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________________ ( १६७ ) २२ बलद (ऋषभ ) प्रमुख पशु अल्पायुषी होवे । २३ साधु साध्वियों के मास, कल्प, चतुर्मास आदि में रहने योग्य क्षेत्र कम होवे | छः आरों का वर्णन | २४ साधु की १२ प्रतिमा व श्रावक की ११ प्रतिमा के पालक नहीं होवे ( श्रावक की ११ प्रतिमा का विच्छेद कोई कोई नहीं मानते ) | २५ गुरु शिष्य को पड़ावे नहीं । २६ शिष्य विनीत (क्लेसी ) होवे | २७ अधर्मी, क्लेशी, कदाग्रही, धूर्त, दगाबाज व दुष्ट मनुष्य अधिक होवे | २८ श्राचार्य अपने गच्छ व सम्प्रदाय की परंपरा समाचारी अलग अलग प्रवतावेगें तथा मूर्ख मनुष्यों को मोह मिथ्यात्व के जाल में डालेंगे, उत्सूत्र प्ररुपक लोगों को भ्रम में फसाने वाले, निन्दनीक कुबुद्धिक व नाम मात्र के धर्मी जन होयेंगे व प्रत्येक आचार्य लोगों को अपनी २ परंपरा में रखने वाले होवेंगे । २६ सरल, भद्रिक, न्यायी, प्रमाणिक पुरुष कम होवे । ३० म्लेछ राजा अधिक होवे | ३१ हिन्दू राजा अल्प ऋद्धि वाले व कम होवे । ३२ सुकुलोत्पन्न राजा नीच कर्म करने वाले होवे । इस आरे में धन सर्व विच्छेद हो जावेगा, लोहे की For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002997
Book TitleJainagama Thoak Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year1935
Total Pages756
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Philosophy
File Size23 MB
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