पृथक् सहस्त्र योजन ३१ लक्ष योजन ३२ पृथक् लक्ष योजन ३३ करोड़ योजन ३४ पृथक करोड़ योजन.३५ करोड़ा करोड़ योजन ३६ पृथक् करोड़ा करोड़ योजन इस प्रकार क्षेत्र अवधि Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांच ज्ञान का विवेचन । ( २७३) ज्ञान से देखे पश्चात् नष्ट हो जावे उत्कृष्ट लोक प्रमाण क्षेत्र देखने बाद नष्ट होवे जैसे दीप पवन के योग से बुझ जाता है वैसे ही यह प्रति पाति अवधि ज्ञान नष्ट हो जाता है । ६ अप्रति पाति (अपडिवाई ) अवधि ज्ञान:जो पाकर पुनः जावे नहीं यह सम्पूर्ण चौदह राजलोक जाने देख व अलोक में एक आकाश प्रदेश मात्र क्षेत्र की बात जाने देखे तो भी पड़े नहीं एवं दो प्रदेश तथा तीन प्रदेश यावत् लोक प्रमाण असंख्यात खण्ड जानने की शक्ति होवे उसे अप्रति पाति अवधि ज्ञान कहते हैं अलोक में रूपी पदार्थ नहीं यदि यहां रूपी पदार्थ होवे तो देख इतनी जानने की शक्ति होती है यह ज्ञान तीर्थकर प्रमुख को बचपन से ही होता है केवल ज्ञान होने बाद यह उपयोगा नहीं होता है एवं ६ भेद अवधि ज्ञान के हुवे । समुच्चय अवधि ज्ञान के चार भेद होते हैं:-१ द्रव्य से अवधि ज्ञानी जघन्य अनन्त रूपी पदार्थ जाने देखे उत्कृष्ट सर्व रूपी द्रव्य जाने देखे २ क्षेत्र से अवधि ज्ञानी जघन्य अङ्गुल के असंख्यातवें भाग क्षत्र जाने देखे उत्कृष्ट लोक प्रमाण असंख्यात खण्ड अलोक में देखे ३ काल से अवधि ज्ञानी जघन्य आवलिका के असंख्यातवें भाग की बात जाने देखे उत्कृष्ट असंख्यात उत्सर्पिणी अवसर्पिणी, अतीत (गत ) अनागत ( भविष्य ) काल की बात जाने देखे ४ भाव से जघन्य अनन्त भाव को जाने उत्कृष्ट सर्व भाव के अनन्तवें भाग को जाने देखे (वर्णादिक पर्याय को)। Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवधि ज्ञान का विषय ( देखने की शक्ति ) नक्षा नं. १ (800) विषय रत्न प्रभा शर्कर प्रभा वालु प्रभा पंक प्रभा धूम प्रभा तमः प्रभा तमतमः प्रभा ज.क्षेत्र ३॥ गाउ ३ गाउ २॥ गाउ २ गाउ १॥ गाउ १ गाउ ॥ गाउ उ.क्षेत्र ४ गाउः ॥ गाउ ३ गाउ २॥ गाउ २ गाउ | गाउ १ गाउ नक्षा नं. २ विषय असुर कुमार निकाय तिर्थच पंचे. संज्ञी ज्योतिषी देव लोक देव लोक व्यन्तर न्द्रिय संज्ञी मनुष्य १-२ ३-४ देखे २५ योजन २५ योजनः आङ्गुल के प्राङ्गुल के संख्याता आङ्गुल के श्राङ्गुल के अ. भाग अ. भाग द्वीप समुद्र अ. भाग अ. भाग उ. देखें असंख्यात संख्यात . असंख्यात अलोक में , रत्न प्रभा के शर्करं प्र. द्वीप समुद्र द्वीप समुद्र द्वीप समुद्र अ, खण्ड नीचे का तला के नीचे (चरमान्त) का च. - - थोकड़ा संग्रह। - - - Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांच ज्ञान का विवेचन । ... नक्षा नं०३ विषय . देव लोक देव लोक देव लोक पहेली से छही ग्रीयवेक ५ अनुत्तर ५-६ . ७- ८ ६,१०,११,१२ ग्रीयवेक ७,८९ विमान जघन्य देखे प्राङ्गुल के प्राङ्गुल के प्राङ्गुल के प्राङ्गुल के प्राङ्गुल के चौदह राज से अ. भाग अ. भाग अ. भाग अ. भाग अ. भाग कुछ न्यून उत्कृष्ट देखे ती.न. के चोथी न. के पां.न. के नीचे छहीन. के नीचे सातवी न. " नी.का च. नी. का चर. का चरमान्त का चरमान्त के नीचे का चर. वैमानिक ऊंचा अपने २ विमान की धजा तक देखे । तिर्छ लोक में असंख्यात द्वीप समुद्र देखे । यन्त्र में अधो लोक आश्री कहा है। ॥ इति विषय द्वार सम्पूर्ण ॥ १ अवधिज्ञान प्राभ्यन्तर बाह्य २ अवधि ज्ञान देश से सर्व से नारकी देवता को होता है . नारकी देवता, तिर्यंच में होता है तिर्यच होता है मनुष्य में होता है होता है मनुष्य . होता है होता है १ अवधि ज्ञान प्राभ्यन्तर बाह्म यन्त्र से जानना।२ अवधि ज्ञान देश थकी सर्व थकी यन्त्र से जानना ॥ oranAmarranwww (98) Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थोकडा संग्रह | अवधि ज्ञान देखने का संस्थान आकार:- १ नेरियों का अवधि ज्ञान त्रापा ( त्रिपाई) के आकार २ भवन पति का पाला के आकार ३ तिर्येच का तथा मनुष्य का अनेक प्रकार का है ४ व्यन्तरे का पट वाजिन्त्र के प्रकार : ५ ज्योतिषी का झालर के आकर ६ बारह देवलोक का ऊ मृदंग आकार ७ नव ग्रीयवेक का फूलों की चंगेरी के आकार व पांच अनुत्तर विमान का अवधिज्ञान कंचुकी के आकार होता है । २७६) नारकी देव का अवधि ज्ञान - १ अनुगामिक २ अप्रतिपाति ३ अवस्थित एवं तीन प्रकार का । मनुष्य और तिर्यच का - १ अनुगामिक २ अनानुगामिक ३ वर्धमानक ४ हाय मानक ५ प्रतिपाति ६ प्रतिपाति ७ अवस्थित ८ अनवस्थित होता है ! यह विषय द्वार प्रमुख प्रज्ञापना सूत्र के ३३ वें पद से लिखा है । नंदि सूत्र में संक्षेप में लिखा हुवा है । मनः पर्यव ज्ञान का विस्तार मन पर्यव ज्ञान के चार भेद: १ लधि मन:- यह अनुत्तर वासी देवों को होता है । २ संज्ञा मन:- यह संज्ञी मनुष्य व संज्ञी तिर्यच को होता है । Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांच ज्ञान का विवेचन | ( २७७ ) ३ वर्गणा मन:- यह नारकी व अनुत्तर विमान वामी देवों के सिवाय दुसरे देवों को होता है । ४ पर्याय मन:- यह मनः पर्यत्र ज्ञानी को होता है मनः पर्यव ज्ञान किस को उत्पन्न होता है ? १ मनुष्य को उत्पन्न होवे, अमनुष्य को नहीं । २ संज्ञी मनुष्य को उत्पन्न होवे श्रसंज्ञी मनुष्य को नहीं । ३ कर्म भूमि संज्ञी मनुष्य को उत्पन्न होवे अकर्म भूमि संज्ञी मनुष्य को नहीं । । ४ कर्म भूमि में संख्याता वर्ष का आयुष्य वाला को उत्पन्न होवे परन्तु असंख्याता वर्ष का आयुष्य वाला को उत्पन्न नहीं होवे । ५ संख्याता वर्ष का आयुष्य में पर्याप्त को उत्पन्न होवे पर्याप्त को नहीं । ६ पर्याप्त में भी समदृष्टि को उत्पन्न होवे मिथ्यादृष्टि व मिश्र दृष्टि को नहीं होवे । ७ समदृष्टि में भी संयति को उत्पन्न होवे परन्तु अती समदृष्टि व देश व्रती वाले को नहीं उत्पन्न होवे | ८ संयति में भी अप्रमत संयति को उत्पन्न होवे प्रमत्त संयति को नहीं होवे | ६ मत संयति में भी लब्धिवान को उत्पन्न होवे अलब्धिवान को नहीं । Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७८ ) थोकडा संग्रह। ___ मनः पर्यव ज्ञान के दो भेदः- १ ऋजु मति मनः पयेव ज्ञान २ विपुल मति मनः पर्यव ज्ञान । सामान्य प्रकार से जाने सो ऋजु मति और विशेष प्रकार से जाने सो विपुल मति मनः पर्यव ज्ञान । मनः पर्यव ज्ञान के समुच्चये चार भेद हैं:-१ द्रव्य से २ क्षेत्र से ३ काल से ४ भाव से । द्रव्य से ऋजुमति अन. न्त अनन्त प्रदेशी स्कन्ध जाने देखे ( सामान्य से विपुल मति इससे अधिक स्पष्टता से व निर्णय सहित जाने देखे २ क्षेत्र से ऋजुमति जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग उत्कृष्ट नीचे रत्न प्रभा का प्रथम काण्ड के ऊपर का छोटे प्रतर का नीचला तला तक अर्थात् सम भूतल पृथ्वी से १००० योजन नीचे देखे, ऊर्ध्व ज्योतिषी के ऊपर का तल तक देखे अर्थात् समभूतल से ६०० योजन का ऊँचा देखे, तिर्यक देखे तो मनुष्य क्षेत्र में अढाई द्वीप तथा दो समुद्र के अन्दर संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त के मनोगत भाव जाने देखे,विपुल मति ऋजु मति से पढ़ाई अंगुल अधिक विशेष स्पष्ट निर्णय सहित जाने देखे। ३ काल से ऋजु मति जघन्य पल्यापम के असंख्यातवें भाग की बात जाने, देखे, उत्कृष्ट पन्योपम के असंख्यातवें भाग की अतीत अनागत काल की बात जाने देखे,विपुल मति ऋजु मति से विशेष, स्पष्ट निर्णय सहित जाने देखे। Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांच ज्ञान का विवेवन । ( २७६) ... ४ भाव से ऋजु मति जघन्य अनन्त द्रव्य के भाव (वर्णादि पर्याय ) जाने देखे उत्कृष्ट सर्व भावों के अनंतवें भाग जाने देखे, विपुल मति इस से स्पष्ट निर्णय सहित विशेष अधिक जाने देखे। ___ मनः पर्यव ज्ञानी अढाई द्वीप में रहे हुवे संज्ञी पंचेन्द्रिय के मनोगत भाव जाने देखे अनुमान से जैसे चूँवा देख कर अग्नि का निश्चय होता है वैसे ही मनोगत भाव से देखते हैं। केवल ज्ञान का वर्णन । केवल ज्ञान के दो भेद-१ भवस्थ केवल ज्ञान २ सिद्ध केवल ज्ञान । भवस्थ केवल ज्ञान के दो भेद १ संयोगी भवस्थ केवल ज्ञान २ अयोगी भवस्थ केवल ज्ञान, इनका विस्तार सूत्र से जानना । सिद्ध केवल ज्ञान के दो भेद-१ अनन्तर सिद्ध केवल ज्ञान २ परंपर सिद्ध केवल ज्ञान विस्तार सूत्र से जानना ज्ञान समुच्चय चार प्रकार का-१ द्रव्य से २ क्षेत्र से ३ काल से ४ भाव से । १ द्रव्य से केवल ज्ञानी सर्व रूपी अरूपी द्रव्य जाने देखे। २ क्षेत्र से केवल ज्ञानी सर्व क्षेत्र (लोकालोक) __ की बात जाने देखे। ३ काल से केवल ज्ञानी सर्व काल की-भूत, भविष्य, वर्तमान-बात जाने देखे । Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८०) थोकडा संग्रह। ४ भाव से केवल ज्ञानी सर्व रूपी अरूपी द्रव्य के भाव के अनन्त भाव सर्व प्रकार से जाने देखे। केवल ज्ञान आवरण रहित विशुद्ध लोकालोक प्रकाशक एक ही प्रकार का सव केवलियों को होता है। ॐ इति पांच ज्ञान का विवेचन सम्पूर्ण Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ततीश पदवी। (२८१) तेतीश पदवी नव उत्तम पदवी, सात एकेन्द्रिय रत्न की पदवी और सात पंचेन्द्रिय रत्न की पदवी। प्रथम नव उत्तम पदवी के नाम १ तीर्थंकर की पदवी २ चक्रवर्ती की पदवी ३ वासुदेव की पदवी ४ बनदेव की पदवी ५ मांडलिक की पदवी ६ केवली की पदवी ७ साधु की पदवी ८ श्रावक की पदवी : समकित की पदवी। सात एकेन्द्रिय रत्न के नाम १ चक्र रत्न २ छत्र रत्न ३ चर्म रत्न ४ दंड रत्न ५ खड़ग रत्न ६ मणि रत्न ७ काकण्य रत्न । सात पंचेन्द्रिय रत्न के नाम १ सेना पति रत्न २ गाथा पति रत्न ३ वाधिक (बढई ) रत्न ४ पुरोहित रत्न ५ स्त्री रत्न ६ गज रत्न ७ अश्व रत्न यह चौदह रत्न चक्रवती के होते हैं। ये चौदह रत्न चक्रवर्ती के जो जो कार्य करते हैं उनका विवेचन । प्रथम सात एकेन्द्रिय रत्न . १ चक्र रत्न-छः खएड साधने का रास्ता बताता है २ छत्र रत्न-सेना के ऊपर १२ योजन (४८ कोस) तक छत्र रूप बन जाता है । ३ चर्म रत्न-नदी आदि जलाशयों ___ Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८२) थोकडा संग्रह। के अन्दर नाव रूप हो जाता है ४ दण्ड रत्न-चैताट्य पर्वत के दोनों गुफाओं के द्वार खोलता है ५ खङ्ग रत्नशत्रु को मारता है ६ मणि रत्न-हस्ति रत्न के मस्तक पर रखने से प्रकाश करता है ७ कांकण्य (कांगनी ) रत्नगुफाओं में एकर योजन के अन्तर पर धनुष्य के गोलाकार घिसने से सूर्य समान प्रकाश करता है। सात पंचेन्द्रिय रत्न १ सेनापति रत्न-देशों को विजय करते हैं २ गाथापति रत्न-चौवीश प्रकार का धान्य उत्पन्न करते हैं ३ वार्षिक ( बढई ) रत्न-४२ भूमि महल सड़क पुल आदि निर्माण करते हैं ४ पुरोहित रत्न -लगे हुवे घावों को ठीक करते विघ्न को दूर करते, शांति पाठ पढ़ते व कथा सुनाते हैं ५ स्त्री रत्न-विषय के उपभोग में काम आती ६-७ गज रत्न व अश्व रत्न-ये दोनों सवारी में काम आते । __ चौदह रत्नों का उत्पति स्थान १ चक्र रत्न २ छत्र रत्न ३ दण्ड रत्न ४ खङ्ग रत्न ये चार रत्न चक्रवर्ती की आयुध शाला में उत्पन्न होते हैं। १ चर्म रत्न २ मणि रत्न ३ काकण्य ( कांगनी ) ये तीन रत्न लक्ष्मी के भण्डार में उत्पन्न होते हैं। १ सेनापति रत्न २ गाथापति रत्न ३ वार्धिक रत्न ४ पुरोहित रत्न ये चार रत चक्रवर्ती के नगर में उत्पन्न होते हैं। Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेंतीश पदवी। ( २८३) १ स्त्री रत्न विद्याधरों की श्रेणी में उत्पन्न होती है। १ गज रत्न २ अश्व रत्न ये दोनों रत्न वैताढ्य पर्वत के मूल में उत्पन्न होते हैं। चौदह रत्नों की अवगाहना १ चक्र रत्न २ छत्र रत्न ३ दण्ड रत्न ये तीन रत्न की अवगाहना एक धनुष्य प्रमाण, चर्म रत्न की दो हाथ की, खङ्ग रत्न पचास अङ्गुल लम्बा १६ अंगुल चौड़ा और श्राधा अंगुल जाड़ा होता है और चार अंगुल की मुष्टि होती है । मणि रत्न चार अंगुल लम्बा और दो अंगुल चौड़ा व तीन कोने वाला होता है । काकण्य रत्न चार अंगुल लम्बा चार अंगुल चौड़ा चार अंगुल ऊंचा होता है इसके छः तले,पाठ कोण,बारह हांसे वाला आठ सोनैया जितना वजन में व सोनार के एरण समान आकार में होता है । सात पंचेन्द्रिय रत्न की अवगाहना १ सेना पति २ गाथा पति ३ वाधिक ४ परोहित इन चार रत्नों की अवगाहना चक्रवर्ती समान । स्त्री रत्न चक्रवर्ती से चार पाङ्गुल छोटी होती है। गज रत्न चक्रवर्ती से दुगना होता है । अश्व रत्न पूंछ से मुख तक १०८ पाङ्गुल लम्बा । खुर से कान तक ८० आङ्गुल ऊंचा, सोलह श्राङ्गुल की जंघा, वीश आङ्गुल की भुजा, चार पाङ्गुल का घुटना चार पाङ्गुल के खुर Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थोकडा संग्रह | W^^ और ३२ श्राङ्गुल का मुख होता है । और ६६ अमुल की परिधि ( घेराव ) है । एवं ३३ पदवी का नाम तथा चक्रवर्ती के चौदह रत्नों का विवेचन कहा । नरकादिक चार गति में से निकले हुवे जीव २३ पदवियों में की कोन २ सी पदवी पावे- इस पर पन्द्रह बोल | ( २८४ ) १ पहेली नरक से निकले हुवे जीव १६ पदवी पावेसात एकेन्द्रिय रत्न छोड़ कर । २ दूसरी नरक से निकले हुवे जीव २३ पदवी में से १५ पदवी पावे - सात एकेन्द्रिय रत्न और एक चक्रवर्ती एवं आठ नहीं पावे । ३ तीसरी नरक से निकले हुवे जीव १३ पदवी पावेसात एकेन्द्रिय रत्न, चक्रवर्ती, वासुदेव एवं दश पदवी नहीं पावे | ४ चोथी नरक से निकले हुवे जीव १२ पदवी पावेदश तो ऊपर की और एक तीर्थंकर एवं ११ नहीं पावे | ५ पांचवी नरक से निकले हुवे जीव ११ पदवी पावे११ तो ऊपर की और बारहवी केवली की नहीं पावे । ६ छठ्ठी नरक से निकले हुवे जीव दश पदवी पावें, ऊपर की बारह और एक साधु की एवं तेरह नहीं । ७ सातवीं नरक से निकले हुवे जीव तीन पदवी Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेंतीश पदवी। ( २८५) पावे-१ गज २ अश्व ३ समकिती ( सम कित पावे तो तिथंच में, मनुष्य नहीं हो सक्ते) ८ भवन पति, वाण व्यन्तर, ज्योतिषी से निकले हुवे जीव २१ पदवी पावे-तीर्थकर, वासुदेव ये दो नहीं पावे पहेला दूसरा देव लोक से निकले हुवे जीव २३ पदवी पावे। १० तीसरे से आठवें देवलोक तक से निकले हुवे जीव १६ पदवी पावे । सात एकेन्द्रिय रत्न नहीं। ११ नववे देवलोक से नववीं ग्रीयवेक तक से निकले हुवे जीव चौदह पदवी पावें। सात एकेन्द्रिय रत्न,गज और अश्व ये नव नहीं। १२ पांच अनुत्तर विमान से निकले हुवे जीव पाठ पदवी पावें । सात एकेन्द्रिय रत्न, सात पंचेन्द्रिय रत्न और एक वासुदेव ये पन्द्रह नहीं पाये। १३ पृथ्वी, अप, वनस्पति, मनुष्य, तिर्यच-पंचेन्द्रिय से निकले हुवे जीव १६ पदवी पावे । तीर्थकर, चक्रवर्ती वासुदेव, बलदेव ये चार नहीं पाये। १४ तेजस् वायु से निकले हुवे जीव नव पदवी पावे। सात एकेन्द्रिय रत्न, गज और अश्व ये नव पावे । १५ तीन विकलन्द्रिय से निकले हुवे जीव १८ पदवी पावे । तीर्थकर, चक्रवर्ती, वासुदेव, बलदेव, केवली ये पांच नहीं पावे। Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८६) थोकडा संग्रह। कोन २ सी पदवी वाले किस किस गति में जावे। १ पहेली दुसरी, तीसरी, चोथी इन चार नरक में ११ पदवी वाला जाव ७ पंचेन्द्रिय रत्न, ८ चक्रवर्ती 8 वासुदेव १० समकित दृष्टि ११ मांडलिक राजा एवं ११ २ पांचवी छठी नरक में नव पदवी का जावे गज और अश्व ये छोड़ कर शेष पांच पंचेन्द्रिय रत्न ६ चक्रवर्ती ७ वासु देव ८ सम्यक्त्वी मांडलिक राजा एवं नव पदवी। ३ सातवीं नरक में सात पदवी का जावे गज, अश्व और स्त्री छोड़ शेष चार ५ चक्रवर्ती ६ वासु देव ७ मांडलिक राजा एवं सात । ४ भवन पति, वाण व्यन्तर, ज्योतिषी और पहेले से आठवें देवलोक तक दश पदवी का जाव-सात पंचेन्द्रिय रत्न में से स्त्री रत्न छोड़ शेष ६ रत्न ७ साधु ८ श्रावक ६ सम्यक्त्वी १० मांडलिक राजा एवं दश ।। ५ नववे से बारहवें देव लोक तक आठ पदवी का जावे स्त्री, गज, अश्व छोड़ शेष चार पंचेन्द्रिय रत्न ५ साधु ६ श्रावक ७ सम्यक्त्वी ८ मांडलिक राजा एवं आठ ६ नव ग्रीयवेक में सात पदवी का जावे ऊपर की पाठ पदवी में से श्रावक को छोड़ शेष सात पदवी।। ७ पांच अनुत्तर विमान में दो पदवी का जावे साधु और सम्यक्त्वी । Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ततीश पदवी। ( २८७) ८पांच स्थावर में चौदह पदवी का जावे । सात एकेन्द्रिय रत्न,स्त्री छोड़ शेष ६ पंचेन्द्रिय रत्न और मांडलिक राजा । - तीन विकलेन्द्रिय. तिथंच पंचेंद्रिय और मनुष्य में पंन्द्रह पदवी का जावे । कार की चौदह पदवी और १ समद्रष्टि एवं १५ संज्ञी, असंज्ञी, तीर्थकर, चक्रवर्ती आदि में २३ पदवि. यों में की जो २ पदवी मिले उस पर ५५ बोल । १ संज्ञी में १५ पदवी मिले, सात एकेन्द्रिय रत्न और १ फेवली नहीं मिले। २ असंज्ञी में आठ पदवी मिले, सात एकेन्द्रिय रत्न और १ समकित एवं आठ । ३ तीर्थकर में ६ पदवी पावे-१ तीर्थंकर २ चक्रवर्ती ३ केवली ४ साधु ५ समकित ६ मांडलिक राजा । ४ चक्रवर्ती में ६ पदवी पावे-तीर्थकर के समान । ५ वासुदेव में ३ पदवी पावे-१ वासुदेव २ मांडलिक ३ समकित । ६ बलदेव में ५ पदवी पावे-१ बलदेव २ केवली ३ साधु ४ समकात ५ मांडलिक । ७ मांडलिक में 8 पदवी पावे-नव उत्तम पदवी । ८ मनुष्य में १३ पदवी पावे-नव उत्तम पदवी १० सेनापति ११ गाथापति १२ वार्षिक १३ पुरोहित एवं १३ पदवी । Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८८ ) थोकडा संग्रह। हमनुष्यणी में ५ पदवी पावे-१ स्त्री रत्न २ श्राविका ३ समकिन ४ साध्वी ५ केवली। १० तिर्यंच में ११ पदवी पावे-सात एकेन्द्रिय रत्न ८ गज ६ अश्व १० श्रावक ११ सकिन । . ११ तिर्यचणी में २ पदवी पावे-१ समकित २ श्रावक । १२ संवेदी में २२ पदवी पावे-केवली नहीं। १३ स्त्री वेद में चार पदवी पावे-१ स्त्री रत्न २ श्राविका ३ समकित ४ साध्वी। १४ पुरुष वेद में १४ पदवी पावे-सात एकेन्द्रिय रत्न केवली और स्त्री रत्न ये नव छोड़ शेष ( २३-६) १४ पदवी। . १५ अवेदी में ४ पदवी पावे-१ तीर्थकर २ केवली ३ साधु ४ समकित । १६ नरक गति में एक पदवी पावे-समकित की। १७ तिर्यच गति में ११ पदवी पावे-सात एकेन्द्रिय रत्न ८ गज ६ अश्व १० श्रावक ११ समकित । १८ मनुष्य गति में १४ पदवी पावे-नव उत्तम पदवी और सात पंचन्द्रिय रत्न में से गज अश्व छोड़ शेष ५ एवं (६+५) १४ पदवो। .. १६ देवगति में एक पदवी पावे-समकित की। २० आठ कर्म वेदक मे २१ पदवी पावे-तीर्थकर और केवली ये दो नहीं। । Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेंतीश पदवी। (२८६) २१ सात कम वेदक में २ पदवी पावे-साधु और श्रावक। २२ चार कर्म वेदक में चार पदवी पावे-१ तीर्थकर २ केवली ३ साधु ४ समकित । २३ जघन्य अवगाहना में १ पदवी पावे-समकित की। २४ मध्यम अवगाहना में १४ पदवी पावे-नव उत्तम पुरुष, पांच पंचेन्द्रिय रत्न-गज अश्व छोड़ कर-एवं +५ १४ पदवी पावे। २५ उत्कृष्ट अवगाहना में एक पदवी पाव-समकित । . २६ अढाई द्वीप में २३ पदवी पावे । २७ अढाई द्वीप के बाहर ४ पदवी पावे-१ केवली २ साधु ३ श्रावक ४ समकित । २८ भरत क्षेत्र में मध्यम पदवी ८ पावे-जव उत्तम पदवी में से चक्रवर्ती छोड़ शेष ८ पदवी । . २६ भरत क्षेत्र में उत्कृष्ट २१ पदवी पावे-वासुदेव, बलदेव नहीं। ३० उर्ध्व लोक में ५ पदवी पावे-१ केवली २ साधु ३ श्रावक ४ समकित ५ मांडलिक राजा । - ३१ अधः लोक तथा तिर्यक् (तिर्खे ) लोक में २३ पदंवी पावे। ३२ स्वयं लिङ्ग में ४ पदवी पावे-१ तीर्थ कर २ केवली ३ साधु ४ श्रावक । Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थोकडा संग्रह | ३३ अन्य लिङ्ग में ४ पदवी पावे -१ केवली २ साधु "(३०) ३ श्रावक ४ समकित | ३४ गृहस्थ लिङ्ग मनुष्य में १४ पदवी पावे - नव उत्तम पदवी, और सात पंचेन्द्रिय रत्न में से गज श्रश्व को छोड़ शेष पांच एवं ( ६ + ५ ) १४ पदवी । ३५ संमूमि में ८ पदवी पावे-सात एकेन्द्रिय रत्न और एक समकित | ३६ गर्भज में १६ पदवी पावे - २३ में से सात एकेन्द्रिय रत्न छोड़ शेष १६ पदवी । ३७ श्रगर्भज में = पदवी पावे-संमूर्च्छ समान । ३८ एकेन्द्रिय में ७ पदवी पावे सात एकेन्द्रिय रत्न । ३६ तीन विकलेन्द्रिय में १ पदवी पावे - समकित ४० पंचेन्द्रिय में १५ पदवी पावे - २३ में से सात एकेन्द्रिय रत्न और केवली - ये आठ नहीं । ४१ अनिन्द्रिय में ४ पदवी पावे १ तीर्थंकर २ केवल ३ साधु ४ समकित । ४२ संयति में ४ पदवी पावे- अनिन्द्रिय समान । ४३ असंयति में २० पदवी पावे - २३ में से १ केवली २ साधु ३ श्रावक ये तीन छोड़ शेष २० पदवी । ४४ संयता संयति में १० पदवी पावे- स्त्री को छोड़ शेष ६ पंचेन्द्रिय रत्न ७ बलदेव ८ श्रावक ६ समकित १० मांडलिक । - Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेतीश पदवी । ( २६१) ४५ समकित दृष्टि में १५ पदवी पाव-२३ में से सात एकेन्द्रिय रत्न और स्त्री छोड़ शेष १५ पदवी । . ४६ मिथ्या दृष्टि में १७ पदवी पावे-सात एकेन्द्रिय रत्न, सात पंचन्द्रिय रत्न, १४, १५ चक्रवर्ती १६ वासु. देव १७ मांडलिक। ४७ मति, श्रुत और अवधि ज्ञान में १४ पदवी पावेकेवली छोड़ शेष ८ उत्तम पदवी, स्त्री को छोड़ शेष ६ पंचन्द्रिय रत्न एवं (८४६) १४ पदवी । ४८ मनः पर्यव ज्ञान में ३ पदवी पावे १ तीर्थकर २ साधु ३ समकित । ४६ केवल ज्ञान केवल दर्शन में ४ पदवी पावे १ तीर्थकर २ केवली ३ साधु ४ समकित । ५० मति श्रुत अज्ञान में १७ पदवी पावे-सात एकेन्द्रिय रत्न, सात पंचेद्रिय रत्न, १४, १५ चक्रवर्ती १६ वासुदेव १७ मांडलिक। ५१ विभङ्ग ज्ञान में पदवी पावे-स्त्री को छोड़ शेष ६ पचन्द्रिय रत्न, ७ चक्रवर्ती ८ वासुदेव मांडलिक । ५२ चक्षु दर्शन में १५ पदवी पावे-केवली को छोड़ शेष ८ उत्तम पदवी और सात पंचेन्द्रिय रत्न एवं १५ पदवी। ५३ अचच दर्शन में २२ पदवी पावे-केवली नहीं। ५४ अवधि दर्शन में १४ पदवी पावे-केवली को ___ Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२) थोकडा संग्रह। छोड़ शेष ८ उत्तम पदवी, और स्त्री को छोड़ शेष ६ पंचे. न्द्रिय रत्न एवं सर्व १४ पदवी।। ५५ नपुंसक लिङ्ग में ५ पदवी पावे १ केवली २ साधु ३ श्रावक ४ समकित ५ मांडलिक । ॥ इति तेंवीश पदवी सम्पूर्ण ॥ Miss GA ROC e : Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांच शरीर । ( २६३) पांच शरीर श्री प्रज्ञप्तिजी ( पन्नवणा ) सूत्र के २१ वे पदमें वर्णित पांच शरीर का विवेचन । सोलह द्वार १ नाम द्वार २ अर्थ द्वार ३ संस्थान द्वार ४ स्वामी द्वार ५ अवगाहना द्वार ६ पुगल चयन द्वार ७ संयोजन द्वार ८ द्रव्याथे द्वार ६ प्रदेशार्थंक द्वार १० द्रव्याथेक प्रदेशार्थक द्वार ११ सूक्ष्म द्वार १२ अवगाहना अल्प बहुत्व द्वार १३ प्रयोजन द्वार १४ विषय द्वार १५ स्थिति द्वार १६ अन्तर द्वार। १ नाम द्वार १ औदारिक शरीर २ वैक्रिय शरीर ३ श्राहारिक शरीर ४ ते जम् शरीर ५ कार्मण शरीर । २ अर्थ द्वार १ उदार अर्थात् सब शरीरों से प्रधान, तीर्थकर, गणधर आदि पुरुषों को मुक्ति पद प्राप्त कराने में सहायीभूत, उदार कहेता सहस्र योजन मान शरीर इससे इसे औदारिक शरीर कहते हैं। . : २ वैक्रिय-जिसमें रूप परिवर्तन करने की शक्ति तथा एकके अनेक छोटे बड़े खेचर भूचर द्रश्य अद्रश्य Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६४) थोकडा संग्रह। RANANAAMANAM आदि विविध रूप विविध क्रिया से बनावे उसे वैक्रिय शरीर कहते हैं इसके दो भेद । ...१ भव प्रत्यायक-जो देवता व नेरियों के स्वभाविक ही होता है। २ लब्धि प्रत्यायेक-जो मनुष्य तिर्यंच को प्रयत्न से प्राप्त होवे। ३ आहारिक शरीर-जो चौदह पूर्वधारी महात्माओं को तपश्चर्यादिक योग द्वारा जब लब्धि उत्पन्न होवे तो तीर्थकर देवाधिदेव की ऋद्धि देखने को व मन की शङ्का निवारण करने को, उत्तम पुगलों का आहार लेकर, जघन्य पोन हाथ का व उत्कृष्ट एक हाथ का, स्फटिक समान सफेद व कोई न देख सके ऐसा शरीर बनाते है । जिससे इसे पाहारिक शरीर कहते हैं। ४ तेजस् शरीर-जो तेज के पुद्गलों से अदृश्य व मुक्त (खाये हुवे ) आहार को पचाव तथा लब्धिवंत तेजो लेश्या छोडे उसे तैजम शरीर कहते है। ५ कार्मण कर्म के पुद्गल से उत्पन्न होने वाला व जिसके उदय से जीव पुद्गल ग्रहण करके कमादि रूप में परिणमावे तथा आहार को खेवे उसे कामण शरीर कहते हैं। . ३ संस्थान द्वार औदारिक शरीर में संस्थान ६-१समचतुरम् सं. स्थान २ न्यग्रोध परिमंडल संस्थान ३ सादिक संस्थान ४ वामन संस्थान ५ कुब्ज संस्थान ६ हुंड संस्थान । Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांच शरीर । ( २६५) २ वैक्रिय में-(भव प्रत्यायिक में) देव में सम चतुरस संस्थान व नेरियों में हुंड संस्थान ( लब्धि प्रत्ययिक में ) मनुष्य में व तिर्यच में सम चतुरम् सस्थान व अनेक प्रकार का-वायु में हुंड संस्थान । ३ आहारिक शरीर में-स चतुरम संस्थान । ४-५ तेजस् व कार्मण में ६ संस्थान । ४ स्वामी द्वार। १ औदारिक शरीर का स्वामी-मनुष्य व तिथच । २ वैक्रिय शरीर का स्वामी चार ही गति के जीव । ३ आहारिक शरीर का स्व मी--चौदह पूर्व धारी मुनि ४-५ तेजस कामण शरीर के स्वामी-सर्व संसारी जीव । अवगाहना द्वार। १ औदारिक शरीर की अवगाहना जघन्य प्राङ्गुल के असंख्यातवें भाग उत्कृष्ट हजार योजन की। . २ वैक्रिय शरीर की अवगाहना जघन्य प्राङ्गुल के असंख्यातवें भाग उत्कृष्ट ५०० धनुष्य उत्तर वैक्रिय करे तो जघन्य आंगुल के असंख्यातवें भाग उत्कृष्ट लन योजन जाजेरी ( अधिक)। ३ आहारिक शरीर की अवगाहना जघन्य एक हाथ न्यून उत्कृष्ट एक हाथ की। Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६६) थोकडा संग्रह। ४-५ तेजस्, कार्मण शरीर की अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग उत्कृष्ट चौदह राज लोक प्रमाण । पुद्गल चयन द्वार । (आहार कितनी दिशाओं का लेवे) औदारिक, तेजस्, कार्मण शरीर वाला तीन चार पांच यावत् छै दिशाओं का आहार लेवे । वैक्रिय और आहारिक शरीर वाला छः दिशाओं का लेवे। ७ संयोजन द्वार। १ औदारिक शरीर में आहारिक वैक्रिय की भजना ( होवे और नहीं भी होवे ), तेजम् कार्मण की नियमा ( जरूर होवे)। २ वैक्रिय शरीर में औदारिक की भजना, आहारिक नहीं होवे व तैजस कार्मण की नियमा। ३ श्राहारिक शरीर में वैक्रिय नहीं होवे, औदारिक, तेजस्, कामण होवे। . ४ तेजस् शरीर में औदारिक, वैक्रिय पाहारिक की भजना तैजस की नियमा । ..... ५ कार्मण शरीर में औदारिक, वैक्रिय आहारिक की भजना तैजस की नियमा। ८व्यार्थक द्वार। १ सर्व से थोड़ा आहारिक का द्रव्य जघन्य १.२.३ Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांच शरीर । ( २६७) उत्कृष्ट पृथक हजार । इससे वैक्रिय के द्रव्य असंख्यात गुणा इससे औदारिक के द्रव्य असंख्यात गुणा इससे तैजस कार्मण के द्रव्य-ये दोनों परस्पर बराबर व औदारिक से अनंत गुणा अधिक। प्रदेशार्थक द्वार।। १ सर्व से थोड़ा माहारिक का प्रदेश इससे क्रिय का प्रदेश असंख्यात गुणा इस से औदारिक का असंख्यात गुणा इस से तैजस का अनंत गुणा व इस से कार्मण का अनंत गुणा अधिक। १० द्रव्यार्थक प्रदेशार्थक द्वार । सर्व से थोड़ा पाहारिक का द्रव्यार्थ इस से वैक्रिय का द्रव्यार्थ असंख्यात गुणा उससे औदारिक का द्रव्यार्थ असंख्यात गुणा इस से पाहारिक का प्रदेश असंख्यात गुणा इस से वैक्रिय का प्रदश असंख्यात गुणा इस से औदारिक का प्रदेश असंख्यात गुणा इस से तेजस् , कामण इन दोनों का द्रव्यार्थ परस्पर समान व औदारिक से अनन्त गुणा अधिक इस से तेजस् का प्रदेश अनन्त गुणा अधिक इस से कामण का प्रदेश अनन्त गुणा अधिक। ११ सूक्ष्म द्वार । १ सर्व से स्थूल ( मोटे ) औदारिक शरीर के पुद्गल इस से वैक्रिय शमीर के पुदगल मूक्ष्म इस से Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६८) थोकडा संग्रह। vvvAnna-mhar wwvvvv wwwwwwwww पाहारिक शरीर के पुद्गल सूक्ष्म इस से तैजस शरीर के पुगल सूक्ष्म व इस से कार्मण शरीर के पुद्गल सूक्ष्म । १२ अवगाहना का अल्प बहुत्व द्वार । . सब से जघन्य औदारिक शरीर की जघन्य अवगाहना इस से तैजस् कार्मण की जघन्य अवगाहना परस्पर बरावर व औदारिक से विशेष वैक्रिय की जघन्य अवगाहना असंख्यात गुणी इस से पाहारिक की जघन्य अवगाहना असंख्यात गुणी इस से आहारिक की उत्कृष्ट अवगाहना विशेष इससे औदारिक की उत्कृष्ट अवगाहना संख्यात गुणी इस से वैक्रिय की उत्कृष्ट अवगाहना संख्यात गुणी इस से तैजस् कार्मण उत्कृष्ट अवगाहना परस्पर बराबर व वैक्रिय से असंख्यात गुणी अधि । __ १३ प्रयोजन द्वार। १ औदारिक शरीर का प्रयोजन मोक्ष प्राप्ति में सहायी भूत होना २ वैक्रिय शरीर का प्रयोजन विविध रूप बनाना ३ चाहारिक शरीर का प्रयोजन संशय निवा. रण करना ४ तैजस शरीर का प्रयोजन पुद्गलों का पाचन करना ५ कार्मण शरीर का प्रयोजन आहार तथा काँ को आकर्षण ( खेचना) करना । १४ विषय (शक्ति) द्वार । औदारिक शरीर का विषय पन्द्रहवा रुचक नामक Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांच शरीर । ( २६६ ) द्वीप तक जानेका (गमन करने का )२ वैक्रिय शरीर का विषय असंख्य द्वीप समुद्र तक जानेका ३ पाहारिक शरीर का विषय अढाई द्वीप समुद्र तक जाने का ४ तैजस कार्मण का विषय सर्व लोक में जाने का । ५ स्थिति द्वार। औदारिक शरीर की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त उत्कृष्ट तीन पल्योपम की २ वैक्रिय शरीर की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त की, उत्कृष्ट ३३ सागरोपम की ३ आहारिक शरीर की अन्तर्मुहूर्त की ४ तैजस कार्मण शरीर की स्थिति दो प्रकार की-अभव्य आश्री आदि अन्त रहित २ मोक्ष गामी आश्री अनादि सान्त ( आदि नहीं परन्तु अन्त है)। १६ अन्तर द्वार। औदारिक शरीर छोड़ कर फिर औदारिक शरीर प्राप्त करने में अन्तर पड़े तो जघन्य अन्तर्मुहूर्त व उत्कृष्ट ३३ सागरोपम २ वैक्रिय शरीर छोड़ कर फिर वैक्रिय शरीर पाने में अन्तर पड़े तो जघन्य अन्तर्मुहूर्ते उत्कृष्ट अनन्त काल ३ पाहारिक शरीर में अन्तर पड़े तो जघन्य अन्तर्मुहूर्त उत्कृष्ट अर्ध पुद्गल परावर्तन काल से कुछ न्यून ४..५ तेजस, कार्मण शरीर में अन्तर नहीं पड़े अन्तर द्वार का दूसरा अर्थ-पाहारिक शरीर को छोड़ शेष शरीर Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३०० ) थोकडा संग्रह। Mo.m... - A nytmun.. लोक में सदा पावे.-आहारिक शरीर की भजना (होवे और नहीं भी होवे ) नहीं होवे तो उत्कृष्ट ६ माह का अन्तर पड़े। ॥ इति पांच शरीर सम्पूर्ण ॥ ___ Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांच इन्द्रिय । ( ३०१ ) ड पांच इन्द्रियं श्री प्रज्ञापना सूत्र के पन्द्रहवें पद के प्रथम उदेशे में पांच इन्द्रिय का विस्तार ११ द्वार के साथ कहा है । गाथा ( ११ द्वार ) संठाणं' बाहुल्लं' पोहत्तं' कइपएस उगाढे; अप्पबहु पुठ' पविठे' विसय' अणगार" आहारे " पांच इन्द्रिय १ श्रोत्रेन्द्रिय २ चतु इन्द्रिय ३ घ्राणेन्द्रिय ४ रसेन्द्रिय ५ स्पर्शेन्द्रिय | १ संस्थान द्वार:- १ श्रोत्रेन्द्रिय का संस्थान (आकार) कदम्ब वृक्ष के फूल समान २ चतु इन्द्रिय का संस्थान मसूर की दाल समान ३ घ्राणेन्द्रिय का संस्थान धमण समान ४ रसेन्द्रिय का संस्थान छूपना की धार समान ५ स्पर्शेन्द्रिय का संस्थान नाना प्रकार का । २ बाहुल्य (जाड़ पना ) द्वार पांच इन्द्रिय का बाहुल्य जवन्य उत्कृष्ट अङ्गुल के श्रसंख्यातवें भाग का | ३ पृथुत्व ( लम्बाई) द्वार १ श्रोत्र २ चक्षु और ३ घ्राण । इन तीन इन्द्रियों की लम्बाई जघन्य उत्कृष्ट श्राङ्गुल के असंख्यातवें भाग Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३०२) थोकडा संग्रह। की। ४ रसेन्द्रिय की लम्बाई जघन्य अांगुल के असंख्यातवें भाग उत्कृष्ट पृथक् ( २ से 8 ) आंगुल की । ५ स्पर्शेन्द्रिय की लम्बाई जघन्य आंगुल के असंख्यातवें भाग उत्कृष्ट हजार योजन से कुछ विशेष । ४ प्रदेश द्वार पांच इन्द्रिय के अनंत प्रदेश होते हैं । अवगाह द्वार पांच इन्द्रियों में से प्रत्येक इन्द्रिय में आकाश प्रदेश असंख्यात असंख्यात अवगाह्य हैं । प्रत्येक इन्द्रिय का अनन्त अनन्त कर्कश व भारी स्पर्श है व वैसे ही अनन्त अनन्त हलका व मृदु स्पर्श है। ६ अल्प बहुत्व द्वार १ सर्व से कम चक्षु इन्द्रिय के प्रदेश इससे श्रोत्रन्द्रिय के प्रदेश संख्यात गुणे इससे. घ्राणेन्द्रिय के प्रदेश संख्यात गुणे इससे रसेन्द्रिय के प्रदेश असंख्यात गुणे व इससे स्पर्शेन्द्रिय के प्रदेश संख्यात गुणे । आकाश प्रदेश अवगाहना का अल्प बहुत्व १ सर्व से कम चक्षुइन्द्रिय का अवगाह्या प्राकाश प्रदेश इससे श्रोत्रेन्द्रिय का अवगाहा आकाश प्रदेश संख्यात गुणा इससे घ्राणेन्द्रिय का अवगाह्या आकाश प्रदेश सं. ख्यात गुणा इससे रसेन्द्रिय का अवगाह्या आकाश प्रदेश Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांच इन्द्रिय । ( ३०३) असंख्यात गुणा व स्पर्शेन्द्रिय का अवगाह्या आकाश प्रदेश संख्यात गुणा। प्रदेश और अवगाह्य दोनों का अल्प बहुत्व सर्व से कम चक्षुइन्द्रिय का अवगाह्य आकाश प्रदेश इससे श्रोत्रेन्द्रिय का संख्यात गुणा इससे घ्राणेन्द्रिय का अवगाह्य संख्यात गुणा इससे रसेन्द्रिय का अवगाह्य असंख्यात गुणा इससे स्पर्शन्द्रिय का अवगाह्य संख्यात गुणा इससे चक्षु इन्द्रिय का प्रदेश अनन्त गुणा इससे श्रोत्रेन्द्रिय का प्रदेश संख्यात गुणा इससे घ्राणेन्द्रिय का प्रदेश संख्यात गुणा इससे रसेन्द्रिय का प्रदेश असंख्यात गुणा व इससे स्पर्शेन्द्रिय का प्रदेश असंख्यात गुणा । कर्कश व भारी स्पर्श का अल्प बहुत्व सर्व से कम चक्षु इन्द्रिय का कर्कश व भारी स्पर्श इससे श्रोत्रेन्द्रिय का अनन्त गणा इससे घ्राणेन्द्रिय का अनन्त गुणा इससे रसेन्द्रिय का अनन्त गुणा इससे स्पर्शेन्द्रिय का अनन्त गुणा। हलका व मृदु स्पर्श का अल्प बहुत्व सर्व से कम स्पन्द्रिय का हलका व मृदु स्पर्श, इस से रसेन्द्रिय का हलका मृदु स्पर्श अनन्त गुणा इससे घ्राणेन्द्रिय का अनन्त गुणा इससे श्रोत्रेन्द्रिय का अनन्त गुणा व इससे चतु इन्द्रिय का अनन्त गुणा । Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३०४ ) - थोवडा संग्रह। ___ कर्कश भारी, लघु ( हलका ) मृदु स्पर्श का एक साथ अल्प बहुत्व-सवे से कम चक्षु इन्द्रिय का कर्कश भारी स्पर्श इससे श्रोत्रेन्द्रिय का कर्कश भारी स्पर्श अनन्त गुणा इससे घ्राणेन्द्रिय का अनन्त गुणा इससे रसन्द्रिय का इ.नन्त गुणा इससे पर्शन्द्रिय का अनन्त गुणा इससे स्पर्शेन्द्रिय का हलका मृदु स्पर्श अनन्त गुणा इससे रसन्द्रिय का हलका मृदु स्पर्श अनन्त गुणा इससे घ्राणेन्द्रिय का हलका मृदु स्पर्श अनन्त गुणा इससे श्रोत्रे. न्द्रिय का हलका मृदु स्पर्श अनन्त गुणा व इससे चक्षु इन्द्रिय का हलका मृदु स्पशे अनन्त गुणा । ७ पृष्ट द्वार जो पुद्गल इन्द्रियों को प्राकर स्पर्श करते हैं उन पुद्गलों को इन्द्रिये ग्रहण करती हैं पांच इन्द्रियों में से चक्षु इन्द्रिय को छोड़ शेष चार इन्द्रियों को पुद्गल आकर स्पर्श करते हैं । चक्षु इन्द्रिय को प्राकर नहीं स्पर्श करते हैं। ८ प्रविष्ट द्वार जिन इन्द्रियों के अन्दर प्राभेमुख ( सामां) पुद्गल आकर प्रवेश करते हैं उसे प्रविष्ट कहते हैं । पांच इन्द्रियों में से चक्षु इद्रिय को छोड़ शेष चार इन्द्रिय प्रविष्ट हैं व चक्षु इन्द्रिय अप्रविष्ट है। ६ विषय द्वार (शक्ति द्वार ) प्रत्येक जाति की प्रत्येक इन्द्रिय का विषय जघन्य दार Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांच इन्द्रिय । आंगुल के असख्यात भाग उत्कृष्ट नीचे अनुसार । जाति पांच श्रोत्रेन्द्रिय चक्षुइंद्रिय घ्राणेन्द्रिय रसेन्द्रिय स्पर्श. एकेन्द्रिय . .. ४०० ध० बे इन्द्रिय ० ० ० ६४५० ८०० घ० त्रि इन्द्रिय ० ० १०० ध० १२८ ध०१६०० ध. चौइन्द्रिय ० २६५४ यो. २०० ध० २५६ ध. ३२०० ध. असंत्री प. १ योजन ५६०८ यो. ४०० ध० ५१२ ध. ६४०० ध. संक्षी पं० १२ योजन १ ला.यो.जा. यो. ६ यो० ६ योजन १०. अनाकार द्वार ( उपयोग) जघन्य उपयोग काल का अल्प बहुत्व । सर्व से कम चनु इन्द्रिय का जघन्य उपयोग काल इस से श्रोत्रन्द्रिय का जघन्य उपयोग काल विशेष इस से घाणेन्द्रिय का जघन्य उपयोग काल विशेष इससे रसेन्द्रिय का जघन्य उपयोग काल विशेष इस से स्पर्शन्द्रिय का जघन्य उपयोग काल विशेष । उत्कृष्ट उपयोग काल का अल्प बहुत्व । सर्व से कम चक्षुइन्द्रिय का उत्कृष्ट उपयोग काल इस से श्रोत्रेन्द्रिय का उत्कृष्ट उपयोग काल विशेष इस से घ्राणेन्द्रिय का उत्कृष्ट उपयोग काल विशेष इससे रसेन्द्रिय का उत्कृष्ट उपयोग काल विशेष इस से स्पर्शेन्द्रिय का उत्कृष्ट उपयोग काल विशेष ।। उपयोग जघन्य उत्कृष्ट दोनों का एक साथ अल्प बहुत्व। सर्व से कम चक्षुइन्द्रिय का जघन्य उपयोग काल Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०६) थोकडा संग्रह। vvvve इस से श्रोत्रेन्द्रिय का जघन्य उपयोग काल विशेष इस से घाणेन्द्रिय का जघन्य उपयोग काल विशेष इससे रसेन्द्रिय का जघन्य उपयोग काल विशेष इस से स्पर्शेन्द्रिय का जघन्य उपयोग काल विशेष इस से चक्षुइन्द्रिय का उत्कृष्ट उपयोग काल विशेष इस से श्रोत्रेन्द्रिय का उत्कृष्ट उपयोग काल विशेष इस से घ्राणेन्द्रिय का उत्कृष्ट उपयोग काल. विशेष इस से रसन्द्रिय का उत्कृष्ट उपयोग काल विशष इस से स्पर्शेन्द्रिय का उत्कृष्ट उपयोग काल विशेष । ११ वां आहार द्वार सूत्र श्री प्रज्ञापना में से जानना । * इति पांच इन्द्रिय सम्पूर्ण ॐ Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रूपी रूपी का बोल । * पी रूपी का बोल गाथा: कम्मठ पावठाणा य, मण वय जोगा य कम देहे; सुहुमप्पएसी खन्धे, ए सब्वे चउ फासा ॥ १ ॥ अर्थ-कर्म (१ ज्ञानावरणीय २ दर्शनावरणीय ३ वेदनीय ४ मोहनीय ५ आयुष्य ६ नाम ७ गोत्र ८ अन्तराय ) आठ ८ पाप स्थानक ( १ प्राणातिपात २ मृषावाद ३ अदत्तादान ४ मैथुन ५ परिग्रह ६ क्रोध ७ मान ८ माया ६ लोभ १० राग ११ द्वेश १२ क्लेश १३ अभ्याख्यान १४ पिशुन १५ पर परिवाद १६ रति अरति १७ माया मृषा १८ मिथ्या दर्शन शल्य ) श्रहारह, २६; २७ मन योग २८ वचन योग २६ कार्मण शरीर और सूक्ष्म प्रदेशी स्कन्ध । एवं सर्व तीश बोल रूपी चउ स्पर्शी है । इनमें सोलह सोलह बोल पावे | पांच वर्ण ( १ कृष्ण २ नील ३ रक्त ४ पीत ५ श्वेत ), दो गन्ध ( ६ सुरभि गन्ध ७ दुरभि गन्ध ), पांच रस ( ८ तीक्ष्ण कटु १० कपायला १९ खट्टा १२ मीठा ) चार स्पर्श ( १३ शीत १४ उष्ण १५ रूक्ष १६ स्निग्ध ) |१| गाथा:-- घण तणवाय, घनोदहि, पुढविसतेव सतनिरयाणं; असंखेज दिव, समुदा, कप्पा, गेवीजा अणुत्तरा सिद्धि ॥२॥ ( ३०७ ) Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३०८ ) थोकडा संग्रह। अर्थः--१ धनवात २ तनुवात ३ घनोदधि, पृथ्वी सात-१०, ११ असंख्यात द्वीप १२ असंख्यात समुद्र, बारह देव लोक २४, नव ग्रीयवेक ३३, पांच अनुत्तर विमान ३८, सिद्धि शिला-३६ ।२। गाथा:-- उरालिया चउदेहा, पोगल काय छ दव्व लेस्सा य; तहेव काय जोगेणं ए सव्वेणं अठ्ठ फासा ॥३॥ अर्थः-४० औदारिक शरीर ४१ वैक्रिय शरीर ४२ आहारिक शरीर ४३ तैजम् शरीर एवं चार देह-४४पुद्गलास्ति काय का बादर स्कन्ध, ६ द्रव्य लेश्या (१कृष्ण, २ नील ३ कापोत ४ तेजो ५ पद्म ६ शुक्ल) ५०, ५१ काय योग एवं सर्व ५१ बोल रूपी आठ स्पर्श हैं । इनमें वीस वीस बोल पावे । पांच वर्ण-दो गन्ध-७, पांच रस१२, आठ स्पर्श-१३ शीत १४ उष्ण १ लूखा ( रूक्ष ) १६ स्निग्ध १७ गुरु ( भारी) १८ लघु (हलका) १६ खरखरा २० सुवाल (मृदु-कोमल )।३। . _गाथापाव ठाणा विरइ, चउ चउ बुद्धि उग्गहे; सन्ना धम्मथी पंच उठाणं, भाव लेस्साति दिठीय ॥४॥ अर्थ-अठारह पाप स्थानक की विरति (पाप स्थानक से निवर्त होना) १८, चार बुदि-१६ औत्पातिका २० कामीया २१ विनया २२ परिणामीया; चार मति Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रूपी अरूपी का बोल। ( ३०६ ) ONLINEKMAV २३ अवग्रह २४ इहा २५ अवाप्त २६ धारणा; चार संज्ञा२७ श्राहार संज्ञा २८ भय संज्ञा २६ मैथुन संज्ञा ३० परिग्रह संज्ञा; एंचास्तिकाय-३१ धर्मास्तिकाय ३२ अधमास्ति काय ३३ आकाशास्ति काय ३४ काल और ३५ जीवास्ति काय, पांच उठाण-३६ उत्थान ३७ कम ३८ वीय ३६ वल और ४० पुरुषाकार पराक्रम ६ भाव लेश्या-४६, और तीन दृष्टि-४७ समाति दृष्टि ४८ मिथ्या दृष्टि ४६ मिश्र दृष्टि ।४। गाथादंसण नाण सागस अणागारा चउवीसे दंडगा जीव; ए सव्वे अवन्ना अरूवी अकासगा चेव ॥५॥ अर्थ-दर्शन चार-५० चक्षु दर्शन ५१ अचक्षु दर्शन ५२ अवधि दर्शन ५३ केवल दर्शन, ज्ञान पांच५४ मति ज्ञान ५५ श्रुत ज्ञान ५६ अवधि ज्ञान ५७ मनः पर्यव ज्ञान ५८ केवल ज्ञान ५६ ज्ञान का उपयोग सो साकार उपयोग ६० दर्शन का उपयोग सो अनाकार उप योग६१ चरवीशही दण्डक के जीव । ___ एवं सर्व ६१ बोल में वर्ण, गन्ध, रस स्पर्श कुछ नहीं पावे कारण कि ये सर्व बोल अरूपी के हैं। ॥ इति रूपी अरूपी का बोल सम्पूर्ण ॥ Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१०) थोकडा संग्रह। * बड़ा बांसठीया * गाथा जीव गई इन्दिय काय जोग वेदेय कसाय लेस्सा ; सम्मत नाण सण संजय उवोग आहारे १ भासग परित पज्जत सुहम सन्नी भवाथ्थय ; चरिम तेसि पयाणं, बासठीय होई नायव्वा २ एवं २१ द्वार की दो गाथा इसका विस्तार:१ समुच्चय जीव द्वार का एक भेद २ गति द्वार के पाठ भेद १ नरक की गति २ तिर्यच की गति ३ तियचनी की गति ४ मनुष्य की गति ५ मनुष्यानी की गति ६ देव की गति ७ देवाङ्गना की गति ८ सिद्ध की गति । ३ इन्द्रिय द्वार के सात भेद १ सइन्द्रिय २ एकेन्द्रिय ३ इंद्रिय ४ त्रिइंद्रिय ५ चौरिद्रिय ६पंचेंद्रिय ७ अनिद्रिय ।। ४ काय द्वार के पाठ बोल १ सकाय २ पृथ्वी काय ३ अपकाय ४ तेजसू काय वायु काय ६ वनस्पति काय ७ त्रस काय ८ अकाय । ५ योग द्वार के पांच बोल १ सयोग २ मन योग ३ बचन योग ४ काय योग ५ अयोग। Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बड़ा बांसठीया। (३११) ६ वेद द्वार के पांच बोल १ सवेद २ स्त्री वेद ३ पुरुष वेद ४ नपुंसक वेद ५ अवेद । . ७ कषाय द्वार के छः बोल १ सकषाय २ क्रोध कषाय ३ मान कषाय ४ माया कषाय ५ लोभ कषाय ६ अकषाय ।, ८ लेश्या द्वार के पाठ बोल १ सलेश्या २ कृष्ण लेश्या ३ नील लेश्या ४ कापोत लेश्या ५ तेजो लेश्या ६ पन लेश्या ७ शुक्ल लेश्या ८ अलेश्या । समकित द्वार के तीन बोल १ समकित २ मिथ्यात्व ३ सममिथ्यात्व (मिश्र) १० ज्ञान द्वार के दश बोल १ समुच्चय ज्ञान २ मति ज्ञान ३ श्रुत ज्ञान ४ अवधि ज्ञान ५ मनः पर्यव ज्ञान ६ केवल ज्ञान ७ समुच्चय अज्ञान ८ मति अज्ञान ६ श्रुत अज्ञान १० विभंग ज्ञान । ११ दर्शन द्वार के चार बोल १ चक्षु दर्शन २ अचक्षु दर्शन ३ अवधि दर्शन ४ केवल दर्शन। १२ संयति द्वार के नव बोल १ समुच्चय संयति २ सामायिक चारित्र ३ छेदोपस्थानिक चारित्र ४ परिहारं विशुद्ध चारित्र ५ सूक्ष्म संपराय Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१२) थोकडा संग्रह। चारित्र ६ यथाख्यात चारित्र ७ संयता संयति ८ असंयति 8 नो संयति-नो असंयति नो संयता संयति । १३ उपयोग द्वार के दो बोल.. १ साकार उपयोग ( साकार ज्ञानोपयोग ) २ अना. कार उपयोग (अनाकार दर्शनोपयोग)। १४ आहार द्वार के दो बोल ! १ आहारिक २ अनाहारिक । १५ भाषक द्वार के दो बोल १ भाषक २ अभाषक। १६ परित द्वार के तीन बोल १ परित २ अपरित ३ नोपरित नोअपरित । १७ पर्याप्त द्वार के तीन बोल १ पर्याप्त २ अपर्याप्त ३ नो पर्याप्त नो अपर्याप्त । १८ सूक्ष्म द्वार के तीन बोल १ सूक्ष्म २ बादर ३ नोसूक्ष्म नो बादर । १६ संज्ञी द्वार के तीन बोल १ संज्ञी २ असंज्ञी ३ नो संज्ञी नो असंही । २० भव्य द्वार के तीन बोल १ भव्य २ अभव्य ३ नो भव्य नो अभव्य । २१ चरिम द्वार के दो बोल १ चरम २ अचरम । Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बड़ा बांसठीया । ( ३१३ ) एवं २१ द्वार के बोल पर बासठ बोल उतारे हैं । बासठ बोल की विगत: - जीव के १४ भेद, गुण स्थानक १४, योग १५, उपयोग १२, लेश्या ६, एवं सर्व मिल कर ६१ बोल और एक अल्प बहुत्व का एवं ६२ बोल । १ समुच्चय जीव का द्वार १ समुच्चय जीव में- जीव के १४ भेद, गुणस्थानक १४ योग १५ उपयोग १२, लेश्या ६ । २ गाते द्वार · १ नरकगति में जीव के भेद तीन-संज्ञी का अप र्याप्त और पर्याप्त व अज्ञी पंचेन्द्रिय का अपर्याप्त । गुण स्थानक ४ प्रथम के, योगे ग्यारा ४ मन के ४ वचन के, १ वैक्रिय १ वैक्रियमिश्र, १ कार्मण काय एवं ११, उपयोग - ३ ज्ञान, ३ अज्ञान ३ दर्शन; लेश्या ३ प्रथम । २ तिर्यच गति में - जीव के भेद १४, गुणस्थानक ५ प्रथम, योग १३ आहारिक के दो छोड़ कर ) उपयोग ६- ३ ज्ञान, ३ अज्ञान, ३ दर्शन; लेश्या ६ । ३ तिर्यंचनी में - जीव के भेद २ -संज्ञी का । गुणस्थानक ५ प्रथम, योग १३ आहारिक के दो छोड़ कर । उपयोग ६-३ ज्ञान, ३ अज्ञान, ३ दर्शन; लेश्या ६ । ४ मनुष्य गति में - जीव के मेद ३ - संज्ञी के दो Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थोकडा संग्रह। और १ असंज्ञी पंचेंद्रिय का अपर्याप्त एवं ३, गुण स्थानक १४, योग १५, उपयोग १२, लेश्या ६ । ५ मनुष्यनी में-जीव के भेद २- संशी का । गुणस्थानक १४, योग १३ आहारिक के दो छोड़ कर, उपयोग १२, लेश्या ६। ६देव गति में-जीव के भेद ३-दो संज्ञी के और १ असंही पंचद्रिय का अपर्याप्त एवं ३ गुणस्थानक ४ प्रथम, योग ११-४ मनके, ४ वचन के, २ वैक्रिय के और १ कामेण काय एवं ११, उपयोग :-३ ज्ञान, ३ अज्ञान, ३ दर्शन एवं है, लेश्या ६। । ७ देवाङ्गना में-जीव के भेद २-संज्ञी का, गुणस्थानक ४ प्रथम, योग ११-४ मन का, ४ वचन का, २ वैक्रिय का १ कार्मण काय, उपयोग ६-३ अज्ञान, ३ ज्ञान, ३ दर्शन एवं ६, लेश्या ४ प्रथम । सिद्ध गति में-जीव का भेद नहीं, गुण स्थानक नहीं योग नहीं, उपयोग २. केवल ज्ञान और केवल दर्शन, तश्या नहीं। १रक गति प्रमुख आठ बोल में रहे हुवे जीवों का . अल्प वहुत्व । सर्व से कम मनुष्यनी उससे मनुष्य असंख्यात पुणा ( समुर्छिम के मिलने से ) उससे नेरिये असंख्यात पुणा उससे तिर्य चानी असंख्यात गुणी उससे देव असं Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बड़ा बांसठीया। ( ३१५) ख्यात गुणा उससे देवाङ्गना संख्यात गुणी व उससे सिद्ध अनन्त गुणा व उनसे तियेच अनन्त गुणा । ३ इन्द्रिय द्वार १ सइन्द्रिय में--जीव के भेद १४, गुणस्थानक १२ प्रथम, योग १५, उपयोग १० केवल के दो छोड़ कर । लेश्या ६। २ एकेन्द्रिय में-जीव के भेद ४ प्रथम । गुणस्थानक १ प्रथम योग ५ -२औदारिक का, २ वैक्रिय का १ कार्मण काय । उपयोग ३.-२ अज्ञान का और १ अचक्षु दर्शन लेश्या ४ प्रथम। बेइन्द्रिय, त्रिइन्द्रिय चौरिन्द्रिय- इनमें जीव के भेद दो दो, अपर्याप्त और पर्याप्त । गुणस्थानक २ प्रथम । योग ४.-२ औदारिक का १ कार्मण काय १ व्यवहार वचन उपयोग बेइन्द्रिय में पांच उपयोग--२ ज्ञान अज्ञान--२ दर्शन चक्षु दर्शन और अचच दर्शन, लेश्या ३ प्रथम । पंचेन्द्रिय में-जीव के भेद ४--संज्ञी पंचेंद्रिय और असज्ञी पंचेंद्रिय इन दो का अपर्याप्त और पर्याप्त । गुण स्थानक १२ प्रथम योग १५ उपयोग १०-केवल के दो छोड़ कर । लेश्या ६। । . अनिन्द्रिय में-जीव का भेद १--संज्ञी का पर्याप्त । गुणस्थानक २-- (१३ वां और १४ वां ), योग ७-१ सत्य मन २ व्यवहार मन ३ सत्य वचन ४ व्यवहार वचन Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थोकडा संग्रह। ५ औदारिक मिश्र ७ कामण काय । उपयोग २--केवल दर्शन । लेश्या १--शुक्ल । सइन्द्रिय प्रमुख सात बोल में रहे हुवे जीवों का अल्प बहुत्व १ सर्व से कम पंचेन्द्रिय २ इससे चौरिन्द्रिय विशेष धिक ३ इससे त्रिइन्द्रिय विशेषाधिक ४ इससे बेइन्द्रिय विशेषाधिक ५ इससे अनिन्द्रिय अनन्त गुणे (सिद्ध आश्री) ६ इससे एकेन्द्रिय अनंत गुणे ( वनस्पति आश्री) ७ इससे सइन्द्रिय विशेषाधिक। ४ काय द्वार १ सकाय में-जीव के भेद १४ गुण स्थानक १४ योग १५ उपयोग १२ लेश्या ६ २-३-४ पृथ्वा काय, अपकाय वनस्पति काय:इन तीनों में जीव के भेद ४ सूक्ष्म एकेन्द्रिय व बादर एकेन्द्रिय का अपर्याप्त और पर्याप्त एवं ४ गुण स्थानक ? प्रथम योग ३ दो औदारिक का और १ कार्मण काय उपयोग ३-२ अज्ञान और १ अचक्षु दर्शन लेश्या ४ प्रथम । ५-६ तेजस् काय, वायु काया-में जीव के भेद ४ पृथ्वी वत, गुण स्थानक १ प्रथम, योग तैजसू में ३ पृथ्वी वत् वायु में ५-दो औदारिक का और दो वैक्रिय का, एक कामेण उपयोग ३ पृथ्वी वत् लेश्या ३ प्रथम । Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बड़ा बांसठीया। ( ३१७) ७ त्रस काय में-जीव के भेद १-एकेंद्रिय के चार छोड़ कर । गुण स्थानक १४, योग १५ उपयोग १२ लेश्या ६। ८अकाय-जीव के भेद नहीं, गुण स्थानक नहीं योग नहीं, उपयोग २ केवल के, लेश्या नहीं। सकाय प्रमुख आठ बोल में रहे हुवे जीवों का अल्प बहुत्व । १ सर्व से कम त्रस काय २ इससे तैजस काय असं. ख्यात गुणा ३ इससे पृथ्वी काय दिशाधेिक ४ इससे अप् काय विशेषाधिक ५ इससे वायु काय विशेषाधिक ६इससे अकाय अनन्त गुणा ७ इससे वनस्पति काय अनंत गुणा ८इससे सकाय विशेषाधिक । ५ योग द्वार सयोग में-जीव के भेद १४, गुण स्थानक १३ प्रथम योग १५ उपयोग १२, लेश्या ६ । २ मन योग में-जीव का भेद १ संज्ञी का पर्याप्त गुण स्थानक १३, योग १४, कार्मण का छोड़ कर, उपयोग १२ लेश्या ६। ३ वचन योग में जीव के भेद ५ बेइन्द्रिय, त्रिइन्द्रिय चौरिन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय, संज्ञी पंचेन्द्रिय एवं ५ का पर्याप्त गुण स्थानक १३, योग १४ कामण छोड़ कर उपयोग १२ लेश्या ६। Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थोकडा संग्रह। ४ काय योग में:-जीव के भेद १४ गुणस्थानक १३ योग १५ उपयोग १२ लेशा ६। ५ अयोग में:-जीव का भेद १ संज्ञी का पर्याप्त गुण स्थानक १-चौदहवां योग नहीं, उपयोग २ केवल के लेश्या नहीं। सयोग प्रमुख पांच बोल में रहे हुवे जीवों का अल्प बहुत्व। १ सर्व से कम मन योगी २ इस से वचन योगी असख्यात गुणे ३ इस से अयोगी अनन्त गुणे ४ इस से काय योगी अनन्त गुणे ५ इस से सयोगी विशेषाधिक । ६देव द्वार १ सवेद में जीव के भेद १४, गुण स्थानक ६ प्रथम योग १५, उपयोग १०. केवल के दो छोड़ कर लेश्या ६ २ स्त्री वेद में-जीव के भेद २- संज्ञी का गुण स्थानक ६ प्रथम, योग १३ श्राहारिक के दो छोड़ कर उपयोग १० फेवल के दो छोड़ कर लेश्या ६ । ३ पुरुष वेद में: जीव के भेद २ संज्ञी के गुण स्थानक ६ प्रथम योग १५, उपयोग १० केवल के दो छोड़ कर लेश्या ६। ४ नपुंसक वेद में:-जीव के भेद १४, गुण स्थानक ६ प्रथम, योग १५, उपयोग १०-केवल के दो छोड़ कर, लेश्या ६। Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बड़ा बांसठीया | ( ३१६ ) वेद में जीव का भेद १- संज्ञी का पर्याप्त, गुणस्थानक ६ नववें से चौदहवें तक, योग ११-४ मन के ४ वचन के २ औदारिक के, १ कार्मण; उपयोग ६-पांव ज्ञान का और ४ दर्शन का लेश्या १ शुक्ल । सवेद प्रमुख पांच बोल में रहे हुवे जीवों का अल्प बहुत्व | १ सर्व से कम पुरुष वेदी २ इस से स्त्री वेदी संख्यात गुणा ३ इससे अवेदी अनन्त गुणा इस से नपुंसक वेदी अनन्त गुण ५ इस से संबंदी विशेषाधिक | ७ कषाय द्वार १ सकषाय में - जीव के मेद १४, गुण स्थानक १० प्रथम योग १५, उपयोग १० केवल के दो छोड़ कर, लेश्या ६ । २- ३-४ क्रोध, मान, और माया कषाय में जीव के भेद १४, गुणस्थानक ६ प्रथम, योग १५ उपयोग १० लेश्या ६ । ५ लोभ कषाय में- जीव के भेद १४, गुण स्थानक १० योग १५, उपयोग १०, लेश्या ६ । , ६ अकषाय में जीव का भेद १ संज्ञी का पर्याप्त, गुण स्थानक ४ प्रथम ऊपर के योग ११, ४ मन के ४ वचन के २ औदारिक के १ कार्मण का । उपयोग ६ पांच ज्ञान का और ४ दर्शन का, लेश्या १ शुक्ल | Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थोकडा संग्रह | ( ३२० ) सकषाय प्रमुख ६ बोल में रहे हुवे जीवों का अल्प बहुत्व १ सर्व से कम अकषायी २ इससे मान कषायी अनंत गुणा ३ इससे क्रोध कषायी विशेषाधिक ५ लोभ कषायी विशेषाधिक ६ सकषायी विशेषविक । दलेश्या द्वार १ सलेश्या में - जीव के भेद १४, गुण स्थानक १३ प्रथम योग १५, उपयोग १२, लेश्या ६ । २- ३-४ कृष्ण. नील, कापोत लेश्या में जीव के भेद १४ गुण स्थानक ६ प्रथम योग १५ उपयोग १० केवल के दो छोड़कर लेश्या १ अपनी २ | ५ तेजोलेश्या में - जीव का भेद ३ - दो संज्ञो के और एक बादर एकेंद्रिय का अपर्याप्त गुण स्थानक ७ प्रथम योग १५, उपयोग १०, लेश्या १ अपने खुद की । ६ पद्म लेश्या में - जीव का भेद २ संज्ञी का, गुण स्थानक ७ प्रथम, योग १५ उपयोग १० लेश्या १ अपनी ७ शुक्ल लेश्या में - जीव के भेद २ संज्ञी के गुण स्थानक १३ प्रथम, योग १५ उपयोग १२, लेश्या १ अपनी | ८ अश्या में जीव का भेद नहीं, गुण स्थानक १ चौदहवां, योग नहीं, उपयोग २ केवल के. लेश्या नहीं सलेश्या प्रमुख आठ बोल में रहे हुवे जीवों का अल्प बहुत्व | Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बड़ा बांसठीया । ( ३२१) norm.inmonam १ सवे से कम शुक्ल लेश्यी २ इस से पद्मलेश्यी संख्यात गुणा ३ इस से तेजो लेश्यी संख्यात गुणा ४ इस से अलेश्यी अनन्त गुणा ५ इस से कपोत लेश्यी अनन्त गुणा ६ इस से नील लेश्यी विशेषाधिक ७ इस से कुष्ण लेश्यी विशेषाधिक ८ इस से सलेश्यी विशेषाधिक। समकित द्वार। १ सम्यक दृष्टि में जीव का भेद ६-बेइन्द्रिय, त्रिइन्द्रिय, चौरिन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय एवं चार का अपर्याप्त और संज्ञी पंचेन्द्रिय का अपर्याप्त व पर्याप्त एवं ६, गुण स्थानक १२ पहेला और तीसरा छोड़कर, योग १५ उपयोग 8 पांव ज्ञान और चार दर्शन लेश्या ६। २ मिथ्या दृष्टि में जीव का भेद १४ गुण स्थानक १, योग १३ आहारिक के दो छोड़कर, उपयोग ६-३ अज्ञान और ३ दर्शन, लेश्या ६।। सम्यक् दृष्टि प्रमुख बोल में रहे हुवे जीवों का अल्प बहुत्व । १ सवे से कम मिश्र दृष्टि २ इस से सम्यक् दृष्टि अनन्त गुणा ३ इस से मिथ्या दृष्टि अनन्त गुणा । १० ज्ञान द्वार। १ समुच्चय ज्ञान में जीव का भेद ६ सम्यक दृष्टि चत, गुण स्थानक १२, योग १५, उपयोग है, लेश्या ६ सम्यक दृष्टि वत् । ___ Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२२) थोकडा संग्रह। २-३ मति ज्ञान श्रुत ज्ञान में जीव का भेद ६ सम्यक दृष्टि वत् , गुण स्थानक १० पहला, तीसरा, तेरहवां, चौदहवां छोड़ कर, यांग १५, उपयोग ७, ४ ज्ञान और ३ दर्शन, लेश्या ६ । ४ अवधि ज्ञान में जीव का भेद २ मंज्ञो का, गुग स्थानक १० मति ज्ञान वत्, योग १५, उपयोग ७, लश्या ६। ५ मनः पयव ज्ञान में जीव का भेद १ संज्ञी का पयोप्त गुण स्थानक ७ छठे से बारहवें तक, याग १४, कामण का छोड़कर, उपयोग ७, लेश्या ६। ६ केवल ज्ञान में जीव का भेद १ संज्ञी पर्याप्त गुण स्थानक २-तेरहवां चौदहवां, योग ७-सत्य मन, सत्य वचन व्यवहार मन, व्यवहार वचा, दो औदारिक का, एक कामेण एवं ७; उपयोग दो केवल के लेश्या १शुक्ल । ७-८-६ समुच्चय अज्ञान, मति अज्ञान, श्रुत अज्ञान-इन तीन में जीव का भेद १४, गुण स्थानक २पहेला और तीसरा, योग १३-पारिक के दो छोड़कर, उपयोग ६-तीन अज्ञान और ३ दर्शन, लेश्या ६ । १० विभंग अज्ञान में-जीव का भेद २-संज्ञी का-गुण स्थानक २-पहेला और तीसरा, योग १३, उपयोग ६, लेश्या ६।। समुच्चय ज्ञान प्रमुख दश बोल में रहे हुवे जीवों का Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बड़ा बांसठीया। ( ३२३) अल्प बहुत्व-सर्व से कम मनः पयेव ज्ञानी, २ इससे अवधि ज्ञानी असंख्यात गुणा ३ इससे मति ज्ञानी व ४ श्रुत ज्ञानी परस्पर बराबर व पूर्व से विशेषाधिक ५ इससे विभंग ज्ञानी असंख्यात गुणा ६ इससे केवल ज्ञानी अनन्त गुणा ७ इससे समुच्चय ज्ञानी विशेषाधिक ८ इससे मति अज्ञानी व 8 श्रुत अज्ञानी परस्पर बराबर व पूर्व से अनन्त गणे । १० इससे समुच्चय अज्ञानी विशेषाधिक । ११ दर्शन द्वार १ चक्षु दर्शन में जीव का भेद ६-चौरिन्द्रिय, असंज्ञी पंचीन्द्रय, संज्ञी पंचेन्द्रिय इन तीन का अपर्याप्त और पर्याप्तः गुण स्थानक १२ प्रथम; योग १४-कामण को छोड़कर,उपयोग १०-केवल के दो छोड़ कर; लेश्या ६। ___ २ अचक्षु दर्शन में-जीव का भेद १४, गुणस्थानक १२, योग १५, उपयोग १०, लैश्या ६ । अवधि दर्शन में-जीव का भेद २--संज्ञी का, गुण स्थानक १२, योग १५, उपयोग १०, लेश्या ६ ।। केवल दर्शन में-जीव का भेद १ संज्ञी पर्याप्त, गुणस्थानक २-१३ वां, १४ वां, योग ७ केवल ज्ञान वत्, उपयोग २-केवल का, लेश्या १ शुक्ल । ___चक्षु दर्शन प्रमुख चार बोल में रहे हुवे जीवों का अल्प बहुत्व १ सर्व से कम अवधि दर्शनी २ इससे Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२४) थोकड। संग्रह। चक्षु दर्शनी असंख्यात गुणा ३ इससे केवल दर्शनी अनन्त गुणा ४ इससे अचक्षु दर्शनी अनन्त गुणा । १२ संयत द्वार १ संयत (समुच्चय संयम ) में जीव का भेद १ संज्ञी का पर्याप्त, गुण स्थानक ह-छठे से चौदहवे तक योग १५ उपयोग ह-तीन अज्ञान के छोड़कर; लेश्या ६। २.३ सामायिक व छेदापस्थानिक में-जीव का भेद १ संज्ञी का पर्याप्त, गुण स्थानक ४-छह से नवरे तक, योग १४ कार्मण का छोड़कर, उपयोग ७ । चार ज्ञान प्रथम व तीन दर्शन, लेश्या ६।। ४ परिहार विशुद्ध में-जीव का भेद १ संज्ञी का पर्याप्त, गुण स्थानक २-छ। व सातदाँ, योग 8-४ मन के ४ वचन के १ औदारिक का, उपयोग ७-४ ज्ञान का ३ दर्शन का, लेश्या ३ ( ऊपर की)। ____५ सूक्ष्म संम्पराय में-जीव का भेद १ संज्ञी का पर्याप्त, गुण स्थानक १.दशवा, योग ६, उपयोग ७ लेश्या १-शुक्ल । ६ यथास्यात में-जीव का भेद १ संज्ञी का पर्याप्त गुण स्थानक ४. ऊपर के, योग ११-४ मन के ४ वचन के २ औदारिक के व १ कामेण का, उपयोग ह-तीन अज्ञान के छोड़कर, लेश्या १ शुक्ल । ७ संयता संयत में जीव का भेद १ संज्ञी का Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बड़ा बांसठीया । ( ३२५ ) पर्याप्त गुण स्थानक १ पांचवाँ, योग १२-२ आहारिक का व एक कार्मण का एवं तीन छोड़कर, उपयोग ६.. तीन ज्ञान व तीन दर्शन लेश्या ६। ८ असंयत में-जीव का भेद १४, गुण स्थानक ४ प्रथम के, योग १३. आहारिक का २ छोड़कर, उपयोग : ३ ज्ञान के, ३ अज्ञान के, ३ दर्शन के, लेश्या । नोसंयत नो असंयत नो संयता संयत मेंजीव का भेद नहीं गुण स्थानक नहीं योग नहीं, उपयोग २ केवल का, लेश्या नहीं। __ संयत प्रमुख नव बोल में रहे हुवे जीवों का अल्प बहुत्व । १ सर्व से कम सूक्ष्म संपराय चारित्री २ इससे परि. हार विशुद्धिक चारित्री संख्यात गुणा ३ इससे यथाख्यात चारित्री संख्यात गुणा ४ इससे छेदोपस्थापनिक चारित्री संख्यात गुणा ५ इससे सामायिक चारित्री संख्यात गुणा ६ इससे संयति विशेषाधिक ७ इससे संयता संयती असं. ख्यात गुणा ८ इससे नोसंयति नोसंयता संयति अनन्त गुणा ६ इससे असंयति अनन्त गुणा। १३ उपयोग द्वार १ साकार उपयोग में-जीव का भेद १४, गुण स्थानक १४, योग १५, उपयोग १२, लेश्या ६।। २ अनाकार उपयोग में-जीव का भेद१४, गुण Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२६) . थोकडा संग्रह। स्थानक १३-दशवाँ छोड़ कर, योग १५, उपयोग १६, लेश्या ६। साकार प्रमुख दो बोल में रहे हुवे जीवों का अल्प बहुत्व १ सर्व से कम अनाकार उपयोगी २ इससे साकार उपयोगी संख्यात गुणा । १४ आहार द्वार पाहारिक में-जीव का भेद १४, गण स्थानक १३ प्रथम, योग १४ काभण का छोड़ कर, उपयोग १२ लेश्या ६। ____ अनाहारिक में-जीव का भेद ८-सात अपर्याप्त और संज्ञी का पर्याप्त, गुण स्थानक ५-१, २, ४, १३, १४, योग १ कामेण का, उपयोग १०-मनः पयेव ज्ञान व चक्षु दर्शन छोड़ कर, लेश्या ६। ___आहारिक प्रमुख दो बोल में रहे हुवे जीवों का अल्प बहुत्व । १ सर्व से कम अनाहारिक इससे २ आहारिक असं. ख्यात गुणा। १५ भाषक द्वार भाषक में:-जीव का भेद ५, बेइन्द्रिय, त्रिइन्द्रिय चौरिन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय, संज्ञी पंचेन्द्रिय एवं ५ का पयोप्त, गुण स्थानक १३ प्रथम का, योग १४ कामेण का छोड़ कर; उपयोग १२, लेश्या ६। Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बड़ा बांसठोया। ( ३२७ ) श्रभाषक में-जीव का भेद १०-इन्द्रिय, विहन्द्रिय चौरिन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय एवं चार के पर्याप्त छोड़ कर, मुण स्थानक ५-१, २, ४, १३, १४, योग ५.२ औदारिक का २ वैक्रिय का, १ कार्मण का उपयोग ११-मनः पर्यव ज्ञान का छोड़ कर, लेश्या ६। भाषक प्रमुख दो बोल में रहे हुवे जीवों का अल्प बहुत्व। १६ परित द्वार परित में-जीव के भेद १४, गुण स्थानक १४, योग १५, उपयोग १२ लेश्या ६।। २ अपरित में-जीव का भेद १४, गुण स्थानक १ पहेला, योग १३ आहारिक के दो छोड़ कर, उपयोग ६ ३ अज्ञान ३.दर्शन, लेश्या ६। ३ नो पति नो अपरित में-जीव का भेद नहीं गुण स्थानक नहीं, योग नहीं, उपयोग २ केवल के लश्या नहीं। परित प्रमुख तीन बोल में रहे हुवे जीवों का अल्प बहुत्व। १ सर्व से कम परित २ इससे नो परित नो अपरित अनन्त गुणा ३ इससे अपरित अनन्त गुणा । १७ पर्याप्त द्वार १ पर्याप्त में जीव का भेद ७, गुण स्थानक १४ योग १५, उपयोग १२, लेश्या ६। Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२८) थोकडा संग्रह। २ अपर्याप्त में जीव का भेद ७, गुण स्थानक ३-१ २, ४, योग ५.२ औदारिक का, २ वैक्रिय का, १ कामण का, उपयोग ह.३ ज्ञान ३ अज्ञान ३ दर्शन लेश्या ६। ३ नो पर्याप्त नो अपर्याप्त में--जीव का भेद नहीं, गुणस्थानक नहीं, योग नहीं, उपयोग २ केवल का, लेश्या नहीं पर्याप्त प्रमुख तीन बोल में रहे हुवे जीवों का अल्प बहुत्व १ सर्व से कम नो पर्याप्त नो अपर्याप्त २ इससे अपर्याप्त अनन्त गुणा ३ इससे पर्याप्त संख्यात गुणा । १८ सूक्ष्म द्वार १ सूक्ष्म में-जीव का भेद २ सूक्ष्म एकेन्द्रिय का अपर्याप्त व पर्याप्त, गुण स्थानक १ पहला, योग ३-२ औदारिक तथा १ कार्मण उपयोग ३-२ अज्ञान व १ अचक्षु दर्शन, लेश्या ३ पहेली। २ बादर में-जीवका भेद १२- सूक्ष्म का २ छोड़ कर, गुणस्थानक १४, योग १५, उपयोग १२, लेश्या ६। ३ नो सूक्ष्म नो बादर में-जीव का भेद नहीं गुणस्थानक नहीं, उपयोग २ केवल का, लेश्या नहीं । सूक्ष्म प्रमुख तीन बोल में रहे हुवे जीवों का अल्प बहुत्व १ सर्व से कम नो सूक्ष्म नो बादर २ इससे बादर अनन्त गुणा ३ इससे सूक्ष्म असंख्यात गुणा । १६ संज्ञी द्वार १ संज्ञी में-जीव का भेद २, गुणस्थानक १२ पहेला Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बड़ा बांसठीया । (३२६) योग १५, उपयोग १०-केवल का दो छोड़ कर, लेश्या ६। ___ २ असंज्ञी में-जीव का भेद १२--संज्ञी का दो छोड़ कर, गुणस्थानक २ पहेला, योग ६-२ औदारिक का, २ वकिय का, १ कार्मण का १ व्यवहार वचन, उपयोग ६.-२ ज्ञान का २ अज्ञान का २ दर्शन का, लेश्या ४ प्रथम नो संज्ञी नो असंज्ञी में जीव का भेद १ संज्ञी का पयोप्त, णस्थानक २, १३ वां, १४ वां, योग ७ केवल ज्ञान वत्, उपयोग २ केवल का, लेश्या १ शुक्ल । संज्ञी प्रमुख तीन बोल में रहे हुवे जीवों का अल्प बहुत्व १ सर्व से कम संज्ञी २ इससे नो संज्ञी नो असंज्ञी अनन्त गुणा । ३ इससे असंज्ञी अनन्त गुणा । २० भव्य द्वार । १ भव्य में जीव का भेद १४ गुण स्थानक १४, योग १५, उपयोग १२, लेश्या ६। ... २ अभव्य में जीव का भेद १४, गुण स्थानक १ पहेला योग १३ अाहारिक के दो छोड़ कर, उपयोग ६ ३ अज्ञान ३ दर्शन, लेश्या ६।। ३ नो भव्य नो भव्य में जीव का भेद नहीं, गुण स्थानक नहीं, योग नहीं, उपयोग २ लेश्या नहीं। . भव्य प्रमुख तीन बोल में रहे हुवे जीवों का अल्प बहुत्व। Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३० ) थोकडा संग्रह | १ सर्व से कम भव्य २ इस से नो भव्य नो अभव्य अनन्त गुणा ३ इस से भव्य अनन्त गुणा | २१ चरम द्वार | १ चरम में जीव का भेद १४, गुण स्थानक १४ योग १५, उपयोग १२, लेश्या ६ । २ चरम में जीव का भेद १४, गुण स्थानक १ पहला, योग १३ आहारिक का दो छोड़ कर, उपयोग १ ३ अज्ञान ३ दर्शन, लेश्या ६ | चरम प्रमुख दो बोल में रहे हुवे जीवों का अल्प बहुत्व | १ सर्व से कम चरम २ इस से चरम अनन्त गुणा । एवं दो गाथा के २१ बोल द्वार पर ६२ बोल कहे, तदुपरान्त अन्य वीतराग प्रमुख पांच बोल चौदह गुण स्थानक व पांच शरीर पर ६२ बोल १ वीतराग में जीव का भेद १ संज्ञो का पर्याप्त, गुण स्थानक ४ ऊपर का योग ११ -२ आहारिक तथा २ वैक्रिय का छोड़कर, उपयोग ६ - ५ ज्ञान ४ दर्शन, लेश्या १ शुक्ल । २ समुच्चय केवली में जीव का भेद २ संज्ञी का, गुण स्थानक ११ ऊपर का, योग १५, उपयोग ६, ५ ज्ञान ४ दर्शन, लेश्या ६ । ३ युगल ( युगलियों) में जीव का भेद २ संज्ञी Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बड़ा बांठीया । ( ३३१ ) का गुण स्थानक २, १ ला व ४ था, योग ११, ४ मन के ४ वचन के २ औदारिक के १ कार्मण का उपयोग ६ २ ज्ञान का, २ अज्ञान का व २ दर्शन का लेश्या ४ प्रथम । ४ संज्ञी तिर्यंच पंचेन्द्रिय में जीव का भेद २, ११ वाँ व १२ वाँ, गुण स्थानक २ - ( १-२ ), योग ४ २ औदारिक का १ व्यवहार वचन व १ कार्मण का, उपयोग ६-२ ज्ञान २ अज्ञान २ दर्शन लेश्या ३ प्रथम । ५ श्रसंज्ञी मनुष्य में - जीव का भेद १-११ वाँ, गुण स्थानक १ पहेला, योग ३,२ औदारिक का, १ कार्मण का उपयोग ३,२ अज्ञान १ चक्षु दर्शन, लेश्या ३ प्रथम । वीतराग प्रमुख पांच बोल में रहे हुवे जीवों का अल्प बहुत्व | सर्व से कम युगल २ इससे असंज्ञी मनुष्य असंख्यात गुणा ३ इससे असंज्ञी तिच पंचेन्द्रिय असंख्यात गुणा ४ इससे वीतरागी अनन्त गुणा ५ इससे समुच्चय केवली विशेषाधिक । गुण स्थानक १ मिथ्यात्व में - जीव का भेद १४, गुणस्थानक १ पहेला, योग १३ श्राहारिक दो छोड़कर, उपयोग ६ - ३ अज्ञान ३ दर्शन, लेश्या ६ । Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३२) थोकडा संग्रह। - २ सास्वादान सम्यकदृष्टि में-जीव का भेद ६ सम्यक् दृष्टि वत्, गुण स्थानक १ दूसरा, योग १३ आहारिक का दो छोड़कर, उपयोग ६.३ ज्ञान ३ दर्शन लेश्या ६। . ३ मिश्र दृष्टि में-जीव का भेद १ संज्ञी का पर्याप्त, गुण स्थानक १ तीसरा, याग १०-४ मन के, ४ वचन के १ औदारिक का १ वैक्रिय का, उपयोग ६.३ अज्ञान ३ दर्शन, लेश्या ६। ४ अव्रती सम्यक् दृष्टि में-जीव का भेद २ संज्ञी का गुण स्थानक १ चोथा, योग १३ सास्वादन सम्यक् दृष्टि वत् उपयोग ६-३ ज्ञान ३ दर्शन, लेश्या ६। ५ देश व्रती ( संयता संयति ) में -जीव का भेद ? १४ वाँ, गुण स्थानक १ पांचवाँ, योग १२-२ आहारिक का व १ कामेण का छोड़कर उपयोग ६-३ ज्ञान ३ दर्शन लेश्या ६। ६ प्रमत्त संयति में जीव का भेद १ गुण स्थानक १.छठा योग १४ कार्मण का छोड़कर, उपयोग ७-४ ज्ञान ३ दर्शन, लेश्या ६ । ७ अप्रमत्त संयति में-जीव का भेद १ गुणस्थानक ८ योग ११.४ मन के ४ वचन के १ औदारिक १ वैक्रिय १ आहारिक, उपयोग ७.४ ज्ञान ३ दर्शन, लेश्या ३ ऊपर की। Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बड़ा बांसठीया। (३३३ ) aaaaaaamanaras _____८ नी० बा०६ अनी. बा. १० सूक्ष्म सं० ११ उप० मो० १२ क्षीण मो०- में जीव का भेद १ संज्ञी का पर्याप्त, गुणस्थानक अपना २ योग 8.-४ मनके ४ वचन के १ औदारिक उपयोग ७..४ ज्ञान ३ दर्शन लश्या १ शुक्ल । १३ सयोगी के वली में जीव का भेद १, गुणस्थानक १ तेरहवां, योग ७-२ मनके २ वचन के, २ औदारिक के १ कामण उपयोग२- केवल का । लेश्या१शुक्ल । १४ अयोगी केवली में जीव का भेद १, गुणस्थानक १, योग नहीं, उपयोग २ केवल के, लेश्या नहीं। चौदह गुणस्थानक में रहे हुवे जीवों का अल्प बहुत्व १ सर्व से कम उपशम मोहनीय वाला २ इससे क्षीण मोहनीय वाला संख्यात गुणा ३ इससे अाठवें, नववे दशवें गुणस्थानक वाले परस्पर तुल्य व संख्यात गुणे, ४ इससे सयोगी केवली संख्यात गुणा ५ इससे अप्रमत्त संयत गुणस्थानक वाला संख्यात गुणा ६ इससे प्रमत्त सयंत गुणस्थानक वाला संख्यात गुणा ७ इससे देश व्रती असंख्यात गुणा ८ इससे सास्वादन सम्यक् दृष्टि असंख्यात गुणा 8 इससे मिश्र दृष्टि असंख्यात गुणा १० इससे अवती समदृष्टि असख्यात गुणा ११ इससे अयोगी केवली (सिद्ध सहित ) अनन्त गुणा १२ इससे मिथ्यादृष्टि अनन्त गुणा। Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३३४) थोकडा संग्रह। - शरीर द्वार १ औदारिक में-जीव का भेद १४, गणस्थानक १४, योग १५, उपयोग १२, लेश्या ६ । वैक्रिय में-जीव का भेद ४-दो संज्ञी का, एक असंज्ञी पंचीन्द्रय का अपर्याप्त व बादर एकोन्द्रय का का पाप्त गुणस्थानक ७ प्रथम; योग १२-दो आहारिक का, १ कामेण छोड़ कर; उपयोग १०-केवल के दो छोड़ कर; लेश्या ६। आहारिक में-जीव का भेद १ संज्ञी का पर्याप्त । गुणस्थानक २-६ व ७ योग १२--दो वैक्रिय व १कार्मण छोड़ कर, उपयोग ७.४ ज्ञान व दर्शन, लेश्या ६। ४ तेजस् कार्मण में जीव का भेद १४, गुणस्थानक १४, योग १५, उपयोग १२, लेश्या ६।। ... औदारिक प्रमुख पांच शरीर में रहे हुवे जीवों का अल्प बहुत्व १ सर्व से कम आहारिक शरीर २ इससे वैक्रिय शरीर असंख्यात गुणा ३ इससे औदारिक शरीर असंख्यात गुणा ४ इससे तैजस व कार्मण शरीरी परस्पर तुल्य व अनन्त गुणे । ॥ इति बड़ा बासठीया सम्पूर्ण ॥ Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बावन बोल । (३३५) बावन बोल पहेला द्वार-समुच्चय जीव का। १ समुच्चय जीव में-भाव ५, उदय, उपशम, दायक, क्षयोपशम, परिणामिक आत्मा ८ लब्धि ५ वीर्य ३ दृष्टि ३ भव्य २ दण्डक २४ पक्ष २ । १ गति द्वार के ८ भेद १ नारकी में-भाव ५, आत्मा ७, (चारित्र छोड़ कर ) लब्धि ५, वीर्य १ बाल वीय, दृष्टि ३, भव्य अभव्य २, दण्डक १ नारकी का, पक्ष २ । १ तिर्यंच में भाव ५, आत्मा ७ (चारित्र छोड़ कर) लब्धि ५, वीय १-बाल वीर्य व बाल पांडत वीर्य डाष्ट ३, भव्य अभव्य २, दण्डक :-पांच स्थावर, तीन विकले. इन्द्रिय, एक तिर्यच पंचेन्द्रिय, पक्ष २। तिर्यचनी में-भाव ५, आत्मा ७ ऊपरवत, लब्धि ५, वीर्य दो दृष्टि ३ भव्य अभव्य २ दण्डक १ पक्ष दो। ४ मनुष्य में-भाव ५, आत्मा ८ लब्धि ५ वीये ३ दृष्टि ३ भव्य अभव्य २, दण्डक १ मनुष्य का, पक्ष २। ' मनुष्यनी में:- भाव ५, आत्मा ८, लब्धि ५, वीय ३, दृष्टि ३, भव्य अभव्य २, दण्डक १ पक्ष । ६ देवता में-भाव ५, पात्मा ७ (बारित्र छोड़ कर) Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३६) थोकडा संग्रह। लब्धि ५, वीर्य १ बाल वीर्य, दृष्टि ३, भव्य अभव्य २, दण्डक १३ देवता का, पक्ष २ । ७ देवाङ्गना में-भाव ५, आत्मा ७, लब्धि ५, वीर्य १ बाल वीर्य, दृष्टि ३, भव्य अभव्य २ दण्डक १३ देवता के, पक्ष २ ।। सिद्ध गति में भाव २ क्षायक, परिणामिक आत्मा ४, द्रव्य, ज्ञान, दर्शन व उपयोग, लब्धि नहीं वीर्य नहीं, वीय नहीं, दृष्टि १ समकित दृष्टि, भव्य अभव्य नहीं दण्डक नहीं, पक्ष नहीं। ३ इन्द्रिय द्वार के ७ भेद १ सहन्द्रिय में भाव ५, प्रात्मा ८, लब्धि ५ वीय ३, दृष्टि ३, भव्य अभव्य २, दण्डक २४ पक्ष २। . २ एकेन्द्रिय में--भाव ३.-उदय, क्षयोपशम परिणामिक आत्मा ६ (ज्ञान चारित्र छोड़कर ) लब्धि ५, वीर्य १ बाल वीर्य, दृष्ट १ मिथ्यात्व दृष्टि,भव्य अभव्य२, दण्डक ५, पक्ष २ ३ बेइन्द्रिय में-भाव ३ ऊार अनुसार प्रात्मा ७ (चारित्र छोड़कर ) लब्धि ५, वीर्य १ ऊपर प्रमाणे, दृष्टि २-समकित दृष्टि व मिथ्यात्व दृष्टि, भव्य अभव्य २, दण्डक १ अपना २ पक्ष २. ४. त्रिइन्द्रिय में भाव ३, प्रात्मा ७, लब्धि ५, Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व वन बोल। (३३७) वीर्य १, दृष्टि २. भव्य अभव्य २, दण्डक १ त्रिइन्द्रिय का, पक्ष २ ५ चौरिन्द्रिय में-भाव ३, आत्मा ७, लब्धि ५ वोर्य १, दृष्टि २, भव्य अभव्य २, दण्डक १ चौरिन्द्रिय का, पक्ष २ ६ पंचेन्द्रिय में-भाव ५, आत्मा ८, लब्धि ५, वीर्य ३, दृष्टि ३, भव्य अभव्य २, दण्डक १६..१३ देवता का, १ नारकी का, १ मनुष्य का एक तिर्यंच का एवं १६ पक्ष २। ७ अनिन्द्रिय में-भाव ३-उदय, क्षायक, परिणामिक आत्मा ७ (कपाय छोड़कर ), लब्धि ५, वीर्य पंडित वीर्य, दृष्टि १ सम्यक दृष्टि, भव्य १, दण्डक १ मनुष्य का, पक्ष १ शुक्ल। ४सकाय के भेद १सकाय में भाव ५, आत्मा ८, लब्धि ५, वीर्य ३ दृष्टि ३, भव्य अभव्य २, दण्डक २४, पक्ष २। - २ पृथ्वी काय ३ अपकाय ४ तेजस् काय.. . ५ वायु काय तथा वनस्पति काय में--भाव ३.. क्षयोपशम, परिणामिक; आत्मा ६ ( ज्ञान चारित्र छोड़ कर); लब्धि ५, वीये १, दृष्टि २, भव्य अभव्य २, दण्डक २ अपना २, पक्ष २। Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३८ ) थोकडा संग्रह। ७त्रस काय में भाव ५, आत्मा ८, लब्धि ५, वीय ३, दृष्टि ३, भव्य अभव्य २, दण्डक १६ ( पांच एकेन्द्रिय का छोड़कर ), पक्ष २। । ..८ अकाय में भाव २, आत्मा ४, लब्धि नहीं वीर्य नहीं, दृष्टि १, नो भवी, नो अभवी, दंडक नहीं पच नहीं। ५ सयोगी द्वार के ५ भेद । १ सयोगी में भाव ५, आत्मा ८, लब्धि ५, वीर्य ३, दृष्टि ३, भव्य अभव्य २, दण्डक २४, पक्ष २ । २ मन योगी में भाव ५, आत्मा ८, लब्धि ५, वीर्य ३, दृष्टि ३, भव्य अभव्य २, दण्डक १६ ( पांच स्थावर, ३ विकलन्द्रिय छोड़कर), पक्ष २। ३ वचन योगी में भाव ५, आत्मा ८, लब्धि ५, वीये ३, दृष्टि ३, भव्य अभव्य २, दण्डक १६ ( पांच स्थावर छोड़कर ), पक्ष २। ४ काय योगी में भाव ५, आत्मा ८, लब्धि ५, वीय ३, दृष्टि ३, भव्य अभव्य २, दण्डक २४, पक्ष २॥ .. ५ अयोगी में भाव ३ उदय, चायक, परिमाणिक, आत्मा ६ ( कषाय, योग छोड़कर ), लब्धि ५, वीय ? पंडित वीय, दृष्टि १ समकित दृष्टि, भव्य १ दएडक १ मनुष्य का, पक्ष १ शुक्ल । ६ सवेद के ५ भेद । १ सवेद में भाव ५, आत्मा ८, लब्धि ५, वीर्य ३, Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बावन बोल। दृष्टि ३, भव्य अभव्य २, दंडक २४, पक्ष २। २ स्त्री धेद में भाव ५, आत्मा ८, लब्धि ५, वीर्य ३, दृष्टि ३, भव्य अभव्य २, दंडक १५ पक्ष २।। ३ पुरुष वेद भाव. ५, आत्मा ८, लब्धि ५, वीर्य ३, दृष्टि ३, भव्य अभव्य २, दंडक १५ पक्ष २।। ४ नपुंसक वेद में भाव ५, आत्मा ८, लब्धि ५, वीर्य ३, दृष्टि ३, भव्य अभव्य २, दंडक ११ ( देवता का १३ छोड़ कर ), पक्ष २। ५ अवेद में-भाव ५, प्रात्मा ८, लब्धि ५, वीर्य १ दृष्टि १, मव्य १, दण्डक १ मनुष्य का, पन १ शुक्ल । ७ कषाय के ६ भेद १ सकषाय में-भाव ५, आत्मा ८, लब्धि ५, वीर्य ३, दृष्टि ३, भव्य अभव्य २ दण्डक २४, पक्ष २ २ क्रोध कषाय में-भाव ५, आत्मा ८, लब्धि ५ वीय ३, दृष्टि ३, भव्य अभव्य २, दण्डक २४, पक्ष २ । ३.मान कषाय में-भाव ५, आत्मा ८, ,लब्धि ५, वीर्य ३, दृष्टि ३, भव्य अभव्य २, दण्डक २४, पक्ष २। ४ माया कषाय में-भाव ५, आत्मा ८, लब्धि ५, वीर्य ३, दृष्टि ३,भव्य अभव्य २, दण्डक २४ पक्ष २ । ५ लोभ कषाय में--भाव ५, श्रात्मा ८, लब्धि ५, वीर्य ३, दृष्टि ३, भव्य अभव्य २, दण्डक २४, पक्ष २ । ६ अकषाय में-भाव ५, आत्मा ७, लब्धि ५, वीर्य Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, दृष्टि १ समकित भव्य १, दण्डंक १ मनुष्य का, पक्ष १ शुक्ल | 9 थोकडा संग्रह | ८ सलेशी के ८ भेद वीर्य -- १ सशी में भाव ५, आत्मा ८, लब्धि ५, ३, दृष्टि ३, भव्य अभव्य २, दण्डक २४ पक्ष २ । २ कृष्ण लेश्या में - भाव ५, आत्मा ८, लब्धि ५, वीर्य ३, दृष्टि ३, भव्य अभव्य २, दण्डक २२ ( ज्योतिषी वैमानिक छोड़ कर ) पक्ष २ | १ नील लेश्या में - भाव ५, आत्मा ८, लब्धि ५ वीर्य ३, दृष्टि ३, भव्य अभव्य २ दण्डक २२ ऊपर प्रमाणे पक्ष २ | कपोत लेश्या में भाव ५, आत्मा ८, लब्धि ५, वीर्य, दृष्टि ३, भव्य अभव्य २, दण्डक २२ ऊपर प्रमाणे, पक्ष २ | तेजोलेश्या में भाव ५, आत्मा ८ लब्धि ५, वीर्य ३ दृष्टि ३, भव्य भव्य २, पक्ष २, दण्डक १८ ( १३ देवता का १ मनुष्य का, १ तिथेच पंचेन्द्रिय का, पृथ्वी, अप; वनस्पति एवं १८ ) ६ पद्म लेश्या में भाव ५, श्रात्मा ८, लब्धि ५, वीर्य ३, दृष्टि ३, भव्य अभव्य २, दंडक ३, वैमानिक, मनुष्य व तिर्यच एवं ३ का पक्ष २ | , ७ शुक्ल लेश्या में भाव ५, श्रात्मा ८, लब्धि ५, Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बावन बोल। (३४१ movr.AAAAAAvvvvv वीर्य ३, दृष्टि ३, भव्य अभव्य २, दंडक ३ ऊपर प्रमाणे, पक्ष २, । ८अलेशी में भाव ३, आत्मा ६, लब्धि ५, वीर्य १, पंडित वीर्य, दृष्टि १, समकित, भव्य १ दंडक १, मनुष्य का, पक्ष १ शुक्ल । समकित के ७ भेद । १ समहष्टि में भाव ५, आत्मा ८, लब्धि ५, वीर्य ३, दृष्टि १ समकित, भव्य १, दंडक १६ (पांच एकेन्द्रिय का दंडक छोड़कर ) पक्ष १ शुक्ल।। २ सास्वादान समहष्टि में भाव ३, (उदय, क्षयोपशम, परिणामिक ), आत्मा ७, लब्धि ५, वीर्य १ बाल वीर्य दृष्टि १ समकित, भव्य १, दंडक १६ (पांच स्थावर छोड़कर ), पक्ष १ शुक्ल । ३ उपराम समदृष्टि में भाव ४ (क्षायक छोड़कर), आत्मा ८, लब्धि ५, वीर्य ३, दृष्टि १, भव्य १, दंडक १६ ( पांच स्थावर, तीन विकलेन्द्रिय छोड़कर), पक्ष १ शुक्ल । ४ वेदक समदृष्टि में भाव ३, आत्मा ८, लब्धि ५, वीर्य ३, दृष्टि १, समकित, भव्य १, दंडक १६ ऊपर प्रमाणे, पक्ष १ शुक्ल। ५ क्षायक समहष्टि में भाव ४ ( उपशम छोड़कर) आत्मा ८, लब्धि ५, वीये ३, दृष्टि १, भव्य १, दंडक १६ पक्ष १ शुक्ल । Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थोकडा संग्रह । ६ मिथ्यात्व दृष्टि में भाव ३, आत्मा ६, लब्धि ५, वीर्य १, दृष्टि १, भव्य अभव्य २, दंडक २४, पक्ष २ । ७ मिश्र दृष्टि में भाव ३, आत्मा ६, लब्धि ५, वीर्य १, बाल वीर्य, दृष्टि १, भव्य १, दंडक १६, पक्ष १ शुक्ल । १० समुच्चय ज्ञान द्वार के १० भेद । १ समुच्चय ज्ञान में भाव ५, आत्मा ८, लब्धि ५, वीर्य ३, दृष्टि १, भव्य १, दंडक १६, पक्ष १ शुक्ल । २ मति ज्ञान ३ श्रुत ज्ञान में भाव ५, आत्मा ८, लब्धि ५, वीर्य ३, दृष्टि १ भव्य १ दण्डक १६, पक्ष १ शुक्ल । ४ अवधि ज्ञान में भाव ५, आत्मा लब्धि ५, वीर्य ३, दृष्टि १ भव्य १, दण्डक १६, पक्ष २ शुक्ल । ५ मनः पर्यव ज्ञान में भाव ५, आत्मा ८, लब्धि ५, वीर्य ३, दृष्टि १, भव्य १, दण्डक १, मनुष्य का, पक्ष १ शुक्ल । ६ केवल ज्ञान में भाव ३, (उदय चायक, परिखामिक) आत्मा ७ ( कषाय छोड़ कर ) लब्धि ५, वीर्य १, दृष्टि १ भव्य १, दण्डक १, पक्ष १; । (३४२ ) * ७ समुच्चय अज्ञान मति अज्ञान ६ श्रुत अज्ञान में- भाव तीन; आत्मा ६, लब्धि ५, वीर्य १ बाल वीर्य, दृष्टि १, मिथ्यात्व दृष्टि, भव्य अभव्य २, दण्डक २४ पक्ष २ । Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बावन बोल । (३५३) १० विभङ्ग ज्ञान म-भाव ३ (उदय, क्षयोपशम परिणामिक ), आत्मा ६ ( ज्ञान चारित्र छोड़ कर), लब्धि ५, वीर्य १ बाल वीर्य, दृष्टि १ मिथ्यात्व, भव्य अभव्य २, दण्डक १६ (पांच स्थावर तीन विकलेन्द्रिय छोड़ कर पक्ष २1 ११ दर्शन द्वार के ४ भेद १ चक्षु दर्शन में भाव ५, अात्मा ८, लब्धि ५, वीर्य ३, दृष्टि ३, भव्य अभव्य २, दण्डक १७, पक्ष २ । २ अचच दर्शन में भाव ५, अात्मा ८, लब्धि ५, वीर्य ३. दृष्टि ३, भव्य अभव्य २, दण्डक २४, पक्ष २ । अवधि दर्शन में- भाव ५, श्रात्मा ८. लब्धि ५, वीर्य ३, दृष्टि ३, भव्य अभव्य २, दण्डक १६, पक्ष २ । केवल दर्शन में- भाव ३, आत्मा ७ (कषाय छोड़ कर ) लब्धि ५, वीर्य १ पलित, दृष्टि १ समकित, भव्य दण्डक १ मनुष्य का, पक्ष १ शुक्ल । १२ समुच्चय संयति का भेद १ संयति में-भाव ५, आत्मा ८, लब्धि ५, वीर्य १ पंडित, दृष्टि १ समकित, भव्य १, दण्डक १, पक्ष १, शुक्ल । २ सामायिक चारित्र व छदोपस्थानिक चारित्र में:-भाव ५, आत्मा ८, लब्धि ५, वीर्य १ पंडित दृष्टि Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थोकडा संग्रह। ananamannnnnnnnnnnnnnnnnn nearrammarrrrrammmmmmmm १ समकित, भव्य १, दण्डक १, पक्ष १ शुक्ल । ___४ परिहार विशुद्ध चारित्र में भाव ५, आत्मा ८, लब्धि ५, वीर्य १ पंडित, दृष्टि १ समकित, भव्य १, दण्डक १ पक्ष १ शुक्ल । ५ सूक्ष्म संपराय चारित्र में- ऊपर प्रमाणे । ६ यथा ख्यात चारित्र में--भाव ५, आत्मा ७ (कषाय छोड़ कर ), लब्धि ५, वीये १, दृष्टि १, भव्य १, दण्डक १, पक्ष १। ७ असंयति में--भाव ५, आत्मा ७ (चारित्र छोड़ कर ) लब्धि ५, वीय १ बाल वीर्य, दृष्टि ३, भव्य अभव्य २, दण्डक २४, पक्ष २। . ८ संयता संयंति में-भाव ५, आत्मा ७ ऊपर अनुसार, लब्धि ५, वीर्य १ बाल पण्डित, दृष्टि १ समकित, भव्य १, दण्डक २, पक्ष १ शुक्ल | ६ नो संयात नो असंयति नो संयता संयति में. भाव २, क्षायक, परिणामिक, आत्मा ४, लब्धि नहीं, वीर्य नहीं, दृष्टि १ समकित, नो भव्य नो अभव्य, दण्डक नहीं, पक्ष नहीं। १३ उपयोग द्वार के २ भेद साकार उपयोग में-भाव ५, आत्मा ८, लब्धि ५, वीर्य ३, दृष्टि ३, भव्य अभव्य २, दण्डक २४, पक्ष २। २ अनाकार उपयोग में-भाव ५, आत्मा ८, Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बावन बोल । (३४५) wwwwwwwwwwww लब्धि ५, वीर्य ३, दृष्टि ३, भव्य अभव्य २, दण्डक २४, पक्ष २। १४ पाहारिक के २ भेद १ आहारिक में-भाव ५, आत्मा ८, लब्धि ५, वीये ३, भव्य अभव्य २, दण्डक २४, पक्ष २। अनाहारिक में- भाव ५, प्रात्मा ८, लब्धि ५, वीर्य दो बाल व पण्डित, दृष्टेि २, भव्य अभव्य २, दण्डक २४ पक्ष २। .१५ भाषक द्वार के २ भेद १ भाषक में-भाव ५, आत्मा ८, लब्धि ५, वीर्य ३, दृष्टि ३, भव्य अमव्य २, दण्डक १६, पक्ष २। २ अभाषक में भाव ५, आत्मा ८, लब्धि ५, वीर्य ३, दृष्टि ३, भव्य अभव्य २, दंड : २४ एक्ष २। १६ परित द्वार के ३ भेद ।। १ परित में भाव ५, आत्मा ८, लब्धि ५, वीर्य . ३, दृष्टि ३, भव्य १. दंडक २४, पक्ष २ शुक्ल । २ अपरित में भाव ३, आत्मा ६, (ज्ञान चारित्र छोड़कर ), लब्धि ५, वीर्य १, दृष्टि १, भव्य अभय २, दंडक २४, पक्ष १ कृष्ण। ३ नो परित नो अपरित में भाव २, आत्मा ४, लब्धि नहीं, वीर्य नहीं, दृष्टि १ समकित, नो भवी नो अभवी, दंडक नहीं, पक्ष नहीं । ___ Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४६ ) थोडा संग्रह १७ पर्याप्त द्वार के ३ भेद । १ पर्याप्त में भाव ५, आत्मा ८, लब्धि ५, वीर्य ३, दृष्टि ३, भव्य भव्य २, दंडक २४, पक्ष २ । २ अपर्याप्त में भाव ५, श्रात्मा ७ ( चारित्र छोड़ कर ), लब्धि ५, वीर्य १ बाल वीर्य, दृष्टि २, भव्य अभव्य २, दंडक २४, पक्ष २ ! ३ नो पर्याप्त नो अपर्याप्त में भाव २ क्षायक व परिणामिक, आत्मा ४, लाब्ध नहीं, वीर्य नहीं, दृष्टि १ समकित दृष्टि, नो भव्य नो अभव्य, दंडक नहीं, पक्ष नहीं । १८ सूक्ष्म द्वार के ३ भेद । वीर्य १ १ सूक्ष्म में भाव ३, आत्मा ६, लब्धि ५, बाल वीर्य, दृष्टि १ मिध्यात्व, भव्य भव्य २, दंडक ५ ( पांच स्थावर का ), पक्ष २ | २ बादर में भाव ५, आत्मा ८, लब्धि ५, वीर्य ३, दृष्टि ३, भव्य अभव्य २, दंडक २४, पक्ष २ । ३ नो सूक्ष्म नो बादर में भाव २, आत्मा ४, लब्धि नहीं, वीर्य नहीं, दृष्टि १, नो भव्य नो अभव्य दंडक नहीं, पक्ष नहीं । १६ संज्ञी द्वार के ३ भेद । conte १ संज्ञी में भाव ५, आत्मा ८, लब्धि ५ वीर्य ३ दृष्टि ३, भव्य अभव्य २, दण्डक १६ ( पांच स्थावर, तीन विकलेन्द्रिय छोड़ कर ), पक्ष २ । Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बावन दोल। (३४७ ) - - - - - - - २ असंज्ञी में--भाव ३, आत्मा ७, (चारित्र छोड़ कर ) लब्धि ५, वीर्य १ बाल वीर्य, दृष्टि २, भव्य अभव्य २ दण्डक २२, पक्ष २ । ३नो संज्ञी नो असंही में-भाव ३, आत्मा ७, लब्धि ५, वीर्य १ पंडित, दृष्टि १ समकित दृष्टि, भव्य १, दण्डक १, पक्ष १ शुक्ल । २० भव्य द्वार ३ भेद १ भव्य में भाव ५, प्रात्मा ८, लब्धि ५, वीर्य ३ दृष्टि ३, भव्य १ दण्डक २४, पक्ष २ । २ अभव्य में-भाव ३, आत्मा ६, लब्धि ५, वीय १ बाल वीर्य, दृष्टि १ मिथ्यात्व, अभव्य १ दण्डक २४, पक्ष १ कृष्ण । ३ नो भव्य नो अभव्य में-भाव २.क्षायक परिखामिक आत्मा ४ लब्धि नहीं, वीर्य नहीं, दृष्टि १ समकित, भव्य अभव्य नहीं, दण्डक नहीं, पक्ष नहीं। २१ चरम द्वार के दो भेद १ चरम में-भाव ५, आत्मा ८, लब्धि ५, वीर्य ३ दृष्टिं ३, भव्य २, दण्डक २४, पक्ष २। २ * अचरम में-भाव ४ (उपशम छोड़ कर) आत्मा ७ ( चारित्र छोड़ कर) लब्धि ५, वीर्य १ बाल - . * अचरम अर्थात् अभवी तथा सिद्ध भगवन्त । Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थोकडा संग्रह | ( ३४= ) वीर्य, दृष्टि २ - समकित दृष्टि व मिथ्यात्व दृष्टि, अभव्य १ दण्डक, २४ पक्ष १ कृष्ण । शरीर द्वार के ५ भेद १ श्रदारिक में भाव ५, आत्मा ८, लब्धि ५, वीर्य ३, दृष्टि ३, भव्य, अभव्य २, दण्डक २०, पक्ष २ | २ वैक्रिय में भाव ५, आत्मा ८, लब्धि ५, वीर्य ३, दृष्टि ३, भव्य अभव्य २, दंडक २७ ( १३ देवता का, १ नारकी का १, मनुष्य का, १ तिर्यच का व १ वायु का एवं १७ ) पक्ष २ | ३ आहारिक में भाव ५, आत्मा ८, लब्धि ५, वीर्य १, पंडित वीर्य, दृष्टि १ समकित दृष्टि, भव्य १, दंडक १, पक्ष १ शुक्ल । ४ तेजस व ५ कार्मण में भाव ५, आत्मा ८, लब्धि ५, वीर्य ३, दृष्टि ३, भव्य भव्य २, दंडक २४, पक्ष २ । गुण स्थानक द्वार । १ मिथ्यात्व गुण स्थानक में भाव ३ ( उदय, क्षयोपशम, परिमाणिक ), श्रात्मा ६ ( ज्ञान चारित्र छोड़ कर ) लब्धि ५, वीर्य १ बाल वीर्य, दृष्टि १ मिथ्यात्व दृष्टि, भव्य भव्य दो, दंडक २४, पक्ष दो । २ सास्वादान समदृष्टि गुण स्थानक में भाव ३ ऊपर अनुसार, आत्मा ७ ( चारित्र छोड़ कर ), लब्धि ५, Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बावन बोल । (३४६). वीर्य १ बाल वीर्य, दृष्टि १ समकित दृष्टि; भव्य १ दंडक १६ (पांच एकेन्द्रिय छोड़कर ), पक्ष १ शुक्ल । ३ मिश्र गुण स्थानक में भाव ३ ऊपर अनुसार श्रात्मा ६ (ज्ञान चारित्र छोड़कर ), लब्धि ५, वीये १ बाल वीर्य, दृष्टि १ मिश्र दृष्टि, भव्य १, दंडक १६, (५ एकेन्द्रिय तीन विकलेन्द्रिय छोड़कर ) पक्ष १ शुक्ल । ४ अवती सम्यक्त्व दृष्टि में भाव ५, आत्मा ७, ( चारित्र छोड़कर ), लब्धि ५, वीर्य १ बाल वीर्य दृष्टि १ समकित दृष्टि; भव्य १ दंडक १६ ऊपर अनुसार, पक्ष १ शुक्ल । ५ देश व्रती गुण स्थानक में भाव ५; आत्मा ७ (देश से चारित्र है सर्व से नहीं ); लब्धि ५; वीर्य १; बाल पंडित वीर्य; दृष्टि १ समकित हाष्ट; भव्य १ दंडक दो ( मनुष्य व तिथंच के ) पक्ष १ शुक्ल । - ६ प्रमत्त संयति गुण स्थानक में भाव ५; आत्मा ८; लब्धि ५; वीर्य १ पंडित वीर्यः दृष्टि १ समकित दृष्टि भव्य १; दंडक १ मनुष्य का, पक्ष १ शुक्ल । ७ अप्रमत्त संयति गुण में-भाव ५, आत्मा ८ लब्धि ५, वीर्य १ पण्ति वीर्य, दृष्ट १ समकित भव्य १, दण्डक १ मनुष्य का, पक्ष १ शुक्ल । नियी बादर गुण० में-भाव ५, आत्मा ८, लब्धि ५, वीर्य १ पण्डित वीर्य, दृष्टि १ समकित दृष्टि, भध्य १, दण्डक १ मनुष्य का पक्ष १ शुक्ल । Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३५० ) थोकडा संग्रह। अनियही बादर गुण में-भाव ५, आत्मा ८ लब्धि ५, वीर्य १ पण्डित वीय, दृष्टि १ समकित, भव्य १, दण्डक १ मनुष्य का, पक्ष० १ शुक्ल । १० सूक्ष्म संपराय गुण० में-भाव ५ प्रात्मा ८, लब्धि ५, वीर्य १ पण्डित वीर्य, दृष्टि १ समकित, भव्य १, दण्डक १ मनुष्य का पक्ष १ शुक्ल ।। ११ उपशान्त मोहनीय गुण में-भाव ५, आत्मा ७ (कषाय छोड़ कर) लब्धि ५,वीर्य १ पण्डित वीर्य,दृष्टि १ समकित,भव्य १, दण्डक १ मनुष्य का पक्ष १ शुक्ल । १२ क्षीण मोहनीय गुण में-भाव चार (उपशम छोड़ कर ), आत्मा ७ ( कषाय छोड़ कर ), लब्धि ५, वीर्य १ पण्डित वीर्य, दृष्टि १ समकित, भव्य १, दण्डक १ मनुष्य का पक्ष १ शुक्ल । १३ सयोगी केवली गुण० में भाव ३ (उदय, क्षायक, परिणामिक), आत्मा ७ ( कषाय छोड़ कर ), लब्धि ५, वीर्य १ पण्डित वीय, दृष्टि १ सभक्ति दृष्टि भव्य १, दण्डक १ मनुष्य का, पक्ष १ शुक्ल । .. अयोगी केवली गुण में-भाव तीन ऊपर समान, आत्मा ६, ( कषाय व योग छोड़ कर ) लब्धि ५, वीय १ परित वीर्य, दृष्टि १ समकित, भव्य १, दण्डक १ मनुष्य का, पक्ष १ शुक्ल । ॥इति बावन बोल सम्प Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रोता अधिकार । ( ३५१ ) श्रोता अधिकार श्रोता अधिकार श्री नंदि सूत्र में है सो नीचे अनुसार . गाथा सेल' घण, कुड़ग, चालणी', परिपुणग', हंस', महिस', भेसे, य; मसग', जलूग', बिरालो, जाहग', गोभरि,आभेरी" सा ।। चौदह प्रकार के श्रोता होते हैं जिनमें से प्रथम सेल घण जैसे पत्थर पर मेघ गिरे परन्तु पत्थर मेघ (पानी) से भीजे नहीं वसे ही एकेक श्रोता व्याख्यानादिक सुने परन्तु सम्यक् ज्ञान पावे नहीं, बुद्ध होवे नहीं। दृष्टान्त:-कुशिष्य रूपी पत्थर, सद् गुरु रूपी मेघ तथा बोध रूपी पानी मुंग शेलिया तथा पुष्करावर्त मेघ का दृष्टान्तः-जैसे पुष्करावर्त मेघ से मुंग शेलीया पिघले नहीं वैसे ही एकेक कुशिष्य महान् संवेगादिक गुण युक्त श्राचार्य के प्रतिबोधने पर भी समझे नहीं, वैराग्य रंग चढ़े नहीं, अतः ऐसे श्रोता छोड़ने योग्य है एवं अविनीत का दृष्टान्त जानना काली भूमि के अन्दर जैो नेघ बरसे तो वो भूमि अत्यन्त भीज जावे व पानी भी रकये तथा गोधूमादिक (गेहूं प्रमुख ) की अत्यन्त निष्पत्ति करे वैसे ही विनीत सुशिष्य भी गुरु की उपदेश रूप वाणी सुनकर हृदय में धार रक्खे, वैराग्य से भींज जावे व अनेक अन्य भव्य Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३५२) थोकडा संग्रह। जीवों को विनय धर्म के अन्दर प्रवर्तीवे, अतः ये श्रोता श्रादरवा योग्य है। २ कुड़गः- कुंभ का दृष्टान्त । कुंभ के पाठ भेद हैं जिनमें प्रथम घड़ा सम्पूर्ण घड़ के गुणों द्वारा व्याप्त है। घड़े के तीन गुणः-१घड़े के अन्दर पानी भरने से किंचित् बाहर जावे नहीं २ स्वयं शीतल है अतः अन्य की भी तृषा शान्त करे-शीतल करे । ३ अन्य का मालिनता भी पानी से दूर करे। ऐसे ही एकेक श्रोता विनयादिक गुणों से सम्पूर्ण भरे हुवे हैं ( तीन गुण सहित ) १ गुवोदिक को उपदेश सर्व धार कर रक्खे-किंचित भूले नहीं २ स्वयं ज्ञान पाकर शीतल दशा को प्राप्त हुवे हैं व अन्य भव्य जीव को त्रिविध ताप उपसमा कर शीतल करते हैं ३ भव्य जीव की सन्देह रूपी मलिनता को दूर करे । ऐसे श्रोता आदरने योग्य हैं। २ एक धड़े के पार्श्व भाग में काना (छेद युक्त ) है इस में पानी भरे तो आधा पानी रहे व प्राधा पानी बाहर निकल जावे वैस ही एकेक श्रोता व्याख्यानादि सुने तो श्राधा धार रक्खे व आधा भूल जावे । ३ एक घड़ा नीचे से काना है इसमें पानी भरने से सर्व पानी बह कर निकल जावे किचित् भी उसमें रहे Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीता अधिकार । ( ३५३ ) नहीं वैसे एकेक श्रोता व्याख्यानादि सुने तो सवे भूल जावे परन्तु धारे नहीं। ४ एक घड़ा नया है, इसमें पानी भरे तो थोड़ा२ जम कर बह जावे व सारा घड़ा खाली हो जावे वैसे एकेक श्रोता ज्ञानादि अभ्यास करे परन्तु थोड़ा थोड़ा करके भूल जावे। ५ एक घडा दर्गन्ध वासित है इसमें पानी भरे तो वो पानी के गुण को बिगाड़े वैसे एकेक श्रोता मिथ्यात्वादिक दुर्गन्ध से वासित हैं । सूत्रादिक पढ़ने से यह ज्ञान के गुण को बिगाड़ते हैं ( नष्ट करते हैं)। ६ एक धड़ा सुगन्ध से वासित है इसमें यदि पानी भरे तो वो पानी के गुण को बढ़ावे वैसे एकेक श्रोता समकितादिक सुगन्ध स वासित हैं व सूत्रादिक पढ़ाने से यह ज्ञान के गुण को दिपाते हैं। ७ एक घड़ा कच्चा है इसमें पानी भरे तो वो पानी से भीज कर नष्ट हो जावे, वैसे एकेक श्रोता (अल्प बुद्धि वाले ) को सूत्रादिक का ज्ञान देने से-नय प्रमुख नहीं जानने से वो ज्ञान से व मार्ग से भ्रष्ट होवे। ८एक बड़ा खाली है । इसके ऊपर ढक्कन ढाक कर वर्षा समय नेवां के नीचे इसे पानी झेलने के लिये रखे अन्दर पानी आवे नहीं परन्तु पेंदे के नीचे अधिक पानी हो जाने से ऊपर तिरने (तेरने) लगे व पवनादि से भीत Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५४ ) थोकडा संग्रह। प्रमुख से टकरा कर फूट जावे वैसे एकेक श्रोता सद्गुरु की सभा में व्याख्यान सुनने को बैठे परन्तु ऊंघ प्रमुख के चोग से ज्ञान रूप पानी हृदय में आवे नहीं तथा अत्यन्त ऊंघ के प्रभाव से खराब डाल रूप वायु से अथड़ावे (टक्कर खावे ) जिससे सभा में अपमान प्रमुख पाव तथा ऊंघ में पड़ने से अपने शरीर को नुकसान पहुंचाव।। इति पाठ घड़े के दृष्टान्त रूप दूसरे प्रकार का श्रोता का स्वरूप । ३ चालणी-एकेक श्रोता चालणी के समान है। इस के दो प्रकार, एक प्रकार ऐसा है कि चालनी जब पानी में रक्खे तो पानी से सम्पूर्ण भरी हुई दीखे परन्तु उठा कर देखे तो खाली दीखे वैसा एकेक श्रोता व्याख्यानादि सभा में सुनने को बैठे तो वैराग्यादि भावना से भरे हुवे दीखें परन्तु सभा से उठ कर बाहर जावें तो वैराग्य रूप पानी किंचित् भी दीखे नहीं। ऐसे श्रोता छांडने योग्य हैं। दूसरा प्रकार-चालनी गेहूँ प्रमुख का आटा चालने से आटा तो निकल जाता है परन्तु कङ्कर प्रमुख कचरावव रह जाता है वैसे एकेक श्रोता व्याख्यानादि सुनते समय उपदेशक तथा सूत्र के गुण तो निकाल देवे परन्तु स्खलना प्रमुख अवगुण रूप कचरे को ग्रहण कर रक्खे । ऐसे श्रोता छोड़ने योग्य है। ___ Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीता अधिकार । (३५५) ४ परिपुणग--सुघरी पक्षी के माला का दृष्टान्त । सुघरी पक्षी के माला से घी गालते समय घी घी निकल जावे परन्तु चींटी प्रमुख कचरा रह जाता है वैसे एकेक श्रोता आचार्य प्रमुख का गुण त्याग करके अवगुण को ग्रहण कर लेता है ऐसे श्रोता छांडवा योग्य हैं। ५ हंस-दूध पानी मिला कर पीने के लिये देने पर जैसे हंस अपनी चोंच से (खटाश के गुण के कारण ) दूध दूध पीवे और पानी नहीं पीवे वैसे विनीत श्रोता गुर्वादिक के गुण ग्रहण करे व अवगुण न लेवे ऐसे श्रोता आदरनीय हैं। ६ महिष-भैसा जैसे पानी पीने के लिये जलाशय में जावे । पानी पीने के लिये जल में प्रथम प्रवेश करे पश्चात् मस्तक प्रमुख के द्वारा पानी ढोलने व मल मूत्र करने के बाद स्वयं पानी पीवे परन्तु शुद्ध जल स्वयं नहीं पीवे अन्य यूथ को भी पीने नहीं देवे वैसे कुशिष्य श्रोता व्याख्यानादिक में क्लेश रूप प्रश्नादिक करके व्याख्यान डोहले, स्वयं शान्ति युक्त सुने नहीं व अन्य सभा जनों को शान्ति से सुनाने देवे नहीं। ऐसे श्रोता छांडने योग्य हैं। ७ मेष-बकरा जैसे पानी पीने को जलाशय प्रमुख में जावे तो किनारे पर ही पांव नीचे नमा कर के पानी पीवे, डोहले नहीं व अन्य यूथ को भी निर्मल जल पीने देवे। Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५६) थोकडा संग्रह। वैसे विनीत शिष्य व श्रोता व्याख्यानादिक नम्रता तथा शान्त रस से सुने, अन्य सभाजनों को सुनने देवे । ऐसे श्रोता आदरनीय है। ____मसग-इस के दो भेद प्रथम मसग अर्थात् चमड़े की कोथली में जब हवा भरी हुई होती है तब अत्यन्त फूली हुई दिखती है परन्तु तृषा शमाये नहीं हवा निकल जाने पर खाली हो जाती है वैसे एकेक श्रीता अभिमान रूप वायु के कारण ज्ञानी वत् तहाक मारे परन्तु अपनी तथा अन्य की आत्मा को शान्ति पहुंचावे नहीं ऐसे श्रोता छोड़ने योग्य है। ६ दूसरा प्रकार-मसग (मच्छर नामक जन्तु) अन्य को चटका मार कर परिताप उपजावे परन्तु गुण नहीं करे वरन् नुकसान उत्पन्न करे वैसे एकेक कुश्रोता गुर्वादिक को-ज्ञान अभ्यास कराने के समय अत्यन्त परिश्रम देवे तथा कुवचन रूप चटका मारे । परंतु वैश्यावृत्य प्रमुख कुछ भी न करे और मनमें असमाधि पैदा करे, यह छोड़ने योग्य है। हजोंक इसके भेद २ हैं । पहिला जोंक जन्तु गाय वगैरह के स्तन में लग जावे तब खून को पिये दूध को को नहीं पिये । इसी तरह से कोई अविनयी कुशिष्य श्रोता आचार्यदिक के पास रहता हुआ उनके दोषों को देखे परंतु क्षमादिक गुणों को ग्रहण नहीं करे यह भी त्यागने योग्य है। Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रोता अधिकार। ( ३५७) दूसरे प्रकार का-जोंक नामक जन्तु फोड़ा के ऊपर रखने पर उसमें चोट मारकर दुःख पैदा करता और बिगड़े हुए खून को पीता है बाद में शांति पैदा करता है। इसी तरह से कोई विनीत शिष्य श्रोता आचार्यादिक के साथ रहता हुआ पहिले तो वचन रूप चोट को मारे, समय असमय बहुत अभ्यास करता हुआ मेहनत करावे पीछे संदेह रूपी मैल को निकाल कर गुरुओं को शांति उपजावे--परदेशी राजा के समान यह ग्रहण करने योग्य है। १० बिडाल-जैसे बिल्ली दूध के वर्तन को सीके से जमीन पर पटक कर उसमें मिली हुई धूल के साथ २ दूध को पीती है उसी तरह कोई श्रोता आचार्यादिक के पास से सूत्रादिक का अभ्यास करते हुए बहुत अविनय करे, और दूसरे के पास जाकर प्रष्ण पूछ कर सूत्रार्थ को धारण करे परंतु विनय के साथ धारण नहीं करे इसलिए ऐसा श्रोता त्यागने योग्य है। ११ जाहग-सहलो यह एक तिर्यंच की जाति विशेष्य का जीव है यह पहले तो अपनी माता का दूध थोडा थोडा पीता है और फिर वह पचजाने पर और थोड़ा इस तरह थोड़े थोड़े दूध से अपना शरीर पुष्ट करता है पीछे बड़े भारी सर्प का मान भंजन करता है । इसी तरह कोई श्रोता आचार्यादिक के पास से अपनी बुद्धि माफिक समय समय पर थोड़ा थोड़ा सूत्र अभ्यास करे और Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५८ ) थोकडा संग्रह | अभ्यास करते हुए गुरुषों को अत्यंत संतोष पैदा करे क्योंकि अपना पाठ बराबर याद करता रहे और उसे याद करने पर फिर दूसरी बार और तीसरी बार इस तरह थोडा थोड़ा लेकर पश्चात् बहुश्रुत हो कर मिथ्यात्वी लोगों का मान मर्दन करे | यह श्रादरने योग्य है । १२ गाय - इसके दो प्रकार | प्रथम प्रकार-जैसे दूधवती गाय को एक शेठ किसी अपने पड़ोसी को सौंप कर अन्य गांव जावे पड़ोसी घांस पानी प्रमुख बराबर गाय को नहीं देवे जिससे गाय भूख तृषा से पीडित होकर दूध में सूखने लग जाती है व दुःखी हो जाती है वैसे ही एकेक श्रोता (अविनीत ) आहार पानी प्रमुख वैयावच्च नहीं करने से गुर्वेदिक की देह ग्लानि पावे व जिससे सूत्रादिक में घाटा पड़ने लगजाता है तथा अपयश के भागी होते हैं । दूसरा प्रकार - एक सेठ पड़ोसी को दूधवती गाय सौंप कर गांव गया पड़ोसी के घांस पानी प्रमुख अच्छी तरह देने से दूध में वृद्धि होने लगी व वो कीर्ति का भागी हुवा वैसे एकेक विनीत श्रोता ( शिष्य ) गुर्वादिक की अहार पानी प्रमुख वैय्यावच्च विधि पूर्वक करके गुर्वादिक को साता उपजावे जिससे ज्ञान में वृद्धि होवे व साथ २ उसको भी यश मिले यह श्रोता आदरखा योग्य है । १३ भेरी - इसके दो प्रकार - प्रथम प्रकार - मेरी Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रोता अधिकार । ( ३५६ ) को बजाने वाला पुरुष यदि राजा की आज्ञानुसार भेरी बजावे तो राजा खुशी होकर उसे पुष्कल द्रव्य देवे वैसे ही विनीत शिष्य-श्रोता-तीर्थकर तथा गुादिक की आज्ञा. नुसार सूत्रादिक की स्वाध्याय तथा ध्यान प्रमुख अंगीकार करे तो कर्म रूप रोग दूर होवे और सिद्ध गति में अनन्त लक्ष्मी प्राप्त करे यह आदरने योग्य है। दूसरा प्रकार-भेरी बजाने वाला पुरुष यदि राजा की आज्ञानुसार भेरी नहीं बजावे तो राजा कोपायमान होकर द्रव्य देवे नहीं वैसे ही अविनीत शिष्य ( श्रोता) तीर्थकर की तथा गुवादिक की आज्ञानुसार सूत्रादिक की स्वाध्याय तथा ध्यान करे नहीं तो उनका कर्म रूप रोग दूर होवे नहीं व सिद्ध गति का सुख प्राप्त करें नहीं यह छोडने योग्य है। १४ आभीरी-- प्रथम प्रकार-आभीर स्त्री पुरुष एक ग्राम से पास के शहर में गड़वे में घी भर कर बेचने को गये । वहां बाजार में उतारते समय घी का भाजनबतेन फूट गया व जिससे घी दुल गया । पुरुष स्त्री को कुवचन कह कर उपालम्भ देने लगा, स्त्री भी पुनः भता के सामने कुवचन कहने लगी । इस बीच में सब घी निकल कर जमीन पर बहने लगा व स्त्री पुरुष दोनों शोक करने लगे। जमीन पर गिरे हुवे घी को पुनः पूंछ कर ले लिया व बाजार में बेंच कर पैसे सीधे किये । पैसे Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६० ) थोकडा संग्रह। ले कर सायङ्काल को गाँव जाते समय चोरों ने उन्हें लूट लिया । अत्यन्त निराश हुवे, लोगों के पूछने पर सर्व वृत्तान्त कहा जिसे सुन कर लोगों ने उन्हें बहुत ही ठपका दिया । वैसे ही गुरु के द्वारा व्याख्यान में दिये हुवे उपदेश ( सार घी ) को लड़ाई झगड़ा करके ढोल दिया व अन्त में चले रा करके दुर्गति को प्राप्त करे यह श्रोता छोड़ने योग्य है। दूसरा प्रकार-घी भर कर शहर में जाते समय बर्तन उतारने पर फूट गया, फूटते ही दोनों स्त्री पुरुषों ने मिल कर पुनः भाजन में घो भर लिया । बहुत नुकसान नहीं होने दिया । घी को बेंचकर पैसे सीधे किये व अच्छा संग करके गांव में सुख पूर्वक अन्य सुज्ञ पुरुषों के समान पहोंच गये, वैसे ही विनीत शिष्य ( श्रोता ) गुरु के पास से वाणी सुनकर व शुद्ध भान पूर्वक तथा अर्थ सूत्र को धार कर रखे सांचवे । असवलित करे, विस्मृति हावे तो गुरु के पास से पुनः२ क्षमा मांग कर धारे, पूछ परन्तु क्लेश झगड़ा करे नहीं । गुरु उन पर प्रसन्न हवे, संयम ज्ञान की वृद्धि होवे, व अन्त में सद्गति पावे यह श्रोता आदरणीय है। ॥ इति श्रोता अधिकार सम्पूर्ण ॥ Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ · १८ बोल का अल्प बहुत्व । (३६१) ६८ बोल का अल्प बहुत्व सूत्र श्री पन्नवणाजी पद तीसरा । ६८ बोल का अल्प बहुत्व । अनुक्रम महा दण्डक न जीव का भेद १४ गुणस्थान योग है। उपयोग १२ - wo wo m १ गर्भज मनुष्य सर्व से कम २, १४, १५, २ मनुष्याणी संख्यातगु.२, १४, १३, १२, ६, ३ बादर तैजस काय पर्याप्त असंख्यात गुणा १, १, १, ३, ३, ४ पांच अनुत्तर विमान का देव असंख्यात गु. २, १, ११, ६, १, ५ ऊपर की त्रीक का देव संख्यात गुणा- २, २-३, ११, ६ मध्य त्रीक का देव संख्यात गुणा- २, २.३, ७ नीचे की त्रीक का देव . . संख्यात गुणा- २, २-३, ११, ६, १, ८ बारहवां देवलोक का देव संख्यात गुणा- २, ४, ११, १, १, of an Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३६२) थोकडा संग्रह a w ६११ वां देवलोक का देव संख्यात गुणा- २, ४, ११, १० दशवांदेवलोक का देव संख्यात गुणा- २, ४, ११, ६, १, ११ नवां देवलोक का देव संख्यात गुणा- २, ४, ११, ६, १, १२ सातवीं नरक का नेरिया असंख्यात गुणा- २, ४, ११, १३ छठी नरक का नरिया असंख्यात गुणा- २, ४, ११, १४ आठवां देवलोक का देव असंख्यात गुणा-२, ४, ११, १५ सातवां देवलोक कादेव __ असंख्यात गुणा- २, ४, ११, १६ पांचवी नरकका नेरिया असंख्यात गुणा- २, ४, ११, १७ छद्रा देवलोक का देव असंख्यात गुणा- २, ४, ११, ६, १, १८ चोथी नरक का नेरिया __असंख्यात गुणा- २, ४, ११, ६, १, १६ पांचवां देवलोकका देव असंख्यात गुणा- २, ४, ११, ६, १, i wo w w Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ बोल का अल्प बहुत्व । (३६३) ६, २, २० तीसरी नरकका नेरिया असंख्यात गुणा- २, ४, ११, २१ चोथा देवलोक का देव असंख्यात गुणा- २, ४, ११, २२ तीसरा देवलोकका देव ___ असंख्यात गुणा- २, ४, ११, २३ दूसरी नरक का नेरिया ___ असंख्यात गुणा- २, ४, ११, २४ संमूर्छिम मनुष्य अशा. श्वत असंख्यात गुणा-१, १, ३, २५ दूसरे देवलोक का देव असंख्यात गुणा- २, ४, ११, २६ दूसरे देवलोक की दे वियें संख्यात गुणी-२, २७ पहेले देवलोक का देव ___ संख्यात गुणा- २, ४, ११, २८ पहेले देवलोक की दे. विए संख्यात गुणी- २, ४, ११, २६ भवनपति का देव अ. संख्यात गुणा- ३, ४, ११, ३० भवन पति की देवी संख्यात गुणा २, ४, ११, ६, ४, ६, ४, Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६४ ) थोकडा संग्रह। " ३१ पहेली नरक का नेरि या असंख्यात गुणा ३, ४, ३२ खेचर पुरुष तिर्यच यो नि असंख्यात गुणा २, ३३ खेचर की स्त्री संख्यात गुणी २, ३४ स्थलचर पुरुष संख्या. त गुणा २, ५, ३५ स्थलचर की स्त्री ... संख्यात गुणी " " ३६ जलचर पुरुष संख्यात गुणा " " ३७ जलचर की स्त्री ___संख्यात गुणी " " ३८ वाण व्यन्तर का देव संख्यात गुणा ३, ४, ३६ वाण व्यन्तर की देवी संख्यात गुणी २, " ४० ज्योतिष का देव संख्यात गुणा " " ४१ ज्योतिष की देवी संख्यात गुणी ॥ " " " " ११; " ४, र की " " " ___ Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ बोल का अल्प बहुत्व। ६, ६, " " ४२ खेचर नपुंसक तिर्यच योनि संख्यात गु. २.४,५, १३, ४३ स्थल चर नपुंसक - संख्यात गुणा ' २-४" " ४४ जलचर नपुंसक ' संख्यात गुणा""" " ४५ चौरिन्द्रिय पर्याप्त ... संख्यात गुणा १, १, २, ४६ पंचेन्द्रिय पर्याप्त विशेषाधिक २, १२, १४, ४७ बेइन्द्रिय पर्याप्त -विशेषाधिक १, १, २, ४८ त्रिइन्द्रिय पर्याप्त विशेषाधिक " " " ५। ४६ पंचेन्द्रिय अप. असंख्यात गुणा२ ३ ५० चौरिन्द्रिय अप. विशेषाधिक १, २, ५१ त्रिइन्द्रिय अप. विशेषाधिक " " ५२ बेइन्द्रिय अप. . विशेषाधिक " " " , " ६, " Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६६ ) थोकडा संग्रह। ३, ३, ३, ३, ३, ५३ प्रत्येक शरीरी बा. वन. प.असं. गु." १, १, ५४ बादर निगोद प. का श.असं.ग." " ५५ बादर पृथ्वी काय पर्याप्त असं. ग." " ५६ बादर अप काय पर्याप्त ___ असंख्यात गुणा १, १, १, ५७ बादर वायु काय पर्याप्त ___ असंख्यात गुणा १, १, ४, ५८ बादर तैजस काय अ__पर्याप्त असंख्यात गुणा १, १, ३, ५६ प्रत्येक शरीरीबादर वन- स्पति काय अ.अ.गुणा १, १, ६० बादर निगोद अपर्याप्त ___का शरीर असं. गुणा १, १, ३, ६१ बादर पृथ्वी काय अप. असंख्यात गुणा १, १, ३, ६२ बादर अप काय अप, असंख्यात गुणा १, १, ३, ६३ बादर वायु काय अप. असंख्यात गुणा १, १, ३, ३, ३, ॥५२वन ३, ३, ३ ३, ४, ३, ४, ३, ३, ___ Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ बोल का अल्प बहुत्व । ( ३६७) س ६४ सूक्ष्म तेजस्काय अप. असंख्यात गुणा १, १, ३, ३, ३, ६५ सूक्ष्म पृथ्वी काय अप. __ विशेषाधिक १, १, ३, ३, ३, ६६ सूक्ष्म अप काय अप, विशेषाधिक १, १, ३, ३, ३, ६७ सूक्ष्म वायु काय अप. विशेषाधिक १, १, ३, ३, ३, ६८ सूक्ष्म तेजस्काय पर्याप्त . संख्यात गुणा १, ६६ सूक्ष्म पृथ्वी काय पर्याप्त विशेषाधिक १, १, १, ३, ३, ७० सूक्ष्म अप काय पर्याप्त विशेषाधिक १, १, १, ३, ३, ७१ सूक्ष्म वायु काय पर्याप्त विशेषाधिक १, १, १, ३, ३, ७२ सूक्ष्म निगोद अपर्याप्त ___ का शरीर असं. गुणा १, १, १, ३, ३, ७३ सूक्ष्म निगोद पर्याप्तका शरीर संख्यात गुणा १, १, १, ३, ३, ७४ अभव्य जीव अनन्त गुणा १४, १, १३, ६, ६, का Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६८) थोकडा संग्रह। ७५ सम्यक दृष्टि प्रति पाति . अनन्त गुणा १४, १४, १५, २२, ६, ७६ सिद्ध अनन्त गुणा ; ; ; ; ; ७७ बादर वनस्पति काय पर्याप्त अनन्त गुणा १, १, १, ३, ३; ७८ बादर जीव पर्याप्त विशेषाधिक ६, १४, १४, १२, ६; ७६ बादर वनस्पति काय ____ अप. असंख्यात गुणा १, १, ३, ३, ४, ८० बादर जीव अपयाप्त विशेषाधिक ६, ३, ५, ८६, ६, ८१ समुच्चय बादर जीव _ विशेषाधिक १२, १४, १५, १२, ६, ८२ सूक्ष्म वनस्पति काय अपर्याप्त संख्यात गु. १, १, ३, ३, ३, ८३ सूक्ष्म जीव अपर्याप्त _ विशेषाधिक १, १, ३, ३, ३, ८४ सूक्ष्म वनस्पति काय : - पर्याप्त संख्यात गुणा १, १, १, ३, ३, ८५ सूक्ष्म जीव पर्याप्त 'विशेषाधिक १, १, १, ३, ३, ८६ समुच्चय सूक्ष्म जीव .. . . विशेषाधिक २, १, ३, ३, ३, ا . " . Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ बोल का अल्प बहुत्व । ( ३६६ ) ८७ भव्य सिद्धि जीव विशषाधिक १४, १४, १५, १२, ६, ८८ निगोदके जीव विशेषा.४, १, २, ३, ३, ८६ समुच्चय वनस्पति काय के जीव विशेषाधिक ४, १, ३, ३, ४, ६० एकेन्द्रिय जीव विशेषा.४, १, ५, ३, ४, ६१ तिथच योनी का जीव विशेषाधिक १४, ५, १३, ६, ६, ६२ मिथ्यात्व दृष्टि जीव विशेषाधिक १४, १, १३, ६३ अति जीव विशेषा. १४, ४, १३, ६४ सकषायी जीव विशेषा. १४, १०, १५, १०, ६, ६५ छद्मस्थ जीव विशेषा. १४, १२, १५, १०, ६, ६६ सयोगी जीव विशेषा. १४, १३, १५, १२, ६, ६७ संसारस्थ जीव विशे. १४, १४, १५, १२, ६, १८ सर्व जीव विशेषाधिक १४, १४, १५, १२, ६, ॐ इति १८ बोल का अल्प बहुत्व सम्पूर्ण ___ w we - . Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७०) थोकडा संग्रह। Ka प्रदल परावते भगवती सूत्र के १२ वें शतक के चोथे उद्देशे में पुद्गल परावत्त का विचार है सो नीचे अनुसार । गाथा नाम'; गुण'; ति सख्खं ; ति ढाणं'; काल'; कालोवमंच' काल अप्प बहु'; पुग्गल मझ पुग्गल पुग्गल करणं अप्पबहु। पुद्गल परावर्त समझाने के लिये नव द्वार कहते हैं। १ नाम द्वार-१ औदारिक पुद्गल परावर्त २ वैक्रिय पुद्गल परावर्त ३ तैजस पुद्गल परावर्त ४ कार्मण पुद्गल परावर्त्त ५ मन पुद्गल परावर्त ६ वचन पुद्गल परावर्त ७ श्वासोश्वास पुद्गल परावर्त । २ गुण द्वार-पुद्गल परावर्त किसे कहते हैं ? इसके कितने प्रकार होते हैं ? इसे किस तरह समझना ? आदि सहज प्रश्न शिष्य के द्वारा पूछे जाते है तब गुरु उत्तर देते हैं:-इस संसार के अन्दर जितने पुद्गल हैं उन सबों को जीव ने ले ले कर छोड़े हैं । छोड़ कर पुनः पुनः फिर ग्रहण किये पुल परावर्त शब्द का यह अर्थ है कि पुद्गल सूक्ष्म रजकण से लग कर स्थूल से स्थूल जो पुद्गल हैं उन सबों के अन्दर जीव परावर्त्त-समग्र प्रकार से फिर चुका है, सर्व में भ्रमण कर चुका है। Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुल परावर्त । ( ३७१ ) दारिक पन (दारिक शरीर रह कर औदारिक योग्य जो पुल ग्रहण करते हैं ) वैक्रिय पने ( वैक्रिय शरीर में रह कर वैक्रिय योग्य पुद्गल ग्रहण करे ) तैजस् यदि ऊपर कहे हुवे सात प्रकार से पुद्गल जीव ने ग्रहण किये हैं व छोड़े हैं, ये भी सूक्ष्म पने और बादर पने लिये हैं और छोड़े हैं; द्रव्य से, क्षेत्र से काल से व भाव से एवं चार तरह से जीव ने पुद्गल परावर्त्त किये हैं । इसका विवरण ( खुलासा ) नीचे अनुसार:पुद्रल परावर्त्त के दो भेद:- १ बादर २ सूक्ष्म ये द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से, भाव से, १ द्रव्य से बादर पुगल परावर्त :- लोक के समस्त पुल पूरे किये परन्तु अनुक्रम से नहीं याने औदारिक पने पुल पूरे किये बिना पहले वैक्रिय पने लेवे । व तैजस पने लेवे, कोई भी पुद्गल परावर्त पने बीच में लेकर पुनः दारिकपने के लिये हुवे पुद्गल पूरे करे एवं सात ही प्रकार से बिना अनुक्रम के समस्त लोक के सर्व पुगलों को पूरे करे इसे बादर पुगल परावर्त्त कहते हैं । २ द्रव्य से सूक्ष्म पुगल परावर्त्त - लोक के सर्व पुलों को औदारिक पने पूर्ण करे, फिर वैक्रिय पने फिर तेजस पने एवं एक के बाद एक अनुक्रम पूर्वक्र सात ही पुल परावर्त्त पने पूर्ण करे उसे सूक्ष्म पुगल परावर्त्त कहते पुद्रल 1 Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७२) थोकडा संग्रह। ३ क्षेत्र से बादर पुगल परावर्त-चौदह राजलोक के जितने आकाश प्रदेश हैं उन सर्व आकाश प्रदेश को प्रत्येक प्रदेश में मर मर कर अनुक्रम बिना तथा किसी भी प्रकार से पूर्ण करे। ४ क्षेत्र से सूक्ष्म पुद्गल परावर्तः-चौदह राज लोक के आकाश प्रदेश को अनुक्रम से एक के बाद एक १.२.३-४-५-६-७-८९-१० एवं प्रत्येक प्रदेश में मर कर पूर्ण करे उन में पहले प्रदेश में मर कर तीसरे प्रदेश में मरे अथवा पांचवें आठवें किसी भी प्रदेश में मरे तो पुगल परावर्ग करना नहीं गिना जाता है, अनुक्रम से प्रत्येक प्रदेश में मर कर समस्त लोक पूर्ण करे।। ___५ काल से बादर पुद्गल पराक्र्त-एक काल चक्र (जिसमें उत्सर्पिणी व अवसर्पिणी सम्मिलित हैं) के प्रथम समय में मरे पश्चात् दूसरे काल चक्र के दूसरे समय में मरे अथवा तीसरे समय में मरे एवं तीसरे काल चक्र के किसी भी समय में मरे अर्थात् एक काल चक्र के जितने समय होवे उतने काल चक्र के एक २ समय मर कर एक काल चक्र पूर्ण करे । ६ काल से सूक्ष्म पुद्गल परावर्त्त-काल चक्र के प्रथम समय में मरे, अथवा दूसरे काल चक्र के दूसरे समय में मरे, तीसरे काल चक्र के तीसरे समय में मरे, Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुद्गल परावर्त । (३७३) चोथे काल चक के चोथे समय में मरे, बीचमें नियम के बिना किसी भी समय में मरे ( यह हिसाब में नहीं गिना जाता ) एवं एक काल चक्र के जितने समय होवे उतने काल चक्र के अनुक्रम से नियमित समय में मरे। ७ भाव से बादर पुद्गल परावत-जीव के असंख्यात परिणाम होते हैं जिनमें से प्रथम परिणाम पर मरे पश्चात् ३-२ ५.४-७-६ एवं अनुक्रम के बिना प्रत्येक परिणाम पर मरे व मर कर असंख्यात परिणाम पूर्ण करे। ___ ८ भाव से सूक्ष्म पुद्गल परावर्त-जीव के असंख्यात परिणाम होते हैं उनमें से प्रथम परिणाम पर मरे पश्चात् बीच में कितना ही समय जाने बाद दूसरे परिणाम पर, व अनुक्रम से तीसरे परिणामें चोथे परिणामें एवं असंख्य परिणाम पर मर कर पूर्ण करे । के इति गुण द्वार* ३ त्रिसंख्या द्वार १ पुद्गल परावर्त-सर्व जीवों ने कितने किये २ एक वचन से एक जीव ने २४ दंडक में कितने पुल परावर्त किये ३ बहु वचन से सर्व जीवों ने २४ दंडक में कितने पुद्गल परावर्त किये। १ सर्व जीवों ने-औदारिक पुद्गल परावर्त्त; वैक्रिय पुद्गल परावर्त; तैजस् पुद्गल परावर्त; आदि ये सातों पुद्गल परावर्त अनन्त अनन्त वार किये ७ । Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७४) थोकडा संग्रह। २ एक वचन से-एक जीव ने-एक नरक के जीव ने औदारिक पुद्गल परावर्त, बैंक्रिय पुद्गल परावर्त आदि सातों पुद्गल परावर्त गत कालमें अनन्त अनन्त वार किये, भविष्य काल में कोई पुद्गल परावर्त्त नहीं करेंगें (जो मोक्ष में जावेंगे वो ) कोई करेगें वे जघन्य १-२-३ पुद्गल परावर्त करेंगे उत्कृष्ट अनन्त करेंगे एवं भवनपति आदि २४ दण्डक के एक १ जीव ने सात पुद्गल परावर्त गत काल में अनन्त किये, कितने भविष्य काल में ( मोक्ष में जाने से ) करेंगें नहीं, जो करेंगें वो १-२-३ उत्कृष्ठ अनन्त करेंगे सात पुद्गल परावर्त्त २४ दण्डक के साथ गिनने से १६८ (प्रश्न ) हुवे। ___३ बहु वचन से-सर्व जीवों ने-नरक के सर्व जीवों ने पूर्व काल में औदारिक पुद्गल परावर्त आदि सातों पुद्गल परावर्त अनन्त अनन्त किये भविष्य काल में अनेक जीव अनन्त करेंगे इसी प्रकार २४ दण्डक के बहुतसे जीवों ने ये अनन्त पुद्गल परावत्ते किये व भविष्य काल में करेंगे इनके भी १६८ ( प्रश्न ) हाते हैं । +१६८+१६८-३४३ (प्रश्न) होते हैं। ४ त्रि स्थानक द्वार ४ एक जीव ने किस २ स्थान २ पर कोन २ से पुद्गल परावते किये, कोन २ से पुद्गल परावत करेंगे २ बहुत जीवों ने किस २ स्थान पर पुद्गल परावते किये Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुद्गल परावर्त । ( ३७५) व करेंगे ३ सर्व जीवों ने किस २ दण्डक में कोन २ से पुद्गल परावर्त किये। १ एक वचन से-एक जीव ने नरकपने औदारिक पुद्गल परावर्त किये नहीं, करेगा नहीं, वैक्रिय पुद्गल परावर्त किये हैं व करेगा करेगा तो जघन्य१-२-३ उत्कृष्ट अनन्त करेगा । इसी प्रकार तेजस् पुद्गल परावर्त, कार्मण पुद्गल परावर्त यावत् श्वासोश्वास पुद्गल परावते किये हैं व आगे करेगा। ऊपर अनुसार । इसी प्रकार असुर कुमार पने पृथ्वी पने यावत् वैमानिक पने पूर्व काल में औदारिक पुद्गल परावर्त वोकेय पुद्गल परावत्त यावत् श्वासोश्वास पुद्गल परावर्त किये हैं व करेगा। ( ध्यान में रखना चाहिये कि जिस दण्डक में जो २ पुद्गल परावर्त होवे वो करे और न होवे उन्हें न करे ) । एक नेरिया जीव २४ दण्डक में रह कर सात सात (होवे तो हाँ और न होवे तो नहीं ) पुद्गल परावर्त किये एवं २४+9=१६८ हुवे । एवं २४ दण्डक का जीव २४ दण्डक में रह कर सात सात द्गल परावर्त करे । अतः १६८+ २४-४० ३२ प्रश्न पुद्गल परावर्त के होते है। ___ बहु वचनसे-सर्व जीवों ने नेरिये पने औदारिक पुद्गल परावर्त किये नहीं, करेंगे नहीं, वैक्रिय पुद्गल परावत्तं यावत् श्वासोश्वास पुद्गल परावर्त किया और करेंगे इसी प्रकार असुर कुमार पने पृथ्वी पने यावत् वैमानिक Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७६) थोकडा संग्रह। पने, जो जो घटे वे वे ( पुद्गल परावर्च ) किये व करेंगे एवं २४ दण्डक में बहुत से जीवों ने पुद्गल परावर्त सात सात किये पूर्व अनुसार इसके भी ४०३२ प्रश्न होते हैं । ३ किस किस दण्डक में पुद्गल परावर्त किये-- सर्व जीवों ने पांच एकेन्द्रिय, तीन विकलेन्द्रिय, तिथंच पंचेन्द्रिय व मनुष्य इन दश दण्डक में औदारिक पुद्गल परावत्त अनन्त अनन्त वार किये १ नेरिये १० भवनपति १२ वायु काय, १३ संज्ञी तिथंच पंचेन्द्रिय पर्याप्त, १४ संज्ञी मनुष्य पर्याप्त, १५ वाण व्यन्तर, १६ ज्योतिषी १७ वैमानिक । इन १७ दण्डक में सर्व जीवों ने वैक्रिय पुद्गल परवत अनन्त वार किये । २४ दण्डक में तैजस् पुद्गल परावर्त, कार्मण पुद्गल परावर्त सर्व जीकों ने अनन्त अनन्त वार किये १४ नेरिया व देवता का दण्डक, १५ संज्ञी तियेच पंचन्द्रिय, १६ संज्ञी मनुष्य । एवं १६ दण्डक में सर्व जीवों ने मन पुद्गल परावर्त अनन्त अनन्त वार किये। पांच एकेन्द्रिय को छोड़कर १६ दण्डक में सर्द जीवों ने वचन पुद्गल परावर्त अनन्त किये एवं १३४ प्रश्न होते हैं तीनों ही स्थानक में ८१६८ प्रश्न होते हैं । ॥ इति त्रिस्थानक द्वार ॥ ५ काल द्वार-अनन्त उत्सर्पिणी अनन्त अवसर्पिणी व्यतीत होवे तब जाकर कहीं एक औदारिक पुद्गल परावर्त होता है इसा प्रकार वैक्रिय पुद्गल परावर्त इतना ही समय Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुद्गल परावर्त । ( ३७७) जाने बाद होता है । सात पुद्गल परावत में अनन्त अनन्त काल चक्र व्यतीत हो जाते हैं। ॥इति काल द्वार ॥ ६ काल की ओपमा:-काल समझाने के लिये एक दृष्टान्त दिया जाता है। परमाणु यह सूक्ष्म से सूक्ष्म रज करण, यह अतीन्द्रिय ( इन्द्रिय से अगम्य ) होता है कि जिसका भाग व हिस्सा किसी भी शस्त्र से किंवा किसी भी प्रकार से हो सक्ता नहीं अत्यन्त बारीक सूक्ष्म से सूक्ष्म रज कण को परमाणु कहते हैं । इस प्रकार के अनन्त सूक्ष्म परमाणु से एक व्यवहार परमाणु होता है। २ अनन्त व्यवहार परमाणु से एक उष्ण स्निग्ध परमाणु होता है । ३ अनन्त उष्ण स्निग्ध परमाणु से एक शीत स्निग्ध परमाणु होता है । ४ आठ शीत स्निग्ध परमाणु से एक ऊर्ध्व रेणु होता है । ५ आठ ऊधरेणु से एक त्रस रेणु । ६ आठ त्रस रेणु से एक रथरेणु । ७ आठ रथ रेणु से देव-उत्तर कुरु के मनुष्यों का एक बालान । हरि-रम्यक वर्ष के मनुष्यों का एक बालान 8 इन आठ बालाग्र से हेमवय हिरण्य वय मनुष्यों का एक वालाग्र १० इन आठ बालान से पूर्व विदेह व पश्चिम विदेह मनुष्यों का एक बालाग्र ११ इन बालान से भरत ऐरावत के मनुष्यों का एक बालाग्र १२ इन आठ बालाग्र से एक लीख १३ अाठ लीख की एव जूं, १४ आठ जूं का एक Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७८) थोकडा संग्रह। अर्ध जव १५ आठ अर्ध जब का एक उत्सेध अङ्गल १६ छः उत्सेध अङ्गुलों का एक पैर का पहोल पना (चौड़ाई) १७ दो पैर के पहोल पने का एक वेंत १८ दो वेत एक हाथ दो हाथ एक कुक्षि १६ दो कुक्षि एक धनुष्य २० दो हजार धनुष्य का एक गाउ ( कोस ) २१ चार गाउ का एक योजन । कल्पना करो कि ऐसा एक योजन का लम्बा, चोड़ा, व गहरा कुवा हो उसमें देव-उत्तर कुरु मनुष्यों के बाल--एक २ बाल के असंख्य खण्ड करे बाल के इन असंख्य खण्डों से तल से लगाकर ऊपर तक ह्रस २ कर वो कुवा भरा जावे कि जिसके ऊपर से चक्रवर्ती का लश्कर चला जावे परन्तु एक बाल नमे नहीं, नदी का प्रवाह (गङ्गा और सिन्ध नदी का) उस पर बह कर चला जावे परन्तु अन्दर पानी भिदा सके नहीं, अग्नि भी यदि लग जावे तो वो अन्दर प्रवेश कर सके नहीं । ऐसे कुवे के अन्दर से, सो सो वर्ष x के बाद एक बाल--खण्ड निकाले, एवं सो सो वर्ष के बाद एक २ खण्ड निकालने से जब कुवा खाली हो जावे उतने समय को शास्त्र कार एक पल्योपम कहते हैं ऐसे दश कोड़ा ४ असंख्य समय की एक प्रावालिका, संख्यात अावालिका का एक श्वास, संख्यात समय का एक निश्वास दो मिलकर एक प्राण सात प्राण का एक स्तोक (अल्प समय), सात स्तोक का एक लव (दो काष्टा का माप) ७७ लव का एक मुहूर्त, तीश मुहूर्त एक अहोरात्रि १५ अहो रात्रि एक पक्ष, दा पक्ष एक माह, बारह माह एक वर्ष । Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुद्गल परावत । (३७६ ) क्रोड़ पल्य का एक सागर होता है । २० कोड़ा कोड़ सागरों का एक काल चक्र होता है । ॥ इति कालोपमा द्वार । ७ काल अल्प बहुत्व द्वारः-१ अनन्त काल चक्र जावे तब एक कार्मण पुद्गल परावर्त होवे । २ अनन्त कामण पुद्गल परावर्त्त जावे तब तैजस पुद्गल परावर्त होवे । ३ अनन्त तैजस पुद्गल परावर्त्त जावे तब एक औदारिक पुद्गल परावर्त्त हवे । ४ अनन्त औ० पु० परा० जावे तब एक श्वासोश्वास पुद्गल परावर्त होवे ५ अनन्त श्वा० पु० परा० जावे तब एक मन पुद्गल परा० होवे । ६ अनन्त मन पु० परा० जावे तब एक वचन पु० परा० होवे । ७ अनन्त वचन पु० परा० जावे तब एक वैक्रिय पु० परा० होवे । ॥ इति अल्प बहुत्व द्वार ॥ ८ पुद्गल मध्य पुद्गल परावर्त द्वारः-१ एक कार्मण पुद्गल परावर्त में अनन्त काल चक्र जावे । २ एक तैजस पुद्गल परा० में अनन्त कार्मण पु० परा० जावे ३ एक औदारिक पु० परा० में अनन्त तैजस् पु० परा० जावे ४ एक श्वासोश्वास पु० परा० में अनन्त औदारिक पु० परा० जावे ५ एक मन पु० परा० में अनन्त श्वासो पु० परा० जावे ६ एक वचन पु० परा० में अनन्त मन पु० परा० जावे Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ एक वैक्रिय पु० परा० में अनन्त वचन पु० परा० जाव | ॥ इति पुल मध्य पुगल परावर्त द्वार ॥ ६ पुल परावर्त्त किये उनका अल्प बहुत्वः -- १ सर्व जीवों ने सर्व से अल्प वैक्रिय पु० परा० किये २ इस से वचन पु० परा० श्रदन्त गुणे अधिक किये ३ इससे मन पु० रा० अनन्त गुणे अधिक किये ४ इससे वासो० पु० परा० अनन्त गुणे अधिक किये ५ इससे श्रदारिक पु० परा० अनन्त गुणे अधिक किये ६ इससे तैजम् पु० परा० अनन्तगुणे अधिक किये ७ इससे कार्मण पु० परा० अनन्तगुणे अधिक किये । ॥ इति पुद्गल करण अल्प बहुत्व || ॥ इति पुल परावर्त्त सम्पूर्ण ॥ Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जावा का मागणा का ५६३ प्रश्न । ( ३८१ ) जीवों की मार्गणा का ५६३ प्रश्न किस २ स्थान पर मिलते हैं अनुक्रम उसकी मार्गणाई नरक १४ भेद तिर्यचके ४८ भेद मनुष्यके ३०३भेद देवता के 22236 ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० १ अधो लोक में केवली में जीव के भेद २ निश्चय एकाव तारी में . ३ तेजो लेशी एकेन्द्रिय में ० ४ पृथ्वी काय में . ४ ५ मिश्र दृष्टि तिर्थच में . ६ उर्ध्व लोक देवी में . ७ नरक के पर्याप्त में ७ ० ८ दो योग वाले तिर्यच में . ६ उर्ध्व लोक नो गर्भज तेजो लेश्या में १० एकान्त सम्यक् दृष्टि में . . ११ वचन योगी चक्षु इन्द्रिय तिर्यच में . ११ १२ अधो लोक के गर्भज में . १० १३ वचन योगी तिथंच में ० १३ ० ० ० . ur ow ० २ . ० . . ___ Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३८२) थोकडा संग्रह। . . ० ० ० ० १४ अधो लोक वचन योगी __ औदारिक शरीर में . १३ १ १५ केवली में ० ० १५ १६ उर्ध्व लोक पंचेन्द्रिय १. तेजो लेश्या में . १० . १७ सम्यक दृष्टि घ्राणेन्द्रिय तिथंच में . १७ . १८ सम्यक् दृष्टि तिर्यंच में • १८ . १६ उर्ध्व लोक तेजोलेश्या में ० १३ . २० मिश्र दृष्टि गर्भज में . ५ १५ २१ औदारिक शरीर में से वैक्रिय करने वाले में . ६ १५ २२ एकेन्द्रिय जीवों में . २२ . २३ अधो लोक के मिश्रदृष्टि में ७ ५ १ २४ घ्राणेन्द्रिय तिर्यंच में . २४ ० २५ अधोलोक के वचन ___ योगी देवों में . . . २६ त्रस तिर्यंच में . २६ . २७ शुक्ल लेशी मिश्र दृष्टि में ० ५ १५ २८ तिर्यच एक संहनन वाले में • २८ ० २६ अधोलोक त्रस औदारिक में ० २६ ३ ३० एकांत मिथ्यात्वी तिर्यच में ० ३० . ० ० ० ० ० २५ . G ० . ० Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवों की मार्गणा का ५६३ प्रश्न | ० ♡ ३१ अधोलोक पुरुष वेद भाषक में ३२ पद्म लेशी मिश्र दृष्टि में ३३ पद्म लेशी वचन योगी में ३४ उर्ध्वलोक में एकांत मिथ्या. में ३५ अवधिदर्शन औदारिक शरीर में ० ३६ उर्ध्व लोक एकांत नपुंसक में ० ३६ ३७ अधो लोक पंचेन्द्रिय नपुंसकमे १४२० ३८ धो लोक मन योगी में ५ ० O ५ ५ ० ५ २८ ३६ अधो लोक एकांत असंज्ञी में ● ४० औदारिक शुक्ल लेशी में ४१ शुक्ललेशी सम्य. दृष्टि अमा. में ० ४२ शुक्ल लेशी वचन योगी में ४३ उर्ध्व लोक मन योगी में ४४ शुक्ल लेशी देवताओं में ४५ कर्म भूमि मनुष्यों में ० ५ ४६ अधोलोक के वचन योगी में ७ १३ ४७ शुक्ल लेशी उर्ध्वलोक में अव. ज्ञान० ४८ अधो लोक में त्रस भाषक ७ १३ ४६ उर्ध्वलोक शुक्कलेशी अव . दर्शन० ५० ज्योतिषी की गति में ५१ अधोलोक में औदारिक शरीरमें० ४८ ५२ उर्ध्व लोक शुक्कलेशी सम्य दृष्टि ० १० AC ० ( ३८३ ) १ १५ १५ ་པ O ० ० ३ ५ १ २५ ३८ १ १० ३० ५ १५ २१ ५ १५ २२ ० ३८ ४४ no ४५ O ० २५ १२ १२ ५ ४३ ० १ २५ ३ ४२ ३ २५ ४४ O ० Q o ० G ४२ Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३८४ ) थोकडा संग्रह। Y : ५३ अधोलोक के एकांत नपुं. वेदमें १४३८ १ . ५४ उर्वलोक शुक्ल लेशी में ० १० ० ४४ ५५ अधोलोक बादर नपुंसक में १४३८ ३ . ५६ तिर्यक् लोक मिश्र दृष्टि में . ५ १५ ३६ ५७ अधो लोक पर्याप्त में ७ २४ १ २५ ५८ अधोलोक अपर्याप्त में ७ २४ २ २५ ५६ कृष्ण लेशी मिश्र दृष्टि में ३ ५ १५ ३६ ६० अकर्म भूमि संज्ञो में . . ६० . ६१ उर्व लोक अनाहारिक में . २३ ० ३८ ६२ अधोलोक एकान्त ___ मिथ्यात्वी में १ ३० १ ३० ६३ उर्ध्व लोक तथा अधोलोक देव ( मरनेवालों में ० . . ६३ ६४ पद्म लेशा सम्यक दृष्टि में ० १० ३० २४ ६५ अधो लोक तजो लेशी में . १३ २ ५० ६६ पा लेशी में . १० ३० २६ ६७ मिश्र दृष्टि देवता में ० . ० ६७ ६८ तेजो लेशी मिश्र दृष्टि में . ५ १५ ४८ ६६ उर्व लोक बादर शाश्वत में ० ३१ ० ३८ ७० अधो लोक में अभाषक में ७ ३५ ३ २५ ७१ अधो लोक अवधि दर्शन में ०४ ५ २ ५० ७२ तिर्यक लोक के देवताओं में ० . ० ७२ ___ Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवों की मार्गणा का ५६३ प्रश्न । (३८५) ७३ अधो लोक के बादर मरने - वालों में ७ ३८ ३ २५ ७४ मिश्र दृष्टि नो गर्भज में ७ ० ० ६७ ७५ उर्ध्व लोक में अवधि ज्ञान में ० ५ ० ७० ७६ उर्ध्व लोक में देवताओं में . ० : ७७ अधो लोक में चतु इन्द्रिय __नो गर्भज में १४ १२ १ ७८ उर्ध्व लोक में नो गर्भज . . सम्यक् दृष्टि में .. . ८ ० ७० ७६ उर्घ लोक में शाश्वत में . ४१ • ३८ ८७ धातकी खण्ड में त्रस में . २६ ५४ . ८१ सम्यक् दृष्टि देवताओं के पर्याप्त में ८२ शुक्ल लेशी सम्यक दृष्टि में ० १० ३० ४२ ८३ अधो लोक में मरने वालो में ७ ४८ ३ २५ ८४ शुक्ल लेशा जीवों में . १० ३० ४४ ८५ अधो लोक कृष्ण लेशी त्रस में ६ २६ ३ ५० ८६ उर्ध्व लोक पुरुष वेद में . १० . ७६ ८७ उर्ध्व लोक घ्राणेन्द्रिय ... सम्यग दृष्टि में ० १७ ०७० ८८ उर्घ लोक सम्यग् दृष्टि में . १८ . ७० ८६ अधो लोक चक्षु इन्द्रिय में १४ २२ ३ ५० Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३८६) थोकडा संग्रह। ६० मनुष्य सम्यग् दृष्टि में . . . . ६१ अधो लोक में घ्राणेन्द्रिय में १४ २४ ३ ५० १२ उर्घ लोक त्रस मिथ्यात्वी में ० २६ ० ६६ ६३ अधो लोक त्रस में १४ २६ ३ १४ देवता मिथ्यात्वी पर्याप्त में ० . ० ६४ ६५ नो गर्भज अभाषक सम्यम् _____ दृष्टि में ६६ उर्घ लोक पंचेन्द्रिय में ० २० ० ७६ १७ अधो लोक कृष्ण लेशी ___बादर में ६ ३८ ३ ५० ६८ धातकी खण्ड में प्रत्येक श.में. ४४ ५४ . ६६ वचन योगी देवताओं में . . . 88 १०० उर्व लोक प्रत्येक शरीर ___बादर मिथ्यात्वी - ३४ . ६६ १०१ वचन योगी मनुष्यों में ० ० १०१ . १०२ उर्व लोक त्रस में ० २६ ० ७६ १०३ अधो लोक नो गर्भज में १४१८१ ५० १०४ एकान्त मिथ्यात्व शाश्वत में . ३० ५६ १८ १०५ अधो लोक बादर में १४३८ ३ ५० १०६ मन योगी गर्भज में . ५ १०१ . १०७ अधो लोक कृष्ण लेशी में ६ ४८ ३.५० ___ Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवों की मार्गणा का ५६३ प्रश्न । ( ३८७) wwwAN mmernmmmmm १०८ औदारिक शरीर सम्यग दृष्टि में ० १८ १० . १०६ कृष्ण लेशी वैक्रिय शरीर नो गर्भज में ६ १ . १०२ ११० उर्ध्व लोक बादर प्रत्येक शरीर में . ३४ . ७६ १११ अधोलोक प्रत्येक शरीरमें १४ ४४ ३ ५० ११२ उर्ध्व लोक मिथ्यात्वी . ४६ ० ६६ ११३ वचन योगी घ्राणेन्द्रिय औदारिक में . १२ १०१ . ११४ औदारिक वचन योगी में . १३ १०१ . ११५ अधो लोक में १४ ४८ ३ ५० ११६ मनुष्य अपर्याप्त मरने वालों में ० ० ११६. . ११७ क्रिया वादी समोशरण अमर में ६ ० ३० ११८ उर्व लोक प्रत्येक शरीर में ० ४२ ० ७६ ११६ घ्राणेन्द्रिय मिश्र योग शाश्वत में ७ १२ १५ ८५ १२० एकान्त असंज्ञी अपर्याप्त में: १६ १०१ ० १२१ विभंग ज्ञान वालों में ७ ५ १५ ६४ Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३८८) थोकडा संग्रह। १२२ कृष्ण लेशो वैक्रिय .. शरीर स्त्री वेद में . ५ १५ १०२ १२३ तीन औदारिक शाश्वत में ० ३७ ८६ . १२४ लवण समुद्र में घ्राणेन्द्रिय शाश्वत में ० १२ ११२ . १२५ लवण समुद्र में तेजो लेशी में ० १३ ११२ ० १२६ मरने वाले गर्भज जीवों में ० १० १२७ वैक्रिय शरीर मरने वालों में ७ ६ १५६६ १२८ देवियों में ० . ० १२८ १२६ एकान्त असंज्ञी बादर में ० २८ १०१ ० १३० लवण समुद्र त्रस मिश्र योगी में . १८ ११२ ० १३१ मनुष्य नपुंसक वेदमें ० ० १३१ ० १३२ शाश्वत मिश्र योगी में ७ २५ १५ ८५ १३३ मन योगी सम्यग् दृष्टि असंख्यात भववालों में ७ ५ ४५ ७६ १३४ बादर औदारिक शाश्वत में ० ३३ १०१ . १३५ प्रत्येक शरीरी एकान्त असंज्ञी में ० ३४ १०१ . १३६ तीन लेश्या औदारिक शरीरमें० ३५ १०१ ० १३७ क्रिया वादी अशाश्वत में ६ ५ ४५ ८१ १३८ मन योगी सम्यग् दृष्टि में ७ ५ ४५ ८१ Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवों की मार्गणा का ५६३ प्रश्न | (३८६) १३६ औदारिक शरीर नो गर्भज में ० ३८ १०१ . १४० कृष्ण लेशी अमर में ३ ० ८६ ५१ १४१ अवधि दर्शन मरने वालों में ७ ५ ३० हह १४२ पंचेन्द्रिय सम्यग दृष्टि मरने . वालों में ६ १० ४५ ८१ १४३ एकांत नपुंसक बादर में १४ २८ १०१ ० १४४ नो गर्मज शाश्वत में ७ ३८ ० ६६ १४५ अपर्याप्त सम्यग् दृष्टि में ६ १३ ४५ ८१ १४६ त्रस नो गर्भज एकांत मि.में १ ८ १०१ ३६ १४७ लवण समुद्र के अभाषक में - ३५ ११२ - १४८ स्त्री वेद वैक्रिय शरीर में - ५ १५ १२८ १४६ संज्ञी एकांत मिथ्यात्वी में १ - ११२ ३६ १५० तिर्यक् लोक में वचन योगीमें- १३ १०१ ३६ १५१ तिर्यक् लोक पंचेंद्रिय नपुं.में - २० १३१ - १५२ तिर्यक्लोक पंचेंद्रिय शाश्वतमें- १५ १०१ ३६ १५३ एकांत नपुंसक वेदमें १४ ३८ १०१ - १५४ तेजो लेशी वचन योगी सम्यक दृष्टि में - ५ १०१ ४. १५५ तियक लोक में प्रत्येक शरीरी बादर पर्याप्त में - १८ १.१ ३६ १५६ तिर्यक् लोक बादर पर्याप्त में - १६ १०१ ३६ Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६०) थोकडा संग्रह। rwwwwwwwwwwwwwwwwww १५७ मनुष्य एकांत मिथ्यात्वी अपर्याप्त में - - १५७ - १५८ नो गर्भज एकांत मिथ्या दृष्टि बादर में ___ - २० १५६ तियक लोक प्रत्येक शरीरी पर्याप्त में - २२ १६० तिर्यक् लोक कृष्ण लेशी सम्यग् दृष्टि में - १८ ६० १६१ तियक् लोक पर्याप्त में - २४ १०१ ३६ १६२ देवता सम्यग् दृष्टि में - - - १६२ १६३ स्त्री वेद अवधि दर्शन में - ५ ३० १२८ १६४ प्रत्येक शरीरी नो गर्भज __ एकान्त मिथ्या दृष्टि में १ २६ १०१ ३६ १६५ पंचेन्द्रिय नपुंसक वेद में १४२० १३१ - १६६ अभाषक मरने वालों में -. ३५ १३१ - १६७ कृष्ण लेशी घ्राणेन्द्रिय वचन योगी में ३ १२ १०१ ५१ १६८ कृष्ण लेशी वचन योगी में ३ १३.१०१ ५१ १६६ तिर्यक् लोक नो गर्भज.. कृष्ण लेशी त्रस में - १६ १०१ ५२ १७० तेजो लेशी वचन योगी में - ५ १०१ ६४. चाणान्द्रय Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवों की मार्गणा का ५६३ प्रश्न । ( ३६१) दृष्टि में १७१ नो गभेज कृष्ण लेशी त्रस मरने वालों में १७२ कृष्ण लेशी स्त्री वेद सम्यक् । - १०.६० ७२ १७३ तेजो लेशी अभाषक में -८१०१ ६४ १७४ नो गर्भज कृष्ण लेशी अपर्याप्त में ३ १६ १०१ ५१ १७५ औदारिक शरीर चार लेशीमें- ३ १७२ - १७६ लवण समुद्र त्रस एकांत मिथ्यात्वी में - ८ १६८ - १७७ तिर्यक लोक पंचेन्द्रिय सम्यग् दृष्टि में - १५ १७८ तिर्यक् लोक चक्षु इन्द्रिय सम्यग् दृष्टि में - १६ .१७६ तियक लोक समुच्चय . नपुंसक वेद में -४८ १३१ - १८० तिर्यक् लोक सम्यग् दृष्टि में - १८ ६० ७२ १८१ नो गर्भज चक्षु इन्द्रिय सम्यग् दृष्टि में १३ ६ - १६२ १८२ नो गभेज घ्राणेन्द्रिय ____ सम्यग् दृष्टि में १३ ७ - १६२ १८३ नो गर्भज सम्यग् दृष्टि में १३ ८ - १६२ Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३९२) थोकडा संग्रह। १८४ मिश्र योगी देवता वैक्रिय शरीर में - १८४ १८५ कृष्ण लशी सम्यग दृष्टि में ५ १८ ६० ७२ १८६ नील लेशी सम्यग दृष्टि में ६ १८ ६० ७२ १८७ श्रभाषक मनुष्य एक संस्थानी में - १८७ १८८ विभंग ज्ञानी देवताओं में - - - १८८ १८६ तिर्यक लोक नो गर्भज त्रसमें - १६ १०१ ७२ १६० लवण समुद्र चक्षु इन्द्रिय में - २२ १६८ - १६१ तिर्यक् लोक कृष्ण लेशी नो गर्भज में - ३८ १०१ ५२ १६२ लवण समुद्र घ्राणेन्द्रिय में - २४ १६८ - १६३ समुच्चय नपुंसक वेद में १४ ५८ १३१ ५२ १६४ लवण समुद्र त्रस जीवों में - २६ १६८ - १६५ सम्यग् दृष्टि वैक्रिय शरीरमें १३ ५ १५ १६२ १६६ ते नो लेशी सम्यग दृष्टि में - १० . ६० ६६ १६७ एक वेदी चनु इन्द्रिय में १४ १२ १०१ ७० १६८ एकांत मिथ्यात्वीअभाषकमें १ २२ १५७ १८ १६६ नो गर्भज वैक्रिय मिश्र योगी में । १४ १ -१८४ २०० वचन योगी तीन शरीर में ७ ८. ८६ ६६ २०१ एक वेदी त्रस में १४ १६ १०१.७० RSS ना गमज वाकयामश्र Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवों की मार्गणा का ५६३ प्रश्न । (३६३) २०२ नो गर्भज विभंग ज्ञानी में १४ - - १८८ २०३ नो गर्भज वैक्रिय शरीरी मिथ्यात्वी में १४ १ - १८८ २०४ एकांत मिथ्यात्व दृष्टि तीन शरीर में - २६ १५७ २०५ एकांत मिथ्यात्व दृष्टि मरने वालों में - ३० १५७ १८ २०६ लवण समुद्र बादर में - ३८ १६८ - २०७ मनयोगी मिथ्यात्वी में ७ ५ १०१ ६४ २०८ अनेक भववाले अवधि ज्ञान में १३ ५ ३० १६० २०६ समुच्चय संख्यात काल के त्रस मरने वालों में १२६ १३१ ५१ २१० एकान्त संज्ञी मिश्र योगी में १३ ५ ४५ १४७ २११ तिर्यक् लोक नोगर्भज में -- ३८ १०१ ७२ २१२ मनयोगी जीवों में ७ ५ १०१ ६६ २१३ एकान्त मिथ्यात्वी मनुष्य में -- -- २१३ - २१४ मिथ्यात्वी वैक्रिय मिश्र योगी में १४ ६ १५ १७६ २१५ औदारिक तेजो लेशी में - १३ २०२ - २१६ लवण समुद्र में -४८ १६८ - २१७ वचन योगी पंचेन्द्रिय में ७ १० १०१ १६ २१८ त्रस वैक्रिय मिश्र में १४ ५ १५ १८४ Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६४) थोकडा संग्रह । २१६ वैक्रिय मिश्र में १४ ६ १५ १८४ २२० वचन योगी में ७ १३ १०१ ६६ २२१ अचरम बादर पर्याप्त में ७ १६ १०१ ६४ २२२ पंचेन्द्रिय शाश्वत में ७ १५ १०१ ६६ २२३ वैक्रिय मिथ्यात्वी में १४ ६ १५ १८८ २२४ चतु इन्द्रिय शाश्वत में ७ १७ १०१ १६ २२५ प्रत्येक शरीर बादर पर्याप्त में ७ १८ १०१ ६६ २२६ औदारिक शरीरी अपर्याप्त में - २४ २०२ - २२७ नोगर्भज बादर अभाषक में ७ २० १०१ ६६ २२८ त्रस शाश्वत में ७ २१ १०१ 88 २२६ प्रत्येक शरीरी पर्याप्त में ७ २२ १०१ ६६ २३० त्रस औदारिक शरीरी अभाषक में - १३ २१७ - २३१ पर्याप्त जीवों में ७ २४ १०१ ६६ २३२ पंचेन्द्रिय औदारिक मिश्र योगी में - १५ २१७ - २३३ वैक्रिय शरीर में १४ ६ १५ १६८ २३४ औदारिक मिश्र योगी घ्राणन्द्रिय में - १७ २१७ - २३५ औदारिक मिश्र योगी त्रस में - १८ २१७ - २३६ मनुष्य की आगति नो गर्भज में६ ३० १०१ 88 २३७ औदारिक शरीरी पंचेन्द्रिय मरने वालों में . - २० २१७ - Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवों को मार्गणा का ५६३ प्रश्न | २३८ प्रत्येक शरीरी बादर शाश्वत में २३ समदृष्टि मिश्र योगी में २४० शाश्वत बादर में २४१ प्रत्येक शरीरी नोगर्भज मरने वालों में २४२ बादर औदारिक मिश्र योगी में - २५ २१७ २४३ औदारिक एकान्त मिथ्यात्वी में २४४ तीन शरीर नो गर्भज मरने वालों में २५० भव्य सिद्धि शाश्वत में २५१ तिर्यक त्रस अपर्याप्त में २५२ श्रदारिक भाषक में २५३ मिश्र योगी मरने वालों में २५४ स्त्री वेद मिश्र योगी में ७ ३११०१६६ १३१८ ६० १४८ ७३३१०१ ६६ २४५ संमूर्छिम असंज्ञी त्रस में २४६ प्रत्येक शरीरी शास्वत में २४७ अवधि दर्शन में २४८ तिर्यक् पंचेन्द्रिय अपर्याप्त में २४६ तिर्यक् चक्षुइन्द्रिय अपर्याप्त में ww ७ ३४ १०१ ६६ १४ I ( ३६५ ) ७३७१०१ ६६ १ २१ १७२ ५१ ७३६ १०१ ६६ ५ ३० १६८ १० २०२ ३६ ७ WE ३० २१३ 1 I ११ २०२३६ ४३ १०१ ६६ १३ २०२३६ ३५ २१७ ३० १३१ ८५ १० ११६ १२८ ---- Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६६) थोकडा संग्रह। २५५ पंचेन्द्रिय एकान्त मिथ्यात्वी में १ ५ २१३ ३६ २५६ चक्षु इन्द्रिय एकान्त मिथ्यात्वी में १ ६ २१३ ३६ २५७ घ्राणेन्द्रिय एकान्त मिथ्यावी १ ७ २१३ ३६ २५८ स एकान्त मिथ्यात्वी में १ ८ २१३ ३६ २५६ धर्म देव की आगति के घ्राणन्द्रिय में ५ २४ १३१ 88 २६० पंचेन्द्रिय तीन शरीरी सम्यक् दृष्टि में १३ १० ७५ १६२ २६१ कृष्ण लेशी अशाश्वत में ३ ५ २०२ ५१ २६२ पुरुष वेदी सम्यक दृष्टि में - १० १० १६२ २६३ प्रत्येक शरीरी समुच्चय असंज्ञी में १ ३६ १७२ ५१ २६४ तिर्यक् लोक कृष्ण लेशी स्त्री वेद में - १० २०२ ५२ २६५ औदारिक शरीर मरने वालों में- ४८ २१७ - २६६ पंचेन्द्रिय कृष्ण लेशी अनहारी में ३ १० २०२५१ २६७ चक्षु इन्द्रिय कृष्ण लेशी अनाहारी में ३ ११ २०२ ५१ Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवों की मार्गणा का ५६३ प्रश्न | २६८ एक दृष्टि त्रस काय में २६६ तिर्यक् कृष्ण लेशी त्रस मरने वालों में २७० बादर एकान्त मिथ्यात्वी में २७१ मनुष्य की प्रगति के मिथ्यात्वी में २७४ कृष्ण लेशी मिथ्यात्वी में २७५ क्रियावादी समोसरण में २७६ मनुष्य की प्रगति में २७७ चार लेश्या वालों में १ २८० पंचेन्द्रिय सम्यक दृष्टि में २८१ चक्षु इन्द्रिय दृष्टि में २८२ घ्राणेन्द्रिय दृष्टि में २८३ स काय दृष्टि में २८४ तिर्यक लोक के पुरुष वेद में २८५ चतु इंद्रिय एक संस्थान श्रदारिक में ६ ४० १३१ ६४० २७२ मनुष्य की प्रगति के प्रत्येक शरीरी में २७३ नील लेशी एकांत मिथ्यात्वी में ० ३० २१३ ३० ६ ३६ १३१ ह - U २६ २१७ २६ १ २० २१३ ३६ १३० २१३ ३० १३१० ६० १६२ ६ ४० १३१ ह ३ १७२१०२ २७८ तिर्यक् लोक बादर भाषक में ० २५ २१७ ३७ २७९ चक्षु इन्द्रिय सम्यकू अनेक भव वालों में ( ३६७ ) २१३ ४६ O १३ १६६० १६० १६२ १३१५ ६० १३ १६६० १६२ १३ १७६० १६२ १३ १८६० १६२ ० १० २०२७२ ० १२ २७३ ० Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६८ ) २८६ घ्राणेन्द्रिय एक संस्थान औदारिक में • १३ २७३ O • १३ २०२ ७२ २८७ तिर्यक तेजो लेशी में २८८ तीन शरीरी मनुष्य में २८६ स एक संस्थान श्रदारिक में ० १६ २७३ ० २८८ २६० एक दृष्टि वाले जीवों में २६१ तिर्यक् लोक कृष्ण लेशी मरने वालों में २६२ जघन्य अन्तर्मुहूर्त उत्कृष्ट • ४८ २१७ २६ २ सागर १ संठाण मरने वालों में २३८ १८७६५ २६३ चक्षु इंद्रिय कृष्ण लेशी मरने वालों में २६४ नो गर्भज की प्रगति के कृष्ण लेशी त्रस में २६५ घ्राणेन्द्रिय कृष्ण लेशी मरने वालों में थोकडा संग्रह | १३० २१३४६ ३२२२१७५१ ० २६ २१७५१ ३ २४ २१७ ५१ २६६ एकांत संज्ञी में १३ ५१३१ १४७ २६ २१७ ५१ ७ २६७ त्रस कृष्ण लेशी मरने वालों में ३ २६८ पंचेन्द्रिय पर्याप्त एक संस्थानीमें २६६ चक्षु इंद्रिय पर्याप्त एक संस्था. में ७ ३०० स्त्री वेद पर्याप्त एक संस्थानी में ३०१ एक संस्थानी औदारिक बादर में-- २८ २७३ ५ १८७ ६६ ६ १८७ ६६ ० • १७२ १२८ Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवों की मार्गणा का ५६३ प्रश्न । ( ३६६) ३०२ घ्राणेन्द्रिय एक संस्थानी __ अचरम मरने वालों में ७१४ १८७ ६४ ३०३ मनुष्य में -- -- ३०३ .३०४ नो गर्भज पंचेन्द्रिय मिश्र योगी में १४ ५ १०१ १८४ ३०५ सम्यक् आगति कृष्ण लेशी बादर में ३ ३४ २१७ ५१ ३०६ तियघ्राणेन्द्रिय मिश्र योगी में० १७ २१७ ७२ ३०७ तियक त्रस मिश्र योगी में -- १८ २१७ ७२ ३०८ अशाश्वत मिथ्यात्वी में ७५ २०२ ६४ ३०६ सम्यक् प्रागति एक संस्थानी त्रस में ७ १६ १८७ 88 ३१० औदारिक तीन शरीरी एक संस्थानी में - ३७ २७३ -- ३११ औदारिक एक संस्थानी में - ३८ २७३ .. ३१२ नोगर्भज की आगति कृष्ण तीन शरीरी -- ४३ २१७ ५२ ३१३ अशाश्वत में ७ ५ २०२ 88 ३१४ कृष्ण लेशी स्त्री वेद में .- १० २०२ १०२ ३१५ प्र० तीन शरीरी कृष्ण. __ मरने वालों में ३ ४४ २१७ ५१ ३१६ त्रस अनाहारी अचरम में ७ १३ २०२ ६४ Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थोकडा संग्रह। ३१७ नो गर्भज घ्राणे. मिथ्या. में १४ १४ १०१ १८८ ३१८ श्रोत्रेन्द्रिय अपर्याप्त में . ७ १० २०२ ६६ ३१६ कृष्ण लेशी मरने वालों में ३ ४८ २१७ ५१ ३२० तीन शरीरी स्त्री वेद में -५ १८७ १२८ ३२१ त्रस अपयाप्त में ७ १३ २०२ ६६ ३२२ बादर अनाहारी अचरम में ७ १६ २०२ ६४ ३२३ नोगर्भज पंचेन्द्रिय में १४ १० १०१ १६८ ३२४ तीन शरीरी त्रस मिथ्या.में ७ २१ २०२ ६४ १२५ औदारिक चक्षु इन्द्रिय में .. २२ ३०३ .. ३२६ मिथ्यात्वी एक संस्थानी मरने वालों में ७३८ १८७ ६४ ३२७ नो गर्भज घ्राणेन्द्रिय में १४ १४ १०१ १६८ ३२८ बादर प्रभाषक अचरम में ७ २५ २०२ ६४ २२६ औदारिक त्रस में .. २६ ३०३ -- ३३० औदारिक एकान्त भवधारणी देह - ४२ २८८ - ३३१ नो गर्भज बादर मिथ्या. में १४ २८ १०१ १८८ ३३२ त्रस एकान्त संख्या काल की स्थिति वाले में ७ २४ २०२ ६६ ३३३ चनु इन्द्रिय एक संस्थानी ७ २० २०७ ६६ ३३४ तिर्यक् अधोलोक की स्त्री में - १० २०२ १२२ ३३५ घ्राणेन्द्रिय एक संस्थानी स्थिति वाले में २२ २०७ 88 Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवों की मार्गणा का ५६३ प्रश्न । ३३६ कार्मण योग स में ७ १३ २१७ 88 ३३७ नोगर्भज प्र.शरीरी अचर.में १४ ३४ १०१ १८८ ३३८ अभाषक अचरम में ७ ३५ २०२ ६४ ३३६ उर्ध्व तिर्यक् के मरने वालोंमें० ४८ २१७ ७४ ३४० नोगर्भज बाद. तीन शरीरीमें१४ २७ १०१ १६८ ३४१ औदारिक बादर में . ३८ ३०३ ० ३४२ घ्राणेंद्रिय मिथ्या.मरने वालोंमें७ २४ २१७ ६४ ३४३ तेजो लेश्या वाले जीवों में • १३ २०२ १२८ ३४४ स मिथ्या. मरने वालोंमें ७ २६ २१७६४ ३४५ तीन शरीरी " " " ७ ४२ २०२ ६४ ३४६ प्रत्येक शरीरी ज, अं. उ.१६ । ___ सा. स्थिति के मरने वालों में ५ ४४ २१७ ८० ३४७ अनाहारक जीवों में ७ २४ २१७ ६६ ३४८ बादर प्रभाषक में ७ २५ २१७ 88 ३४६ स मरने वालों में ७ २६ २१७ 88 ३५० नो गर्भज तीन शरीरी में १४ ३७ १०१ १६८ ३५१ औदारिक शरीर में . ४८ ३०३ . ३५२ ज.मं. उ. १७ सागर की। स्थिति के मरने वालों में ६४८ २१७ ८१ ३५३ नो गर्भज की गति के त्रस - तीन शरीर में २ २१ २२८ १०२ Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ( ४०२ ) ३५४ मिथ्या० एकान्त संख्या ० स्थिति में ३५५ तिर्यक् लोक पंचेन्द्रिय एक संस्थानी १. ३५६ बादर मिथ्या ० मरने वालों में ७ ३८ ७३४ ७ ३५ ३५७ सम्य० प्रगति के चादर में ३५८ अभाषक जीवों में ३५६ तिर्यक घ्राणेन्द्रिय एक संस्थानी में ७ ४६ ३६२ प्र. शरीरी मिथ्या. मरने वालों में ३६३ सम्य, श्रगति में ३६४ नो गर्मज की गति के बादर तीन शरीर में ३६५ ज. अं. उ. २६ सागर की स्थिति के मरने वालों में ३६६ मिथ्या. मरने वालों में ३६७ प्र. शरीरी मरने वालों में ३६८ पुरुष एक संस्था. अनेक भववालों में १४ ३६० त्रस ० १० 19 99 ३६१ ऊर्ध्वं तिर्यकू, पुरुष वेद में ० १६ १६ * 1 1 ७४४ ૭ ૩૦ ७ ४८ ७४८ ७ ४४ थोडा संग्रह | २०७ ६४ २७३ ७२ : २१७ ६४ २१७६६ २१७ ६ २७३ ७२ २०२ १४८ २७३ ७२ २३२ २२८ १०२ २१७ ६४ २१७ ६६ २१७६३ २१७६४ २१७६६ १७२ १६६ Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवों की मार्गणा का ५६३ प्रश्न । (४०३) ३६६ अधो.तिर्य चक्षु.मिश्र योगी १४ १६ १७ १२२ ३७० कृष्ण लेशी संख्या. स्थिति वालों में ३ ४८ २१७ १०२ ३७१ समुच्चय मरने वालों में ७४८ २१७ 88 ३७२ तिर्य, कृष्ण, तीन शरीरी वादर में - ३२ २८८ ५२ ३७३ तिर्य. बादर एक संस्थानी में- २८ २७३ ७२ ३७४ अ. ति. बादर कृष्ण . एकान्त भव धारणी देह ३ ३२ २८८ ५१ ३७५ तिर्य. पंचेन्द्रिय कृष्णलेशी में- २० ३०३ ५२ ३७६ एक संस्थानी मिश्र योगी पंचेन्द्रिय अनेरियों में -५ १८७ १८४ ३७७ तिर्य, चतु. कृष्ण लेशी में - २२ ३०३ ५२ ३७८ भुजपर की गति के पंचे. तीन शरीरी ४ १० २०२ १६२ ३७६ तिर्य. घ्राणन्द्रिय कृष्ण लेशी - २४ ३०३ ५२ ३८० पुरुष तीन शरीरी अचरम में - ५ १८७ १८८ ३८१ तियक, त्रस कृष्ण लेशी में - २६ ०३ ५२ ३८२ " तीन शरीरी कृष्ण लेशी में- ४२ २८८ ५२ ३८३ तिय. एक संस्थानी में - ३८ २७३ ७२ ३८४ संज्ञी " १४ - १७२ १९८ ३८५ नोगर्भज की गति के बादर में २ ३८ . २४३ १०२ Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४०४) "योकडा संग्रह। ३८६ उर्ध्व तिर्य. एकान्त भव धारणी देह पांच अचरम में - २० २८८ ७८ ३८७ उ. तिर्य. त्रस मिथ्या एकान्त भव धारणी देह में - २१ २८८ ७८ ३८८ अघो तिये, एकान्त भव ___धारणी देह बादर में ७ ३२ ३८६ संज्ञी अभव्य तीन शरीरी अतिर्यंच में १४ - १८७ १८८ ३६० पुरुष वेद तीन शरीरी में - ५ १८७ १६८ ३६१ पंचन्द्रिय कृष्ण, एक संस्थानी में ६ १० २७३ १०२ ३६२ तिर्य. बादर तीन शरीरी में -- ३२ २८८ ७२ ३६३ तिर्यंच बादर कृष्ण लेशी में .. ३८ ३०३ ५२ ३६४ संज्ञी अभव्य तीन शरीरी १४ ५ १८७ १८८ ३६५ तिर्यंच पंचेन्द्रिय में .. २० ३.३ ७२ ३६६ उचे. ति. एक.न्त भव धारणी देह पंचन्द्रिय में - २० २८८ ८८ ३६७तिय. चक्षु इन्द्रिय में .. २२ ३०३ ७२ ३४८, प्राण , , - २४ ३०३ ७२ ३९६ अधो. ति. एकान्त भव . धारणी देह में ७४२ २८८ ६१.. ४०. प्रभव्य पुरुष वेद में -१० २०२ १८८ ___ Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवों की मार्गणा का ५६३ प्रश्न । (४०५) ४०१ तिर्य. त्रस जीवों में .. २६ ३०३ ७२ ४०२ , तीन शरीरी में .. ४२ २८८ ७२ ४०३ ,, कृष्ण लेशी में . ४८ ३०३ ५२ ४०४ समु, संज्ञी असं. भववाले ___ अतिर्यंच में १४ - २०२ १८८ ४०५ ऊपर की गति के चक्षु. मिश्र योगी में १० १६ २१७ १६२ ५०६ ,, ,, घ्राण , , १० १७ २१७ १६२ ४०७ बादर प्र. कृष्ण एक ___संस्थानी में ६ २६ २७३ १०२ ४०८ बादर कृष्ण , ६ २७ २७३ १०२ ४.६ तिर्यच एकान्त छमस्थ में - ४८ २८८ ७२ ४१० पुरुष वेद में -१० २०२ १९८ ४११ तिर्यच प्र.शरीरी बादर में - ३६ ३०३ ७२ ४१२ स्त्री गति के संज्ञी मिथ्या में १२ १० २०२ १८८ ४१३ संज्ञी मिथ्यात्वी में १३ १० २०२ १८८ ४१४ प्रशस्त लेश्या में .. १३ २०२ १९८ ४१५प्र.शरीरी कृष्ण एक संस्थानी६ ३४ २७३ १०२ ४१६ अप्रशस्त लेशी तीन शरीरी बा. एक संस्था. १४ २७ २७३ १०२ ४१७ प्र. बादर एक संस्था, .. एकान्त मव धारणी देह ७ २५ २७३ ११३ Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४०६ ) ४१८ कृष्ण लेशी एक संस्थानी में ६ ३ ४१६ स्त्री गति कृष्ण, एक संस्थानी ४ ३८ ४२० मिश्र योगी बादर एकान्त असंयम में ४२१ स्त्री गति अप्रशस्त लेशी प्र. शरीर एक संस्था. ४२२ स्त्री गति के संज्ञी में ४२३ समुच्चय संज्ञी में ४२४ प्र. शरीरी मिश्र योगी एकान्त संयम में ४३० स्त्री गति के त्रस मिश्र अनेक भव वाले ४३१ मिथ्या. " " " ४३२ त्रस मिश्र योगी संख्या भव वाले १४ २० ४२५ मिश्र योगी एकान्त अपच्चकखणी में १४ २५ ६ ३० ४२६ कृष्ण लेशी बा. प्र. तीन शरीरी में ४२७ अप्रशस्त लेशी एक संस्थानी १४ ३८ ४२८ कृष्ण लेशी बादर तीन शरीरी ६ ३२ ४२६ " " " एकान्त असंयम में ६ ३३ १२३४ १२ १० १४ २३ १२ १८ १२ १८ थोकडा संग्रह | २७३१०२ २७३ १०२ १४ १० २०२ १६८ २०२ १८४ २७३१०२ २०२ १६८ २०२ १८४ २०२ १८४ २८८ १०२ २७३१०२ २८६ १०२ २८८ १०२ २१७१८३ २१७ १८४ १४ १८ २१७१८३ Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवों की मार्गणा का ५६३ प्रश्न । (४०७ ) लेशी ४३३ , १४ १८ २१७ १८४ ४३४ कृ.. प्र. तीन शरीरी में ६ ३८ २८८ १०२ ४३५ मिश्र योगी बा. मिथ्या. १४ २५ २१७ १७६ ४३६ रा. तीन शरीरी अप्रशस्त १४ ३२ २८८ १०२ ४३७ बा. एकान्त अपञ्च, अप्र. शस्त लेशी १४ ३३ २०८ १०२ ४३८ कृष्ण, तीन शरीरी ६ ४२ २८८ १०२ ४३६ , एकान्त अपच्च. ६ ४३ २८८ १०२ ४४० मिश्र योगी बादर १४ २५ २१७ १८४ ४४१ अधो. ति. के चक्षु. तीन शरीरी में १४ १७ २८८ १२२ ४४२ प्र. तीन श.अप्रशस्त लेशी१४ ३८ २८० १०२ ४४३ प्र. मिश्र योगी १४ २८ २१७ १८४ ४४४ प्र. एकान्त भव धा. देह अनेक भववाले ७ ३८ २८८ १११ ४४५ अधो. ति. तीन शरीरी स मिश्रयोगी में १४ २१ २८८ १२२ ४४६ अम. लेश्या तीन शरीरी १४ ४२ २८८ १०२ ४४७ एकान्त असंयम अप्र. शस्त लेशी १४ ४३ २८८ १०२ ४४८ ,, भव धा.देह अनेक भववाले७ ४२ २८८ १११ Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४०८) धोकडा संग्रह। VAANAAMRUTVAJRANMAMANNA/wn. ४४६ स्त्रीगति के एकान्त भव देह ६ ४२ २८८ ११३ ४५० भव सिद्धि एकांत भव. देह ७ ४२ २८८ ११३ ४५१ ऊपर की गति कृ० प्र० तीन शरीर २४४ ३०३ १०२ ४५२ भुज पर गति अधोगतिक प्र. तीन शरीर ४.३८ २८८ १२२ ४५३ स्त्री० गति कृ० प्र० शरीरी ४ ४४ ३०३ १०२ ४५४ उर्व ति० एकांत छद्० पं० अनेक भव में . २० २८८ १४६ ४५५ कृष्ण प्र. शरीरी ६ ४४ ३०३ १०२ ४५६ अधो.ति. तीन शरीरी बादर१४ ३२ २८८ १२२ ४५७ अप्रशस्त लेशी बादर १४ ३८ ३०३ १०२ ४५८ उर्व. ति. के एक संस्थानी में • ३८ २७३ १४८ ४५६ " " एकांत छदस्थ चक्षु.. २२ २८८ १४८ ४६० " " " "घ्राण. . २४ २८८ १४८ ४६१ अधो." के चक्षु १४ २२ ३०३ १२२ ४६२ " " घ्राण. १४ २५ ३०३. १२२ ४६३ " "बादर एकांत छ० में१४ ३८ २८८ १२२ ४६४ " " त्रस १४ २६ ३०३ १२२ ४६५ स्त्री गति के अधोति ... तीन शरीरी १२ ४२ २८८ १२२ ४६६ अधो ति० तीन शरीरी १४ ४२ २८८ १२२ । Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवों की मार्गणा का ५६३ प्रश्न । (४०६) ४६७ अप्रशस्त लेश्या में १४ ४८ ३०३ १०२ ४६८ उधति.तीन शरीग बादर. ३२ २८८ १४८ ४६६ " " एकांत असंयम" ० ३३ १८८ १४८ ४७० अधो०" छद्म.स्त्रो गाते में१२ ४८ २८८ १२२ ४७१ उर्ध्व " पंचेन्द्रिय में ०२० ३०३ १४८ ४७२ अधोति० एकांत छद्मस्थ१४ ४८ २८८ १२२ ४७३ उध्व०ति के चक्षु इंद्रियमें ० २२ ३०३ १४८ ४७४ " " घ्राण " ० २४ ३०३ १४८ ४७५ " "एकांत छमस्थबादर० ३८ २८८ १४८ ४७६ " "तीन श.अ.भववाले० ४२ २८८ १४६ ४७७ " "बस में .२६ ३०३ १४८ ४७८ " "तीन शरीरी . ४२ २८८ १४८ ४७६ " " एकांत असंयम ० ४३ २८८ १४८ ४८०" , एकान्त छद्म. प्र. -४४ २८८ १४८ ४८१ स्त्री मति के अधो. तिर्य. ४८२,,,,अनेक भव वालों में-४८ २८८ १४६ ४८३ अधो.तिय. प्र. शरीरी में १४ ४४ ३०३ १२२ ४८४ , , , , , - ४८ २८८ १४८ . प्र. शरीरी में १२ ४४ ३०३ १२२ ४८५ , , , . , १२ ४८ ३०३ १२२ शरीरी Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४१० ) ४८६ भुज पर गति के तीन शरीरी बादर ४८७ अधो. तिर्य, लोक में ४ ३२ १४ ४८ ६ ३२ • ३८ ८ ३२ " " ४६० स्थल चर, ४६१ खेचर गति पंचेन्द्रिय में ६२० ४८८ खेचर " " ४८६ उर्ध्व तिर्य. बादर में "9 " 19 ४६२ उरपर ४६३ उर्ध्व., प्र. शरीरी अनेक भव वालों में ४६४ खेचर ४६५ و ४४ ६ ३८ ४४ 39 39 ४६६ भुज पर गति के तीन शरीरी में४ ४२ ४६७ खेचर त्रस में ४६८ ४६६ " 99 ८ ४२ 19 99 १४ १६ ५०० स्थल चर ५०१ त्रस एक संस्थानी में ५०२ उर पर गति तीन शरीरी में १० ५०३ "" घ्राणेन्द्रिय में १४ २४ ४२ ' 19 99 29 ܙܕ ܕ "" प्र. 99 99 में तीन शरीरी में में ५०४ खेचर, एकान्त छद्मस्थ में ६ ४८ ५०५ तिर्य. त्रस में १४ २६ २८८ १६२ ३०३ १२२ २८८ १६२ ३०३ १४८ २८८ १६२ ३०३ १६२ १० ३२ २८८ १६२ ६ २६ ६ ४२ ४८ थोकडा संग्रह | ३०३ १४६ २८८ १६२ ३०३ १४८ २८८ १६२ ३०३ १६२ २८८ १६२ ३.३ १४= २८८ १६२ २७३ १६८ २८८ १६२ ३०३ १६२ २८८ १६२ ३०३१६२ Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवों की मार्गणा का ५६३ प्रश्न । (४११ ) nnnnnnnnnnnnn ५०६ संज्ञी ति., तीन शरीरी में१४ ४२ २८८१ ६२ ५०७ अन्तद्वीप के पर्याप्त के अलद्धिया में १४ ४८ २४७ १६८ ५०८ उरपर ,, एकान्त सकषाय में१० ४८ २८८ १६२ ५०६ स्थल चर,, प्र. शरीरी बादर में ८ ३६ ३०३ १६२ ५१० तिर्यंचणी गति के एकान्त संयोगी में १२ ४८ २८८ १६२ ५११ एक संस्थान प्र. शरीरी बादर में १४ २६ २७३ १६८ ५१२ तिर्यच ॥ ॥ १४ ४८ २८८ १६२ ५१३ एक संस्थान मिथ्यात्वी में १४ ३८ २७३ १८८ ५१४ मध्य जीवों का स्पर्श करने वाले एकान्त छद्म चक्षु १४ २२ २८८ २६० ५१५ तिर्यंचणी गति के बादर में १२ ३८ ३०३ १६२ ५१६ " " " " " " " प्रा० १४ २४ २८८ १६० ५१७" " स्त्री गति प्र० शरीरी में १२ ३४ २७३ १९८ ५१८ पंचेन्द्रिय में एकान्त छन । अनेक भववाले १४ २० २८८ १६६ ५१६ एक संस्थानी में १४ ३४ २७३ १६८ Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थोकडा संग्रह। ५२० पंचे." "सकषाय में १४ २० २८८ १६८ ५२१ चक्षु" " अंसयम में १४ १७ २८८ १६८ ५२२ एकान्त सकषाय चक्षु १४ २२ २८८ १६८ ५२३ " अनेक भव वालों में १४ ३८ २७३ १६८ ५२४ " " घ्राण १४ २४ २८८ १६८ ५२५ पंचेन्द्रिय मिथ्यात्वी में १४ २० ३०३ १८८ ५२६ " " बस में १४ २६ २८८ १६८ ५२७ तिर्यच गति में १४ ४८ ३०३ १६२ ५२८ एकान्त छद्म बा मिथ्या १४ ३८ २८८ १८८ ५२६ स्त्री गति के त्रस" १२ २६ ३०३ १८८ ५३० उत्कृष्ठः जीव का भेद चादर प्र०शरीर एकांत छद्म०१४ ३६ २८८ १६२ ५३१ " पंचे० संख्या० भव० १२ २० ३०३ १६६ ५३२ तीन शरीरी बादर में १४ ३२ २८८ १६८ ५३३ एकान्त असंयम बादर में १४ ३३ २८८ १९८ ५३४ " छद्म० अभव्य० प्र० शरीरी १४ ४४ २८८ १६८ ५३५ पंचेन्द्रिय जीवों में १४ २० ३०३ १९८ ५३६ स्त्री गति के बा० एकान्त सकषाय में १२ ३८ २८८ १६८ ५३७ " घ्राणेन्द्रिय में १२ २४ ३०३ १६८ ५३८ " तीन शरीरी में १२ ४२ २८८ १६८ Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवों की मार्गरणा का ५६३ प्रश्न । (४१३) ५३६ घ्राणेन्द्रिय में १४ २४ ३०३ १९८ ५४० एकान्त छद्म बादर में १४ ३८ २८८ १६८ ५४१ त्रस जीवों में १४ २६ ३०३ १६८ ५४२ तीन शरीरी एकान्त छद्म, १४ ४२ २८८ १६८ ५४३ एकान्त असंयम में १४ ४३ २८० १६८ ५४४ प्र. श. एकान्त छद्म. १४ ४४ २८८ १६८ ५४५ सम्य. ति. अलीद्धया में १४ ३० ३०३ १६८ ५४६ एकान्त छद्म. अनेक भववालों में १४ ४८ २८८ १६६ ५४७ स्त्री गति प्र. श. मिथ्या, १२ ४४ ३०३ १८८ ५४८ एकान्त छद्मस्थ में १४ ४८ २८८ १९८ ५४६ मिथ्या. प्र. शरीरी में १४ ४४ ३०३ १८८ ५५० सम्य. नरक के अलद्धिया १ ४८ ३०३ १६८ ५५१ स्त्री गति मिथ्या. १२ ४८ ३०३ १८८ ५५२ एकेन्द्रिय पर्याप्त का अलद्धिया १४ ३७ ३०३ १६८ ५५३ मिथ्यात्वी १४ ४८ ३०३ १८८ ५५४ नव ग्रिय वेक पर्याप्त के अलीद्धया १४ ४८ ३०३ १८९ ५५५ जीवों के मध्य भेद स्पर्शन वाले १४ ४८ ३०३ १६८ ५५६ नरक पर्याप्ता के अलद्धिया ७ ४८ ३०३ १६८ Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४१४) थोकडा संग्रह। ५५७ स्त्री गति के प्र. शरीरी में १२ ४४ ३०३ १९८ ५५८ तिर्य.पं.वैक्रियके अलद्धिया१४ ४३ ३०८ १२८ ५५६ प्रत्येक शरीरी में १४ ४४ ३०३ १६८ ५६० तेजोलेशी एकेन्द्रिय के __ अलद्धिया में १४ ४५ ३०३ १९८ ५६१ अनेक भववाले जीवों में १४ ४८ ३०३ १६६ ५६२ एकेन्द्रिय वैक्रिय श. अलद्धिया में १४ ४७ ३०३ १९८ ५६३ सर्व संसारी जीवों में १४ ४८ ३०३ ११८ ॥ इति जीवों की मार्गणा के ५६३ भेद सम्पूर्ण ॥ Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चार कषाय । * चार कषाय सूत्र श्री पनवणाजी के पद चौदहवें में चार कपाय का थोकड़ा चला है उसमें श्री गौतम स्वामी वीर भगवान से पूछते हैं कि " हे भगवन् ! कषाय कितने प्रकार की होती है ? " भगवान कहते हैं कि ' हे गौतम ! कषाय १६ प्रकार की होती है ' १ अपने लिये २ दूसरे के निमित्त ३ तदुभया अर्थात् दोनों के लिये ४ खेत अर्थात् खुली हुई जमीन के लिये ५ वथ्यु कहतां ढंकी हुई जमीन के लिये ६ शरीर के निमित्त ७ उपाधि के लिये निरर्थक つ ( ४१५ ) wwwin ६ जानता १० श्रजानता ११ उपशान्त पूर्वक १२ अनुप - शान्त पूर्वक १३ अनन्तानुबन्धी कोष १४ श्रप्रत्याख्यानी क्रोध १५ प्रत्याख्यानी क्रोध १६ संज्यालन का क्रोध एवं १६ वें समुच्चय जीव आश्री और ऐसेही चौवीश ause श्री दोनों का इस प्रकार गुणा करने से (१६x२५) ४०० हुवे अब कषाय के दलिया कहते हैं चणीया, उपचणीया, बान्ध्या, वेद्या, उदीरिया, निर्जय एवं ६ ये भृत काल वर्तमान काल और भविष्य काल श्राश्री एवं ६ और ३ का गुणाकार करने से (६३) १८ हुवे ये १८ एक जीव श्री और १८ बहु जीव श्री ३६ हुए ये समुचय जीव श्री और चोंबीश दियडक आश्री एवं ( ३६x२५ ) ६०० हुए ४०० ऊपर के और ६०० ये Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४१६) भोकडा संग्रह। एवं १३०० क्रोध के, १३०० मान के, १३०० माया के, और १३०० लोभ के एवं ५२०० होते हैं। ॥ इति चार कषाय सम्पूर्ण ।। NAR . Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वासोश्वास । (४१७) * श्वासोश्वास सूत्र श्री पनवणाजी के पद सातवे में श्वासोश्वास का थोकड़ा चला है उसमें गौतम स्वामी वीर प्रभु से पूछते हैं कि हे भगवन ! नेरिय और देवता किस प्रकार श्वासो. श्वास लेते हैं ? वीर प्रभु उत्तर देते हैं कि हे गौतम ! नारकी का जीव निरन्तर धमण के समान श्वासोश्वास लेता है असुर कुमार का देवता जघन्य सात थोक उत्कृष्ट एक पक्ष जाजेरा श्व सो श्वस लेते हैं वाण व्यन्तर और नवनिकाय के देवता जघन्य सात थोक उत्कृष्ट प्रत्येक मुहूर्त में ज्योतिषी ज० उ० प्रत्येक मुहूर्त में पहला देवलोक का जघन्य प्रत्येक मुहूते में उ० दो पक्ष में दूसरे देवलोक का ज० प्रत्येक मुहूते जरा उ० दो पक्ष जाजरा तीसरे देवलोक का ज० दो पक्ष में उ० सात पक्ष में चौथे देवलोक का ज० दो पक्ष जाजेरा उ० सात पक्ष जाजेरा पांचवें दवलोक का ज० सात पक्ष में उ० दश पच में छहे देवलोक का ज० दश पक्ष में उ० चौदह पक्ष में सातवें देवलोक का ज० चौदह पक्ष में उ० सतरह पक्ष में आठवें देवलोक का ज. सत्तरह पक्ष में उ० अट्ठारह पक्ष में नववे देवलोक का ज० अठारहे पक्ष में उ० उन्नीश पक्ष में दश देवलोक का ज० उन्नश पक्ष में उ० वीश में इग्यारहवें देवलोक का ज० वीश पक्ष में उ० एकवीश पक्ष में बारहवें देवलोक का Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४१८) थोकडा संग्रह। ज० एकवीश पक्ष में उ० बावीश पक्ष में पहली त्रिक का ज. बावीश पक्ष में उ० पच्चीश पक्ष में दूसरी त्रिक का ज० पच्चीश पक्ष में उ० अठावीश पक्ष में तीसरी त्रिक का ज. अठावीश पक्ष में उ० एकतीश पक्ष में, चार अनुत्तर विमान का ज० एकतीश पक्ष में उ० तेंतीश पक्ष में सर्वार्थ सिद्ध का ज० और उ० तेतीश पक्ष में एवं ३३ पक्ष में श्वास ऊँचा लेते हैं और ३३ पक्ष में श्वास नीचे छोड़ते हैं। ॥ इति श्वासोश्वास सम्पूर्ण ।। Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रस्वाध्याय । अस्वाध्याय आकाश की दश अस्वाध्याय । १ तारा आकाश से गिरे २ चार ही दिशा लाल होवे ३ काल गर्जना हो ४ अकाल में बिजली गिरे ५ अकाल में कड़क होवे ६ दूज के चन्द्रमा की ७ यक्ष का चिह्न होवे ८ ओले गिरे ६ धूंधल गिरे १० ओस गिरे इन सब में स्वाध्याय होती है । ( ४१६ ) श्रदारिक शरीर की दश अस्वाध्याय । १ तत्काल की लीली (नीली) हड्डी गिरी हो २ मांस पड़ा हो ३ खून गिरा हो ४ विष्टा ( मल ) उलटी पड़ी हो ५ मुर्दा ( लाश ) जलता हो ६ चन्द्र ग्रहण हो ७ सूर्य ग्रहण हो ८ बड़ा राजा मरे ६ संग्राम चले १० पंचेन्द्रिय का प्राण रहित शरीर पड़ा हो इन सब में स्वाध्याय होती है । काल की १६ अस्वाध्याय ( १ ) चैत्र शुक्ला पूर्णिमा ( २ ) वैशाख कृष्ण प्रतिपदा (३) आषाढ शुक्ल पूर्णिमां ( ४ ) श्रावण कृष्ण प्रतिपदा (५) भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमां ( ६ ) श्रश्विन कृष्ण प्रतिपदा (७) आश्विन शुक्ल पूणिमां ( ८ ) कार्तिक कृष्ण प्रतिपदा ( ६ ) कार्तिक शुक्ल पूर्णिमां (१०) मार्गशीर्ष कृष्ण Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४२०) थोकडा संग्रह। प्रतिपदा (११) प्रातः काल (१२) संध्या काल (१३) मध्याह्न काल (१४) मध्य रात्रि (१५) अग्नि प्रकट होवे वह समय, और (१६) आकाश में धूल चढ़े वह समय अर्थात् धूल से सूर्य का प्रकाश मंद होजावे तब अस्वाध्याय होती है। ॥ इति अस्वाध्याय सम्पूर्ण । Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ सूत्रों के नाम । 35wwww * ३२ सूत्रों के नाम ११ अङ्गों के नाम-१ अ चाराङ्ग २ सूत्रकृत !ङ्ग ३ स्थानाङ्ग ४ समवायाङ्ग ५ भगवती (वि. ह प्रज्ञप्ति ) ६ ज्ञाता ( धर्म कथा ) ७ उपासक दशाङ्ग ८ अन्तकृताङ्ग ( श्रन्तगढ़ ) ६ अनुत्तरोपपातिक १० प्रश्न व्याकरण दशाङ्ग ११ विपाक | ( ४२१ ) १२ उपाङ्ग के नाम- १ उपपातिक ( उववाई ) २ राजप्रश्नीय ३ जीवाभिगम ४ प्रज्ञापना ५ जम्बू द्वीप प्रज्ञप्ति ६ चन्द्र प्रज्ञप्ति ७ सूर्य प्रज्ञप्ति ८ निरया वलिका ६ कल्प वतंसिका १० पुष्पिका ११ पुष्पचूलिका १२ वृष्णि दशा । चार मूल सूत्र - १ दशकालिक २ उत्तरा ध्यान ३ नंदि ४ अनुयोग द्वार | चार छंद सूत्र - १ बृहत् कल्प २ व्यवहार ३ निशीथ ४ दशाश्रुत स्कन्ध | बत्तीशवां सूत्र आवश्यक सूत्र | ॥ इति ३२ सूत्रों के नाम सम्पूर्ण ॥ Sako 粉器 Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४२२ ) थोकडा संग्रह | अपर्याप्ता तथा पर्याप्ता द्वार शिष्य ( विनय पूर्वक नमस्कार करके पूछता है ) हे गुरु ! जीव तत्व का बोध देते समय आपने कहा कि जीव उत्पन्न होते समय अपर्याप्ता तथा पर्याप्ता कहलाता है । सो यह कैसे ? कृपा करके मुझे यह समझाइये | गुरु- हे शिष्य ! जीव यह राजा है । आहार शरीर, इन्द्रिय, श्वासोश्वास, भाषा और मन ये ६ प्रजा हैं और ये चारों गति के जीवों को लागू रहने से ५६३ भेद माने जाते हैं । इनमें पहली हार पर्याप्त लागू होती हैं । यह इस प्रकार से है कि जब जीव का आयुष्य पूर्ण होवे तब वह शरीर छोड़ कर नई गति की योनि में उत्पन्न होने को जाता है । इसमें श्रविग्रह गति अर्थात् सीधी व सरल बान्ध कर आया हुवा होवे वो जीव जिस समय आया हुवा होवे उसी समय में आकर उत्पन्न होता है उस जीव को आहार का अन्तर पड़ता नहीं इस प्रकार का बन्धन वाला जीव " सीए आहारिए " अर्थात् सदा आहारिक कहलाता है । ऐसा भगवती सूत्र का न्याय है । अब दूसरा प्रकार विग्रह गति का बन्ध बान्ध का आने वाले जीवों का कहा जाता है । इसके तीन प्रकार कितनेक जीव शरीर छोड़ने के बाद एक समय के अन्त Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपर्याप्ता तथा पर्याप्ता द्वार। (.४२३) से, कितनेक दो समय के अन्तर से, और कितनेक तीन समय के अन्तर से, अथोत चौथे समय में उत्पन्न हो सकते हैं । एवं चार ही प्रकार से संसारी जीव उत्पन्न हो सक्ते हैं । यह दूसरी विग्रह अर्थात् विषम गति करके उत्पन्न होने वाले जीवों को एक दो, तीन समय उत्पन्न होते अन्तर पड़े, इसका कारण ग्रंथ कार आकाश प्रदेश की श्रेणी का विभागों की तरफ आकर्षित हो जाना बतलाते हैं । गुप्त मेद गीतार्थ गुरु गम्य है । ऐसे जीव जितने समय तक मार्ग में रोके जाते हैं उतने समय तक अनाहारिक ( आहार के बिना ) कह लाते हैं । ये जीव बान्धी हुई योनि के स्थान में प्रवेश करके उत्पन्न होवें (वास करे ) उसी समय वो योनि स्थान-कि जो पुगल के बन्धारण से बन्धा हुवा होता है-उसी पुद्गल का आहार-कढाई में डाले हुए बड़े ( भुजिये) के समान श्राहार करते है । उसका नाम-श्रीझ पाहार किया हुवा कहलाता है । और सारे जीवन में एक ही वार किया जाता है । इस आहार को खेंच कर पचाने में एक अन्तमुहूर्त का समय लगता है। यह पहली आहार प्राप्ति कहलाती है। (१) इस प्रकार इस आहार के रस का ऐसा गुण है कि उसके रज कण एकत्रित होने से सात धातु रूप स्थूल शरीर की आकृति बनती है । और ये मूल धातु जीवन पर्यन्त स्थूल शरीर को टिका रखते हैं । ऐसे शरीर Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४२४) थोकडा संग्रह। रूप फूल में सुगन्ध की तरह जीव रह सक्त हैं यह दूसरी शरीर पर्याप्ति कहलाती है इस अकृति को बाधने में एक अन्त हूर्त लगता है (२) इस शरीर के दृढ बन जाने पर उसमें इन्द्रियों के अवयव प्रगट होते हैं । ऐसा होने में अन्तहिते क समय लगता है यह तीसरी इन्द्रिय पर्याप्ति कहलाती है। ३) उक्त शरीर तथा इन्द्रिय दृढ होने पर सूक्ष्म रूप से एक अन्र्मुहूर्त में पवन की धमण शुरू होती है यह से उस जीव के आयुष्य की गणना की जाती है यह चौथ श्व सोश्वास पर्याप्ति के हलाता है (४) पश्च व एक अन्तःहूर्त में न द पैद होता है । यह पाँचवीं भाषा पयोप्ति कहलाती है (५) उपगेका पांव पर्याप्ति के समय पर्यन्त मन चक्र ी मजबूती होती है । उनमें से मन स्फुरण हो कर सुगन्ध की तरह बाहर आता है उसमें से शरीर की स्थिति के प्रमाण में सूक्ष्म रीति से अमुक पदार्थों के रज कण आकर्षित करने योग्य शक्ति प्राप्त होती है। यह छट्ठी मन पर्याप्ति कहलाती है (६) उक्त रीति से ६ अन्तर्मुहूर्त में ६ पयोप्ति का बन्ध होता है यह सुन कर शिष्य को शङ्का होती है कि शास्त्रकार ६ पर्याप्ति का बन्ध होने में एक अन्तर्मुहूर्त बतलाते हैं यह कैसे ? गुरु-हे वत्स ! सारा मुहूर्त दो घड़ी का होता है। इसका एक ही भेद है । परन्तु अन्तर्मुहू के जघन्य मध्या और उत्कृष्ट एवं तीन भेद होते हैं दो समय स लगाई Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्याप्ता तथा पर्याप्ता द्वार | ( ४२५ ) नव समय पर्यन्त की जघन्य अन्त मुहूर्त कह लाती है (१) तदन्तर अन्तर्मुहूर्त दस समय की इग्यारह समय की, एवं एकेक समय गिनते हुवे अन्तर्मुहूर्त के असंख्यात भेद होते हैं ( २ ) और दो घडी (पहर ) में एक समय शेष रहे तब वो उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है ( ३ ) छ: पर्याप्ति का बन्ध होने में छः अन्तर्मुहूर्त लगते हैं । इससे जघन्य और मध्यम अन्तर्मुहूर्त समझना | और अन्त में छः पर्याप्ति में जो एक अन्तर्मुहूर्त लगता है उसे उत्कृष्ट समझना । उक्त छः पर्याप्ति में से एकेन्द्रिय के चार ( प्रथम ) होती हैं । द्वि-इन्द्रिय, त्रि-इन्द्रिय, चोरिन्द्रिय व असंज्ञी मनुष्य तथा तिर्यच पंचेन्द्रिय के पांव | और संज्ञी पंचेन्द्रिय के ६ पर्याप्ति होती हैं ! अपर्याप्ता का अर्थ अपर्याप्ता के दो भेद - १ करण अपर्याप्ता २ लब्धि अपर्याप्ता । १ करण अपर्याप्ता के दो भेद-त्रिइन्द्रिय वाले पर्या बन्ध कर न रहे वहां तक करण अपर्याप्ता और बन्ध कर रहे तब करण पर्याप्ता कहलाती है लब्धि पर्याप्ता के दो भेद एकेन्द्रिय से लगा कर पंचेन्द्रिय पर्यन्त, जिसके जितनी पर्याय होती है, उसके उतनी में से एकेक की अधूरी रहे, वहां तक लब्धि अपर्याप्ता कहलाती है । और अपनी जाति की हद तक पूरी बन्ध Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४२६) थोकडा संग्रह। " कर रहे तब उसे लब्धि पर्याप्ता कहते हैं । एवं करण तथा लब्धि पर्याप्ता के चार भेद होते हैं । शिष्य-हे गुरु ! जो जीव मरता है वो अपर्याप्ता में मरता है अथवा पर्याप्ता में ? गुरू-हे शिष्य ! जब तीसरी इन्द्रिय पर्या बान्ध कर जीव करण पर्याप्ता होता है तब मृत्यु प्राप्त कर सकता है। इस न्याय से पर्याप्ता हो कर मरण पाता है । परन्तु करण अपयोप्ता पने कोई जीव मरण पावे नहीं । वैसे ही दूसरे प्रकार से अपर्याप्ता पने का मरण कहने में आता है यह लब्धि अपर्याप्ता का मरण समझना । यह इस तरह से कि चार वाला तीसी, पांच वाला तीसरी चौथी, और छः वाला तीसरी चौथी और पांचवी पर्या पूरी बन्धने के बाद मरण पाते हैं । अब दूसरे प्रकार से अपर्याप्ता व पर्याप्ता इसे कहते हैं कि जिस जीव को जितनी पर्या प्राप्त हुई अर्थात् बन्धी उस को उतनी पर्या का पर्याप्ता कहते हैं । और जो बन्धना बाकी रही उसे उसका अपप्तिा अर्थात उतनी पर्या की प्राप्ति नहीं हो सकी यह भी कह सकते हैं। .. ऊपर बताये हुवे अपर्याप्ता और पर्याप्ता के भेदों का अर्थ समझ कर गर्भज, नो गर्भज और एकेन्द्रिय आदि असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों को ये भेद लागू करने से जीव तत्व के Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपर्याप्ता तथा पर्याप्ता द्वार | ( ४२७ ) ५६३ भेद व्यवहार नय से गिनने में आते हैं और ये सर्व कर्म विपाक के फल हैं इससे जीवों की ८४ लक्ष योनियों का समावेश होता है । योनियों में बार बार उत्पन्न होना, जन्म लेना व मरण पाना आदि को संसार समुद्र के नाम से सम्बोधित करते हैं यह सब समुद्रों से अनन्त गुणा बढ़ा है । इस संसार समुद्र को पार करने के लिये धर्म रूपी नाव है, व जिसके नाविक ( नाव को चलाने वाले ) ज्ञानी गुरु हैं । इनका शरण लेकर, आज्ञानुसार, विचार कर प्रवर्तन । करने वाला भाविक भव्य कुशलता पूर्वक प्राप्त की हुई जिन्दगी ( जीवन ) की सार्थकता प्राप्त कर सकता है । इसी प्रकार अन्य भी आचरण करना योग्य है । ॥ इति अपर्याप्ता तथा पर्याप्ता द्वार सम्पूर्ण ॥ Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४२८ ) गर्भ विचार गुरु - हे शिष्य ! पन्न वा भगवति सूत्र का तथा ग्रंथकारों का अभिप्राय देखने पर, सर्व जन्म और मृत्यु के दुखों का मुख्यतः चौथा मोहनीय कर्म के उदय में समावेश होता है । मोहनीय में ज्ञानावरणीय, दर्शनावरीय और अन्तराय कर्म एवं तीन का समावेश होता है । ये चार ही कर्म एकांत पाप रूप हैं इनका फल असाता और दुख हैं इन चारों ही कमों के आकर्षण से आयुष्य कर्मबन्धता है व आयुष्य शरीर के अन्दर रह कर भोगा जाता है भोगने का नाम वेदनीय कर्म है इस कर्म में साता तथा असातावेदनीय का समावेश होता है और इस कर्म के साथ नाम तथा गोत्र कर्म जुड़ा हुवा है और ये आयुष्य कर्म के साथ सम्बन्ध रखते हैं ये चार कर्म शुभ तथा अशुभ एवं दो परिणामों से बन्धते हैं अतः इन्हें मिश्र कहते हैं इनके उदय से पुन्य तथा पाप की गणना की जाती है । थोकडा संग्रह | इस प्रकार आठ कर्मों का बन्ध होता है और ये जन्म मरण रूप क्रिया के द्वारा भोगे जाते हैं । मोहनीय कर्म सर्व कर्मों का राजा है आयुष्य कर्म इसका दीवान है मन हजूरी सेवक है जो मोह राजा के आदेशानुसार नित्य नये कमों का संचय करके बन्ध बान्धता है । ये सब Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गर्भ विचार । (४२६) पन्त्रवणाजी सूत्र में कम प्रकृति पद से समझना । मन सदा चंचल व चपल है और कर्म संचय करने में अप्रमादी व कर्म छोड़ने में प्रमादी है इस से लोक में रहे हुए जड़ चैतन्य रूप पदार्थों के साथ, राग द्वेष की मदद से, यह मिल जाता है । इस कारण उसे " मन योग" कह कर पुकारते हैं । मन योग से नवीन कर्मों की श्रावक आती है । जिसका पांच इन्द्रियों के द्वारा भोगोपभोग किया जाता है । इस प्रकार एक के बाद एक विपाक का उदय होता है। सबों का मूल मोह है, तश्चात् मन, फिर इन्द्रिय विषय और इन से प्रमाद की वृद्धि होती है कि जिसके वश में पड़ा हुवा प्राणी, इन्द्रियों को पोषण करने के रस सिवाय, रत्नत्रयात्मक अभेदानन्द के आनन्द की लहर का रसीला नहीं हो सका किंतु उलटा ऊंच नीच कमों के आकर्षण से नरक आदि चार गति में नाता व पाता है। इनमें विशेष करके देव गति के सिवाय तीन गति के जन्म अशुचि से पूर्ण हैं। जिसमें से नरक कुण्ड के अन्दर तो केवल मल मूत्र और मांस रुधिर का कादा (कीचड़) भरा हुवा है व जहां छेदन भेदन आदि का भयङ्कर दुख होता है जिसका विस्तार सुयगडांग सूत्र से जानना। यहां से जीव मनुष्य या तिर्यंच गति में आता है यहां एकांत अशुचि तथा अशुद्धि का भण्डार रूप गर्भावास Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४३०) थोकडा संग्रह। - - - - - - - - - - - - - - - - - में आकर उत्पन्न होता है पायखाने से भी अधिक यह नित्य अखूट कीच से भरा हुवा है यह गर्भावास नरक के स्थान का भान कराता है व इसी प्रकार इस में उत्पन्न होने वाला जीव नेरिये का नमूना रूप है । अन्तर केवल इतना ही है कि नरक में छेदन, भेदन, ताड़न, तजेन, खण्डन, पीसन और दहन के साथ २ दश प्रकार की क्षेत्र वेदना होती है वह गर्भ में नहीं परन्तु गति के प्रमाण में भयङ्कर कष्ट और दुख है। उत्पन्न होने की स्थिति तथा गर्भ स्थान का विवेचन । शिष्य-हे गुरु ! गर्भस्थान में आकर उत्पन्न होने वाला जीव वहां कितने दिन, कितनी रात्रि, तथा कितने मुहूर्त तक रहता है ? और उतने समय में कितने श्वासोश्वास लेता है ? गुरु-हे शिष्य ! उत्पन्न होने वाला जीव २७७॥ अहो रात्रि तक रहता है। वास्तविक रूप से देखा जाय तो गर्भ का काल इतना ही होता है । जीव ८, ३२५ मुहूर्त गर्भस्थान में रहता है । और १४,२०, २२५ श्वासो श्वास लेता है। इसमें भी कमी-बेसी होती है ये सब कर्म विपाक का व्याघात समझना । गर्भ स्थान के लिये यह समझना चाहिये कि माता के नाभि मंडल के नीचे फूल के प्राकार वत दो नाडिये हैं। इन दोनों के नीचे उंधे फूल के आकार Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गर्भ विचार । ( ४३१) RAJA NNNN वत् एक तीसरी नाडी है कि जो योनि नाडी कह लाती है जिसमें जीव के उत्पन्न होने का स्थान है । इस योनि के अन्दर पिता तथा माता के पुल का मिश्रण होता है । योनि रूप फूल के नीचे आम की मंजरी के आकार एक मांस की पेशी होती है जो हर महीने प्रवाहित होने से स्त्री ऋतु धर्म के अन्दर आती है। यह रूधिर ऊपर की योनि नाडी के अन्दर ही आया करता है कारण कि वो नाडी खुली हुई ही रहती है । चोथे दिन ऋतुश्राव बन्द होजाता है । परन्तु अभ्यन्तर में सूक्ष्म श्राव रहता है । स्नान करने पर पवित्र होता है । पांचवे दिन योनि नाडी में सूक्ष्न रुधिर का योग रहता है उस समय यदि वीयावेन्दु की प्राप्ति होवे तो उतने समय के लिये वो मिश्र योनि कहलाती है और यह फल प्राप्ति के योग्य गिनी जाती है । यह मिश्रपना बारह मुहूर्त पर्यन्त रहता है। कि जिस अवधि में जीव की उत्पत्ति हो इस में एक दो तीन आदि नब लाख तक उत्पन्न हो सकते हैं। इनका श्रायुष्य जघन्य अन्तर्मुहूते उत्कृष्ट तीन पल्यापम का । इस जीव का पिता एक ही होता है परन्तु अन्य अपेक्षा से नवसो पिता तक शास्त्र का कथन है । यह संयोग से संभव नहीं है परन्तु नदी के प्रवाह के सामने बैठ कर स्नान करने के समय उपरवाड़े से खिंच कर आये हुवे पुरुष बिन्दु (वीर्य) में सैंकड़ों रजकण स्त्री के शरीर में पिचकारी के आकर्षण Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४३२ ) थोकडा संग्रह | 7 की तरह आकर भर जाते हैं । कर्म योग से उसके क्वचित् गर्भ रह जाता है तो जितने पुरुषों के रजकण आये हुवे हों सर्व पुरुष उस जीव के पिता तुल्य माने जाते हैं । एक साथ दश हजार तक गर्भ रह सकता है । इस पर मच्छी तथा सपनी माता का न्याय है । मनुष्य के अधिक से अधिक तीन सन्तान हो सक्ती हैं शेष मरण पा जाते हैं । एक ही समय नव लाख उत्पन्न हो कर यदि मर जावे तो वह स्त्री जन्म पर्यन्त बाँझ रहती है । दूसरी तरह जो खी कामान्ध बन कर अनियमित रूप से विषय का सेवन करे अथवा व्यभिचारिणी बन कर मर्यादा रहित पर पुरुष का सेवन करे तो वो स्त्री बाँझ होती है । उसके गर्भ नहीं रहता ऐसी स्त्री के शरीर में झरी ( ज़हरी ) जीव उत्पन्न होते हैं कि जिनके डङ्क से विकारों की वृद्धि होती है व इससे वह स्त्री देव गुरु धर्म व कुल मर्यादा तथा शियल व्रत के लायक नहीं रह सकती । ऐसी स्त्री का स्वभाव निर्दय तथा असत्यवादी होता है । जो स्त्री दयालु तथा सत्यवादी होती है वो अपने शरीर को यातनां करती है । कामवासना पर काबू रखती है । अग्नी प्रजा की रक्षा के निमित सांसारिक सुखों के अनुराग की मर्यादा करती है । इस कारण से ऐसी स्त्रि पुत्र पुत्री का अच्छा फल प्राप्त करती हैं। केवल रुधिर' से या केवल बिन्दु से प्रजा प्राप्त नहीं हो सक्ती ऐसे ही ऋतु के रुधिर सिवाय अन्य रुधिर प्रजा Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गर्भ विवार। (४३३ ) प्राप्ति के निमित्त काम नहीं अासक्ता एक ग्रन्थ कार कहते हैं कि सूक्ष्म रीति से सोलह दिन पर्यन्त ऋतुस्राव होता है। यह रोगी स्त्री के नहीं परन्तु निरोगी स्त्री के शरीर में होता है। और यह प्रजाप्राप्ति के योग्य कहा जाता है । उक्त दिनों में से प्रथम तीन दिनों का ग्रन्थ कार निषेध करते हैं। यह नीति मार्ग का न्याय है और इस न्याय को पुण्यात्मा जीव स्वीकार करते हैं। अन्य मतानुमार . चार दिन का निषध है। क्योंकि चौथे दिन को उत्पन्न होने वाला जीव अल्प समय तक ही जीवन धारण कर सक्ता है। ऐसा जीव शक्ति हीन होता है व माता पिता को भार रूप होता है। पांचवें से सोलहवें दिन तक नीति शास्त्रानुसार गर्भाधारण संस्कार के उपयुक्त माने जाते हैं। पश्चात् एक के बाद एक (दिन ) का बालक उत्तरोत्तर तेजस्वी बलवान्, रूपवान, बुद्धिवान, और अन्य सर्व संस्कारों में श्रेष्ट दीघयुष्य वाला तथा कुटुम्ब पालक निवड़ता है ( होता है ) इनमें से छठी, आठवीं, दशवी, बारहवीं, चौदहवीं एवं सम (बेकी की ) रात्रि विशेष करके पुत्री रूप फल देती है । इस में विशेषता यह है कि पांचवीं रात्रि को उत्पन्न होने वाली पुत्री कालान्तर में अनेक पुत्रियों की माता बनती है । पांचवीं, सातवीं, नववीं, इग्यारहवीं, तेरहवीं, पन्द्रहवीं एवं विषम (एकी की) रात्रि का बीज पुत्र रूप में उत्पन्न होता है और वो ऊपर Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४३४) थोकडा संग्रह। कहे गुणवाला निकलता है। दिन का संयोग शास्त्र द्वारा निषेध है। इतने पर भी अगर होवे ( सन्तान ) तो वो कुटुम्ब की तथा व्यावहारिक सुख व धर्म की हानि करने वाला निकलता है। गर्भ में पुत्र या पुत्री होने का कारणः-वीर्य के रज कण अधिक और रुधिर के थोड़े हो तो पुत्र रूप फल की प्राप्ति हाती है । रुधिर अधिक और वीर्य कम होवे तो पुत्री उत्पन्न होती है । दोनों समान परिमाण में होवे तो नपुसंक होता है । (अब इनका स्थान कहते हैं) माता के दाहिनी तरफ पुत्र, बांयी कुक्षि में पुत्री और दोनों कुक्षि के मध्य में नपुसंक के रहने का स्थान है । गर्भ की स्थिति मनुष्य गर्भ में उत्कृष्ट बारह वर्ष तक जीवित रह सक्ता है । बाद में मर जाता है । परन्तु शरीर रहता है, जो चौवीश वर्ष तक रह सक्ता है । इस सूखे शरीर के अन्दर चौवीशवें वर्ष नया जीव उत्पन्न होवे तो उसका जन्म अत्यन्त कठिनाई से होता है यदि नहीं जन्मे तो माता की मृत्यु होती है। संज्ञी तिर्यंच अाठ वर्ष तक गर्भ में जीवित रहता है । अब अाहार की रीति कहते हैं योनि काल में उत्पन्न होने वाला जीव प्रथम माता पिता के मिले हुवे मिश्र पुद्गलों का आहार करके उत्पन्न होता है इसका अथ प्रजा द्वार स जानना विशेष इतना है कि यह अाहार माता पिता का पुद्ग न कहलाता है । इस आहार Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गर्भ विचार । से सात धातु उत्पन्न होती हैं । इनमें-१ रसी ( राध) २ लोही ३ मांस ४ हड्डी ५ हड्डी की मजा ६ चमे ७ वीर्य और नसा जाल एवं सात मिल कर दूसरी शरीर पर्या अर्थात सूक्ष्म पुतला कहलाता है । छः पर्या बंधने के बाद वह बोजक (वीर्य) सात दिवस में चावल के धोवन समान तोलदार हो जाता है। चौदहवें दिन जल के परपोटे समान आकार में आता है । इकवीश दिन में नाक के श्लेश्म के समान और अठावीश दिन में अड़तालीश मासे वजन में हो जाता है । एक महिने में घर की गुठली समान अथवा छोटे आम की गुठली समान हो जाता है । इसका वजन एक करखण कम एक पल का होता है पल का परिमाण-सोलह मासे का एक करखण और चार करखण का एक पल होता है । दूसरे महिने कच्ची केरी समान, तीसरे महिने पक्की करी (आम) समान हो जाता है । इस समय से गर्भ प्रमाणे माता को डहोला ( दोहद-भाव ) उत्पन्न होने लगता है। और यह कर्म कलानुसार फलता है । इस के द्वारा गर्भ अच्छा है या बुरा इसकी परीक्षा होती है। चोथे महिने कणक के पिण्डे के समान हो जाता है इस से माता के शरीर की पुष्टि होने लगती है । पांचवें महिने में पांच अङ्कुरे फूटते हैं जिनमें से दो हाथ,दो पांव,पांचवा मस्तक, छठे महीने रुधिर, रोम नख और केश की वृद्धि होने लगती है । कुल ३॥ Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४३६) थोकडा संग्रह। कोड़ रोम होते हैं। जिनमें से दो कोड़ और एकावन लाख गले ऊपर व नवाणु लाख गले के नीचे होते हैं। दूसरे मत से-इतनी संख्या के रोम गाडर के कहलाते हैं यह विचार उचित ( वाजवी ) मालूम होता है । एकेक रोम के उगने की जगह में १॥ से कुछ विशेष रोग भरे हुवे हैं । इस हिसाब से पौने छः करोड़ से अधिक रोग होते हैं । पुन्य के उदय से ये ढंके हुवे होते हैं। यहीं से रोम आहार की शुरूआत हाने की सम्भावना है 'तत्वं तु सर्वज्ञ गम्यं । यह आहार माता के रुधिर का समय समय लेने में आता है और समय समय पर गमता है । सातवें महिने सात सो सिराएं अर्थात् रसहरणी नाड़ियां बन्धती है । इनके द्वारा शरीर का पोषण होता है । और इससे गर्भ को पुष्टि मिलती है । इनमें से स्त्री को ६७० ( नाड़िये) नपुंसक को ६८० और पुरुष का ७०७ पूरी होती हैं। पांवसो मांस की पेशियाँ बन्धती हैं। जिनमें से स्त्री के तीस और नपुंपक के वीस कम होती हैं इनसे हड्डियें ढंकी हुई रहती हैं । हाड़ में सर्व मिलाकर ३६० सांधे ( जोड़) होते हैं । एकेक जोड़ पर पाठ पाठ ममे के स्थान है। इन मर्म स्थानों पर एक टकोर लगने पर मरण पाता है। अन्य मान्यता से एक सौ साठ संधि और १७० मर्म-स्थान होते हैं । उपरान्त सर्वज्ञ गम्य । शरीर में छः अङ्ग होते हैं । जिनमें से मांस लोही, Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गर्भ विचार । (४३७) और मस्तक की ज ( भेजा ) ये तीन अङ्ग माता के हैं और हड्डी हाड़ की मज्जा और नख केश रोम ये तीन अङ्ग पिता के हैं । आठ महीने सर्व अङ्ग उपाङ्ग पूर्ण हो जाते हैं । इा गर्भ को लघु नीत बड़ी नीत श्लेष्म, उधरस, छक, अंगड़ाई प्रादि कुछ नहीं होता वो जिस २ प्राहार को खेचता है उस अहार का रस इन्द्रियों को पुष्ट करता है। बाड़, हाड़ की मज्जा, चरबी नख, केश की वृद्धि होती है। आहार लेने की दूसरी रीति यह है कि माता की तथा गर्भ की नाभि व ऊपर की रस हरणी नाडी ये दोनो पास्सर वाले (नहरू) के आटे के समान वींटे हुवे हैं । इसमें गर्भ की नाडी का मुंह माता की नामि में जुड़ा हुवा होता है । माता के कोठे में पहले जो आहार का कवल पड़ता है वो नाभि के पास अटक जाता है व इसका रस बनता है जिससे गर्भ अपनी जुड़ी हुई रसहरणी नाडी से खेंच कर पुष्ट होता है। शरीर के अन्दर ७२ कोठे हैं जिनमें से पांव बड़े हैं । शीयाले में दो कोठे आहार के और एक कोठा जल का व गर्मी में दो कोठे जल के और एक कोठा आहार का तथा चौमासे में दो कोठे आहार के और दो कोठे जल के माने जाते हैं । एक कोठा हमेशा खाली रहता है । स्त्री के छठा कोठा विशेष होता है । कि जिसमें गर्भ रहता है । पुरुष के दो कान, दो चक्षु दो नासिका (छेद ), मुंह, लघुनीत, बडी नीत Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४३८ ) थोकडा संग्रह | आदि नवद्व र अपवित्र और सदा काल बहते रहते हैं । और स्त्री के दो थन (स्तन) और एक गर्भ द्वार ये तीन मिल कर कुल बारह द्वार सदाकाल वहते रहते हैं । शरीर के अन्दर अठारह पृष्ट दण्डक नामकी पांसलिये हैं । जो गर्भवास की करोड़ के साथ जुड़ी हुई है । इनके सिवाय दो वांसे की बारह कंडक पांसलियें हैं कि जिनके ऊपर सात पुड़ चमड़े के चढ़े हुये होते हैं। छाती के पड़दे में दो ( कलेजे ) हैं जिनमें से एक पड़दे के साथ जुड़ा हुवा है और दुसरा कुछ लटकता हुवा है । पेट के पड़दे में दो अंतस ( नल ) हैं जिनमें से स्थूल नल मलस्थान है और दूसरा सूक्ष्म लघु नीत का स्थान है । दो प्रणव स्थान अर्थात् भोजन पान पर गमाने ( पचाने ) की जगह हैं। दक्षिण पर गमे तो दुःख उपजे व बांये पर ग तो सुख । सोलह आँतरा है, चार अंगुल की ग्रीवा है | चार पल की जीभ है, दो पल की आंखे हैं, चार पल का मस्तक है। नवांगुल की जीभ है, अन्य मान्यतानुसार सात आंगुल की है। आठ पल का हृदय है पच्चीश पल का कलेजा है । अब सात धातु का प्रमाण व माप कहते हैं शरीर के अन्दर एक बड़ा (टेढ़ा ) रुधिर का और आधा आड़ा मांस का होता है । एक पाथा मस्तक का भेजा, एक आढ़ा लघुनीत, एक पाथा बड़ी नीत का है । कफ, पित्त, और श्लेष्म इन तीनों का एकेक कलव और । Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गर्भ विवार। (४३१) vvvvvvvvVI ARAMVwnAvvv आधा कलव वीर्य का होता है । इन सबों को मूल धातु कहते हैं कि जिन पर शरीर का टिकाव है । ये सातों धानु जब तक अपने वजन प्रमाण रहते हैं तब तक शरीर निरोगी और प्रकाश मय रहता है। उनमें कमी सी होने से शरीर तुरन्त रोग के आधीन हो जाता है। नाड़ी का विवेचन-शरीर के अन्दर योग शास्त्र के अनुसार ७२००० नाड़िये हैं । जिनमें से नवसो नाड़ियें बड़ी है, नव नाड़ी धमण के समान बड़ी हैं जिनके धड़कन से रोग की तथा सचेत शरीर की परीक्षा होती है। दोनों पांव की घुटी के नीचे दो नाड़ी, एक नाभी की, एक हृदय की, एक तालबे की दो लमणे की और दो हाथ की एवं नव । इन सर्व नाड़ियों का मूल सम्बन्ध नाभि से है । नाभि से १६० नाड़ी पेट तथा हृदय ऊपर फैलकर ठेठ ऊंचे मस्त 6 तक गई हुई हैं । इनके बन्धन से मस्तक स्थिर रहता है । ये नाड़िये मस्तक को नियम पूर्वक रस पहुंचाती हैं जिससे मस्तक सतेज आरोग्य और तर रहता है । जब नाड़ियों में नुकसान होता है तब आंख, नाक कान और जीभ ये सब कमजोर रोगिष्ट बन जाते हैं व शून, गुमड़े श्रादि व्याधियों का प्रकोप होने लगता है। ___दूसरी १६० नाडी नाभी के नीचे चली हुई हैं जो जाकर पांव के तलीये तक पहुंची हुई हैं। इनके आकर्षण से गमनागमन करने, खड़े होने व बैठने आदि में सहा Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४४० ) थोकडा संग्रह | यता मिलती है | ये नःडिये वहां तक रस पहुँचा कर शरीर आदि को आरोग्य रखती हैं। नाडी में नुकसान होने से संधि', पक्षाघात (लकवा) पैर आदि का कूटना, कलतर, तोड़ काट, मस्तक का दुखना व आधातोड़ शीशी आदि रोगों का प्रकोप हो जाता है । तीसरी १६० नाडी नाभी से तिछ गई हुई हैं । ये दोनों हाथों की अंगुलिये तक चली गई हैं । इतना भाग इन नाडियों से मजबूत रहता है | नुकसान होने से पासा शूल, पेट के दर्द, मुंह के व दांतो के दर्द आदि रोग उत्पन्न होने लगते हैं । 1 चौथी १६० नाडी नामी से नीचे ममें स्थान पर फैली हुई हैं । जो अपान द्वार तक गई हुई हैं । इनकी शक्ति द्वारा शरीर का बन्धेज रहा हुवा हैं । इनके अन्दर नुकसान होने पर लघु नीत बड़ी नीत आदि की कबाजि - यत ( रुकावट ) अथवा अनियमित छूट होने लग जाती है । इसी प्रकार बायु कृनि प्रकोप, उदर विकार, अर्श चांदी प्रमेह पवनरोध पांडु रोग, जलोदर, कठोर, भगंदर, संग्रहणी आदि का प्रकोप होने लग जाता है। नाभी से पच्चीश नाडी ऊपर की ओर श्लेष्म द्वार तक गई हुई हैं । जो श्लेष्म की धातु को पुष्ट करती हैं। इनमें नुकसान होने पर श्लेष्म, पीनस का रोग हो जाता है । अन्य पची नाडी इसी तरफ आकर पित्त Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६४१ ) धातु को पुष्ट करती है । जिनमें नुकसान होने पर रोग की उत्पति पुष्ट नाड़िऍ वार्य धारण करती हैं । पित्त का प्रकोप तथा ज्वरादिक होने लग जाती है । तीसरी दश करने वाली हैं जो वीर्य को इनके अन्दर नुकसान होने पर स्वप्न दोष मुख - लाल पूति पेशाब आदि विकारों से निर्बलता आदि में वृद्धि होती है । गभ विचार | एवं सर्व मिलाकर ७०० नाड़ी रस खेंच कर पुष्टि प्रदान करती हैं व शरीर को टिकाती हैं । नियमित रूप से चलने पर निरोग और नियम भङ्ग होने पर रोगी (शरीर ) हो जाता है । इसके सिवाय दोसौ नाड़ी और गुप्त तथा प्रगट रूप से शरीर का पोषण करती हैं । एवं सर्व नव सौ नाहिये हुई । उक्त प्रकार से नवमास के अन्दर सर्व अवयव सहित शरीर मजबूत बन जाता है । गर्भाधान के समय से जो स्त्री ब्रह्मचारिणी रहती है उस का गर्भ अत्यन्त भाग्य - शाली, मजबूत बन्धेज का बलवान तथा स्वरूप वान होता है न्याय नीति वाला और धर्मात्मा निकलता है । उभय कुलों का उद्धार करके माता पिता को यश देने वाला होता है और उसकी पांचों ही इन्द्रियें अच्छी होती हैं। गर्भाधान से लगा कर सन्तति होने तक जो स्त्री निर्दय Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४४२ ) थोकडा संग्रह | बुद्धि रख कर कुशील (मैथुन ) का सेवन करती है तो यदि गर्भ में पुत्री होवे तो उनके माता पिता दुष्ट में दुष्ट, पापी में पापी और रौ नरक के अधिकारी बनते हैं । गर्भ भी अधिक दिनों तक जीवित नहीं रहता यदि जिन्दा रहे भी तो वो काना, कुबड़ा, दुर्बल, शक्ति हीन तथा खराब डीलडोल का होता है । क्रोधी, क्लेशी, प्रपंची और खराब चाल चलन वाला निकलता है । ऐसा समझ कर प्रजा (सन्तति) की हितइच्छने वाली जो माताएं गर्भकाल में शील बन्ती रहती हैं । वे धन्य हैं । विशेष में उपरोक्त गर्भावास के स्थानक में महा कष्ट तथा पीड़ा उठानी पड़ती है । इस पर एक दृष्टान्त दिया जाता है - जिस मनुष्य का शरीर कोढ तथा पित्त के रोग से गलता होवे ऐसे मनुष्य के शरीर में साड़ातीन क्रोड़ सूई में गरम करके साढ़े तीन रोमों के अन्दर पिरोवे । पुन: शरीर पर निमक तथा चूने का जल छींटकर शरीर को गीले चमड़े से मढ़े व मढ़ कर धूप के अन्दर रखे सूखने ( शरीर का चमड़ा ) पर जो अत्यन्त कष्ट उसे होता है उस ( दुख ) को सिवाय भोगने वाले के और सर्वज्ञ के अन्य कोई नहीं जान सकता । इस प्रकार वेदना पहिले महीने गर्भ को होती है दूसरे महीने दुगनी एवं उत्तरोत्तर नववें महीने नव गुणी वेदना होती है । गर्भ वास की जगह छोटी है और गर्भ का शरीर ( स्थूल ) बड़ा Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गर्भ विचार। (४४३) अतः सुकड़ कर के आम के समान अधो मुख करके रहना पड़ता है। इस समय मस्तक छाती पर लगा हुवा और दोनों हाथों की मुठिये आँखों के बाड़े दी हुई होती है। कर्म योग से दूसरा व तीसरा गर्भ यदि एक साथ होवे तो उस समय की संकड़ाई व पीड़ा वर्णनातीत है। माता की विष्टा ( मल ) गर्भ के नाक पर से होकर गिरती है । खराब से खराब गन्दगी में पड़ाहुवा होता है । बैठी हुई माता खड़ी होवे तो उस समय गर्भ को ऐसा मालूम होता है कि मैं आसमान में फेंका जा रहा हूं नीचे बैठते समय ऐसा मालूम होता है कि मैं पाताल में गिराया जा रहा हूं चलती समय ऐसा जान पड़ता है कि मसक में भरे हुवे दहीके समान डोलाया जा रहा हूं रसोई करने के समय गर्भ को ऐसा मालूम होता है कि मैं इंट की भट्टी में गल रहा हूं। चक्की के पास पीसने के लिये बैठने पर गर्भ जाने कि मैं कुम्हार के चाक पर चढाया जा रहा हूँ। माता चित्ती सोवे तब गर्भ को मालूम हो कि मेरी छाती पर सवा मन की शिला पड़ी हुई है। मैथुन करने के समय गर्भ को ऊखल मूसल का न्याय है । इस प्रकार माता पिता के द्वारा पहुं वाये हुवे तथा गर्भ स्थान के एवं दो प्रकार के दुखों से पीडित, कुटाये हुवे खएडाये हुवे और अशुचि से तर बने हुवे इस गर्भ की दया शीलवान माता पिता बिना कौन देख सके? अर्थात् पापी स्त्री पुरुष ( विधि गर्भ से अज्ञात ) देख ___ Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४४४) थोकड। संग्रह। - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - 41904 सकते हैं ? क्या नहीं देख सक्ते । __ गर्भ का जीव माता के दुख से दुखी व सुख से सुखी होता है । माता के स्वभाव की छाया गर्भ पर गिरती है । गर्भ में से बाहर आने के बाद पुत्र पुत्री का स्वभाव, आचार, विचार आहार व्यवहार आदि सर्व माता के स्व. भावानुसार होता है । इस पर से माता पिता के ऊंच नीच गर्भ की तथा यश अपयश आदि की परीक्षा सन्तति रूप फोटू के ऊपर से विवेकी स्त्री पुरुष कर सक्ते हैं कारण कि सन्तति रूप चित्र (फोटू) माता पिता की प्रकृति अनुसार खिंचा हुवा होता है । माता धर्म ध्यान में, उपदेश श्रवण करने में तथा दान पुन्य करने में और उत्तम भावना भावने में संलग्न होवे तो गर्भ भी वैसे ही विचार वाला होता है । यदि इस समय गर्भ का मरण होवे तो वो मर कर देवलोक में जा सकता है। ऐसे ही यदि माता आत और रौद्र ध्यान में होवे तो गर्भ भी प्रात और रौद्र ध्यानी होता है । इस समय गर्भ की मृत्यु होने पर वो नरक में जाता है । माता यदि उस समय महाकपट में प्रवृत्त हो तो गर्भ उस समय मर कर तिर्यंच गति में जाता है। माता महा भद्रिक तथा प्रपञ्च रहित विचारों में लगी हुई होवे तो गर्भ मर कर मनुष्य गति में जाता है एवं गर्भ के अन्दर से ही जीव चारों गति में जा सकता है । गर्भ काल जब पूर्ण होता है तब माता तथा गर्भ की नाभी की Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गर्भ विचार । (४४५) विंटी हुई रसहरणी नाडी खुल जाती है | जन्म होने के समय यदि माता और गर्भ के.पुन्य तथा आयुष्य का बल होवे तो सीधे मार्ग से जन्म हो जाता है। इस समय कितने ही मस्तक तरफ से अथवा कितने ही पैर तरफ से जन्म लेते हैं। परन्तु यदि माता और गर्भ दोनों भारी कर्मी होवे तो गर्भ टेड़ा गिर जाता है । जिससे दोनों की मृत्यु हो जाती है । अथवा माता को बचाने के निमित पापी गर्भ के जीव पर, बेध कर छुरी व शस्त्र से खण्ड २ करके जिन्दगी पार की शिक्षा देते हैं। इसका किसी को शोक, संताप होता नहीं। ___ सीधे मार्ग से जन्म लेने वाले सोने चान्दी के तार समान है । माता का शरीर जतरड़ा है जैसे सोनी तार खंचता है वैसे गर्भ खिंचा कर ( करोड़ों कष्टों से ) बाहर निकल आता है । अर्थात् नव महीने जो पीड़ा होती है उससे क्रोड़ गुणी पीड़ा जन्म के समय गर्भ को होती है। मृत्यु के समय तो कोड़ाकोड़ गुणा दुख गर्भ को होता है। यह दुख वणतातीत है। ये सर्व खुर के किये हुवे पुन्य पाप के फल हैं जो उदय काल में भोगे जाते हैं । यह सर्व मोहनीय कर्म का संताप है।। ऊपर अनुसार गर्भ काल, गर्भ स्थान तथा गर्भ में उत्पन्न होने वाले जीव की स्थिति का विवेचन आदि तंदुल वियालिया पइना, भगवती जी अथवा अन्य ग्रन्था. Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४४६) भोकडा संग्रह। न्तरों के न्यायानुसार गुरु ने शिष्य को उपदेश द्वारा कह कर सुनाया । अन्त में कहने लगे कि जन्म होने के बाद भङ्गियानी के समान कार्य द्वारा माता संभाल से उछेर कर सन्तति को योग्य उम्र का कर देती है । सन्तति की श्राशा में माता का यौवन नष्ट हुवा है, व्यवहारिक सुख को तिलांजलि दी गई है । एवं सर्व बातों को तथा गर्भवास व जन्म के दुखों को भूल कर यौवन मद में उन्मत्त बने हुवे पुत्र पुत्रिय महा उपकारी माता को तिरस्कार दृष्टि से धिक्कार देकर अनादर करते और स्वयं वस्त्रालङ्कार से सुशोभित होते हैं । तेल फुलेल, चोवा, चंदन, चंपा, चमेली, अगर, तगर, अमर और अतर आदि में मस्त होकर फूल हार व गजरे धारण करते हैं। इनकी सुगन्ध के अभिमान से अन्धे बन कर ऐसा समझते हैं कि यह सर्व सुगन्ध मेरे शरीर से निकल कर बाहर आरही है । इस प्रकार की शोभा व सुगन्ध माता पिता आदि किसी के भी शरीर (चमड़े ) में नहीं है । इस प्रकार के मिथ्याभिमान की आन्धी में पड़े हुवे बेभान अज्ञान प्राणियों को गर्भवास के तथा नरक निगोद के अनन्त दुख पुनः तैयार हैं । इतना तो सिद्ध है कि ये सब बिकार पापी माता की मूर्खता के स्वभाव का तथा कम भाग्य के उत्पन्न होने वाले पापी गर्भ के वक्र कर्मों का परिणाम है । अब दूसरी तरफ विवेकी और धर्मात्मा व शियल ___ Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गभ विचार। (४४७ ) व्रत धारण करने वाली सगर्भा माताओं के पुत्र पुत्रिय जन्म लेकर उछरते हैं। इनकी जन्म क्रिया भी वैसी ही होती है । अन्तर केवल इतना कि इन पर माता पिता के स्वभावों की छाया पड़ी हुई होती है । इस प्रकार की माताओं के स्वभाव का पान करके योग्य उम्र वाले पुत्र पुत्रियें भी अपने २ पुन्यों के अनुसार सर्व वैभव का उपभोग करते हैं । इतना होते हुवे भी अपने माता पिता के साथ विनय का व्यवहार करते हैं गुरु जनों के प्रति भक्ति का व्यवहार करते हैं, लजा दया, क्षमादि गुणों में और प्रभु प्रार्थना में आगे रहते हैं। अभिमान से विमुख रह कर मैत्री भाव के सम्मुख रहते हैं जीवन योग्य सत्संग करके ज्ञान प्राप्त करते हैं। और शरीर सम्पत्ति आदि की ओर से उदास रहकर आत्म स्मरण में जीवन पूर्ण करते हैं। अतः सर्व विवेक दृष्टि वाले स्त्री पुरुषों को इस अशुचि पूर्ण गन्दे शरीर की उत्पति पर ध्यान दे कर ममता घटानी चाहिये, मिथ्याभिमान से विमुख रहना चाहिये, मिली हुई जिन्दगी को सार्थक करने के लिये सत्कर्म करने चाहिये कि जिससे उपरोक्त गर्भवास के दुखों को पुनः प्राप्त नहीं करना पड़े एक सत् पुरुष को मन वचन और कर्म से पवित्र होना चाहिए। ॥ इति गर्भ विचार सम्पूर्ण ॥ Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४४८) थोकडा संग्रह। NAAMVvvvv Marwar ama नक्षत्र और विदेश गमन शिष्य नमस्कार करके पूछता है कि हे गुरु ! नक्षत्र कितने ? तारे कितने ? इनका आकार कैसा ? वे नक्षत्र ज्ञान शक्ति बढ़ाने में क्या मददगार हैं ? उन नक्षत्र के समय विदेश गमन करने पर किस पदार्थ का उपभोग करके चलना चाहिये व उस से किस फल की प्राप्ति होती है ? गुरु-(एक साथ छः ही सवालों का जवाब देते हैं) हे शिष्य ! नक्षत्र अठावीश है, जिन सबों के आकार अलग अलग हैं। ये आकार इन नक्षत्रों के ताराओं की संख्या के ऊपर से समझे जा सक्ते हैं। इन के आधार से स्वाध्याय, ध्यान करने वाले मुनि रात्रि की परसियों का. माप अनुमान कर आत्मस्मरण में प्रवृत्त हो सक्ते हैं। इन में से दश नक्षत्र ज्ञान शक्ति में वृद्धि करने वाले हैं । ज्ञान शक्ति वाले महात्मा अपने संयम की वृद्धि निमित तथा भव्य जीवों पर उपकार करने के लिए विदेश में विचरते हैं जिससे अनेक लाभ होने की संभावना है । अतः इन नक्षत्रों का विचार करके गमन करने पर धर्म वृद्धि का कारण होता है । यही नक्षत्रों का फल है । चलने के समय मिन्न भिन्न पदार्थों का उपभोग करने में आता है । उन पदार्थों के साथ मनोभावनाओं का रस मिल कर मिश्रित Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नक्षत्र और विदेश गमन । .......AN N ARAN..ARANA.ORMAhhaANNIm/s0MinAANAA... रस बनता है ! तदनन्तर वे उपभोग में लिए जाते इसे-शकुन वाधा-कहते हैं । इनका मतलब ज्ञानी ही जानते हैं उन के सिवाय अज्ञानी प्राणी इस सर्वोत्तम तत्व को मिथ्याभिमान की परिणति तरफ प्रवृत्त कर के उपजीविका के साधन रूप उनका गैर उपयोग करते हैं। यह अज्ञानता का लक्षण है।। __ अठावीश नक्षत्रों में पहला नक्षत्र अभीच है इस के तारे तीन हैं जिन का गाय के मस्तक तथा मुख समान आकार होता है । उत्तम जाति के स्वादिष्ट व सौरभ दार ( सुगन्धित ) वृक्ष के कुसुमों का उपभोग करके अर्थात् गुलकन्द खाकर गमन करने से अनेक लाभ होते हैं । (१) अन्य मन से अश्वनी नक्षत्र प्रथम गिना जाता है। यह बहसूत्री गम्य है ।(२)दूसरे श्रवण नक्षत्र के तीन तारे हैं । आकार काम धेनु ( कावड़ । समान है । इसके योग में खीर खाण्ड खाकर पश्चिम सिवाय अन्य तीन दिशाओं में जाने से इच्छित कार्य की सिद्धि होती है । ( ३) तीसरे धनिष्टा नक्षत्र के पांच तारे हैं। इसका अकार तोते के पिंजरे समान है। इसके संयोग से मक्खण आदि खा कर दक्षिण सिवाय अन्य दिशाओं में गमन करने से कार्य सफल होता है। (४) शतभीखा नक्षत्र के सौ तारे हैं । इसका आकार बिखरे हुवे फूल के समान है इस के योग पर सारे (पाखे ) तुवर का भोजन Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५० ) थोकडा संग्रह । खाकर दक्षिण सिवाय दिशाओं में जाने से भय की संभा वना रहती है । (५) पूर्वाभाद्रपद नक्षत्र के दो तारे हैं । इसका आकार अर्ध वाव्य के भाग समान है । इस योग पर करलेकी शाक खाकर चलने पर लड़ाई होवे परन्तु इससे ज्ञानवृद्धि की संभावना भी है । (६) उत्तरा भाद्रपद नक्षत्र के दो तारे हैं। इसका आकार भी पूर्वा भाद्र पद समान होता है । इस में दांसकपूर ( वंशले चन ) खाकर पिछले पहर चलने से सुख होता है । यह नक्षत्र दीक्षा के योग्य है । ( ७ ) रेवती नक्षत्र के बत्तीश तारे हैं। इसका कार नाव समान है । इस के समय स्वच्छ जल का पान करके चलने से विजय मिलती है । ( ८ ) अश्वनी नक्षत्र के तीन तारे हैं। घोड़े के बन्ध जैसा आकार है । मटर ( वटले) की फली का शाक खाकर चलने से सुख शान्ति प्राप्त होती है । ( ६ ) भरणी नक्षत्र के तीन तारे हैं। और इसका आकार स्त्री के मर्मस्थान वत् है । तेल, चावत खा कर चलने पर सकलता मिलती है (१०) कृतिका नक्षत्र के छः तारे होते हैं । जिसका नाई की पेटी समान आकार होता है। गाय का दूध पीकर चलने पर सौभाग्य की वृद्धि होती है तथा सत्कार मिलता है । ( ११ ) रोहिणी नक्षत्र के पांच तारे होते हैं । व गाडे के ऊंटासमान इसका आकार होता है । इस समय हरे मूंग खा कर चलने पर मार्ग में यात्रा के योग्य सर्व सामग्री अल्प परिश्रम से प्राप्त हो जाती Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नक्षत्र और विदेश गमम । (४५१) है यह नक्षत्र दीक्षा देने योग्य है । (१२) मृग शीर्ष नक्षत्र के तीनं तारे होते हैं। इसका आकार हिरण के सिर समान होता है । इलायची खाकर चलने पर अत्यन्त लाभ होता है। यह नक्षत्र नये विद्यर्थी की तथा नये शास्त्रों का अभ्यास करने वालों की ज्ञानवृद्धि करने वाला है। (१३) आर्द्रा नक्षत्र का एक ही तारा है । इसका रुधिर के बिन्दु समान आकार है । इस समय नवनीत (माखन ) खाकर चलने से मरण, शोक, संताप तथा भय एवं चार फल की प्राप्ति होती है । परन्तु ज्ञान अभ्यासियों को सत्वर उत्तम फल देने वाला निकलता है व वर्षा ऋतु के मेघ-बादल की अस्वाध्याय दूर करता है । (१४) पुनर्वसु नक्षत्र के पांच तारे हैं। इसका आकार तराजू के समान है । घृत शकर खाकर चलने पर इच्छित फल मिलते हैं (१५) पुष्प नक्षत्र के तीन तारे हैं। जिसका आकार बधमान (दो जुड़े हुवे रामपात्र ) समान होता है । खीर खाएड खाकर चलने से अनियमित लाभ की प्राप्ति होती है। व इस नक्षत्र में किये हुवे नये शास्त्र का अभ्यास भी बढता है । ( १६) अश्लेषा नक्षत्र के छः तारे हैं। इसका आकार ध्वजा समान है । इस समय सीताफल खाकर चले तो प्राणान्त भय की सम्भावना होती है परन्तु यदि कोई ज्ञान अभ्यास, हुन्नर, कला, शिल्प शास्त्र आदि के अभ्यास में प्रवेश करे तो जल तथा तेल के बिन्दु समान Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४५२) थोकडा संग्रह। उस के ज्ञान का विस्तार होता है । ( १७ ) मघा नक्षत्र के सात तारे होते हैं जिनका प्राकार गिरे हुवे किले की दीवार समान है केसर खाकर चलने पर बुरी तरह से आकस्मिक मरण होता है । ( १८) पूर्वा फाल्गुनी नक्षत्र के दो तारे होते हैं। इनका आकार प्राधे पलङ्ग जैसा होता है इस समय कोविड़े (फल) की शाक खाकर चलने से विरुद्ध फल की प्राप्ति होती है परन्तु शास्त्र अभ्यासी के लिए श्रेष्ठ है । (१६) उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र के भी दो तारे होते हैं और आकार भी आधे पलङ्ग जैसा होता है इस समय कड़ा नामक वनस्पति की फली की शाक खाकर चलने पर सहज ही क्लेश मिलता है। यह नक्षत्र दीक्षा लायक है । ( २० ) हस्त नक्षत्र के पांच तारे हैं । इसका प्राकार हाथ के पंजे समान है सिंगोड़े खाकर उत्तर दिशा सिवाय अन्य तरफ चलने से अनेक लाभ हैं व नये शास्त्र अभ्यासियों को अत्यन्त शक्ति देने वाला है । (२१) चित्रा नक्षत्र का एक ही तारा है खिले हुवे फूल जैसा उसका आकार है । दो पहर दिन चढने बाद मूंग की दाल खाकर दक्षिण दिशा सिवाय अन्य दिशाओं में जाने पर लाभ होता है व ज्ञान वृद्धि होती है (२२) स्वाति नक्षत्र का एक तारा है इसका आकार नाग फनी समान होता है आम खाकर जाने पर लाभ लेकर कुशल क्षेम पूर्वक जन्दी घर लौट आसक्के हैं । ( २३ ) विशाखा Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नक्षत्र और विदेश गमन । नक्षत्र के पांच तारे होते हैं जिसका आकार घोड़े की लगाम ( दामणी ) जैसा है इस योग पर अलसी फल खाकर जाने से विकट काम सिद्ध हो जाते हैं । ( २४ ) अनुराधा नक्षत्र के चार तारे हैं। इसका आकार एकावली हार समान होता है । चावल मिश्री खाकर जाने से दूर देश यात्रा करने पर भी कार्य सिद्धि कठिनता से होती है। ( २५) जेष्टा नक्षत्र के तीन तारे हैं इनका आकार हाथी के दांत जैसा है इस समय कलथी की शाक अथवा कोल कुट ( बोर कुट ) खाकर चलने से शीघ्र मरण होता है । (२६) मूल नक्षत्र के इग्यारह तारे हैं इसका वींछे जैसा आकार है मूला के पत्र की शाक खा कर जाने से कार्य सिद्धि में बहुत समय लगता है । इस नक्षत्र को बछड़ा भी कहते हैं। ज्ञान अभ्यासियों के लिये तो यह अच्छा है। ( २७ ) पूर्वाषाढ नक्षत्र के चार तारे हैं । हाथी के पाँव समान इसका आकार है इस समय खीर आँवला खाकर जाने से क्लेश कुसम्म व अशान्ति प्राप्त होती है परन्तु शास्त्र अभ्यासियों को अच्छी शक्ति देने वाला होता है (२८) उत्तराषाढ नक्षत्र के चार तारे होते हैं इसका बैठे हुवे सिंह समान आकार है । इस समय पके हुवे बीली फल खाकर जाने से सर्व साधन सहित कार्य सिद्धि होती है यह नक्षत्र दीक्षित करने योग्य है। __ऊपर बताये हुवे अठ्ठावीश नक्षत्रों में से पांचवां, बारहवाँ, तेरहवां, पन्द्रहवां, सोलहवां, अठारहवां, वीशवां, Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४५४ ) थोकडा संग्रह। एकवीशवां, छब्बीशवां, और सत्तावीशा एवं दश नक्षत्रों में से अमुक नक्षत्र चन्द्र के साथ योग जोड़ कर गमन करते होवें व उस दिन गुरुवार होवे तब उस समय मिथ्याभिमान दूर कर के विनय भक्ति पूर्वक गुरुवन्दन करे व आज्ञा प्राप्त करके शास्त्राध्ययन करने में तथा वांचन लेने में प्रवृत होवे ऐसा करने से सत्वर ज्ञान वृद्धि होती है परन्तु याद रखना चाहिये कि छः वार छोड कर गुरुवार लेवे दो अष्टमी, दो चाउदश, पूर्णिमा, अमावस्या और दो एकम ये सर्व तिथि छोड़ कर शेष अन्य तिथियों में अच्छा चौघडिया देख कर सूर्य-गमन में प्रारम्भ करे। - विशेष में गणीपद ( प्राचार्य ), वाचक पद ( उपाध्याय ) अथवा बड़ी दीक्षा देने के शुभ प्रसंग में दो चोथ, दो छ, दो अष्टमी, दो नवमी, दो बारस, दो चउदश, पूर्णिमा, तथा अमावस्या आदि चौदह तिथियां निषेव हैं । इन के सिवाय की अन्य तिथि अथवा वार, नक्षत्र योग्य है । ऐसे काल के लिए गणी विधि प्रकरण ग्रंथ का न्याय है । अष्टमी को प्रारम्भ करने पर पढाने वाला मरे अथवा वियोग पड़े अमावस्या के दिन प्रारम्भ करने पर दोनों मरे और एकम के दिन प्रारम्भ करने से विद्या की नास्ति होवे।ऐसा समझ कर तिथिवार नक्षत्र चौघडिया देख कर गुरु सम्मुख ज्ञान लेना चाहिये। यह श्रेय का कारण है। - इति नक्षत्र और विदेश गमन सम्पूर्ण के Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांच देव । (४५५) * पांच देव ( भगवती सूत्र, शतक १२ उद्देश है) गाथा नाम गुण उवाए, ठी वीयु चयण संचीठणा, अन्तर अप्पा बहुयं च, नव भेए देव दाराए ।१॥ १ नाम द्वार, २ गुण द्वार, ३ उववाय द्वार ४ स्थिति द्वार ५ ऋद्धि तथा विक्रुवणा द्वार ६ चवन द्वार ७ संचिठण द्वार ८ अन्तर द्वार ६ अल्प बहुत्व द्वार । १ नाम द्वारः-१ भवि द्रव्य देव २ नर देव ३ धर्म देव ४ देवाधि देव ५ भाव देव । २ गुण द्वार:-मनुष्य तथा तिथंच पंचेन्द्रिय में से जो देवता में उत्पन्न होने वाले हैं उन्हें भवि द्रव्य देव कहते हैं २ चक्रवर्ती की ऋद्धि भोगने वालों को नर देव कहते हैं। ... चक्रवर्ती की सिद्धि का वर्णन नव निधान, चौदह रत्न, चौरासी लाख हाथी, चौरासी लाख घोड़े, चौरासी लाख रथ, छन्नु कोड़ पायदल, बत्तीश हजार मुकुट बन्ध राजे, बत्तीश हजार सामानिक राजे, सोलह हजार देवता सेवक, चौसठ हजार स्त्री, तीन सो साठ रसोइये, वीश हजार सोना के प्रागर आदि Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४५६) थोकडा संग्रह। ३ धर्म देव के गुण:--आठ प्रवचन माता का सेवन करने वाले, नववाड़ विशुद्ध ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले, दशविध यति धर्म का पालन करने वाले, बारह प्रकार की तपस्या करने वाले, सतरह प्रकार के संयम का आचरण करने वाले, यावीश परिषह को सहन करने वाले,सत्तावीश गुण सहित, तेतीश अशातना के टालने वाले, छन्नु दोष रहित आहार प.नी लेने वाले, को धर्म देव कहते हैं । ४देवाधिदेव के गुण:-चौतीश अतिशय सहित विराजमान पतीश वचन ( वाणी) के गुण सहित,चौसठ इन्द्र के द्वारा पूज्यनीक, एक हजार और अष्ट उत्तम लक्षण के धारक अट्ठारह दोष रहित व बारह गुणों सहित होते हैं उन्हें देवाधि देव कहते हैं । अहारह दोषों के नामः-१ अज्ञान २ क्रोध ३ मद ४ मान ५ माया ६ लोभ ७ रति ८ अरति ह निद्रा १० शोक ११ असत्य १२ चोरी १३ भय १४ प्राणि वध १५ मत्सर १६ राग १७ क्रीड़ा-प्रसंग १८ हास्य । १२ गुणों के नामः-१ जहां २ भगवन्त खड़े रहें, बैठे समोसरें वहां २ दश बोलों के साथ भगवन्त से बारह गुणा ऊंचा तत्काल अशोक वृक्ष उत्पन्न हो जाता है और भगवन्त के मस्तक पर छाया करता है । २ भगवन्त जहां २ समोसरें वहां २ पांच वर्ण के अचेत फूलों की वृष्टि होती है जो गिरकर घुटने के बराबर ढेर लगा देते हैं । ३ भगवन्त की योजन पर्यन्त वाणी फैल कर सबों के Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांच देव | ( ४५७ ) मन का सन्देह दूर करती है । ४ भगवन्त के चौवीश जोड़ चामर दुलते हैं ५ स्फटिक रत्न मय पाद पीठ सहित सिंहासन स्वामी के आगे हो जाता है भामण्डल श्रम्बोड़े के स्थान पर तेज मण्डल विराजे व दशदिशाओं का अन्धकार दूर करे ७ आकाश में साड़ावारह कोड़ देवदुन्दुभि बजे भगवन्त के ऊपर तीन छत्र ऊपरा - उपरी विराजे ६ अनन्त ज्ञान अतिशय १० अनन्त अर्चा अतिशय - परम पूज्यपना ११ अनन्त वचन अतिशय १२ अनन्त अपायापगम अतिशय ( सर्व दोष रहित पना ) एवं बारह गुणों करसहित ( ५ ) भाव देव- १ भवनपति २ वाण व्यन्तर ३ ज्योतिषी ४ वैमानिक एवं चार प्रकार के देव भाव देव कहलाते हैं । ३ उबवाय द्वार : - १ भवि द्रव्य देव में मनुष्य तिर्यच १ युगलिये २, और सर्वार्थ सिद्ध ३ एवं तीन स्थान छोड़ कर शेष सर्व स्थानों के आकर उत्पन्न होते हैं २ नर देव में चार जाति के देव और पहली नरक एवं पांच स्थान के श्राकर उत्पन्न होते हैं ३ धर्म देव में छठ्ठी सातवीं नरक, तेज, वायु, मनुष्य तिर्येच व युगलिये एवं छ स्थानके छोड़ कर शेष सर्व स्थान के आकर उत्पन्न होते हैं ४ देवाधिदेव में पहेली दूसरी, तीसरी नरक, और किल्विषी छोड़ कर वैमानिक देव के आकर उपजते हैं ५ भाव देव में तिर्यच, पंच Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४५८ ) थोकडा संग्रह। wwwwwww न्द्रिय और संज्ञी मनुष्य इन दो स्थान के आकर उत्पन्न होते हैं। ४ स्थिति द्वारः-१ भविद्रव्य देवकी स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त की उत्कृष्ट तीन पल्य की । २ नर देव की जघन्य सातसौ वर्ष की उत्कृष्ट चौराशी लक्ष पूर्व की ३ धर्म देव की जघन्य अन्तर्मुहूर्त की उत्कृष्ट देश उणी (न्यून) पूर्व कोड़ की ४ देवाधि देव की जघन्य ७२ वर्ष की उत्कृष्ट ८४ लक्ष पूर्व की ५ भावदेव की जघन्य दश हजार वर्षे की उत्कृष्ट ३३ सागरोपम की। ५ ऋद्धि तथा विक्रुवणा द्वार:-भवि द्रव्य देव में जिन्हें वैक्रिय उत्पन्न होवे वो, नर देव को तो होती ही है, धर्म देव में से जिन्हें होवे वो और भाव देव के तो होती ही है एवं ये चारों वैक्रिय रूप करें तो जघन्य १, २, ३, उत्कृष्ट संख्याता रूप करे, शक्ति तो असंख्याता रूप करने की है । परन्तु करे नहीं देवाधि देव की शक्ति अत्यन्त है परन्तु करे नहीं। ६ वचन द्वारः-१ भवि द्रव्य देव चव कर देवता होवे २ नर देव चव कर नरक जावे ३ धर्म देव चव कर वैमानिक में तथा मोक्ष में जावे ४ देवाधिदेव मोक्ष में जावे ५ भाव देव चवकर पृथ्वी अप, वनस्पति बादर में और गर्भज मनुष्य तिर्यच में जावे । ७ संचिठणा द्वारः-सचिठणा अर्थात् क्या ? देव Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांच देव । ( ४५६ ) - का देवपने रहे तो कितने काल तक रह सकता है । भवि द्रव्य देव की संचिठणा जघन्य अन्तर्मुहूर्त की उत्कृष्ट ३ पल्योपम की । नर देव की जघन्य सातसो वर्ष की उत्कृष्ट ८४ लक्ष पूर्व की । धर्म देव की परिणाम आश्री एक समय प्रवर्तन या श्री जघन्य अन्तर्मुहूर्त की उत्कृष्ट देश उणी पूर्व क्रोड़ की देवाधि देव की जघन्य ७२ वर्ष की उत्कृष्ट ८४ लक्ष पूर्व की । भाव देव की जघन्य दश हजार वर्ष की उत्कृष्ट ३३ सागरोपम की । ८ अन्तरद्वारः - भवि द्रव्य देव में अन्तर पड़े तो जघन्य दश हजार वर्ष और मुहूर्त अधिक । उत्कृष्ट अनन्त काल का । नर देव में जघन्य एक सागर जाजेरा उत्कृष्ट अर्ध पुद्गल परावर्तन में देश न्यून धर्म देव में अन्तर पड़े तो जघन्य दो पल्य जोजरा उत्कृष्ट अर्ध पुद्गल परावर्तन में देश न्यून | देवाधि देव में अन्तर नहीं पड़े भाव देव में अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त का उत्कृष्ट अनन्त काल का | ६ अल्पबहुत्व द्वारः-१ सर्व से कम नर देव २ उनसे देवाधिदेव संख्यात गुणा ३ उनसे धर्मदेव संख्यात गुणा ४ उनसे भवि द्रव्य देव असंख्यात गुणा और ५ उनसे भाव देव असंख्यात गुणा । ॥ इति पांच देव का थोकड़ा सम्पूर्ण ॥ Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४६०) थोकडा संग्रह। आराधिक विराधिक ऋ ( श्री भगवतीजी सूत्र, शतक पहेला,उद्देश दूसरा) १ असंजति भव्य द्रव्यदेव जघन्य भवनपति उत्कृष्ट नव ग्रीयवेक तक जावे। २ आराधिक साधु जघन्य पहले देवलोक तक उत्कृष्ट सर्वार्थ सिद्ध विमान तक जावे । ३ विराधिक साधु ज० भवन पति उत्कृष्ट पहले देवलोक तक जावे। ४ श्राराधिक श्रावक जघन्य पहले देवलोक तक उत्कृष्ट बारहवें देवलोक तक जावे । ५ विराधिक श्रावक जघन्य भवनपति उत्कृष्ट ज्योतिषी तक जावे। ६ असंजति तिर्यच ज० भवनपति उत्कृष्ट वाण व्यन्तर तक जावे। ७ तापस के मतवाले ज० भवनपति उत्कृष्ट ज्योतिषी तक जावे। ८ कंदीया साधु जघन्य भवनपति उत्कृष्ट पहला देवलोक तक जावे। ६ अंबड़ सन्यासी के मतवाले जघन्य भवनपति उत्कृष्ट पाँचवें देवलोक तक जावे । Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राधिक विधिक । ( ४६१ ) १० जमाली के मतवाले जघन्य भवनपति उत्कृष्ट छठे देवलोक तक जावे | ११ संज्ञी तिर्यच जघन्य भवनपति उत्कृष्ट आठवें देवलोक तक जावे ! १२ गोशाले के मतवाले जघन्य भवनपति उत्कृष्ट बारहवें देवलोक तक जावे | १३ दर्शन विराधिक स्वलिंङो साधु जघन्य भवनपति उत्कृष्ट नव ग्रीयवेक तक जावे | १४ आजीविका मतवाले जघन्य भवनपति उत्कृष्ट बारहवें देवलोक तक जावे | ॥ इति श्राराधिक विराधिक का थोकड़ा सम्पूर्ण ॥ Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४६२) थोकडा संग्रह। तीन जाग्रिका (जागरण ) श्री वीर भगवन्त को गौतम स्वामी पूछने लगे कि हे भगवन ! जाग्रिका कितने प्रकार की होती है ? भगवान्-हे गौतम ! जाग्रिका तीन प्रकार की होती है १ धर्म जागरण २ अधर्म जागरण ३ सुदखु जागरण । १ धर्म जागरण के चार भेद-१ आचार धर्म २ क्रिया धर्म ३ दया धर्म ४ स्वभाव धर्म । १ आचार धर्म के पांच भेदः-१ ज्ञानाचार २ दर्शनाचार ३ चारित्राचार ४ तपाचार ५ वीर्याचार इन में से ज्ञानाचार के ८ भेद, दर्शनाचार के ८ भेद, चारित्रा चार के ८ भेद, तपाचार के १२ भेद, वीर्याचार के ३ भेद एवं ३६ भेद हुवे। १ज्ञानाचार के ८ भेद-१ ज्ञान सीखने के समय ज्ञान सीखे २ ज्ञान लेने के समय विनय करे ३ ज्ञान का बहु मान करे ४ ज्ञान पढने के समय यथा शक्ति तप करे ५ अर्थ तथा गुरु को गोपे (छिपावे) नहीं, ६ अक्षर शुद्ध ७ अर्थ शुद्ध ८ अक्षर और अर्थ दोनों शुद्ध । २ दर्शनाचार के ८ भेदः-१ जैन धर्म में शङ्का नहीं करे २ पाखण्ड धर्म की वांछा नहीं करें ३ करणी के फल में संदेह नहीं रक्ख ४ पाखएडी के आडम्बर देख कर Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीन जाग्रिका ( जागरण )। (४६३) ~ ~ मोहित नहीं होवे ५ स्वधर्म की प्रशंसा करे ६ धर्म से भ्रष्ट होने वाले को मार्ग पर लावे ७ स्वधर्म की भक्ति करे ८ धर्म को अनेक प्रकार से दिपावे कृष्ण, श्रेणिक समान । ३ चारित्राचार के ८ भेदः-१ इर्या समिति २ भाषा समिति ३ एषणा समिति ४ आयाण भएड मत निखेवणा समिति ५ उचार पासवण खेल जल संघाण परिठावणिया समिति ६ मन गुप्ति ७ वचन गुप्ति ८ काय गुप्ति । ४ तपाचार के बारह भेदः-छे बाह्य और छ अभ्यन्तर एवं बारह । छे बाह्य तप के नाम-१ अनशन २ उणोदरी ३ वृत्ति संक्षेप ४ रस परित्याग ५ काय क्लेश ६ इन्द्रिय प्रति संलीनता। ले अभ्यन्तर तप के नामः१ प्रायश्चित २ विनय ३ वैयावच्च ४ समझाय ५ ध्यान ६ कायोत्सर्ग एवं सर्व १२ हुवे । इन में से इहलोक पर लोक के सुख की वाञ्छा रहित तप करे अथवा आजीविका रहित तप करे एवं तप के बारह प्राचार जानना । ५ वीर्याचार के तीन भेदः-१ बल व वीर्य धार्मिक कार्य में छिपावे नहीं २ पूर्वोक्त ३६ बोल में उद्यम करे ३ शक्ति अनुसार काम करे एवं ३६ भेद आचार धर्म के कहे। २क्रिया धर्म:-इस के ७० भेदों के नाम-चार प्रकार की पिण्ड विशुद्धि ४, ५ समिति, १२ भावना, १२ Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४६४) थोकडा संग्रह। साधु की बारह पडिमा, ५ पांच इन्द्रिय निग्रह, २५ प्रकार की पडीलेहना, ३ गुप्ति, ४ अभिग्रह एवं ७०। ३ दया धर्म के आठ भेदः-१ स्वदया अर्थात् अपनी आत्मा को पाप से बचाव २ पर दया याने अन्य जीवों की रक्षा करे ३ द्रव्य दया याने देखा देखी दया पाले अथवा लजा से जीव की रक्षा करे तथा कुल आचार से दया पाले ४ भाव दया अर्थात् ज्ञान के द्वारा जीव को आत्मा जान कर उस पर अनुकम्पा लावे व दया लाकर जीव की रक्षा करे ५ व्यवहार दया श्रावक को जैसी दया पालने के लिए कहा है वो पाले घर के अनेक काम काज करने के समय यतना रक्खे ६ निश्चय दया याने अपनी अात्मा को कर्म बन्ध से छुड़ावे । विवेचनः-पुद्गल पर वस्तु है । इनके ऊपर से ममता हटा कर उसका परिचय छोड़े, अपने आत्मिक गुण में लीन रहे, जीव का कर्म रहित शुद्ध स्वरूप प्रगट करे , यह निश्चय दया है। चौदह गुणस्थानक के अन्त में यह दया पाई जाती है । ७ स्वरूप दया अर्थात् किसी जीव को मारने के लिये उसे (जीव को) पहिले अच्छी तरह से खिलाते हैं व शरीर पुष्ट करते हैं, सार समाल लेते हैं । यह दया ऊपर की तथा दीखावा मात्र है । परन्तु पीछे से उस जीव को मारने के परिणाम है । यह उत्तराध्ययन सूत्र के पातवें अध्ययन में बकरे के अधिकार से समझना । Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीन जाग्रिका ( जागरण )। (४६५) •wwwwwwwwwwn armerammarrrrrrrrrr ८ अनुबन्ध दया-वह जीव को त्रास देवे परन्तु अन्तहदय से उसको सुख देने की भावना है। जैसे-माता पुत्र का रोग दूर करने के लिये कटुक औषधि पिलाती है परन्तु हृदय से उसका हित चाहती है । तथा जैसे पिता पुत्र को हित शिक्षा देने के लिये ऊपर से तर्जना करे, मारे परन्तु हृदय से उसको सद्गुणी बनाने के लिये उसका हित चाहता है । ४ स्वभाव धर्म-जीव व अजीव की प्रणति के दो भेद-१ शुद्ध स्वभाव से और २ कर्म के संयोग से अशुद्ध प्रणति । इनसे जीव को विषय कषाय के संयोग से विभावना होती है । जिसे दूर कर के जीव अपने ज्ञानादिक गुण में रमन करे उसे स्वभाव धर्म कहते हैं। और पुद्गल का एक वर्ण,एक गन्ध, एकरस, दो फरस (स्पर्श) में रमण होवे तो यह पुद्गल का शुद्ध स्वभाव धर्म जानना । इसके सिवाय चार द्रव्य में स्वभाव धर्म है परन्तु विभाव धर्म नहीं। चलन गुण, स्थिर गुण, अवकाश गुण, वर्तना गुण आदि ये अपने २ स्वभाव को छोड़ते नहीं अतः ये शुद्ध स्वभाव धर्म है । एवं चार प्रकार की धर्म जानिका कही। २ अधर्म जाग्रिका-संसार में धन कुटुम्ब परिवार आदि का संयोग मिलना व इसके लिये प्रारम्भादिक करना, उन पर दृष्टि रखना व रक्षा करना आदि को अधर्म जानिका कहते हैं। सुदखु जाग्रिका-सु कहेता अच्छी व दखु कहेता Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४६६) थोकडा संग्रह। anne w anan चतुराई की जाग्रिका । यह श्रावक को होती है कारण कि सम्यक् ज्ञान, दर्शन सहित धन कुटुम्बादिक तथा विषय कषाय को खराब जानता है । देश से निवृत्त हुवा है, उदय भाव से उदासीन पने है, तीन मनोरथ का चिंतन करता है । इसे सुदखु जानिका कहते हैं । ॥ इति तीन जाग्रिका संपूर्ण ॥ Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ काय के भव। (४६७) ८ ६ काय के भव श्री गौतम स्वामी वीर भगवान को वंदना नमस्कार करके पूछने लगे कि हे भगवन् ! छे काय के जीव अन्तमुहूते में कितने भव करते है ? भगवान-हे गौतम ! पृथ्वी, अप, अग्नि, वायु आदि जघन्य एक भव करे उत्कृष्ट बारह हजार आठ सो चोवीश भव एक अन्त मुहूर्त में करे और वनस्पति के दो भेद१ प्रत्येक २ साधारण । प्रत्येक जघन्य एक भव उत्कृष्ट बावीश हजार भव करे व साधारण जघन्य एक भव और उत्कृष्ट पेंसठ हजार पांचसो छब्बीश भव करे । बेइन्द्रिय जघन्य एक भव उत्कृष्ट ८० भव करे । त्रि--इन्द्रिय जघन्य एक उत्कृष्ट साठ भव करे । चौरिन्द्रिय जघन्य एक उत्कृष्ट चालीश भव करे । असंज्ञी तिथंच जघन्य एक भव उत्कृष्ट चोवीश भव करे । संज्ञी तिर्यच व संज्ञी मनुष्य जघन्य तथा उत्कृष्ट एक भव करे । ॥ इति छकाय के भव सम्पूर्ण ॥ Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४६८) थोकडा संग्रह। * अवधि पद (सूत्र श्री पन्नवणाजी पद तेंतीशवां) इसके दश द्वार-१ भेद द्वार २ विषय द्वार ३ संठाण द्वार ४ श्राभ्यन्तर और बाह्य द्वार ५ देश थकी व सर्व थकी ६ अनुगामी ७ हायमान वर्धमान ८ अवठ्ठीया ६ पड़वाई १० अपड़वाई। १ भेद द्वार-नेरिये व देव भव प्रत्ये देखे अर्थात् उत्पन्न होने के समय से ही उन्हें अवधि ज्ञान होता है तिर्यंच व मनुष्य क्षयोपशम भाव से देखे । २ विषय द्वार:-पहेली नरक का नेरिया जघन्य साढ़े तीन गाउ देखे उत्कृष्ट चार गाउ, दूसरी नरक का नेरिया जघन्य तीन गाउ उत्कृष्ट साड़े तीन गाउ, तीसरी नरक का नेरिया जघन्य अढाई गाउ उत्कृष्ट तीन गाउ, चौथी नरक का नेग्यिा जघन्य दो गाउ उत्कृष्ट अढाई गाउ, पांचवी नरक का जघन्य डेढ गाउ उत्कृष्ट दो गाउ, छठी नरक का जघन्य एक गाउ उत्कृष्ट डेढ गाउ, सातवीं नरक का जघन्य आधा गाउ उत्कृष्ट एक गाउ देखे । भवन पति जघन्य पञ्चीश योजन तक देखे उत्कृष्ट तीन प्रकार से देखे ऊंचा-पहेले दूसरे देवलोक तक, नीचे-तीसरी नरक के तले तक और तीछो-पल के आयुष्य वाले संख्यात द्वीप समुद्र देखे व सागर के आयुष्य वाले असं. Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवधि पद। (४६६) ख्यात द्वीप समुद्र देखे । वाण व्यन्तर व नव निकाय के देवता जघन्य पच्चीश योजन उत्कृष्ट तीन प्रकार से देखे ऊंचा-पहेले देव लोक तक नीचे-पाताल कलश तक व तिर्यक संख्यात द्वीप समुद्र देखे । ज्योतिषी जघन्य आंगुल के असंख्यातवें भाग उत्कृष्ट तीन प्रकार से देखे ऊंचाअपने विमान की ध्वजा तक, नांचे-नरक के तले तक और तिर्यक पल के श्रायुष्य वाले संख्यात द्वीप समुद्र देखे व सागर के आयुष्य वाले असंख्यात द्वीप समुद्र देखे। तीसरे देवलोक से सर्वार्थसिद्ध विमान तक के देवता ऊंचा अपने २ विमान की ध्वजा तक देखे तिर्यक असंख्यात द्वीप समुद्र देखे नीचे-तीसरे चौथे देवलोक वाले दूसरी नरक के तले पर्यन्त, पांचवें छठे वाले तीसरी नरक के तले तक, नवें से बारहवें दवलोक तक वाले पांचवी नरक के तले पर्यन्त, नव ग्रीयवेक वाले छठी नरक के तले तक चार अनुत्तर विमान वाले सातवीं नरक के तले तक और सर्वार्थ सिद्ध के देवता सातवीं नरक के तले तक, तिथंच जघन्य प्रांगुल के असंख्यातवें भाग उत्कृष्ट संख्यात द्वीप समुद्र देखे मनुष्य जघन्य आंगुल के असंख्यातवें भाग उत्कृष्ट समग्र लोक और अलोक में लोक जितने असंख्य त भाग देखे। ३ संठाण द्वार:-नेरिये त्रिपाई के आकर वत् देखे, भवन पति पालने के आकार वत् वाण व्यन्तर झालर के श्राकार समान, ज्योतिषी पडहे के आकार वत् देखे । बारह Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४७०) थोकडा संग्रह। देव लोक के देवता मृदंग के आकार वत् देखे, नवनीयवक के देवता फूलों की चंगेरी समान देखे, और अनुत्तर विमान के देवता कुंवारी कन्या की कंचुकी समान देखे । ४ाभ्यन्तर-पाय द्वार-नेरिये व देव प्राभ्यन्तर देखे, तियच बाह्य देखे मनुष्य प्राभ्यन्तर और ब ह्य दोनों दखे कारण कि तीर्थकरों को अवधि ज्ञान जन्म से ही होता है। ५ देश और सर्व थकी-नारकी,देवता और तिर्यच देश थकी और मनुष्य सर्व थकी। ६ अनुगामी और अनानुगामी-नारकी देवता का अवधि ज्ञान अनुगामी ( अर्थात् माथ २ रहने वाला) अवधि ज्ञान होता है । तिर्यच और मनुष्य का अनुगामी तथा अनानुगामी दोनों प्रकार का होता है। ७ हायमान वर्धमान और ८ अवठिया द्वार:नारकी देवता का अवधि ज्ञान अवठीया होवे ( न तो घटे और न बढे, उतना ही रहता है ) मनुष्य और तिर्यंच का हायमान, वर्धमान तथा अबठीया एवं तीनों प्रकार का अवधि ज्ञान होता है। ___-१० पड़वाई और अपड़वाई द्वारः-नारकी देवता का अवधि ज्ञान अपड़वाई होता है और मनुष्य व तिर्यच का अवधि ज्ञान पड़वाई तथा दोनों प्रकार का होता है। ॥ इति अवधि पद सम्पूर्ण ॥ Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म ध्यान । (४७१) धर्म ध्यान उववाई सूत्र पाठ। सकिंतं धम्मे झाणे ? चउविहे, चउ पड़यारे पन्नते तंजहा; आणाविज्जए १ अवाय विज्जए २ विवाग विजए ३ संठाण विजए ४; धम्मस्लणं झाणस्म चत्तारि लग्बणा पन्नता तंजहा, प्राणरूइ १ निसग्ग रूई २ सूत्तरूई ३ उवएस रूई ४, धम्मस्सणं माणस्स चत्तारि अालम्बण पन्नत्ता तंजहा, वायणा १ पुछणा २ परियट्टणा ३ धम्मकहा ४; धम्मस्सणं माणस्स चत्तारि अणुप्पेहा पन्नता तंजहा, एगच्चाणुप्पेहा १ अणिच्चाणुप्पेहा २ असरणाणु पेहा ३ संसारणुप्पेहा। भावार्थ-धर्म ध्यान के चार भेद १ प्राणाविजए कहेता वीतराम की आज्ञा का विचार चिंतन करे । समकित सहित बारह व्रत, श्रावक की इग्यारह पडिमा, पंच महाव्रत, भिक्षु ( साधु ) की बारह पडिमा, शुभ ध्यान, शुभ योग, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप व छकाय की रक्षा एवं वीतराग की आज्ञा का आराधन करे । इसमें समय मात्र का प्रमाद नहीं करे । और चतुर्विध तीर्थ के गुणों का कीर्तन करे । इस प्रकार धर्म ध्यान का यह पहला भेद खतम हुवा। Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४७२) थोकडा संग्रह। २ अवायविजए-संपार के अन्दर जीव की जिसके द्वारा दुख प्राप्त होता है उनका चितवन करे अथवा मिथ्यात्व, अवत, प्रमाद, कषाय अशुभ योग तथा अठारह पाप स्थानक, काय की हिंमा एवं इनको दुखों का कारण जानकर आश्रव मार्ग का त्याग करे व संवर मार्ग को आदरे । जिस से जीव को दुख नहीं होवे । ३ वियग विजए-जीव को किस प्रकार सुख दुख की प्राप्ति होती है अर्थात् वो इन्हें किस प्रकार भोगता है इसपर चिंतन व मनन करे । जीव जितने रस के द्वारा जैसे शुभा शुभ ज्ञानावरणीयादिक कमाँ का उपार्जन किया है वैसे ही शुभा शुभ कर्मों के उदय से जीव सुख दुख का अनुभव करता है । सुख दुख अनुभव करते समय किसी पर राग द्वेष नहीं करना चाहिये किन्नु समता भाव रखना चाहिये । मन वचन काया के शुभ योग सहित जैन धर्म के अन्दर प्रवृत होना चाहिये जिससे जीव को निराबाध परम सुख की प्राप्ति हो । ४ संठाण विजए:- तीनों लोकों के आकार का स्वरूप चितवे । लोक का स्वरूप इस प्रकार हैं-यह लोक सुपइठक के आकार वत् है । जीव-अजीवों से समग्र भरा हुवा है । असंख्यात योजन की कोड़ा क्रोड़ प्रमाणे तीछा लोक है जिसके अन्दर असंख्यात द्वीप समुद्र है असंख्यात वाणव्यन्तर के नगर है, असंख्यात ज्योतषी के विमान हैं Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म ध्यान | ( ४७३ ) तथा असंख्यात ज्योतिषी की राजधानीये हैं। इसमें अढाई द्वीप के अन्दर तीर्थकर जघन्य २० उत्कृष्ट १७०, केवली जघन्य दो क्रोड़ उत्कृष्ट नव क्रोड़, तथा साधु जघन्य दो हजार कोड उत्कृष्ट नव हजार क्रोड होते हैं । जिन्हें वंदामि, नम॑सामि, सक्कर म समाणेमि कल्लाणं मंगलं देवयं चेयं 'पजुवास्सामि । तीर्थे लोक में असंख्याते श्रावक श्राविका हैं उन के गुण ग्राम करना चाहिए तीर्थे लोक से असंख्यात 1 अधिक ऊर्ध्व लोक है । जिसमें बारह देवलोक नव ग्रीय वे पांच अनुत्तर विमान एवं सर्व मिला कर चोराशी लाख सत्ताणु हजार तेवीश विमान हैं । इनके ऊपर सिद्ध शीला है जहां पर सिद्ध भगवान विराज मान हैं । उन्हें वंदामि जाव पजुवासामि । ऊर्ध्व लोक से नीचे अधोलोक है जिसमें चोराशी लाख नरक वासे हैं और सातकोड़ बहत्तर लाख भवन पति के भवन हैं । ऐसे तीन लोक के सर्व स्थानक को समकित रहित करणी बिना सर्व जीव अनन्ती बार जन्म मरण द्वारा फरस कर छोड़ चुके हैं । ऐसा जानकर समकित सहित श्रुत और चारित्र धर्म की श्राराधना करनी चाहिये जिससे अजरामर पद की प्राप्ति होवे । धर्म ध्यान के चार लक्षण :- १ आणा रुई - वीतराग की आज्ञा अङ्गीकार करने की रुचि उपजे उसे श्राणारुई कहते हैं । २ निसग्ग रुई: जीव की स्वभाव से ही तथा . Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४७४ ) थोकडा संग्रह | जाति स्मरणादिक ज्ञान से श्रुत सहित चारित्र धर्म करने की रुचि उपजे इसे निसग्ग रुई कहते हैं । ३ सूत्त रुई - इसके दो भेद - १ अंग पविठ २ अंग बाहिर । आचारांगादि १२ अंग अंगपविठ इनमें से ११ अंग कालिक और बारहवां अंग दृष्टिवाद यह उत्कालिक । अंग बाहिर के दो भेद - १ आवश्यक २ श्रावश्यक व्यतिरिक्त । श्रावश्यक-सामायकादिक छ अध्ययन उत्कालिक तथा उत्तराध्ययनादिक कालिक सूत्र । उववाई प्रमुख उत्कालिक सूत्र सुनने की तथा पढने की रुचि उत्पन्न होवे उसे सूत्र रुचि कहते हैं । ----- ४ उवएसरुई - अज्ञान द्वारा उपार्जित कर्मों को ज्ञान द्वारा खपावे, ज्ञान से नये कर्म न बान्धे, मिथ्यात्व द्वारा उपार्जित कर्मों को समकित द्वारा खपावे, समकित के द्वारा नवीन कर्म नहीं बान्धे । अत्रत से बन्धे हुवे कर्मों को व्रत द्वारा खपावे व व्रत से नये कर्म न बान्धे । प्रमाद द्वारा उपार्जित कर्मों को अप्रमाद से खपावे और अप्रमाद के द्वारा नये कर्म न बान्धे । कपाय द्वारा बन्धे हुवे कम को अकषाय द्वारा खपाव व अकषाय के द्वारा नये कर्म न बान्धे | अशुभ योग से उपार्जित कर्मों को शुभ योग से पावे व शुभ योग के द्वारा नये कर्म न बान्धे । पांच इंद्रिय के स्वाद रुप श्रव से उपार्जित कर्म तप रूप संवर द्वारा खपावे और तप रूप संबर से नवीन कर्म न बांधे Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म ध्यान । (४७५) NAAAAA अतः अज्ञानादिक आश्रव मार्ग का त्याग करके ज्ञानादिक संवर मार्ग का श्राराधन करें एवं तीर्थंकरों का उपदेश सुनने की रुचि उपजे । इसे उपदेश रुचि ( उवएस रुचि) तथा उगाढ रुचि भी कहते हैं। धर्म ध्यान के चार अवलम्बन-वायणा, पूछणा, परियदृणा और धर्म कथा । १ वायणा-विनय सहित ज्ञान तथा निर्जरा के निमित्त सूत्र के व अर्थ के ज्ञाता गुर्वादिक के समीप सूत्र तथा अर्थ की वाचनी लेवे उसे वायणा कहते हैं।। २ पूछणा-अपूर्व ज्ञान प्राप्त करने के लिए तथा जैन मत दीपाने के लिए, संदेह दूर करने लिए अथवा अन्य की परीक्षा के लिए यथा योग्य विनय सहित गुर्वादिक से प्रश्न पूछे उसे पूछणा कहते हैं। ३ परियट्टणा-पूर्व पठित जिन भाषित सूत्र व अर्थों को अस्खलित करने के लिए तथा निजेरा निमित्त शुद्ध उपयोग सहित शुद्ध अर्थ व सूत्र की बारंबार स्वाध्याय करे उसे परियट्टणा कहते हैं। ४ धर्म कथा-जैसे भाव वीतराग ने परुपे हैं वैसे ही भाव स्वयं अंगीकार करके विशेष निश्चय पूर्वक शङ्का, कंखा, वितिगच्छा रहित अपनी निजेरा के लिए व पर-उपकार निमित्त सभा के अन्दर वे भाव वैसे ही परुपे, उसे धर्म कथा कहते हैं। इस प्रकार की धर्म कथा कहने वाले तथा Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४७६) थोकड़ा संग्रह। सुन कर श्रद्धा रखने वाले दोनों जीव वीतराग की आज्ञा के आराधक होते हैं । इस धर्म कथा-संवर रूप वृक्ष की सेवा करने से मन वान्छित सुख रुप फल की प्राप्ति होती है । संवर रूपी वृक्ष का वर्णन-जिस वृक्ष का समकित रुप मूल है, धैर्य रुप कन्द है, विनय रुप वेदिका है, तीर्थकर तथा चार तीथे के गुण कीतन रुप स्कन्ध है, पांच महाव्रत रुप बड़ी शाखा है, पच्चीश भावना रुप त्वचा है, शुभ ध्यान व शुभ योग रुप प्रधान पल्लव पत्र हैं, गुण रुप फूल है, शीयल रुप सुगन्ध है, आनन्द रुप रस है, और मोक्ष रुप प्रधान फल है । मेरु गिरि के शिखर पर जैसे चूलिका विराजमान है वैसे ही समकिती के हृदय में संवर रुपी वृक्ष विराजमान होता है। इस संवर रुपी वृक्ष की शीतल छाया जिसे प्राप्त होती है उस जीव के भवोभव के पाप टल जाते हैं और वह अतुल सुख प्राप्त करता है। उक्त चार प्रकार की कथा विस्तार पूर्वक कहे उसे धर्म कथा कहते हैं। अक्षेवणी, विक्षेवणी, संवेगणी और निगणी आदि ४ कथाओं का विस्तार चोथे ठाणे दूसरे उद्देशे के अन्दर है। धर्म ध्यान की चार अणुप्पेहा-जीव द्रव्य तथा अजीव द्रव्य का स्वभाव स्वरुप जानने के लिए सूत्र का अर्थ विस्तार पूर्वक चिंतवें उसे अणुप्पेहा कहते है। १ अणुप्पेहा-एकच्चालुप्पेहा-मेरी आत्मा निश्चय Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धम ध्यान। (४७७) नय से असंख्यात प्रदेशी अरुपी सदा सउपयोगी व चैतन्य रुप है । सर्व आत्मा निश्चय नय से ऐसी ही हैं । और व्यवहार नय से प्रात्मा अनादि काल से अचैतन्य जड़ वर्णादि २० रुप सहित पुद्गल के संयोग से त्रस व स्थावर रुप लेकर अनेक नृत्य कार नट के समान अनेक रुप वाली है ! वह त्रस का त्रसं रुप में प्रवर्ते तो जघन्य अन्तर्मुहूर्त उत्कृष्ट दो हजार सागर जाजरा तक रहे और स्थावर का स्थावर रूप में प्रवत तो जघन्य अन्तर्मुहूर्त उत्कृष्ट ( काल से ) अनन्ती उत्सर्पिणी अवसर्पिणी व क्षेत्र से अनंता लोक प्रमाणे अलोक के आकाश प्रदेश होवे इतने काल चक्र उत्सर्पिणी अवसर्पिणी समझना । इस के असंख्यात पुद्गल परावर्तन होते हैं। आंगुल के असंख्यातवें भाग में जितने आकाश प्रदेश आव उतने असंख्यात पुद्गल परावर्तन होते हैं । स्थावर के अन्दर पुद्गल लेकर खला । यह व्यवहार नय से जानना । त्रस स्थावर में रह कर स्त्री पुरुष नपुंसक वेद में पुद्गल के संयोग में खेला, प्रवर्त हुवा व अनेक रूप धारण किये जैसे-किसी समय देवी रूप में भवनपत्यादिक से इशान देव लोक तक इन्द्र की इद्राणी सुरूपवन्ती अप्सरा हुई जघन्य १० हजार वर्ष उत्कृष्ट ५५ पन्योपम देवाङ्गना के रूप में अनन्ती वार जीव खेला । देवता रूप में भवनपत्यादिक से जाव नव ग्रीयवेक तक महर्षिक महा Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४७८) थोकडा संग्रह । शक्तिवन्त इन्द्रादिक लोक पाल प्रमुख रूपवान देदीप्यवान् वंछित भोग संयोग में प्रवत हुवा जघन्य १० हजार वर्ष उत्कृष्ट ३१ सागरोपम एवं अनन्ती वार भोगा । इन्द्र महाराज के रूप में एक भव के अन्दर ७ पल्योपम की देवी, बावीश कोड़ा क्रोड़, पिच्चाशी लाख कोड़, एकोत्तर हजार कोड़, चार से अठावीश कोड़, सत्तावन लाख चौदह हजार दोसो अट्याशी ऊपर पांच पल्य की ८, इतनी देवियों के साथ भोग करने पर भी तृप्ति न हुई । मनुष्य के अन्दर स्त्री पुरुष रूप में हुवा । देव कुरू उत्तर कुरू के अन्दर युगल युगलानी हुवा जहां महामनोहर रूप मनवांछित सुख भोगे । दश प्रकार के कल्प वृक्षों से सुख भोगे । स्त्री पुरुष का क्षण मात्र के लिये भी वियोग नहीं पड़ा।३ पन्योपम तक निरन्तर सुख भोगे। हरिवास रम्यक वास में २ पल्योपम, हेमवय हिरण्य वय क्षेत्र के अन्दर १ पल्य तक, छप्पन अन्तरद्वीपा के अन्दर पल्योपम का असंख्यातवां भाग, युगल युगलानी रूप में अनंती बार स्त्री पुरुष के रुप में खेला परन्तु आत्म तृप्ति नहीं हुई। चक्रवर्ती के घर स्त्री रत्न के रुप में लक्ष्मी समान रुप अनंती वार यह जीव पाकर खला, परन्तु तृप्त नहीं हुवा । वासुदेव भंडलीक राजा व प्रधान व्यवहारीया के घर स्त्री रुप में मनोज्ञ सुखों में पूर्व क्रोडादिकं के आयुष्य पने प्रवर्त हुवा । यही जीव मनुष्य के अन्दर कुरुपवान, दुर्भागी Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म ध्यान । (४७६) नीच कुल, दरिद्री भतार को स्त्री रुप में, अलक्ष रुप दुर्भागिणी पन और नट पने प्रवर्त हुवा । तोभी मनुष्य पने स्त्री पुरुष के अवतार पूरे नहीं हुवे । तिर्यंच पंचन्द्रिय जलचरादि के अन्दर स्त्री वेद से प्रवर्त हुवा । वो जीव सात नरक में, पांच एकेन्द्रिय में, तीन विकलन्द्रिय तथा असंज्ञी तिर्यच मनुष्य के अन्दर नियमा नपुसंक वेद से तथा संज्ञी तिर्यच मनुष्य के अन्दर भी जीव नपुसंक वेद से प्रवत हुवा परमार्थ लागठ स्त्री वेद से प्रवर्त हुवा। उत्कृष्ट ११० पल्य और पृथक पूर्व क्रोड़ तक स्त्री वेद में खेला जधन्य आयुष्य भोगने के आश्री अन्त मुहूर्त. पुरुष वेद में उत्कृष्ट पृथक् सो सागर जाजेरा तक खेला। जघन्य अायुष्य भोगने के आश्री अन्तमुहूत, नपुंसक वंद उत्कृष्ट अनन्त काल चक्र अंसख्यात इल परार्वतन तक खेला । जहां गया वहां अकेला पगल के संयोग से अनेक रुप परावर्तन किये । यह सब रुप व्यवहार नय से जानना। इस प्रकार के परिभ्रमण को मिटाने वाले श्री जैन धर्म के अन्दर शुद्ध श्रद्धा सहित शुद्ध उद्यम पराक्रम करे तब ही आत्मा का साधन होवे व इस समय आत्मा के सिद्ध पद की प्राप्ति होती है । इसमें निश्चय नय से एक ही आत्मा जानना चाहिये । जब शुद्ध व्यवहार में प्रवत हो कर अशुद्ध व्यवहार को दूर करे तब सिद्ध गति प्राप्त होती है । इस प्रकार की मेरी एक आत्मा है । अपर परिवार स्वार्थ Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४८०) थोकडा संग्रह। रुप है । और पाउगसा मीससा और वीससा पुद्गल ये पयेव करके जैसे स्वभाव में हैं वैसे स्वभाव में नहीं रहते हैं अतः अशाश्वत है। इस लिये अपनी आत्मा को अपने कार्य का साधक व शाश्वत जानकर अपनी आत्मा का साधन करे । २ श्रणाच्चाणुप्पहा-रुपी पुद्गल की अनेक प्रकार से यतन करने पर भी ये अनित्य हैं । नित्य केवल एक श्री जैन धर्म परम सुख दायक है । अपनी आत्मा को नित्य जान कर समकितादिक संवर द्वारा पुष्ट करे । यह - दूसरी अणुप्पेहा है। .. ३ असरणाणुप्पेहा-इस भव के अन्दर व पर लोक में जाते हुवे जीव को एक समाकेत पूर्वक जैन धर्म विना जन्म जरा मरण के दुःख दूर करने में अन्य कोई शरण समर्थ नहीं ऐसा जान कर श्री जैन धर्म का शरण लेना चाहिये जिससे परम सुख की प्राप्ति होवे यह तीसरी अणुप्पेहा है। ४ संसाराणुप्पेहा-स्वार्थ रुप संसार समुद्र के अन्दर जन्म जरा मरण संयोग वियोग शारीरिक मानसिक दुख, कषाय मिथ्यात्व, तृष्णारूप अनेक जल कल्लोलादिक की लहरों से चार गति चोवीश दण्डक के अन्दर परिभ्रमण करते हुवे जीव को श्री जैन धर्म रुप द्वीप का अाधार है और संयम रुप नाव को शुद्ध समकित रूप निर्जामक नाविक (नाव चलाने वाला) है ऐमी नावों के Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धम ध्यान। (४८१) द्वारा जीव-सिद्धि रुप महा नगर के अन्दर पहुंच जाता है। जहां अनन्त अतुल विमल सिद्ध के सुख प्राप्त करता है । यह धर्म ध्यान की चौथी अणुप्पेहा है । एवं धर्म ध्यान के गुण जान कर सदा धर्म ध्यान ध्यावें जिससे जीव को परम सुख की प्राप्ति होवे । ॥ इति धर्म ध्यान सम्पूर्ण । Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४८२) थोकडा संग्रह। छ लेश्या * (श्री उत्तराध्ययन सूत्र, ३४ वां अध्ययन ) छ लेश्या के ११ द्वार:-१ नाम २ वर्ण ३ रस ४ गंध ५ स्पर्श ६ परिणाम ७ लक्षण ८ स्थानक ह स्थिति १० गति ११ चवन । १ नाम द्वार-१ कृष्ण लेश्या २ नील लेश्या ३ कापोत लेश्या ४ तेजो लेश्या ५ पद्म लेश्या ६ शुक्ल लेश्या । २ वर्ण द्वार:-कृष्ण लश्या का वर्ण जल सहित मेघ समान काला, तथा भैस के सिंग समान काला, अरीठे के बीज समान, गाड़ी के खंजन (काजली) समान और आँख की कीकी समान काला । इनसे भी अनंत गुणा काला। नील लेश्या:-अशोक वृक्ष, चास पक्षी की पांख और वैडुर्य रत्न से भी अनंत गुणा नीला इस लेश्या का वर्ण होता है। कापोत लेश्या-अलशी के फूल, कोयल की पांख, कबूतर की गर्दन कुछ लाल कुछ काली आदि। इनसे भी अनंत गुणा अधिक कापोत लेश्या का वर्ण होता है । तेजो लेश्या-उगता हुवा सूर्य, तोते की चोंच, Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छ लेश्या । (४८३) www.ananmona दीपक की शिखा आदि इनसे अनंत गुणा अधिक इस लेश्या का लाल रंग होता है। पद्म लेश्या-हरताल, हलदर, सण के फूल आदि इनसे भी अनंत गुणा अधिक पीला इसका रंग होता है। शुक्ल लेश्या-शंख, अंक रत्न, मोगरे का फून गाय का दूध, चांदी का हार आदि इनसे भी अनन्त गुणा इस लेश्या का वर्ण श्वेत होता है। ३ रस द्वार:-कड़वा तुम्बा,नीम्ब का रस,रोहिणी नामक वनस्पति का रस आदि इनसे भी अनंत गुणा अधिक कड़वा रस कृष्ण लेश्या का होता है नील लेश्या का रस-झूठ के रस के समान, पीपला मूल आदि के रस से भी अनंत गुणा कड़वा रस इस नील लेश्या का होता है। कापोत लेश्या का रस-कच्चो केरी, कच्चा कोठा ( कबीट) आदि के रस से भी अनन्त गुणा खट्टा होता है। तेजो लेश्या का रस-पक्के आम, व पक्के कोठे के रस से अनन्त गुणा अधिक कुछ खट्टा व कुछ मीठा होता है। पद्म लेश्या का रस-शराब, सिरका व शहत आदि से भी अनन्त गुणा अधिक मधुर होता है। शुक्ल लेश्या का रस-खजूर, दाख (द्राक्ष ) दूध व शकर आदि से भी अनन्त गुणा अधिक मीठा होता है। Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४८४ ) थोक । संग्रह । ४ गंध द्वार - गाय, कुत्ता, सर्प आदि के मद्दे से भी अनन्त गुणी अधिक अप्रशस्त गन्ध प्रथम तीन लेश्या की होती है । कपूर, केवड़ा, प्रमुख घोटने के समय जैसी सुगन्ध निकलती है उस से भी अनन्त गुणी अधिक प्रशस्त सुगन्ध पिछली लेश्याओं की होती है । ५ स्पर्श द्वार - करवत की धार, गाय की जीभ, मुंझ ( ज ) का तथा वांस का पान, आदि से भी अनन्त गुणा तीक्षण प्रशस्त लेश्या का स्पर्श होता है बुर नामक वनस्पति, मक्खन, सरसव के फूल व मखमल से भी अनन्त गुणा अधिक कोमल प्रशस्त लेश्याओं का स्पर्श होता है । ६ परिणाम द्वार- लेश्या तीन प्रकारे प्रणमेंजघन्य, मध्यम, और उत्कृष्ट तथा नव प्रकारे परिणमे ऊपर के तीन प्रकार के पुनः एक एक के तीन भेद होते हैं जैसे जघन्य का जघन्य, जघन्य का मध्यम, और जघन्य का उत्कृष्ट एवं हरेक के तीन तीन करते नव भेद हुवे । ऐसे ही नव के सत्तावीश, सत्तावीरा के एकाशी और एकाशी के दो सो तालीश भेद होते हैं । इतने भेदों से लेश्या परिणमती है । ७ लक्षण द्वारः - कृष्ण लेश्या के लक्षण - पांच श्रव का सेवन करने वाला, अगुप्तिवन्त, छकाय जीव का हिंसक, आरम्भ का तीव्र परिणामी व द्वेषी, पाप करने में साह Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छ लेश्या। (४८५) सिक,निष्ठुर परिणामी, जीव हिंसा, सुग्या रहित करने वाला और अजितेन्द्री श्रादि लक्षण कृष्ण लेश्या के हैं। नील लेश्या के लक्षणः-ईविन्त, अमृषावन्त, तप रहित, मायावी पाप करने में शर्माय नहीं, गृधी, धूतारा, प्रमादी रस-लोलुपी, माया का गवेषी, प्रारंभ का अत्यागी, पाप के अन्दर साहसिक ये लक्षण नील लेश्या के हैं। कापोत लेश्या के लक्षणः-वक्र भाषी, वक्र कार्य करने वाला, माया करके प्रसन्न होवे, सरलता रहित, मुंह पर कुछ और पीठ पीछे कुछ, मिथ्या व मृषा भाषी, चोरी मत्सर का करने वाला,आदि । तेजो लेश्य के लक्षण:-मर्यादा वन्त, माया रहित, चालता रहित, कुतुहल रहित, विनय वन्त, जितेन्द्री, शुभ योग वंत, उपध्यान तप सहित, दृढ धर्मी, प्रिय धर्मी, पाप से डरने वाला आदि । पद्म लेश्या के लक्षण:-क्रोध मान माया लोभ को जिसने पतले ( कम ) किये हैं, प्रशांत चित्त, श्रात्म निग्रही, योग उपध्यान सहित, अल्प भाषी, उपशांत, जितेन्द्री । शुक्ल लेश्या के लक्षणः-आर्त ध्यान, रौद्र ध्यान, से सर्वथा रहित, धर्म ध्यानं, शुक्ल ध्यान सहित, दश प्रकार की चित्त समाधि सहित, आत्मनिग्रही, आदि । ८ लेश्या स्थानक द्वार:-असंख्यात उत्सर्पिणी अवसर्पिणी के जितने समय होते हैं तथा असंख्यात लोक के जितने आकाश प्रदेश होते हैं उतने लेश्या के स्थानक जानना। Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४८६) थोकडा संग्रह। : लेश्या की स्थिति द्वार:-कृष्ण लेश्या को स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त को उत्कृष्ट ३३ सागरोपम व अन्तर्मुहूर्त आधेक, नील लेश्या की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त की उत्कृष्ट दश सागरोपम और पल का असंख्यातवाँ भाग अधिक । कापोत लेश्या की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त को उत्कृष्ट तीन सागरोपम और पल का असंख्यातवाँ भाग अधिक । तेजो लेश्या की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त की उत्कृष्ट दो सागर और पल का असंख्यातवाँ भाग अधिक, पद्म लेश्या की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त की उत्कृष्ट दश सागरोपम और अन्तहित अधिक । शुक्ल लेश्या की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहते की, उत्कृष्ट ३३ सागरोपम और अन्तमुहूर्त अधिक । एवं समुच्चय लेश्या की स्थिति कही। अब चार गति की लेश्या की स्थितिः-नारकी की लेश्या की स्थिति-कापोत लेश्या की स्थिति जघन्य दश हजार वर्ष की उत्कृष्ट तीन सागरोपम और पल का असं. ख्यातवाँ भाग। नील लेश्या की स्थिति जघन्य तीन सागर और पल का असंख्यातवाँ भाग उत्कृष्ट दश सागर और पल का असंख्यातवाँ भाग कृष्ण लेश्या की स्थिति जघन्य दश सागर और पल का असंख्यातवाँ भाग उत्कृष्ट तेंतीश सागर और अन्तर्मुहूर्त अधिक । एवं नारकी की लेश्या हुई । मनुष्य तिर्यच की लेश्या की स्थिति:-प्रथम पांच लेश्या की स्थिति जघन्य उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त की। Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छ लश्या । (४८७) शुक्ल लेश्या की स्थिति (केवली आश्री) जघन्य अन्तमुहूर्त की उत्कृष्ट नव वर्ष न्यून क्रोड़ पूर्व की । देवता की लेश्या की स्थितिः-भवन पति और वाण व्यन्तर में कृष्ण लेश्या की स्थिति जघन्य दश हजार वर्ष की उत्कृष्ट पल का असंख्यातवां भाग नील लेश्या की स्थिति जघन्य कृष्ण लेश्या की उत्कृष्ट स्थिति से एक समय अधिक उत्कृष्ट पल का असंख्यातवां भाग । कापोत लेश्या की स्थिति जघन्य नील लेश्या की उत्कृष्ट स्थिति से एक समय अधिक उत्कृष्ट पल का असंख्यातवाँ भाग । तेजो लेश्या की स्थिति जघन्य दश हजार वर्ष की,मवनपति वाण व्यन्तर की उत्कृष्ट दो सागर और पल का असंख्यातवां भाग अधिक । वैमानिक देव की पद्म लेश्या की स्थिति जघन्य तेजो लेश्या की उत्कृष्ट स्थिति से एक समय अधिक । वैमानिक की उत्कृष्ट दश सागर और अन्तमुहूर्त अधिक। वैमानिक की शुक्ल लेश्या की स्थिति जघन्य पद्म लेश्या की उत्कृष्ट स्थिति से एक समय अधिक उत्कृष्ट तेंतीश सागर और अन्तर्मुहूर्त अधिक। १० लेश्या की गति द्वार-कृष्ण, नील, कापोत ये तीन अप्रशस्त व अधम लेश्या है जिनके द्वारा जीव दुर्गति को जाता है । तेजो, पद्म और शुक्ल इन तीन धर्म लेश्या के द्वारा जीव सुगति में जाता है। ११ खेश्या का चयन द्वार:-सर्व लश्या प्रथम Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४८) थोकडा संग्रह। परिणमते समय कोई जीव उपजता व चवता नहीं तथा लेश्या के अन्त समय में कोई जीव उपजता व चवता नहीं । परभव में कैसे चवे ? इसका वर्णन-लेश्या पर भव की आई हुई अन्तहितं गये बाद शेष अन्तर्मुहूर्त पायुष्य में बाकी रहने पर जीव परभव के अन्दर जावे । ॥ इति श्री लेश्या का थोकड़ा सम्पूर्ण ॥ Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४८६ ) * योनि पद - ( सूत्र श्री पन्नवणाजी पद नववां ) योनि तीन प्रकार की-शीत योनि, उष्ण योनि शीतोष्ण योनि । विस्तार--पहेली नरक से तीसरी नरक तक शीत योनिया, चौथी नरक में शीत योनिया विशेष और उष्ण योनीया कम । पांचवीं नरक में उष्ण योनीया विशेष और शीत योनीया कम । छठी नरक में उष्ण योनीया । सातवीं नरक में महा उष्ण योनीया, अग्नि छोड़ कर चार स्थावर, तीन विकलेन्द्रिय, समुच्चय तिर्यंच और मनुष्य में तीन योनी मिले तेउ काय में एक उष्ण योनीया संज्ञो तिर्यच संज्ञो मनुष्य और देवता में एक शीतोष्ण योनीया। ___ इनका अल्प बहुत्व-पर्व से कम शीतोष्ण योनीया उन से उष्ण योनीया असंख्यात गुणा उन से अयोनीया सिद्ध भगवन्त अनन्त गुणा उन से शोत योनीया अनन्न गुणा । योनी तीन प्रकार की होती है सचेत्त, अचेत्त, मिश्र नारकी और देवता में योनी एक अचेत । पांच स्थावर, तीन विकलेन्द्रिय समुच्चय तिर्यच और समुच्चय मनुष्य में योनी तीन ही मिलती है संज्ञी तियच और संज्ञी मनुष्य में योनी एक मिश्र। इनका अल्प Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुत्वः--सर्व से कम मिश्र योनीया--उससे अचेत योनीया असंख्यात गुणा और उस से सचित्त योनीया अनन्त गुणा । योनी तीन प्रकार की--संवुड़ा वियड़ा और संवुड़ावियड़ा संखुड़ा अर्थात् ढंकी हुई वियड़ा याने खुली ( उघाड़ी) हुई और संवुड़ा वियड़ा याने कुछ ढं की हुई और कुछ खुली हुई पांच स्थावर देवता और नारकी की योनी एक संवुड़ा, तीन विकलेन्द्रिय, समुच्चय तिथंच और मनुष्य में तीनों ही योनी पावे । संज्ञी तिर्थव और संज्ञी मनुष्य में योनी एक संवुडावियड़ा । इनका अल्प बहुत्व सर्वे से कम संवुड़ा वियड़ा उनसे वियड़ा योनीया असंख्यात गुणा । उनसे अयोनीया अनन्त गुणा । उनसे संवुड़ा योनीया अनन्त गुणा । योनी तीन प्रकार की है-संखा अयोत शंख के आकार समान । कच्छा याने कछुो के आकार समान और वंश पत्ता कहेता वांस के पत्र के समान । चक्रवर्ती की स्त्री रत्न की योनी शंख पत्। ऐसी योनी वाली स्त्री के संतान नहीं होती है ५४ सलाखा पुरुा की माता की योनी काचवे ( कछुवा ) के आकार समान होवे और सर्व मनुष्यों की माता की योनी वांस के पत्र के आकार समान होती है। * इति श्री योनी पद सम्पूर्ण Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठ आत्मा का विचार | wwwww ॐ * आठ आत्मा का विचार ( ४६१ ) शिष्य पूछता है कि हे भगवन् ! संग्रह नय के मत से आत्मा एक ही स्वरुपी कहने में आया है जब कि अन्य मत से आत्मा के भिन्न २ प्रकार कहे जाते हैं । क्या आत्मा के अलग २ भेद हैं ? यदि होवे तो कितने १ गुरु- हे शिष्य ! भगवतीजी का अभिप्राय देखते आत्मा तो आत्मा ही है, वह आत्मा स्वशक्ति के कारण एक ही रीति से एक ही स्वरुपी है समान प्रदेशी और समान गुणी है अतः निश्चय से एक ही भेद कहने में आता है परन्तु व्यवहार नय के मत से कितने कारणों से आत्मा आठ मानी जाती है । जैसे- १ द्रव्य आत्मा २ कषाय श्रात्मा ३ योग आत्मा ४ उपयोग श्रात्मा ५ ज्ञान आत्मा ६ दर्शन आत्मा ७ चारित्र आत्मा ८ वीर्य आत्मा । एवं आठ गुणों के कारण से आत्मा आठ कहलाती हैं और एक दूसरी के साथ मिल जाने से इस के अनेक विकल्प भेद होते हैं जैसा कि आगे के यन्त्र में बताया गया है । Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४६२) द्रव्य अात्मा में कषाय आ. योग प्रा० उपयोग प्रा० ज्ञान प्रा० दर्शन श्रा० चारित्र श्रा. वीर्य श्रा० कषाय आत्मा द्रव्य प्रा० द्रव्य प्रा० द्रव्य प्रा० द्रव्य प्रा० द्रव्य प्रा० द्रव्य प्रा. द्रव्य श्रा० का भजना की नियमा की नियमा की निपमा की नियमा को नियमा की नियमा की नियमा योग प्रारमा योग श्रा० कषाय श्रा० कषाय प्रा० कषाय प्रा० कषाय प्रा. कषाय प्रा० कषाय प्रा० की भजना की नीयमा की भजना की भजना की भजना की भजना की भजना की भजना उपयोग प्रारमा उपयोग श्रा० उपयोगं श्रा० योग प्रा० योग प्रा० योग प्रा० योग प्रा० योग प्रा० की नीयमा की नीयता की नीयमा की भजना की भजना की भजना की भजना की भजना ज्ञान प्रा० ज्ञान आ. ज्ञान प्रा. ज्ञान प्रा० उपयोग श्रा० उपयोग पा उपयोग प्रा० उपयोग प्रा० की भजना की भजना की भजना की भजना की नीयमा की नीयमा की नीयमा की नीयमा दर्शन श्रात्मा दर्शन प्रा. दर्शन प्रा. दर्शन श्रा० दर्शन प्रा० ज्ञान प्रा० ज्ञान प्रा० ज्ञान प्रा. की भजना की नीयमा की नीयमा की नीयमा की नीयमा को भजना की नीयमा की भजना चारित्र आत्मा चारित्र अ.. चारित्र प्रा. चारित्र प्रा० चारित्र श्रा. चारित्र प्रा. दर्शन प्रा० दर्शन प्रा. की भजना की भजना की भजना की भजना की भजना का भजना की नीयमा की नीयमा वीर्य प्रा. वीर्य प्रा. वीय आ. वीर्य प्रा. वीर्य श्रा० वीर्य प्रा० वीर्य प्रा० चरित्र ग्रा० की भजना की नीयमा की नीयमा की भजना की भजना की भजना की नीयमा की भजना भजना अर्थात होवे अथवा नहीं होवे । नीयमा का अये निश्चय होवे । थोकडा संग्रह। Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठ आत्मा का विवार । ( ४६३ ) इनका अल्प बहुत्व:- सर्व से कम चारित्र आत्मा उनसे ज्ञान आत्मा अनन्त गुणी । उनसे कषाय आत्मा अनन्त गुणी, उनसे योग आत्मा विशेषाधिक उनसे वीर्य आत्मा विशेषाधिक उनसे द्रव्य आत्मा तथा उपयोग अम तथा दर्शन आत्मा परस्पर तुल्य और ( वी. आ. से ) विशेषाधिक। यह सामान्य विचार हुवा । अब आठ आत्मा का विशेष विचार कहा जाता है www शिष्य- कृपालु गुरू ! श्रात्म द्रव्य एक ही शक्ति वाला तथा असंख्यात प्रदेशी सत् चिद् और आनन्दघन कहने में आता है । इसका निश्चय नय से क्या अभिप्राय हैं ? व्यवहार नय के मत से किस कारण से आत्मा आठ कही जाती है ? और वे श्रात्मा किन २ संयोग के साथ मिल कर गतागति करती है ? ये सर्व कृपा करके कहो । गुरु- हे शिष्य ! कारण केवल यही है कि शुद्ध आत्म द्रव्य में पांच ज्ञान, दो दर्शन तथा पांच चारित्र का समावेश होता है । ये सर्व आत्म शुद्धि के कारण अर्थात् साधन है । इनके अन्दर आत्मबल और आत्म वीर्य लगाने से कर्म मुक्त होती हैं जब कि सामने पक्ष में अर्थात् इसके विरूद्ध शुद्ध श्रात्म द्रव्य में पच्चीश कषाय, पन्द्रह योग, तीन अज्ञान और दो दर्शन का समावेश होता है । ये सर्व श्रात्मशुद्धि के कारण तथा साधन है । इनमें चल या वीर्य लगाने पर चार गतियों में परिभ्रमण करना पड़ता है । ऐसा होने पर प्रत्येक आत्मा भिन्न २ संयोगों के साथ मिलती है । जैसा कि इस यन्त्र में बताया गया है: Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव के चौदह भेद में से समुच्चय १४ भेद पावे १४ पावे १४ पावे १४ पावे ३ विकलेन्द्रिय संज्ञी अपर्याप्ता और संज्ञी के दो एवं ६ १४ पावे ६ दर्शन आत्मा में ७ चारित्र आत्मा में १ संज्ञी का पर्याप्त पावे प्रथम पांच छोड़ वीर्य आत्मामें शेष नव पावे १४ पावे १४ पावे १५ पावे * इति आठ आत्मा का विचार सम्पूर्ण श्राठ श्रात्मा श्रा का दूसरा यन्त्र १ द्रव्य आत्मा में २ कषाय आत्मा में ३ योग आत्मा में ४ उप० श्रात्मा में ज्ञान आत्मा में चौदह गुण स्थानक में से समुच्चय १४ गुण स्थानक पावे प्रथम १० गुण स्थान पहले से तेरह गुण स्थानक तक पावे १४ गुण स्थानक पहेला और तीसरा छोड़ कर शेष १२ गुण पावे १४ पावे पंद्रह योग में से समुच्चय १५ योग पावे १५ पावे १५ पावे १५ पावे १५ पावे १५ प. वे १५ पावे बारह उपयोग में से समुच्चय १२ उपयोग पावे केवल ज्ञान व केवल दर्शन छोड़, शेष १२ पावे १० पावे १२ उपयोग पावे तीन अज्ञान छोड़ नव उपयोग पावे १२ उपयोग पावे ३ अज्ञान छोड़ शेष नव उपयोग १२ उपयोग पावे छे लेश्याओं में से समुच्चय ६ लेश्या ६ लेश्या ६ लेश्या ६ लेश्या ६ लेश्या ६ लेश्या ६ लेश्या ६ लेश्या ( ४६४ ) थोकडा संग्रह | Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ { ४६५) * व्यवहार समकित के ६७ बोल. इस पर बारह द्वारः- (१) सद्दहणा ४ (२) लिङ्ग ३ (३) विनय १० (४) शुद्धता ३ (५) लक्षण ५ (६) भूषण ५ (७) दूषण ५ (८) प्रभावना ८ (6) प्रागार ६ (१०) जयना ६ (११) स्थानक ६ (१२) भावना ६ । (१) सद्दहणा के चार भेदः-१ परतिर्थी से अ. धिक परिचय न करे (२) अधर्म पाखण्डियों की प्रशंसा न करे (३) अपने मत के पासत्था उसन्ना व कुलिङ्गी प्रा. दि की संगति न करे इन तीनों का परिचय करने से शुद्ध तत्व की प्राप्ति नहीं हो सक्ति (४) परमार्थ के ज्ञाता संवीग्न गीतार्थ की उपासना करके शुद्ध श्रद्धान धारण करे । (२) लिङ्ग के तीन भेदः-(१) जैसे युवा पुरुष रंग राग ऊपर राचे वैसे ही भव्यात्मा श्री जैन शासन पर राचे (२) जैसे क्षुधावान पुरुष खीर खाएड के भोजन का प्रेम सहित आदर करे वैसे ही वीतराग की वाणी का आदर करे (२) जैसे व्यवहारिक ज्ञान सिखने की तीत्र इच्छा होवे, और शिक्षक का योग मिलने पर सिख कर इस लोक में सुखी होवे वैसे ही वीतराग कथित सूत्रों का नित्य सूक्ष्मार्थ न्याय वाले ज्ञान को सिख कर इहलोक और परलोक में मनोवाञ्छित सुख की प्राप्ति करे। (३) विनय के दश भेदः (१) अरिहंत का विनय . . Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४६६) थोकडा संग्रह। करे (२) सिद्ध का विनय करे (३) प्राचार्य का विनय करे (४) उपाध्याय का विनय करे (३) स्थविर का विनय करे (६) गण ( बहुत आचार्यों का समूह) का विनय करे (७) कुल (बहुत आचायों के शिष्यों का समूह ) का विनय करे (८) स्वधर्मी का विनय करे (8) संघ का विनय करे (१०) संभोगी का विनय कर एवं दरा का बहु मान पूर्वक विनय करे जैन शासन में विनय मूल धर्म कहते हैं । विनय करने से अनेक सद्गुणों की प्राप्ति होती है। (४) शुद्धता के तीन भेदः-(१) मन शुद्धता मन से अरिहंत-देव-कि जो ३४ अतिशय, ३५ वाणी, ८ महा प्रति हार्य सहित, १८ दुषण रहित १२ गुण सहित हैं वे ही अमर देव व सच्चे देव हैं। इनके सिवाय हजारों कष्ट पड़े तो भी सरागी देवों को मनमे स्मरण नहीं करे (२) वचन:शुद्धता-वचन से गुण कीर्तन ऐसे अरिहंत देव के करे व इनके सिवाय सरागी देवों का नहीं करे । (३) काया शुद्धता-कीया से अरिहंत सिवाय अन्य सरांगी देवों को नमस्कार नहीं करे। ५ लक्षण के पांच भेद:-१) सम, शत्रू मित्र पर समभाव रक्खे (२) संवेग-वैराग्य भाव रक्खे और संसार असार है, विषय व कषाय से अनन्त काल पर्यन्त भव भ्रमण होता है, इस भव में अच्छी सामग्री मिली है अतः धम का पाराधन करना चाहिये, इत्यादि नित्य चिंतन Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार समाकत के ६७ बाल | करे (३) निर्वेग- शरीर अथवा संसार की अनित्यता पर चिंतन करे, और बने वहां तक इस मोह मय जगत से अलग रहे अथवा जग तारक जिनराज की दिक्षा लेकर कम शत्रुओं को जीते व सिद्ध पद को प्राप्त करने की हमेशा भालापा ( भावना ) रक्खे, (४) अनुकम्पा - अपनी तथा पर की आत्मा की अनुकम्पा कर अथवा दुखी जीवों पर दया लांव (५) आस्था (ता ) - त्रिलोक पूज्यनीक श्रीवीतराग देव के वचनों पर दृढ श्रद्धा रक्वे हिताहित का विचार करे अथवा अस्तित्व भाव में रमण करे ये ही व्यवहार समकित के लक्षण हैं । अतः जिस विषय में अपूर्णता होवे उसे पूरी करे । (६) भूषण पांच:- (१) जैन शासन में धैर्यवन्त हो कर शासन का प्रत्येक कार्य धैर्यता से करे (२) जैन शासन का भक्तिवान् होवे ( 3 ) शासन में क्रियावान् होवे (४) शासन મેં चतुर होवे । शासन के प्रत्येक कार्य को ऐसी चतुराई (बुद्धि) से करे कि जिससे वह कार्य निर्विघ्नता समाप्त हो जावे ( ५ ) शासन में चतुर्विध संघ की भक्ति तथा बहु सत्कार करने वाला होवे । इन पांच भूषणों से शासन की शोभा होती है । से (७) दूषण पांच:- (१) शङ्का जिन वचन में शङ्का करे (२) कंखा - अन्य मतों का आडम्बर देख कर उनकी वाञ्छा करे (३) विति गिच्छा-धर्म की करणी के फल में ( ४६७ ) Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४६८ ) थोकडा संग्रह | सन्देह करे इसका फल होवेगा या नहीं ? वर्तमान में तो कुछ फल नजर नहीं आता आदि इस प्रकार का सन्देह करे (४) पर पाखण्डी से नित्य परिचय रक्खे ( ५ ) पर - पाखडियों की प्रशंसा करे । एवं समकित के पांच दूषणों को अवश्य दूर करना चाहिये | (८) प्रभावना = (१) जिस काल में जितने सूत्र होते हैं उन्हें गुरु गम से जाने यह शासन का प्रभावक बनता है (२) बड़े आडम्बर से धर्म कथा व्याख्यान आदि के द्वारा शासन के ज्ञान की प्रभावना करे (३) महान विकट तपश्चर्या करके शासन की प्रभावना करे (४) तीन काल अथवा तीन मत का ज्ञाता होवे (५) तर्क, वितर्क, हेतु, वाद, युक्ति, न्याय तथा विद्यादि बल से वादियों को शास्त्रार्थ में पराजय करके शासन की प्रभावना करे (६) पुरुषार्थी पुरुष दीक्षा लेकर शासन की प्रभावना करे (७) कविता करने की शक्ति होवे तो कविता करके शासन की प्रभावना करे (८) बह्मचर्य आदि कोई बड़ा व्रत लेना होवे तो बहुत से मनुष्यों की सभा में लेवे कारण कि इससे लोकों को शासन पर श्रद्धा अथवा व्रतादि लेने की रुचि बढ़े | अथवा दुर्बल स्वधर्मी भाइयों को सहायता करे। यह भी एक प्रकार की प्रभावना है परन्तु आजकल चौमासे में अभय वस्तु की अथवा लड्डु आदि की प्रभावना करते हैं । दर्घि दृष्टि से विचार करने योग्य है कि इस प्रभावना से क्या Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार समकित के ६७ बोल । ( ४६६ ) शासन की प्रभावना होती है ? अथवा इससे कितना लाभ ? इसका बुद्धिवान स्वयं विचार कर सकते । यदि प्रभावना से हमारा सच्चा अनुराग व प्रेम होवे तो छोटी २ तत्र ज्ञान की पुस्तकों को बांट कर प्रभावना करे कि जिससे अपने भाइयों को आत्म ज्ञान की प्राप्ति होवे | (६) आगार ६ - ( १ ) राजा का आगार (२) देवता का श्रगार. (३) जाति का आगार ( ४ ) माता पिता व गुरु का यागार ( ५ ) बलात्कार ( जबर्दस्ती ) का आगार (६) दुष्काल में सुख पूर्वक आजीविका नहीं चले तो इसका श्रागार | इन छे प्रकारों के आगार से कोई अनुचित कार्य करना पड़े तो समकित दूषित नहीं होता । (१०) जयना के ६ भेद: - ( १ ) आलाप - स्वधर्मी भाइयों के साथ एक वार बोले (२) संलाप - स्वधर्मी भाइयों के साथ वारंवार बोले ( ३ ) मुनि को दान देवे अथवा स्वधर्मी भाइयों की वात्सल्यता करे । ( ४ ) एवं वारंवार प्रतिदिन करे ( ५ ) गुणी जनों का गुण प्रगट करे ( ६ ) तथा वंदना नमस्कार बहु मान करे । (११) स्थानक के ६ प्रकार : - (१) धर्म रुपी नगर तथा समकित रुपी दरवाजा (२) धर्म रुपी वृक्ष तथा समकित रुपी धड़ (३) धर्म रुपी प्रासाद ( महल ) तथा समकित रुपी नींव (बुनियाद ) (४) धर्म रुपी भोजन तथा सम Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५०० ) थोकडा संग्रह। कित रुपी थाल (५) धर्म रुपी माल तथा समकित रुपी दुकान (६)धर्म रुपी रन तथा समकित रुसी मंजूषा संदुक या तिजोरी। १२ भावना के ६ भेद:-(१) जीव चैतन्य लक्षण युक्त असंख्यात प्रदेशी निष्कलङ्कप्रमूर्ति है । (२) अनादि काल से जीव और कमाँ का संयोग है जैसे-दूध में घी, तिल में तेल, धूल में धातु, फूल में सुगन्ध, चन्द्र की कान्ति में अमृत आदि के समान अनादि संयोग है ।(३) जीव सुख दुख का कर्ता और भोक्ता है, निश्चय नय से कर्म का कर्ता कम है परन्तु व्यवहार नय से जीवं है । (४) जीव, द्रव्य, गुण पर्याय, प्राण और गुण स्थानक सहित है ( ५ ) भव्य जीवों को मोक्ष होता है (६) ज्ञान दर्शन और चारित्र ये मोक्ष के साधन हैं । एवं ६ भेद । इस थोकड़े को मुंह जबानी ( कंठस्थ ) करके सोचो कि इन ६७ बोलो में से ( व्यवहार समकित के) मेरे अन्दर कितने बोल हैं। फिर जितने बोल कम होये उन्हें पूरे करने का प्रयत्न करे तथा पुरुषार्थ द्वारा उन्हें प्राप्त करे। ॥ इति व्यवहार समकित के ६७ बोल सम्पूर्ण ।। Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काय-स्थिति। (५०१) * काय-स्थिति * समजन (स्पष्टी करण):-स्थिति दो प्रकार की १ भव स्थिति २ काय स्थिति,एक भव में जितने समय तक रहे वो भव स्थिति जैसे-पृथ्वी काय की स्थिति जघन्य अन्तमुहूर्त उत्कृष्ट २२ हजार वर्ष की । काय स्थिति-पृथ्वी काय प्रादि एकही काय के जीव उसी काया में बारंबार जन्म मरण करते रहें और अन्य काय, अप, तेउ, वायु आदि में नहीं उपजे वहां तक की स्थिति-वो काय स्थिति। ___ पुढवी काल-द्रव्य से असं० उत्स० अवस० काल, क्षेत्र से असं० लोक, काल से असंख्यात काल, भाव से अंगुल के असं० भाग के आकाश प्रदेश जितने लोक । ___असंख्यात काल-द्रव्य, क्षेत्र, काल से ऊपर वत् भाव से प्रावलिका के असंख्यातवें भाग के समय जितने लोक। __ अर्ध पुद्गल परावर्तन काला द्रव्य से अनन्त उत्स० अवस० क्षेत्र से अनन्ता लोक, काल से अनन्त काल और भाव से अर्ध पुद्गल परावर्त्तन । वनस्पति काल-द्रव्य से अनन्त उत्स० अवस०, क्षेत्र से अनन्त लोक, काल से अनन्त काल और भाव से असं० पुद्गल परावत्तेन । अ० सा०प्रनादि सांत, सा० सा०-सादि सांत । Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५०२ ) ७ मनुष्य की ८ मनुष्यनी की गाथा जीव गइन्दिय काए जीएं वेद कसाय लेसाय । सम्मत्त गाए दंसण संयम उवयोग श्राहारे ॥ १ ॥ भासगयं परित पज्जत्त सुहम सन्नी भवत्थि । चरिमेय एतेसित पदाणं कायठिई दोइ पायव्वा ॥ २ ॥ मार्गणा जघन्य काय स्थिति उत्कृष्ट काय स्थिति १ समुच्चय जीवकी शाश्वता २ नारकी की ३ देवता की क्रम शाश्वता १० हजार वर्ष ३३ सागरोपम 99 19 ४ देवी की ५ तिर्यच की ६ तिर्यचणी की १२ १३ १४ " " " ६ सिद्ध भगवान् की शाश्वता १० अपर्याप्ता नारकी की अन्तर्मुहूर्त " देवता की 99 ११ देवी की तिर्यच की तिर्यचनी की 11 ५५ पलकी अन्तर्मुहूर्त अनन्त काल (वन) ३पल्य और प्र० क्रोड़ पूर्व 19 " 19 "" 99 "" " 99 शाश्वता " थोकडा संग्रह | अन्तर्मुहूर्त "" " wwwww 36 " Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कायस्थात | १५ १६ १७ पर्याप्ता नारकी 99 " १८ " देवता १६ देवी २० " तिर्यच " तिर्यचनी २१ " 97 २२ मनुष्य २३ मनुष्यनी २४ सइन्द्रिय २५ एकेन्द्रिय २६ बेइन्द्रिय २७ तेइन्द्रिय मनुष्य की मनुष्यनी की 17 २८ चउइन्द्रिय २६ पंचेन्द्रिय ३० श्रनिन्द्रिय ३१ सकायी ३२ पृथ्वी काय ३३ अप ३४ तेउ "" 11 "" "" 19 १० हजार वर्ष में अंतर्मुहूर्त न्यून अन्तर्मुहूर्त 19 " " " " 17 ܐܐ 99 ܕܐ ३३ सागर में अन्त मुहूर्त न्यून स्थिति में "" भव ५५ पल्य में ३ पल्प में 19 ܕܕ 17 अनादि अनंत अना.सां अंतर्मुहू अनंत काल ( वन ) संख्यात वर्ष ?? 19 ( ५०३ ) ** 19 " ܐܐ ܕ 19 १००० सागर साधिक सादि अनंत ०अनं०, ० सांत अन्तर्मुहूर्त असंख्यात काल 17 " 17 Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५०४) थोकडा संग्रह। LyrA monium अनन्त का । ५१ सकाय , " ३५ वाउ काय अन्तर्मुहूर्त असंख्यात काल ३६ वनस्पति काय अनन्त काल (बन०) ३७ त्रस काय २००० सागर और सं० वर्ष ३८ अकाय सादि अनन्त सादि अनन्त ३६ से ४५,३१७३७ अन्तर्मुहूर्त अन्तर्मुहूर्त का अपर्याप्ता ४६ से ५० ३२ से ३६ का पर्याप्ता संख्यात वर्ष प्रत्येक सो सागर ५२ त्रस काय पर्याप्ता , ५३ समुच्चय बादर असं०काल असं०जि तने लोकाकाश प्रदेश ५४ बादर वनस्पति ५५ समुच्चय निगोद अनन्त काल ५६ बादर त्रस काय , २००० सागर जाजेरी ५७ से ६२ बादर पृ. अ.,ते.,वा.,प्र.व.,बा. निगोद. , ७० कोड़ा कोड़ सामर ६३ से ६६ समुच्चय सूक्ष्म पृ०,०, ते०, वा०, वन०, निगोद " असंख्यात काल Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काय स्थिति। hce त ७० से ८६ नं. ५३ से ६६ के अपर्याप्ता अंतर्मुहूर्त अन्तर्मुहूर्त ८७ से ६३ समुच्चय सूक्ष्म पृ०,१०,ते,०वा०,५०, निगोद का पर्याप्ता , ६४ से ६७ बादर पृ०, १०, वा०, और प्र. बा. वन. का पयोप्ता सं हजार वर्ष ६८ बादर तेउ का पर्याप्ता, सं. अहोरात्रि ६६ समुच्चय बादर , , प्र. सो सागर साधिक अंत. मु. १०० सम्मुच्य निगोद ., , अन्त मुहूर्त २०१ बादर १०२ संयोगी . अ. अनं, अ. सांत १०३ मन योगी १ समय अन्तर्मुहूते १०४ वचन योगी १०५ काय , अन्तमहते अनन्त काल (वन०) १०६ अयोगी सादि अनन्त. १०७ सवेदी . अ.अ.,अ.सा.सा.सां., १०८ स्त्री वेद १ समय ११० पल्य० प्र. क्रोड़ पूर्व अधिक १०६ पुरुष वेद अन्तपुहूर्त प्रत्यक सो सागर uona! Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५०६) थोकडा संग्रह ११० नपुंसक वेद १ समय अनन्त काल (वन) १११ अवेदी सादि अनन्त सा. सा., ज. १ स. उ. अं.म. ..." ११२ सकषायी सादि अ. अ.,अ. ___सांत सां.सादि सांत देश न्यून अर्ध पुद्गल ११३ क्रोध कषायी अन्तर्मुहूर्त अन्तर्मुहूते ११४ मान , . " ११५ माया " " ११६ लोभ , १ समय ११७ अकषायी सा.अ., सा. सां, ज. १ समय, उ,अं. ११८ सलशी अ, अ, अ. सां. ११६ कृष्ण लेशी १३ सागर अं... १२० नील , , १० ,, पल्य असं भाग अधिक १२१ कपोत " " ३ " " १२२ तेजो " " २ " " १२३ पद्म , १० ,, अं.मु. अधिक १२४ शुक्ल , , १२५ अलेशी . सादे अनन्त १२६ समकित दृष्टि , सा. अं, सा. स. ६६ सा. सा १२७ मिथ्या , अ.अ.,अ.सां, अनन्त काल na Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काय-स्थिति। (५०७) www.nonwww १२८ मिथ्या दृष्टि अं. मु. सा. सां, (अध. पु.) सादि सांत १२६ मिश्र दृष्टि अं. मु. १३० क्षायक समकित . सादि अनन्त १३१ क्षयोपशम , अं.पु. ६६ सागर अधिक १३२ सास्वादान, १ समय ६ श्रावलिका १३३ उपशम , , अन्तर्मुहूर्त १३४ वेदक , " .. १३५ सनाणी अन्तमहत सा. अ., सा. सा० ६६ सागर १३६ मति ज्ञानी , ६६ सागर अधिक १३७ श्रुत , १३८ अवधि, १ समय । १३६ मनःपर्यव , देश न्यून क्रोड़ पूर्व १४० केवल , . सादि अनन्त १४१ अज्ञानी । अ०अ० अ०सां, ( सा० सांत १४२ मति अ. सा०सां०की मु० उ० अर्धे पु० १४३ श्रुत, ज० अं० १४४ विभंग ज्ञानी १ समय ३३ सागर अधिक १४५ चनु दर्शनी अन्तर्मुहू ते प्रत्येक हजार सागर १४६ अचक्षु, ० अ० अ, अ. सां० १४७ अवधि, १ समय १३२ सागर साधिक Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५०८ ) १४८ केवल १४६ संयती १५० असंयती ** 19 " १६५ १६६ सिद्ध "" "" १५१ सादि सांत १५२ संयता संयत १५३ नोसंयत नोअसंयत ० १५४ सामायिक चारित्र १ समय १५५ छेदोपस्थानीय अन्तर्मुहूर्त १५६ परिहार विशुद्ध,,, १८ माह 17 १५७ सूक्ष्म संपराय,, १ समय १५८ यथाख्यात १५६ साकार उपयोग १६० अनाकार 39 १६१ आहारक छद्मस्थ २ समय न्यून १६२ केवली अन्तर्मुहूर्त १६३ अनाहारी छद्मस्थ १ समय 19 १६४ केवलीसयोगी ३ 19 ܕܕ 99 १ समय १६७ भाषक १६८ श्रभाषक सिद्ध १६६" संसारी अं० मु० 99 सादि अनन्त देश न्यून क्रोड़ पूर्व अ. अ, आंस, सा.सां. थोकडा संग्रह | अनन्त काल (अर्थ पु.) देशन्यून क्रोड़ पूर्व सादि अनंत देशन्यून कोड़ पूर्व " 99 अन्तर्मुहूर्त देशन्यून क्रोड़ पूर्व अन्तर्मुहूर्त अन्तर्मुहूर्त 99 असंख्यातो काल देशन्यून क्रोड़ पूर्व २ समय ३ 99 " अयोगी ५ हुख अक्षर उच्चारण काल १ समय सादि अनन्त अन्तर्मुहूर्त सादि अनन्त अन्तर्मुहूर्त अनन्त काल Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काय-स्थिति। ( ५०६) vvvvvvvvvive १७० काय परत अन्तर्मुहूर्त असं०काल(पुढ.का.) १७१ संसार परत , अर्ध पु. १७२ काय अपरत ,, अन०काल(वन.काल) १७३ संसार , ० अ० अ०, अ० सां १७४ नो परतापरत . सादि अनन्त १७५ पर्याप्ता अन्त मुहूर्त प्रत्येक सोसा अधिक १७६ अपर्याप्ता , अन्तमुहूर्त १७७ नो पर्याप्तापर्याप्ता . सादि अनन्त १७८ सूक्ष्म अन्तर्मुहूर्त असं०काल (पुढ०) १७६ बादर ,, (लोकाकाश) १८० नो सूक्ष्म बादर . सादि अनन्त १८१ संज्ञी अन्तर्मुहूर्त प्र०सो सागर साधिक १८२ असंज्ञी , अनन्त काल (वन०) १८३ नो संज्ञी-असंज्ञी . सादि अनन्त १८४ भव सिद्धिया . अनादि सांत १८५ अभव सिद्धिया . , अनन्त १८६ नो भव सिद्धिया प्रभव.सि० सादि " १८७ से १९१ पांच अस्ति ___ काय स्थित ० अनादि अनंत १६२ चौ. ० , सांत १६३ अचर्म ० अ० अ०, सा० अ० ॥ इति काय स्थिति सम्पूर्ण । Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५१०) थोकडा संग्रह । योगों का अल्प बहुत्व ( श्री भगवती सूत्र शतक २५ उद्देश १ ला में) जीव के आत्म प्रदेशो में अध्यवसाय उत्पन्न होते हैं । अध्यवसाय से जीव शुभाशुभ कर्म (पुद्गल ) के ग्रहण करता है यह परिणाम हैं और यह सूक्ष्म हैं। परिणामों की प्रेरणा से लेश्या होती है । और लेश्या की प्रेरणा से मन, वचन, काय का योग होता है । योग दो प्रकार का १ जघन्य योगः-१४ जीवों के भेद में सामान्य याग संचार २ उत्कृष्ट योग, (तारतम्यता) अनुसार उनका अल्प बहुत्व नीचे अनुसार(१) सर्व से कम सूक्ष्म एकेन्द्रिय का अपर्याप्ता का ___ जघन्य योग उन से (२) बादर ऐकेन्द्रिय का अपर्याप्ता का जल्योग असं०गुणा, (३) बे इन्द्रिय (४) त इन्द्रिय " " " (५) चौरिन्द्रिय (६) असंज्ञी पंचेन्द्रिय का , ( ७ ) संज्ञी , " (८) सूक्ष्म एकेन्द्रिय का पर्याप्ता का (8) चादर " " (१०) सूक्ष्म , अपर्याप्ता का उ० योग maa Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगों का अल्पबहुत्व (११) बादर (१२) सूक्ष्म 19 (१३) बादर (१४) वे इन्द्रिय का (१५) ते इन्द्रिय 19 " " पर्याप्ता का ܕܕ " 35 " (१६) चौरिन्द्रिय का (१७) संज्ञी पंचेन्द्रिय का,, (१८) संज्ञी دو " 99 (१६) बेइन्द्रिय का अपर्याप्ता का उ० ( २० ) ते इन्द्रिय (२१) चौरिन्द्रिय का (२२) संज्ञी पंचेन्द्रिय का,, " 99 " (२३) संज्ञी (२४) वे इन्द्रिय का पर्याप्ता का 79 (२५) ते इन्द्रिय (२६) चोरिन्द्रिय का 99 ( ७ ) असंज्ञी पंचेन्द्रिय का,, ( २८ ) संज्ञी " " 19 99 ज० उ० योग " 99 ܙܕ ܕܪ ** उ० योग 91 49 " " 19 99 99 11 $9 ॥ इति योगों का अल्प बहुत्व || ( ५११ ) 19 " ,, " 79 16 46 ܕ " 19 15 ܕ " "" ,, ** " ," " ," 19 " " , 99 59 " , 19 ११ " " 19 99 Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ या पुद्गलों का अल्प बहुत (श्री भगवती जी सूत्र शतक २५ उद्देशा चौथा ) पुद्गल परमाणु, संख्यात प्रदेशी, असंख्यात प्रदेशी और अनन्त प्रदेशी स्कन्धों का द्रव्य, प्रदेश और द्रव्य प्रदेशों का अल्प बहुत्वः (१) सर्व से कम अनंत प्रदेशी स्कंध का द्रव्य, उनसे (२) परमाणु पुद्गल का द्रव्य अनंत गुणा " (३) संख्यात प्रदेशी का " संख्यात " " (४) असंख्यात" " असंख्यात" प्रदेशापेक्षा अल्प बहुत्व भी ऊपर के द्रव्यवत् । द्रव्य और प्रदेश दोनों का एक साथ अल्प बहुत्व:(१) सर्व से कम अनन्त प्रदेशी स्कन्ध का द्रव्य, उनसे (२) अनंत प्रदेशी स्कन्ध का प्रदेश अनंत गुणा " (३) परमाणु पुद्गल का द्रव्य प्रदेश " . " (४) संख्यात प्रदेशी स्कन्ध का द्रव्य संख्यात गुणा " (५) " " " प्रदेश " " (६) असंख्यात" " द्रव्य असंख्यात गुणा ॥ (७) " " " प्रदेश " * क्षेत्र अपेक्षा अल्प बहुत्व के (१) सर्व से कम एक आकाश प्रदेश अवगाह्या द्रव्य उनहें (२) संख्यात प्रदेश अवगाह्या द्रव्य संख्यात गुणा " Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुद्गलों का अल्पबहुत्व | (३) असंख्यात " " असंख्यात " इसी प्रकार प्रदेशों का अल्प बहुत्व समझना । (१) सर्व से कम एक प्रदेश अवगाह्या द्रव्य और प्रदेश उनसे (२) संख्यात प्रदेश संख्यात गुणा " (३) " (४) असंख्यात (५) 33 (३) 31 (४) असं० (५) 99 99 39 " 33 " 99 95 ?? " "" 99 " बहुत्व । कालापेक्षा (१) सर्व से कम एक समय की स्थिति के द्रव्य उनसे (२) संख्यात समय स्थिति के द्रव्य संख्यात गुणा, उनसे (३) असंख्यात असं० 19 35 99 99 इसी प्रकार प्रदेशों का अल्प बहुत्व जानना । (१) सर्व से कम एक समय की स्थिति के द्रव्य और प्रदेश उनसे (२) संख्यात समय की स्थिति के द्रव्य संख्यात गुणा," प्रदेश $9 प्रदेश 99 द्रव्य असं० प्रदेश 19 ( ५१३ ) " 77 द्रव्य असं० प्रदेश " +9 79 99 भावापेक्षा प्रमाणों का अल्प बहुत्व | (१) सर्व से कम अनंत गुण काला पुद्गलों का द्रव्य उनसे 19 19 19 (२) एक गुण काला पुद्गल द्रव्य अनंत गुणा संख्यात " 11 97 19 " (३) संख्यात (४) श्रसं ० असं० "" "" 19 ** 99 इसी प्रकार प्रदेशों का अल्प बहुत्व समझना । 19 19 Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५१४ ) थोकडा संग्रह | (१) सर्व से कम अनंत गुणा वाला का द्रव्य उनसे (२) अनंता गुणा काला प्रदेश अनंत गुणा (३) एक गुण वाला द्रव्य और प्रदेश अनंत गुणा (४) संख्यात प्रदेश काला पुद्गल द्रव्य संख्यात (५) प्रदेश 39 (६) असं० (७) " 11 17 " 77 ** ܕܪ ** द्रव्य असं० 19 99 19 39 "" "" : प्रदेश 99 99 एवं ५ वर्ण २ गन्ध, ५ रस, ४ स्पर्श, ( शीत; उष्ण; स्निग्ध; रूक्ष ) आदि १६ बोलों का विस्तार काले वर्ण अनुसार तीन तीन अल्पबहुत्व करना । कर्कश स्पर्श का अल्प बहुत्व । 19 ?? (१) सर्व से कम एक गुण कर्कश का द्रव्य उनसे (२) सं० गुण कर्कश का द्रव्य सं० गुणा असं० (३) असं० गु० (४) अनंत गु० कर्कश स्पर्श प्रदेशापेक्षा अल्प बहुत्व | अनंत 19 99 99 "9 99 99 19 99 77 99 " (१) सर्व से कम एक गुण कर्कश का प्रदेश उनसे (२) सं० गुणा कर्कश का प्रदेश असंख्यात गुणा " " " 17 "" (३) असं० (४) अनंत अनंत कर्कश द्रव्य प्रदेशापेक्षा अल्प बहुत्व (१) सर्व से कम एक गुण कर्कश का द्रव्य प्रदेश उनसे 17 19 79 ?? Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुनला का अल्प बहुत्व । ( ५१५) (२) संख्यात गुण कर्कश का पुद्गल " संख्यातगुणा" (३) " " " " प्रदेश असं० " " (४) असं० " " " द्रव्य " " " (५). " " " " प्रदेश " " " (६) अनंत " " " द्रव्य अनंत " " (७) " " " " प्रदेश " " इसी प्रकार मृदु, गुरु, व लघु समझना कुल ६६ अल्प बहुत्व हुए-३ द्रव्य के, ३ क्षेत्र के, ३ काल के, व ६० भाव के एवं कुल ६६ अल्प बहुत्व । * इति पुद्गलों का अल्प बहुत्व स Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५१६) थोकडा संग्रह | आकाश श्रेणी ( श्री भगवती सूत्र शतक २५ उ० ३ ) आकाश प्रदेश की पंक्ति को श्रेणी कहते हैं समश्चय आकाश प्रदेश की द्रव्यापेक्षा श्रेणी अनन्ती है । पूर्वादि ६ दिशाओं की और अलोकाकाश की भी अनन्ती है । द्रव्यापेक्षा लोकाकाश की तथा ६ दिशाओं की श्रेणी असंख्याती प्रदेशापेक्षा समुच्चय आकाश प्रदेश तथा ६ दिशा की श्रेणी अनन्ती है । प्रदेशापेक्षा लोकाकाश आकाश प्रदेश तथा ६ दिशा की श्रेणी असं० है प्रदेशापेक्षा आलोकाकाश आकाश की श्रेणी संख्याती, असंख्याती, अनंती है पूर्वादि ४ दिशा में अनन्ती है और ऊंची नीची दिशा में तीन ही प्रकार की । समुच्चय श्रेणी तथा ६ दिशा की श्रेणी अनादि अनन्त है । लोकाकाश की श्रेणी तथा ६ दिशा की श्रेणी सादि सान्त है । लोकाकाश की श्रेणी स्यात् सादि सान्त स्यात् सादि अनन्त स्यात् अनादि सान्त और स्यात् अनादि अनन्त है | (१) सादि सान्त - लोक के व्याघात में (२) सादि अनन्त - लोक के अन्तमें अलोक की आदि है परन्तु अन्त नहीं | Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आकाश श्रेणी। ( ५१७ ) (३) अनादि सान्त-अलोक अनादि है परन्तु लोक के पास अन्त है। (४) अनादि अनन्त-जहां लोक का व्याघात नहीं पड़े वहां चार दिशा में सादि सान्त सिवाय के ३ भांगे । ऊंची नीवी दिशा में ४ भांगा। द्रव्यापेक्षा श्रेणी कुड़जुम्मा है । ६ दिशा में और द्रव्यापेक्षा लोकाकाश की श्रेणी, ६ दिशा की श्रेणी और अलोकाकाश की श्रेणी भी यही है, प्रदेशापेक्षा आकाश श्रेणी तथा ६ दिशा में श्रेणी कुड़जुम्मा है प्रदेशापेक्षा लोकाकाश की श्रेणी स्यात् कुड़जुम्मा स्यात् दावरजुम्मा है । पूर्वादि ४ दिशा और ऊंची नीची दिशापेक्षा कुड़जुम्मा है । प्रदेशापेक्षा अलोकाकाश की श्रेणी स्यात् कुड़जुम्मा जाव स्यात् कलयुगा है। एवं ४ दिशा की श्रेणी, परन्तु ऊंची नीची दिशा में कलयुगा सिवाय की तीन श्रेणी है। श्रेणी ७ प्रकार की भी होती है-ऋजु, एक वंका,M दो वंका, _एक कोने वाली, - दो कोने वाली, - अर्ध चक्र वाल, 0 चक्र वाल । ___जीव अनुश्रेणी (सम ) गति करे, विश्रेणी गति न करे । पुद्गल भी अनुश्रेणी गति ही करे । विश्रेणी गति न करे। ॥ इति श्राकाश श्रेणी सम्पूर्ण ॥ Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८) थोकडा संग्रह। vvvvvvv-uaryvN बल का अल्प बहुत्व पूर्वाचार्यों की प्राचीन प्रति के आधार से(१) सर्व से कम सूक्ष्म निगोद के अपर्याप्ता का बल, उनसे (२) बादर निगोद के अपर्याप्ता का बल असंख्यात गुणा , (३) सूक्ष्म , पर्याप्ता , " , " (४) बादर ,, ,, (५) सूक्ष्म पृथ्वी काय के अपर्याप्ता (६) , पयांप्ता , , , , (७ बादर , अपर्या० , (८, , , पाप्ता , " (६) , वनस्पति के अपयोप्ता , " " पर्याप्ता, (११) तनु वाय का , , , (१२) घनोदधि (१३) घन वायु (१४ कुंथवा (१५) लाख वीश (१७) चींटी मकोड़े (१८) मक्खी (१६) डंश मच्छर (२० भंवरे (२१) तीड़ (२२) चकली (२३) कबूतर (२४) कौवे , दश , वीश , पचाश साठ " पन्द्रह " सौ , " , " Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बल का अल्प बहुत्व । (५१६ ) imun " " हजार , पांसी हजार , सौ , हजार बारह दश बारह पांचसौ , , " , १२५ मुर्ग (२६) सर्प (२७) मोर (२८ बन्दर (२६) घेटा (सूअर का बच्चा) (३०) मंडे (३१) पुरुष (३२) वृषभ (३३) अश्व (३४) असे (३५) हाथी (३६) सिंह (३७) श्रष्टापद (३८ बलदेव (३६) वासुदेव (४० चक्रवर्ती (४१) व्यन्तर देव (४२) नागादि भवनपति (४३) असुर कुमार देवता (४४) तारा (४५) नक्षत्र (४६) ग्रह (४७) व्यन्तर इन्द्र (४८) नागादि देवता का इन्द्र (४६) असुर , , (५०' ज्योतिषी ,, , दो हजार , दश हजार दो , , , क्रोड़ , असंख्य " " " " " , " " , , " " Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 33 ( ५२० ) (५१) वैमानिक (५२) इन्द्र " 99 . 99 "" "3 ( ५३ तीनों ही काल के इन्द्रों से भी तीर्थकर की कनिष्ठ गुली का बलन्त गुणा है | ( तत्त्व केवली गम्य ) * इति बल का अल्प बहुत्व 33 39 थोकडा संग्रह | 33 " Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समकित के ११ द्वार। (५२१ ) समकित के ११ द्वार १ नाम २ लक्षण ३ श्रावन (आगति) ४ पावन ५ परिणाम ६ उच्छेद ७ स्थिति ८ अन्तर ह निरन्तर १० आगरेश ११ क्षेत्र स्पशना और अल्प बहुत्व । १ नाम द्वार-समकित के ४ प्रकार । क्षायक, उपशम, क्षयोपशम और वेदक समकित । २ लक्षण द्वारः-७ प्रकृति [अनंतानुबन्धी क्रोध मान, माया, लोभ और ३ दर्शन मोहनीय ] का मूल से क्षय करने से क्षायक समकित व ६ प्रकृति उपशमावे और समकित मोहनीय वेदे तो वेदक समाकित होता है अनंतानु० चोक का क्षय करे और तीन दर्शन मोह को उपशमावे उसे क्षयोपशम समकित कहते हैं । ३ श्रावन द्वार-क्षायक सम० केवल मनुष्य भव में आवे शेष तीन समकित चार गति में आवे । ४ पावन द्वार-चार ही समकित गति में पावे । ५ परिणाम द्वार-क्षायक समकित अनन्ता [सिद्ध आश्री शेष तीन समकित वाला असंख्यात जीव ६ उच्छेद द्वार-क्षायक समकित का उच्छेद कभी न होवे । शेष तीन की भजना। ७ स्थिति द्वार-क्षायक समकित सादि अनन्त । Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५२२) थोकडा संग्रह। उपशम समक्ति ज० उ० अं० मु०, क्षयोप० और वेदक की स्थिति ज० अं० मु०, उ०६६ सागर जाजरी । ८ अन्तर द्वार-क्षायक समकित में अन्तर नहीं पड़े । शेष ३ में अन्तर पड़े तो ज० अं० उ० अनन्त काल यावत् देश न्यून [ उणा ] अर्ध पुद्गल परावर्तन । ६ निरन्तर द्वार:-चायक समाकित निरन्तर पाठ समय तक आवे शेष ३ समकित पावलिका के असं. में भाग जितने समय निरन्तर आवे । १० प्रागरेश द्वार-क्षायक समकित एक वार ही आवे । उपशम समकित एक भव में ज० १ वार उ०२ बार आवे और अनेक भव आश्री ज० २ वार आवे शेष २ समकित एक भव पाश्री ज० १ वार उ० असंख्य वार और अनेक भव आश्री ज०२ वार उ असंख्य वार अवे। ११ क्षेत्र स्पशना द्वार:-क्षायक समकित समस्त लोक स्पर्श [ केवली सम्म० आश्री ] शेप ३ सम देश उण सात राजू लोक स्पर्श।। १२ अल्प बहुत्व द्वार:-सर्व से कम उपशम सम० वाला, उनसे वेदक समक्ति वाला असंख्यात गुणा, उनसे क्षयोप० सम० वाला असंख्यात गुणा, उनसे क्षायक सम० वाला अनन्त गुणा (सिद्धापेक्षा )। ॥ इति समक्ति के ११ हार सम्पूर्ण ॥ ___ Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खराडा जायगा | ( ५२३ ) * खण्डा जोयणा [ सूत्र श्री जम्बू द्वपि प्रज्ञप्ति ] 'खण्डा 'जोयण वासा, 'पव्दय कूड़ा तित्थ से दीओ 'विजय 'दह सलिलाओ, पिंडए होई संगहणी | १ | १ लाख योजन लंबे चौड़े जम्बू द्वीप के अन्दर ( जिसमें हम रहते हैं ) १ खण्ड २ योजन ३ बास ४ पर्वत ५ कूट [ पर्वत के ऊपर ] ६ तीर्थ ७ श्रेणी ८ विजय ह द्रह १० नदिएं आदि कितनी हैं ? इसका वर्णन - www.^^^^^^ जम्बू द्वीप चक्की के पाट समान गोल है इसकी परिधि ३१६२२७ योजन ३ गाउ १२८ धनुष्य १३॥ गुल, एक जव, १ जूँ, १ लींख, ६ बालाय और १ व्यवहार परमाणु समान है । इस के चारों ओर एक कोट [ जगति ] है १ पद्मबर वेदिका, १ वन खण्ड और ४ दरवाजों से सुशोभित है । खण्ड योजन कला १ खण्ड द्वार - दक्षिण उत्तर भरत जितने [ समान ] खण्ड करे तो जम्बू द्वीप के १६० खण्ड हो सक्ते हैं । नं० क्षेत्र नाम १ भरत क्षेत्र २ नूल हेमवन्त पर्वत ३ हेमवाय क्षेत्र १ ५२६-६ २ १०५२-१२ २१०५ -५ Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ महा हेमवन्त पर्वत ८ ४२१०-१० ५ हरिवास क्षेत्र ८४२१-१ ६ निषिध पर्वत १६८४२-२ ७ महा विदेह क्षेत्र ३३६८४-४ ८ नीलवंत पर्वत १६८४२-२ ६ रम्यक् वास क्षेत्र ८४२१-१ १० रूपी पर्वत ४२१०-१० ११ हिरणवाय क्षेत्र २१०५-५ १२ शिखरी पर्वत १०५२-१२ १३ ऐरावत क्षेत्र ५२६-६ १६० १०००००-० १६ कला का १ योजन समझना पूर्व पश्चिम का १ लाख योजन का माप नं. क्षेत्र का नाम योजन १ मेरु पर्वत की चौड़ाई २ पूर्व भद्रशाल वन २२००० ३ ,, आठ विजय १७७०२ ४, चार वक्षार पर्वत २००० ५ ,, तीन अन्तर नदी ३७५ ६ , सीतामुख वन २६२३ ७. पश्चिम भद्रशाल वन २२००० ८, आठ विजय १७७०२ Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्डा जोयणा। ( ५२५) ६, चार वक्षार पर्वत २००० १० ,, तीन अन्तर नदी ३७५ ११, सीतामुख वन । २६२३ कुल १००००० २ योजन द्वार:-१ लाख योजन के लम्बे चौड़े जम्ब द्वीप के एक २ योजन के १० अबज खण्ड हो सकते हैं । जो १ योजन सम चौरस जितने खण्ड करे तो ७:०-५६६४१५० खण्ड होकर ३५१५ धनुष्य और ६० आंगुल क्षेत्र बाकी बचे । ३ वासा द्वार:-मनुष्य के रहने वास ७ तथा १० हैं कर्म भूमि के मनुष्यों का ३ क्षेत्र-भरत, ऐरावर्त और महाविदेह अकर्म भूमि मनुष्यों का ४ क्षेत्र-हेमवाय, हिरणवाय, हरिवास, रम्यवास एवं सात १० गिनने होवे तो महाविदेह क्षेत्र के ४ भाग कग्ना-[१] पूर्व महाविदेह [२] पश्चिम महाविदेह [३] देव कुरु [४] उत्तर कुरु एवं १० । ___ जगति [कोट] ८ योजन ऊँचा और चौड़ा मूल में १२, मध्य में ८ और ऊपर ४ योजन का है । सारा वज्र रत्न मय है । कोट के एक के एक तरफ झरोखे की लाइन है जो ०॥ योजन ऊंची, ५०० धनुष्य चोड़ी है कोषीशा और कांगरा रत्न मय है। जगति के ऊपर मध्य में पद्मवर वेदिका है जो ॥ Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५२६ ) थोडा संग्रह | योजन ऊंची, ५०० धनुष्य चौडी है दोनों तरफ नीले पन्नों के स्तम्भ हैं जिन पर सुन्दर पुतलियें और मोती की मालाएं हैं | मध्य भाग के अन्दर पद्मवर वेदिका के दो भाग किये हुवे हैं । [१] अन्दर के विभाग में एक जाति के वृक्षों का वनखण्ड है जिसमे ५ वर्ण का रत्न मय तृण है । वायुकं संचार से जिसमें ६ राग और ३३ रागनियें निकलती हैं | इसमें अन्य वावडियें और पर्वत हैं, अनेक आसन है जहां व्यन्तर देवी-देवता कीड़ा करते हैं [२] बाहर के विभाग में तृण नहीं है । शेष रचना अन्दर के विभाग समान है। I मेरु पर्वत से चार ही दिशा में ४५-४५ हजार योजन पर चार दरवाजे हैं । पूर्व में विजय, दक्षिण में विजयचन्त, पश्चिम में जयन्त और उत्तर में अपराजित नामक हैं प्रत्येक दरवाजा ८ योजन ऊंचा ४ योजन चौड़ा है । दरवाजे के ऊपर नव भूमि और सफेद घुमट [ गुम्बज ] छत्र, चामर, ध्वजा तथा ८-८ मंगलीक हैं । दरवाजों के दोनों तरफ दो दो चोतरे हैं जो प्रासाद, तोरण चन्दन, कलश, झारी, धूप, कड़छा और मनोहर पुतलियों से सुशोभित है । क्षेत्र का विस्तार [१] भरत क्षेत्र - मेरु के दक्षिण में अर्धचन्द्राकारवत् है मध्य में वैताढ्य पर्वत आने से भरत के दो भाग हो Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्डा जोयण।। ( ५२७ ) गये हैं। १ उत्तर भरत २ दक्षिण भरत। भरत की मर्यादा ( सीमा ) करने वाला चूल हेमवन्त पर्वत पर पद्म द्रह है। जिसके अन्दर से गङ्गा और सिन्धु नदी निकल कर तमम् गुफा और खण्डप्रभा गुफा के नीचे वैत ढ्य पर्वत को भेद कर लवण समुद्र में मिलती हैं इनसे भरत क्षेत्र के ६ रुण्ड होते हैं। दक्षिण भरत२३८ योजन ३ कला का है। जिसमें ३ खण्ड हैं-मध्य खण्ड में १४ हजार देश है। मध्य भाग में कोशल देश, वनिता [ अयोध्या ] नगरी है । जो १२ योजन लम्बी, ह योजन चौडी है। पूर्व में १ हजार और पश्चिम में १ हजार देश हैं । कुल दक्षिण भारत में १६ हजार देश है। इसी प्रकार १६ हजार देश उत्तर भरत में हैं । इस भरत क्षेत्र में काल चक्र का प्रभाव है [ ६ पारा बत् ] । - [२] ऐरावत् क्षेत्र मेरु के उत्तर में शिखरी पर्वत से आगे भरतवत् है। . [३] महाविदेह क्षेत्र-निपिध और नीलवन्त पवेत के मध्य में है। पलङ्ग के संठाण वत्. ३२ विजय हैं। मध्य में १० हजार योजन का विस्तार वाला मेरु है। पूर्व पश्चिम दोनों तरफ २२-२२ हजार यो० + द्रशाल वन है। दोनों तरफ १६-१६ विजय हैं। मेरु के उत्तर में और दक्षिण में २५०-२५० योजन Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५२८ ) थोकडा संग्रह। का भद्रशाल वन है। दक्षिण में निषिध तक देव कुरु और उत्तर में नीलवन्त तक उत्तर कुरु है । ये दोनों दो दो गजदन्त के करण अर्धचन्द्राकार हैं । इस क्षेत्र में युगल मनुष्य ३ गाउ की अवगाहना उछध आङ्गुल के और ३ पल्य के आयुष्य वाले रहते हैं । देव कुरु में कुड़ शाल्मली वृक्ष, चित्र विचित्र पर्वत १०० कंचन गिरि पर्वत और ५ द्रह हैं । इसी प्रकार उत्तर कुरु में भी हैं । परन्तु ये जम्बू सुदर्शन वृक्ष हैं। निषिध और महाहिमवत पर्वत के मध्य में हरिवास क्षत्र है । तथा नीलवन्त और रूपी पर्वत के बीच में रम्यक् वास क्षेत्र है । इन दो क्षत्रों में २ गाउ की अब गाहना और २ पल्य की स्थिति व ले युगल मनुष्य रहते हैं। ___महाहे मवन्त और चूल हेमवन्त पर्वत के बीच में हेमवाय क्षेत्र और रूपी तथा शिखरी पर्वत के मध्य में हिरणवाय क्षेत्र है इन दोनों क्षेत्रों में १ गाउ की अवगा. हना वाले और १ पल्य का प्रायुप्य वाले युगल मनुष्य रहते हैं। द० उ० चौड़ाई बाह जीवा धनुष्ट पीड यो कला यो कला यो कला ये कल दक्षिण भरत २३८३ . ६७५८-१२ १७६६१ क्षेत्र उत्तर हेमवाय हरिवास , महाविदेह , १८६२-७॥ १४४७१.६ १४५२८॥ २१०५५ ६७५५-३ ३७६७४.१६ ३८७४०.१० ८४२१-१ १३३६१६ ७३६०१.१७ ८४०१६.४ ३३६८४४ ३३७६७.७ १००००० १५८११३॥ Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड। जोयणा । (५२६ ) देव कुरु , १५८४२-२ ५३००० ६०४१८.१२ उत्तर कुरु , ११८४२.२ . ५३००० ६०४१८-१२ रम्यक् वास , ८४२१- १ १३३६१६ ७३६०१.१७ ८४०१६-४ हिरण वाय , २१०१५, ६७५५-३ ३७६७४.१६ ३८७४०.१० दक्षिण ऐरावत , २३८३ १८६२-७॥ १४४७१-६ १४५२८११ उत्तर , ,, २३८- ३ ० १७४८.१२ १७६६ १ (४) पव्वय द्वार ( पर्वत )-२६६ पर्वत शाश्वत हैं । देव कुरु में ५ द्रह हैं जिसके दोनों तट पर दश २ कंचन गिरि सर्व सुवर्ण मय हैं दश तट पर १०० पर्वत हैं। इसी प्रकार १०० कंचन गिरि उत्तर कुरु में हैं तथा दीर्घ वैता ढ्य १६ वक्षार पर्वत, ६ वर्षधर पर्वत, ४ गजदंता पर्वत, ४ वृतल वैताट्य, ४ चित विचितादि और १ मेरु पर्वत एवं २३६ हैं। ३४ दीघ वैताट्य-३२ विजय विदेह १ भरत १ ऐरावर्त के मध्य भाग में है । १६ वक्षार-१६.१६ विजय में सीता, सीतोदा नदी से ८.८ विजय के ४ भाग होगये हैं इसके ७ अन्तर है । जिनमें ४ वक्षार पर्वत और ३ अंतर नदी हैं। एक एक विभाग में ४ वक्षार पर्वत एवं ४ विभागों में १६ वक्षार है। इनके नाम-चित्र विचित्र,निलन, एकशैल, त्रिकुट,वैश्रमण, अंजन, भयांजन, अंकाबाई, पवमावाई, आशीविष, सुहावह, चन्द्र, सूर्य, नाग, देव । ६ वर्ष धर-७ मनुष्य क्षेत्रों के मध्य में ६ वर्षधर Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५३०) थोकडा संग्रह । (चूल हेमवन्त, महा हेमवन्त, निषिध, नीलवन्त, रूपी और शिखरी ) पर्वत हैं। ४ गज इंता पर्वत-देव कुरु उत्तर कुरु और विजय के बीच में आये हुवे हैं । नाम-गंधमर्दन, मालवंत, विद्युत्प्रभा और सुमानस । ४ वृतल वैताट्य -हेमवाय, हिरण वाय, हरिवास, रम्यक्वास के मध्य में है । नाम-सदावाई, वयड़ावाई गन्धावाई, मालवंता। ४ चित विचितादि निषिध पर्वत के पास सीता नदी के दोनों तट पर चित और विचित पर्वत हैं । तथा नीलवंत के पास सीतोदा के दो तट पर जमग और समग दो पर्वत हैं। १ जम्बू द्वीप के बराबर मध्य में भेरू पर्वत है। पर्वत के नाम ऊचाई गहराई विस्तार २०० कंचन गिरि पर्वत १०० यो. २५ यो. १०० यो. ३४ दीघ वैताढ्य " २५ यो, २५ गाउ ५० यो. १६ वक्षार " ५०० यो.५०० गाउ ५०० यो. यो, कला चूल हेमवंत और शिखरी १०० यो. २५ यो. १०५२-१२ महा हेमवंत और रूपी २०० यो.५० यो. ४२१०.१० निषिध और नीलवंत ४०० यो.१०० यो. १६८४२-२ ४ गजदंता पर्वत ५०० यो. १२५ यो. ३०२०६६ Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड! जोयणा । (५३१ ) Lon ४ वृतल वैताढ्य १००० यो. २५० यो. १०००.० चित,विचि.,जमग,सुमग१००० यो.२५० यो. १०००० मेरु पर्वत ६६००० यो.१०००यो.१००६० यो. मेरु पर्वत पर ४ वन है-भद्रशाल, नंदन, सुमानस और पण्डक वन । १ भद्रशाल वन-पूर्व-पश्चिम २२००० यो० उत्तर दक्षिण २३० यो विस्तार है । मेरु से ५० यो. दर चार ही दिशाओं में ४ सिद्धायतन हैं जिनमें जिन प्रतिमा है। मेरु से ईशान में ४ पुष्करणी ( वावड़ियें ) हैं ५० यो. लम्बी, २५ यो, चौड़ी १० यो. गहरी हैं। वेदिका वनखण्ड तोरणादि युक्त हैं। चार बावड़ियों के अन्दर ईशानेन्द्र का महल है ! ५०० यो. ऊंचा, २५० यो. विस्तार वाला है । नीचे लिखी रचना अनुसार अग्निकोन में ४ वावड़िये हैं-उत्पला, गुम्मा, निलना, उज्वला के अन्दर . शक्रेन्द्र का महल है। वायु कोन में ४-लिंगा, भिगनाभा, अंजना, अंजन प्रभा के अन्दर शक्रेन्द्र का प्रासाद सिंहासन है। नैऋत्य कोन में ४-श्रीकन्ता, श्रीचन्दा, श्रीमहीता, श्रीन लीता में ईशानेन्द्र का प्रासाद सिंहासनहै आठ विदिशा में ८ हस्ति कूट पर्वत हैं । पद्मुत्तर, नीलवंत, सुहस्ति, अंजनगिरि, कुमुद, पोलाश, विठिस और रोयणगिरि ये प्रत्येक १२५ योजन पृथ्वी में ५०० Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५३२ ) थोकडा संग्रह। योजन ऊंचा मूल में ५०० यो. मध्य में ३७५ यो. और ऊपर २५० यो, विस्तार वाला है। अनेक वृक्ष, गुच्छा गुमा, वेली, तृण से शोभित है। विद्याधरों और देवताओं का कीड़ा स्थान है। २ नन्दन वन-भद्रशाल से ५०० यो, ऊंचे भेरु पर वलयाकार है । ५०० योजन विस्तार है वेदिका वनखण्ड, ४ सिद्धायतन, १६ बावड़ियें, ४ प्रासाद पूर्ववत् हैं। कूट हैं । नन्दन वन कूट, मेरु कूट. निषिध कूट, हेमवन्त कूट, जित कूट, रुचित, सागरचित, वज्र और बल कूट, ८ कूट, ५०० यो. ऊंचे हैं आठों ही पर ? पल्य वाली ८ देवियों के भवन है नाम-मधंकरा, मेधवती, सुभेघा, हेममालिनी, सुवच्छा, वच्छामित्रा, वनसेना, बलहका देवी। बल कूट १००० योजन ऊंचा, मूल में १००० यो. मध्य में ७५० यो. ऊपर ५०० यो. विस्तार है। बल देवता का महल है । शेष भद्रशाल वन समान सुन्दर और विस्तार वाला है। (३) सुमानस वन-नंदन वन से६२५००यो ऊँचा है ५०० यो० विस्तार वाला मेरु के चारों ओर है । वेदिका वनखएड, १६ वावडियें , ४ सिद्धायतन, शकेन्द्र इशानेन्द्र के महल आदि पूर्ववत है। ४ पांडक वन-सुमानस वन से ३६००० यो ऊंचा मेरु शिखर पर है । ४६४ यो० चूंडी आकार वत् है। मेरु Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खराडा जायणा। ( ५३३) muRPAARA) N की ३२ यो० की चूलिका के चारों ओर ( तरफ ) लिपटा हुवा है। वेदिका, वन खण्ड, ४ सिद्धायतन, १६ वावडिए, मध्य में ४ महल । सर्व पूर्ववत् । . ___ मध्य की चूलिका ( मेरुकी ) मूल में १२ यो०, मध्य में ८ यो०, ऊपर ४ यो० का विस्तार वाली । ४० यो० ऊंची है । वैडूर्य रत्न मय है । वेदिका वनखण्ड से विटायी हुई (लिपटी हुई ) है मध्य में १ सिद्धायतन है। ___ पांडक वन की ४ दिशा में ४ शिला है। पंडू, पंडूबल, रक्त और रत्न कंबल । प्रत्येक शिला ५०० योजन लम्बी२५०यो०चौडी४यो जाडी अर्धचन्द्र श्राकार वत् है । पूर्व पश्चिम शिलाओं पर दो २ सिंहासन हैं । जहां महाविदेह के तीर्थंकरों का जन्माभिषेक भवनपति. व्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक देवता करते हैं। उत्तर दक्षिण में एके सिंहासन है जहां भरत ऐरावर्त के तीर्थकरों का जन्माभिषेक ४ निकाय के देवता करते हैं। मेरु पर्वत के ३ करंड हैं। नीचे का १००० यो० पृथ्वी में, मध्य में ६३००० यो० पृथ्वी के ऊपर और ऊपर का ३६००० यो० का; कुल १ लाख योजन का शास्वत मेरु है। __ (५) कूट द्वार-४६७ कूट पर्वतों पर और ५८ क्षेत्रों में हैं ऊंचायो० मूल वि० ऊँचा वि० चूल हेमवन्त पर ११ ५०० ५०० २५० ___ Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५२४ ) महा हेमवन्त निषिध नीलवन्त रूपी शिखरी ११ " 19 ** चैताढ्य ३४x६ = ३०६ २५ गाउ २५ गाउ १२ || गाउ वक्षार १६x४= ६४ ५०० ५०० २५० ܕܕ "" ܕܙ 91 ,, " विद्युत्प्रभा गजदंता पर ह मालवंता "9 सुमानस गंधमाल , " मेरु के नंदन वनमें " ८ 19 ad ह ८ ww 12 " ८ " " w 9 333 19 " ४६७ ܐ ܘ भद्रशाल में देव कुरु उतर कुरु में चक्रवर्ती के विजय में ३४ " 97 ८ ८ यो० " 11 "" " 19 19 " 99 ܕ ܕܪ W 71 " थोकडा संग्रह | " ܕ ܕܐ 19 19 ܕܙ 19 ܕܕ , " 12 " यो० ४ यो *** 11 ५२५ गजदंता के २ और नंदन वन का १ कूट और १००० यो० ऊंचा, १००० यो० मूल में और ऊंचा ५०० योजन का विस्तार समझना । ७६ कूट ( १६ वक्षार, ८ उत्तर कुरु ३४ वैताढ्य ) पर जिन गृह हैं । Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्डा जोयणा | शेष कूटों पर देव देवी के महल हैं । ४ वन में चार (१६) मेरु चूलोंपर १, जम्बू वृक्ष पर १, शाल्मली वृक्ष पर १, जिनगृह; कुल ६५ शाश्वत सिद्धायतन है । ( ५३५ ) (६) तांथ द्वार - ३४ विजय ( ३२ विदेह का, १भरत, १ ऐरा वर्त) में से प्रत्येक तीन २ लौकिक तीर्थ हैं। मगध, वरदास और प्रभास | जब चक्रवर्ती खण्ड साधने को जाते हैं तब यहां रोक दिये जाते हैं यहां अहम करते हैं । तीर्थकरों के जन्माभिषेक के लिये भी इन तीर्थों का जल और औषधि देवलांत है । (७) श्रेणी द्वार:- विद्य धरों की तथा देवों की १३६ श्रेणी हैं । वैताढ्य पर १० यो० ऊँच विद्या० की २ श्रेणी हैं दक्षिण श्रेणी में ५० और उत्तर श्रेणी में ६० नगर हैं । यहाँ से १० यो० ऊँचेपर अभियोग देव की दो श्रेणी ( उत्तर की, दक्षिण की ) हैं । एवं ३४ वैताढ्य पर चार २ श्रेणी है। कुल ३४४४ = १३६ श्रेणियें हैं | (८) विजय द्वार - कुल ३४ विजय है, जहां चक्रवर्ती ६ खण्ड का एक छत्र राज्य कर सकते हैं । ३२ विजय तो महाविदेह क्षेत्र के हैं, नीचे ( अनुसार: पूर्व विदेह सीता नदी पश्चिम विदेह उत्तर किनारे दक्षिण किनारे उत्तर किनारे ८ कच्छ विजय वच्छ विजय पद्म विजय सीतोदा नदी ८ दक्षिण कि विप्रा विजय Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थोकडा संग्रह। सुकच्छ ,, सुवच्छ , सुपन , सुविधा " महा कच्छ,, महा वच्छ ,, महा पद्म , महा विद्या , कच्छ वती,, वच्छ वती, पद्मवती ,, विप्रावती ,, पात्रता , रमा , संवा , वागु , मंगला , रमक , कुमुदा , सुवगु , पुरकला ,, रमणीक , निली का ,, गन्धीला , पुष्कलावती ,, मंगलावती ,, सलीलावती ,, गंधीला व ,, . प्रत्येक विजय १६५६ २ यो०२कला दक्षिणत्तर लम्बी और २२२।। यो. पूर्व पश्चिम में चौडी है । ये ३२ तथा १ भरत क्षेत्र, १ ऐरावत क्षेत्र एवं ३४ चक्रवर्ती हो सकते हैं। इन ३४ विजयों में ३४ दीघ वैताढ्य पर्वत, ३४ तमस गुफा, ३४ खण्ड पभा गुफा, ३४ राजधानी ३४ नगरी ३४ कृत माली देव, ३४ नट माली देव, ३४ ऋषभ कूट, ३४ गंगा नदी, ३४ सिन्धु नदी ये सब शाश्वत हैं। ... (६) द्रह द्वार-६ वषधर पवेतों पर छे, छ, ५ देव. कुरु में और ५ उत्तर कुरु में हैं। द्रह के नाम किस पर्वत लम्बाई चौड़ाई गहराई ( कुंड) पर हैं यो. यो. देवी कमल पद्म द्रह चूल हेमवन्त १०००,५००,१० श्री. १२०५०१२० महा पद्म,महा हेमवन्त२०००,१०००,१०ल. २४१००२४० तिगच्छ ,, निषिध ४०००, २०००, १० धृति ४८२००४८० केशरी ,, नीलवंत , " , बुद्धि , Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Micr म. पुं., रूपी २००० १००० पुंडरीक,, शिखरी १००० ५०० १० द्रह जमीनपर १००० ५०० हृी २४१००२४० कीर्ति १२०५०१२० 19 ,,१० दे. ४१००२४० कुल १६२८०१६०० देव कुरु के ५ द्रह - निषेड़, देव कुरु, सूर्य, सूलस और विद्युतप्रभ द्रह | उत्तर कुरु के ५ द्रह - नीलवंत, उत्तर कुरु, चन्द्र, ऐशवर्त और मालवंत द्रह | (१०) नदी द्वार - १४५६०६० नदियें हैं । विस्तार तीचे अनुसारनि. ऊं- निकलता ऊंडी प्र ऊं. समुद्र में प्रवेश करते उंडी विस्तार प्र. वि= नि. वि= विस्तार 19 24 19 99 १ गङ्गा २ सिन्धु १३ रोहिता ४ रोहितंसा म. म. म. पद्म ५ हरिकता ६ हरिसलीला निषिध तिगच्छ ७ सीता म सीतोदा नीलवंत केशरी ६ नरकंता १० नारीकंता रूपी ११ रूपकूला 91 " :9 " 19 नदी पर्वत से कुंड से नि. ॐ नि. वि प्र. ऊं प्र. वि परि. नदि १) यो. ६२॥ यो. १४००० चूल हेम. पद्म गाउ ६ | यो. 19 31 " 93 महापुंड " पुंडरीक 39 31 59 51 34 ११ २ गाउ २५ यो. ५ यो. २५०यो. ५६००० 95 11 १२ सुवर्णकूला शिखरी १३ रक्ता १४ रक्तोदा ७८ विदेह की कुंडों से प्रथ्वीपर 39 59 ६४ नदी ११ 3 11 49 गाउ १२॥ यो। यो १२५ यो २८००० " 9 " " 19 ४ गाउ ५० यो. १० यो. ५००यो. ५३२००० "" "" " २ गाउ २५ यो. ५ यो, २५० यो. ५६००० ( २२७ ) 19 19 " 29 39 31 १ गाउ १२॥यो. २।। यो. १२५यो. २८००० 39 ܕܪ 34 99 " 91 गाउ ६.१॥ यो. ६२॥ायो. १४००० या. 29 " 15 95 91 31 1. 19 Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५३८ ) थोकडा संग्रह | जब प्रत्येक नदी ऊपर बताये हुवे पर्वत तथा कुंड से निकल कर आगे बहती हुई गंगा प्रभास सिन्धु प्रभात आदि कुंड में गिरती हैं । यहाँ से आगे जाने पर या परिवार जितनी नदियें मिलती हैं जिनके साथ बीच में आये हुवे पहाड़ को तोड़ कर आगे बहती हैं जहाँ आधे परिवार की नदियें मिलती हैं जिनके साथ बहकर जम्बूद्वीप की जगति से बाहर लवण समुद्र में मिलती हैं । गंगा प्रभास आदि कुंड में गंगा द्वीप आदि नामक एकेक द्वीप हैं जिनमें इसी नाम की एकेक देवी सपरिवार रहती हैं इन कुंड, द्वीप और देवियों के नाम शाश्वत हैं । यन्त्र के अनुसार ७८ मूल नदियें और उन की परिवार की ( मिलने वाली ) १४५६००० नदियें हैं इस उपरान्त महाविदेह के ३२ विजयों के २८ अन्तर हैं जिन में पहले लिखे हुए १६ वचार पर्वत और शेष १२ अंतर में १२ अंतर नदिये हैं इनके नाम: - गृहवन्ती, द्रवन्ती, पंकवन्ती, संत जला, मंत जला, उगनजला क्षीरोदा, सिंह सोता, तो बहनी, उपमालनी, केनमालनी और गंभीर मालनी । ये प्रत्येक नदियें १२५ यो चौड़ी, २॥ यो. ऊँडी (गहरी ) और १६५६२ यो, २ कला की लम्बी हैं एवं कल नदियें १४५६०६० है । विशेष विस्तार जम्बू द्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र से जानना । ॥ इति खण्डा जोयणा (ना) सम्पूर्ण | Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म के सम्मुख होने के १५ कारण । (५३६ ) धर्म के सम्मुख होने के १५ कारण । (१) नीति मान होवे कारण कि नीति धर्म की माता है। (२) हिम्मतवान व बहादुर होवे कारण कि कायरों से धर्म बन सक्ता नहीं। (३) धैर्यवान होवे किंवा प्रत्येक कार्य में आतुरता न करे । (४) बुद्धिमान होवे किंवा प्रत्येक कार्य अपनी बुद्धि से विचार कर करे । (५) असत्य से घृणा करने वाला होवे और सत्य बोलने वाला होवे । (६) निष्कपटी होवे, हृदय साफ स्फटिकरत्न मय होवे । (७) विनयवान तथा मधुर भाषी होवे । (८) गुण ग्राही होवे और स्वात्म-श्लाघा न करे ( स्वयं अपने गुण अन्य से आदर पाने के लिए न कहे)। (8) प्रतिज्ञा-पालक होवे अर्थात् जो नियमादि लिए होवें उन्हें बराबर पाले । (१०) दयावान होवे परोपकार की बुद्धि होवे । (११) सत्य धर्म का अर्थी होवे और सत्य का पक्ष लेने __ वाला होवे । (१२) जितेन्द्रिय होवे कषाय की मन्दता होवे । (१३) आत्म कल्याण की दृढ इच्छा वाला होवे । (१४) तत्व विचार में निपुण होवे तत्व में ही रमन करे । Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थोकडा संग्रह। ... . . (१५) जिसके पास से धर्म की प्राप्ति हुई होवे उसका उपकार कभी भी नहीं भूले और समय आने पर उपकारी के प्रति प्रत्युपकार करने वाला होवे । ॥ इति धर्म के सम्मुख होने के १५ कारण सम्पूर्ण ॥ Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गानुसारी के ३५ गुण। (५४१) ॐ मार्गानुसारी के ३५ गुण १ न्याय संपन्न द्रव्य प्राप्त करे २ सात कुव्यसन का त्याग करे ३ अभक्ष्य का त्यागी होवे ४ गुण परीक्षा से सम्बन्ध (लम ) जोड़े ५ पाप-भीरु ६ देश हित कर वर्तन वाला ७ पर निन्दा का त्यागी ८ अति प्रकट, अति गुप्त तथा अनेक द्वार वाले मकान में न रहे ६ सद्गुणी की संगति करे १० बुद्धि के आठ गुणों का धारक ११ कदाग्रही न होवे (सरल होवे) १२ सेवाभावी होवे १३ विनयी १४ भय स्थान त्यागे १५ आय-व्यय का हिसाब रक्खे १६ उचित ( सभ्य) वस्त्राभूषण पहिने १७ स्वाध्याय करे (नित्य नियमित धार्मिक वाचन, श्रवण करे) १८ अजीण में भोजन न करे १६ योग्य समय पर ( भूख लगने पर मित, पथ्य नियमित) भोजन करे २० समय का सदुपयोग करे २१ तीन पुरुषार्थ (धर्म, अर्थ, काम) में विवेकी २२ समयज्ञ (द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव का ज्ञाता) होवे २३ शांत प्रकृति वाला २४ ब्रह्मचर्य को ध्येय समझने वाला २५ सत्यव्रत धारी २६ दीर्घदर्शी २७ दयालु २८ परोपकारी २६ कृतघ्न न होकर कृतज्ञ होवे (अपकारी पर भी उपकार करे ३० आत्म प्रंशसा न इच्छे, न करे न करावे ३१ विवेकी ( योग्यायोग्य का भेद समझने वाला ) होवे ३२ लजा. वान होवे ३३ धैर्यवान होवे ३४ षडरिपु (क्रोध, मान, Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५४२) · थोकडा संग्रह। माय', लोभ, राग, द्वेष ) का नाश करे ३५ इन्द्रियों को जीते (जितन्द्रिय होवे)। इन ३५ गुणों को धारण करने वाला ही नैतिक धार्मिक जैन जीवन के योग्य हो सकता है। * इति मार्गानुसारी के ३५ गुण सम्पूर्ण * Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक के २१ गुण । ( ५४३) o श्रावक के २१ गण (१) उदार हृदयी होवे (२ यशवन्त (३) सौम्य प्रकृति वाला " (४) लोक प्रिय (५) अक्रूर (प्रकृति वाला)" (६) पाप भी (७) धर्म श्रद्धावान (८) दाक्षिण्य (चतुराई)युक्त" (६) लज्जावान (१०) दयावन्त (११) मध्यस्थ (मम) दृष्टि " (१२) गंभीर सहिष्णु-विवेकी" (१३) गुणानुरागी " (१४) धर्मोपदेश करने वाला" (१५) न्याय पक्षी " (१६) शुद्र विचारक " (१७) मर्यादा युक्त व्यवहार करने वाला होवे (१८) विनय शील होवे (१६) कृतज्ञ ( उसकार मानने वाला ) हावे (२०) परोपकारी होवे (२१) सत्कार्य में सदा सावधान होवे ॐ इति श्रावक के २१ गुण सम्पूर्ण ___ Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५४३) थोकड संग्रह। * जल्दी मोक्ष जाने के २३ बोल * · १ मोक्ष की अभिलाषा रखने से २ उग्र तपश्चर्या करने से ३ गुरु मुख द्वारा सूत्र सिद्धान्त सुनने से ४ आगम सुन कर वैसी ही प्रवृत्ति करने से ५ पाँच इन्द्रियों को दमन करने से ६ छकाय जीवों की रक्षा करने से ७ भोजन करने के समय साधु साधियों की भावना भावने से ८ सज्ञान सीखो व सिखाने से हनियाणा रहित एक कोटी से व्रत में रहना हुवा नव कोटी से व्रत प्रत्याख्यान करने से १० दश प्रकार की वैयावृत्य करने से ११ कपाय को पतले काके निमन करने से १२ शाक्त होते हुवे क्षमा करने से १३ लगे हुवे पापों की तुरन्त आलोचना करने से १४ लिये हुवे व्रतों को निर्मल पालने से १५ अभयदान सुपात्र दान देने से १६ शुद्र मन से शीयल (ब्रह्मचर्य ) पालने से १७ निवेद्य ( पाप रहित ) मधुर वचन बोलने से १८ ग्रहण किये हुवे संयम भार को अखण्ड पालने से १६ धर्म-शुक्न ध्यान ध्याने से २० हर महीने ६-६ पोषर करने से २१ दोनों समय आवश्यक ( प्रतिक्रमण ) करने से २२ पिछली रात्रि में धर्म जागरण करते हुवे तीन मनोरथादि चितवने से २३ मृत्यु समय आलोचनादि से शुद्ध होकर समाधि पण्डित मरण मरने से। Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जल्दी मोक्ष जाने के २३ बोल । (५४५) SAJA ____ इन २३ बोलों को सम्यक् प्रकार से जान कर सेवन करने से जीव जल्दी मोक्ष में जावे । ॥ इति जल्दी मोक्ष जाने के २३ बोल सम्पूर्ण ॥ Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५४६) थोकडा संग्रह। तीर्थकर गोत्र ( नाम ) बान्धने के २० कारण (श्री ज्ञाता सूत्र, आठवां अध्ययन ) १ श्री अरिहंत भगवान् के गुण कीर्तन करने से२ श्री सिद्ध " " ३ आठ प्रवचन (५ समिति, ३ गुप्ति ) का आराधन करने से। ४ गुणवंत गुरु के गुण कीर्तन करने से । ५ स्थविर ( वृद्ध मुनि ) के गुण कीर्तन करने से । ६ बहुश्रुत के " " ७ तपस्वी , " ८ सीखे हुवे ज्ञान को वारंवार चिंतवने से । है समकित निर्मल पालने से । १० विनय ( ७-१०-१३४ प्रकारके ) करने से । ११ समय समय पर आवश्यक करने से। १२ लिये हुवे व्रत प्रत्याख्यान निर्मल पालने से। १३ शुभ (धर्म-शुक्ल ) ध्यान ध्याने से । १४ बारह प्रकार की निर्जरा (तप) करने से । १५ दान (अभय दान-सुपात्र दान) देने से । १६ वैयावृत्य (१० प्रकार की सेवा ) करने से । Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तायकर गात्र बान्धन के २० कारण । (५४७ ) १७ चतुर्विध संघ को शान्ति-समाधि (सेवा-शोभा) देने से १८ नया २ अपूर्व तत्व ज्ञान पढ़ने से । १६ सूत्र सिद्धान्त की भक्ति (सेवा) करने से। २० मिथ्यात्व नाश और समकित उद्योत करने से । जीव अनंतानंत कर्मों को खपाते हैं। इन सत्कार्यों को करते हुवे उत्कृष्ट रसायण ( भावना) भावे तो तीर्थकर गोत्र कर्म बान्धे । ॥ इति तीर्थकर गोत्र बान्धने के २० कारण ॥ Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५४८) थोकडा संग्रह। दृष्टान्त परम कल्याण के ४० बोल गुण सूत्र की साक्षी १ समकित परम कल्याण श्रेणिक महाराज ठाणांग सूत्र निर्मल पालने से होवे २नियाणा रहित , तामली तापस भगवती । तपश्चर्या से ३ तीन योग निश्चल , गजसुकुमाल मुनि, अंतगढ , करने से ४ समभाव सहित , अर्जुन माली , " क्षमा करने से ५ पांच महाव्रत निर्मल , गौतम स्वामी भगवती , पालने से ६ प्रमाद छोड़ अप्र- , शैलग राजर्षि ज्ञाता , मादी होने से ७ इन्द्रिय दमन करने से, हरकेशी मुनि ८ मित्रों में माया मल्लिनाथ प्रभु ज्ञाता , __ कपट न करने से , ह धर्म चर्चा करने से , केशी गौतम उ.ध्ययन, १० सत्य धर्म पर श्रद्धा, वरुण नाग नतुये का.भगवती, करने से मित्र ११ जीवों पर करुणा, मेघ कुमार(हाथी के)ज्ञाता , करने से भव में ___ Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम कल्याण के ४० बोल । (५४६ ) - सूत्र १२ सत्य बात निशङ्कता ,, आनन्द श्रावक उपाशकदशा पूर्वक बहने से .. १३ कष्ट पड़ने पर भी ,, अंधड़ और ७०० उववाई , व्रतों की दृढता से , शिष्य १४ शुद्ध मन से शीयल , सुदर्शन शेठ सुदर्शन पालने से - चरित्र १५ पग्ग्रिह की ममता , कपिल ब्राह्मण उत्ता ध्यय. छोड़ने से १६ उदारता से सुपात्र , सुमुख गाथा- विपाक सूत्र दान देने से. पति १७ त से डिगते हुवे, राजमती उत्तराध्यको स्थिर करने से यन सूत्र १८ उग्र तपस्या करने से ,, धन्ना मुनि अ. सूत्र १६ अग्लानि पूर्वक , पंथक मुनि वैयावच्च करने से २० सदेव अनित्य , भरत चक्रवर्ती जम्बूद्वीप भावना भावने से २१ अशुभ परिणाम , प्रसन्नचन्द्र रोकने से राजर्षि चरित्र २२ सत्य ज्ञान पर , अन्नक ज्ञाता सूत्र श्रद्धा रखने से श्रावक ज्ञाता ॥ श्रेणिक ___ Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ र ५५०) थोकडा संग्रह। २३ चतुर्विध संघकी , सनतकुमार चक्र० भगवती, वैयावच्च से. पूर्व भव में २४ उत्कृष्ट भावसे , बाहुबल जी ऋषभ देव मुनि सेवा करने से पूर्व भव में चरित्र २५ शुद्ध अभिग्रह करने से, पांच पाण्डव ज्ञाता सूत्र २६ धर्म दलाली ,, , श्रीकृष्ण वासुदेव अंतगढ, २७ सूत्र ज्ञान की भक्ति , उदाई राजा भगवती, २८ जीव दया पालने से ,, धरुचि अणगार ज्ञाता , २६ व्रत से गिरते ही अराणिक अवश्यक सावधान होने से अनगार ३० आपत्ति आने पर , खंदक अणगार उत्तरा धैर्य रखने से ३१ जिन राज की भक्ति , प्रभावती करने से ३२ प्राणों का मोह छोड़, मेघरथ राजा शांन्तिकर भी दया पालने से नाथ चरित्र ३३ शक्ति होने पर भी, प्रदेशी राजा रायप्रश्नीक्षमा करने से य सूत्र ३४ सहोदर भाइयों का , राम बलदेव ६३श्ला-पु. भी मोह छोड़ने से चरित्र ३५ देवादि के उपसर्ग , काम देव उपासक सहने से ध्ययन । रानी ___ Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम कल्याण के ४० बोल । (५५१ ) Nowwwine ३६ देव गुरु वंदन में सुदर्शन शेठ अंतगढ़ सूत्र निर्भीक होने से , ३७ चर्चा से वादियों मण्डूक श्रावक भगवती, को जीतने से ३८ मिले हुवे निमित आर्द्र कुमार सूत्रकृतांग ,, पर शुभ भावना से,, ३६ एकत्व भावना कत्व भावना नमिराजर्षि उत्तराध्यान .. भावने से , ४० विषय सुख में जिनपाल ज्ञाता, गृद्ध न होने से , ॥ इति परम कल्यान के ४० बोल सम्पूर्ण । S Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५५२) थोकडा संग्रह। * तीर्थंकर के ३४ अतिशय * १ तीर्थंकर के केश, नख न बढ़े, सुशोभित रहे २ शरीर निरोग रहे ३ लोही मांस गाय के दूध समान होवे ४ श्वासोश्वास पद्म कमल जैसा सुगन्धित होवे ५ आहार निहार अदृश्य ६ आकाश में धर्म चक्र चले ७ आकाश में ३ छत्र शोभे तथा दो चामर उड़े ८ आकाश में पाद पीठ सहित सिंहासन चले आकाश में इन्द्रध्वज चले १० अशोक वृक्ष रहे ११ भामण्डल होवे १२ विषम भूमि सम होवे १३ कण्टक ऊंधे (आँधे ) हो जावे १४ छः ही ऋतु अनुकूल होवे १५ अनुकूल वायु चले १६ पांच वर्ण के फूल प्रगट होवे १७ अशुभ पुद्गलों का नाश होवे १८ सुगन्धि वर्षा स भूमि सिंचित होवे १६ शुभ पुद्गल प्रगट होवे २० योजन गामी वाणी की ध्वनि होवे २१ अर्धमागधी भाषा में देशना देवे २२ सर्व सभा अपनी २ भाषा में समझे २३ जन्म वैर, जाति वैर शान्त होवे २४ अन्यमती भी देशना सुने व विनय करे २५ प्रतिवादी निरुत्तर बने (२६) २५.यो. तक किसी जात का रोग न होवे २७ महामारी (लेग ) न होवे २८ उपद्रव न होवे २६ स्वचक्र का भय न होवे ३० पर लश्कर का भय न होवे ३१ अतिवृष्टि न होवे ३२ अनावृष्टि Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थकर के ३४ अतिशय । (५५३) न होवे ३३ दुकाल न पड़े ३४ पहले उत्पन्न हुवे उपद्रव शान्त होवें। क्रमशः ४ अतिशय जन्म से होवे, ११ अतिशय केवल ज्ञान उत्पन्न होने बाद प्रगटे और १६ अतिशय देव कृत होवे । ॥ इति तीर्थकर के ३४ अतिशय सः Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५५४ ) थोकडा संग्रह। ब्रह्मचर्य की ३२ उपमा श्री प्रश्न व्याकरण सूत्र, अध्य०६ १ ज्योतिषी समूह में चन्द्र समान व्रतों में ब्रह्मचर्य उत्तम २ सर्व खानों में सोने की खदान कीमती समान ,, ," कीमती ३ , रत्नों में वैडूर्य रत्न प्रधान वैसे ,, ,, , प्रधान ४ , आभूषणों में मुकुट " """" प्रधान ५, वस्त्रों में क्षेमयुगल " """" ६ ,, चन्दन में गोशीर्ष चन्दन " .""" ७ , फूलोंमें अरविन्द कपल , """" ८,, औषधीश्वर में चूल हेमवंत " " है ,, नदियों में सीता सीतोदा " " " १०, समुद्रों में स्य भूरमण " """" " ११ , पर्वतों में मेरु ऊँचा और " """" " Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " " "" " " """ " ब्रह्मचर्य की ३२ उपमा। win anciar १२ ,, हाथियों में ऐरावत " १३ ,, चतुष्पदों में केशरी सिंह , १४ , भवनपति में धरणेन्द्र , १५ ,, सुवर्ण कुमार देवों में वेणुदेवेन्द्र, १६ ,, देवलोक में ब्रह्म लोक बड़ा और , १७ ,, सभाओं में सुधर्मा सभा बडी और " १८ ,, स्थिति के देवों में सवोथ सिद्ध " १६ ,, दानों में अभय दान बड़ा पार " २०, रंगों में किरमजी रंग, २१ , संस्थानों में समचतुरस्त्र"" २२ ,, संहननों में वज्र ___ ऋषभ नाराच बडी और , २३ , लेश्या में शुक्ल लेश्या "" "" " " """ " " """ , """ " """" Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५५६) थोकडा संग्रह। ज्ञान २४ ,, ध्यानों में शुक्ल ध्यान बड़ा " " " " २५ ,, ज्ञान में केवल ज्ञान "" " "" " २६ , क्षेत्रों में महा विदेह क्षेत्र " """ २७ ,, साधुओं में तीर्थकर ,,, "" २८, गोल पर्वतों में . कुंडल पर्वत "" , " २४... वृक्षों में सुदर्शन वृक्ष" " " " " " ३०,, वनों में नंदन वन """" ३१ ,, ऋद्धि में चक्रवर्ती की ऋद्धि """""" ३२, योद्धाओं में वासुदेव,""""" * इति ब्रह्मचर्य की ३२ उपमा सम्पूर्ण Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवोत्तत्ति के १४ बोल। ( ५५७ ) - देवोत्पत्ति के १४ बोलः निम्न लिखित १४ बोल के जीव यदि देव गति में जावें तो कहां तक जा सकें? मार्गणा जघन्य उत्कृष्ट ... १ असंयति भवि द्रव्य देव भवनपति में नव ग्रीयवेक में २ अविराधिक मुनि सौधर्म कल्पमें अनुत्तर विमानमें ३ विराधिक मुनि भवनपति में सौधर्म कल्प में ४ अविराधिक श्रावक सौधर्म कल्पमें अच्युत कल्प में ५ विराधिक श्रावक भवनपति में ज्योतिषी में ६ असंज्ञी तिर्यच व्यन्तर देवी में ७ कंद मूल भक्षक तापस ज्योतिषी में ८ हांसी करने वाले मुनि सौधर्म कल्प में ह परिव्राजक संन्यासी तापस ब्रह्म देवलोक में १० प्राचार्यादि निंदक मुनि " लांतक " ११ संज्ञी तिथंच आठवें " १२ आजीविक साधु(गोशालापंथी)" अच्युत " १३ यंत्र मंत्र करनेवाले अभोगी साधु" १४ स्वलिंगी ववन्नगा (सम्यक् । श्रद्धा विहीन) " नव ग्रीयवेक में चौदहवें बोल में भव्य जीव हैं शेष में भव्याभव्य दोनों हैं। * इति देवोत्पत्ति के १४ बोल सम्पूर्ण Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थोकडा संग्रह। षद्रव्य पर ३१ द्वार १ नाम द्वार २ आदि द्वार ३ संठाण द्वार ४ द्रव्य द्वार ५ क्षेत्र द्वार ६ काल द्वार ७ भाव द्वार ८ सामान्य विशेष द्वार ह निश्चयं द्वार १० नय द्वार ११ निक्षेप द्वार १२ गुण द्वार १३ पर्याय द्वार १४ साधारण द्वार १५ साधर्मी द्वार १६ परिणामिक द्वार १७ जीव द्वार १८ मू. ति द्वार १६ प्रदेश द्वार २० एक द्वार २१ क्षेत्र क्षेत्री द्वार २२ क्रिया द्वार २३ कर्ता द्वार २४ नित्य द्वार २५ कारण द्वार २६ गति द्वार २७ प्रवेश द्वार २८ पृच्छा द्वार २६ स्पर्शना द्वार ३० प्रदेशस्पर्शना द्वार और ३१ अल्प बहुत्व द्वार । १ नाम द्वार-१ धर्म २ अधर्म ३ आकाश ४ जीव ५ पुद्गलास्ति काय ६ काल द्रव्य । २ आदि द्वार-द्रव्यापेक्षा समस्त द्रव्य अनादि हैं। क्षेत्रापेक्षा लोक व्यापक हैं। अतः सादि हैं केवल आकाश अनादि है । कालापेक्षा षट् द्रव्य अनादि हैं भावापेक्षा षद् द्रव्य में, उत्पाद व्यय अपेक्षा ये सादिसान्त है । ३ संगण द्वार-धर्मास्ति काय का संठाण गाड़े के ०० ओघण, समान । ०००००० इस प्रकार बढतेरलोकान्त तक असंख्य प्रदेशी ०००० ___ Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षद्रव्य पर ३१ द्वार। (५५६ ) है । इसी प्रकार अधर्मास्ति काय का संठाण, आकाशास्ति काय का संठाण लोक में गले का भूषण समान अलोक में अोषणाकार, जीव तथा पुद्गल का सम्बन्ध अनेक प्रकार का और काल के आकार नहीं । ( प्रदेश नहीं इस कारण ) ४ द्रव्य द्वार-गुण पर्याय के समूह युका होवे उसे द्रव्य कहते हैं । हरेक द्रव्य के मून ६ स्वभाव हैं । अस्ति. त्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व, प्रमेयत्व, सत्तत्व, अगुरुनघुत्व, उतर स्वभाव अनन्त हैं । यथा नास्तित्त, नित्य, अनित्य, एक, अनेक, भेद, अभेद, भव्य, अभव्य. वकाव्य, परम इत्यादि धर्म, अधर्म, आकाश, एक एक द्रव्य हैं । जोय, पुद्गल और काल अनन्त हैं। ५ क्षेत्र द्वार-धर्म, अधर्म, जीव और पुद्गल लोक व्यापक है । आकाश लोकालोक व्यापक है। और काल २॥ द्वीप में प्रवर्तन रूप है और उत्साद व्यय रूप से लोकालोक व्यापक है। ६ काल द्वार-धर्म, अधर्म, आकाश द्रव्यापेक्षा अनादि अनन्त हैं । क्रिया पेक्षा सादि सांत है । पुद्गन द्रव्यापेक्षा अनादि अनन्त है, प्रदेशापेक्षा सादि सांत है। काल द्रव्य द्रव्यापेक्षा अनादि अनन्त समयापेक्षा सादि सान्त है। - ७ भाव द्वार-पुद्गल रूपी है। शेष ५ द्रव्य अरूपी है। ८ सामान्य-विशेष द्वार सामान्य से विशेष वल. Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५६०) थोकडा संग्रह। वान है । जैसे सामान्यतः द्रव्य एक है । विशेषतः ६-६ धमोस्ति काय का सामान्य गुण चलन सहाय है । अधर्मा का स्थिर सहाय, पाका. का अवगाहदान, काल का वर्त. ना, जीव. का चैतन्य, पुदल, का जीणे गलन विध्वंसन गुण और विशेष गुण छः ही द्रव्यों का अनन्त अनन्त है। निश्चय व्यवहार द्वार-निश्चय से समस्त द्रव्य अपने २ गुणों में प्रवृत होते हैं । व्यवहार में अन्य द्रव्यों की अपने गुण से सहायता देते हैं । जैसे लोकाकाश में रहने वाले समस्त द्रव्य अाकाश अवगाहन में सहायक होते हैं । परन्तु अलोक में अन्य द्रव्य नहीं अतः अवगा. हन में सहायक नहीं होते प्रत्युत अवगाहन में षट्गुण हानि वृद्धि सदा होती रहती है । इसी प्रकार सब द्रव्यों के विषय में जानना। १० नय द्वार-अंश ज्ञान को नय कहते हैं । नय ७ हैं इनके नाम-१ नैगम २ संग्रह ३ व्यवहार ४ ऋजु सूत्र ५ शब्द ६ समभिरूढ और ७ एवं भूत नय, इन सातों नय बालों की मान्यता कैसी है ? यह जानने के लिये जीव द्रव्य ऊपर ७ नय उतारे जाते हैं। १ नैगम नय वाला-जीव कहने से जीवके सब नामोंको ग्र०करे २ संग्रह " - " " जीवके असंख्य प्रदेशों को" ३ व्यवहार " - " " से त्रस स्थावर जीवों को" ४ ऋजुसूत्र" - " " सुखदुख भोगने वाले जी.को" Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्य पर ३१ द्वार | ५ शब्द ६ समभिरूढ " ७ एवं भूत " सकते हैं । 11 >" "1 19 31 क्षायक समकिति जीव " ( ५६२ ) " केवल ज्ञानी " सिद्ध अवस्था के " इस प्रकार सातों ही नय सब द्रव्यों पर उतारे जा " 19 ११ निक्षेप द्वार-निक्षेप ४-१ नाम २ स्थापना ३ द्रव्य और भाव निक्षेप | 11 १ द्रव्य के नाम मात्र को निक्षेप कहते हैं । २ द्रव्य की सदृश तथा असदृश स्थापना की ( आकृति को स्थापना निक्षेप कहते हैं । ३ द्रव्य की भूत तथा भविष्य पर्याय को वर्तमान में कहना सो द्रव्य निक्षेप | 19 ४ द्रव्य की मूल गुण युक्त दशा को भाव निक्षेप कहते हैं पद्रव्य पर ये चारों ही निक्षेप भी उतारे जा सकते हैं । 29 १२ गुण द्वार - प्रत्येक द्रव्य में चार २ गुण हैं । १धर्मास्ति काय में ४ गुण अरूपी, अचेतन, अक्रिय चलनसहा० 11 २ श्रधर्मास्ति " " ३श्राकाशास्ति " " स्थिर " "अवगाहनदान " 19 " चैतन्य, सक्रिय, और उप ४ जीवास्ति काय " योग, ज्ञान, दर्शन, चारित्र और वीर्य Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५६२) थोकडा संग्रह । ५ काल द्रव्य में ४ गुण-अरूपी, अचेतन,अक्रिय वर्तनागुण ६ पुद्गलास्ति में ४" -रूपी, अचेतन, सक्रिय, जीर्ण गलन १३ पर्याय द्वार-प्रत्येक द्रव्य की चार २ पर्याय हैं १ धर्मास्ति० की ४ पर्याय-स्कंध, देश, प्रदेश, अगुरु लघु २ अधर्मास्तिक "" - " " " " ३ श्राकाशास्ति०" " - " " " " ४ जीवास्तिक " " - अव्यावाध, अनावगाह, अमूर्त, " ५ पुद्गलास्ति० " " - वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श ६ काल द्रव्य० " " - भूत, भविष्य, वर्तमान, अगुरु लघु १४ साधारण द्वार-साधारण धर्म जो अन्य द्रव्य में भी पावे, जैसे धर्मास्तिक में अगुरु लघु, असाधारण धर्म जो अन्य द्रव्य में न पावे, जैसे धर्मास्तिकाय में चलन सहाय इत्यादि। १५ साधर्मी द्वार-षट् द्रव्यों में प्रति समय उतपाद व्यय है । क्योंकि अगुरु लघु पर्याय में पट् गुण हानि वृद्धि होती है । सो यह छः ही द्रव्यों में समान है। १६ परिणामी द्वार-निश्चय नय से छः ही द्रव्य अपने २ गुणों में परिणमते हैं । व्यवहार से जीव और पुद्गल अन्यान्य स्वभाव में परिणमते हैं । जिस प्रकार जीव मनुष्यादि रूपसे और पुद्गल दो प्रदेशी यावत् अनन्त प्रदेशी स्कन्ध रूप से परिणमता है। Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षटद्रव्य पर ३१ द्वार। (५६३) १७ जीव द्वार-जीवास्ति काय जीव है । शेष ५ द्रव्य अजीव हैं। १८ मूर्ति द्वार-पुद्गल रूपी है। शेष अरूपी हैं कर्म के साथ जीव भी रूपी है। १६ प्रदेश द्वार-५ द्रव्य सप्रदेशी हैं । काल द्रव्य अप्रदेशी है। धर्म-अधर्म असंख्य प्रदेशी हैं । आकाश ( लोकालोक अपेक्षा ) अनन्त प्रदेशी है । एकेक जीव असंख्य प्रदेशी हैं । अनन्त जीवों के अनन्त प्रदेश है। पुद्गल परमाणु १ प्रदेशी है । परन्तु पुद्गल द्रव्य अनन्त प्रदेशी है। २० एक द्वार-धर्म, अधर्म, आकाश एकेक द्रव्य हैं। शेष ३ अनन्त हैं। २१ क्षेत्र क्षेत्री द्वार-आकाश क्षेत्र है। शेष क्षेत्री हैं । अर्थात् प्रत्येक लोकाकाश प्रदेश पर पाँचों ही द्रव्य अपनी २ क्रिया करते हुवे भी एक दूसरे में नहीं मिलते। २२ क्रिया द्वार-निश्चय से सर्व द्रव्य अपनी २ क्रिया करते हैं । व्यवहार से जीव और पुद्गल क्रिया करते हैं। शेष अक्रिय हैं। .. २३ नित्य द्वार-द्रव्यास्तिक नय से सब द्रव्य नित्य हैं। पर्याय अपेक्षा से सब अनित्य हैं । ब्यवहार नय से जीव, पुद्गल अनित्य हैं । शेष ४ द्रव्य नित्य हैं। २४ कारण द्वार-पांचों ही द्रव्य जीव के कारण हैं। Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५६३) थोकडा संग्रह। परन्तु जीव किसी के कारण नहीं । जैसे-जीव को और धर्मा० कारण मिलने से जीव को चलन कार्य की प्राप्ति होवे । इसी प्रकार दूसरे द्रव्य भी समझना । २५ का द्वार-निश्चय से समस्त द्रव्य अपने २ स्वभाव कार्य के कर्ता हैं । व्यवहार से जीव और पुद्गल कर्ता हैं। शेष अकर्ता हैं। २६ गति द्वार-आकाश की गति ( व्यापकता) लोकालोक में है। शेष की लोक में हैं। २७ प्रवेश द्वार-एक २ आकाश प्रदेश पर पांचों ही द्रव्यों का प्रवेश है । वे अपनी २ क्रिया करते जारहे हैं। तो भी एक दूसरे से मिलते नहीं जैसे एक नगर में ५ मानस अपने २ काय करते रहने पर भी एक रूप नहीं होजाते हैं। २८ पृच्छा द्वार-श्री गौतम स्वामी श्री वीर प्रभु को सविनय निम्न लिखित प्रश्न पूछते हैं। १ धर्मा०के १ प्रदेश को धर्मा०कहते हैं क्या ? उत्तर नहीं ( एवंभूत नयापेक्षा ) धर्मा० काय के १-२.३, लेकर संख्यात असंख्यात प्रदेश,जहां तक धमा० का १ भी प्रदेश बाकी रहे वहां तक उसे धमा०नहीं कह सक्ते सम्पूर्ण प्रदेश मिले हुवे को ही धर्मा० कहते हैं! २ किस प्रकार १ एवंभूत नयवाला थोडे भी टूटे हुवे पदार्थ को पदार्थ नहीं माने, अखण्डित द्रव्य को Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षटूद्रव्य पर ३१ द्वार । ( ५६५ ) ही द्रव्य कहते हैं । इसी तरह सब द्रव्यों के विषय में भी समझना। ३ लोक का मध्य प्रदेश कहां है ? उत्तर रत्न प्रभा १८०००० योजन की है। उसके नीचे २०००० योजन घनोदधि है । उसके नीचे असंख्य योजन धनवायु, असं० यो० तन वायु और असं० यो० आकाश है इस आकाश के असं० भाग में लोक का मध्य भाग है। ४ अधोलोक का मध्य प्रदेश वहाँ है, ? उ० पंकप्रभा के नीचे व आकाश प्रदेश साधिक में । ५ ऊर्ध्व लोक का मध्य प्रदेश कहां है ? उ० ब्रह्म देवलोक के तीसरे रिष्ट परतल में । ६ तिर्छ लोक का मध्य प्रदेश कहां है ? उ० मेरु __ पर्वत के ८ रुचक प्रदेशों में। इसी प्रकार धर्मा०, अधर्मा०, आकाशा० काय द्रव्य के प्रश्नोत्तर समझना, जीव का मध्य प्रदेश ८ रुचक प्रदेशों में है. काल का मध्य प्रदेश वर्तमान समय है। ___ २६ स्पर्शना द्वार-धर्मास्ति काय अधर्मा० लोकाकाश, जीव और पुद्गल द्रव्य को सम्पूर्ण स्पर्शा रहे हैं। काल को कहीं स्पर्श, कहीं न स्पर्शे, इसी प्रकार शेष ४ अस्तिकाय स्पर्श काल द्रव्य २॥ द्वीप में समस्त द्रव्यों को स्पर्श अन्य क्षेत्र में नहीं। ___ Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५६६) थोकडा संग्रह। ३० प्रदेश स्पर्शना द्वार धर्मा० का एक प्रदेश धर्मा० के कितने प्रदेशों को स्पर्श ? ज.३ प्र.उ.६प्र.को स्पर्श " , , , अधर्मा०, , , ,, ,, ? ज.४ प्र.उ.७ प्र.को स्पर्श " , , ,, श्राकाशा०,, ,, , ? ज.७ प्र. उ.७ प्र., ., " ,,जव पुद्गल,, ,, ,, ,, ,, ? अनंत प्रदेशों का स्पर्श " , , काल द्रव्य ,,, , , , ? स्यात् अनन्त स्पर्श स्यात् नहीं एवं अधर्मा० प्रदेश स्पर्शना समझनी। आकाशा० का १ प्रदेश धर्मा० का ज० १-२-३ प्रदेश, उ० ७ प्रदेश को स्पर्श.शेष प्रदेश स्पर्शना धर्मास्तिकायवत् जानना। जीव का १ प्रदेश धर्मा० काज.४ उ.७ प्रदेश को स्पर्शे । पुद्गल० , , , , , , , , , शेष प्र० स्पर्शना काल द्रव्य एकसमय, ,, प्रदेश को स्यात् स्पर्श, धर्मास्तिकाय वत् स्यात् नहीं । पुद्गल० के २ प्रदेश ,, ज० दुगणा से दो अधिक (६) प्रदेश को स्पर्शे पारै उ० पांच गुणे से २ अधिक ५४२-१०४२=१२ प्रदेश स्पर्श इसी प्रकार ३-४-५ जीव अनन्त प्रदेश ज० दुगणे से २ अधिक उ० पांच गुणे से अधिक प्रदेश को स्पर्श । . ३१ अल्प बहुत्व द्वार:-द्रव्य अपेक्षा-धर्म, अधर्म आकाश परस्पर तुल्य है, उनसे जीव द्रव्य अनन्त गुणा, उनसे पुद्गल अनन्त गुणा और उनसे काल अनन्त । प्रदेश- अपेक्षा- सर्व से कम धर्म, अधर्म का प्रदेश उनसे जीव के प्रदेश अनन्त गुणा, उनसे पुद्गल के प्रदेश अनन्त । Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षद्रव्य पर ३१ द्वार। ( ५६७) अनन्त गुण, उनसे काल द्रव्य के प्रदेश अनन्त गुणा, उनसे आकाश-प्रदेश अनन्त गुणा । द्रव्य और प्रदेश का एक साथ अल्पब हुत्व:--सर्व से कम धर्म, अधर्म, आकाश के द्रव्य, उनसे धर्म अधर्म के प्रदेश असंख्यात गुणा । उनसे जीव द्रव्य अनं० उनसे जीव के प्रदेश असं० उनसे पुद्गल द्रव्य अनं० उनले ५० प्रदेश प्रसं०, उनसे काल के द्रव्य प्रदेश अनं, उन से आकाश प्रदेश अनन्त गुणा । ॥ इति षद् द्रव्य पर ३१ द्वार सम्पूर्ण ॥ Homeo Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५६८) थोकडा संग्रह। - चार ध्यान ध्यान के ४ भेद-आत, सेंद्र, धर्म और शुक्ल ध्यान (१) बात ध्यान के ४ पाये.-१मनोज्ञ वस्तु की अभिलाषा करे । २ अमनोज्ञ वस्तु का वियोग चिंतवे । ३ रोगादि अनिष्ट का वियोग चिंतये ४ पर भव के सुख निमित नियाणा करे। आर्त ध्यान के ४ लक्षण १चिंता शोक करना २ अश्रुपात करना ३ प्राकन्द (विलाप ) शब्द करके रोना ४ छाती माथा ( मस्तक ) आदि कूटकर रोना । (२) रौद्र ध्यान के ४ पाये-हिंसामें, झूठ में, चोरी में, कारागृह में कसाने में आनन्द मानना ( य पाप करके व कराकर के प्रसन्न होना )। रौद्र ध्यान के ४ लक्षण- १ तुच्छ अपराध पर चहुत गुस्सा करना, द्वेष करना ४ बड़े अपराध पर अत्यन्त क्रोध द्वेष करे । ३ अज्ञानता से द्वेष करे और ४ जावजीव तक द्वेष रक्खे । (३) धर्म ध्यान के ४ पाये-१वीतराग की आज्ञा का चितवन करे २ कर्म पाने के कारण ( भाव ) का विचार करे ३ शुभाशुभ कर्म विपाक को विचारे ४ लोक संस्थान (आकार ) का विचार करे । धर्म ध्यान ४ लक्षण-१ वीतराग प्राज्ञा की रुचि Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चार ध्यान । ( ५६६) २ निःसर्ग ( ज्ञान से उत्पन्न ) रुचि ३ उपदेश रुचि ४ सूत्र-सिद्धान्त-आगम रुचि । धर्म ध्यान के ४ अवलम्बन-बांचना, पृच्छना परावर्तना और धर्म कथा। .. धर्म ध्यान की ४ अनुप्रेक्षा-१एगचाणुपेहा जीव अकेला आया, अकेला जायंगा एवं जीव के अकेले पन ( एकत्व ) का विचार । २ अणिचाणु पेहा संसार की अनित्यता का विचार ३ असरणाणु पेहा संसार में कोई किसी को शरण देने वाला नहीं, इसका विचार और ४ संसाराणुपेहा संसार की स्थिति ( दशा का विचार करना। (४) शुक्ल ध्यान के ४ पाये-१ एक एक द्रव्य में भिन्न भिन्न अनेक पर्याय-उपनवा, विन्हेवा, धुवेवा, आदि भावों का विचार करना २ अनेक द्रव्यों में एक भाव (अगुरु लघु आदि) का विचार करना । ३ अचलावस्था में तीनों ही योगों का निरोध करना (रोकना) ३ चौदहवें गुणस्थानक की सूक्ष्म क्रिया से भी निवर्तन होने का चितवना। शुक्ल ध्यान के ४ लक्षण-१देवादि के उपसर्ग से चलित न होवे २ सूक्ष्म भाव ( धर्म का ) सुन ग्लानि न लावे । ३ शरीर-आत्मा को भिन्न २ चिंतवे और ४ शरीर को अनित्य समझ कर व पुद्गल को पर वस्तु जानकर इनका त्याग करे। ___ Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५७०) थोकडा संग्रह। शुक्ल ध्यान के ४ अवलम्बन-१ क्षमा २ निर्लोभता ३ निष्कपटता ४ मदरहितता । शुक्ल ध्यान की ४ अनुप्रेक्षा-१ इस जीव ने अनन्त वार संसार भ्रमण किया है ऐसा विचारे २ संसार की समस्त पौगलिक वस्त अनित्य है। शुभ पुद्गल अशुभ रूपसे और अशुभ शुभ रूप से परिणमते हैं, अतः शुभाशुभ पुद्गलों में आसक्त बन कर गग द्वेष न करना ३ संसार परिभ्रमण का मूल कारण शुभ कर्भ है कम बन्ध का मूल कारण ४ हेतु हैं। ऐसा विचारे । ४ कर्म हेतुओं को छोड़ कर स्वसत्ता में रमण करने का विचार करना. ऐसे विचारों में तन्मय ( एक रूप ) हो जाने को शुक्ल ध्यान कहते हैं। ॥ इति ४ ध्यान सम्पूर्ण ॥ Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आराधना पद। (५७१) Free आराधना पद श्री भगवतीजी सूत्र, शतक ८ उद्देशा १० श्राराधना ३ प्रकार की-ज्ञान की, दर्शन (समकित) की और चारित्र की आराधना । ज्ञानाराधना-उ० १४ पूर्व का ज्ञान, मध्यम ११ अंग का ज्ञान, ज०८ प्रवचन का ज्ञान । दर्शनाराधना-उ० क्षायक समकित, मध्यम क्षयो. पशम समकित ज० सास्वादान समकित ।। चारित्राराधना-उ० यथाख्यात चारित्र, मध्यम परिहार विशुद्ध चारित्र, ज. सामायिक चारित्र । उ० ज्ञान आ० में दर्शन आ० दो ( उत्कृष्ट और मध्यम) उ. " " चारित्र " " ( " ") उ. दर्शन" " " तीन (ज० म० उ०) उ." " ज्ञान " " ( " ) उ. चारित्र" " " " ( " उ. " " दर्शन ॥ " ( " ) उ. ज्ञान " वाला ज० १ भव करे, उ० २ भव करे म० " " " २ " " " ३ " " ज०" " "३" " " १५ " " दर्शन और चारित्र की आराधना भी ऊपर अनुसार। Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५७२ ) थोकडा संग्रह। avvv जीवों में ज्ञान, दर्शन और चारित्र की आराधना उत्कृष्ट, मध्यम, और जघन्य रीति से हो सक्ती है । इस पर निम्न लिखित १७ भांगा (प्रकार ) हो सक्ते है। (इनके चिह्न-उ० ३, म० २, ज० १, समझना, __क्रम-ज्ञान, दर्शन, चारित्र समझना) ३-३-३ २-३-२ २-१-२ १-३-१ ३-३-२ २-३-१ २-१-१ १-२-२ ३-२-२ २-२-२ १-३-३ १-२-१ २-३-३ -२-१ १-३-२ १-१-२ १-१-१ * इति आराधना पद सम्पूर्ण Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विरह पद । ( श्री पन्त्रवणाजी सूत्र, ६ ठा० पद ) ज० विरह पड़े ९ समय का, उ० विरह पड़े तो समुच्य ४ गति, संज्ञी मनुष्य और संज्ञी तिर्यच में १२ मुहूर्त का १ली नरक, १० भवनपति, वाण व्यन्तर, ज्योतिषी, १-२ देवलोक और असंज्ञी मनुष्य में २४ मुहूर्त का दूसरी नरक में ७ दिन का, तीसरी नरक में १५ दिन का, चौथी नरक में १ माह का, पांचवी नरक में २ माह का, छडी में ४ माह का और सातवी नरक में, सिद्ध गति तथा ६४ इन्द्रों में विरह पड़े तो ६ माह का | तीसरे देवलोक में ६ दिन २० मुहूर्त का, चौथे देवलोक में पांचवें २२ १५ सातवें ६-१० 59 ॐ बिरह पद 99 $1 ॐ छठे ८० " का आठवें १०० सैकड़ों माह का ११-१२ सैकड़ों वर्षो का 91 " 19 " १ ली त्रिक में सं० सैंकड़ों वर्षों का, दूसरी त्रिक में सं० हजारों वर्षों का तीसरी लाखों चार अनुत्तर विमान में पल्य के श्रसंख्यातवें भाग का और सर्वार्थ सिद्ध में पल्य के संख्यातवें भाग का विरह पड़े । 19 19 ( ५७३ ) 99 १२ दिन १० ४५ दिन मु० ५ स्थावर में विरह नहीं पड़े, ३ विकलेन्द्रिय और श्रसंज्ञी तिर्येच में अन्तर्मुहूर्त का विरह पड़े चन्द्र सूर्य ग्रहण का विरह पड़े तो ज० ६ माह का उ० चन्द्र का ४२ माह का और सूर्य का ४८ वर्ष का पड़े भरत क्षेत्र में साधु साध्वी, श्रावक, श्राविका का विरह पड़े तो ज० ६३ Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ T५७४) थोकडा संग्रह। AAAANNA हजार वर्ष का और अरिहंत, चक्रवर्ती, वासुदेव, बलदेवों का० ज० ८४ हजार वर्ष का, उ० देश उणा १८ कोड़ाक्रोड़ सागरोपम का विरह पड़े। ॐ इति विरह पद सम्पूर्ण Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संज्ञा पद । ( ५७५) wwwwwwwwwom v wwwvvvvvvvvvvvvvvvvvw संज्ञा पद (श्री पन्नवणा सूत्र, आठवां पद ) संज्ञा-जीदों की इच्छा संज्ञा १० प्रकार की है। आहार, भय, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ, लोक और ओघ संज्ञा । आहार संज्ञा-४ कारण से उपजे-१ पेट खाली होने से २ क्षुधा बेदनीय के उदय से ३ आहार देखने से ४ आहार की चिंतवना करने से । भय संज्ञा-४ कारण से उपजे-१ अधैर्य रखने से २ भय मोह के उदय से ३ भय उत्पन्न करने वाले पदार्थ देखने से ४ भय की चिंतवना करने से। __ मैथुन संज्ञा ४ कारण से उपजे-१ शरीर पुष्ट बनाने से २ वेद मोह के कर्मोदय से ३ स्त्री आदि को देखने से ४ काम भोग का चितवन करने से । परिग्रह संज्ञा ४ कारण से उपजे-१ ममत्व बढाने से २ लोभ मोह के उदय से ३ धन संपति देखने से ४ धन परिग्रह का चितवन करने से । ऋघ, मान माया, लोभ संज्ञा ४ कारण से उपजे-१ क्षेत्र (खुली जमीन ) के लिये २ वत्थु ( ढंकी हुई जमीन मकानादि ) के लिये, ३ शरीर- उपाधि के लिये ४ धन्य धान्यादि औषधि के लिये । Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थोकडा संग्रह | लोक संज्ञा - श्रन्य लोगों को देख कर स्वयं वैसा ( ५७६ ) ही कार्य करना । ओघ संज्ञा - शून्य चित्त से विलाप करे, घास तोड़े प्रथ्वी ( जमीन ) खोदे आदि । नरकादि २४ दण्डक में दश दश संज्ञा होवे । किसी में सामग्री अधिक मिल जाने से प्रवृति रूप से है । किसी में सत्ता रूप से है, संज्ञा का अस्तित्व छठे गुणस्थान तक है । इनका अल्पबहुत्व आहार, भय, मैथुन, और परिग्रह संज्ञा का अल्प बहुत्व नारकी में सर्व से कम मैथुन, उस से आहार सं० उस से परिग्रह सं० भय सं०, संख्या० गुणी | तिर्यच में सर्व से कम परिग्रह उससे मैथुन सं० भय सं०, आहार संख्या० गुणी । मनुष्य में सर्व से कम भय उससे व्याहार सं०, परि ग्रह सं०, मैथुन संख्या० गुणी । देवता में सर्व से कम आहार उस से भय सं०, मैथुन सं०, परिग्रह संख्या० गुणी । क्रोध, मान, माया और लोभ संज्ञाका अरूप बहुत्व नारकी में सर्व से कम लोभ, उससे माया सं० मान सं० क्रोध संख्या ० गुणी । तिर्थच में सर्व से कम मान; उस से क्रोध विशेष; माया विशेष लोभ विशेष अधिक। Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संज्ञा पद । ( ५७७ ) मनुष्य में सर्व से कम मान उस से क्रोध विशेष, माया विशेष लोभ विशेष अधिक । देवता में सर्व से कम क्रोध उस से मान संज्ञा, माया संज्ञा, लोभ संख्या ० गुणी । ॥ इति संज्ञा पद सम्पूर्ण ॥ 36 *1-09-1१ Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५७८) थोकडा संग्रह। * बेदना-पद * (श्री पन्नवणाजी सूत्र ३५ वां पद ) जीव सात प्रकार से वेदना वेदे-१ शीत २ द्रव्य ३ शरीर ४ शाता ५ असाता(दुख) ६ अभूगीया ७ निन्दा द्वार। १ वेदना३ प्रकार की--शीत, उष्ण और शीतोष्ण समुच्चय जीव ३ प्रकार की वेदना वेदे । १..२-३ नारकी में उष्ण वेदना वेदे। कारण नेरिया शीत ये निय! हैं)। चौथी नारकी ( नरक ) में उष्ण वेदना के वेदक अनेक (विशेष), शीत वेदना वाला कम । (दो वेदका) पाचवी नारकी में उष्ण वेदना के वेदक कम, शीत वेदना के वेदक विशेष । छठ्ठी नरक में शीत वेदना और सातवीं नरक में महाशीत वेदना है शेष २३ दण्डक में तीनों ही प्रकार की वेदना पावे । २ वेदना चार प्रकार की द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से । समुच्चय जीव और २४ दण्डक में चार प्रकार की वेदना वेदी जाती है। द्रव्य वेदना=इष्ट अनिष्ट पुगलों की वेदना । क्षेत्र वेदना नरकादि शुभाशुभ क्षेत्र की वेदना । काल वेदना: शीत उष्ण काल की वेदना । भाव वेदना मंद तीव्र रस (अनुभाग) की। Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेदना-पद । ( ५७६ ) ३ वेदना तीन प्रकार की - शारीरिक, मानसिक और शारीरिक-मानसिक । समुच्चय जीव में ३ प्रकार की वेदना । संज्ञी के १६ दण्डक में ३ प्रकार की । स्थावर, ३ विश्लेन्द्रिय में १ शारीरिक वेदना । ४ वेदना ३ प्रकार की - शाता, अशाता और शाताअशाता । समुच्चय जीव और २४ दण्डक में तीनों ही वेदना होती है । ५ वेदना ३ प्रकार की - सुख, दुख और सुख-दुख समुच्चय और २४ दण्डक में तीन ही प्रकार की वेदना वेदी जाती है । ६ वेदना २ प्रकार की - उदीरणा जन्य ( लोच तपश्चर्यादि से ;; २ उदय जन्य ( कर्मोदय से ) तिर्यच पंचेन्द्रिय और मनुष्य में दोनों ही प्रकार की वेदना; शेष २२ दण्डक में उदय जन्य ( औपक्रमीय ) वेदना होवे । ७ वेदना २ प्रकार की निंदा और अनिंदा | नारकी, १० भवनपति और व्यन्तर एवं १२ दण्डक में दो वेदना | संज्ञी निंदा वेदे । श्रसंज्ञी निंदा वेदे । ( संज्ञी सज्ञी मनुष्य, तिर्यच में से मर कर गये इस अपेक्षा समझना ) | - पांच स्थावर, ३ विकलेन्द्रिय अनिंदा वेदना वेदे ( संज्ञी होने से ) । तिर्येच पंचेन्द्रिय और मनुष्य में दोनों प्रकार की वेदना, ज्योतिषी और वैमानिक में दोनों Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५८० ) थोकडा संग्रह। प्रकार की वेदना । कारण कि दो प्रकार के देवता हैं। १ अमायी सम्यक दृष्टि निंदा वेदना वेदते हैं। २ मायी मिथ्यादृष्टि-अनिंदा वेदना वेदते हैं । * इति वेदना पद सम्पूर्ण * Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समुद्धात-पद। ( ५८१) - समुद्घात-पद:-- (श्री पन्नवणाजी सूत्र ३६ वाँ पद ) जीव के लिये हुवे पुद्गल जिस जिस रूप से परिणमते हैं उन्हें उस उस नामसे बताया गया है । जैसे कोई पुद्गल वेदनी रूप परिणमे, कोई कषाय रूप परिण में, इन ग्रहण किये हुवे पुद्गलों को सम और विषम रूप से परिणम होने को समुद्घात कहते हैं। .. १ नाम द्वार-वेदनी, कषाय, मरणान्तिक, वैक्रिय तेजस, पाहारिक और केवली समुद्घात । ये सात समुद्र घात २४ दण्डक ऊपर उतारे जाते हैं। समुच्चय जीवों में ७ समु०, नारकी में ४ समु. प्रथम की, देवता के १३ दण्डक में ५ समुद्घात प्रथम की, वायु में ४ समु० प्रथम की, ४ स्थावर ३ विकलेन्द्रिय में ३ समु० प्रथम की, तिर्यंच पंचेन्द्रिय में ५ प्रथम की, मनुष्य में ७ समुद्धात पावे । २ काल द्वार-६ समु० का काल असंख्यात समय और केवली समुद्घात का काल - समय का । (३) २४ दण्डक एकेक जीव की अपेक्षा-वेदनी, कषाय , मरणान्ति क, चौक्रिय और तैजस समु० २४ दण्डक में एक एक जीव भूतकाल में अनन्ती करी और भविष्य Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५८२) थोकडा संग्रह। में कोई करेगा, कोई नहीं करेगा । करे तो १..२-३ वार संख्यात, असंख्यात और अनन्त करेगा। अहारिक समु० २३ दण्डक में एकेक जीव भूत काल में स्यात् करे, स्यात् न करे । यदि करे तो १-२.३ वार, भविष्य में जो कर तो १..२.-३..४ वार करेगा । मनुष्य दण्डक के एकेक जीव भूत काल में की होवे तो १-२-- ३-४ वार की, शेष पूर्व क्त । केवली समु० २३ दण्डक के एकेक जीव भूतकाल में करे तो १ वार करेगा । मनुष्य में की होवे तो भूत में १ वार, व भविष्य में भी एक वार करेगा। ४ अनेक जीव अपेक्षा २४ दण्डक-पांच (प्रथम की) समु० २४ दण्डक के अनेक जीवों ने भूतकाल में अनन्ती करी भविष्य में अनन्ती करेगा। ___ आहारिक समु० २२ दण्डक के अनेक जीव आश्री भूतकाल में असंख्याती करी और भविष्य में असंख्याती करेगा वनस्पति में भूत भविष्य की अनन्ती कहनी मनुष्य में भूत-भविष्य की स्यात् संख्याती, स्यात् असंख्याती कहनी। ___ केवली समु० २२ दण्डक में भूतकाल में नहीं भविष्य में असंख्याती करेगा, वन पति में भूतकाल में नहीं करी भविष्य में अनन्त करेगा मनुष्य के अनेक जीव भूत में करी हो तो १.२-३ उ० प्रत्येक सौ वार Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समुद्ध त-पद। (५८३) भविष्य में स्य त संख्याती स्यात् असंख्याती करेगा। ५ परस्पर की अपेक्षा २४ दण्डक-एक एक नेरिया भूतकाल में नेरिया रूप में अनन्ती वंदनी समु० करी भविष्य में कोई करेगा, कोई नहीं करेगा, जो करेगा तो १.२.३ संख्याती, असंख्याती अनंती करेगा एवं एकेक नेरिया, असुर कुमार रूप में यावत् वैमानिक देव रूप से कहना। एकेक असुर कुमार रूप में वेदनी समु. भूतकाल में अनन्ती करी, भविष्य में करे तो जाव अनंती करेगा असुर कुमार देव असुर कुमार रूप में वेदनी समु० भूत में अनंती करी, भविष्य में करे तो १.२-३ जाव अनंती करेगा एवं वैमानिक तक कहना और ऐसे ही २४ दण्डक में समझना । कषाय समु० एकेक नेरिया नेरिया रूप से भूत में अनंती करी भविष्य में करे तो १-२-३ जाव अनंती करंगा एकेक नरिया असुर दुमार रूप से भूतकाल में अनंती करी भविष्य में करे तो संख्याती, असंख्याती, अनंती करेगा ऐसे ही व्यन्तर, ज्योतिषी, वैमानिक रूप से भी भविष्य में करे तो असंख्याती व अनंती करेगा। - उदारिक के १० दण्डक में भूतकाल में अनंती करी भविष्य में करे तो १-२-३ जाव अनंती करे एवं भवनपति का भी कहना। Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५८४) थोकडा संग्रह। एकेक पृथ्वी काय के जीव नारकी रूप से कषाय समु० भूत काल में अनंती करी और भविष्य में करेगा तो स्यात् संख्याती, असंख्याती, अनंती करेगा एवं भवन पति, व्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक रूप से भी भविष्य में असंख्याती, अनंती करेगा उदारिक के १० दण्डक में भविष्य में स्यात् १.२-३ जाव संख्याती, असंख्याती, अनंती करेगा । एवं उदारिक के १० दण्डक, व्यन्तर, ज्योतिषी, वैमानिक असुर कुमार के समान समझना ! एकेक नेरिया नेरिये रूप से मरणांतिक समु० भूत में अनंती करी, भविष्य में जो करे तो १-२-३ संख्याती जाव अनंती करेगा एवं २४ दण्डक कहना परन्तु स्वस्थान परस्थान सर्वत्र १.२.३ कहना, कारण मरणांतिक समु० एक भव में एक ही बार होती है। एकेक नेरिया नेरिये रूप से वैक्रिय समु० भूत काल में अनंती करी, भविष्य में जो करे तो १.२.३ जाव अनंती करेगा । ऐसे ही २४ दण्डक, १७ दण्डक पने कषाय समु० समान करे सात दण्डक (४ स्थावर ३ विकले. न्द्रिय ) में वैक्रिय समु० नहीं । ___ एकेक नेरिया नेरिये रूप से तैजस समु० भूत में नहीं करी, भविष्य में नहीं करेगा। ___ एकेक नेरिया असुर कुमार रूप से भूत काल में Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समुद्धात-पद। ( ५८५) तैजस समु० अनंती करी और भविष्य में करे तो १-२-३ जाव अनंती करेगा एवं तैजस समु०१५ दण्डक में मरणांतिक अनुसार। । आहारिक समु० मनुष्य सिवाय २३ दण्डक के जीवों ने अपने तथा अन्य २३ दण्डक रूप से नहीं करी और न करेगें, एकेक २३ दण्डक के जीव ने मनुष्य रूप से आहारिक समु० जो करी हो तो १.२.३ और भविष्य में जो करे तो १-२-३-४ वार करेंगे। केवली सा० मनुष्य सिव य २३ दण्डक के जीवों ने अपने तथा अन्य २३ दण्डक रूप से भून काल में नहीं करी और न भविष्य में करेंगे, मनुष्य रूप से भूत काल में नहीं की और भविष्य में करें तो १ वार करेंगे । एकेक मनुष्य २३ दण्डक रूपसे केवली समु० करी नहीं और करेंगे भी नहीं । एकेक मनुष्य मनुष्य रूप से केवली समु० करी होवे तो १ चार और करेंगे तो भी १ वार । ६ अनेक जीव परस्पर:-अनेक नेरियों ने नेरिये रूप से वेदनीय समु० भूत में अनंती करी, भविष्य में अनंती करेगें एवं २४ दण्डकों का समझना । शेष २३ दण्डक में भी नारकी चत् । बेदनी के समान ही कषाय, मरणांतिक, वैक्रिय और तैजस समु० का समझना परन्तु वैक्रिय समु० १७ दण्डक में और तैजस समु० १५ दण्डक में कहनी। Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४८६ ) थोकडा संग्रह | अनेक नेरिये २३ दण्डक ( मनुष्य सिवाय ) रूप से आहा० समु० न की, न करेंगें, मनुष्य रूप से भूतकाल में असं की, भविष्य में असं० करेगें । एवं २३ दएडक ( वनस्पति सिवाय ) रूप से भी समझना । वनस्पति में अनंती कहनी | ● एकेक मनुष्य २३ रूप से आहा० समु० की नहीं और करेगें भी नहीं । मनुष्य रूप से भूत काल में स्वात् सेख्याती, स्यात् श्रसंख्याती की और भविष्य में भी करें तो स्यात् संख्या०, स्यात् असं० करेगें । अनेक नरकादि २३ दण्डक के जीवों ने अनेक नरकादि २३ दण्डक रूप से केवली समु० की नहीं और करेंगे भी नहीं मनुष्य रूप से की नहीं, जो करे तो संख्या ० सं० करेगें । अनेक मनुष्यों ने ६३ दण्डक रूप से केवली समु० की नहीं, व करेगें भी नहीं । और मनुष्य रूप से की होने तो स्यात् संख्याती की | भविष्य में करें तो स्यात् संख्याती, स्यात् श्रसंख्याती करेगें । ( ७ ) अल्प बहुत्व द्वार । नरक का अल्प बहुत्व १ सर्व से कम मर०स वाले १ सर्व से कम श्राहा, समु. वाले २ उनसे वैक्रिय समु. अ. गु. २ के वली समु. वाले सख्या, गुणा रे, कपाय, संख्या. " समुच्चय अल्प बहुत्व Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समुद्धात-पद | ३ तैजस ४ वैक्रिय ५ मरणांतिक " " ܕܪ ܕܕ ६ कषाय ७ वेदनी 91 19 ८ श्रसमोहिया, " " " १ सर्व से २ उनसे ३, ४ " "" 59 39 " " ३ तैजस ४, वैक्रिय ५, मरणांतिक,,,, ६,, वेदनी असंख्य,, ४, वेदनी ७ कषाय " ८,, समोहिया " अनंत असं० विशेष असं. मनुष्य का अल्प बहुत्व १ सर्व सेकम आहा. समुं. वाले २ उनसे के, समु, संख्या, गुणा संख्या. " " " ,,, संख्या. " " " " संख्या. " असं. वेदनी श्रसमोहिया 11 " ܕ 19 ५, श्रसमो. 17 19 99 19 ,, देवता का अल्प बहुत्व १ सर्व से कम तै. समु. वाले " २ उनसे मर. स. वाले . गु. ३,, वेदनी समु, वाले, " ܙܐ ܙ ܕܕ ܕ ܕܕ 11 (५८७ ) 19 19 "" www.A ४, कषाय,,,” संख्या." ५, वैक्रिय ६,, असमोहिया,,,,,,,, " " " " तिर्यंच पंचेद्रिय का अ.ब. १ सर्व से कम तै. समु.वाले २ उनसे वै. समु.वाले अ. गु ५ कपाय , ६. श्रसमो. पृथ्व्यादि ४ स्था० का अल्प बहुत्व कम मरणांतिक समु० वाले कषाय समु० वाले संख्या० गुणा विशेषाइया असंख्या ० ३,, मरणांतिक ,” ” ” ” """" ४, वेदनी """" 19 93 35 97 " "" " "3 Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५८८) थोकडा संग्रह। वायु काय का अल्प बहुत्व १ सर्व से कम वैक्रिय समु० वाले २ उनसे मरणांतिक समु० वाले असं. गुणा ३, कषाय० , संख्या, ४, वेदनी , विशेषडया ५ ,, असमोहिया , असं० गुणा विकलेन्द्रिय का अल्प बहुत्व १ सर्व से कम मरणांतिक समुद्घात वाले २ उनसे वेदनी समुद्घात:वाले असंख्यात गुणा ३,, कषाय , संख्यात , ४,, असमोहिया , ,, असंख्यात , ॥ इति समुद्घात पद सम्पूर्ण ॥ POOR Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपयोग पद। ( ५८६) - उपयोग पद - ( श्री पन्नवणाजी सूत्र २६ वां पद) उपयोग २ प्रकार का-१ साकार उपयोग २ निराकार उपयोग १ साकार उपयोग के ८ भेदः- ५ ज्ञान ( मति, श्रुत, अवधि, मनः पर्यव और केवल ज्ञान) और ३ अज्ञान ( मति, श्रुत, अज्ञान, विभंग ज्ञान ) अनाकार उप० ४ प्रकार का-चक्षु, अचक्षु, अवधि और दर्शन २४ दण्डक में कितने २ उपयोग पाये जाते हैंदण्डक नाम उपयोग आकार अनाकार समुच्चय जीवों में २ १ नारकी में १३ देवता में ५ स्थावर में १ बेइन्द्रिय में १ तेइन्द्रिय में १ चौरेन्द्रिय में १ तिर्यंच पंचेन्द्रिय में २ १ मनुष्य में * इति उपयोग पद सम्पूर्ण * ___tak م w w س s ع م 0 wwar or or narro ل 0 م x w n Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५६०) थोकडा संग्रह। उपयोग अधिकार ( श्री भगवतीजी सूत्र शतक १३ उद्देशा १-२) उपयोग १२-५ ज्ञान, ३ अज्ञान और ४ दर्शन एवं १२ उपयोग में से जीव किस गति में कितने साथ ले जाते हैं, व लात हैं इसका वर्णन (१) १-२-३ नरक में जाते समय ८ उपयोग (३ ज्ञान, ३ अज्ञान, २ दर्शन-अचक्षु और अवधि ) लेकर अावे और ७ उपयोग लेकर (ऊपर में से विभंग छोड़ कर ) निकले ४.५.६ नरक में ८ उपयोग (ऊपरवत) लेकर आवे और ५ उपयोग (२ ज्ञान २ अज्ञान १ अचक्षु दर्शन ) लेकर निकले ७ वीं नरक में ५ उपयोग (३ ज्ञान २ दर्शन ) लेकर आवे और ३ उपयोग ( २ अज्ञान १ अचक्षु दर्शन ) लेकर निकले। (२) भवनपति, व्यन्तर, ज्योतिषी देव में ८ उपयोग (३ ज्ञान ३ अज्ञान २ दर्शन) लेकर आवे और ५ उपयोग (२ ज्ञान २ अज्ञान १ अचक्षु दर्शन ) लेकर निकले १२ दवलोक ग्रीयवेक में ८ उपयोग लेकर आवे और ७ उपयोग (विभंग ज्ञान छोडकर ) लेकर निकले अनुत्तर विमान में ५ उपयोग (३ ज्ञान २ दर्शन) लेकर भावे और येही ५ उपयोग लेकर निकले। Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपयोग अधिकार । ( ५११) mannanna (३) ५ स्थावर में ३ उपयोग (२ अज्ञान १ दर्शन) लेकर आवे और ३ उपयोग लेकर निकले ३ विकलेन्द्रिय में ५ उपयोग ( २ ज्ञान २ अज्ञान १ दर्शन ) लेकर आये और ३ उपयोग (२ अज्ञान १ दर्शन ) लेकर निकले, तिर्यच पंचेन्द्रिय में ५ उपयोग लेकर अावे और ८ उपयोग लेकर निकले मनुष्य में ७ उपयोग (३ ज्ञान २ अज्ञान २ दर्शन ) लेकर आवे और ८ उपयोग लेकर निकले सिद्ध में केवल ज्ञान, केवल दर्शन लेकर आवें और अनंत काल तक आनन्दघन रूप से शाश्वता विराजमान होवे । ॐ इति उपयोग अधिकार सम्पूर्ण * Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२) । थोकडा संग्रह। I nd--- नियंठा निग्रंथों पर ३६ द्वार-भगवती सूत्र शतक २५ उद्देशा छठा-१ पनवणा ( प्ररूपणा )२ वेद ३ राग ( सगगी) ४ कल्प ५ चारित्र ६ पडिसेवन (दोष सेवन) ७ ज्ञान ८ तीर्थ : लिंग १० शरीर ११ क्षेत्र १२ काल १३ गति १४ संयम स्थान १५ ( निकासे ) चारित्र पर्याय १६ योग १७ उपयोग १८ कषाय १६ लेश्या २० परि. णाम (३) २१ बन्ध २२ बेद २३ उदीरणा २४ उपसंपझाण (कहां जाये ?) •५ संन्नाबहुत्ता २६ श्राहार २७ भव २८ आगरेस ( कितनी वार श्रावे?) २६ काल स्थिति ३० आन्तरा ३१ समुद्घात ३२ क्षेत्र (विस्तार ) ३३ स्पर्शना ३४ भाव ३५ परिणाम (कितने पावे ?) और ३६ अल बहुत्व द्वार । १ पन्नवणा द्वार-निग्रंथ ( साधु ) ६ प्रकार के प्ररूपे गये हैं यथा-१ पुलाक २ वकुश ३ पडिसेवणा (ना) ४ कषय कुशील ५ निग्रंथ ६ स्नातक । १ पुलाक-चावल की शाल समान जिसमें सार वस्तु कम और भूसा विशष होता है । इसके दो भेद-१ लब्धि पुलाक कोई चक्रवर्ती आदि किसी जैन मुनि की अथवा जिन शासन आदि की अशातना करे तो उसकी सेना आदि को चकचूर करने के लिये लब्धि का प्रयोग करे Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियंठा । ( ५६३) उसे पुलाक लब्धि कहते हैं । २ चारित्र पुलाक. इसके ५ भेद-ज्ञान पुलाक, दर्शन पुलाक, चारित्र पुलाक, लिं । पुलाक (अकारण लिंग-चेष बदले ) और अह सुहम्म पुलाक ( मन से भी अकल्पनीय वस्तु भोगने की इच्छा करे ।) वकुश-खले में गिरी हुई शाल वतु इसके ५ भेद१ आभोग ( जान कर दोष लगावे ) २ अनाभोग ( अजानता दोष लगे ) संबुड़ा (प्रकट दोष लगे )४ असंबुडा ( गुप्त दोष लगे) ५ अहासुहम्म ( हाथ मुंह धोवे, कजज प्रांजे इत्यादि) ३ पडिसेवण- शाल के उफने हुवे खले के समान इसके ५ भेदः- १ शान २ दर्शन ३ चारित्र में अतिचार लगावे ४ लिंग बदले ५५ करके देवादि की पदवी की इच्छा करे। ४ कषाय कुशील- फोंतरे वाली-कचरे विना की शाल समान इसके ५ भेद-१ ज्ञान २ दर्शन ३ चारित्र में क.पाय करे ४ कषाय कर के लिंग बदले ५ तप करके कषाय करे। ५ निग्रंथ-फोतरे निकाली हुई व खण्डी हुई शाल. वत् इसके ५ भेद-१ प्रथम समय निग्रंथ (दशवें गुण० से ११ वें तथा १२ वें गुण० पर चढ़ता प्रथम सभयका) २ अप्रथम समय निग्रंथ ( ११-१२ गुण० में दो समय से Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थोडा संग्रह | अधिक हुवा हो ) ३ चरम समय ( एक समय छद्मस्थपन का बाकी रहाहो ) अचरम समय ( दो समय से अधिक समय जिसकी छद्मस्थ अवस्था बाकी बची होवे ) और ५ हाम्म निर्बंध (सामान्य प्रकारे वर्ते) ६ स्नातक - शुद्ध, अखण्ड, चावल समान, इसके ५ भेद. १ अच्छवी (योग निरोध ) २ असले ( सबले दोष रहित ) ३ कम्मे (घातिकर्म रहित ) ४ संयुद्ध ( केवली ) और ५ अपरिस्सवी ( श्रबंधक ) २ वेद द्वार - १ पुलाक पुरुष बेदी और नपुंसक वेदी २ वकुश पु० स्त्री० नपुं० वेदी ३ पडिसेवण । - तीन वेदी ४ कषाय - कुशील तीन वेदी और श्रवेदी ( उपशान्त तथा क्षीण ) ५. निर्ग्रथ प्रवेदी ( उपशान्त उथा क्षीण ) और ६ स्नातक क्षीण अवेदी होवे । * ३ रागद्वार - ४ निर्ग्रथ सरागी, निर्ग्रथ ( पांचवाँ ) वीतरागी ( उपशान्त तथा क्षीण ) और स्नातक क्षीण वीतरागी होवे । ४ कल्प द्वार - कल्प पांच प्रकार का ( स्थित, अस्थित, स्थिवर, जिन वल्प और कल्पातीत ) पालन होता हैं । इसके १० भेद ( प्रकार ) – १ अचेल, २ उद्देशी, ३ राज पिंड, ४ सेज्जान्तर, ५ मास कल्प, ६ चोमासी कन्प, ७ व्रत, ८ प्रतिक्रमण कीर्ति धर्म १० पुरुषा ज्येष्ट | Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियंठा। ( ५६५) एवं १० कल्पों में से प्रथम का और अन्तका तीर्थ. कर के शासन में स्थित कल्प होते हैं शेष २२ तीर्थकर के शासन में अस्थित कल्प हैं उक्त १० कल्पों में से ४.७ ६.१० एवं ४ स्थित कल्प हैं और १२.३-५.६.८ स्थित कल्प है। स्थिवर कल्प-शास्त्रोक्त वस्त्र-पात्रादि रक्खे । - जिन कल्पज. २ उ. १२ उपकरणं रक्खे । वल्पातीत केवली, मनः पर्यव, अवधि ज्ञानी, १४ पूर्व धारी, १० पूर्व धारी, श्रुत केवली और जातिस्मरण ज्ञानी । पुलाक-स्थित, अस्थित और स्थिवर करपी होवे । वकुश और पडिसेवणा नियंठा में कल्प ४, स्थित, अस्थित, स्थिवर और जिन कल्पी। कपाय कुशील में ५ कल्प-ऊपर के ४ और कल्पातीत निग्रंथ और स्नातक-स्थित, अस्थित और कल्पातीत में होवे। ५चरित्र द्वार-चारित्र ५ हैं । सामायिक २ छेदोपस्थापनीय ३ परिहार विशुद्ध ४ सूक्ष्म संपराय ५ यथाख्यात पुलाक, वकुश, पडिसेवणा में प्रथम दो चारित्र । कषाय-कुशील में ४ चारित्र और निग्रंथ, स्नातक में यथाख्यात चारित्र होवे । . ६ पडिसेवण द्वार-मूल गुण पडि । ( महाव्रत में Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५६६) थोकडा संग्रह । xxxmaa दोष) और उत्तर गुणपडि । ( गोचरी आदि में दोष ); पुलाक, ववश, पडिसेवण में मूल गुण, उत्तर गुण दोनों की पडि० शेष तीन नियंठा अपडिसेवी । (व्रतों में दोष न लगावे)। ७ ज्ञान द्वार-पुलाक, बकुश, पडिसेवण नियंठा में दो ज्ञान तथा तीन ज्ञान, कषाय कुशील और निग्रंथ में २.-३.-४ज्ञान और स्नातक में केवल ज्ञान । श्रुत ज्ञान अाश्रीपुलाक के ज० ६ पूर्व न्यून, उ०६ पूर्व पूर्ण, वकुश और पडिसत्रण के ज०८ प्रवचन । उ० दश पूर्व० कषाय कुशील तथा निग्रंथ के ज० ८ प्रवचन, उ० १४ पूर्व स्नातक सूत्र व्यतिरिक्त । ८ तीर्थ द्वार-पुलाक, वकुश, पडिसेवण तीर्थ में होवे । शेष तीन तीर्थ में और अर्थ में होवे । अतीर्थ में प्रत्येक बुद्ध आदि होवे । हलिंग द्वार-ये ६ नियंठा ( साधु ) द्रव्य लिंग अपेक्षा स्वलिंग, अन्य लिंग अपेक्षा गृहस्थ लिंग में होवे । भावापेक्षा स्वलिंग ही हो । १० शरीर द्वार पुलाक, निग्रंथ, और स्नातक में ३ (ो० ते. का०), वकुश, पडिसे० में ४ (औ० वै० तै० का०), कषाय कुशील में ५ शरीर। ११ क्षेत्र द्वार--६ नियंठा जन्म अपेक्षा १५ कर्मभूमि में होवे । संहरण अपेक्षा । ५ नियंठा (पुलाक Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियंठा। ( ५६७) सिवाय ) कर्म भूमि और अकर्म भूमि में होवे । प्रसंगोपात पुलाक लब्धि पाहारिक शरीर, साधी, अप्रमादी, उपशम श्रेणी वाले, क्षपक श्रेणीवाले और केवली होने बाद संहरण नहीं हो सके। १२ कार द्वार पुलाक, निग्रंथ और नाक अवप० काल में तीसरे चौथे आरे में जन्मे और ३.४.-५ वें आरे में प्रवर्ते० उत्स० काल में २--३.४ अरे में जन्में और ३-४ थे बारे में प्रवत । महा विदेह में सदा होवे । पुलाक का संहरण नहीं होवे, प न्तु निग्रंथ, स्नातक संहरण अपेक्षा अन्य काल में भी होवें । वकुश पडिसेवण और कषाय कुशील अवस० काल के ३-४.-५ आरे में जन्मे और प्रवत । म० काल के २-३--४ारे में जन्मे और ३-४ बारे में प्रवः महाविदेह में सदा होवे । स्थिति जघन्य उत्कृष्ट जघन्य उत्कृष्ट पुलाक सुधर्म देव० सहस्त्र र दे० प्रत्येक पल्य.१८सा. वकुश " " अच्युत " " २२" पडिसेवण " " " " " २२" कषाय कुशील"" अनुत्तर विमान " ३३" निग्रंथ अनुत्तरविमान सार्वार्थ सिद्ध ३१ सागर ३३" स्नातक "" मोक्ष ३३ ॥ ३३" देवताओं में ५ पदवियें हैं-१ इन्द्र २ लोकपाल ३ नाम गति Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५६८) थोकडा संग्रह। त्रयस्त्रिंशक ४ सामानिक ५ अहमिन्द्र । पुलाक, वकुश, पडि सेवण, प्रथम ४ पदवी में से १ पदवी पावे । कषाय कुशील ५ पदवी में से १ पावे, निग्रंथ अहमिन्द्र होवेस्नातक आराधक अहमिन्द्र होवे तथा मोक्ष जावे. विराधक ज० विरा० होवे तो ४ पदवी में से १ पदवी पावे० उ० वि० २४ एड क में भ्रमण करे। १४ संयम द्वार-संख्याता स्थान असंख्याता है। चार नियंठा में असंख्याता संयम स्थान और निग्रंथ, स्नातक में संयम स्थान एक ही होवे । सर्व से कम नि० स्ना०के सं० स्था० । उनसे पुलाक के सं० स्था० असंख्यात गुणा० उनसे वकुश के सं० स्था० असंख्यात गुणा, उनसे पडि सेवण सं० स्था० असंख्यात गुणा० उनसे कषाय कुशील का सं० स्था० असंख्यात गुणा । १५ निकासे-( संयम का पर्याय ) द्वार- सबों का चारित्र पर्याय अनन्ता अनन्ता, पुलाक से पुलाक का चारित्र पर्याय परस्पर छठाणवलिया । यथा . १ अनन्त भाग हानि, २ असंख्य भाग हानि, ३ संख्यात भाग हानि ।। ४ संख्यात भाग हानि ५ असंख्य भाग हानि ६ अनन्त भाग हानि। १ अनन्त ,, वृद्धि २,,, वृद्धि ३ संख्यात , वृद्धि ४ संख्यात,,,५ ,६ अनन्त " " Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियं । ( ५६६) पुलाक--वकुश, पडिसपण से अनन्त गुणा हीन । कषाय कुशील छठाणवलिया। निग्रन्थ, स्नातक से अनन्त गुणा हीन वकुश, पुलाक से अनन्त गुणा वृद्धि । वकुश वकुश से छठाण वलिया, वकुश-पडिसेवण, कषाय कुशील से ठाणवलिया । निग्रन्थ स्नातक से अनन्त गुण हीन । पडिसेवण, वकुश समान समझना० का य कुशील चार नियंठा ( पुलाक, बवुश, पडिसे० कषाय कुशील ) से छठाण वलिया और निग्रन्थ स्नातक से अनन्त गुण हीन । निर्ग्रन्थ प्रथम ४ नियंठा से अनन्त गुण अधिक० निग्रन्थ स्नातक को निग्रन्थ समान (ऊपर वत् ) समझना। अल्प बहुत-पुलाक और कषाय कुशील का ज. चारित्र पर्याय परस्पर तुल्य० उनसे पुलाक का उ० चा० ५० अनन्त गुणा, उनसे बकुश और पडिसेवण का ज. चा० ५० परस्पर तुल्य और अनन्त गुणा, उनसे वकुश का उ० चा पर्याय अनन्त गुणा० उनसे निग्रंथ और स्नातक का ज० उ० चा० पर्यय पासर तुल्य और अनन्त गुणा। १६ योग द्वार-५ नियंठा सयोगी और स्नातक सयोगी तथा अयोगी। . १७ उपयोग द्वार-६ नियंठाओं में साकार-निराकार दोनों प्रकार का उपयोग । Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थोकडा मंग्रह। १८ कषाय द्वार-प्रथम ३ नियंठा में सकपायी ( संज्वल का चोक ) कषाय कुशील में सज्वलन ४ ३.२ १ निग्रंथ अपायी ( उपशम तथा क्षीण ) और स्नातक अकषायी ( क्षीण ) १० लेश्या द्वार-पुलाक, वकुश, पडिसेण में ३ शुभ लश्या, कषाय कुशील में ६ लेश्या, निग्रन्थ में शुक्ल लेश्या स्नातक में शुक्ल लेश्या अथवा अलेशी। २० परिणाम द्वार-प्रथम नियंठा में तीन परिणाम १ हायमान २ वर्धमान ३ अवस्थित -१ घटता २ बढता ३ समान ) हाय वर्ष की स्थिति ज० १ समयकी उ० अं० मु० अवस्थित की ज०१ समय उ० ७ समय की, निग्र थ में वर्धमान परिणाम अवस्थित में २ परिणाम स्थिति ज०१ समय, उ० अं० मु० स्नातक में २ (वर्ध० अव० ) वध की स्थिति ज०१ समय, उ० अं० ० अब० की स्थिति ज० अं० मु० उ० देश शी पूर्ण क्रोड़ की । २१ बन्ध द्वार-पुलाक ७ क ( आयुष्य लिव य ) बान्धे, वकुश और पडिसेवण ७ ८ कर्म बान्धे, कपाय कुशील ६-७ तथा ८ कर्म ( आयु-मोह सिवाय ) बान्धे निग्रन्थ १ शाता वेदनीय बान्धे और स्नातक शाता वेद. नीय बान्धे अथवा अबन्ध ( नहीं बान्धे ) ___ २२ बेदे द्वार-४ नियंठा ८ कर्म वेदे निग्रन्थ ७ कर्भ ( मोह सिवाय ) वेदे स्नातक ४ कर्म (अघाती) वेदे । Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियंठा। ( ६०१) २३ उदीरण द्वार-पुलाक ६ कम (आयु-मोह सिवाय ) की उदो० करे वकुश पडिसेवण ६-७ तथा ८ को उदेरे कषाय कुशीन ५-६-७-८ कर्म उदेरे (५ होवे तो आयु, मोह वेदनीय छोड़कर ), निग्रन्थ २ तथा ५ कर्म उदर ( नाम-गात्र ) आर स्नातक अनुदारिक । २४ उपसंपझणं द्वार-पुलाक, पुलाक को छोड़कर कषाय कुशील में अथवा असंयम में जावे, वकुश वकुश को छोड़ कर पडिसेवण में, कषाय कुशील में असंयम में तथा संयमासंयम में जाये । इसी प्रकार चार स्थान पर पडिसेवण नियंठा जावे कषाय कुशील ६ स्थान पर (पु०, २०, पडि०, असंय०, संयमासं० तथा निग्रन्थ में ) जावे निग्रंथ निग्रन्थ पने को छोड़ कर कपाय कुशील स्नातक तथा असंयम में जाये और स्नातक मोक्ष में जावे । ___ २५ संज्ञा द्वार--पुलाक, निग्रन्थ और स्नातक नोसंज्ञा बहुता । वकुश, पडि सेवण और कषाय कुशील संज्ञा बहुता और नोसंज्ञा बहुता। २६ अाहारिक द्वार पनियंठा अाहारिक और स्नातक आहारिक तथा अनाहारिक।। २७ भव द्वार-पुलाक और निग्रन्थ भव करे ज०१ उ० ३ वकुश, पडि०, कषाय कु० ज० १ उ० १५ भव करे और स्नातक उसी भव में मोक्ष जावे । Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६०२ ) थोकडा संग्रह | २८ आगरेस द्वार - पुलाक एक भव में ज० १ वार श्री ज० २ वार उ० ७ उ० ३ वार वे अनेक भव वार श्रावेवकुश पडि० और कषाय कु० एक वार उ० प्रत्येक १०० वार वे अनेक भव भव में ज० १ श्री ज० २ निर्ग्रन्थ एक भव श्राश्री श्री ज० २ चार उ० प्रत्येक हजार वार, ज० १ वार उ० २ वार वे अनेक भव उ० ५ वार आवे स्नातक पना ज० उ० १ ही वार आवे । २६ काल द्वार - (स्थिति) पुलाक एक जीव अपेक्षा ज० १ समय उ० अं० मु०, अनेक जीव अपेक्षा ज० उ० अन्तर्मुहूर्त की वकुश एक जीव अपेक्षा ज० १ समय उ० ચી देश उण पूर्व क्रोड़, अनेक जीवापेक्षा शाश्वता पडसे, कषाय कु० वकुश वत् निर्ग्रन्थ एक तथा अनेक जीवापेक्षा ज० १ समय उ० अन्त:हूर्त स्नातक एक जीवाश्री ज० ० मु०, उ० देश उण। पूर्व क्रोड, अनेक जीवापेक्षा शाश्वता है । ४ ३० श्रान्तरा ( अन्तर ) द्वार : - प्रथम ५ नियंठा में अन्तरा पड़े तो जीव अपेक्षा ज० अं० मु०, उ० देश उणा अर्ध पुद्गल परावर्तन काल तक स्नातक में एक जीवापेक्षा अन्तर न पड़े अनेक जीवापेक्षा छ तर पड़े तो पुलाक में ज० १ समय, उ० संख्यात काल, निर्ग्रन्थ में ज० १ समय उ० ६ माह शेष ४ में अन्तर न पड़े । " ३१ समुद्घात द्वार - पुलाक में ३ समु० ( वेदनी, Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियंठा। (६०३) कषाय मरणांतिक ) वकुश में तथा पडिसे० में ५ समु० (वे०, क०, म०, वै० ते० ) कषाय कुशील में ६ समु० (केवली सयु० नहीं ) निर्ग्रन्थ में नहीं स्नातक में होवे तो केवली समुद्घात । ३२ क्षेत्र द्वार-पांच नियंठा लोक के असंख्यातवें भाग में होवे और स्नातक लोक के असंख्यातवें भाग में होवे अथवा समग्र लोक में (केवली समु० अपेक्षा) होवे ३३ स्पर्शना द्वार-क्षेत्र द्वार वत् । ३४ भाव द्वार-प्रथम ४ नियंठा क्षयोपशम भाव में होवे । निग्रन्थ उपशम तथा क्षायिक भाव में होवे और स्नातक क्षायिक भाव में होवे । ३५ परिमाण द्वार-( संख्या प्रमाण ) स्यात् होवे, स्यात् न होवे, होवे तो कितना ? नाम वर्तमान पर्याय अपेक्षा पूर्व पर्याय अपेक्षा जघन्य उत्कृष्ट जघन्य उत्कृष्ट पुलाक १-२-३ प्रत्येक सौ १..२-३ प्रत्येक हजार (२०० से १०० (२सेह हजार) वकुश " " प्रत्येक सो कोड (नियमा) पडिसेवण , , कषाय कुशील , प्रत्येक हजार . प्रत्येक हजार क्रोड , Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६० ) थोकडा संग्रह। निग्रन्थ , १६२ १.-२.-३ प्रत्येक सौ . स्नातक प्रत्येक कोड़ नियमा ३६ अल्प बहुत्व द्वार-सर्व से कम निग्रन्थ नियंठा, उनसे पुलाक वाले संख्यात गुणा । उनसे स्नातक संख्यात गुणा । उनसे वकुश सं०, उनसे पडिसवरण संख्यात गुणा, और उनसे कषाय कुशील का जीव संख्यात गुणा । ॥ इति नियंठा सम्पूर्ण ।। Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संयता ( संयति ) । AAAAAAAVVI संजया (संयति) ( श्री भगवती जी सूत्र शतक २५, उद्देशा ७ ) संयति पांच प्रकार के - ( इनके ३६ द्वार नियंठा समान जानना ) १ सामायिक चारित्री २ छेदोपस्थापनीय चारित्री ३ परिहार विशुद्ध चारित्री ४ सूक्ष्म संपराय चारित्री ५ यथाख्यात चारित्री । ( ६०५ ) १ सामायिक चारित्री के दो भेद - १ खल्प काल का प्रथम और चरम तीर्थंकर के साधु हाते हैं ज. ७ दिन, मध्यम ४ मास ( माह ) उ० ६ माह की कच्ची दीक्षा वाले ( २ ) जावजीव के - २२ तीर्थंकर के, महाविदेह क्षेत्र के और पक्की दीक्षा लिये हुवे साधु ( सामायिक चारित्री ) । २ छेदोपस्थापनीय ( दूसरी बार नई दीक्षा लिये हुवे ) संयति के दो भेद - १ सातिचार - पूर्व संयम में दोष लगने से नई दीक्षा लेवे वो । (२) निरतिचार - शासन तथा संप्रदाय बदल कर फिर दीक्षा लेवे जैसे पार्श्व जिन के साधु महावीर प्रभु के शासन में दीक्षा लेवे । ३ परिहार विशुद्ध चारित्र - ६-६ वर्ष के नव जन दीक्षा ले । २० वर्ष गुरुकुल वास करके ६ पूर्व सीखे । पश्चात् गुरु आज्ञा से विशेष गुण प्राप्ति के लिये नव ही Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ र ६०६) थोकडा संग्रह। साधु परिहार विशुद्ध चारित्र ले । जिनमें से ४ मुनि ६ माह तक तप करे, ४ मुनि वैयावच्च करे और १ मुाने व्याख्यान देवे । दूसरे ६ माह में ४ वैयावच्ची नि तप करे, ४ तप करने वाले वैयावच्च करे और १ मुनि व्याख्यान देवे । तीसरे ६ माह में १ व्याख्या देने वाला तप करे, १ व्याख्यान देवे और ७ मुनि वैयावच्च करे । तपश्चर्या उनाले में एकान्तर उपवास, शियाले हठ छर पारणा, चौमासे अठम २ पारणा करे एवं १८ माह तप कर के जिन कल्पी होवे अथवा पुनः गुरुकुल वास स्वी. कारे। सूक्ष्म संपराय चारित्री के २ भेद-संवलेश परिणाम-उपशम श्रेणी से गिरने वाले (२, विशुद्ध परि णाम-क्षपक श्रेणी पर चढने वाले। ५ यथाख्यात चारित्री के २ भेद-(१) उपशान्त वीतरागी ११ वें गुण स्थान वाले (२) क्षीण वीतरागी के २ भेद छमस्थ और केवली ( सयोगी तथा अयोगी)। ___२ वेद द्वार-सामा०, छेदोप० वाले सवेदी ( ३ वेद) तथा अवेदी ( नव गुण अपेक्षा) परि० वि०, पुरुष या पुरुष नपुसंक वेदी सूक्ष्म सं० और यथा० अवेदी । ३ राग द्वार-४ संयती सरागी और यथाख्यात संयती वीतरागी। ४ कल्प द्वार-कल्प के ५ भेद, नीचे अनुसार--.. Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संयता ( संयति ) । ( ६०७ १ १ स्थिति कल्प नियंठा में बताये हुवे १० कल्प, प्रथम तथा चरम तीर्थंकर के शासन में होवे | २ अस्थित कल्प = २२ तीर्थंकर के साधुओं में होवे १० कल्प में से शय्यान्तर, कुतकर्म और पुरुष ज्येष्ट एवं ४ तो स्थित हैं और वस्त्रकल्प, उद्देशीक, आहार कल्प, राजपीठ, मासकल्प, चातुर्मासिक कल्प और प्रतिक्रमण कल्प एवं ६ स्थित हांवे । ३ स्थिवर कल्प = मर्यादापूर्वक वस्त्र पात्रादि उपकरण से गुरुकुलवास, गच्छ और अन्य मर्यादा का पालन करे । ४ जिनकल्प = जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट उत्सर्ग पक्ष स्वीकार करक, अनेक उपसर्ग १६ स्वीकार करके तथा अनेक उपसर्ग सहन करते हुवे जङ्गल आदि में रहे (विस्तार नंदी सूत्र में से जानना ) ५ वल्पातीत आगम विहारी अतिशय ज्ञान वाले महात्मा जो कल्परहित भूत- भावि के लाभालाभ देख कर वर्ते । सामायिक संयति में ५ वल्प, छेदोप० परि० में ३ कल्प (स्थित, स्थिर, जिनकल्प ) सूक्ष्म, यथा० में २ कल्प ( स्थित और कल्पातीत ) पावे | ५ चारित्र द्वार - सामा०, छेदो० में ४ नियंठा ( पुलाक, वकुश, पडिसेवण, और कृपाय कुशील ) परि०, सूक्ष्म में १ नियंठा ( कषाय कुशील) और यथा० में २ नियंठा (निर्ग्रन्थ और स्नातक) पावे | Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थोकडा संग्रह। ६ पडिसेवण द्वार. सामा०, छेदो०, संयति मूल गुण प्रति सेवी ( ५ महाव्रत में दोष लगावे ) तथा उत्तर गुण प्रति सेवी ( दोष गव) तथा अप्रति सेवी (दोष नहीं भी लगावे) शेष ३ संरति अप्रति सेवी ( दोष नहीं लगावें) ७ ज्ञान हार-४ संयति में ४ ज्ञान (२.३.४) की भजना और यथायात में ५ ज्ञान की २.जना ज्ञानाभ्यास अपेक्षा-सामा०, हेदो, में ज. अष्ट प्रवचन (५ समिति, ३ गुप्ति ) 30 १४ पूर्व तक परि० में ज०६ चे पूर्व की तीसरी प्राचार वत्थु तक उ० ६ पूर्व सम्पूर्ण सूक्ष्म सं० और यथा० ज० अष्ट प्रवचन तक उ० १४ पूर्व तथा सूत्र व्यतिरिक्त । तीर्थ द्वार-सामायिक और यथाख्यात संयति तीर्थ में, अतीर्थ में, तीर्थकर में और प्रत्येक बुद्ध में होने छदो०, परि०, सूक्ष्म तीर्थ में ही होवे ।। हलिंग द्वार -परि० द्रव्ये भाव स्वलिंगी होवे शेष चार संयति द्रव्ये स्वलिंगी, अत्यलिंगी तथा गृहस्थ लिंगी होवे परन्तु भावे स्वलिंगी होवे । १० शरीर द्वार-सामा०, छेदो०, में ३.४-५ शरीर होवे शेष तीन में ३ शरीर । ११ क्षेत्र द्वार-सामा०, सूक्ष्म०, तथा०, १५ कर्म भूमि में और छेदो०, परि० ५ भरत ५ ऐरावर्त में होवे Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संजया ( सयति)। ( ६०६ ) संहरण अपेक्षा अकर्म भूमि में भी होवे, परन्तु परिहार विशुद्ध संयति का संहरण नहीं होवे । १२ काल द्वार-सामा०अवसर्पिणी काल के ३४. ५ आरा में जन्में और ३-४.५ आरा में विचरे, उत्स० के २३.४ अारा में जन्में और ३-४ आरा में विचरे महा विदेह में भी होवे । संहरण अपेक्षा अन्य क्षेत्र (३० अकर्म भूमि) में भी हावे । छदो० महाविदेह में नहीं होवे, शेष ऊपर वत् परि० अवस० काल के ३-४ पारा में जन्मे-प्रवत,उत्स० काल के २.३.४ आरा में जन्में और ३.४ आरा में प्रवते सक्ष्म० यथा० संयति अवस० के ३.४ आरा में जन्मे और प्रवर्ते । उत्स० काल के २-३-४ आरा में जन्मे और ३-४ आरा में प्रवर्ते महाविदह में भी पावे, संहरण अन्यत्र भी हो। १३ गति द्वारसं० नाम गति स्थिति जघन्य उत्कृष्ट जघन्य उत्कृष्ट सामा छेदोप०सौधर्म कल्प अनुत्तर विमान २ पल्य२३सागर परिहार विशुद्ध , सहस्रार ,, २, १८, सूक्ष्म संपराय अनुत्तर विमान अनुत्तर,, ३१ सागर ३३ ,, यथा ख्यात , , , ,३१, ३३, देवता में ५ पदवी हैं-इन्द्र, सामानिक त्रियस्त्रिंशक, लोकपाल और अहमेन्द्र, सामा० छेदो० अराधा हो Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०) थोकडा संग्रह। तो पांच में से १ पदवी पाव, परि० प्रथम ४ में से १ पदवी पावे । सूक्ष्म० यथा० वाले अहमेन्द्र पद पावे, ज. विरा. धक हो तो ४ प्रकार के देवों में उपजे, उ० विराधक होके तो संसार भ्रमण करे। १४ संयम स्थान--सामा० छेदो० परि० में असं. ख्यासं० स्थान होवे. सूक्ष्म० में अं० मु० के जितने असंख्य और यथा० का सं० स्थान एक ही है । इनका अल्प बहुत्व। सर्व से कम यथा० संयति के संयम स्थान उनसे सूक्ष्म संपराय के सं० स्थान असंख्यात गुणा ,, परि हार वि०, " " " " सामा० छेदो० ,,,,, ,, परस्पर तुल्य १५ निकासे द्वार-एकेक संयम क पर्यव (पजेवा) अनन्ता अनन्त हैं प्रथम तीन संयति के पर्यव परस्पर तुल्य तथा षट् गुण हानि वृद्धि सूक्ष्म यथा०से ३ संयम अनन्त गुणा न्यून हैं सूक्ष्म० तीनों ही से अनन्त गुणा अधिक है परस्पर षट् गुण हानि वृद्धि और यथा० से अनन्त गुणा न्यून है यथा० चारों ही से अनन्त गुणा अधिक है परस्पर तुल्य है। अल्प बहुत्व । १ सर्व से कम सामा०छेदो के ज० संयम पर्यव(परस्पर तुल्य) उन, ___ Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संजया ( संयति ) | २ परिहार विशुद्ध के ३ 19 99 ४ सामा० छेदो० ५ सूक्ष्म संपराय ६ 11 " ७ यथा ख्यात 99 उत्कृष्ट 17 19 " 99 99 जघन्य उत्कृष्ट " ज० उ० , 91 " ܕ 99 अनन्त गुणा,” " 99 19 ( ६११ ) ** 79 परस्पर तुल्य ** 99 १६ योग द्वार - ४ संयति, सयोगी और यथा • सयोगी " " 99 39 19 19 "" और योगी । १७ उपयोग द्वार - सूक्ष्म में साकार उपयोगी होवे शेष चार में साकार - निराकार दोनों ही उपयोग वाले होवें । १८ कषाय द्वार - ३ संयति संज्वलन का चोक ( चारों की कषाय ) में होवे सूक्ष्म० संज्ज० लोभ में होवे और यथा० कषायी ( उपशान्त तथा क्षीण ) होवे १६ लेश्या द्वार - सामा० छेदो० में ६ लेश्या परि० में ३ शुभ लेश्या सूक्ष्म० में शुक्ल लेश्या यथा० में १ शुक्ल लेश्या तथा अलेशी भी होवे । २० परिणाम द्वार-तीन संयति में तीनों ही परि णाम उनकी स्थिति हायमान तथा वर्धमान की ज० १ उ० ७ ० मु० की, अवस्थित की ज० १ समय उ० ७ समय की, सूक्ष्म० में २ परिणाम ( हायमान वर्धमान ) इनकी स्थिति ज उ० अं० मु० की, यथा० में २ परिणाम; वर्धमान ( ज० उ० ० मु० की स्थिति ) और श्रवस्थित ( ज० १ समय उ० देश उणा कोड़ पूर्व की स्थिति ) । Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योकडा संग्रह। २१ बन्ध द्वार--तीनं संयति ७-८ कम बांधे. सूक्ष्म ६ कर्म बान्धे, (मोह, आयु. छोड़ कर ), यथा० बांधे तो शाता वेदनी अथवा अबन्ध (नहीं बान्धे ) २२ वेदे द्वार-चार संयति ८ कर्म वेदे यथा० ७ कर्म (मोह सिवाय ) तथा ४ कर्म ( अघातिक) वेदे। २३ उदीरणा द्वार--सामा० छेदो० परि०७८.६ करें उदेरे ( उदिपणा करे )सूक्ष्म० ५.६ कम उदेरे (६ होवे जो आयु, मोह सिवाय ) ५ होवे तो अायु, माह, वेदनी सिवाय यथा० ५ कर्म तथा २ कर्म (नाम गोत्र ) उदेरे तथा उदि० नहीं कर २४ उपसंपज्माणं द्वार-सामा० वाले सामा० संयम छोडे तो ५ स्थान पर (छेदो० सूक्ष्म० संयम तथा असंयम में ) जावे, छेदो० वाले छोडे तो ५ स्थान पर (सामा० परि० सूक्ष्म०संयमा०तथा असंयम में) जावे परि० वाले छोडे तो २ स्थान पर (छेदो० असंयम में) जावे,सक्षम वाले छोडे तो ४ स्थान पर (सामा० छदो० यथा०असंयम में ) जावे, यथा० वाले छोड़े तो ३ स्थान पर (सूक्ष्म० असंयम तथा मोक्ष में ) जावे। २५ संज्ञा द्वार--३ चारित्र में ४ संज्ञावाला तथा संज्ञा रहित शेष में संज्ञा नहीं। २६ आहार द्वार-४ संयम में आहारिक और यथा. श्राहारिक और अनाहारिक दोनों होवे । Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संजया ( संयति)। (६१३ ) २७ भव द्वार-३ संयति ज० १ भव को उ० ८ भव (८ मनुष्य का, ७ देवता का एवं १५ भव ) करके मोक्ष जावे सूक्ष्म ज० १ भव उ० ३ भव करे यथा० ज०१ उ० ३ भव करके तथा उसी भव में मोक्ष जावे । २८ अागरेश द्वार-संयम कितनी वार श्राचे १ नाम एक भव अपेक्षा अनेक भव प्रोक्षा ज. उत्कृष्ट ज, उत्कृष्ट समायिक १ प्रत्येक सौ वार २ प्रत्येक हजार वार छेदोपस्था ० १ २ नव सो वार से अधिक परिहार वि०१ तीन वार २ , " सूक्ष्म सं० १ चार , २ नव वार यथा ख्यात १ दो , २ पांच ,, २६ स्थिति द्वार संयम कितने समय रहे ? एक जीवापेक्षा अनेक जीवापेक्षा नाम ज० उत्कृष्ट जघन्य उत्कृष्ट सामायिक १ स. देश उ.को.पू० शाश्वता शाश्वता छेदोपस्था० , , , २० वर्ष ५० कोड़ सागर परिहार वि०, २६ वर्ष उणा,, देश उणा. देश उ. को.पू. २५० वर्ष सूक्ष्म संपराय ,, अन्तर्मुहूर्त अन्तर्मुहूर्त अन्तर्मुहूर्त यथा ख्यात , देश उणा को.पू. शाश्वता शाश्वता ३० अन्तर द्वार-एक जीवापेक्षा ५ संयति का अन्तर Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थोकडा सग्रह | ( ६१४ ) ज० श्रं० मु० उ० देश उणा अर्थ पुद्गल परावर्तन काल, अनेक जीवापेक्षा - सामा०, यथा० में अन्तर नहीं पड़े, छेदो० में ज० ६३००० वर्ष, परि० में ज० ८४००० वर्ष का, दोनों में उ० देश उणा १८ क्रोहाक्रोड़ सागर का, और सूक्ष्म० में ज० १ समय उ० ६ माह का अन्तर पड़े । ३१ समुद्यात द्वार - सामा० छेदो० में ६ समु० केवली समु० छोड़ कर ) परि० में ३ प्रथम की, सूक्ष्म० में नहीं और यथा में १ केवली समुद्घात । ३२ क्षेत्र द्वार - पांचों ही संयति लोक के असंख्यात भाग होवे, यथा वाले केवली समु० करे तो समस्त लोक प्रमाण होवे | ३३ स्पर्शना द्वार - क्षेत्र द्वार समान । ३४ भाव द्वार - ४ संयति क्षयोपशम भाव में होवे और यथाख्यात उपशम तथा क्षायिक भाव में होवे । ३५ परिणाम द्वार - स्थान पावे तोवर्तमान अपेक्षा नाम पूर्व पर्याय अपेक्षा जघन्य उत्कृष्ट जघन्य उत्कृष्ट सामायिक १-२-३ प्रत्येक हजार नियमसे प्रत्येक ६० क्रोड सो प्र.सो क्रोड़ सो छेदोपस्था० परिहार वि० सूक्ष्म संपराय, १६२ (१०८क्षपक १-२-३ " ५४ उपशम ) "" " " 95 " " "" 39 ܕܪ हज़ार सो Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संजया ( संयति ) । यथाख्यात १६२ ३६ अल्प बहुत्व द्वार: सर्व से कम सूक्ष्म संपराय संयम वाले, उनसे - परिहार वि० संयम वाले संख्यात गुणा,, ** यथाख्यात छेदोपस्था० सामायिक 19 " " " " 97 " नियम स " "" ঊ "" " " 19 * केवली की अपेक्षा से समझना, ॥ इति संजया ( संयति ) सम्पूर्ण ॥ ( ६१५ ) क्रोड़ 99 99 " "" Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६१६) थोकडा संग्रह। * अष्ट प्रवचन ( ५ समिति ३ गुप्तिः) ( श्री उत्तराध्यान सूत्र २४ वा अध्ययन ) पाँच समिति-(विधि ) के नाम-१ इरिया समिति६ ( मार्ग में चलने की विधि ) २ भाषा ( बोलन की) समिति ३ एपणा (गोचरी की) समिति ४ निक्षपणा (आदान भंडमत्त वस्त्र पात्रादि देने व रखने की ) समिति ५ परिठावणिया (उच्चार, पासवण खेल-जल, संधाण-बडीनीत लघुनीत, बलखा लीट आदि परठने की) समिति । तीन गुप्ति ( गोपना ) के नाम-१ मन गु० २ वचन गु० काया गृप्ति । १ इयों समिति के ४ भेद-(१) पालम्बन ज्ञान दर्शन. चरित्र का (२) काल-अहो रात्रि का (३) मागे कुमार्ग छोड़ कर सुमार्ग पर चलना (४) यत्ना ( जयणा सावधानी ) के ४ खेद द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, द्रव्य से छकाय जीवों की य ना करके चले क्षेत्र से घुसरी (३॥ हाथ प्रमाण जमीन आगे देखते हुब चले) काल से रास्ते चलते नहीं बोले और भाव से रास्ते चलते वांचन पूछने (पृच्छना) पर्यट्टण, धर्म कथा आदि न करे और न शब्द, रूप, गंध रस, स्पर्शादि विषय में ध्यान दे। २ भाषा समिति के ४ भेद-द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव द्रव्य से आठ प्रकार का भाषा ( कर्कश, कठोर, Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्ट प्रवचन । (६६१७ छेद कारी, भेदकारी, अधार्मिक, मृषा, सावद्य.निश्चयकारी) नहीं बोले क्षेत्र से गस्ते चलते न बोले काल से १ पहेर रात्रि बीतने पर जोर से नहीं बोले भाव से राग द्वेष युक्त भाषा न बोले । ३ एषणा समिति के ४ भेद-द्रव्य क्षेत्र,काल भाव द्रव्य से ४२ तथा ६६ दोष टाल कर निर्दोष अाहार, पानी वस्त्र, पात्र, मकानादेि याचे मांगे क्षेत्र से २ गाउ (कोस) उपरान्त ले जाकर आहार पानी नहीं भोगे, काल से पहले पहर का श्राहार पानी चोथे पहर में न भोगवे भाव से मांडले के व दोष (संयोग. अंगाल,धूम, परिमाण, कारण) दाल कर अनासक्तता से भोगवे । ४ अादान भएडमत्त तिखेवणीया समितिमुनियों के उपकरण ये हैं-१ रजोहरण २ मुँहपत्ति १ चोल पट्टा ( ५ हाथ ) ३ चादर ( पछेड़ी) साध्वी ४ पछेडी रक्खे, काष्ट तुम्बी तथा मिट्टी के पात्र, १ गुच्छा, १ आसन १ संस्तारक (२॥ हाथ लम्बा बिछाने का कपड़ा) तथा ज्ञान, दर्शन, चारित्र वृद्धि निमित्त आवश्यक वस्तुएं। (१) द्रव्य से ऊपर कहे हुवे उपकरण यत्ना से लेवे, रक्खें तथा वारे ( काम में लेवे ) (२) क्षेत्र से व्यवस्थित रक्खे जहां तहां विखरे हुवे नहीं रक्खे। ___(३) काल से दोनों समय (१ से और चौथ पहर म) पडिलेहन तथा पूजन करे। Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६१८) थोकडा संग्रह । (४) भाव से ममता रहित संयम साधन समझ कर भोगवे। ५ उच्चार पासवण खेल जल संघाण परिठावाणिया समिति के ४ भेद-(१) द्रव्य मलमूत्रादि १० प्रकार के स्थान पर बैठे नहीं (१ जहां मनुष्यों का प्रावन जावन हो २ जीवों की जहां घात होवे ३ विषम-ऊँची नीची भूमि पर ४ पोली भूमि पर ५ सचित्त भूमिपर ६ संकड़ी (विशाल नहीं) भूमि पर ७ तुरन्त की ( अभी की) अचित्त भूमि पर ८ नगर गाँव के समीप में 6 लीलन फूलन हावे वहां १० जीवों के बिल (दर) होवे वहां न वैठे ) (२) क्षेत्र से वस्ती को दुर्गछा होवे वहां तथा आम रास्ते पर न वेठे (३) काल से वेठने की भूमि को कालो काल पडिलेहण करे व पूंजे (४) भाव से वेठने को निकले तब श्रावस्तही ३ वार कहे वेठने के पहिले शकेन्द्र महाराज की आज्ञा मांगे वेठते समय वोसिरे ३ वार कहे और वेठ कर आते समय निम्सही ३ वार कहे जल्दी सूख जावे इस तरह वेठे। ३ गुप्ति के चार चार भेद । १ मन गुप्ति के ४ भेद-( १ ) द्रव्य से प्रारंभ समारंभ में मन न प्रवावे (२) क्षेत्र से समस्त लोक में (३) काल से जाव जीव तक (४) भाव से विषय Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ्रष्ट प्रवचन । ( ६१६) कपाय, पात रौद्र राग द्वेष में मन न प्रवतोवे । २ वचन गुप्ति के ४ भेद-(१) द्रव्य से चार विकथा न करे (२) क्षेत्र से समग्र लोक में (३) काल से जाव जीव तक (४) भाव से सावध ( राग द्वेष विषय कषाय युक्त) वचन न बोले । ३ काया गुप्ति के ४ भेद-(१) द्रव्य से शरीर की शुश्रूषा ( सेवा-शोभा ) नहीं कर (२) क्षेत्र से समस्त लोक में (३) काल से जाव जीव तक (४) भाव से सावध योग (पाप कारी कार्य ) न प्रवर्ताचे ( न सेवन को ) ॥ इति अष्ट प्रवचन सम्पूर्ण ॥ Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६२०) थोकडा संग्रह। veiNAVNA anAmAAAAJAAAAAAMANANANA.Wwwwvvvv ५२ अनाचार (श्री दशवकालिक सूत्र; तीसरा अध्ययन) (१) मुनि के निमित तैयार किया हुया आहार, वस्त्र, पात्र तथा मकान भोगवे तो अनाचार लागे । (२) मुनि के निमित खरीदे हुव अ हार; वस्त्र, पात्र तथा मकान भोगवे तो अनाचार लागे। . ( ३ ) नित्य एक घर का आहार भोगवे तो ,, , (४) सामने लाया हुवा , , , , (५) रात्रि भोजन करे तो (६) देश स्नान (शरीर को पूछ कर तथा सारे शरीरका स्नान करके ) करे तो अनाचार लागे (७) सचित अचित पदार्थों की सुगन्ध लेवे तो, , (८) फूल आदि की माला पहिने तो , (8) पंखे आदि से पवन हवा चला तो , , (१०) तेल घी आदि आहार का संग्रह करे तो ,,, (११) गृहस्थ के वासन में भोजन करे तो , , (१२) राजपिण्ड बलिष्ट आहार लेवे तो ,,, (१३) दान शाला में से आहार श्रादि लेवे तो,, , (१४) शरीर का विना कारण मर्दन करे करावे ,,, (१५) दांतुन करे तो Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ अनाचार । (६२१) (१६) गृहस्थों की सुख श ता पूछ कर खुशामद करे तो (१७ दर्पण में अंगोपांग निरखे तो , (१६) चोपड शतरञ्ज आदि खेल खेने तो , (१६) अर्थोपाजन जुगार सट्टा आदि करे तो , , (२०) धूर आदि निमित्त छत्री आदि रक्खे तो,, (२१) वैद्यगिरि करके प्राजीविका चलावे तो,,, (२२) जूतिये मोजे आदि पैरो में पहिने तो ,, , (२३) अग्नि काय आदि का आरंभ (ताप आदि) करे तो (२४) गृहस्थों के यहां गादी तकियादि पर बैठे तो ,,,, (२५) , , पलंग, खाट आदि , , (२६) मकान की आज्ञा देने वाले के यहां से (शय्यान्तर ) बहोरे तो (२७) विना कारण गृहस्थों के यहां बैठ कर कथादि करे तो, (२८), , शरीर पर पीठी, मालिस आदि करे तो , (२६) गृहस्थ लोगों की वैयावच्च ( सेवा ) आदि करे तो , (३०) अपनी जाति कुल आदि बता कर आजीविका करे तो , Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६२२ ) थोकडा संग्रह। (३१) सचित्त पदार्थ ( लीलोत्री, कच्चा पानी आदि) भोगवे तो , (३२) शरीर में रोगादि होने पर गृहस्थों की सहायता लेवे तो , (३३, मूला आदि सचित लिलोत्री, (३४) सेलड़ी के टुकड़े (३५) सचित कंद (३६) सचित मूल, (३७) सचित फल फूल (३८) सचित बीजप्रादि (३६) सचित नमक (४०) सेंधा नमक (४१) सांभर नमक (४२) धूलखारा का नमक (४३) समुद्रका नमक (४४) काला नमक ये सर्वे सचित नमक भोगवे (खावे व वापरे ) तो अनाचार लगे । (४५) कपड़े को धूप आदि से सुगन्ध मय बनावे तो (४६) भोजन करके वमन करे तो (४७) विना कारण रेच [जुलाब आदि लेवे तो,, [४८] गुह्य स्थानों को धे वे, साफ करे तो "" [४०] आंख में अजन, सुरम। आदि लगावे तो,, , [५०] दांतों को रंगावे तो [५१] शरीर को तेल आदि लगा कर सुन्दर बनावे तो, [५२] शरीर की शोभा के लिये बाल. नख आदि उतारे तो अनाचर लागे। Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ अनाचार । (६२३ ) उपरोक्त बावन अनाचारों को टाल कर सा साध्वी सदा निर्मल चारित्र पाले । ॥ इति ५२ अनाचार सम्पूर्ण ॥ Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६२४) घोकडा संग्रह। .....HAARAAP आहार के १०६ दोष मुनि १०६ दोष टाल कर गोचरी करे यह भिन्न २ सूत्रों के आधार से जानना आचारांग, सूयगडांग तथा निशीथ सूत्र के आधार से ४२ दोष कहे जाते हैं। (१) प्राधाकर्मी- मुनि के निमित्त प्रारंभ करके बनाया हुवा। (२) उद्देशिक-अन्य मुनि निमित्त बना हुवा आधा की आहार । (३) पूति कम-निर्वद्य आहार में प्राधाकर्मी अंश मान मिला हुवा होवे वो तथा रसोई में साधु के निमित कुछ अधिक बनाया हुवा होवे । (४) मिश्र दोष-कुछ गृहस्थ निमित, कुछ साधु निमित बनाया हुवा मिश्र अाहार । (५) ठवणा दोष-साधु निमित रक्खा हुवा आहार (६) पाहुड़िय-महेमान के लिये बनाया हुवा (साधु निमित महेमानों की तिथि बदली होवे ) (७) पावर--जहां अन्धेरा गिरता होवे वहां साधु निमित खिड़की आदि करा देवे । (८) क्रिय-साधु निमित खरीद कर लाया हुवा (६) पामिश्चे-साधु निमित उधार लाया हुवा (१०) परियड़े-साधु निमित वस्तु बदले में देकर लाया हुवा। Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहार के १०६ दोष । ( ६२५) Vvvvvvvvv (११) अभिद्रत-अन्य स्थान से सामने लाया हुवा (१२) भिन्न-कपाट चक आदि उवाड कर दिया हुवा (१३) मालोहड-माल ( मेढ़ी ) ऊपर से कठिनता से उतारा जा सके वो। (१४) अच्छीजे निर्बल पर दबाव डाल कर बलपूर्वक दिलावे वो। (१५) अणिसिडे-हिस्से की चीज में से कोई देना चाहे कोई नहीं चाहे एसी वस्तु | (१६) अज्जोयर--गृहस्थ साधु निमित अपना आहार अधिक बनाया हुवा होवे । (१७) धाइदोष- गृहस्थ के बच्चों को खेला कर लिया हुवा। (१८) दुई दोष-दूतिपना ( समाचार आदि लाना व लेजाना ) कर के लिया हुवा । (१६) निमित-भूत व भविष्य के निमित कह कर लिया हुवा। (२०) आजीव-जाति कुल आदि का गौरव बता कर लिया हुवा। (२१) वणी मग्ग-भिखारी समान दीनता से याचा ( मांगा ) हु।। (२२) तिगंछ--औषधि (दवा) आदि बताकर लि. या हुवा। ___ Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थोकडा संग्रह " (२३) कोहे - क्रोध कर के (२४) माने - मान कर (२५) माये - - कपट कर के (२६) लोभ-- लोभ वर के लिया हुवा | ( ६२६ ) (२७) पुण्यं पच्छं संयुव - पहेले तथा बाद में देने वाले की स्तुति कर के लिया हुवा । [२८] विजा--गृहस्थों को विद्या बताकर लिया हुवा [२६] मंत-मन्त्र तन्त्र आदि "" ነፃ [३०] चून-- रसायन आदि ( एक वस्तु में दूसरी वस्तु मिलाकर तीसरी वस्तु बनाना ) सिखाकर लिया हुवा | [३१] जोगे--लेप, वशीकरण आदि बताकर लिया हुवा | [३२] मूल कम्मे - गर्म पात आदि की दवा बता कर लिया हुवा ऊपरोक्त दोषों में से प्रथम १६ दोष' उद्गमन' अर्थात् भद्रिक श्रावक भक्ति के कारण अज्ञान साधुओं को लगाते हैं। पीछे के १६ दोष उत्पात ' हैं । ये मुनि स्वयं लगा लेते हैं । “ अब दश दोष नीचे लिखे जाते हैं जो साधु और गृहस्थ दोनों के प्रयोग से लगाये जाते हैं । (३३) संकिए -- जिसमें साधु तथा गृहस्थ को शुद्धता ( निर्दोषता ) की शङ्का होवे । [३४] मंक्खिए--वहोराने वाले के हाथ की रेखा अथवा बाल सचित से भीजे हुवे होवे तो । Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहार के १०६ दोष । । ६२७) [३५] निक्खित्ते-सचित्त वस्तु पर अचित्त आहार रखा होवे। [३६] पहिये--अचित्त वस्तु सचित्त से ढंकी होवे वो। [३७] मिसीये-सचित्त-अचित्त वस्तु मिली होवे । [[३८] अपरिणिये पूरा अचित्त आहार जो न हुवा हो [३६] सहारिये-एक बर्तन से दूसरे बर्तन (नहीं वर राया हुवा ) में लेकर दिया हुवा।। [४०] दायगो--अंगोपांग से हीन ऐसे गृहस्थों से लेवे कि जिन्हें चलने फिरने से दुःख होता होवे। [४१] लीत्त--तुरुत के लीपे हुवे आंगन पर से लिया हुवा। [४२] छंडिये--पहोरावने के समय वस्तु नीचे गिरती टपकती हो । आवश्यक सूत्र में बताये हुवे ५ दोष । [१] गृहस्थों के दरवाजे आदि खुला कर लेवे तो। [२] गौ, कुत्ते आदि के लिए रक्खी हुई रोटी लेवे तो। [३] देवी देवता के नैवेद्य व बलिदान निमित बनी हुई वस्तु लेवे तो। [४] बिना देखी चीज-वस्तु लेवे तो। [१] प्रथम निरस आहार पर्याप्त पापा हुवा हो तो Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६२८) थोकडा संग्रह। - - -. भी सरस आहार निमित निमंत्रण आने पर रस लोलुपता से सरस आहार ले लेवे तो। श्री उत्तराध्ययन सूत्र में बताये हुवे २ दोष। [१] अन्य कुल में से गोचरी नहीं करते हुवे अपने सजन सम्बन्धियों के यहीं से गोचरी करे तो। [२] बिना कारण आहार ले और बिना कारण आहार त्यागे । ६ कारण स आहार लेवे ६ कारण से आहार छोड़े क्षुधा वेदनी सहन नहीं होनेसे रोगादि होजाने से प्राचार्यादि की वैयावच हेतुसे उपसर्ग आने से ईर्या शोधने के लिए ब्रह्मचर्य के नहीं पलने पर संयम निर्वाह निमित जीवों की रक्षा के लिए जीवों की रक्षा करने के लिए तपश्चर्या के लिए धर्म कथादि कहने के लिए अनशन[संथारा] करने के लिए श्री दशवकालिक सूत्र में बताये हुवे २३ दोष । [१] जहां नीचे दरवाजे में से होकर जाना पड़े वहां गोचरी करने से [२] जहां अंधेरा गिरता होवे उस स्थान पर" " [३] गृहस्थों के द्वार पर बैठे हुवे बकरे बकरी । [४] बच्चे बच्ची। [५] कुत्ते। [६] गाय के बछड़े आदि को उलांघ कर जावे तो। Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहार के १०६ दोष । [७] अन्य किसी प्राणी को उलांघ कर जाने से । [८] साधु को आया हुवा जान कर गृहस्थ संघटे [सचितादि] की चीजों को आगे पीछे कर देवें वहां से गोचरी करने पर । [6] दान निमित बनाया हुवा । [१०] पुन्य निमित बनाया हुवा । [११] रंक-भिखारी के लिए बनाया हुवा । [१२] बाबा साधु के लिए बनाया हुवा आहार लेवे तो। [१३] राज पिएड [रईसानी-बलिष्ट आहार लेवे तो। [१४] शम्यांतर-पिंड मकान दाता के यहां से लेवे तो। [१५] नित्य-पिंड हमशा एक ही घर से बाहा लेवे तो। (१६) पृथ्वी आदि सचित्त चीजों से लगा हवा लेवे .. तो, (१७) इच्छा पूर्ण क ने वाली दानशालाओं से से आहार ,,,, (१८) तुच्छ वस्तु ( कम खाने में आये और अधिक पाठनी पड़े) गोचरी में लेवे तो। (१६) आहार देने के पहिले सचित्त पानी से हाय धोया होवे तथा वहोराने के बाद सचित्त पानी से हाथ धोवे तो। (२०) निषिद्ध कुल-(मद्य मांसादि अभक्ष्य भोजी) का आहार लेवे तो Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६३०) थोकडा संग्रह। [२१] अप्रतीतकारी [ स्त्री पुरुष दुराचारी होवे ऐसे कुल का ] का आहार लेवे तो। [२२] जिसने अपने घर पर आने के लिये मना किया होवे ऐसे गृहस्थ के घर का आहार लेवे तो [२३] मदिरादि वस्तु की गोचरी करे तो-महा दोष है -: श्री नाचारांग सूत्र में बताये हुवे ८ दोषः[१] महेमान निमित्त बनाये हुवे आहार में से उनके जीमने के पहिले आहार लेवे तो। [२] त्रस जीवों का मांस [ जो सर्वथा निषिद्ध है ] लेवे तो महादोष । [३] पुन्यार्थ धन-धान्य में से बनाया हुवा आहार लेवे तो। [४] रसोई [ ज्योनार-जीमनवार ] में से आहार लेवे तो। [५] जिस घर पर बहुतसे भिखारी-भोजनार्थी इकठे ___ हुवे हो उस घर में से आहार लेवे तो। [६] गरम आहार को कूक देकर वहोराया हुवा (७) भूमि गृह (भोयरा-ऊडी भकारी) में से निकाला हुवा आहार लेवे तो। (८) पंखे आदि से ठण्डे किये हुवे आहार को लेवे तो श्री भगवती सूत्र में बताये हुवे १२ दोष (१) संयोग दोष आये हुवे आहार में मनोज्ञ बनाने Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्राहार के १०६ दोप। (६३१) - NA के लिये अन्य चीजें मिलावे ( दूध में शकर आदि मिलाव) (२) द्वेष-दोप-निरस आहार मिलने से घृणा लावे तो (३) राग-दोष-सरस ,, , , खुशी,, ,, (४) अधिक प्रमाण में [ ढूंस २ कर ] अाहार करे तो [५] कालातिकम दोष-पहेले पहर में लिये हुवे का ४ थे पहेर में आहार करे तो। [६] मार्गातिक्रम दोष-दो गाउ से अधिक दूर लेजाकर आहार करे तो। [७] सूर्योदय पहेले सूर्योदय पश्चात् आहार करे तो । [८] दुष्काल तथा अटवी में दानशालाओं का , लेवे तो। [६] ,, में गरीबों के लिये किया हुवा आहार ,,, [१०] ग्लान-रोगी प्रमुख , " " " " " [११] अनाथों के लिये , " " " " [१२] गृहस्थ के आमन्त्रण से उसके घर जाकर आहार लेंवे तो। श्री प्रश्न व्याकरण सूत्र में बनाये हुवे ५ दोष [१] मुनिके निमित्त आहार का रूपान्तर करके देवे तो १२] , , , , , पोय पलट , , " [३] गृहस्थ के यहां से अपने हाथ द्वारा आहार लेवे तो [४] मुनि के निमित्त भंडारिये आदि के अन्दर से निकाल कर दिया हुवा आहार लेवे तो। Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ६३२) थोकडा संग्रह। Pho [५] मधुरवचन बोल कर [खुशामद करके ] आहार का याचना करके लेवे तो। श्री निशीथ सूत्र में बताये हुवे ६ दोष । [ ] गृहस्थ के यहां जाकर 'इस बर्तन में क्या है। इस प्रकार पूछ २ कर याचना करे तो। (२) अनाथ, मजूर के पास से दीनतापूर्वक याचना ____ करके आहार ले तो। (३) अन्य तीर्थी (बाबा-साधु ) की भिक्षा में से याचकर आहार लेवे तो। (४) पासत्था (शिथिलाचारी) के पास से याचकर लेवे तो। (५) जैन मुनियों की दुर्गछा करने वाले कुल में से ___आहार लेव तो। (६) मकान की आज्ञा देने वाले को ( शय्यांतर ) साथ लेकर उसकी दलाली से आहार लेवे तो। श्री दशा श्रुत स्कन्ध सूत्र में बताये हुवे २ दोष । (१) बालक निमित्त बनाया हुवा आहार लेवे तो (२) गर्भवन्ती " " " " ," श्री वृहत्कल्प सूत्र में बताया हुआ १ दोष (१) चार प्रकार का आहार गत्रि को वासी रखकर दूसरे रोज भोगवे तो दोष । Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्राहार के १०६ दोष । (६३३) एवं ४२४५+२+२३++१२+५४६४२४१=१०६ इनमें ५ मांडला का और १०१ गोचरी का दोष जानना। ॥ इति श्राहार के १०६ दोष सम्पूर्ण ॥ Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६३४) थोकडा संग्रह। - ॐ साधु-समाचारी तथा साधुओं के दिन कृत्य और रात्रि कृत्य श्री उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन २६ समाचारी १० प्रकार की:-(१) आवस्सिय (२) निसिहिय (३) आपुच्छणा (४) पडि पुच्छणा (५) छंदणा (६) इच्छा कार (७) मिच्छा कार (८ तहकार (8) अन्भु. ठणा और (१०) उप-संपया समाचारी। (१) श्रावस्तिय-साधु आवश्यक-जरूरी (आहार निहार, विहार ) कारण से उपाश्रय से बाहर जावे तब 'आवस्सिय' शब्द बोल कर निकले । (२) निसिहिय-कार्य समाप्त होने पर लोट कर जब पुनः उपाश्रय में आवे तब 'निसिहिय' शब्द बोल कर आवे । (३) अापुच्छणा-गोचरी, पडिलेहण आदि अपने सर्व कार्य गुरु की आज्ञा लेकर करे।। (४) पाडपुच्छणा-अन्य साधुओं का प्रत्येक कार्य गुरु की आज्ञा ले कर करना। (५) छंदणा-अाहार पानी गुरु की आज्ञानुसार दे देवे और अपने भाग में आये हुवे आहार को Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधु-समाचारी। (६३५) भी गुरुजनों आदि को आमन्त्रित करने के बाद सावे । (६) इच्छाकार-[पात्रलेपादि] प्रत्येक कार्य में गुरु की इच्छा पूछ कर करे। (७) मिच्छाकार-पत्किचित् अपराध के लिये गुरु समक्ष आत्म निंदा करके 'मिच्छामि दुकाई दे। (८) तहकार-गुरु के वचन को सदा 'तहत्त' प्रमाण कह कर प्रसन्नता से कार्य करे। (8) अन्भुठणा-गुरु, रोगी, तपस्वी श्रादि की ग्लानता (घृणा) रहित वैयावच्च करे।। (१०)उपसंचया-जीवन पर्यन्त गुरुकुल वास करे (गुरु आज्ञानुसार विचरे ) दिन कृत्य चार पहर दिन के और चार पहर रात्रि के होते हैं। दिन तथा रात्रि के चोथे भाग को पहर कहना । (१) दिन निकलते ही प्रथम पहर के चोथे भाग में सर्व उपकरणों का पडिलेहण करे (२) तत्पश्चात् गुरु को पूछे कि मैं वैयावच्च करूं अथवा सज्झाय ? गुरु की आज्ञा मिलने पर वैसा ही १ पहर तक करे। (३) दूसरे पहर में ध्यान (किये हुवे स्वाध्याय की चिंतवन) करे (४) तीसरे पहर में गोचरी करे. प्रासुक आहार लाकर गुरु को बतावे. संविभाग करे और बड़ों को आमन्त्रित करके प्रहार करे Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६३६) थोकडा संग्रह । (५) चौथे पहर के ३ भाग तक स्वाध्याय करे (६) चोथे भाग में उपकरणों का पडिलहण करे तथा पठाने की भूमि भी पडिलेहे; तत्पश्चात् (७) देवसी प्रतिक्रमण करे (६ आवश्यक करे )। रात्रि कृत्य देवसी प्रति क्रमण करने के बाद प्रथम पहर में अम. ज्झाय टाल कर स्वाध्याय करे दूसरे पहर में धान करे. स्वाध्याय का अर्थ चिंतवे तत्पश्चात् निद्राआवे तो तीसरे पहर में सविध यत्ना पूर्वक संथारा संस्तरीकर स्वल्प निद्रा लेकर चोथ पहर की शुरूआत में उठे, निद्रा के दोष टालने के निमित काउसग्ग करे, पोन पहर तक स्वाध्याय सज्झाय करे. चोथे पहर में चोथे (अंतिम) भाग में रायसि प्रति. क्रमण करे पश्चात् गुरु वंदन करके पचखाण करे । .. ॥ इति साधु समाचारी सम्पूर्ण । Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहोरात्रि की घडियों का यन्त्र । (६३७) अहोरात्रि की घड़ियों का यन्त्र (श्री उतराध्ययन सूत्र २६ वां अध्ययन ) ७ स्वासोश्वास का १ थोत्र, ७ थोव का १ लव, ३८॥ लव की १ घड़ी ( २४ मिनिट) प्रति दिन २॥ लब लव और २॥ थोर दिन बढता और घटता है, इसका यन्त्र । दिन कितनी घड़ी का रात्रि कितनी घड़ी की माह वदि ७ अ. शुदि ७ पूर्णिमा विदि७ प्र. शु.७ पूर्णि आषाढ ३४॥ ३५ ३५॥ ३६ २५॥ २५ २४॥ २४ श्रावण ३॥ ३५ ३४॥ ३४ २४॥ २५ २५॥ २६ भाद्रपद ३२॥ ३३ ३२॥ ३२ २६॥ २७ २७।। २८ आश्विन ३१॥ ३१ ३०॥ ३० २८॥ २६ २६॥ ३० कार्तिक २६॥ २६ २८। २८ ३०॥ ३१ ३१॥ ३२ मागशीर्ष २७॥ २७ २६॥ २६ ३२॥ ३३ ३३।। ३४ पोष २॥ २५ २४॥ २४ ३४॥ ३५ ३॥ ३६ माघ २४ २५ २५॥ २६ ३५। ३५ ३४॥ ३४ फाल्गुन २६॥ २७ २७। २८ ३३॥ ३३ ३२॥ ३२ चैत्र २८॥ २६ २६॥ ३० ३१॥ ३१ ३०॥ ३० वैशाख ३०॥ ३१ ३१॥ ३२ २६॥ २६ २८, २८ ज्येष्ट ५२।। ३३ ३३॥ २४ २७॥ ७ २६।। २६ ॥ इति अहोरात्रि की घड़ियों का यन्त्र सम्पूर्ण । ___ Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६३८ ) थोकडा संग्रह। 3 दिन पहर माप का यन्त्र (श्री उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन २६) दिन में प्रथम दो पहर में माप उत्तर तरफ मुंह रखकर लेवे और पीछले दो पहर में माप दक्षिण तरफ मुँह रखकर लेवे दाहिने पैर के घुटने तक की छाया को अपने पगले ( पावने ) और अङ्गुल से मापे इस प्रकार पोरसी तथा पोन पोरसी का माप पैर और पागल बताने वाला यन्त्र१ ली और ४ थी १ पौरसी पोन पोरसी माह विदि७ अ. शुदि ७ पू. विदि ७ अ. शुदि ७ पूर्णिमा अषाढ प. प्रां.प.प्र.प.प्र.प.प्रा.प.प्रां.प.श्री.प.प्र.प.. २-३ २-२ २-१२-०२-६२-८२-७२-६ श्रावण २-१२-२ २-३२-४२-७२-८२-६२-१० भाद्रपद२-५२-६ २-७२-८३-१३-२३-३ ३-४ आश्विन२-६२.१० २.११३-०३-५३-६३-७३-८ कार्तिक ३-१३-२३-३ ३-४ ३-६३.१० ३ ११४.० मा.शीर्ष३-५३-६३-७३-८४-३ ४-४ ४-५४-६ पोष ३.६३.१०३-११४-०४-७४-८४-६४.१० माघ ३.११३.१०३-६३-८४-६४-८४-७४-६ फाल्गुन ३-७३-६३-५३-४४-३४-२४-१४-० चैत्र ३-३३-२३-१३-०३-११३.१० ३-६३-८ Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिन पहर माप का यन्त्र । (६३६ ) वैशाख २-११२.१०२-६२-८३-७३-६ ३-५३-४ ज्येष्ट २-७२-६ २-५२-४ ३-१३-०२-११२-१० गुटना ( ढींचण) के बदले बेंत से माप करना होवे तो ऊपर से आधा समझना । ॥ इति दिन पहर माप का यन्त्र सम्पूर्ण । Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAA ( ६४० ) थोकडा संग्रह। रात्रि पहर देखने [जानने की विधि ( श्री उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन २६) जिस काल के अन्दर जो जो नक्षत्र समस्त रात्रि पूर्ण करता होवे वो नक्षत्र के चौथे भाग में आता हो । उस समय ही फेरसी आती है रात्रि की चौथी पोरसी चरम (अन्तिम ) चौथे भाग को (दो घटी रात्रिको ) पाउस (प्रभात ) काल कहते हैं । इस समय सज्झाय से निवृत हो कर प्रति क्रमण करे । नक्षत्र निम्न लिखित अनुसार है । श्रावण में.-१४ दिन उत्तराषाढा, ७दिन अभिच, ८दिन श्रवण १ निष्टा भाद्रपद में-१४दिन धनिष्टा, ७दिन शतभिखा, ८ दिन पूर्वा भाद्रपद, १ दिन उत्तरा भाद्रपद आश्विन में.-१४ दिन उत्तरा भाद्रपद, १५ दिन खती १ दिन अश्वनी कार्तिक में--१४ दिन अश्वनी, १५ दिन भरणी, १ दिन कृतिका मगशर में--१४ दिन कृतिका, १५ दिन रोहिणी, १दिन मृगशर पोष में १४ दिन मृगशर, दिन आद्री, ७ दिन पुनर्वसु १ दिन पुष्य । Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रात्रि पहर देखने [ मानने ] की विधि । ( ६४१) माघ में-१४ दिन पुष्य, २५ दिन अश्लेषा, १ दिन मघा । ____ फाल्गुन में..१४ दिन मघा, १५ दिन पूर्वा फाल्गुनी, १ दिन उत्तरा फाल्गुनी । चैत्र में-१४ दिन उत्तरा फाल्गुनी, १५देन हस्ति, १ दिन चित्रा। वैशाख में--१४दिन चित्रा,१५ दिन स्वाति, १ दिन विशाखा । ज्येष्ट में-१४ दिन विशाखा, १५ दिन अनुराधा, १ दिन ज्येष्टा । ____ आषाढ में--१४ दिन ज्येष्टा, १५ दिन मूल और १ दिन पूर्वाषाढा। अन्तिम एकेक दिन लिखा है। वो नक्षत्र पूर्णिमा के दिन होवे तो उस महिने का अन्तिम दिन समझना । ॥ इति रात्रि पहर जानने की विधि सम्पूर्ण ॥ Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६४२) योकडा संग्रह। र शाही १४ पूर्व का यंत्र १४ पूर्व के पद संख्या स्याही विषय-वर्णन ' नाम "हास्त उत्पाद क्रोड १० ४ १ सर्व द्रव्य, गुण पर्याय की उत्पति और नाश अगणीय ७० लाख १३१२ २ सद्र० गु०प० का ज्ञान वीर्य ६० ८ ८ ४ जीवों के वीर्य का वर्णन श्रास्ति १ काड़ १८१० ८ श्रास्ति नास्ति का स्वरूप नास्ति और स्याद्वाद ज्ञान प्रमाद २" १२० १६ पांच ज्ञान का व्याख्यान सत्य " २६" E२० ३२ सत्य संयम का" आत्मा” १"८०ला. ० ६४ नय प्रमाण. दर्शन सहित श्रात्म स्वरूप कर्म " ८४ लाख १२८ कर्म प्रकृति, स्थिति अनु भाग, मूल उतर प्रकृति प्रत्याख्यान १को १६०२० ० २५६ प्रत्याख्यान का प्रतिप्रमाद पादन विद्याप्रमाद६ ० ५१२ विद्या के अतिशय का व्याख्यान कल्याणक' १ " १२ ० १०२४ भगवान के कल्याणका" प्राणावाय" " १३ ० २०४८ भेदस,हतप्राणके विका' क्रियावशा०.५०ला, ३० - ४०६६ क्रिया का व्याख्यान लोक बिंदु-६६ लाख २५ ० ८११२ बिन्दु में लोक स्वरूप, सर्व अक्षर सन्निपात अम्बाड़ी सहित हाथी के समान स्याही के ढगले से पूर्व लिखाया जाता है एवं १४ लिखने के लिये कुल १६३८३ हाथी प्रमाण स्वाही की जरूरत होती है इतनी स्याही से जो लिखा जाता है उस ज्ञान को १४ पूर्व का ज्ञान कहते हैं। ॥ इति १४ पूर्व का यन्त्र सम्पूर्ण ॥ बे गणधर श्री सुधमास्वामी सार Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यक् पराक्रम के ७३ बोल | * सम्यक् पराक्रम के ७३ बोल ( श्री उत्तराध्ययन सूत्र २८ वां अध्ययन ) (१) वैराग्य था मोक्ष पहुंचने की अभिलाषा । (२) विषय - भोग की अभिलाषा से रहित होना । (३) धर्म करने की श्रद्धा । (४) गुरु स्वधर्मी की सेवा - भक्ति करना ! (५) पाप का लोचन करना । ( ६४३ ) (६) श्रात्म दोषों की आत्म--साक्षी से निन्दा करना । (७) गुरु के समीप पाप की निन्दा करना । (८) सामायिक ( सावद्य पाप से निवृत होने की मर्यादा ) करे | (६) तीर्थकरों की स्तुति करे । (१०) गुरु को वंदन करे । (११) पाप निर्वतन - प्रति क्रमण करे । (१२) काउसग्ग करे (१३) प्रत्याख्यान करे ( १४ ) संध्या समय प्रतिक्रमण करके नमोत्थुरां कहे, स्तुति मंगल करे (१५) स्वाध्याय का काल प्रतिलेखे (१६) प्रायश्चित लेवे (१७) क्षमा मांगे (१८) स्वाध्याय करे (१९) सिद्धान्त की वाचनी देवे (२०) सूत्र - अर्थ के प्रश्न पूछे (२१) वारंबार सूत्र ज्ञान फेरे (२२) सूत्रार्थ चिंतत्रे (२३) धर्म कथा क. (२४) सिद्धान्त की आराधना करे (२५) एकाग्र शुभ Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६४४) थोकडा संग्रह। मन की स्थापना करे (२६) सतरह भेद से संयम पाले (२७) बारह प्रकार का तप करे(२८)कम टाले(२६)विषय सुख टाले (३०) अप्रतिबन्धपना करे (३१) स्त्री पुरुष नपुंसक रहित स्थान भोगवे (३२) विशेषतः विषय आदि से निवर्ते (३३) अपना तथा अन्य का लाया हुवा आहार वस्त्रादि इकठे करके शंट लेवे इस प्रकार के संभोग का पच्चखाण करे (३४) उपकरण का पच्चखाण करे (३५) सदोष आहार लेने का पच्चखाण करे (३६) कषाय का पच्चखाण करे करे (३७) अशुभ योग का पच्च० (३८) शरीर शुश्रूषा का पच्च० (३६) शिष्य का पच्च० (४०) श्राहार पानी का पच्च० (४१) दिशा रूप अनादि स्वभाव का पच्च० (४२) कपट रहित यति के वेष और प्राचार में प्रवत (४३) गुणवन्त साधु की सेवा करे (४४) ज्ञानादि सर्व गुण संपन्न होवे (४५) राग द्वेष रहित प्रवते (४६) क्षमा सहित प्रवते (४७) लोभ रहित प्रवत (४८) अहङ्कार रहित प्रवर्ते (४९) कपट रहित (सरल-निष्कपट ) प्रवर्त (५०) शुद्ध अन्त:करण ( सत्यता ) से प्रवर्ते (५१) करण सत्य ( सविधि क्रिया काण्ड करता हुवा ) प्रवर्त (५२) योग ( मन, वचन, काया) सत्य प्रवत (५३) पाप से मन निवृत कर मनगुप्ति से प्रवर्ते (५५) काय-गुप्ति से प्रवर्ते (५६) मन में सत्य भाव स्थापित करके प्रवर्ते (५७) वचन ( स्वाध्यादि) पर सत्य भाव स्थापित करके प्रवर्त (५८) काया को सत्य भाव से Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यक् पराक्रम के ७३ बोल। (६४५) प्रवर्ताचे (५६) श्रुत ज्ञानादि से सहित होवे (६०) समकित सहित होवे (६१) चारित्र सहित होवे (६२) श्रोत्रेन्द्रिय(६३) चक्षुइन्द्रिय - (६४) घ्राणेन्द्रिप-(६५) रसेन्द्रिय-(६६) स्पर्शन्द्रिय-का निग्रह करे (६७-७०) क्रोध, मान, माया, लोभ जीते (७१) राग द्वेष और मिथ्यात्व को जीते (७२) मन, वचन, काया के योगों को रोकते हुवे शैलेषी अवस्था धारण करके और (७३ ) कर्म रहित होकर मोक्ष पहुँचे। एवं आत्मा ७३ बोलों के द्वारा क्रमशः मोक्ष प्राप्त करके शीतलीभूत होती है। ॥ इति सम्यक पराक्रम के ७३ बोल सम्पूर्ण । Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६४६ ) थोकडा संग्रह। १४ राज लोक ... लोक प्रसंगा कोड़ा के'ड़ योजन के विस्तार में है जिसमें पंचास्ति काय भरी हुई है अलोक में आकाश सिवाय कुछ नहीं है । लोक का प्रमाण बताने के लिये 'राज' संज्ञा दी जाती है। - ३,८१,१२,६३० मन का एक भार, ऐसे १००० भार वजन के एक गोले को ऊंचा फेके तो ६ महिने ६ दिन, ६ पहर, ६ घड़ी, ६ पल में जि। नीचे आवे उसने क्षेत्र को १ राजु कहते हैं ऐसे १४ राजु का लम्बा (ऊंचा) यह लोक है। ___राज' के ४ प्रकार है- (१) घनराज-जम्बाई, चौड़ाई ऊंचाई एकेक राजु (२) परतर राजघन राज का चोथा भाग (३) सूचि राज-परतर राज का चोथा भाग (४) खंड राजसूचि राज का चौथा भाग । ____ अधो लोक ७ राजु जाड़ा (ऊंगा) है जिसमें एकेक राजु की जाड़ी ऐसी ७ नरक है। नाम जाड़ी चौड़ाई धनराज परतरराज सूचिराज खंडराज रत्न प्रभा१राजु १ राजु १ राजु ४ राजु १६ राजु ६४ राजु शकर" ॥ २॥" ६" २५॥ १००" ४००" वालु " " ४ "१६" ६४” २५६" १०२४ " Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ राज लोक । ५ २५" १०० " ४००. १६०० ६ ३६" १४४ " ५७६ " २३०४" ६|| " ४२|" १६६" ६७६ " २७०४ " 19 " ४६" १६६ " ७८४ ” ३१३६ ", धो लोक में कुल १७५॥ घनराज, ७०२ परतर राज, २८०८ सूचि राज, ११२३२ खण्ड राज हैं । १८०० यो न जाड़ा व १ राज विस्तार वाला तिर्छा लोक है जिसमें असंख्यात द्वीप समुद्र ( मनुष्य तिर्देव के स्थान ), और ज्योतिषी देव हैं तिर्छा और उध्वं लोक मिल कर ७ राजु है | " पक धूम तम तमतमा" " "9 99 99 ܕܕ "" 27 19 이 ** समभूमि से १ || राजु ऊंचा १-२ देवलोक है यहां से १ राजु ऊँवा तीसरा - चौथा देवलोक है यहाँ से ० ||| राजु ऊंचा देवलोक है | राजु ऊंचा लांतक देवलोक यहाँ से | राजु ऊंचा सातवाँ देवलोक, राजु ऊंचा आठवाँ ०॥ राजु ऊंचा ६-१० वाँ देवलोक, ०॥ राजु ऊंचा ११-१२ देवलोक, १ राजु ऊंचा नव ग्रीयवंक १ राजु ऊंचा ५ अनुत्तर विमान आते हैं इनका क्रमशः बढ़ता घटता विस्तार यन्त्रानुसार है 19 स्थान जाड़ा विस्तार घनराज परतरराज सूचिराज खंडराज सम भूमि से || १ oil २ द ३२ यहां से oll १ ॥ 오른 ४। ७२ ૨ ६४ ( ६४७ ) "" १८ १६ Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ( ६४८ ) १-२देवलोक से० | २॥ यहां से ० ।। ३ ३-४देवलोक से॥ ४ ५ वां ० ||| ५ 이 ५ , ६ ट्ठा ." ७ वाँ वाँ ६-१०, ११-१२,, 19 95 ० । ४ 이 ०|| ३ ० ॥ २॥ 이 यहां से ० । २॥ नव ग्रीयवेक ||| २ यहां से ० ॥ १ ॥ १ ५ अनु. वि. ० १॥ १६ ܩ 50 15 ४. १८ ३२ ७५ ६। २५ १६ १६ १८ ||| 20 20 ४ ४ ॥ १ १॥ શા ६। १६ लोक के २३६ घन राज हुवे । ६। १८ १२॥ 257 १२ ४॥ N २५ ७२ १२८ ३०० १०० ६४ ६४ 42020 2 ७२ ५० २५ ४८ १८ ॥ इति १४ राजलोक सम्पूर्ण ॥ oli ८ ३२ कुल ऊर्ध्व लोक के ६३ || घन राज हुवे और समत थोकडा संग्रह | १०० २८८ ** १२०० ४०० २५६ २५६ २८८ २०० १०० १६२ ૭૨ Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नारकी का नरक वर्णन । (६४६) ७ नारकी का नरक वर्णन नरक के २१ द्वार-१ नाम २ गोत्र ३ (जाड़ापना) ऊंचाई ४ चौड़ाई ५ पृथ्वी पिण्ड ६ करण्ड ७ पाथड़ा ८ आंतराह पाथड़ा पाथड़ा का श्रान्तरा (अन्तर ) १० घणोदधि ११ घनवायु १२ तनवायु १३ आकाश १४ नरक नरक का अन्तर १५ नरक वासा १६ अलोक अन्तर १७ वलिया १८ क्षेत्र वेदना १६ देव वेदना २० वैक्रिय २१ अल्प बहुत्व द्वार । १ नाम द्वार-१ घमा २ वंशा ३ शीला ४ अञ्जना ५राठा ६ मघा ७ माघवती। २ गोत्र द्वार-१ रत्न प्रभा २ शर्करा प्रभा ३ वालु प्रभा ४ पंक प्रभा ५ धूम प्रभा ६ तम प्रभा ७ तमतमा (महा तम ) प्रभा। ___३ जाड़ा पना द्वार-प्रत्येक नरक एकेक राजु जाडी है। ___(४) चौड़ाई-१ ली नरक १ राजु चौड़ी, २ री २॥ राजु, तीसरी ४ राज, चौथी ५ राज, पांचवी ६ राजु, छठी ६॥ राजु, और ७ वीं नरक ७ राजु चौड़ी है परन्तु नेरिये १ राज विस्तार में (त्रस नाल प्रमाण) ही हैं। (५) पृथ्वी पिण्ड द्वार-प्रत्येक नरक असंख्य २ Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६५० ) थोकडा संग्रह। योजन की है परंतु पृथ्वी पिंड १ ली नरक का १८०००० यो०, दूसरी का १३२००० यो, तीसरी का १२०००० यो०, चौथी का १२०००० यो०, पांचवी का ११८००० यो०, छठी का ११६००० यो०, और सातवीं का १०८००० योजन का पृथ्वी पिएड है। (६) करण्ड द्वार-पहेली नरक में ३ करण्ड हैं (१) खरकरएड १६ जात का रत्न मय १६ हजार योजन का (२) श्रायुल बहल पानी (जल) मय ८० हजार योजन का (३) पंक बहुल कदम मय ८४ हजार योजन का कुल १८०००० योजन है शेष ६ नरकों में करण्ड नहीं। ७ पाथड़ा ८ अान्तरा द्वार--पृथ्वी पिण्ड में से १००० योजन ऊपर और १००० योजन नीचे छोड़ कर शेष पोलार में आन्तरा और पाथड़ा है । केवल ७ वी नरक में ५२५०० यो० नीचे छोड़ कर ३००० योजन का एक पाथड़ा है। पहेली नरक में १३ पाथड़ा, १२ अान्तरा है दूसरी , , ११ , , १० ॥ " तीसरी , " ६ , , ८ " " चोथी , , ७ , , ६ , , पांचवीं , , ५ , , ४ , " छठी , , ३ , , २ . " पहेली नरक के १२ अान्तरा में से २ ऊपर के छोड़ Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नारकी का नरक वर्णन। कर शेष १० बान्तराओं में दश जाति के भवन पति रहते हैं। शेष मरकों में भवन पति देवताओं के पास नहीं हैं। प्रत्येक पाथड़ा ३००० योजन का है जिसमें १००० योजन ऊपर, १००० योजन नीचे छोड़ कर मध्य के १००० योजन के अन्दर नेरिये उत्पन्न होने की कुम्भिये हैं। ६ एकेक पाथड़े का अन्तर--पहेली नरक में ११५८३३ यो०, दूसरी में ६७०० यो०, तीसरी में १२७५० यो०, चोथी में १६१६६२ यो०, पांचवीं में २५२५० यो०, छट्ठी में ५२५०० यो०, का अतन है सातवीं में एक ही पाथड़ा है। १० घनोदधि द्वार-प्रत्येक नरक के नीचे २० हजार योजन का घनोदधि है। ११ घनवायु द्वार--प्रत्येक नरक के घनोदधि नीचे असंख्य योजन का धनवायु है । १२ तनवायु द्वार--प्रत्येक नरक के धनवायु नीचे असंख्य योजन का तनवायु है । १३ अाकाश द्वार प्रत्येक नरक के तनवायु नीचे असंख्य योजन का आकाश है। १४ नरक-नरक का अन्तर--एक नरक में दूसरी नरक से असंख्य असंख्य योजन का अन्तर है। Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६५२) थोकडा संग्रह। - - - - १५ नरक वासा द्वार-पहेली नरक में ३० लाख, दूसरी में २५ लाख, तीसरी में १५ लाख, चोथी में १० लाख, पांचवीं में ३ लाख, छठी में ६६६६५ और सातवीं नरक में ५ नरक वासा हैं। इनमें , नरक वासा असंख्यात योजन का है जिनमें असंख्यात नेरिये हैं। , नरक वासा संख्यात योजन का है और उनमें संख्यात नेरिया हैं। तीन चिमटी बजाने में जम्बूद्वीप की २१ वार प्रदक्षिणा करने की गति वाले देवों को ज. १-२-३ दिन० उ० ६ माह लगे कितनों का अन्त आवे और कितनों का नहीं अावे, एवं विस्तार वाला असंख्य योजन का कोई २ नरक वासा है। १६ अलोक अन्तर-१७ वलोया द्वार-प्रलोक और नरक में अन्तर है, जिसमें धनोदधि, धनवायु और तनुवायु का तीन वलय (चूड़ी कड़ा) के आकार समान आकार हैनरक रत्न प्र० शर्कर प्र. वालु प्र० पंक प्र० धूम प्र० तम प्र० तमतमा प्र० अलोक अं०१२यो. २३यो० १३.यो.१४ यो. १४३ यो.१५:यो. १६ यो. वलय सं० ३ ३ ३ ३ ३ ३ ३ घनोदधि ६ यो. ६ यो० ६ यो० ७ यो० ७३ यो. ७३ यो० धनवात ॥ यो० ४॥ ” ५ " ॥ " ५॥ ॥ ५॥” ६" तनवात an" ३ " "३" m" sms " ॥३° २” Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नारकी का नरक वर्णन । ( ६५३ ) १८ क्षेत्र वेदना द्वार-दश प्रकार को है-अनन्त क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण, दाह (जलन), ज्वर, भय, चिंता, खुजली, और पराधीनता, एक से दूसरी में, दूसरी से. तीसरी में (इस प्रकार) अनन्त अनन्त गुणो वेदना सातवीं नरक तक है नरक के नाम के अनुसार पदार्थों की भी अनन्ती वेदना है। १६ देव कृत वेदना-१.२.३ नरक में परमाधामी देव पूर्व कृत पाप याद करा २ कर विविध प्रकार से मार-दुख देते हैं शेष नरक के जीव परस्पर लड़ २ कर कटा करते हैं। २० वैक्रिय द्वार-नेरिये खराब तीक्ष्ण) शस्त्र के समान रूप बनाते हैं अथवा वज्रमुख कीड़े रूर होकर अन्य नेरियों के शरीरों में प्रवेश करते हैं अन्दर जाने बाद बड़ा रूप बना कर शरीर के टुकड़े २ कर डालते हैं। २१ अल्प बहुत्व द्वार सर्व से कम सातवीं नरक के नरिये, उससे ऊपर ऊर के असंख्यात गुणे नेरिये जानना, शेष विस्तार २४ दण्डकादि थोकड़ों में से जानना। ॥ इति नारकी का वर्ण। सम्पूर्ण । Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६५४) थोकडा संग्रह। भवनपति विस्तार भवनपति देवों के २१ द्वार-१ नाम २ बासा ३ राजधानी ४ सभा ५ भवन संख्या ६ वर्ण ७ वस्त्र ८ चिन्ह ६ इन्द्र १० सामानिक ११ लोकपाल १२ त्रयस्त्रिंश १३ आत्म रक्षक १४ अनीका १५ देवी १६ परिषद १७ परिचारणा १८ वैक्रिय १६ अवधि २० सिद्ध २१ उत्पन्न द्वार। १ नाम द्वार-१० भेद-१ असुर कुमार २ नाग कुमार ३ सुवर्ण कुमार ४ विद्युत कुमार ५ अग्नि कुमार ६ द्वीप कुमार ७ दिशा कुमार ८ उदधि कुमार ६ वायु कुमार १० स्तनित् कुमार । २ वासा द्वार-पहेली नरक के १२ आन्तराओं में से नीचे के १० आन्तराओं में दश जाति क भवनपति रहते हैं। ३ राजधानी द्वार-भवनपति की राजधानी तिर्छ लोक के अरुण वर द्वीप-समुद्रों में उत्तर दिशा के अन्दर 'अमर चंचा ' बलेन्द्र की राजधानी है और दूसरे नवनिकाय के देवों की भी राजधानियें हैं । दक्षिण दिशा में • चमर चंचा' चमरेन्द्र की और नव निकाय के देवों की भी राजधानियें हैं। ४ सभा द्वार-एकेक इन्द्र के पांच सभा हैं Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भवनपति विस्तार । ( ६५५) Antarvvvvvv (१) उत्पात सभा ( देव उत्पन्न होने के स्थान ), (२) अभिषेक सभा ( इन्द्र के राज्याभिषे . का स्थान) (३) अलंकार सभ' ( देवों के वस्त्र भूषण-अलंकार सजने के स्थान ) ( ४ ) व्यवाय सभा ( देवयोग्य धर्म नीति की पुस्तकों का स्थान ) और (५) सौधर्मी सभा ( न्यायइन्साफ करने का स्थान) ५ भवन संख्या -कुल भवन ७७२००००० है जिन में ४ क्रोड ६ लाख भवन दक्षिण में और ३ कोड़ ६६ लाख भवन उत्तर दिशा में हैं विस्तार यन्त्र से समझना। ६ वर्ण, ७ वस्त्र चिन्ह ६ इन्द्र द्वार-यन्त्र से जानना भवन THE वस्त्र । क इन्द्र दो २ नाम वर्ण चिन्ह वर्ण उतर के दक्षिण के EE असुरकुमार ३० ३४काला रक चूडामणि बलेन्द्र चमरेन्द्र नाग " ४० ४४ श्वेत नीला नागफण भूतन्द्र धरणेन्द्र सुवर्ण" ३४ ३-सुवर्ण श्वेत गरुड़ वेणुदाली वेणु देव विद्युत " ३६ ४० रक्त नीला वज्र हरिसिंह हरिकन्त ४० " " कलश अग्नि मानव अग्निसिंह द्वाप " ३६ ४० " " सिंह विशेष्ट पूर्ण दिशा " ३६ ४०पांडर " अश्व जल प्रभ जलकन्त उदधि " ३६ ४०सुवर्ण श्वेत गज अमृत वाहन अमृत गति पवन " ४६ ५०श्यामपं.वर्ण मगर प्रभंजन वेलव स्तनित" ३६ ४० सुवर्ण श्वेत वर्धमान महाघोष घोष श्रांग्न Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थोकडा संग्रह। सामानिक देव-(इन्द्र के उमराव समान देव ) चमरेन्द्र ६४०००, बलेन्द्र के ६०००० और शेष १८ इन्द्रों के छः २ हजार सामानि देव: हैं। ११ लोक पाल देव-( कोट वाल समान ) प्रत्येक इन्द्र के चार २ लोक पाल हैं। १२ त्रयस्त्रिंश देव-( राज गुरु समान) प्रत्येक इन्द्र के तेंतीश २ त्रयस्त्रिंश देव हैं। १३ अात्म रक्षक देव-चमरेन्द्र के २५६००० देव, बलेन्द्र के २४०००० देव और शेष इन्द्रों के २४-२४ हजार देव हैं। १४ अनीका द्वार-हाथी, घोड़े, रथ, महेष, पैदल, गंधर्व, नृत्यकार एवं ७ प्रकार की अनीका है प्रत्येक अनीका की देव संख्या-चमरेन्द्र के ८१२८०००, बलेन्द्र के ७६२०००० और १८ इन्द्रों के ३५५६००० देव होते हैं। १५ देवी द्वार-चमरेन्द्र तथा बलेन्द्र की ५.-५ अनमहिषी (पटगनी) हैं प्रत्येक पटरानी के आठ हजार देवियों का परिवार है एकेक देवी आठ हजार चैक्रिय कर अर्थात् ३२ कोड वैक्रिय रूप होते हैं शेष १८ इन्द्रों की ६-६ अग्रमहिषी हैं एकेक के ६..६ हजार देवियों का परिवार है और सर्व ६.६ हजार वक्रिय करे एवं २१ क्रोड ६० लाख वैक्रिय रूप होते हैं। ___ Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भवनपति विस्तार । (६५७) १६ परिषद द्वार-परिषमा(सभा)तीन प्रकार की हैं। १ आभ्यन्तर सभा-सलाह योग्य बड़ों की सभा जो मान पूर्वक दुलाने से प्रादें ( औ भेजने पर जावें)। २ मम सभा-सामान्य विवार वाले देवों की सभा जो बुलाने से आवे परन्तु बिना भेजे जावें । ३ बाह्य सभा-जिन्हें हुक्म दिया जा सके ऐसे देवों की सभा, जो बिना बुलाये आयें और जावें। श्राभ्यन्तर सभा मध्य सभा बाह्य सभा देव सं० स्थिति देव सं० स्थिति देव मं० स्थिति चमरेन्द्र २३००० २॥पल्य २८००० २ पल्प ३५००० १॥पल्य बलेन्द्र २०००० ३॥ ,, २४००० ३ ,, २८००० २॥ , दक्षिण के ६ इन्द्र ६०००० १ ,, ७०००० ०॥ ,, ८०००० ०॥ ,, उत्तर के से अ० से अ० ६ इन्द्र ५०००००। , ६०००० ,,, ७०००० , , स० श्राभ्यन्तर सभा मध्यम सभा बाहा सभा देवी सं० स्थिति देवी सं० स्थिति देवी सं० स्थिति चमरेन्द्र ३५० १॥पल्य ३०० १ पल्य २५० १ पल्य बलेन्द्र ४५८ २॥ , ४०० २, ३५० १॥ ,, दक्षिण के ६ इन्द्र १७५ ॥, १५० , १२५ ०, से न्यून से अ० उत्तर के ६ इन्द्र २२५ ॥पल्य २०० ०॥पल्य १७५ ०, से न्यून सेना से न्यून Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६५८) थोकडा संग्रह | १७ परिचरण द्वार - ( मैथुन ) पांच प्रकार का - मन, रूप शब्द, स्पर्श और काय परिचारण ( मनुष्य वत् देवी के साथ भोग ) १८ वैक्रिय करे तो चमरेन्द्र देव - देवियों से समस्त जंबूद्वीप भरे, असंख्य द्वीप भरने की शक्ति है परन्तु भरे नहीं । बलेन्द्र देव - देवियों से साधिक जंबूद्वीप भरे, असंख्य भरने की शक्ति है परन्तु भरे नहीं । १८ इन्द्र देव - देवियों से समस्त जंबूद्वीप भरे संख्यात द्वीप भरने की शक्ति है परन्तु भरे नहीं । लोकपाल देवियों की शक्ति संख्यात द्वीप भरने की शेप सबों की सामानिक, त्रयस्त्रिश देव-देवी और लोकपाल देव की वैक्रिय शक्ति अपने इन्द्रवत्, वैक्रिय का काल १५ दिन का जानना | १६ अवधि द्वार - असुर कुमार देव ज० २५ यो० उ० ऊर्ध्व सौधर्म देवलोक, नीचे तीसरी नरक, तीर्च्छा असंख्य द्वीप समुद्र तक जाने व देखे शेष ६ जाति के भवनपति देव ज० २५ यो० उ० ऊंचा ज्योतिषी के तले तक, नीचे पहेली नरक, तीच्र्च्छा संख्यांत द्वीप समुद्र तक जाने - देखे | २० सिद्ध द्वार - भवनपति में से निकले हुवे देव Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भवनपति विस्तार । (६५६) मनुष्य होकर १ समय में १० जीव मोक्ष जासके भवनपति-देवियों में से निकली हुई देवियें ( मनुष्य होकर ) पाँच जीव मोक्ष जा सके। _२१ उत्पन्न द्वार-सर्व प्राण, भूत, जीव सत्य भवनपति देव व देवी रूप से अनन्त वार उत्पन्न हुवे परन्तु सत्य ज्ञान बिना गरज सरी नहीं ( उद्देश्य पूर्ण हुवा नहीं) शेष विस्तार लघुदण्डक आदि थोकड़े से जानना चाहिये। ॥ इति भवन पति विस्तार सम्पूर्ण ।। -OHD - Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६६० ) थेकडा संग्रह | वाण व्यन्तर विस्तार वाण व्यन्तर के २१ द्वार - १ नाम २ वास ३ नगर ४ राजधानी ५ सभा ६ व ७ वस्त्र ८ चिन्ह ६ इन्द्र १० सामानिक ११ आत्म रक्षक १२ परिषद १३ देवी १४ अनीका १५ वैक्रिय १६ अवधि १७ परिचारण १८ सुख १६ सिद्ध २० भव २१ उत्पन्न द्वारं । १ नाम द्वार - १६ व्यन्तर- १ पिशाच २ भूत ३ यक्ष ४ राक्षस ५ किन्नर ६ किंपुरुष ७ महोरग ८ गंधर्व पन्नी १० पान पनी ११ ईसीवाय १२ भूय वाय १३ कन्दिय १४ महा कन्दिय १५ कोदण्ड १६ पयंग देव । २ वासा द्वार - रत्नप्रभा नरक के ऊपर का १ हजार योजन का जो पिण्ड है उसमें १०० योजन ऊपर १०० योजन नीचे छोड़ कर ८०० योजन में ८ जाति के वायव्यन्तर देव रहते हैं और ऊपर के १०० यो० पिएट में १० यो० ऊपर, १० यो० नीचे छोड़कर ८० यो० में 8 से १६ जाति के व्यन्तर देव रहते हैं । ( एकेक की यह मान्यता है कि ८०० यो० में व्यन्तर देव और ८० यो० में १० जृम्भका देव रहते हैं । ) ३ नगर द्वार - ऊपर के वासाओं में वायव्यन्तर Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाण व्यन्तर विस्तार । (६६१ ) देवों के असंख्यात नगर हैं जो संख्याता संख्याता योजन के विस्ता वाले और समय हैं । ४ राजधानी द्वार-वनपति से कम विस्तार वाली प्रायः १२ उजाप यो पर की तीखें लोक के द्वीप समुद्रों में रत्नमय राजधानियें हैं। ___५ सभा द्वार-एकेक इन्द्र के ५-५ सभा है भवन पति वत् । ६ वर्ण द्वार-यक्ष, पिशाच, महोग, गंधर्व का श्याम वर्ण, किन्नर का नील , राक्षस और किंपुरुष का श्वेत, भूत का काला । इन वाण व्यन्तर देवों के समान शेष ८ व्यन्तर देवों के शरीर का वर्ण जानना । ७ वस्त्र द्वार--पिशाच, भूत, राक्षस के नीले वस्त्र, यक्ष किन्नर किंपुरुष के पीले वस्त्र, महोरग गन्धर्व के श्याम वस्त्र एवं शेष व्यन्तरों के वस्त्र जानना । ८चिन्ह और है इन्द्र द्वार-प्रत्येक व्यन्तर की जाति के दो २ इन्द्र हैं। व्यन्तर देव दक्षिण इन्द्र उत्तर इन्द्र धजा पर चिन्ह पिशाच कालेन्द्र महा कालेन्द्र कदम वृक्ष भूत सुरूपेन्द्र प्रति रुपेन्द्र सुलक्ष , यक्ष पूर्णेन्द्र मणिभद्र बड , राक्षप्त भीम महा भीम खटंक उपकर Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६६२ ) किन्नर किंपुरुष किन्नर सापुरुष अतिकार्य गति रति पन्नी सनिहि घाई ऋषि ईश्वर महोरग गंधर्व पाण पन्नी ईसी वाय भूय वाय कन्दिय सुविच्छ महाकांन्दय हास्य कोदण्ड श्वेत पयंग देव पतंग मध्यम बाह्य किंपुरुष महापुरुष महाकाय गति यश सामानी विधाई ऋषि पाल महेश्वर विशाल आभ्यन्तर ८००० १०००० १२००० थोकडा संग्रह | अशोक वृक्ष चंपक 35 हास्यरति चंपक महाश्वेत नाग " पतंग पति तुंबरु १० सामानिक द्वार - सर्व इन्द्रों के चार चार हजार नाग " तुंबरु 59 कदम्य " सुलस " बड़ ,, खटंक उपकर अशोक वृक्ष सामानिक हैं । ११ आत्म रक्षक द्वार - सर्व इन्द्रों के सोलह सोलह हजार आत्म रक्षक देव हैं । १२ परिषदा द्वार - भवन पति समान इनके भी तीन प्रकार की सभा हैं । ( १ ) आभ्यन्तर ( २ ) मध्यम ( ३ ) बाह्य । सभा 19 देव संख्या स्थिति देवी संख्या स्थिति ० ॥ पल्य १०००| पल्य जाजेरी 99 ० ॥ " से न्यून १०००। ० | पल्य जा० १०००। " से न्यून Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाण व्यन्तर विस्तार । (६६३) १३ देवी द्वार-प्रत्येक इन्द्र के चार चार देवी, एक एक देवी हजार के परिवार सहित सब देविय हजार हजार वैक्रिय रूप कर सकती हैं। १४ अनीका द्वार-हाथी, घोडे आदि ७ प्रकार अनीका है प्रत्यक में ५०८००० देव होते हैं। १५ वैक्रिय द्वार-समग्र जम्बू द्वीप भरा जाय इतने रूप बनावे, संख्यात द्वीप समुद्र भरने की शक्ति है। १६ अवधि द्वार-ज. २५ यो०, उ० ऊंचा ज्योतिषी का तला, नीचे पहली नरक और तीर्छ संख्यात द्वीप समुद्र जाने देखे । १७ परिचारण द्वार-(मैथुन) ५ प्रकार से भवन पति समान। १८ सुख द्वार-अबाधित मनुष्यों के सुखों से अनन्त गुणा सुख है। १६ सिद्ध द्वार-वाण व्यन्तर देवों में से निकल कर १ समय में १० सिद्ध हो सके व देवियों में से ५ हो सके। २० भव द्वार-संसार भ्रमण करे तो १-२-३ जीव अनन्त भव कर। २१ उत्पन्न द्वार-सर्व जीव अनन्ती वार वाण व्यतन्र में उत्पन्न हो आये हैं परन्तु इन पौगलिक सुखों से सिद्धि नहीं हुई। ॥ इति वाण व्यन्तर विस्तार सम्पूर्ण ॥ Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६६४) थोकढा संग्रह। ज्योतिषी देव विस्तार ज्योतिकी देव २॥ द्वीप में (चर चलने वाले) और २॥ द्वीप बारह यिर हैं ये पक्की ईट के श्राकारवत हैं सूर्य-सर्य के और चर-चन्द्र के एकेक लाख योजन का अन्तर है चर ज्योतिषी से स्थिा ज्यो० आधी क्रान्ति वलि हैं चन्द्र के साथ अमित्र नक्षत्र और सूर्य के साथ पुष्य नक्षत्र का सदा योग है मानुषो तर पर्वत से आगे और अलोक से ११११ योजन इस तरफ उसके बीच में स्थिर ज्यो० देव-विमान हैं परिवार चर ज्यो० समान जानना । ज्यो० के ३१ द्वार-१ नाम २ वासा ३ राजधानी ४ सभा ५ वर्ण ६ वस्त्र ७ चिन ८ विनान चौड़ाई ६ विमान जाड़ाई १० विमान वाहक ११ मांडला १२ गति १३ ताप क्षेत्र १४ अन्तर १५ संख्या १६ परिवार १७ इन्द्र १८ सामानिक १६ आत्म रक्षक २० परिषदा २१ अनीका २२ देवी २३ गति २४ ऋद्धि २५ वैक्रिय २६ अवधि २७ परिचारण २८ सिद्ध २६ भव ३० अल्प बहुत्व ३१ उत्पन्न द्वार। १ नाम द्वार-१ चन्द्र २ सूर्य ३ ग्रह ४ नक्षत्र और ५ तारा २ वासा द्वार-तीछे लोक में समभूमि से ७६० Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्योतिषी देव विस्तार । ( ६६५) योजन ऊंचे पर ११० यो में और ४५ लाख यो के विस्तार में ज्यों देवों के विमान हैं जैस-७६० यो० ऊंचे पर तारा ओंके विमान,यहाँ से १०यो ऊंचे पर सूर्य का यहाँ से८०यो. ऊँचा चन्द्र का, यहाँ से ४ यो० ऊँवा नक्षत्र के यहाँ से ४ यो० ऊँचा बुध का यहाँ से ३ यो० शुक्र का यहाँ से ३ यो. वृहस्पती का, ३ यो० मंगल का और यहाँ से ३ यो० ऊँचा शनिश्चर का विमान है सर्व स्थानों पर ताराओं के विमान ११० योजन में हैं। ३ राजधानीतीचे लोक में असंख्यात राजधानिये ४सभा द्वार ज्योतिषी के इन्द्रों के भी ५-५ सभा हैं । ( भवनपति समान) द्वार-ताराओं के शरीर पंचवर्णी है । शेष ४ देवों का वर्ण मुवर्ण समान हैं । ६ वस्त्र द्वार -सर्व वर्ण के सुन्दर, कोमल वस्त्र सत्र देवताओं के होते हैं। ७चिन्ह हार-चन्द्र पर चन्द्र मंडल, सूर्य पर सूर्य मंडल, एवं सर्व देवताओं के मुकुट पर अपना अपना चिन्ह है। ____८ विमान चौड़ाई और ६ जाड़ाई द्वार-एक यो० के ६१ भागों में से ५६ भाग (३१ यो० ) चन्द्र विमान की चौड़ाई, ४८ भाग सूर्य विमान की, दो गाउ Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थोकडा संग्रह। Pram our - - ग्रह वि० की, १ गाउ नक्षत्र वि० की और ०॥ भाउ तारा वि० की चौड़ाई है। जाड़ाई इस से आधी २ जानना सर्व विमान स्फटिक रत्न मय हैं। १० विमान वाहक-ज्योतिषी विमान आकाश के आधार पर स्थित रह सकते हैं परन्तु स्वामी के बहुमान के लिये जो देव विमान उठाकर फिरते हैं उनकी संख्या-- चन्द्र सूर्य के विमान के १६-१६ हजार देव, ग्रह के विमान के ८-८ हजार देव, नक्षत्र विमान के ४-४ हजार और तारा विमान के २-२ हजार देव वाहक हैं। ये समान २ संख्या में चारों ही दिशाओं में मुहँ करके-पूर्व में सिंह रूप से, पश्चिम में वृषभ रूप से, उत्तर में अश्व रूप से, और दक्षिण में हस्ति रूप से, देव रहते हैं। ११ मांडला द्वार-चन्द्र सूर्य आदि की प्रदक्षिणा ( चारों और पकर लगाना )- दक्षिणायन से उत्तरायण जाने के मार्ग को 'मांडला' कहते हैं। मांडले का क्षेत्र ५१० यो० का है । जिसमें ३३० यो० लवण समद्र में और १०० यो जंबूदीप में है। चन्द्र के १५ मांडले हैं। जिनमें से १० लवण में, ५ जंबू द्वीप में हैं । सूर्य के १८४ मांडलों में से ११६ लवण में और ६५ जंबू द्वीप में हैं । ग्रह के ८ मांडलों में से ६ लवण में और २ जंबू द्वीप में हैं। जंबू द्वीप में ज्योतिपी के मांडले हैं वे निषिध और नील वन्त पर्वत के ऊपर हैं । चन्द्र के मांडलों का Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्योतिषी देव विस्तार । (६६७ ) अन्तर ३५३० योजन का है । सूर्य के प्रत्येक मंडल से दूसरे मंडल का अन्तर दो २ योजन का है। १२ गति द्वार--सूर्य की गति कर संक्राति को ( आषाढी पूर्णिमा ) १ मुहूर्त में ५२५१, क्षेत्र तथा मकर संक्राति ( पोष पूर्णिमा ) को १ मुहूर्त में ५३०५४, क्षत्र है । चन्द्र की गति कर्क संक्राति को १ मु० में ५०७३,३७३, और मकर संक्राति को ५१२५ ६६६० है । ___ १३ ताप क्षेत्र--कर्क संक्राति को ताप क्षेत्र ९७५२६२६, और ऊगता सूर्य ४७२०३ २४ योजन दूर से दृष्टि गोचर होता है। मकर संक्राति को ताप क्षेत्र ६३६६३ र उगता सूर्य ३१८३१ ६ यो० दूर से दृष्टि गोचर होता है। १४ अन्तर द्वार- अन्तर दो प्रकार का पड़े १ व्याघात-किसी पदार्थ का बीच में आजाने से और २ नियाघात-बिना किसी के बीच में आये व्याघात अपेक्षा ज. २६६ योजन का अन्तर कारण-निषिध नीलवन्त पर्वत का शिखर २५० यो० है और यहां से ८-योजन दर ज्यो० चलते हैं अर्थात् २५०x+८=२६६ उ० १२२४२ योजन कारण-मेरु शिखर १० हजार यो० का है और इस Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६६८) थोकडा संग्रह। से ११२१ यो० दूर ज्यो. विमान फिरते हैं । अर्थात् १००००+११२१+११२१=१२२४२ यो० का अन्तर है। अलोक और ज्यो० देवों का अन्तर ११११ यो० का, मांडलापेक्षा अन्तर मेरु पर्वत से ४४८८० यो० अन्दर के मांडल का और ४५३३० यो० बाहर के मंडल का अन्तर है । चन्द्र चन्द्र के मंडल का ३५ ३०४ यो० का और सूर्य सूर्य का मंडल का दो यो० का अन्तर है निर्याघात अपेक्षा ज० ५०० धनुष्य का और उ० २ गाउ का अन्तर है। १५ संख्या द्वार-जम्बू द्वीप में २ चंद्र, २ सूर्य हैं लवण समुद्र में ४ चंद्र, ४ सूर्य हैं धातकी खण्ड में १२ चंद्र, १२ सूर्य हैं कालोदधि समुद्र में ४२ चंद्र, ४२ सूर्य हैं पुष्करा द्वीप में ७२ चंद्र, ७२ सूर्य है एवं मनुष्य क्षेत्र में १३२ चंद्र १३२ सूर्य हैं आगे इसी हिसाब से समझना अर्थात् पहले द्वीप व समुद्र में जितने चंद्र तथा सूर्य होवें उनको तीन से गुणा करके पीछे की संख्या गिनना ( जोड़ना)। दृष्टांत-कालोदधि में चंद्र सूर्य जानने के लिये उससे पहले धात की खण्ड में १२ चंद्र १२ सूर्य हैं उन्हें १२+३=३६ में पीछे की संख्या ( लवण समुद्र के ४ और जम्बू द्वीप के २ एवं ४+२-६) जोड़ने से ४२ हुवे। १६ परिवार द्वार-एकेक चंद्र और एकेक सूर्य के Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्योतिषी देव विस्तार | ( ६६६ ) २८ नक्षत्र, ८८ ग्रह ओर ६६६७५ काड़ा क्रोड़ तारों का परिवार है । १७ इन्द्र द्वार - असंख्य चंद्र, सूर्य हैं ये सर्व इन्द्र हैं परंतु क्षेत्र अपेक्षा १ चंद्र इन्द्र और १ सूर्य इन्द्र है । १८ सामानिक द्वार - एकेक इन्द्र के ४-४ हजार सामानिक देव हैं | १६ आत्म रक्षक द्वार- एकेक इन्द्र के १६-१६ हजार आत्म रक्षक देव हैं । २० परिषदा - तीन-तीन हैं अभ्यन्तर सभा में ८००० देव, मध्य सभा में १० हजार और बाह्य सभा में १२ हजार देव हैं देविये तीनों ही सभा की १००-१०० हैं प्रत्येक इन्द्र की सभा इसी प्रकार जानना । २१ अनीका द्वार - एकेक इंद्र के ७-७ अनीका हैं प्रत्येक अनी में ५ लाख ८० हजार देवता हैं सात अनीका भवनपति वत् । २२ देवी द्वार - एकेक इंद्र की ४-४ अग्र महिषी एकेक पटरानी के चार चार हजार देवियों का परिवार एकेक देवी ४–४ हजार रूप वैक्रिय करे अर्थात् ४÷४०००=१६०००÷४००० = ६४०००००० देवी, रूप एकेक इंद्र के हैं । २३ जाति द्वार - सर्व से मंद जाति चंद्र की, उससे सूर्य की शीघ्र (तेज) उर से ग्रह की तेज, उससे नक्षत्र की तेज और उससे तारा की तेज गति है । Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६७०) थोकडा संग्रह। २४ ऋद्ध द्वार-सवे से कम ऋद्धि तारा की उससे उत्तरोत्तर महा ऋद्धि । २५ वैक्रिय द्वार-वैक्रिय रूप से सम्पूर्ण जम्बूद्वीप भरते हैं सख्याता जम्बू द्वीप भरे की शक्ति चंद्र सूर्य, सामानिक और देवियों में भी है। २६ अवधि द्वार-तीर्थी ज० उ० संख्यात द्वीप समुद्र ऊंचा अपनी धजा पताका तक और नीचे पहली नरक तक जाने-देखे। २७ परिचारणा-पांचों ही मनुष्य क्त) प्रकार से भोग करे। २८ सिद्ध द्वार-ज्योतिषः देव से निकल कर १ समय में १० जीव और ज्योतिषी देवियों से निकल कर १ समय में २० जीव मोक्ष जा सक्ते हैं। २६ भव द्वार-भव करे तो ज० १२.३ उ० अनन्ता भव करे। ३० अल्प बहुत्व द्वार-सर्वे से कम चंद्र सूर्य, उन से नक्षत्र, उन से ग्रह और उन से तारे (देव) संख्यात संख्यात गुणा है। ३१ उत्पन्न द्वार-ज्योतिषी देव रूप से यह जीव अनन्त अनन्त वार उत्पन्न हुवा परन्तु वीतराग आज्ञा का आराधन किये विना आत्मिक सुख नहीं प्राप्त कर सका । ॥ इति ज्योतिषी व विस्तार सम्पूर्ण ॥ mmmmmmm ___ Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैमानिक देव । ( ६७१ ) www * वैमानिक देव 2 विमान वासी देवों के २७द्वार- १ नाम २ वसा ३ संस्थान ४ आधार ५ पृथ्वीपिण्ड ६ विमान ऊँचाई ७ विमान संख्या ८ विमान वर्ण ६ विमान विस्तार १० इन्द्र नाम ११ इन्द्र विमान १२ चिन्ह १३ सामानिक १४ लोक पाल १५ त्रयत्रिशंक १६ आत्म रक्षक ११ अनीका १८ परिषदा १६ देवी २० वैक्रिय २१ अवधि २२ परिचारण २३ पुन्य २४ सिद्ध २५ व २६ उत्पन्न २७ अल्प बहुत्व द्वार । १ नाम द्वार - १२ देव लोक - सौधर्म ईशान, सनत्कुमार, महेन्द्र ब्रह्म, लंतक, महाशुक्र, सहस्रार आणत प्राणत, आरण, अच्युत नव ग्रीयवेक-मंद, सुभद्दे, सुजाने सुमानसे, सुदर्शने, प्रियदंसणं, अमोठे, सुप्रतिबद्ध और यशोधरे ५ अनुतर -विमान-विजय, विजयंत जयंत, अपराजित, और सर्वार्थसिद्ध, पाचवें देव लोक के तीसरे परतर में नव लोकांतिक देव हैं और ३ किल्विषी मिल कर कुछ ३८ जाति के वैमानिक देव हैं । २ वासा द्वार - ज्योतिषी देवों से असंख्य कोड़ा कोड यो० ऊँचा वैमानिक देवों का निवास है । राजधानियें और ५ ५ सभाएं अपने देवलोक में ही हैं । शकेन्द्र, ईशानेन्द्र के महल, उनके लोकपाल और देवियों की राजधानियें तीर्थे लोक में भी हैं । Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६७२) थोकडा संग्रह । nagemsmosamas ३ संठाण द्वार-१, २, ३, ४, और ६, १०, ११, १२, एवं ८ देव लोक अध चंद्राकार है । ५, ६, ७, ८ देव लोक और ६ ग्रीयवक पूर्ण चन्द्राकार हैं । चार अनुतर विमान त्रिकोन चारों ही तरफ हैं और बीच में सर्वार्थ सिद्ध विमान गोल चन्द्राकार है। ४ आधार द्वार-विमान और पृथ्वी पिण्ड रत्न मय है। १-२ देव लोक घनोदधि के आधार पर है। ३-४-५ देव धन वायु के आधार से है । ६-७-८ देव० घनोदधि धनवायु के आधार से है । शेष विमान आकाश के आधार पर स्थित हैं। ५ पृथ्वी पिण्ड ६ विगन ऊंचाई, ७ विमान और परतर, ८ वर्ण द्वारविमान पृथ्वी पिण्ड वि० ऊंवाई वि० संख्या परतर वर्ण २७०० यो० ५०० यो० ३२ लाख १३ ५वण २७००" ५०० " २८" १३ ५ " ३ २६०० " ६८०" १२" १२ ४ " ४ २६०० " ६०० " ८" १२ ४ " ५ २५०० " ६ २५०० ., , ५० हजार र ३ ,, ७ २४०० , , ४० , ४ २ , ८ २४००, ,, ६ , ४ २ , २३०० , ४०० १० २३०० , . ६०० ,,). or o ७०० __ww Nanaw c xxx _ccccccx w ८०० C is w Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैमानिक देव । ११ २३०० " १ १२ २३०० ६ श्री. २२००, ह १ १ १ ५ अनु०२१०७,१ ६ विमान विस्तार - कितने ही विमानों का विस्तार ( चार भाग का) असं० योजन का और कितने ही का ( एक भाग का संख्यात योजन के विस्तार का है परन्तु सर्वार्थ सिद्ध विमान १ लाख यो० के विस्तार में है । १० इन्द्र द्वार - १२ देवलोक के १० इन्द्र हैं आगे सर्व हमेन्द्र हैं । ११ विमान द्वार - तीर्थकरों के कल्याण के समय मृत्युलोक में वैमानिक देव जो विमान में बैठकर आते हैं उनके नाम - पालक, पुष्प, सुमानस, श्रीवत्स, नन्दी वर्तन, कामगमनाम, मनोगम, प्रियंगम, त्रिमल, सर्वतोभद्र । १२ चिह्न १३ सामानिक २४ लोकपाल १५ त्रयस्त्रिंश १६ आत्म रक्षक - इन्द्र चिन्ह सामानिक लोक त्रयस्त्रिंश श्रात्म रजक पाल ८४ हजार ४ ३३ ३३६००० Το ४ ३३ ३२०००० ७२ ઢ ३३ २८८००० शकेन्द्र ईशानेन्द्र सनत्कु० इन्द्र महेन्द्र ब्रह्मेन्द्र 39 मृग महिष ६०० " ६०० J 35 शूकर सिंह ७० अज ( बकरा ) ६० १८००, ११००,, 33 37 99 19 ३०० ३१८ ( ६७३ ) ܕܐ - 39 ܙ "" ३३ २८०००० ३३ २४०००० Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६७४) थोकडा संग्रह। WWWW लंतकेन्द्र मंडूकामेडक। ५० , ४ ३३ २००००० महा शुक्रेन्द्र अश्व ४० , ४ ३३ १६०००० सहस्नेन्द्र हस्ति ३० , ४ ३३ १२०००० प्राणतेन्द्र सर्प २० , ४ ३३ ८०००० अच्युतेन्द्र गरुड़ १० , ४ ३३ ४०००० १७ अनीका-प्रत्यक इंद्र की अनीका ७-७ प्रकार की है प्रत्येक अनीका में देवता उन इंद्रों के सामानिक से १२७ गुणा होते हैं। १८ परिषदा द्वार-प्रत्येक इंद्र के तीन २ प्रकार की परिषदा होती हैं। इन्द्र अभ्यन्तर देव मध्यम देव बाह्य प० देव देविये १ १२ हजार १४ हजार १६ हजार शकेन्द्र २ १०, १२, १४ , ७०० ३ ८ . १० , १२ , ६०० ५०० ईशानेन्द्र १०० ८०० ८ ५०० १ , २ , ७०० है २५० ५०० , शेष ८ इन्द्रों के १० १२५ ५०० देवियें नहीं १६ देवी द्वार-शकेन्द्र के पाठ अग्रमहिषी देवियें हैं एकेक देवी के १६-१६ हजार देवियों का परिवार है। प्रत्येक देवी १६..१६ हजार वैक्रिय करे इसी प्रकार ईशा. नेन्द्र की भी ८x१६०००-१२८०००x१६०००-२० "GK acnm supar . yuw w a . २५० Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वमानिक देव । (६७५) - ४८०००००० जानना शेष में देवियें नहीं होवे केवल पहले दूसरे देव लोक रहे और ८ वें देव लोक तक जाया करे। २० वैक्रिय द्वार-शकेन्द्र वैकिय के देव-देवियों से २ जंबू द्वीप भर देते हैं, ईशानेन्द्र २ जंबू द्वीप जाजेरा सनत्कुमार ४ जंबू० महेन्द्र ४ जंबू॰जाजेरा, ब्रह्मेन्द्र ८ जंबू० लंतकेन्द्र ८ जंबू० जाजेरा, महाशुक्र १६ जंबू० सहसेन्द्र १६ जंबू० जाजेरा प्राणतेन्द्र ३२ जंबू०, अच्युतेंद्र ३२ जंबू० जाजेरा भरे० ( लोक पाल, यस्त्रिंश, देवियें आदि अपने इंद्रवत् ) असंख्य जंबूद्वीप भरदेने की शक्ति है परंतु इतने वैक्रिय नहीं करते हैं । २१ अवधि द्वार-सवे इंद्र ज० अङ्गुल के असंख्यातवें भाग अवधि से जाने-देखे० उ० ऊंचा अपने विमान की वजा पताका तक-तीळ असंख्य द्वीप समुद्र तक जाने देखे और नीच-१-२ देवलोक वाले पहली नरक तक, ३-४ देव० दूसरी नरक तक, ५-६ देव० तीसरी नरक तक, ७-८ देव० चोथी नरक तक, 8 से १२ देव० पांचवी नरक तक, ६ ग्रीयवेक छट्टी नरक तक, ४ अनुत्तर विमान ७ वीं नरक तक और सर्वार्थ सिद्ध वाले त्रस नाली सम्पूर्ण (पाताल कलश) जाने देखे। २२ पश्चिारणा-१-२ देव में पांच ( मन, शब्द, रूप, स्पर्श और काय) परिचारणा, ३-४ देव० में स्पर्श ___ Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६७६ ) थोडा संग्रह | परि०, ५-६ देव - में रूप परि०, ७-८ देव में शब्द परि० ६ से १२ देव० में मन परि०, आगे नहीं । २३ पुन्य द्वार - जितने पुन्य व्यंतर देव १०० वर्ष में क्षय करते हैं उतने पुन्य नागादि ६ देव २०० वर्ष में, असुर० ३०० वर्ष में, ग्रह-नक्षत्र तारा ४०० वर्ष में चंद्र सूर्य ५०० वर्ष में, सौधर्म ईशान १००० वर्ष में ३–४ देव० २००० वर्ष में, ५ - ६ देव. ३००० वर्ष में, ७-८ देव. ४००० वर्ष में, ६ से १२ दे. ५००० वर्ष में, १ ली. त्रिक १ लाख वर्ष में दूसरी त्रिक २ लाख वर्ष में तीसरी त्रिक ३ लाख वर्ष में, ४ अनु. वि. ४ लाख वर्ष में और सर्वार्थ सिद्ध के देवता ५ लाख वर्ष में इतने पुन्य क्षय करते हैं । -- मनुष्य २४ सिद्ध द्वार - वैमानिक देव में से निकले हुवे में आकर एक समय में १०८ सिद्ध हो सक्ते हैं देवी में से निकल कर २० सिद्ध हो सक्ते हैं । २५ भव द्वार - वैमानिक देव होने के बाद भव करे तो ज० १-२-३ संख्यात, असंख्यात यावत् अनन्त भव भी करे । २६ उत्पन्न द्वार - नव ग्रीयवेक में अनन्ती वार यह जीव उत्पन्न हो में जाने के बाद संख्यात ( २-४ ) सिद्ध से १ भव में मत जावे | वैमानिक देव रूप चुका है ४ अनु०वि० भव में और सर्वार्थ Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैमानिक देव । (६७७) २७ अल्प बहुत्व द्वार-सर्व से कम ५ अनुत्तर विमान में देव, उनसे उतरते २ नववे देवलोक तक संख्यात गुणा, ८ में से उतरते दूसरे देवलोक तक असंख्यात गुणा देव. उनसे दूसरे देव की देवियें संख्यात गुणी, उनसे पहले देवलोक के देव संख्यात गुणा और उनसे पहले देवलोक की देविय संख्यात गुणी । ॥ इति वैमानिक देवाधिकार सम्पूर्ण । Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६७) थोकडा संग्रह। संख्यादि २१ बल अर्थात् डालापाला संख्या के २१ बोल हैं:-१ जघन्य संख्याता २ मध्यम संख्याता ३ उत्कृष्ट संख्याता असंख्याता के नव भेद १ ज० प्र० असंख्यात ४ ज० युक्ता अ०७ ज० अ० अ० २ म० , , ५ म० , , ८ म. , , ३ उ० , , ६ उ० , , ६ उ० " " अनंता के ह भेद १ ज० प्रत्येक अनंता ४ ज० युक्ता अनंता ७ ज० अनंता अ२ म० , ,,५ म० " ,८ म० "" ३ उ० ,, ,, ६ उ० ,,, ६ उ० ,, ,, ज० संख्याता में एक दो तक गिनना म० संख्याता में तीन से आगे यावत् उ० संख्याता में एक न्यूत उ० संख्याता के लिये माप बताते हैं__चार पाला--(१) शीलाक (२) प्रति शीलाक (३) महां शीलाक (४) अनवस्थित इनमें से प्रत्येक पाला धान्य मापने की पाली के आकार वत् है किन्तु प्रमाण में १ लक्ष योजन लम्बे चौडे ३१६२२७ यो० अधिक की परिधि वाला, १० हजार योगहराम योकी जगती कोट जिसके ऊपर०॥ यो० की वेदिका इस प्रकार पाला की कल्पना करना तथा इनमें से अनवस्थित पाला को सरसव के दानों से सम्पूर्ण भर कर कोई देव उठावे, Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संख्यादि २१ बोल । (६७६ ) जम्बूद्वीप से शुरू करके एकेक. दाना एकेक द्वोप और समुद्र में डालता हुवा चला जावे अन्त में १ दाना बच जाने पर द्वीप व समुद्र में डालने से रुके बचा हुवा दाना शीलाकवाला के अन्दर डाले जितने द्वीप व समुद्र तक डालता हुआ पहुंच चुका है उतना बडा लम्बा और चोडा पाला किन्तु १० हजार यो० गहरा ८ यो० जगती०॥ यो० की बेदिका वाला बनावे इसे सरसव से भर कर आगे के द्वीप व समुद्र में एकेक दाना डालता जावे एक दाना बच जाने पर ठहर जावे बचे हुवे दाने को शालाक पाले में डाले पुनः उतने ही द्वीप तथा समुद्र के विस्तार वत् ( महराई जगती ऊस वत् ) बनाकर सरसव से भरकर आगे के एकेक द्वीप व एकेक समुद्र में एकेक दाना ड लता ज व बचे हुवे एक दाने को डाल कर शीलाक को भर देवे भर जाने पर उसे उठा कर अन्तिम (बाकी भरे हुवे ) द्वीप तथा समुद्र से आगे एकेक दाना डाल कर खाली करे एक दाना बचने पर पुनः उसे प्रति शीलाक पाले में डाले इस प्रकार आगे २ के द्वीप समुद्र को अनवस्थित पाला बनावे बच हुदे एक दाने से शीलाक भरे शीलाक की बचत के एकेक दाने से प्रति शीलाक को भरे प्रति शीलाक को खाली करते हुवे • बचत के एकेक दाने से महा शीलाक को भरे इस प्रकार महा शीलाक का भर देवे पश्चात् प्रति शीलाक, शीलाक Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६८०) थोडा संग्रह। और अनवस्थित को कम से भर देवे। इस तरह चार ही पाले भर देवे अन्तिम दाना जिस द्वीप व समुद्र में पड़ा होवे वहां से प्रथम द्वीप तक डाले हुवे सब दानों को एकत्रित करे और चार ही पालों के एकत्रित किये हुये दानों का एक ढर करे इस में से एक दाना निकाल ले तो उत्कृष्ट संख्याता, निकाला हुवा एक दाना डाल दे तो जघन्य प्रत्येक असंख्याता जानना इम दाने की संख्या को परस्पर गुणाकार (अभ्यास ) करे और जो संख्या आये वो जघन्य युक्ता असख्याता कहलाती है इस में से एक दाना न्यून वो उ० प्र० असंख्याता दो दाना न्यून वो मध्यम प्र० असंख्याता (१ श्रावलिका का समय ज० युक्ता असंख्याता जानना )। जघन्य युक्ता असंख्याता की राशि (ढेर ) को परस्पर गुणा करने से ज० असंख्याता असंख्यात संख्या निकलती है इस में से १ न्यून वो उ० युक्ता असंख्यात दो न्यून वाली म० युक्त। असंख्याता जानना । ज. असं असंख्याता की गशि को पास्पर गुणित करने से ज. प्रत्येक अनंता संख्या आती है इस में से २ न्यून वाली संख्या म० असं असंख्याता और न्यून वाली उ० असं० असंख्याता जानना । Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संख्यादि २१ बोल । (६८१) ज० प्र० अनन्ता की राशि को परस्पर गुणित करने से ज० युक्ता अनन्ता, इस में से २ न्यून म०प्र० अनन्ता, १ न्यून उ० प्र० अनन्ता जानना । ज० यु० अनन्ता को परस्पर गुणित करने से ज० अनन्तानन्त संख्या होती है जिसमें से २ न्यून वाली म० युक्ता अनन्ता १ न्यून वाली उयुक्ता अनन्ता जानना । ज० अनन्तानन्त को परस्पर गुणाकार करने से म० अनन्तानन्त संख्या निकलती है और परस्पर गुणाकार करे तो उ० अनन्तानन्त संख्या जानना परन्नु संसार में उत्कृष्ट अनन्तानन्त संख्या वाले कोई पदार्थ नहीं है । तत्व केवली गम्य। ॥ इति संख्यादि २१ बोल सम्पूर्ण । Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६८२) थोकडा संग्रह। प्रमाण-नय श्री अनुयोग द्वार-सूत्र तथा अन्य ग्रन्थों के आधार पर २४ द्वार कहे जाते हैं। (१) सात नय (२) चार निक्षप (३) द्रव्य गुण पोय (४) द्रव्य, क्षत्र, काल भाव (५) द्रव्य-भाव (६) कार्य कारण (७) निश्चय-व्यवहार (८) उपादान-निमित्त (६) चार प्रमाण (१०) सामान्य-विशेष (११) गुण-गुणी (१२) ज्ञय-ज्ञान, ज्ञानी (१३) उपनवा, विहनवा, धुवंका (१४) अधिय-आधार (१५) आविर्भाव-निरोभाव (१६) गौणता-मुख्यता (१७) उसर्ग-अपवाद (१८) नीन आत्मा (१६) चार ध्यान (२०) चार अनुयोग (२१) तीन जागृति (२२) नव व्याख्या (२३ आठ पक्ष (२४) सप्त-भंगी । १ नय-(पदार्थ के अंश को ग्रहण करना ) प्रत्येक पदार्थ के अनेक धर्म होते हैं और इनमें से हर एक को ग्रहण करने से एकेक नय गिना जाता है-इस प्रकार अनेक नय हो सकते हैं परन्तु यहां संक्षेप से ७ नय कहे जाते हैं। नय के मुख्य दो भेद है-द्रव्यास्तिक ( द्रव्य को ग्रहण करना) और पर्यायास्तिक (पर्याय को ग्रहण करना) द्रव्यास्तिक नय के १० भेद-१ नित्य २ एक ३ सत् ४ वक्तव्य ५ अशुद्ध ६ अन्वय ७ परम ८ शुद्ध ६ सत्ता ___ Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाण-नय । (६८३) १० परम-भाव-द्रव्यास्तिक नय-पोयास्तिक नय के ६ भेद-१ द्रव्य २ द्रव्य व्यंजन ३ गुण ४ गुण व्यंजन ५ खभाव ६ विभाव-पोयास्तिक नय । इन दोनों नयों के ७०० भेद हो सक्ते हैं। नय सात-१ नेगम २ संग्रह ३ व्यवहार ४ ऋजुसूत्र ५ शब्द ६ समभिरूढ ७ एवं भूत नय इनमें से प्रथम ४ नयों को द्रव्यास्तिक, अर्थ तथा क्रिया नय कहते हैं और अन्तिम तीन को पयोयास्तिक शब्द तथा ज्ञान नय कहते हैं। १ नैगम नय-जिसका स्वभाव एक नहीं, अनेक मान, उन्मान, प्रमाण से वस्तु माने तीन काल, ४ निक्षेप सामान्य-विशेष आदि माने इसके तीन भेद (१) अंश-वस्तु के अंश को ग्रहण करके माने जैसे निगोद को सिद्ध समान माने।। (२) आरोप-भूत, भविष्य और वर्तमान, तीनों कालों को वर्तमान में आरोप करे। (३) विकल्प-अध्वसाय का उत्पन्न होना एवं ७०० विकल्प हो सकते हैं। शुद्र नैगम नय और अशुद्ध नैगम एवं दो भेद भी हैं। २ संग्रह नय-वस्तु की मूल सत्ता को ग्रहण करे जैसे सर्व जीवों को सिद्ध समान जाने, जैसे एगे आया Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६८४) थोकडा संग्रह। -- आत्मा एक है । ( एक समान स्वभाव अपक्षा ) ३ काल ४ निक्षेप और सामान्य को माने, विशेष न माने । ३ व्यवहार नय-अन्तःकरण ( आन्तरिक दशा) की दरकार ( परवाह ) न करते हुवे व्यवहार माने जैसे जीव को मनुष्य तिर्यच, नरक, देव माने । जन्म लेने वाला मरने वाला आदि, प्रत्येक रूपी पदार्थों में वर्ण, गन्ध श्रादि २० बोल सत्ता में हैं परन्तु बाहर जो दिखाई देवे केवल उन्हें ही माने जैसे हंस को श्वत, गुलाब को सुगन्धी शर्कर को मीठी भाने । इसके भी शुद्ध अशुद्ध दो मेद सामान्य के साथ विशेष माने, ४ विक्षेप, तीन ही काल की बात माने। ४ ऋजु सूत्र-भूत, भविष्य की पर्यायों को छोड़ कर केवल वर्तमान-सरल पर्याय को माने वर्तमान काल, भाव निक्षेप और विशेष को ही माने जैसे साधु होते हुवे भोग में चित्त जाने पर भोगी और गृहस्थ होते हुवे त्याग में चित्त जाने से उसे साधु माने । ये चार द्रव्यास्तिक नय हैं । ये चारों नय समकिा, देश व्रत, सर्व व्रत, भव्य अभव्य दोनों में होवे परन्तु शुद्धोपयोग रहित होने से जीव का कल्याण नहीं होता। ५ शब्द नय-समान शब्दों का एक ही अर्थ करे विशेष, वर्तमान काल और भाव निक्षेप को ही माने । लिंग भेद नहीं माने । शुद्ध उपयोग को ही माने जैसे शक्रे. Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाण-नय। (६८५) न्द्र देवेन्द्र, पुरेन्द्र, सूचीपति इन सबों को एक माने । ६ समभिरुढ नय-शब्द के भिन्न २ अर्थों को माने जैसे-शुक्र सिंहासन पर बैठे हुवे को ही शक्रन्द्र माने एक अंश न्यून होवे उसे भी वस्तु मान लेये; विशेष भाव निक्षेप और वर्तमान काल का ही माने. ____७ एवं भूत नय-एक अंश भी कम नहीं होवे उसे वस्तु माने । शेष को अवस्तु माने, वर्तमान काल और भाव निक्षेप को ही माने । जो नय से ही एकान्त पन ग्रहण करे उसे नयाभास (मिथ्यात्वी ) कहते हैं। जैसे ७ अन्धों ने १ हाथी को दंतुशल, सूएड, कान, पेट, पाँव, पूंछ और कुंभस्थल माना वे कहने लगे कि हाथी मूल समान, हडू मान समान, सूप समान कोठी समान, स्तम्भ समान, चामर समान तथा घट समान है । सम दृष्टि तो सबों को एकान्त वादी समझ कर मिथ्या मानेगा परन्तु सर्व नयों को मिलाने पर सत्य स्वरूप बनता है अतः वही समदृष्टि कहलाता है। २ निक्षेप चार-एकेक वस्तु के जैसे अनंत नय हो सक्ते हैं वैसे ही निक्षेप भी अनंत हो सकते हैं परंतु यहां मुख्य चार निक्षेप कहे जाते हैं । निक्षप-सामान्य रूप प्रत्यक्ष ज्ञान है वस्तु तत्व ग्रहण में अति आवश्यक है इसके चार भेद १ ना निक्षेप-जीव व अजीव का अर्थ शून्य, य. थार्थ तथा अयथार्थ नाम रखना । Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६८६) थोकडा संग्रह। २ स्थापना निक्षेप-जीव व अजीव की सदृश (सद् भाव ) तथा असदृश (अदृश भाव ) स्थापना (प्राकृ. ति व रूप] करना सो स्थापना निक्षेप। (३) द्रय निक्षेप-भूत और वर्तमान काल की दशा को वर्तमान में भाव शून्य होते हुवे कहना व मानना; जेसे युव रज तथा पदभ्रष्ट राजा को राजा मानना,किसी के कलेवर ( लाश ) को उसके नाम से जानना । (४) भाव निक्षेप-सम्पूर्ण गुण युक्त वस्तु को ही वस्तु रूप से मानना । ___ दृष्टान्त-महावीर नाम सो नाम निक्षेप किसी ने अपना यह नाम रखा हो, महावीर लिखाहो, चित्र निकाला हो, मूर्ति होवे अथवा कोई चीज रख कर महावीर नाम से सम्बोधित करते हों तो यह महावीर का स्थापना निक्षेप केवल ज्ञान होने के पहिले संसारी जीवन को तथा निर्वाण प्राप्त करने के बाद के शरीर को महावीर मानना सो महावीर का द्रव्य निक्षप और महावीर स्वयं केवल ज्ञान दर्शन सहित विराजमान हों उन्हीं को ही महावीर मानना [ कहना ] सो भाव निक्षेप इस प्रकार जीव,अजीव आदि सर्व पदार्थों का चार निक्षेप लगाकर ज्ञान हो सक्ता है। ३ द्रव्य गुण पर्याय द्वार -धर्मास्ति काय श्रादि जैसे ६ द्रव्य हैं, चलन सहाय आदि स्वभाव यह प्रत्येक Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमण-नय। (६८७) का अलग २ गुण है और द्रव्यों में उत्पाद व्यय, ध्रुव आदि परिवतेन होना सा पयोंय है। __ दृष्टान्त-जीव-द्रव्य, ज्ञान, दर्शन आदि गुण, मनुष्य, तिर्यच, देव, साधु आदि दशा यह पयोय समझना ४ द्रव्य, क्षेत्र काल भाव द्वार-द्रव्य-जीव अर्ज व आदि, श्राकाश प्रदेश यह क्षेत्र, समय यह काल [घड़ी जाव काल चक्र तक समझना] वर्ण, गन्ध, रस स्पर्श आदि सो भाव । जीव, अजीव सरों पर द्रव्य क्षेत्र काल भाव घट ( लागु हो ) सका है। ५ द्रव्य--भाव द्वार-भाव को प्रकट करने मे द्रव्य सहायक है। जैसे द्रव्य से जीव अमर, शाश्वत भाव से अशाश्वत है । द्रव्य से लोक शाश्व। है भाव से अशाश्वत है । अर्थात द्रव्य यह मूल वस्तु है, सदैव शाश्वती है भ व यह वस्तु की पर्याय है अशाश्वती है । जैसे भोरे के लकड़ कुतरते समय 'क' ऐसा प्रा. कार वनजाता है सो यह द्रव्य 'क' और किसी पण्डित ने समझ कर ' क ' लि वा सो भाव ' क ' जानना । ६ कारण-कार्य द्वार-साध्य को प्रगट कराने वाला, तथा कार्य को सिद्ध कराने वाला कारण हैं । कारण विना कार्य नहीं हो सकता । जैसे घट बनाना यह कार्य है और इस लिये मिट्टी, कुम्हार, चाक (चक्र) आदि कारण अवश्य च हिय अतः कारण मुख्य है। ___ Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६८८ ) योव.डा संग्रह। ७ निश्चय व्यवहार-निश्चय को प्रगट करानेवाला व्यवहार है । व्यवहार बलवान है व्यवहार से ही निश्चय तक पहुँच सक्ते हैं जैसे निश्चय में कर्म का कर्ता कर्म है व्यवहार से जीव कर्मों का कर्ता माना जाता है जैसे निश्चय से हम चलते हैं। किन्तु व्यवहार से कहा जाता है कि गाँव अाया; जल चूता है परन्तु कहा जाता है कि छत चूती इत्यादि है ८ उपादान- निमित्त उपादान यह मूल कारण हैं जो स्वयं कार्य रूप में परिणमता है । जैसे घट का उपादान कारण मिट्टी और निमित यह सहकारी कारण जैसे घट बनाने में कुम्हार, पावडा, चाक आदि । शुद्ध निमित्त कारण होवे तो उपादान को साधक होता है और अशुद्ध निमित्त हावे तो उपादान को वाधक भी होता है । ६ चारप्रमाण-प्रत्यक्ष, प्रागम, अनुमान उपमा, प्रमाण । प्रत्यक्ष के दो भेद- १ इन्द्रिय प्रत्यक्ष ( पांच इन्द्रियों से होने वाला प्रत्यक्ष ज्ञान ) और २ नो इन्द्रिय प्रत्यक्ष (इन्द्रियों की सहायता के बिना केवल आत्मशुद्धता से होने वाला प्रत्यक्ष ज्ञान ) इसके २ भेद. १ देस से ( अवधि और मनः पर्यव ) और २ सर्व से ( केवल ज्ञान) आगम प्रमाण-शास्त्र वचन, आगमों के कथन को प्रमाण मानना। Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६८६ ) अनुमान प्रमाण- जो वस्तु अनुमान से जानी जावे इसके ५ भेद १ कारण से - जैसे घट का कारण मिट्टी हैं, मिट्टी का कारण घट नहीं | २ गुण से- जैसे पुष्प में सुगन्ध, सुवर्ण में कोमलता, जीव में ज्ञान । ३ श्रसरण - जैसे घूँवे से अग्नि, बिजली से बादल यदि समझना व जानना । ४ श्रवयवेणं- जैसे दंतूशल से हाथी चूडियों से स्त्री, शासन रुचि से समकिति जानना । दिहि सामन्न - सामान्य से विशेष को जाने जैसे १ रुपये को देख कर अनेक रुपये जाने । १ मनुष्य को देखने से समस्त देश क मनुष्यों को जाने । प्रमाण - नय / अच्छे बुरे चिन्ह देख कर तीनों ही काल के ज्ञान की कल्पना अनुमान से हो सकती है । उपमा प्रमाण - उपमा देकर समान वस्तु से ज्ञान (जानना) करना | इसके ४ भेद - ( १ ) यथार्थ वस्तु को यथार्थ उपमा ( २ ) यथार्थ वस्तु को यथार्थ उपमा (३) ययार्थ वस्तु को यथार्थ उपमा और ( ४ ) अ यथार्थ वस्तु को अयथार्थ उपमा | १० सामान्य विशेष - सामान्य से विशेष बलवान है । समुदाय रूप जानना सो सामान्य । विविध भेदानु Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६६०) थोकडा संग्रह। rammwwwnewwwrrammmmmmmm भेद से जानना सो विशेष । जैसे द्रव्य सामान्य जीव अजीव, ये विशेष । जीक द्रव्य सामान्य, संसारी सिद्ध विशप इत्यादि। ११ गुण गुणी-पदार्थ में जो खास वस्तु (स्वभाव) है वो गुण और जो गुण जिसमें होता को वस्तु ( गुण धारक ) गुणी है । जैसे ज्ञान यह गुण और जीव गुणी, सुगन्ध गुण और पुष्प गुणी । गुण और गुणी अभेद (अभिन्न रूप से रहते हैं। । १२ ज्ञेय ज्ञान ज्ञानी-- जानने योग्य ( ज्ञान के विषय भूत ) सर्व द्रव्य ज्ञेय । द्रव्य का जानना सो ज्ञान है और पदार्थों का जानने वाला को ज्ञानी । ऐसे ही ध्येय ध्यान ध्यानी आदि समझना । १३ उपन्नेवा, विहन्नेवा, धूवेवा- उत्पन्न होना, नष्ट होना और निश्चल रूप से रहना जैसे जन्म लेना मरना क जीव याने कायम ( अमर ) रहना। १४ आधेय-श्राधार-धारण करने वाला आधार और जिसके आधार से (स्थित )रहे वो अाधेय । जैसे-- पृथ्वी आधार, घटादि पदार्थ आधेय, जीव आधार, ज्ञानादि आधेय । १५ आविर्भाव तिरोभाव-जो पदार्थ गुण दूर है वो तिरो भाव और जो पदार्थ गुण समीप में है वो आविर्भाव। जैसे दूध में घी का तिरोभाव है और मक्खन में घी का आविर्भाव है। Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६६१ ) । १६ गौणता - मुख्यता अन्य विषयों को छोड कर आवश्यक वस्तुओं का व्याख्यान करना सो मुख्यता और जो वस्तु गुप्त रूप से प्रधानता से रही हुई हो वो गौणता । जैसे--ज्ञान से मोक्ष होता। ऐसा कहने में ज्ञान की मुमुख्यता रही और दर्शन, चारित्र तपादि की गौणता रही । १७ उत्सर्ग-अपबाद - उत्सर्ग यह उत्कृष्ट मार्ग है और अपबाद उसका रक्षक है । उत्सर्ग मार्गे से पतित अपवाद का अवलम्बन लेकर फिर से उत्सर्ग ( उत्कृष्ट ) मार्ग पर पहुँच सकता है । जैसे सदा ६ गुसि से रहना यह उत्सर्ग मार्ग है और ४ समिति यह गुप्ति के रक्षक--सहाइक अपवाद मार्ग हैं। जिन कल्प उत्कृष्ट मार्ग है, स्थविर कल्प अपवाद मार्ग | इत्यादि षट् द्रव्य में भी जानना चाहिये । १८ तीन यात्मा बहिरात्मा, अन्तरात्मा और प्रमाण - नय । · परमात्मा । बहिरात्मा - शरीर, धन, धान्यादि समृद्धि, कुटुम्ब परिवार आदि में तल्लीन होवे सो मिथ्यात्वी । अन्तरात्मा - बाह्य वस्तु को अन्य समझ कर उसे त्यागना चाहे व त्यागे वो अन्तरात्मा ४ से १३ गुण स्थान वाले । परमात्मा - सर्व कार्य जिसके सिद्ध हो गये हों व कर्म मुक्त हो कर जो स्व-स्वरूप में लीन है वो सिद्ध परमात्मा । १६ चार ध्यान - १ पदस्थ - पंच परमेष्टि के गुणों का ध्यान करना सो पदस्थ ध्यान । Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६६२) थोकडा संग्रह। wwwmmmmarrmanane, २ पिंडस्थ-शरीर में रहे हुवे अनन्त गुण युक्त चैतन्य का अध्यात्म-ध्यान करना । ३ रूपस्थ-अरूपी होते हुवे भी कर्म योग से आत्मा संसार में अनेक रूप धारण करती है । एवं विचित्र संसार अवस्था का ध्यान करना व उससे छूटने का उपाय सोचना। ४ रूपातीत-सच्चिदानन्द, अगम्य, निराकार, निरंजन सिद्ध प्रभु का ध्यान करना । २० चार अनुयोग-१ द्रव्यानुयोग-जीव,अजीव, चैतन्य जड़ ( कर्म ) आदि द्रव्यों का स्वरूप का जिसमें वर्णन होवे २ गणितानुयोग-जिसमें क्षेत्र, पहाड़, नदी. देवलोक, नारकी, ज्योतिषी आदि के गणित-माप का वर्णन होवे ३ चरण करणानुयोग-जिसमें साधु-श्रावक का आचार, क्रिया का वर्णन होवे ४ धर्म कथानुयोग-जिस में साधु श्रावक, राजा रंक, श्रादि के वैराग्य मय बोध दायक जीवन प्रंसगों का वर्णन होवे २१ जाहरण तीन-(१) बुध जाग्रिका तीर्थकर और केवलियों की दशा (२) अबुध जाग्रिका छिमस्थ मुनियोंकी और (३) सुदाखु जानिका- श्रावकों की ( अवस्था)। २२ व्याख्या नव-एकेक वस्तु की उपचार नय से ह-६ प्रकार से व्याख्या हो सकती है। (१) द्रव्य में द्रव्य का उपचार-जैसे काष्ट में वंशलोचन (२) द्रव्य में गुण का " -" जीव ज्ञानवन्त है Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mmmmmnaanaanaa wwwnnnnnnnnnnnnnnnnnn काही प्रमाण नय । (६६३) (३)" "पर्याय का " -" " स्वरूपवान है (४) गुण में द्रव्य का " - " अज्ञानी जीव है (५) " " गुण " " -"ज्ञानी होने पर भी क्षमावंत है। (६) गुण में पर्याय का " - " यह तपस्वी बहुत स्वरूपवान है। (७) पर्याय में द्रव्य का " - " यह प्राणी देवता का जीव है। (८) " " गुण का " - " यह मनुष्य बहुत ज्ञानी है। (६) " " पर्याय का " - " यह मनुष्य श्याम वर्ण का है इत्यादि। २३ पक्ष पाठ-एक वस्तु की अपेक्षा से अनेक व्याख्या हो सक्ती है । इस में मुख्यतया आउ पक्ष लिये जा सकते हैं । नित्य, अनित्य, एक, अनेक, सत्, असत, वक्तव्य और प्रवक्तव्य ये आठ पक्ष निश्चय व्यवहार से उतारे जाते हैं। पक्ष व्यवहार नय अपेक्षा निश्चय नय अपेक्षा नित्य एक गति में घूमने से नित्य है । ज्ञान दर्शन अपेक्षा नित्य है अनित्य समय २ आयुष्य क्षय होने से गुरु लघु आदि पर्याय से अनित्य है । अनित्य है एक गति में वर्तन दश से एक है चैतन्य अपेक्षा जीव एक है अनेक .. पुत्र पुत्री, भाई अादि स. से अ.है असंख्य प्रदेशापेक्षा अनेक है सत् स्वगति , स्वक्षेत्रापेक्षा सत् है ज्ञानादि गुणापेक्षा सत् है Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६६४) थोकडा संग्रह। असत् पर गति पर क्षेत्रापेक्षा असत् है पर गुण अपेक्षा असत् है वक्तव्य गुणस्थान आदि की व्याख्या हो सिद्ध के गुणों की जो व्या सकने से ख्या हो सके अव्यक्तव्य जो व्याख्या केवली भी नहीं सिद्ध के गुणों की जो व्या. कर सके ख्या नहीं हो सके २४ सप्त भंगी-१स्यात-अस्ति, २ स्यात् नास्ति ३ स्यात् अस्ति- नास्ति ४ स्यात् वक्तव्य ५ स्यात् अस्ति अवक्तव्य ६ स्यात् नास्ति अवक्तव्य ७ स्यात् अस्ति नास्ति प्रवक्तव्य । यह सप्त भंगी प्रत्येक पदार्थ (द्रव्य ) पर उतारी जा सक्ती है । इसमें ही स्याद्वाद का रहस्य भरा हुवा है। एकेक पदार्थ के अनेक अपेक्षा से देखने वाला सदा सम भावी होता है। दृष्टान्त के लिये सिद्ध परमात्मा के ऊपर सप्त भंगी उतारी जाती है। १ स्यात अस्ति-सिद्ध स्वगण अपेक्षा है। २ स्यात् नास्ति-सिद्ध पर गुण अपेक्षा नहीं (परगुणों का अभाव है) (३) स्यादास्ति-नास्ति-सिद्धों में स्वगुणों की अन्ति और परगुणों की नास्ति है। (४) स्यादवक्तव्य-प्रास्ति-नास्ति युगपत् है तो भी एक समय में नहीं कही जा सकती है । (५) स्यादास्ति अवक्तव्य- स्वगुणों की आस्ति है तो मी १ समय में नहीं कही जा सकती है। Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६६५ ) ( ६ ) स्यन्नास्त्यवक्तव्य — पर गुणों की नास्ति है और १ समय में नहीं कहे जा सकते हैं । प्रमाण - नय । ( ७ ) स्यादस्ति नास्त्य वक्तव्य ग्रस्ति नास्ति दोनों हैं परन्तु एक समय में कहे नहीं जासक्ते इस स्याद्वाद स्वरूप को समझ कर सदा समभावी बन कर रहना जिससे आत्म-कल्याण होवे | !! इति नय प्रमाण विस्तार सम्पूर्ण ॥ Goldental Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६६६) थोकडा संग्रह। - - भाषा-पद (श्रीपन्नवणा सूत्र के ११वें पद का अधिकार ) (१) भाषा जीव को ही होती है । अजीव को नहीं होती किसी प्रयोग से (कारण से ) अजीव में से भी भाषा निकलती हुई सुनी जाती है । परन्तु यह जीव की ही सत्ता है। (२) भाषा की उत्पत्ति-औदारिक, वैक्रिय, और श्राहारिक इन तीन शरीर द्वारा ही हा सकती है। (३) भाषा का संस्थान-वज्र समान है भाषा के पुद्गल वज्र संस्थान वाले हैं। (४) भाषा के पुद्गल उत्कृष्ट लेक के अन्त ( लोका. न्त) तक जाते हैं। (५) भाषा दो प्रकार की है-र्याप्त भाषा ( सत्य असत्य ) और अपर्याप्त भाषा (मिश्र और व्यवहार भाषा) (६) भाषक-समुच्चय जीव और त्रस के १६ दण्डक में भाषा बोली जाती है । ५ स्थावर और सिद्ध भगवान प्रभाषक हैं। भाषक अल्प हैं । अभाषक इन से अनन्त हैं। (७) भाषा चार प्रकार की है--सत्य, असत्य, मिश्र और व्यवहार भाषा १६ दण्डकों में चार ही भाषा तीन दण्डकों (विकलेन्द्रिय ) में व्यवहार भाषा है ५ स्थावर में भाषा नहीं। Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा-पद। (८) स्थिर-अस्थिर-जीव जो पुद्गल भाषा रूप से लेते हैं वे स्थिर हैं या मस्थिा ? आत्मा के समीप रहे हुवे स्थिर पुद्गलों को ही भाषा रूप से ग्रहण किये जाते हैं । द्रव्य क्षेत्र, काल भाव अपेक्षा चार प्रकार से ग्रहण होता है। १ द्रव्य से अनन्त प्रदेशी द्रव्य को भाषा रूप से ग्रहण करते हैं। २ क्षेत्र से असंख्यात आकाश प्रदेश अवगाहे ऐसे अनन्त प्रदेशी द्रव्य को भाषा रूप में लेते हैं। ३ काल से १-२-३-४-५-६-७-८-६-१० संख्याता और असंख्याता समय की एवं १२ बोल की स्थिति वाले पुद्गलों को भाषा रूप से लेते हैं। ४ भाव से-५ वर्ण, २ गन्ध, ५ रस, ४ स्पर्श वाले पुद्गलों को भाषा रूप में ग्रहण करते हैं। यह इस प्रकार एकक वर्ण, एकेक रस, और एकेक स्पर्श के अनन्त गुणा अधिक के १३ भेद करना अर्थात वर्ण के ५+१३ =६५, गन्ध के २४१३२६, रस के ५४१३-६५ और स्पर्श के ४४१३=५२ बोल हुवे ॥ __.. इन में द्रव्य का १ बोल, क्षेत्र का १ और काल के १२ बोल मिलाने से २२२ वोल हुवे ये २२२ बोल वाले पुद्गल द्रव्य भाषा रूप से ग्रहण होते हैं-(१) स्पर्श किये हुवे (२) आत्म अवगाहन किये हुवे (३)अनन्तर Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६६८ ) अवगाहन किये हुवे ( ४ ) अणुवा सूक्ष्म ( ५ ) बादर स्थूल ( ६ ) ऊर्ध्व दिशा का ( ७ ) अधो दिशा का ( ८ ) तीछीं दिशा का ( ६ ) आदि का (१०) अन्त का ( ११ ) मध्य का ( १२ ) स्वविषय का ( भाषा योग्य ) (१३) अनुपूर्वी [ क्रमशः ] ( १४) त्रस नाली की ६ दिशा का (१५) ज. १ समय उ. असंख्यात समय की थोकडा संग्रह। . मुके सान्तर पुद्गल ( १६ ) निरन्तर ज. २ समय ज २ समय उ. असंख्य समय की अं. सु. का ( १७ ) प्रथम के पुलों को ग्रहण करे, अन्त समय त्यागे मध्यम कहे और छोड़ता रहे ये १७ वोल और ऊपर के २२२ मिल कर कुल ३३६ बोल हुवे समुच्चय जीव और १६ दण्डक एवं २० गुण करने से २३६ २०-४७८० बोल हुवे ( ६ ) सत्य भाषा पने पुद्गल ग्रहे तो समुच्चय जोव और १६ दण्डक ये १७ बोल २३६ प्रकार से [ ऊर‍ अनसार ] ग्रहे अर्थात् १७२३ - ४०६३ बोल इसी प्रकार असत्य भाषा के ४०६३ बोल और मिश्र भाषा के ४०६३ बोल, तथा व्यवहार भाषा के समुच्चय जीव और १६ दण्डक एवं २० + २३६ = ४७८० बोल, कुल मिल कर २१७४६ बोल एकवचनापेक्षा और २१७४६ बहु वचनापेक्षा, कुल ४३४६८ भांगा भाषा के हुवे ॥ [१०] भाषा के पुद्गल मुँह में से निकलते जो वो भेदाते निकलें तो रास्ते में से अनन्त गुणी वृद्धि होते २ Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा-पद। ( ६६६) लोक के अन्त भाग तक चले जाते हैं, जो अभेदाते पुद्गल निकलें तो संख्यात योजन जाकर [विध्वंसी] लय पा जाते हैं। (११) भाषा के भेदाते पुद्गल निकलें । वो ५ प्रकार से (१( खण्डा भेद-पत्यर, लोहा, काष्ट आदि के टुकड़े बत् (२) परतर भेद-अवरख के पुडवत् (३) चूर्ण भेदधान्य कठोल वत् (४) अगुतड़िया भेद-तालाब की सूखी मिट्टी यत् (५) उक्करिया भेद-कठोल आदि की फलीयां फटने के समान इन पांचों का अल्प बहुत्व-सर्व से कम उकुकरिया, उनसे अणतडिया अनन्त गुणा, उनसे चूर्णिय अनन्त गुणा, उनसे परतर अनन्त गुणा, उनसे खण्डाभेद भेदाते पुद्गल अनन्त गुणा । (१२) भाषा पुद्गल की स्थिति ज० अं० मु० की (१३) भाषक का आन्तरा ज० अं० मु०; अनन्त काल का (वनस्पति में जाने पर)। (१४) भ पा पुदल काया योग से ग्रहण किये जाते हैं। (१५) भाषा पुद्गल वचन योग से छोड़े जाते हैं । (१६) कारण-मोह और अन्तराय कर्म के क्षयोपशम और वचन योग से सत्य और व्यवहार भाषा बोली जाती है । ज्ञानावरण और मोहकर्म के उदय से और वचन योग से प्रसत्य और मिश्र भाषा बोली जाती है। केवली सत्य और व्यवहार भाषा ही बोलते हैं । उनके चार पातिक Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७००) थोकडा संग्रह। कम क्षय हुवे हैं । विकलेन्द्रिय केवल व्यवहार भाषा संसार रूप ही बोलते हैं और १६ दण्डक के जीव चारों ही प्रकार की बोलते हैं। (१७) जीव जिस प्रकार की भाषा रूपमें द्रव्य ग्रहण करते हैं वे उसी प्रकार की भाषा बोलते हैं । (१८) वचन द्वार-बोलने वाले व्याख्यानदाताओं को नीचे का वचन ज्ञान करना (जानना ) चाहिए एक वचन द्वि वचन, बहु वचन; स्त्री वचन, पुरुष वचन, नपुसक वचन, अध्यवसाय वचन, वर्ण ( गुण, कीर्तन ), अवर्ण (अवर्ण वाद), वणोवणे (प्रथम गुण करने के बाद अवणे वाद), अवर्ण वर्ण ( प्रथम अवगुण करके पश्चात गुण कहना ), भूत-भविष्य-वर्तमान काल वचन, प्रत्यक्ष-परोक्ष वचन, इन १६ प्रकार के सिवाय विभक्ति तद्धित, धातु, प्रत्यय आदि का ज्ञाता होवे। (१६) शुभ इरादे से चार प्रकार की भाषा बोलने वाला आराधक हो सकता है । (२०) चार भाषा के ४२ नाम हैं. सत्य भाषा के १० प्रकार-१ लोक भाषा २ स्थापना सत्य (चित्रादि के नाम से कहलाने वाली] ३ नाम सत्य [गुण होवे या नहीं होवे जो नाम होवे वो कहना ] ४ रूप सत्य [ तादृश रूप समान कहना जैसे हनुमान- समान रूप पुतले को Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा-पद । ( ७०१ ) हनुमान कहना ] ५ अपेक्षा सत्य ६७ व्यवहार सत्य [८] भाव सत्य [ ६ ] योग सत्य [ १० ] उपमा सत्य । असत्य वचन के १० प्रकार -१ क्रोध से २ मान से ३ माया से ४ लोभ से ५ राग से ६ द्वेष से ७ हास्य से ८ भय से [ इन कारणों से बोली हुई भाषा - आत्म ज्ञान भूलकर ] बोली हुई होने से सत्य होने पर भी असत् है । ६ पर परिताप वाली १० प्राणातिपात [ हिंसक ] भाषा एवं १० प्रकार की भाषा असत्य है । मिश्र भाषा के १० प्रकार - इस नगर में इतने मनुष्य पैदा हुवे, इतने मरे, आज इतने जन्म मरण हुवे, ये सर्व जीव हैं, ये सर्व जीव हैं, इनमें श्राधे जीव हैं, आध अजीव हैं, यह वनस्पती समस्त अनन्त काय है वह सर्व परित काय है, पोरसी दिन आ गया, इतने वर्ष व्यतीत होगये, तात्पर्य यह कि जब तक जिस बात का निश्चय न होवे ( चाहे कार्य हुआ हो ) वहां तक मिश्र भाषा व्यवहार भाषा के १२ प्रकार - १ संबोधित भाषा [ हे वीर, हे देव इ० ] २ आज्ञा देना ३ याचना करना ४ प्रश्नादे पूछना ५ वस्तु तच्च प्ररूपणा करनी ६ प्रत्याख्यानादि करना ७ सामने वाले की इच्छानुसार बोलना जहासुहं " ८ उपयोग शून्य बोलना है इरादा पूर्वक व्यवहार करना १० शंका युक्त बोलना ११ अस्पष्ट बोलना १२ स्पष्ट बोलना, जिस भाषा में असत्य न होवें 66 Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७०२) थोकडा संग्रह। और संपूर्ण या निश्चय सत्य न होवे तो उसे व्यवहार भाषा जानना। ___२१ अल्प बहुत्व-सर्व से कम सत्य भाषक, उनसे मिश्र भाषक असंख्यात .णा, उससे असत्य भाषक असं. ख्यात गुणा, उनसे व्यवहार भाषक असंख्यात गुणा और उनसे अभाषक (सिद्ध तथा एकेन्द्रिय ) अनन्त गुणा । ॥ इति भाषा पद सम्पूर्ण ।। Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयुष्य के १८०० भांगा। । ७०३ ) * आयुष्य के १८०० मांगा (श्री पन्नवणाजी सूत्र, पद छठ्ठा) पांच स्थ वर में जीव निरन्तर उत्पन्न होवे और इनमें से निरन्तर निकले १६ दण्डक में जीव सान्तर और निर. न्तर उपजे और सान्तर तथा निरन्तर निकले सिद्ध भगवान सान्तर और निरन्तर उपजे परन्तु सिद्ध में से निकले नहीं ४ स्थावर समय समय असंख्याता जीव उपजे और असंख्याता चवे, वनस्पति में समय समय अनन्ता जीव उपजे और अनन्त चवे १६ दण्डक सय समय १-२ ३ यावत संव्याता, असंख्याता जीव उपजे और चवे । सिद्ध भगवाट १-२-३ जाव १०८ उपजे परन्तु चवे नहीं। ___आयुष्ष का बन्ध किस समय होता है ? नारकी, देवता, और युगलिये आयुष्य में जब ६ माह शेष रहे तब पर भव का आयुष्य बान्धे शा जीव दो प्रकार बान्धे-- सोपक्रमी और निरुपक्रमी । निरुपक्रमी तो नियमा तीसरा भाग आयुष्य का शेष रहने पर बान्धे और सोपक्रमी आयुष्य के तीसरे, नववे, सत्तावीश वें, एकाशीवें,२ ४३३ भाग में तथा अन्तिम अन्तर्मुहूत में परभव का आयुष्य बान्धे आयुष्य कर्म के साथ साथ ६ बोल ( जाति, गति, स्थिति,अवगाहना,प्रदेश और अनुभाग) . बन्ध होता है। समुच्चय जीव और २४ दण्डक के एकेक जीव ऊपर Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७०४ ) थोकडा संग्रह | के ६ बालों का बन्ध करे ( २५९६ = १५० ), एसे ही अनेक जीव बन्ध करे । १५० + १५० = ३००, ३०० निद्रस और ३०० निकांचित बन्ध होवे । एवं ६०० भांगा (प्रकार) नाम कर्म के साथ, ६०० गोत्र कर्म के साथ और ६०० नाम गोत्र के साथ ( एकट्ठा साथ लगाने से श्रायुष्य कर्म के १८०० भांगे हुवे ) । जीव जाति निद्धस आयुष्य बान्धते हैं, गाय जैसे पानी को खेचकर पीछे वैसे ही वे आकर्षित करते हैं, कितने आकर्षण से पुद्गल ग्रहण करते हैं । उस समय १-२-३ उत्कृष्ट ८ कर्म खेचते हैं उसका अन्य बहुत्व सर्व से कम ८ कर्म का आकर्षण करने वाले जीव, उनसे ७ कर्म का आकर्पण करने वाले जीव संख्यात गुणा, उनसे ६ कर्म का आकर्षण करने वाले जीव संख्यात गुणा, उनसे ५ - ४ - ३ २ और १ कर्म का आकर्षण करने वाले जीव क्रमशः संख्यात संख्यात गुणा । जैसे जति नाम निद्धप्स का समुच्चय जीव अपेक्षा अल्पबहुत्व बताया है वैसे ही गति आदि ६ बोलों का अल्पबहुत्व २४ दण्डक पर होता है । एवं १५० का अल्पबहुत्व यावत् ऊपर के १८०० मांगों का अल्प बहुत्व कर लेवे | f ॥ इति आयुष्य के १८०० भांगा सम्पूर्ण ॥ SHAS - Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोपक्रम-निरुपक्रम । ०५) ® सोपक्रम-निरुपक्रम (श्री भगवती जी सूत्र शतक २० उद्देशा) सोपक्रम आयुष्य ७ कारण से टूट सकता है-१ जल से २ अग्नि से ३ विष से ४ शस्त्र से ५ अति-हर्ष ६ शोक-से ७ भय से (बहुत चलना बहुत खाना. मैथुन का सेवन करना आदि मय से)। निरुपक्रम प्रायुध्य बन्धा हुवा पूरा आयुष्य भोगो बीच में टूट नहीं जीव दोनों प्रकार के आयुष्य वाले होते १ नारकी, देवता, युगल मनुष्य, तीर्थ कर, चकार्ती, वासुदेव, प्रति वासुदेव, चलदेव इन के आयुष्य निरुपकनी होते हैं शेष सर्व जीवों के दोनों प्रकार का प्रायुष्य होता २ नारकी सोपक्रम (स्वहस्ते शस्त्रादि से ) से उपजे, पर उपक्रम से तथा विना उपक्रम से ? तीनों प्रकार से । तात्पर्य कि मनुष्य तिथंच पने जीव नरक का आयुष्य बान्धा होवे तो मरत समय अपने हाथों स दूसरों के हार्थों से अथवा आयुष्य पूर्ण होने के बाद मरे, एवं २४ दण्डक जानना। ३ नेरिये नरक से निकले तो स्वोपक्रन से परोपक्रम से तथा उपक्रम से ? बिना उपक्रम से। एवं १३ देवता के Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७०६) थोकडा संग्रह। दण्डक में भी विना उपक्रम से चवे, स्थावर, तीन विकलेन्द्रिय, तिर्यंच पंचेन्द्रिय और मनुष्य एवं १० दण्डक के जीव तीनों ही उपक्रम से चके । ४ नारकी स्वात्म ऋद्धि ( नरकायु आदि ) से उत्पन्न होवे कि पर ऋद्धि से ? स्वऋद्धि से और निकले (चवे) भी स्वऋद्धि से एवं २३ दण्डक में जानना । ५२४ दण्ड क के जीव स्वप्रयोग ( मन वचन काय) से उपजे और निकले, पर प्रयोग से नहीं।। ६ २४ दण्डक के जीव स्वकर्म से उपजे और निकले (चवे), पर कर्म से नहीं। ॥ इति सोपक्रम निरूपक्रम सम्पूर्ण ।। Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हियमाण वढमाण (७०७ ) * हियमाण-वढमाण * श्री भगवती सूत्र, शतक ५ उ०८ (१) जीव हियमान (घटना ) है या वर्द्धमान (बढना ) ? न तो हियमान है और न बर्द्धमान पस्तु अवस्थित ( वध-घट विना जैसे का तैसा रहे ) है। (२) नेरिया हियमान, वर्धमान और अवस्थित भी हैं एवं २४ दण्डक, सिद्ध भगवान वर्धमान और अवस्थित हैं। (३) सप्युच्चय जीव अवस्थित रहे तो शाश्वता नरिया हियमान, वर्धमान रहे तो ज० १ समय उ० आव. लिका के असंख्यात भाग और अवस्थित रहे तो विरह काल से दुगणा (देखो विरह पद का थोकड़ा) एवं २४ दण्डक में अवस्थित काल विरह काल से दूना, परन्तु ५ स्थावर में अवस्थित काले हियमान वत् जानना । सिद्धों में बधमान ज०१ समय, उ०८ समय और अवस्थित काल ज०१ समय उत्कृष्ट ६ माह । ॥ इति हिय माण वढमाण सम्पूर्ण ।। Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७०८) थोकडा संग्रह। सावचया सोवचया ( श्री भगवती सूत्र, शतक ५, उ०८) १ सावचया [ वृद्धि] २ सोवचया [ हानि ] ३ सावचया सोवचया [वृद्धि-हानि ] और ४ निरूवचया [ न तो वृद्धि और न हानि ] इन चार भागों पर प्रश्नोतर समुच्चय जीवों में चौथा भांगा पावे, शेष तीन नहीं. २४ दण्डक में चार ही भांगा पावे । सिद्ध में भागा २ ( सावचया-और निरुवचया-निरवचया ) समुच्चय जीवों में जो निरुवचया-निरवचया है वो सर्वार्ध है । और नारकी में निस्वच या-निरवचया सिवाय तीन भागों की स्थिति ज० १ समय की उ० आवालिका के असंख्यात भाग की तथा निरबचया--निरवचया की स्थिति विरह द्वार वत्, परन्तु पांच स्थावर में निरुवचयानिवचया भी ज० १ समय, उ० आवलिका के असंख्यातवें भाग सिद्ध में सावचया ज० १ समय उ० ८ समय की और निरूवचया-निरवचया की ज० १ समय की उ० ६ माह की स्थिति जानना । नोट:-पांच स्थावर में अवस्थित काल तथा निरुवचया निरवचया काल श्रावलिका ये असंख्यातवें भाग कही हुई है यह परकायापेक्षा है । स्वकाय का विरह नहीं पड़ता। ॥ इति सावचया सोवचया सम्पूर्ण ॥ ___ Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋत संचय | ऋत संचय ( श्री भगवती सूत्र, शतक २०, उद्देशा १० ) (१) ऋत संचय - जो एक समय में दो जीवों से संख्याता जीव उत्पन्न होते हैं । ( ७०६ ) 113, (२) क्रत संचय - जो एक समय में असंख्याता अनन्ता जीव उत्पन्न होते हैं (३) अवक्तव्य संचय - एक समय में एक जीव उत्पन्न होता है । १ नारकी (७), १० भवन पति, ३ विकलेन्द्रिय, १ तिर्यच पंचेन्द्रिय, १ मनुष्य, १ व्यंतर, १ ज्योतिषी और १ वैमानिक एवं १६ दएडक में तीनों ही प्रकार के संचय | पृथ्वी काय आदि ५ स्थावर में अक्रत संचय होता है। शेष दो संचय नहीं होते कारण समय समय असंख्य जीव उपजते हैं | यदि किसी स्थान पर १-२-३ आदि संख्याता कहे हों तो वो परकायापेक्षा समझना । सिद्ध ऋत संचय तथा अवक्तव्य संचय है, अक्रत संचय नहीं । अल्प बहुत्व नारकी में सर्व से कम वक्तव्य संचय उनसे ऋत संचय संख्यात गुणा उनसे अक्रत संवय असंख्यात गुणा एवं १६ दण्डक का अल्प बहुल जानना Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रण संचय संख्यात गुणा । ५ स्थावर में अल्पबहुत्व नहीं । सिद्ध में सर्व से कम क्रत संचय, उनसे श्रववतव्य ॥ इति कृत संचय संपूर्ण ॥ २०६३ ६ थोकडा संग्रह | wwwww Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्य-( जीवा जीव )। (७११) द्रव्य-(जीवा जीव) ( श्री भगवती सूत्र, शतक २५ उ० २) द्रव्य दो प्रकार का है-जीव द्रव्य और अजीव द्रव्य । क्या जीव द्रव्य संख्याता, अख्याता तथा अनन्ता है ? अनन्ता है कारण कि जीव अनन्त है। अजीव द्रव्य संख्याता, असंख्याता तथा क्या अनन्ता है ? अनन्ता है । कारण कि अजीव द्रव्य पांच है:-धर्मास्ति काय अधोस्ति काय, असंख्याता प्रदेश हैं आकाश और पुद्गल के अनन्त प्रदेश हैं। और काल वर्तमान एक समय है भूतभविष्यापेक्षा अनन्त समय है इस कारण अजीव द्रव्य अनन्ता है। प्र०-जीव द्रव्य, अजीव द्रव्य के काम में आते हैं कि अजीव द्रव्य जीव द्रव्य के काम में आते हैं ! उ०-जीव द्रव्य अजीव द्रव्य के काम में नहीं पाते, परन्तु अजीव द्रव्य जीव द्रव्य के काम में आते हैं। कारण कि-जीव अजीव द्रव्य को ग्रहण करके १४ बोल उत्पन्न करते हैं यथा-१ औदारिक २ वैक्रिय ३ आहारिक ४ तेजस ५ काभण शरीर, ५ इन्द्रिय, ११ मन, १२ वचन, १३ काया और १४ श्वासोश्वास। प्र० अजीव द्रव्य के नारकी के नरिये काम आते Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७१२ ) हैं कि नेरिये के अजीव द्रव्य काम आते हैं ? उ०- अजीव द्रव्य के नेरिये काम नहीं आते, परन्तु नरिये के अजीव द्रव्य काम आते हैं। अजीव का ग्रहण करके नेरिये १२ बोल उत्पन्न करते हैं । ( ३ शरीर, इन्द्रिय, मन, वचन और श्वासोश्वास ) देवता के १३ दण्डक के प्रश्नोत्तर भी नारकीवत् ( १२ बोल उपजावे ) थोकडा संग्रह । चार स्थावर के जीव ६ बोल ( ३ शरीर स्पर्शेन्द्रिय काय और श्वासोश्वास ) उपजावे वायु काय के जीव ७ बोल ऊार के ६ और वैक्रिय) उपजावे | बेइन्द्रिय जीव ८ बोल उपजावे ( ३ शरीर, २ इन्द्रि य, २ योग, श्वासोश्वास | ) त्रि- इन्द्रिय जीव ६ बोल उपजावे ( ३ शरीर, ३ इन्द्रि य २ योग, श्वासोश्वास ) | चौरिन्द्रिय जीव १० बोल उपजावे ( ३ शरीर, ४ इन्द्रिय २ योग, श्वासोश्वास ) | तिर्यच पंचेन्द्रिय १३ बोल उपजावे ( ४ शरीर, ५ इन्द्रिय, ३ योग, श्वासोश्वास 1) मनुष्य सम्पूर्ण १४ बोल उपजावे | ॥ इति द्रव्य-जीवाजीव सम्पूर्ण । Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्थान द्वार 1 संस्थान---द्वार ( श्री भगवतोजी सूत्र, शतक २५ उद्देशा ३ ) संस्थान = प्राकृति इसके दो भेद १ जीव संस्थान और २ अजीव संस्थान जीव संस्थान के ६ भेद१ समचौरस २ सादि ३ निग्रोध परिमण्डल ४ वामन ५ कुब्जक ६ हूंड संस्थान । अजीव संस्थान के ६ भेद१ परिमंडल ( चूड़ी के समान गोल ) २ वन (लडू समान गोल) ३ स ( त्रिकोन ) ४ चौरंस ( चौरस ) ५ आयतन ( लकड़ी समान लम्बा ) ६ अनवस्थित ( इन पांचों से विपरीत) | ( ७१३ ) परिमण्डल श्रादि छः ही संस्थानों के द्रव्य अनन्त हैं संख्याता या असंख्याता या असंख्याता नहीं । इन संस्थानों के प्रदेश भी अनन्त हैं, संख्याता - संख्याता नहीं | ६ संस्थानों का द्रव्यापेक्षा अल्प बहुत्व सर्व से कम परिमंडल संस्थान के द्रव्य । उनसे वट्ट के द्रव्य संख्यात गुणी उनसे चौरस के द्रव्य संख्यात गुणा उनसे स के द्रव्य संख्यात गुणा उनसे श्रायतन के द्रव्य संख्यात गुणा, उनसे अनवस्थित के द्रव्य असंख्यात गुणा । Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७१४) थोकडा संग्रह। प्रदेशापेक्षा अल्प बहुत्व भी द्रव्यापेक्षावत् जानना। द्रव्य-प्रदेशापेक्षा का एक साथ अल्प वहुत्व सर्व से कम परिमंडल द्रव्य, उनसे वट्ट द्रव्य संख्यात गुणी उनसे चौरस द्रव्य संख्यात गुणा उनसे –स द्रव्य" " " आयतन" " " " अनवस्थित" असं. गुणा." परिमंडल प्रदेश असंख्यात " वट्ट प्रदेश सं०" . " चौरस " संख्यात " स " "" "आयन " " " अनवस्थित , असंख्यात गुणा। ॥ इति संस्थान द्वार सम्पूर्ण ॥ Sare Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्थान के भांगे। संस्थान के भांग (श्री भगवती जी सूत्र, शतक २५ उद्देशा ३) संस्थान ५ प्रकार का है-१ परिमंडल २ वट्ट ३ स ४ चौरस ५ पायतन ये पांचों ही संस्थान संख्याता, असंख्याता नहीं परन्तु अनन्ता हैं । ७ नारकी, १२ देवलोक, ६ ग्रीयकेक, ५ अनुत्तर विमान, सिद्ध शिला और पृथ्वी के ३५ स्थान में पांच प्रकार के अनन्ता अनन्ता संस्थान हैं एवं ३५+५=१७५ भांगे हुवे। एक यवमध्य परिमंडल संस्थान में दूसरा परिमंडल संस्थान अनन्त हैं। एवं यावत् आयतन संस्थान तक अनन्त अनन्त कहना । इसी प्रकार एक यवमध्य परिमडल के समान अन्य ४ संस्थानों की व्याख्या करना । एक संस्थान में दूसरे पांचों ही संस्थान अनन्त हैं अतः प्रत्येक के ५+५=२५ बोल । इन उक्त ३५ स्थानों में होवे अर्थात् ३५+२५८७५ पार १७५ पहले के मिल कर १०५८ मांगे हुवे । ॥ इति संस्थान के भांगे सम्पूर्ण ।। Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७१६) थोकडा संग्रह। खेताणु---वाई (श्रीपन्नवणा जी सूत्र, तीसरा पद) तीन लोका के ६ भेद (भाग) करके प्रत्यक भाग में कौन रहता है ? यह बताया जाता है। (१) ऊर्ध्व लोक ( ज्योतिषी देवता के ऊपर के तले से ऊपर ) में--१२ देवलोक, ३ किल्विषी, 8 लोकातिक, ६ ग्रीयवेक, ५ अनुत्तर विमान इन ३८ देवों के पर्याप्ता, अपर्याप्ता ( ७६ देव ) तथा मेरु की वापी अपेक्षा बादर तेऊ के पर्याप्ता, अपर्याप्ता सिवाय ४६ जाति के तिथंच होवे, एवं ७६+४६=१२२ भेद ( प्रकार) के जीव होते हैं। (२) अधो लोक ( मेरु की समभूमि से ६०० यो. जन नीचे तीछो लोक उससे नीचे ) में जीव के भेद ११५ हैं-७ नारकी के १४ भेद, १० भवनपति १५ परमाधामी के पर्या० अपर्या० एवं ५० देव, सलीलावति विजय अपेक्षा ( १ महाविदेह का पर्या० अपर्या० और समून मनुष्य ) ३ मनुष्य और ४८ तिथंच के भेद मिल कर १४ +५०+३+४८=११५ हैं। (३) तीर्खा लोक ( १८०० योजन ) में ३०३ मनुध्य, ४८ तिर्यंच और ७२ देव ( १६ व्यन र, १० जुभका १० ज्योतिषी इन ३६ केपर्या० अपर्या० ) कुल ४२३ भेद के जीव है। Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खेत णु वई। ( ७७ ) (४) ऊर्ध्व-तीछों लोक-( ज्यातिषी के ऊपर के तला के प्रदेशी प्रतर के बीच में ) में देव गमनागमन के समय और जीव चवकर ऊर्व लोक में तथा तीर्छ लोक जाते गमनागमन के समय स्पर्श करते हैं। (५) अधो-ती लोक में भी दोनों प्रतरों को चव कर जाते आते जीव स्पर्शते हैं। (६) तीनों ही लोक ( अवं, अधो और ती लोक ) का देवता, देवी तथा मरणांतिक समुद्रघात करते जीव एक साथ स्पर्श करते हैं । २४ दण्डक के जीव उपरोक्त ६ लोक में कहाँ न्यूनाधिक हैं ! इसका अल्प बहुत्व । २० बोल ( समुच्चय एकन्द्रिय, ५ स्थावर ये ६ समुच्चय, ६ पर्याप्ता, ६ अपर्याप्ता, १ समुच्य और १ समुच्चय तिथच ) का अल्म बहुत्त । सर्व से कम ऊर्धीछे लोक में, उनी अधो तीर्छ लोक में विशेष उससे तीछे लोक में असंख्यात गुणा उनसे तीनों लोक में असंख्यात गुणा उनसे ऊर्ध्व लोक में प्रख्यात गुणा उनसे तीनों अधा लोक में विशेष । ३ बोल ( समुच्चय नारकी, पर्याप्ता और अपर्याप्ता नारकी का अल्प बहुत्व--सवे से कम तीन लोक में अधो ती लोक में असंख्यात,अधो लोक में संख्यात गुणा । ६ बोल-भवनपति के (१ समुच्चय, १ पर्याप्ता, Page #730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७१८) थाकड़ा संग्रह। १ अपर्याप्ता एवं ३ देवी के ) सवे से कम ऊध्र्व लोक में उनो ऊर्ध्व तीर्छ लोक में असंख्यात गुणा, उनसे तीनों लोक में संख्यात गुणा उनसे अधं तीर्छ लोक में असंख्यात गुणा उनसे तीचे लोक में असंख्यात गुणा उनसे अधो लोक में असंख्यात गुण।।। ४ बोल ( तियेचनी, समुच्चय देव, समुच्चय देवी, पंचेन्द्रिय; के पर्याप्ता ) का अल्प बहुत्व मंत्र से कम ऊध लोक में उनसे ऊर्ध्व- लोक में असंख्यात गुणा उनसे तीनों लोक में संख्यात गुणा उनसे अधो-ती लोक में संख्यात गुणा उनस अधा लोक में संख्यात गुणा उनसे ती लोक में ३ बोल संख्यात गुणा और पंचेन्द्रिय का पयोप्ता असंख्यात गुणा । एवं तीन मनुष्यनी के ) बोल-सर्व से कम तीनों लोक में, उनसे ऊध्वे-ती लोक में मनुष्य असंख्यात .णा मनु व्यनी संख्यात गुणी उनसे अधो-तीर्छ लोक में संख्यात गुणा उनसे ऊध्वे लोक में संख्यात गुणा उनसे अधो लोक में संख्यात गुणा उनसे तीर्थ लोक में संख्यात गुणा । ६ बोल-व्यन्तर के (समु० व्यन्तर देव पयःप्ता अपर्याप्त एवं ३ देवी के ) बोल-सर्व से कम ऊर्ध्व लोक में, उनसे ऊर्ध्व ती, लोक में असंख्यात गुणा उनसे तीन लोक में संख्यात गुणा उनसे अधो-ती लोक में असंख्यात गुणा उनसे अधो लोक में संख्यात गुणा उनसे ती लोक में संख्यात गुणा । Page #731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खताणु-वाई। ६ बोल ज्योतिषी के ( ३ देवके, ३ देवी के ऊपर वत् ) सर्व से कम ऊर्ध्व लोक में उनसे ऊर्ध तीर्छ लोक में असं० गुणा उनसे तीन लोक में संख्यात गुणा उनसे अधो-तीर्थ लोक में असंख्य त गुणा उनसे अधो लोक में संख्यात गुणः, उनसे ती लोक में असंख्यात गुणा ६ बोल-वैमानिक (३ देवी के ऊार वत् ) केसर्व से कम ऊर्ध्व-ती लोक में उनसे तीन लोक में संख्यात गुणा उनसे अधो-ती लोक में संख्यात गुण उनसे अधो लोक में संख्यात गुणा उनसे ऊधे लोक में असंख्यात गुणा। ६ बोल तीन विकलेन्द्रिय के ( ३ पर्याप्ता, ३ अपर्याप्ता ) सर्व से कम ऊर्ध्व लोक में उनसे ऊर्ध्व ती लोक में असंख्यात गुणा उनसे त छ लोक में असंख्यात गुणा उसने अधो तीर्छ लोक में असंख्यात गुणा उनसे अधो लोक में संख्यात गुणा उनसे ती, लोक म सख्यात गुणा। __ ५ बोल ( समुच्चय पंचेन्द्रिय, समु० अपर्याप्ता समुत्रस, त्रस के पर्या० अपर्याप्ता) सर्व से कम तीन लोक में उनसे ऊर्ध-ती लोक-में संख्यात गुण। उनसे अधोती लोक में संख्यात गुणा उनसे ऊध लोक में संख्यात गुणा उनसे अधो लोक म संख्यात गुणा उनसे ती लोक में असंख्यात गुणा। . Page #732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७२० ) थोकडा संग्रह। -........... पुद्गल क्षेत्रापेक्षा सर्व से कम तीन लोक में उनसे ऊर्ध-ती लोक में अनं० गुण। उनसे आधो-तीर्छ लोक में विशेष लोक में उनसे तीळ "" असं० उन से ऊर्ध्व लोक में असं० गुणा उन से अधो लोक में विशेष । द्रव्य क्षेत्रापेक्षा ___ सर्व से कम तीन लोक में उनसे ऊर्ध-तीछे लोक में अनंत गुणा उनसे अधा ती लोक में विशेष उनसे ऊध लोक में अनंत गुणा उन से अधो तीर्छ लोक में अनंत गुणा उनसे ऊध्ये ती लोक में अनंत गणा । पुद्गल दिशापेक्षा सर्व से कम ऊर्ध्व दिशा में उनसे अधो दिशा में विशेष उनसे ईशान नैऋत्य कोन में असं० गुणा उनसे अग्नि कायव्य कोन में विशेष उनसे पूर्व दिशा में असं० गुणा उनसे पश्चिम दिशा में विशेष । उनसे दक्षिण दिशा में विशेष और उनसे उत्तर दिशा में विशेष युद्गल जानना । द्रव्य क्षेत्रापेक्षा सर्व से कम द्रव्य अधो दिशा में उनसे ऊर्ध्व दिशा में अनन्तगुणा उन से ईशान नैऋत्य कोन में अनन्तगुणा उन से अग्नि वायु कोन में विशेष उन से पूर्व दिशा में असंख्यात गुणा उन से पश्चिम दिशा में विशेष उन से दक्षिण दिशा में विशेष उन से उत्तर दिशा में विशेष । ॥ इति खेताणु वाई सम्पूर्ण ।। Page #733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवगाहन का अल्प बहुत्व । अवगाहन का अल्प बहुत्व १ सर्व से कम सूक्ष्म निगोद के पर्याप्ता की ज. अवगाहनाउनसे २ सूक्षम वायु काय के अपर्याप्ता की. ज. ,, असं. गुणी , ३ ,, तेऊ , , , , , " ".. " " ४ , अप , , , , , " " " " ५, पृथ्वी , " , . , , , , " " ६ बादर वायु , , , , , , , , " ७ , तऊ , " " .., " " " " " ८ , अप , " " " " " " " " ६ ,, पृथ्वी ,,. , . .,. " " " " " १० , निगोद ,,, ,, , " " " " " ११ प्रत्येक शरीरी बादर वनस्पति के प्र०की,, , , " " १२ सूक्ष्म निगोद के पर्याप्ता की १३ , , , अपर्या. , ,, विशेष, १४ , , , पर्याप्ता ,,. १५ ,, वायुकाय ,, ". " , असं.गुणी, १६ , , , ,, अपर्या., विशेष , १७ ,, , ,, ,, पर्याप्ता " , , १८ , तेऊ,, , , - "' ज. ,, अस. गु. " १६ ,, ,, ,, ,, अपर्याप्ता, उ. ,, विशेष , , ,, पर्याप्ता , २१ , अप ,, , , , ज. , असं. गुणी , २२ ,, ,, ,, अपर्याप्ता , विशेष , . , , , ,, पर्यता २४ ,, पृथ्वी,, , , , ज. ,, असं. गुणी ,, २५ , , , ,अपया " उ. , विशेष , :: : * - : ___ Page #734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७२२) थोकडा संग्रह है ; ; ; २६ ,, ,, ,, , पर्याप्ता , २७वाद वा., , , , ज. ,, अपं. गुणी ,, २८ ,,,, ,, अपर्याप्ता, ,, विशेष , २६ , , , , पर्याप्ता ,, ३० ,, तेऊ,, , , . " , असं. गुणो ,, ३१. , ,, अपया. , उ. ,, विशेष ३२,, ,, ,,पया. " ३३ ,, अप, , , , असे. गुणी ३४, , , , अपया. ,, उ. ,, विशेष , ३५ ,, ,, ,, ,, पर्या. , ३६वादर पृ.,, " " " ,, अलं. गुणी , ३७ ,, ,, ,, ,, अपयो. " ,, विशेष ३८"., , , पया. " निगोद ,, पर्या. , ,, असं. गुणी , "" ,अपर्या. , , विशेष ,,,, , पर्या. , ४२ प्रत्येक शरीरी बादर वन.पा को ज. ,, असं. गुणा , ४३ " " " " अपर्या. उ. " " " " ४४ " " " पी . " " " " " ; ; ; : ॥ इति अवगाहना अल्प बहुत्व ।। Page #735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरम पद | 蹓 चरम पद ( श्री पन्नवणाजी सूत्र, दशवाँ पद ) चरम की अपेक्षा अचरम है और अचरम की अपेक्षा चरम है । इनमें कम से कम दो पदार्थ होने चाहिये । नीचे रत्नप्रभादि एकेक पदार्थ का प्रश्न है । उत्तर में अपेक्षा से नास्ति है । अन्य अपेक्षा से अस्ति है । इसी को स्यादवाद् धर्म कहते हैं । प्रथ्वी ८ प्रकार की है - ७ नारकी और ईशी प्रागभोरा ( सिद्ध शिला ) प्रश्न - रत्न प्रभा क्या ( १ ) चरम है ? (२) चरम है ? (३) अनेक चरम है ? (४) अनेक अचरम है ? (५) चरम प्रदेश है ? (६) अचरम प्रदेश है ? ( ७२३ ) उत्तर - रत्नप्रभा पृथ्वी द्रव्यापेक्षा एक है | अतः चरमादि ६ बोल नहीं होवे । अन्य अपेक्षा रत्नप्रभा के मध्य भाग और अन्त भाग ऐसे दो भाग करके उत्तर दिया जाय तो - चरम पद का अस्तित्व है । जैसे-रत्नप्रभा पृथ्वी द्रव्यापेक्षा (१) चरम है । कारण कि मध्य भाग की अपेक्षा बाहर का भाग ( श्रन्त भाग ) चरम है | (२) चरम है । कारण कि अन्त भाग की अपेक्षा मध्य भाग चरम है । क्षेत्रापेक्षा (३) चरम प्रदेश है । कारण कि मध्य प्रदेशापेक्षा अन्त प्रदेश चरम है और (४) अच Page #736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७२४ ) थोकडा संग्रह। --- AAA A AAAA------------ gho रम प्रदेश है। कारण कि अन्त प्रदेशापेक्षा मध्य का प्रदेश अचरम है। रत्नप्रभा के समान ही नीचे के ३६ बोलों को चार चार बोल लगाय जासक्ते हैं। ७ नारकी, १२ देव लो, हनीयवेक, ५ अनुत्तर विमान, १ सिद्ध शिना, १ लोक और १ अलोक एवं ३६x४=१४४ बोल होते हैं। इन ३६ बोलों की चरम प्रदेश में तारतम्यता है । इसका अल्प बहुत्व रत्न प्रभा के चरमाचरम द्रव्य और प्रदेशों का अल्प बहुत्व-सर्व से कम अचरम द्रव्य, उनसे चरम द्रव्य असंख्यात गुणा, उनसे चरमाचरम द्रव्य विशेष, सर्व से कम चरम प्रदेश, उनसे अचरम प्रदेश असंख्यात गुणा, उनसे चरमाचरम प्रदेश विशेष । . द्रव्य और प्रदेश का एक साथ अल्प बहुत्व, सर्व से कम अचरम द्रव्य, उनसे चरम द्रव्य असंख्यात गुणा, उनसे चरमाचरम द्रव्य विशेष, उनसे चरम प्रदेश असं.ख्य गुणा, उनसे अचरम प्रदेश असंख्य गुणा, उनसे चरमाचरम प्रदेश विशेष, इसी प्रकार लोक सिवाय ३५ बोलों का अल्प बहुत्व जानना । अलोक में द्रव्य का अल्प बहुत्व-सर्व से कम अचरम द्रव्य, उन ___ Page #737 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरम पद। ( ७९२ से चरम द्रव्य असं व्य गुणा, उनसे चरमाचरम द्रव्य विशेष । __ प्रदेश का अल्प बहुत्व-सर्व से कम चरम प्रदेश, उनसे अचरम प्रदेश अनन्त गुणा,उनसे चरमाचरम प्रदेश विशेष । द्रव्य प्रदेश का अल्प बहुत्व-सर्व से कम अचरम द्रव्य, उनसे चरम द्रव्य असंख्य गुणा, उनसे चरमाचरम द्रव्य विशेष, उनसे चरम प्रदेश असंख्य गुणा, उनसे अचरम प्रदेश अनन्त गुणा, उनसे चरमाचरम प्रदेश विशेष । लोकालोक में चरमाचरम द्रव्य का अल्प बहुत्व सर्व से कम लोकालोक के चरम द्रव्य, उनसे लोक के चरम द्रव्य असंख्य गुणा, उन से अलोक के चरम द्रव्य विशेष, उनसे लोकालोक के चरमाचरम द्रव्य विशेष । लोकालोक में चरमाचरम प्रदेश का अल्प बहुत्व:सर्व से कम लोक के चरम प्रदेश, उनसे अलोक के चरम प्रदेश विशष, उन से लोक के अचरम प्रदेश असंख्य गुणा, उनसे अलोक के अचरम प्रदेश अनन्त गुणा, उन से लोकालोक के चरमाचरम प्रदेश विशेष । लोकालोक में द्रव्य-प्रदेश चरमाचरम का अल्प बहुत्व-सर्व से कम लोकालोक के चरम द्रव्य, उन से लोक के चरम द्रव्य असं० गुणा, उनसे अलोक Page #738 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७२६) थोकडा संग्रह। के चरम द्रव्य विशेष, उनसे लोकालोक के चश्माचरम द्रव्य विशेष, उनसे लोक के चरम प्रदेश असंख्य गुणा, उनसे अलोक के चरम प्रदेश विशेष,उनसे लोक के अचम्म प्रदेश असंख्य गुणा, उनमे अलोक के अचरम प्रदेश अनन्त गुणा, नसे लोकालोक के चरमाचरम प्रदेश विशष । एवं हवन, पर्व द्रव्य, प्रदेश और पर्याय १२ बोलों का अल्प बहुत्व सर्व से कम लोकालोक के चरम द्रव्य, उनसे लोक के चाम द्रव्य असंख्य गुणा, उनसे अलोक के चरम द्रव्य विशेष, उनसे लोकालोक के चरमाचरम द्रव्य विशेष,उनसे लोक के चरम प्रदेश असंख्य गुणा, उनसे अलोक के चरम प्रदेश विशेष, उनसे लोक के अचरम प्रदेश असंख्य गुणा, उन से अलोक के अचरम प्रदेश अनन्त गुणा, उनसे लोकालोक के चरमा चरम प्रदेश विशेष, उनसे सर्व द्रव्य विशेष, उनसे सर्व प्रदेश अनन्त गुणा, उनसे सर्व पर्याय अनन्त गुणी। ॥ इति चरम पद सम्पूर्ण ।। Page #739 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चर्मा - चरम | चरमा चरम ( श्री पन्नवणाजी सूत्र, दसवां द ) द्वार ११-१ गति २ स्थिति ३ भव ४ भाषा ५ श्वासोश्वास ६ आहार ७ भाव ८ वर्ण ६ मंत्र १० रस ११ स्पर्श द्वार | ( ७२७ ) १ गति द्वार - गति अपेक्षा जीव चरम भी है और चरम भी है। जिन भव में मोक्ष जाना है वो गति चरम और अभी भव बाकी है वो अचरम, एक जीव अपेक्षा और २४ दण्डक अपेक्षा ऊपरवत जानना अनेक जीव तथा २४ दण्डक के अनेक जीव अपेक्षा भी चरम अचरम ऊपर अनुसार जानना । २ स्थिति द्वार-स्थिति अपेक्षा एकेक जीव, अनेक जीव, २४ दण्डक के एकेक जीव और २४ दण्डक के अनेक जीव स्यात् चरम, स्यात् चरम है । ३ भव द्वार - इसी प्रकार एकेक और अनेक जीव अपेक्षा समुच्चय जीव और २४ दण्डक भव अपेक्षा स्यात् चरम है, स्यात् अचरम हैं । ४ भाषा द्वार-भाषा अपेक्षा १६ दण्डक (५ स्थावर सिवाय के) एकेक और अनेक जीव चरम भी है और अचरम भी है । Page #740 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७२८) थोकडा संग्रह। Main AAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAMANARAAAAAAm. nnnnamra. ५ श्वासोश्वास द्वार-श्वासोश्वास अपेक्षा सर्व चरम भी है, अचरम भी है। ६ आहार-अपेक्षा यावत् २४ दण्डक के जीव चरम भी है, अचरम भी है। . ७ भाव-(प्रौदयिक आदि ) अपेक्षा यावत् २४ दण्डक के जी। चरम भी है, अचरम भी है । ८ से-११ वर्ण,गन्ध,रस,स्पर्श के २० बोल अपेक्षा यावत् २४ दण्डक के एके और अनेक जीव चरम भी है, अचरम भी है। । इति चरमाचरम सम्पूर्ण ॥ Page #741 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव परिणाम पद । ( ७२६ ) us.5/5 के जीव परिणाम पद के ( श्री एन्नवणा सूत्र, तेरहवां पद ) जिस परिणति से परिणमे उसे परिणाम कहते हैं। जैसे जीव स्वभाव से निर्मल, सच्चिदानन्द रूप है । तथापि पर प्रयोग से कषाय में परिणमन हो कर कषायी कहलाता है । इत्यादि । परिणाम दो प्रकार का है- १ जीव परिणाम २ अजीव परिणाम । १जीव परिणाम-१० प्रकार का है-गति,इन्द्रिय, कषाय, लश्या, योग, उपयोग, ज्ञान, दर्शन, चारित्र और वेद परिणम । विस्तार से गति के ४, इन्द्रिय के ५, कषाय के ४, लेश्या के ६, योग के ३, उपयोग के २ ( साकार ज्ञान और निराकार दर्शन ), ज्ञान के ८ (५ ज्ञान, अज्ञान), दर्शन के ३ ( सम-मिथ्या-मिश्र दृष्टि ), चारित्र के ७ (५ चारित्र, १ देश व्रत और अव्रत ), वेद के ३, एवं कुल ४५ बोल है । और समुच्चय जीव में १ अनेन्द्रिय २ अकषाय ३ अलेशी ४ अयोगी और ५ अवेदी । एवं ५ बोल मिलाने से ५० बोल हुवे । समुच्चय जीव एव ५० बोल पने परिणमते हैं। अब ये २४ दण्डक पर उतारे जाते हैं। (१) सात नारकी के दण्डक में २६ बोल पावे १ नरक गति, ५ इन्द्रिय ४ कपाय, ३ लेश्या, ३ योग, ___ Page #742 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७३० ) २ उपयोग, ६ ज्ञान ( ३ ज्ञान, ३ अज्ञान ) ३ दर्शन, १ असंयम चारित्र, १ वेद नपुसंक एवं २६ बोल | (११) १० भवन पति १ व्यन्तर एवं ११ दण्डक में ३१ बोल पावे - नारकी के २६ बोलों में १ स्त्री वेद और १ तेजोलेश्या बढाना | - ( ३ ) ज्योतिषी और १ - २ देवलोक में २८ बोल ऊपर में से ३ अशुभ लेश्या घटाना । (१०) तीसरे से बारहवें देव लोक तक २७ बोलऊपर में से १ स्त्री वेद घटाना । ( १ ) नव ग्रथिवेक में २६ बोल - ऊपर में से १ मिश्र दृष्टि घटानी । थोडा संग्रह | ( १ ) पांच अनुत्तर विमान में २२ बोल । १ दृष्टि और ३ अज्ञान घटाना । + (३) पृथ्वी, अप, वनस्पति में १८ बोल । १ गति, १ इन्द्रिय, ४ कषाय, ४ लेश्या, १ योग, २ उपयोग, २ अज्ञान, १दर्शन, १ चारित्र, १ वेद एवं १८ । (२) तेउ - वायु में १७ बोल - ऊपर में से १ तेजो लेश्या घटाना । ( १ ) बेइन्द्रिय में २२ बोल - ऊपर के १७ बोलों में से १ रसेन्द्रिय, १ वचन योग, २ ज्ञान, १ दृष्टि एवं ५ बढ़ाने से २२ हुवे | Page #743 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव परिणाम पद । (७३१) (१) त्रि-इन्द्रिय में २३ बोल ऊपरोक्त २२ में १घ्राणेन्द्रिय बढानी। (१) चौरिन्द्रिय में २४ बोल-२३ में १ चनु इन्द्रिय' बढानी। (१) तिर्यच पंचेन्द्रिय में ३५ बोल १ गति, ५ इन्द्रिय,४ कषाय, ६ लेश्या, ३योग, २ उपयोग,६ज्ञान, ३ दर्शन, २ चारित्र, ३ वेद एवं ३५ बोल । (१) मनुष्य में ४७ बोल-५० में से ३ गति कम शेष सर्व पारे। ॥ इति जीव परिणाम पद सम्पूर्ण ॥ Page #744 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७३२ ) * अजीव परिणाम ( श्री पन्नवणाजी सूत्र, १३ वाँ पद ) जीव = पुद्गल का स्वभाव भी परिणमन का है इसके परिणाम के १० भेद हैं- १ बन्धन २ गति ३ संस्थान ४ भेद ५ वर्ष ६ गन्ध ७ रस ८ स्पर्श ६ अगुरुलघु और १० शब्द | थोकडा संग्रह | - १ बन्धन – स्निग्ध का बन्धन नहीं होवे, ( जैसे घी से घो नहीं बंदाय ) वैसे ही रुक्ष ( लूखा ) रुक्ष का बन्धन नहीं होवे (जैसे राख से राख तथा रेती से रेती नहीं बन्धाय ) परन्तु स्निग्ध और रुक्ष दोनों मिलने से बन्ध होता है ये भी आधा आधा ( सम प्रमाण में ) होवे तो बन्ध नहीं होवे विषम ( न्यूनाधिक ) प्रमाण में होवे तो बन्ध होवे; जैसे परमाणु परमाणु से नहीं बन्धाय परमाणु दो प्रदेशी आदि स्कन्ध से बन्धाय । २ गति - पुद्गलों की गति दो प्रकार की है, ( १ ) स्पर्श करते चले (जैसे पानी का रेला और ( २ ) स्पर्श किये बिना चले (जैसे आकाश में पक्षी ) ३ संस्थान - (आकार) कम से कम दो प्रदेशी जाव अनन्ता परमाणु के स्कन्धों का कोई न कोई संस्थान होता परिमंडल, वह, 1 त्रिकोन । इस के पांच भेद चोरस | आयतन Page #745 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजीव परिणाम । । ७३३) wwaranaamanar.nani.nn ४ भेद-पुद्गल पांच प्रकार से भेदे जाते हैं (भेदाते हैं) (१) खंडा भेद (लकड़ी पत्थर आदि के टुकड़े समान (२) परतर भेद (अवरख समान पुड़) (३) चूर्ण भेद (अनाज के आटे समान) (४) उकलिया भेद (कठोल की फलियां सूख कर फटे उस समान ) (५) अणनूडया ( तालाब की सूखी मिट्टी समान ) __ ५ वर्ण-मूल रंग पांच है-काला नीला लाल, पीला, सफेद, इन रंगों के संयोग से अनेक जाति के रंग बन सकते हैं जैसे-बादामी, केशरी, तपखीरी, गुलाबी, खाखी पादि। ६ गंध-सुगन्ध और दुर्गन्ध (ये दो गन्ध वाले पुद्गल होते हैं। ७ रस-मूल रस पांच है-तीखा, कड़वा कषायला, खट्टा, मीठा और क्षार (नमक का रस ) मिलाने से षट् रस कहलाते हैं। ___८ स्पर्श-आठ प्रकार का है कर्कश, मृदु, गुरु, लघु, शीत, उष्ण, रुक्ष, स्निग्ध । अगुरु लघु-न तो हलका और न भारी जैसे परमाणु प्रदेश, मन भ षा, कार्मण शरीर आदि के पुद्गल । १० शब्द-दो प्रकार के हैं-सुस्वर और दुःस्वर । ॥ इति अजीव परिणाम सम्पूर्ण ॥ Page #746 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७३४ ) थोडा संग्रह | * बारह प्रकार का तप ( श्री उबवाईजी सूत्र ) तप १२ प्रकार का है । ६ बाह्य तप ( १ अनशन २ उनोदरी ३ वृत्तिसंक्षेप ४ रस परित्याग ५ ] कात्रा क्लेश ६ प्रति संलिनता) और ६ आभ्यन्तर तप ( १ प्रायश्चित २ विनय ३ वैयावच्च ४ स्वाध्याय ५ ध्यान ६ कारसग्ग | ) १ अनशन के २ भेद - १ इत्वरीक अल्प काल का तप २ अवकालिक- जावजीव का तप । इत्वरीक तप के अनेक भेद हैं- एक उपवास, दो उपवास यावत् वर्षी तप ( १ वर्ष तक के उपवास ) 1 वर्षी तप प्रथम तीर्थ - कर के शासन में हो सकता है । २२ तीर्थंकर के शासन में८ माह और चरम ( अन्तिम ) तीर्थकर के समय में ६ माह उपवास करने का सामर्थ्य रहता है । अवकालिक - ( जावजीव का ) अनशन व्रत के २ भेद १ एक भक्त प्रत्याख्यान और २ पादोपगमन प्रत्याख्यान । एक भक्त प्रत्या० के २ भेद - ( १ ) व्याघात उपद्रव आने पर अमुक अवधि तक ४ आहार का पच्चखाण करे जैसे अर्जुनमाली के भय से सुदर्शन शेठ ने किया था । ( २ ) निर्व्याघात - ( उपद्रव रहित ) के दो भेद ( १ ) जावजीव तक ४ आहार का त्याग करे ( २ ) Page #747 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७३५ ) नित्य सेर, आधासेर तथा पाव सेर दूध या पानी की छूट रख कर जावजीव का तप करे । बारह प्रकार का तप । पादोपगमन - ( वृक्ष की कटी हुई डाल समान हलन चलन किये बिना पड़े रहे । इस प्रकार का संथारा करके स्थिर हो जाना ) अनशन के दो भेद - १ व्याघात ( अग्निसिंहादि का उपद्रव आने से ) अनशन करे जैसे सुकोशल तथा अति सुकुमाल मुनियों ने किया । २ निर्व्याघात ( उपद्रव रहित ) जावजीव का पादोपगमन करे | इनको प्रति क्रमणादि करने की कुछ आवश्यकता नहीं एक प्रत्याख्यान अनशन वाला जरुर करे । २ उनोदरी तप के दो भेद द्रव्य उनोदरी और भाव उनोदरी द्रव्य उनोदरी के २ भेद (१) उपकरण उनोदरां ( वस्त्र, पात्र और इष्ट वस्तु जरुरत से कम रक्खे - भोगवे ) २ भाव उनादरी के अनेक प्रकार है । यथा अल्पाहारी ८ कवल ( कवे ) आहार करे, अल्प अर्ध उनोदरी वाले १२ कवल ले, अर्ध उनोदरी करे तो १६ कवल ले, पौन उनोदरी करे तो २४ कवल ले, एक कवल उनोदरी करे तो ३१ कवल ले ३२ कवल का पूरा आहार समझना इस से जितने कवल कम लेवे उतनी ही उनोदरी होवे उनोदरी से रसेंन्द्रिय जीताय, काम जीताय, निरोगी होवे । भाव उनोदरी के अनेक भेद - अल्प क्रोध, अल्प Page #748 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७३६ ) थोकडा संग्रह । मानं, अल्प माया, अल्प लोभ, अल्प राग, अल्प द्वेष, अल्प सोवे, अल्प बोले आदि । 1 ३ वृत्ति संक्षेप ( भिक्षाचरी) के अनेक भेदअनेक प्रकार के अभिग्रह धारण करे जैसे द्रव्य से मुक वस्तु ही लेना, अक नहीं लेना । क्षेत्र से अनुक घर, गाँव के स्थान से ही लेने का अभिग्रह | काल से अमुक समय, दिन को व महिने में ही लेने का अभिग्रह | भाव से अनेक प्रकार के अभिग्रह करे जैसे बर्तन में से निकालता देवे तो कल्पे, बर्तन में डालता देवे तो कल्पे, अन्य को देकर पीछे फिरता देवे तो कल्पे, अमुक वस्त्र आदि वाले तथा *मुक प्रकार से तथा अमुक भाव से देवे तो कल्पे इत्यादि अनेक प्रकार के अभिग्रह धारण करें । ४ रस परित्याग तप के अनेक प्रकार है- विगय (दूध, दही, घी, गुड़, शक्कर, तेल, शहद, मख्खन आदि) का त्याग करे । प्रणीत रस ( रस करता हुवा (आहार) का त्याग करे, निवि करे, एकासन करे, आयं बिल करे, पुरानी वस्तु, बिगड़ा हुवा अन्न, लूखा पदार्थ आदि का आहार करे | इत्यादि रस वाले आहार को छोड़े । ५ काया क्लेश तप के अनेक भेद है- एक ही स्थान पर स्थिर हो कर रहे, उकडु - गौदुह - मयुरासन पद्मासन आदि ८४ प्रकार का कोई भी आसन कर के बैठे । Page #749 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७३७ ) साधु की १२ पडिमा पालना, आतापना लेना वस्त्र रहित रहना, शीत-उष्णता ( तड़का ) सहन करना परिषद्द सहना । थूकना नहीं, कुल्ला करना नहीं, दान्त धोने नहीं, शरीर की सार संभाल करना नहीं । सुन्दर वस्त्र पहिरना नहीं, व ठोर वचन गाली, मार प्रहार सहना, लोच करना नंगे पैर चलना आदि । ६ प्रति संलिनता तप के चार भेद - १ इन्द्रिय संलिनता २ कपाय संलिनता, ३ योग संलि० ४ विविध शयनासन संलि० (१) इन्द्रिय संलिनता के ५ भेद( पांचों इन्द्रियों को अपने २ विषय में राग द्वेष करते रोकना ) (२) कपाच संलि० के चार भेद - १ क्रोध घटा कर क्षमा करना । २ मान घटा कर विनीत बनना ३ माया को घटा कर सरलता धारण करना ४ लोभ को घटा कर संतोष धारण करना । (३) योग प्रति संलिनता के तीन भेद - मन, वचन, काया को बुरे कामों से रोक कर सन्मार्ग में प्रवर्तावना । (४) विविध शयासन सेवन प्रति संलि० के अनेक भेद हैं- उद्यान चैत्य, देवालय, दुकान, वखार, श्मशान, उपाश्रय आदि स्थानों पर रह कर पाट, पाटले, बाजीद, पाटिये, बिछाने, वस्त्र - पात्रादि फ्रासुक स्थान अंगीकार करके विचरे । बारह प्रकार का तप | अभ्यन्तर तप का अधिकार १ प्रायश्चित के १० मेद्र - १ गुर्वादि सन्मुख Page #750 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७३८ ) थोकडा संग्रह | पाप प्रकाशे २ गुरु के बताये हुवे दोष और पुनः ये दोष नहीं लगाने की प्रतिज्ञा करे ३ प्रायश्चित प्रतिक्रमण करे ४ दोषित वस्तु का त्याग करे ५ दश, वीश, तीरा, चालीश लोगस्स का काउसग्ग करे ६ एकाशन, आयंबील यावत् छमासी तप करावे, (७) ६ छमास तक की दीक्षा घट वे ८ दीक्षा घटा कर सब से छोटा बनावे ६ समुदाय से बाहर रख कर मस्तक पर श्वेत कपड़ा ( पाटा ) बन्धवा कर साधुजी के साथ दिया हुआ। तप करे १० साधु वेष उतरवा कर गृहस्थ वेष में छमाह तक साथ फेर कर पुनः दीक्षां देवे | २ विनय के भेद - मतिज्ञानी, श्रुत ज्ञानी अवधि ज्ञानी, मनः पर्यव ज्ञानी, केवल ज्ञानी आदि की अशातना करे नहीं, इनका बहुमान करें, इनका गुण कीर्तन कर के लाभ लेना । यह ज्ञान विनय जानना | चारित्र विनय के ५ भेद-पांच प्रकार के चारित्र वालों का विनय करना । योग विनय के ६ भेद-मन, वचन, काया ये तीनों प्रशस्त और अप्रशस्त एवं ६ भेद है । अप्रशस्त काय विनय के ७ प्रकार अयत्ना से चले, बोले, खड़ा रहे, बैठे, सोवे, इन्द्रिय स्वतन्त्र रक्खे, तथा अंगोपांग का दुरुपयोग करे ये सातों यत्ना से करे तो अप्रशस्त विनय और यस्ता पूर्वक प्रवर्तावे सो प्रशस्त विनय । Page #751 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारह प्रकार का तप। ( ७३६) व्यवहार विनय के ७ भेद-१ गुर्वादि के विचार अनुसार प्रवर्ते, २ गुरु आदि की आज्ञानुसार वर्ते ३ भात पानी आदि लाकर देवे ४ उपकार याद कर के कृतज्ञता पूर्वक सेवा करे ५ गुवादि की चिन्ता-दुख जान कर दूर करने का प्रयत्न करे ६ देश काल अनुसार उचित प्रवृत्ति करे ७ निंद्य (किसी को खराब लगे ऐसी) प्रवृत्ति न करे ३ यावच्च (सेवा) तप के १० भेद-१आचार्य की २ उपाध्याय की ३ नव दीक्षित की ४ रोगी की ५ तपस्वी की ६ स्थविर की ७ स्वधर्मी की ८ कुल गुरू की ह भणावच्छेक की १० चार तीर्थ की वैयावच्च (सेवा-भक्ति ) करे। ४ स्वाध्याय तप के ५ भेद-१ सूत्रादि की वांचना लेवे व देवे २ प्रश्नादि पूछकर निर्णय करे ३ पढे हुवे ज्ञान को हमेशा फेरता रहे ४ सूत्र-अर्थ का चितवन करता रहे ५ परिषदा में चार प्रकार की कथा कहे। ५ ध्यान तप के ४ भेद-पात ध्यान, रौद्र ध्यान, धर्म ध्यान, शुक्ल ध्यान । बात ध्यान के चार भेद-१ अमनोज्ञ (अप्रिय) वस्तु का वियोग चिंतवे २ मनोज्ञ (प्रिय ) वस्तु का संयोग चिंतये ३ रोगादि से घबराई ४ विषय-भोगों में भासक्त बना रहे उसकी गृद्धि से दुख होवे । चार लक्षण.. १ आक्रंद करे २ शोक करे ३ रुदन करे ४ विलाप करे। Page #752 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७४०) थोकडा संग्रह। रौद्र ध्यान के चार भेद-हिंसा में, असत्य में, चोरी में, और भोगोपभोग में आनन्द माने । चार लक्षण १ जीव हिंसा का २ असत्य का ३ चोरी का थोड़ा बहुत दोष लगावे ४ मृत्यु-शय्या पर भी पाप का पश्चाताप नहीं करे। धर्म ध्यान के भेद-चार पाये-१ जिनाज्ञा का विचार २ रागद्वेष उत्पत्ति के कारणों का विचार ३ कर्म विपाक का विचार ४ लोक संस्थान का विचार । चार रुचि-१ तीर्थकर की आज्ञा आराधन करने की रुचि २ शास्त्र श्रवण की रुचि ३ तत्वार्थ श्रद्धा की रुचि ४ सूत्र सिद्धान्त पढ़ने की रुचि । चार अवलम्बन-१ सूत्र सिद्धान्त की वाचनालेना व देना २ प्रश्नादि पूछना ३ पढ़े हुवे ज्ञान को फेरना ४ धर्म कथा करना चार अनुप्रेक्षा-१ पुद्गल को अनित्य नाशवन्त जाने २ संसार में कोई किसी को शरण देने वाला नहीं ऐसा चितवे ४ में अकेला हूं ऐसा सांचे ४ संसार स्वरुप विचारे एवं धर्म ध्यान के १६ भेद हुवे । शुक्ल ध्यान के १६ भेद-१ पदार्थों में द्रव्य गुण पर्याय का विविध प्रकार से विचार करे २ एक पुद्गल का उन्मादादि विचार बदले नहीं ३ सूक्ष्म ईविहि क्रिया लागे परन्तु अपायी होने से बन्ध न पड़े ४ सर्व क्रिया Page #753 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारह प्रकार का तप । ( ७४१) का छेद करके अलेशी बन । चार लक्षण-१ जीव को शिव रुप-शरीर से भिन्न समझे २ सर्व संग को त्यागे ३ चपलता पूर्वक उपसर्ग सहे ४ मोह रहित वर्ने। चार अवलंबन-१ पूर्ण क्षमा २ पूर्ण निर्लेभिता ३ पूर्ण सरलता ४पूर्ण निरभिमानता चार अनुप्रेक्षा-२ प्राणातिगत आदि पाप के कारण सोचे २ पुगल की अशुभता चिंतये ३ अनन्त पुद्गल परावर्तन का चितवन करे ४ द्रव्य के बदलने वाले परिणाम चिंतवे । ६ कायोत्सर्ग तप के दो भेद-१ द्रव्य कायोत्सर्ग २ भाव कायोत्सर्ग । द्रव्य कायोत्सर्ग के चार भेद-१ शरीर के ममत्व का त्याग करे २-सम्प्रदाय के ममत्व का त्यागकरे ३ वस्त्र पात्रादि उपकरण का ममत्व त्यागे ४ श्राहार पानी आदि पदार्थों का ममत्व त्यागे । भाव कायोत्सगंके ३ भेद-१ कषाय कायोत्सर्ग (४ कपाय का त्याग करे ) २ संसार कायोत्सर्ग ( ४ गति में जाने के कारण बन्ध करना) ३ कमें कायोत्सर्ग ( ८ कर्म बन्ध के कारण जान कर त्याग करे) ___ इस प्रकार कुल बारह प्रकार के तप के सर्व ३५४ भेद उववाई सूत्र से जानना । ॥ इति बारह तप का विस्तार ॥ इति श्री थोकड़ा संग्रह समाप्त Page #754 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धीर भगवान् की पवित्र वाणी का ____ अपूर्व संग्रह निग्रंथ- प्रवचन संग्रह कर्ता प्रखर पंडित मुनिश्री चौथमलजी महाराज यह ग्रंथ भगवान महावीर के उपदेश रूप समुद्र से निकाले हुए अपूर्व धर्म रत्नों का खजाना है । ग्रंथकारने अपने जीवन के अनुभव और परिश्रम का पूर्ण उपयोग करके इस संग्रह को तैयार किया है। इसमें गृहस्थ धर्म, मुनि धर्म, आत्म शुद्ध, ब्रह्मचर्य, लेश्या, पर द्रव्य, नर्क स्वर्ग आदि अनेक विषयों पर जैन सूत्रों में से खोज खोज कर गाथाएं संग्रह की गई हैं। पहिले मूल गाथा- और उसका अर्थ और फिर उसका सरल भावार्थ देकर प्रत्येक विषयको स्पष्ट रूपसे समझ या गया है। न्त में जिन सूत्रों से गाथाएं संग्रह की गई हैं उनका नाम और अध्याय नं० देकर सोने में मुगन्ध ही कर दिया है। इस एक ग्रंथ द्वारा ही अनेक सूत्रों का सार सहज में प्राप्त होजायगा । ३५० पृष्ठ और सुनहरा जिन्दसे सुसज्जित इस ग्रंश का मूल्य केवल ।) मात्र । शीघ्र मंगाइए अन्यथा दूस संस्करण की प्रतीक्षा करना पड़ेगी। पता-श्रीजनोदय पुस्तक प्रकाशक समिति, रतलार Page #755 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छप गया! छप गया !! छप गया !!! स्था० जैन साहित्य का चमकता हुआ सितारा, भगवान् महावीर का आदर्श जीवन लेखक-प्रखर पंडित मुनि श्री चौथमलजी महाराज सच्ची ऐतिहासिक घटनाओं का भण्डार वैराग्य रस का जीता जागता श्रादर्श, राष्ट्र--नीति व धर्म-नीति का खजाना सुमधुर--ललित भाषा का प्राण, सजीव भाषा में विरचित भर वान् महावीर का आद्योपान्त जीवन चरित्र छप कर तैयार है। जिसकी जगत् वल्लभ प्रसिद्धवक्ता पं. मुनि श्री चौथमल जी महाराज सा० ने साधुवृत्ति की अनेक कठिनाइयों का सामना करके अपने अमूल्य समय में रचना की है। संसार की कैसी विकट परिस्थिति में भगवान का अवतार हुआ ? भगवान् ने किस धीरवीरता के साथ उन विकट परि. स्थितियों का समूल नाश कर अमर शांति का एक छत्र शासन स्थापित किया, लोक कल्याण के लिये कैसे कैसे अला परिषहों को सहन किया? आदि रद पूर्ण घटनाओं का रूचा हाल पुस्तक के पढ़ने से ही विदित होगा । स्थानाभाव से हम यहां उसका विस्तृत वर्णन नहीं कर सकते । अथाह संसार सागर को पार करने के लिए यह जीवनी प्रगाढ़ नौका का काम देगी। इस की एक एक प्रति तो प्रत्येक सद्गृहस्थ को अवश्य ही अपने पास रखना चाहिए । बड़ी साइज के लगभग ६५० पृष्ठ सुनहरी जिल्द तिसपर भी मूल्य केवल २॥) मात्र । शीव्र मंगाकर पढ़िये। अन्यथा द्वितीय संस्करण की प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। .. पता-श्री जैनोदय पुस्तक प्रकाशक समिति, रतलाम. Page #756 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 455 अवश्य पढ़िये ज्ञान वृद्धि के लिए पुस्तकें मंगवा कर वितरण कीजिये. भगवान् महावीर सजिल्द 2|) सत्योपदेश भजनमाला // ( बड़ी साइज़ के 650 पृष्ठ) , तृतीय भाग. - // ) श्रादर्श मुनि सजिल्द 11) जैनस्तवन बाटिका " गुजराती 11) सद्बोध प्रदीप जैन सुबोध गुटका जन सुखचैन बहार भा० 1 समकितसार जैन गजल बहार निग्रंथ प्रवचन सजिल्द तमाखू निषधे उद्घोषणा // ) मनोरंजन गुच्छा महावीर स्तोत्र सार्थ ) सुश्रावक अरणकजी सुखसाधन अष्टादश पापनिषेध उदयपुर में अपूर्व उपकार / भ्रम निकन्दन इक्षुकाराध्ययन सचित्र. ) जम्बू चरित्र मुखवास्त्रिका निर्णय सचित्र ) धर्मबुद्धि चरित्र महाबल मलिया चरित्र ) सुश्रावक कामदेवजी . स्था. की प्राचीनता सिद्धि / काव्य विलास व्याख्यान मोक्तिकमाला चम्पक चरित्र भग. महावीर का दिव्यसंदेश =) // सामायिक सूत्र जेन स्तवन मनोहर माला का भक्तामरादि स्तोत्र , द्वितीयभाग जैन मनमोहन माला श्रादर्श तपस्वी लघु गौतम पृच्छा पार्श्वनाथ चरित्र सविधि प्रतिक्रमण मुखवत्रिका की प्रा०सिद्धि =) सीता बनवास मूल सीतावनवास सार्थ ) प्रदेशी चरित्र पता: श्रीजैनोदय पुस्तक प्रकाशक समिति, रतलाम